Showing posts with label भारत. Show all posts
Showing posts with label भारत. Show all posts

Thursday, July 30, 2009

शिक्षा के क्षेत्र में ओबामा की पहल

अमरीका में भारत और चीन से जाकर शिक्षा लेने वाले बच्चों की बहुत इज्जत है। राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा है कि अमरीका की शिक्षा व्यवस्था इस तरह की बनाई जाएगी कि वह भारत और चीन की शिक्षा के स्तर से मुकाबला कर सके। सच्चाई यह है कि अमरीका में शिक्षा का स्तर बहुत ऊंचा है, वहां कोई समस्या नहीं है। मुसीबत यह है कि अमरीकी नौजवान शिक्षा के प्रति उतना गंभीर नहीं है जितना भारतीय और चीनी नौजवान है।

नई शिक्षा व्यवस्था शुरू करने से ओबामा की योजना है कि अधिक से अधिक अमरीकी नौजवान ग्रेजुएट स्तर की शिक्षा और काम करने की कुशलता सीखे। ओबामा की इस योजना को अमेरिकन ग्रेजुएशन इनीशिएटिव नाम दिया गया है। उनकी कोशिश है कि ज्यादा से ज्यादा लोग सामुदायिक कालेजों में जायं और काम करने के लिए कुछ नई योग्यताएं हासिल करें। उस योजना में अगले दस वर्षों तक 12 अरब डॉलर खर्च किया जाएगा। इस धन की व्यवस्था उस सब्सिडी को काटकर की जाएगी जो अभी बैंकों और प्राइवेट वित्तीय संस्थानों दी जाती है जिससे वे मंहगी शिक्षा के लिए दिए जाने वाले कर्ज की ब्याज दर कम करने के लिए इस्तेमाल करते हैं।

सब्सिडी काटकर ओबामा ने यह ऐलान कर दिया है कि संपन्न वर्गों को ज्यादा सुविधा न देकर उनका प्रशासन अब आम आदमी की तरफ ज्यादा ध्यान देगा। बराक ओबामा का अमेरिकन ग्रेजुएशन इनीशिएटिव एक महत्वपूर्ण योजना है। द्वितीय विश्व युद्घ के बाद प्रेसिडेंट ट्रमैन ने शिक्षा के क्षेत्र में बहुत ही महत्वपूर्ण पहल की थी। उसके बाद से इतने बड़े पैमाने पर शिक्षा के क्षेत्र में कोई पहल नहीं हुई। दरअसल उच्च शिक्षा के लिए ओबामा की यह पहल बेरोजगारी की समस्या को हल करने की दिशा में दूरगामी और महत्वपूर्ण कदम है।

अमरीकी अर्थव्यवस्था के विकास के बाद ऐसा माहौल बन गया था कि हाई स्कूल तक की पढ़ाई करने के बाद बच्चे कोई न कोई नौकरी पा जाते थे। इसीलिए उच्च शिक्षा के लिए एशिया के देशों, खासकर भारत और चीन के बच्चों को फेलोशिप आदि देकर अमरीकी विश्वविद्यालयों में रिसर्च करने के लिए उत्साहित किया जाता था। नतीजा यह हुआ है कि निचले स्तर पर तो बड़ी संख्या में अमरीकी नौजवान काम कर रहा है लेकिन ऊपर के स्तर पर विदेशियों की संख्या ज्यादा है। ग्रेजुएशन इनीशिएटिव के माध्यम से ओबामा की कोशिश है कि बड़ी से बड़ी संख्या में अमरीकी नौजवान अच्छी शिक्षा लेकर नौकरियों की ऊपरी पायदान पर पहुंचे जिससे अमरीकी समाज और राष्ट्र का भला हो।

किसी भी राष्ट्र की तरक्की में शिक्षा के महत्व और उसकी मुख्य भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता भारत में पिछड़ेपन का मुख्य कारण शिक्षा की कमी ही थी। आज़ादी के बाद जवाहरलाल नेहरू की दूर तक सोच सकने की क्षमता का ही नतीजा था कि उन्होंने बड़ी संख्या में विश्व स्तर के शिक्षा केंद्रों की स्थापना की। सामाजिक जीवन में सक्रिय लोगों को भी स्कूल कालेज खोलने की प्रेरणा दी। नतीजा यह हुआ कि बड़े पैमाने पर शिक्षा का प्रचार-प्रसार हुआ। भारत में शिक्षा के क्षेत्र में आजादी के बाद की गई पहल का नतीजा था कि देश के कई हिस्सों, खासकर दक्षिण भारत में बड़ी संख्या में प्राइवेट शिक्षा संस्थाओं की स्थापना हुई।

जब 1991 में डा. मनमोहन सिंह को वित्तमंत्री बनाया गया तो उन्होंने आर्थिक विकास को उदारीकरण और वैश्वीकरण के रास्ते पर डाल दिया। उन्होंने कहा कि नौजवानों में कौशल के विकास और अच्छी शिक्षा के बिना कोई भी लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सकता था। शिक्षा के महत्व को डा. मनमोहन सिंह से बेहतर कौन समझ सकता था। अविभाजित पंजाब के एक छोटे से गांव में पैदा हुए मनमोहन सिंह ने शिक्षा के बल पर ही समाज में इज्जत पाई थी और वर्तमान पद पर भी वे उच्च शिक्षा के बल पर पहुंचे है।

1991 में की गई उनकी शुरुआत का ही नतीजा है कि देश में शिक्षा संस्थाओं की बाढ़ आ गई है। कुछ धूर्त किस्म के लोगों ने भी उच्च शिक्षा के केंद्र खोल कर कमाई शुरू कर दी है लेकिन समय के साथ-साथ सब ठीक हो जाएगा। बराक ओबामा भी शिक्षा के बल पर ही अपनी वर्तमान पोजीशन तक पहुंचे है। उन्हें भी मनमोहन सिंह की तरह ही शिक्षा का महत्व मालूम है। शायद इसीलिए शिक्षा व्यवस्था में सुधार के रास्ते वे अमरीकी समाज को तरक्की के रास्ते पर एक बार फिर से डालने की कोशिश कर रहे है।

सीपीएम से दूर भागता मध्यवर्ग

मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने केरल के मुख्यमंत्री वी एस अच्युतानंदन को पोलिट ब्यूरो से निकाल दिया है। उन्हें पार्टी के राज्य सचिव पिनयारी विजयन के विरोध के कारण जाना पड़ा। जबसे विजयन के ऊपर भ्रष्टाचार का मामला चला अच्युतानंदन के लिए बहुत मुश्किल पेश आ रही थी। वी एस अच्युतानंदन मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापकों में से एक हैं।

1964 में उस वक्त की भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के दो टुकड़े हो गए थे। कम्युनिस्ट पार्टी के अधिकारिक नेतृत्व का विश्वास था कि देश उस वक्त नैशनल डेमाक्रेटिक रिवोल्यूशन के दौर से गुजर रहा है और उस वक्त की सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी साम्राज्यवाद से मोर्चा ले रही है, इसलिए कांग्रेस की थोड़ी बहुत आलोचना करके उसका सहयोग किया जाना चाहिए। इसके विपरीत पार्टी के एक बड़े वर्ग का मत इससे अलग था। दूसरे वर्ग की समझ थी कि देश उस वक्त पीपुल्स डेमाक्रेटिक रिवोल्यूशन के दौर से गुजर रहा था। उस वक्त की सरकार का नेतृत्व कांग्रेस पार्टी कर रही थी।

कांग्रेस एक बुर्जुवा जमींदार वर्ग की पार्टी थी। सरकार के असली मालिक एकाधिकार पूंजीपति थे और कांग्रेस सरकार का नियंत्रण साम्राज्यवादी ताकतों के हाथ में था। इसलिए कांग्रेस के साथ किसी तरह का सहयोग नहीं किया जाना चाहिए। उसे वर्ग शत्रु की श्रेणी में ही रखा जाना चाहिए। तत्कालीन कम्युनिस्ट पार्टी की नेशनल कौंसिल के नेता विचाराधारा के इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर बंटे हुए थे। 1964 में नेशनल कौंसिल की जिस बैठक में इस विषय पर बहस चल रही थी, उसमें देश के लगभग सभी बड़े वामपंथी नेता थे।

जब बातचीत के रास्ते एकमत से फैसला नहीं हो सका तो अधिकारिक लाइन के विरोध में 32 सदस्यों ने नेशनल कौंसिल की बैठक से वाक आउट किया। जो सदस्य वाक आउट करके बाहर आए वे एक नई पार्टी के संस्थापक बने और उस पार्टी का नाम रखा गया, भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माक्र्सवादी)। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेतागण तो कांग्रेस के सहयोगी हो गए क्योंकि वे कांग्रेस के माध्यम से साम्राज्यवाद से लडऩा चाहते थे। दूसरी तरफ मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं के खिलाफ सरकार की सारी ताकत झोंक दी गई।

सभी बड़े नेताओं को जेल में डाल दिया गया, उनके ऊपर देशद्रोही होने तक के आरोप लगाए गए लेकिन वे 32 कम्युनिस्ट नेता अपने निश्चय पर डटे रहे। उन नेताओं में प्रमुख थे ए.के. गोपालन, ज्योति बसु, हरिकिशन सिंह सुरजीत, प्रमोद दासगुप्ता, ई एम एस, नंबू दिरीपाद, बीटी रणदिवे, पी. सुंदरैया, एम बासवपुनैया, वी एस अच्युतानंदन आदि। आंध्र प्रदेश के तेनाली में पार्टी कार्यकर्ताओं का सम्मेलन करके एक पार्टी की कांग्रेस का अधिवेशन बुलाया गया। सीपीएम का इसी अधिवेशन में जन्म हुआ और अप्रैल में नैशनल कौंसिल से वाक आउट करने वाले वे 32 नेता माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक माने गए।

उन संस्थापकों में दो को छोड़कर लगभग सभी की मृत्यु हो चुकी है। ज्योति बसु और वी एस अच्युतानंदन जीवित हैं। उन्हीं वी एस अच्युतानंदन को दिल्ली में 12 जुलाई को खत्म हुई सीपीएम की केंद्रीय कमेटी ने पोलिट ब्यूरो से निकाल दिया। उन्हें राज्य के मुख्यमंत्री के रूप में काम करने से नहीं रोका जाएगा उन पर आरोप है कि उन्होंने पार्टी का अनुशासन तोड़ा है। क्योंकि उन्होंने पार्टी के राज्य सचिव पिनरायी विजयन के एसएनसी-लावलिन भ्रष्टाचार मामले में उनका बचाव नहीं किया। पिनरायी विजयन पर सीबीआई आरोप है कि 1996-98 के दौरान जब वे राज्य के बिजली मंत्री थे तो उन्होंने बिजली घरों की मरम्मत के मामले में ठेकेदार कंपनी से रिश्वत लिया था।

इसी मामले में सीबीआई उन पर मुकदमा चला रही है। सीपीएम की केंद्रीय कमेटी विजयन पर चलाए जा रहे भ्रष्टाचार के मामले को राजनीतिक मानती है। उसका कहना है कि इसका राजनीतिक रूप से मुकाबला किया जाना चाहिए। पिनरायी विजयन के इस कथित भ्रष्टï आचरण के बारे में वी एस अच्युतानंदन का कहना था कि सार्वजनिक जीवन में काम करने वाले व्यक्ति को ईमानदार होना चाहिए और लोगों को लगे भी कि वह ईमानदार है। पिनरायी विजयन के प्रति इस रवैय्ये के चलते अच्युतानंदन को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया।

इस फैसले के बाद केरल में माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ताओं में जबरदस्त गुस्सा फूट पड़ा, जगह-जगह विजयन के पुतले जलाए गए, पार्टी के सर्वोच्च अधिकारी प्रकाश करात के खिलाफ नारे लगाए गए और अन्य तरीकों से वामपंथी कार्यकर्ताओं ने अपने गम और गुस्से का इज़हार किया। पिनरायी विजयन के गांव में भी बहुत बड़ी संख्या में पार्टी कार्यकर्ता जुटे और केंद्रीय नेतृत्व को फजीहत किया। बाद में विजयन के खिलाफ जुलूस निकाला। वी एस अच्युतानंदन के खिलाफ हुई माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की कार्रवाई से केरल ही नहीं पूरे देश का मध्य वर्ग हतप्रभ है। उसे लगता है कि एक ईमानदार आदमी को उसकी ईमानदारी की सजा दी गई है।

जिन्हें पता है वे जानते हैं कि केरल के मुख्यमंत्री देश के सबसे ईमानदार मुख्य मंत्रियों में से एक हैं, फिर भी उन्हें भ्रष्टाचार के एक अभियुक्त के खिलाफ पोजीशन लेने के लिए दंडित होना पड़ा। कुछ वामपंथी बुद्घिजीवियों का कहना है कि केरल के मुख्यमंत्री के खिलाफ की गई सीपीएम की कार्रवाई लगभग उसी तर्ज पर है जिसमें लोकसभा के तत्कालीन अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी को पार्टी से निकाल दिया था। पार्टी के आला अफसर ने तो केरल के मामले में भी पोलिट ब्यूरो और मुख्यमंत्री पद दोनों से वीएस अच्युतानंदन को हटाने का सुझाव दिया था लेकिन बड़ी संख्या में केंद्रीय कमेटी सदस्यों ने उनका विरोध किया और उन्हें मानना पड़ा।

मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी में जारी उथल पुथल के लिए आमतौर पर वर्तमान महासचिव प्रकाश करात को जिम्मेदार माना जा रहा है। जानकार बताते हैं कि सीपीएम का इस बार जैसा कमजोर चुनावी प्रदर्शन कभी नहीं रहा। 1964 में कांग्रेस सरकार ने पार्टी के सभी बड़े नेताओं को जेल में बंद कर दिया था लेकिन जब 1965 में केरल में चुनाव हुए तो सीपीएम सबसे बड़ी पार्टी बनकर आई क्योंकि पार्टी के शीर्ष नेताओं की विश्वसनीयता पर कभी सवाल नहीं उठा था। मौजूदा नेतृत्व के कार्यभार संभालने के बाद हुए पहले लोकसभा चुनाव में पार्टी की ताकत आधे से भी कम हो गई है।

केरल में तो बुरी तरह से हार चुके हैं, बंगाल में भी प्रणब मुखर्जी, ममता बनर्जी की टीम कम्युनिस्ट राज अंत करने की मंसूबाबंदी कर चुकी है। इस सबके पीछे नेतृत्व की हठधर्मिता कहीं न कहीं जरूर है वरना एक समय था जब कम्युनिस्ट पार्टी के नेता मध्य वर्ग के एक बड़े तबके के हीरो हुआ करते थे। सोमनाथ चटर्जी को अपमानित करके बंगाली मध्य वर्ग को पार्टी ने जबरदस्त चोट दी थी, नतीजा लोकसभा चुनावों में हार के रूप में सामने आया। अब केरल के सबसे आदरणीय दलित नेता को अपमानित करके माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने बड़ा खतरा लिया है। वक्त ही बताएगा कि पार्टी के मौजूदा महासचिव, पार्टी को कहां तक ले जाते हैं।

Wednesday, July 29, 2009

ज़रदारी की पीड़ा

जब तक बिल्ली अपने खूनी पंजों से दूसरों को लहुलहान करती रही तब तक पाकिस्तानी शासक बड़ी ही स्पष्टता से इस सच्चाई को नकारते रहे कि इस खूनी बिल्ली से उनका कोई रिश्ता है और वो यह भी कहते रहे कि बिल्ली को पालने वाले तथा उसे दूध और गोश्त की आपूर्ति करने वालों को भी वो नहीं जानते लेकिन जब उस खूंखार बिल्ली ने उनके ही मुंह पर पंजे गड़ाने शुरु किए तो पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी को भी कहना पड़ा कि 'हमारी बिल्ली हम ही से म्याऊं'।

कहने का तात्पर्य यह है कि जब सारी दुनिया चीख चीख कर कह रही थी कि पाकिस्तान आतंकवादियों की सुरक्षित पनाहगाह बन गया है तो पाकिस्तान सरकार इन आरोपों को निराधार बताकर अपना दामन साफ बचाती रही जिसका दुष्परिणाम यह निकला कि पाकिस्तान के हालात अब इतने भयानक हो गए है कि जिनकी मात्र कल्पना ही की जा सकती है। इसीलिए विगत दिन राष्टï्रपति आसिफ अली जरदारी को अपने निवास पर उच्च अधिकारियों व सेवानिवृत संघीय सचिवों की बैठक में बिना लाग लपेट के इस कड़वी सच्चाई को हलक से उतारकर यह स्वीकार करना पड़ा कि आतंकवादी पाकिस्तान में ही तैयार हो रहे है।

जरदारी का कहना है कि उनके देश ने ही आतंकवाद और कट्टरपंथ को पाल-पोस कर बड़ा किया है क्योंकि ऐसा करने के पीछे कोई तात्कालिक लाभ हासिल करना था। जरदारी का कहना है कि ऐसा भी नहीं है कि देश में आतंकवाद और कट्टरपंथ इस वजह से फला-फूला कि पाकिस्तान की राजनीतिक व प्रशासनिक ताकत कमजोर हुयी थी बल्कि कुछ राजनीतिक उद्देश्यों को तुरंत प्राप्त करने के लिए आतंकवाद को एक सशक्त हथियार के रूप में खड़ा करने की नीति अपनायी गयी। वही नीति अब पाकिस्तान की तबाही व बर्बादी का सबब बन रही है।

हालांकि जरदारी ने यह स्पष्ट नहीं किया कि वो तत्कालिक लाभ क्या थे जिन्हें हासिल करने के लिए पाक शासकों को आतंकवाद का सहारा लेना पड़ा लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि वो तात्कालिक लाभ भारत को कमज़ोर करना ही था। जहां तक भारत का सवाल है तो वो पिछले एक दशक से भी ज्यादा समय से पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद का दंभ झेल रहा है और वो कहता रहा है कि कश्मीर में आतंकवाद के व्यापक प्रचार व प्रसार में सारा धन व बल पाकिस्तान की ज़मीन से ही मिल रहा है।

लेकिन पाकिस्तनी शासक जानबूझ कर इस सच्चाई पर पर्दा डालते रहे। मगर इस हकीकत से सारी दुनिया अच्छी तरह बाखबर थी! इसलिए जहां तक राष्टï्रपति जरदारी की बात है तो उन्होंने कोई बहुत बड़ा रहस्योदघाटन नहीं किया है बस एक सच्चाई को अपने मुंह से बयान कर सरकारी मुहर लगायी है। यद्यपि वो आतंकवाद के खिलाफ शुरु से ही बोलते रहे है लेकिन मुबंई हमलों के बाद सारी सच्चाई जानते हुए भी उनके विचार जिस तरह रोज़ रंग बदलकर सामने आए थे तो यही लगा था कि सच कहने से वो भी बच रहे हैं।

पर अब न जाने उन्हें यह साधूवाद अचानक कैसे प्राप्त हुआ कि एक ही झटके में उन्होंने अपने देश के पूर्व शासकों का कच्चा चिट्ठा खोलकर रख दिया। इसकी बड़ी वजह यही हो सकती है कि आज पाकिस्तान गृहयुद्घ के कगार पर है अर्थव्यवस्था चौपट हो चुकी है, प्रांतवाद व विभिन्न सम्प्रदायों के बीच वैमनस्य चरम पर है। एक ओर तालिबान व अलकायदा के गुर्गे अपने बनाए हुए 'इस्लाम' के अनुसार खून की होली खेल रहे है तो दूसरी ओर पूर्व राष्टï्रपति जनरल जियाउल हक के काल में सशस्त्र की गयी धार्मिक जमाअतें भी आतंक का खेल खेल रही है। ऐसा लगता है कि पाकिस्तान में शासन नाम की कोई चीज ही नहीं है।

इन हालात में राष्ट्रपति ज़रदारी की पीड़ा को महसूस किया जा सकता है। पाकिस्तान विकास के मार्ग पर अग्रसर हो, आम जनता खुशहाल, हो, शांति व्यवस्था का वातावरण कायम हो यह भारत ओर पाकिस्तान दोनों के हित में है। लेकिन भारत की ओर से शांति व सहअस्तित्व के निरंतर प्रयासों के बावजूद पाकिस्तानी शासक 'कश्मीर' से बाहर ही निकलना नहीं चाहते पाकिस्तान के शासक अब तक भारत विरोधी रणनीति अपना ही देश पर शासन करते रहे हैं, अफगानिस्तान को रूस से मुक्त कराने केलिए अमेरिका से मिले धन व हथियार जनरल जियाउलहक ने धर्म व सम्प्रदायों के नाम उपजी कट्टर संस्थाओं में बांट कर तात्कालिक लाभ हासिल किया, वो खुद तो हवा में ही बिखर गए लेकिन देश को आतंक के जाल में फंसा गए।

पाकिस्तान को समझना चाहिए कि भारत के साथ अपने सामाजिक, व्यापारिक व सांस्कृतिक रिश्तों को मजबूत करके ही वो आगे बढ़ सकता है। इसलिए पाकिस्तान के पूर्व शासकों की गलतियों को सुधारने का अगर ज़रदारी में दम है तो वो आतंकवाद के खातमे के लिए आर-पार की लड़ायी के लिए उठ खड़े हों बशर्त सेना भी उनका साथ दे तो एक पाक साफ पाकिस्तान बनने में कोई ज्य़ादा समय नहीं लगेगा।

लालू की घेराबंदी और ममता का श्वेतपत्र

रेल बजट के दिन से ही बिहार के नेता लालू प्रसाद पर राजनीतिक मुसीबतों के आने का खतरा शुरू हो गया हैं। राज्यसभा में भाजपा संसदीय दल के नेता अरुण जेटली ने रेल मंत्रालय को एक ऐसे मंत्रालय के रूप में पेश किया जो अपने काम के अलावा पूरी दुनिया के काम करता रहता है। मेडिकल कालेज खोलना, अखबार निकालना कुछ ऐसे काम हैं जो रेल मंत्रालय की मुख्य प्राथमिकता नहीं है लेकिन सरकार उसी पर ध्यान ज्यादा दे रही है।

रेल सुरक्षा और यात्री सुविधा जैसे जरूरी काम रेल मंत्रालय की मुख्य सूची से हट गए हैं। उन्होंने रेलमंत्री का मजाक उड़ाते हुए कहा कि वासुमती मंदिर ट्रस्ट को अधिग्रहीत कर के उसके अखब़ार निकालने की योजना का रेल मंत्रालय से कोई लेना देना नहीं होना चाहिए। रेल बजट के दिन दिए जाने वाले रेलमंत्री के भाषण पर समाजवादी पार्टी के प्रोफेसर राम गोपाल यादव ने बहुत ही गंभीर टिप्पणी की। उन्होंने कहा कि रेलमंत्री के रूप में लालू प्रसाद यादव ने कुछ घोषणाएं की थीं जो अब रिकार्ड में नहीं हैं।

उपसभापति ने कहा कि यह मामला दूसरे सदन का है लिहाजा वे उस पर कोई टिप्पणी नहीं कर सकते लेकिन इस बात की गंभीरता के मद्देनजर इसकी जांच की प्रक्रिया शुरू कराई जाएगी। रामगोपाल यादव ने सरकार पर और भी गंभीर आरोप लगाए। उन्होंने कहा कि लालू प्रसाद यादव ने अपने बजट भाषण में मैनपुरी होते हुए एक रेलवे लाइन की बात की थी। उनके भाषण का वह हिस्सा रिकॉर्ड में नहीं है। उन्होंने कहा कि भाषण की सी.डी. उपलब्ध है। उसको दिखाकर वे अपनी बात को सिद्घ करेंगे और सरकार से जवाब मांगेगे।

प्रो. यादव ने आरोप लगाया कि रेलमंत्री के भाषण को सरकार गंभीरता से नहीं लेती। उनका आरोप है कि रेलमंत्री के रूप में माधवराव सिंधिया ने बजट भाषण के दौरान जो वायदे किए थे, उनको भी ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है। बाद के भाषणों का भी वही हश्र हुआ कुछ ऐसी योजनाओं पर भी अभी काम शुरू नहीं हुआ है जिनका उदघाटन तत्कालीन राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने किया था। प्रो. यादव ने सुझाव दिया कि रेल मंत्रालय को चाहिए कि वह बजट भाषणों के दौरान पहले के मंत्रियों के वायदों को पूरा करने की एक योजना बनाए।

अगर अधूरी पड़ी परियोजनाओं को पूरा करने पर ही ध्यान रखा जाय तो देश का बहुत भला होगा। लालू प्रसाद की मित्र पार्टी के नेता की ओर से की गई इस टिप्पणी का मतलब बहुत ही गंभीर है। यह इस बात का भी संकेत है कि राजद के अध्यक्ष बहुत तेजी से मित्र खो रहे हैं। रेलमंत्री ममता बनर्जी के भाषण के दौरान लालू पर हुए कटाक्ष राजद सुप्रीमो के लिए बहुत शुभ संकेत नहीं थे। उसी भाषण में उन्होंने लालू प्रसाद के ऊपर रेल प्रशासन को ठीक से न चलाने का भी संकेत दिया था।

उनका आरोप था कि अंतरिम बजट के दौरान जो लक्ष्य निर्धारित किए गए थे उनको हासिल कर पाना संभव है नहीं है लिहाजा ममता के बजट में लक्ष्यों में संशोधन किए जा रहे हैं। यह बहुत ही गंभीर बात है क्योंकि यह अंतरिम बजट पेश करने वाले की राजनीतिक क्षमता पर टिप्पणी भी है। लेकिन लालू प्रसाद के लिए इससे भी गंभीर बात यह है कि ममता बनर्जी ने घोषणा कर दी कि रेलमंत्रालय के पिछले पांच साल के कामकाज पर एक श्वेतपत्र लाया जायेगा।

ममता बनर्जी के रेल भाषण में कही गईं बहुत सी बातें पूरी नहीं हो पाएंगी इसमें दो राय नहीं है। अब तक यह बात सभी जानते थे लेकिन मंगलवार के दिन राज्यसभा में प्रो. रामगोपाल यादव की घोषणा, कि रेलमंत्री के भाषण के कुछ अंशों को रिकार्ड से गायब कर दिया गया है, बहुत ही गंभीर है। श्वेत पत्र में इस बात पर भी चर्चा हो सकती है जो लालू के लिए बहुत ही मुश्किल पैदा करेगी। एक बात और महत्वपूर्ण है कि बजट भाषण की बाकी बातें भले भूल जायं लेकिन लालू को नुकसान पहुंचाने की गरज से उनके बारे में प्रस्तावित श्वेत पत्र के मामले में कोई चूक नहीं होगी।

लालू की पोल खोलने के लिए व्याकुल रेल मंत्रालय के कुछ अफसर इस बात को ठंडे बस्ते में कभी नहीं जाने देगे। जब भी कभी श्वेतपत्र आएगा लालू यादव की कार्यशैली पर एक बार चर्चा अवश्य होगी जोकि लगभग निश्चित रूप से राजनीतिक नुकसान पहुंचाएगी। लालू के आजकल के आचरण को देखकर भी लगने लगा है कि वे आजकल झल्लाए हुए हैं। बजट भाषण के दौरान ममता बनर्जी को भी उन्होंने कई बार टोकने की कोशिश की जिसका ममता पर तो कोई खास असर नहीं पड़ा लेकिन लालू प्रसाद की झुंझलाहट बढ़ाने में सहायक रहा।

लोकसभा में फिर लालू प्रसाद की झल्लाहट नजर आई। सदन में प्रश्नकाल के दौरान अध्यक्ष ने नक्सल हिंसा के बारे में लालू प्रसाद को पूरक प्रश्न पूछने की अनुमति दी। उठकर उन्होंने नक्सल समस्या पर भाषण देना शुरू कर दिया। जब अध्यक्ष ने उन्हें चेताया कि वे अपना प्रश्न पूछें तो लालू जी नाराज हो गए और अध्यक्ष पर ही आरोप जड़ दिया कि हम जानते हैं कि आप हमें नहीं बोलने देंगी। झल्लाहट लालू प्रसाद के व्यक्तित्व का हिस्सा कभी नहीं रहा। विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में भी वे संतुलित रहते हैं लेकिन आजकल उनके व्यक्तित्व का यह नया स्वरूप देखकर लगता है कि उनको अंदाज है कि कांग्रेस उनके आगे के राजनीतिक सफर को मुश्किल करने की मंसूबाबंदी कर चुकी है।

ममता बनर्जी का प्रस्तावित श्वेत पत्र लालू को मुश्किल में डाल सकता है। इस बारीकी को समझने के लिए लोकसभा चुनाव 2009 की कुछ झलकियों पर नजर डालना पड़ेगा। चुनाव के पहले लालू प्रसाद अकसर कहा करते थे कि उनके बिना कोई सरकार नहीं बनेगी। बातों बातों में वे कांग्रेस की खिल्ली भी उड़ाया करते थे। उसी दौर में एक बार मीडिया से मुखातिब प्रणब मुखर्जी ने कह दिया था कि केंद्र सरकार में लालू की भूमिका बहुत पक्की नहीं है, यहां तक कि उनकी अपनी कुर्सी की भी बहुत संभावना अधिक नहीं होगी।

लालू प्रसाद ने इस बात का बुरा माना था और सोनिया गांधी से शिकायत की थी। संयेाग की बात कि लालू का वही राजनीतिक भविष्य हुआ जिसकी प्रणब मुखर्जी ने संभावना जताई थी। सभी जानते हैं कि ममता बनर्जी और प्रणब मुखर्जी के राजनीतिक संबंध आजकल बहुत ही ठीक हैं इसलिए इस बात की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि कांग्रेस के बंगाल स्कूल के नेता मिलकर लालू यादव को औकात बोध का ककहरा पढ़ा रहे हो और उनको एहसास करा रहे हों कि सत्ता पाने पर भी अपनी सीमाओं की पहचान रखना भलमन साहत का लक्षण तो है ही, अच्छी राजनीति का बुनियादी सिद्घांत भी है।

Tuesday, July 28, 2009

इंसाफ की राजनीति और बजट

1980 में केंद्रीय सरकारों ने सॉफ्ट हिंदुत्व को सरकारी नीतियों के केंद्र में रखना शुरू किया था। इंदिरा गांधी जवाहर लाल नेहरू की बेटी थीं, उनमें धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के संस्कार थे जिसका उन्होंने पालन भी किया लेकिन 1980 के चुनावों के पहले उनके पुत्र स्व. संजय गांधी हिंदुत्व की तरफ खिंचने लगे थे। आर.एस.एस. वालों ने भी कई बार इस तरह की बातें की थीं कि संजय गांधी से देश को उम्मीदें हैं। इसी सॉफ्ट हिंदुत्व के चक्कर में पंजाब में अकालियों को तबाह करने की योजना बनाई गई थी जिसमें जनरैल सिंह भिंडरावाले को आगे बढ़ाया गया था।

बताते हैं कि संजय गांधी ने अपनी मां को भी इसी लाइन पर डालने में सफलता हासिल की थी। बहरहाल 1980 के बाद से केंद्रीय बजट में अल्पसंख्यकों को दरकिनार करने का सिलसिला शुरू हुआ था। संजय गांधी को यह भी नाराजगी थी कि 1977 में मुसलमानों की मुखालिफत के कारण ही उनकी मां की सत्ता खत्म हो गई थी। इसी दौरान संघ की राजनीति के प्रेमी बहुत सारे लोग कांग्रेस में भरती हुए। अरुण नेहरू टाइप लोगों ने कांग्रेस पर कब्जा कर लिया और 1991 में तो बीजेपी के समर्थन वाली सरकार ही आ गई।

1980 के बाद ही बाबरी मस्जिद की शहादत और दीगर बहुत से मसलों के हवाले से मुसलमानों को सरकारी तौर पर अपमानित करने का सिलसिला चलता रहा। अब 29 साल बाद एक ऐसी सरकार आई है जो पिछली सरकारों की गलतियों को दुरुस्त करने की कोशिश कर रही है। आर.एस.एस. और उसके मातहत काम करने वालों की समझ में बात नहीं आ रही है। बहरहाल प्रणब मुखर्जी के इस बजट में ऐसे कुछ प्रावधान हैं जो अल्पसंख्यकों, खासकर मुसलमानों के साथ हुए पिछले तीस साल के अन्याय को इंसाफ की शक्ल देने की कोशिश करते हैं। एक बात यहां स्पष्ट कर देना जरूरी है कि बजट में जो भी है वह मुसलमानों के प्रति एहसान नहीं है।

यह उस हक का एक मामूली हिस्सा है जो पिछले तीस वर्षों से केंद्रीय सरकारें छीनती रहीं है। प्रणब मुखर्जी ने अल्पसंख्यक मंत्रालय के बजट में 74 प्रतिशत की बढ़ोतरी का ऐलान किया है। पिछले साल बजट में 1000 करोड़ रुपए की व्यवस्था की गई थी जो इस साल बढ़कर 1740 करोड़ कर दी गई है। इसके अलावा अल्पसंख्यक बहुल जिलों में प्राथमिकता के आधार पर बिजली, सड़क पानी आदि के विकास के लिए योजनाएं लाई जाएंगी। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के जरिए यू.पी.ए. सरकार ने अपनी मंशा का ऐलान मनमोहन सिंह के पहले कार्यकाल में ही कर दिया था। इस बजट में उस मंशा को अमली जामा पहनाने की कोशिश की गई है।

मनमोहन सिंह ने बार बार कहा है कि तरक्की के लिए शिक्षा सबसे जरूरी हथियार है। उनका अपना जीवन भी शिक्षा के अच्छे अवसरों की वजह से दुरुस्त हुआ है। इसलिए अल्पसंख्यकों के कल्याण की योजनाओं में शिक्षा को बहुत ज्यादा महत्व देने की बात कही जा रही थी, जो बजट के बाद एक गंभ़ीर प्रयास के रूप में नजर आने लगी है। अल्पसंख्यक बच्चों को इतनी छात्रवृत्तियां दी जाएंगी कि उनकी तालीम इसलिए न रुक जाय कि पैसे की कमी है। अल्पसंख्यकों की कुशलता के विकास के लिए भी बड़ी योजनाओं की बात की जा रही है। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की केरल और बंगाल में कैंपस खोलने की योजनाओं की चर्चा बरसों से होती रही है।

अपने बजट भाषण में इसके लिए धन का इंतजाम करके वित्त मंत्री ने अल्पसंख्यकों के भावनात्मक मुद्दों को भी महत्व दिया है। राष्ट्रीय अल्पसंख्यक वित्त एंव विकास निगम और मौलाना आज़ाद फाउंडेशन को और मजबूत किया जा रहा है। इस बजट की एक खास बात यह है कि यह कांग्रेस पार्टी की राजनीति को सरकार चलाने के लिए गंभीरता से आगे बढ़ाने का काम करता है। बजट के जरिए देश की आबादी के एक बड़े वर्ग को यह बताने की कोशिश की गई है कि यह देश सबका है।

अफसोस की बात यह है कि केंद्र सरकार की इंसाफ की डगर पर चलने की कोशिश को संघी राजनीति के कुछ कारिंदे तुष्टीकरण की नीति के रूप में पेश करने की कोशिश कर रहे हैं। कुछ इलाकों में जुलूस वगैरह भी निकालेे गए हैं और सरकार को मुसलमानों के खिलाफ काम करने की प्रेरणा देने की कोशिश की गई है। लेकिन लगता है कि केंद्र सरकार पर इसका कोई असर नहीं पडऩे वाला है, उसे संघी नेताओं की असुविधा पर मजा आ रहा है।

बजट 2009 कांग्रेस पार्टी की उस राजनीति की एक प्रक्रिया है जिसके तहत उसने मुसलमानों को अन्य पार्टियों से खींचकर अपनी तरफ लाने की कोशिश शुरू की थी। लोकसभा चुनाव 2009 में ही साफ संकेत मिलने लगे थे कि कांग्रेस पार्टी अब मुसलमानों के लिए अछूत नहीं है। बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाने वाली, शिलान्यास करवाने वाली और बाबरी मस्जिद की शहादत में जिम्मेदार पार्टी की अपनी छवि से बाहर निकलने की कोशिश कर रही कांग्रेस के लिए लोकसभा चुनाव में मुसलमानों का वोट मिलना बहुत बड़ी बात थी। कांग्रेस की कोशिश है कि उसे दुबारा अल्पसंख्यकों का विश्वास हासिल हो जैसे 1971 तक था।

इस मायने में मौजूदा बजट वित्त व्यवस्था के प्रबंध को दुरुस्त करने के साथ-साथ राजनीति को भी चाक चौबंद रखने में काम आयेगा। किसी भी राजनीति का उद्देश्य होता है कि वह अपने देश की अधिकतम जनता की महत्वांकाक्षा का वाहक बने। बीजेपी आदि जो पार्टियां हैं वे अल्पसंख्यकों को अपने दायरे से बाहर रखकर काम करना चाहती है। उनकी कोशिश रहती है कि सरकार मुसलमानों को औकातबोध कराने के लक्ष्य को हासिल करने के लिए काम करे।

बीच में कुछ दिनों के लिए कांग्रेस में भी यह बात आ गई थी लेकिन अब लगता है कि माहौल बदल रहा है। सोनिया-मनमोहन की टीम मुसलमानों को साथ लेकर चलने की नीति पर काम कर रही है। कम से कम बजट 2009 से तो यह संदेश बहुत ही साफ तरीके से सामने आ रहा है।

अमेरिका के लिए भारत बना खास

अमेरिकी विदेशमंत्री हिलेरी क्लिटन जब तीन दिन की यात्रा पर चीन गयी तो भारत में चिंता की जा रही थी कि नये अमेरिकी हुकमरान की प्राथमिकताएं बदल रही है। चीन को भारत से ज्य़ादा महत्व दिया जा रहा है। लेकिन पांच दिन की भारत यात्रा पर आकर हिलेरी क्लिंटन ने ये बात साफ कर दी है कि भारत अभी भी अमेरिका की नज़र में महत्वपूर्ण देश है।


दुरस्त माहौल की शुरुआत

क्लिटन की यात्रा से साफ हो गया है कि अमेरिका भारत से हर तरह की दोस्ती का रिश्ता रखना चाहता है। भारत और अमेरिका की संभावना के बीच, आज की तारीख़ में सबसे अहम मुद्दा परमाणु समझौता है। हिलेरी क्लिंटन की यात्रा से एक बात बिल्कुल साफ हो गयी है कि परमाणु समझौता और उससे जुड़े मसले में अब किसी तरह की बहस की दरकार नहीं रखते। दोनों ही देशों के बीच पूरी तरह से समझदारी का माहौल है। हिलेरी क्लिंटन की ये यात्रा एक तरह से माहौल दुरुस्त करने की यात्रा थी। यहां आकर उन्होंने देश के बड़े उद्योगपतियों से मुलाकात की उसी होटल में विश्राम किया जिस पर 26/11 के दिन आतंकवादी हमला हुआ था।


उनकी यात्रा शुरू होने के पहले ही पाकिस्तान की सरकार ने स्वीकार कर लिया कि मुंबई पर हुए आतंकवादी हमले में उसके नागरिकों का हाथ था। जाहिर है पाकिस्तान की हुकूमत ने ये कदम अमेरिकी दबाव में ही उठाया है। विदेशमंत्री हिलेरी ने इस बात को भी जोर-शोर से मीडिया को बतलाया कि अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा के कार्यकाल के शुरू होने के बाद भारत के प्रधानमंत्री डा.मनमोहन सिंह पहले शासनाध्यक्ष होगें जो अमेरिका की यात्रा करेगें अपने दिल्ली प्रवास के दौरान, हिलेरी क्लिंटन ने राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण हर इंसान से मुलाकात की।


परमाणु मुद्दे पर बात साफ

विदेशमंत्री एसएम कृष्णा और वे अब हर साल मिला करेगे। अपने कार्यकाल में वो कम से कम दो बार और भारत यात्रा पर आयेगी। परमाणु मुद्दे पर सारी बात साफ कर ली गयी है, खासकर जो दुविधा की स्थिति जी-8 सम्मेलन के बाद पैदा हो गयी थी। इस तरह से अमेरिकी विदेश मंत्री की यात्रा को दोनों देशों की कूटनीतिक संभावनाओं में एक खास मुकाम माना जा रहा है। विदेश मंत्री हिलेरी की इस यात्रा से एक और संदेश बहुत साफ नजर आ रहा है।


अपने देश में कुछ रिटायर्ड सरकारी कर्मचारी है, जो अपने को कूटनीति का सर्वज्ञ मानते है, इनमें से कुछ विदेश मंत्रालय की नौकरी में थे, तो कुछ रक्षा मंत्रालय की नौकरी में। बड़ी संख्या में टेलीविजन चैनलों के खबर के कारोबार में घुस जाने की वजह से इन लोगों का ज्ञान प्रवाहित होता रहता है। सच्ची बात ये है कि ये पुराने सरकारी कर्मचारी ये तो जान सकते है कि किसी कूटनीति समझौता का मतलब क्या है, लेकिन इन्हें ये नहीं पता होता कि राजनीतिक स्तर पर क्या सोचा जा रहा है। इसलिए ये लोग जब संभावनाओं की अभिव्यक्ति करते है, तो सब गड़बड़ हो जाता है।


इन बेचारों की ट्रेनिंग ऐसी नहीं होती कि ये लीक से हटकर सोच सके। इसलिए ये हर परिस्थिति की उल्टी सीधी अभिव्यक्ति करते है। आजकल भी इन लोगों का प्रवचन टीवी चैनलों पर चल रहा है। अमेरिका और भारत की संभावना की बारीकियों को समझने के लिए इन विद्वानों से बचकर रहना होगा। मौजूदा भारत-अमेरिकी संबंधों की सच्चाई यह है कि अमेरिका अब भारत को पाकिस्तान के बराबर का देश नहीं मानता और पाकिस्तान की परवाह किये बिना भारत के साथ संबंध रखना चाहता है।

आपसी हित के लिए संबंध

पाकिस्तान अमेरिका पर निर्भर एक देश है अगर अमेरिका नाराज़ हो जाएं तो पाकिस्तान मुसीबत में पड़ सकता है क्योंकि उसका खर्चा-पानी अमेरिका की मदद से ही चल रहा है। लेकिन भारत के साथ अमेरिका के संबंध आपसी हित की बुनियाद पर आधारित है। शायद इसलिए अमेरिकी कूटनीति की कोशिश है कि भारत के साथ सामरिक रिश्ते बनाएं। इस वक्त देश में ऐसी सरकार है जो अमेरिका से अच्छा रिश्ता बनाने के लिए कुछ भी कर सकती है इसके पहले की भाजपा की अगुवाई वाली सरकार तो अमेरिका की बहुत बड़ी समर्थक थी।

वामपंथी पार्टी आजकल अपने अंदरूनी लड़ाई के चलते ही परेशान है इसलिए भारत अमेरिका सामरिक रिश्तों ने बहुत आगे तक बढ़ जाने की आशंका है। ये देश की आत्मनिर्भरता और सम्मान के लिए ठीक नहीं होगा। अगर ये हो गया तो ख़तरा है कि अमेरिकी फौज के जनरल भारत के राष्ट्रपति से भी उसी तरह बात करने लगेंगे जिस तरह वे पाकिस्तान राष्ट्रपति मुर्शरफ और जरदारी के साथ करते है। पूरी कोशिश की जानी चाहिए कि भारत और अमेरिका के बीच कोई सामरिक समझौता न हो जाए।

Monday, July 27, 2009

ईरान की नई सरकार और ओबामा की मुश्किलें

ईरान के चुनावों के बाद पश्चिमी देशों की प्रेरणा से तेहरान की सड़कों पर शुरू हुआ विरोध प्रदर्शन अब थम गया है लेकिन उसके प्रेरक तत्व अभी भी सक्रिय हैं।
जिन अमरीकी नीति निर्धारकों की शह पर जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने इराक पर हमला करने की बेवकूफी की थी, वे फिर सक्रिय हो गए हैं। इस बिरादरी के लोग अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा पर वैसा ही दबाव बना रहे हैं जैसा इन लोगों ने बुश जूनियर के ऊपर 2003 में बनाया था। इस गैंग के एक नेता हैं पॉल वुल्फोविज़।
इराक के पूर्व राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन के खिलाफ अमरीका में जो जनमत बना था और चारों तरफ से सद्दाम को हटाने की बात शुरू हो गई थी उस जनमत को तैयार करने वाले गिरोह के प्रमुख नेताओं में पॉल वुल्फोविज का नाम लिया जाता है। यह महानुभाव फिर सक्रिय हो गए हैं। यह लोग ईरान में सत्ता परिवर्तन की बात तो नहीं कर रहे हैं लेकिन ओबामा को कुछ कर गुजरने की प्रेरणा अवश्य दे रहे है।
वॉशिंगटन पोस्ट के अपने ताजा लेख में पॉल वुल्फोविज ने ओबामा को समझाने की कोशिश की है कि ईरान की सड़कों पर हुए प्रदर्शन में अमरीका को निष्क्रिय नहीं रहना चाहिए। उनका कहना है कि ओबामा को अपनी सारी ताकत ईरानी विपक्षियों के समर्थन में लगा देनी चाहिए। यह लोग ईरान के वर्तमान शासकों के बारे में वही राग अलाप रहे हैं, जो कभी सद्दाम हुसैन के लिए अलापते थे। पॉल वुल्फोविज टाइप लोग अमरीका में भी दंभी, अतिवादी और बदतमीज माने जाते हैं लेकिन अगर जॉर्ज डब्लू बुश जैसा अदूरदर्शी शासक हो तो यह लोग कहर बरपा करने की ताकत रखते हैं।
ओबामा के सामने बहुत बड़ी चुनौतियां हैं। अपने आठ साल के राज में जॉर्ज डब्लू बुश ने लगभग मसखरे के रूप में काम किया। अमरीकी अर्थव्यवस्था को चौपट किया और पूरी दुनिया में अमरीकी कूटनीति को मजाक का विषय बना दिया। जिन लोगों ने बुश को अफगानिस्तान और इराक में फंसाया, वही अमरीकी विचारक फिर लाठी भांज रहे हैं। यह लोग मूल रूप से किसी न किसी लॉबी गु्रप के एजेंट होते हैं। पॉल वुल्फोविज के बारे में बताया गया है कि यह हथियार बनाने वाली कुछ कंपनियों के लिए सक्रिय लोगों के साथी हैं।
इनके उकसाने में आकर अगर ओबामा ने कोई ऐसा काम किया जिसमें ईरान से झगड़ा हो जाय तो अमरीका के लिए तो मुश्किल होगी ही, ओबामा भी भारी मुसीबत में पड़ जाएंगे। एक राष्ट्र के रूप में अमरीका का वही हाल होगा जो वियतनाम और इराक में हुआ था। ओबामा को बहुत सोच समझकर काम करना होगा क्योंकि ईरान की सरकार बहुत ही मजबूत सरकार है और अहमदीनेजाद को चुनौती देने वाले मीर हुसैन मौसवी बिलकुल अलग थलग पड़ गए हैं। मौसवी के अलावा ईरान की राजनीति का हर छोटा बड़ा आदमी सरकार के साथ है।
विलायत-ए-फकीह का इकबाल बुलंद है और ईरान के खिलाफ किसी भी पश्चिमी साजिश को नाकाम करने के लिए ईरान की जनता एकजुट खड़ी है। ईरान के पुननिर्वाचित राष्टï्रपति महमूद अहमदीनेजाद ने ऐलानियां कहा है कि ईरान की नई सरकार पश्चिमी देशों की तरफ ज्यादा निर्णायक और सख्त रुख अख्तियार करेगी। इस बार अगर पश्चिमी देश किसी मुगालते का शिकार होकर कोई गलती करेंगे तो ईरानी राष्ट्र का जवाब बहुत माकूल होगा।
महमूद अहमदीनेजाद के फिर से राष्ट्रपति चुने जाने के बाद अमरीका और ब्रिटेन ने लोकतंत्र के खून होने और चुनावों में हेराफेरी के नाम पर ईरान में एक आंदोलन खड़ा करने की तैयारी कर दी थी। मीर हुसैन मौसवी के नाम पर उनके कुछ चाहने वाले सड़कों पर आ गए। यू ट्यूब और ट्विटर की मदद से पूरी दुनिया को ईरान के अंदर बढ़ रहे तथाकथित असंतोष को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया। लेकिन कोई आंदोलन बन नहीं सका। अब सब कुछ खत्म हो चुका है और ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ब्राउन बहुत ज्यादा मुसीबत में हैं। ईरानी सत्ताधारी वर्ग ने उन्हें ही निशाने पर ले रखा है।
ओबामा पर हमले उतने तेज नहीं हैं जितना ब्राउन पर हैं। ईरान के सर्वोच्च नेता अयातोल्ला अली खमनेई ने इन दोनों देशों को धमकाते हुए कहा है कि ईरान पिछले महीने की पश्चिमी देशों की करतूतों को कभी नहीं भूलेगा। उन्होंने कहा कि अमरीका और कुछ यूरोपीय देश ईरान के बारे में बेवकूफी की बातें कर रहे हैं। उनके आचरण से ऐसा लगता है कि उनकी मुसीबतें इराक और अफगानिस्तान में खत्म हो गई हैं, बस ईरान को दुरुस्त करना बाकी है।
ईरान के हमले ब्रिटेन पर ज्यादा तेज हैं। अयातोल्ला अली खमनेई ने ब्रिटेन को सबसे ज्यादा खतरनाक और धोखेबाज विदेशी ताकत बताया है। ब्रिटेन के दूतावास में तैनात दो खुफिया अफसरों को देश से निकाल दिया गया है और वहां काम करने वाले स्थानीय ईरानी नागरिकों से पूछताछ की जा रही है। ब्रिटेन को भी ईरान की ताकत का अंदाज लगने लगा है। मौसवी के समर्थकों को हवा देने के बाद ब्रिटेन इस चक्कर में है कि किसी तरह जान बचाई जाए क्योंकि अगर ईरान नाराज हो जाएगा तो ब्रिटेन की अर्थ व्यवस्था पर भी उलटा असर पड़ेगा।
शायद इसीलिए ब्रिटेन के विदेश मंत्रालय से एक बयान जारी किया गया है जिसमें कहा गया कि ब्रिटिश प्रधानमंत्री ईरान में मानवाधिकारों के उल्लंघन की वजह से नाराज नहीं है। उन्हें तो ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर एतराज है। अब तक के संकेतों से ऐसा लगता है कि ईरान ब्रिटेन को गंभीरता से नहीं ले रहा है और उसे अलग थलग करने के चक्कर में ही है।
अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भी महमूद अहमदीनेजाद के खिलाफ शुरू हुए प्रदर्शनों पर जो रुख अपनाया, उसे ईरान में पसंद नहीं किया गया। ओबामा और उनके बंदों को उम्मीद थी कि ईरान में जो राजनेता सत्ता से बाहर हैं, वे महमूद अहमदीनेजाद के खिलाफ शुरू हुए मौसवी के आंदोलन में शामिल हो जांएगे लेकिन ऐसा न हो सका। अमरीकी प्रशासन को ईरान के पूर्व राष्ट्रपति अकबर हाशमी रफसंजानी से बड़ी उम्मीदें थीं। अमरीका को अंदाज था कि रफसंजानी सर्वोच्च नेता के खिलाफ किसी साजिश में शामिल हो जाएंगे लेकिन 28 जून को उन्होंने एक बयान दिया जिसके बाद अमरीकी रणनीतिकारों के होश उड़ गए।
उन्होंने कहा कि चुनावों के बाद जो कुछ हुआ वह एक साजिश का नतीजा था। इस साजिश में वे लोग शामिल थे जो ईरान की जनता और सरकार के बीच फूट डालना चाहते है। इस तरह की साजिशें हमेशा ही नाकाम रही हैं और इस बार भी ईरानी अवाम ने किसी साजिश का शिकार न होकर बहादुरी का परिचय दिया है। रफसंजानी ने अयातोल्ला की तारीफ की और कहा कि उनके उम्दा नेतृत्व की वजह से चुनाव प्रक्रिया में लोगों का विश्वास बढ़ा है।
रफसंजानी के अलावा विपक्ष के बाकी नेता भी सर्वोच्च नेता की इच्छा के अनुरूप महमूद अहमदीनेजाद के समर्थन में लामबंद है। विपक्षी नेता मोहसिन रेज़ाई, मजलिस के पूर्व अध्यक्ष नातेक नौरी जैसे लोग भी अब पश्चिमी साजिशों से वाकिफ है और नई ईरानी सरकार के साथ हैं। अमरीका और पश्चिमी देशों को उम्मीद थी मजलिस के अध्यक्ष, अली लारीजानी को अहमदीनेजाद के खिलाफ खड़ा किया जा सकता है लेकिन उन उम्मीदों पर भी पानी फिर चुका है। लारीजानी अल्जीयर्स गए थे जहां इस्लामी देशों के संगठन का सम्मेलन था।
अपने भाषण में लारीजानी ने ओबामा को चेतावनी दी कि उन्हें पहले के अमरीकी राष्ट्रपतियों की तरह पश्चिमी एशिया के मामलों में बेवजह दखल नहीं देना चाहिए। उन्होंने कहा कि ओबामा को इस नीति को बदलना चाहिए जिससे इलाके में तो शांति स्थापित होगी ही, अमरीका भी चैन से रह सकेगा। नई राजनीतिक सच्चाई ऐसी है कि ओबामा के सामने कठिन फैसला लेने की चुनौती है। अपने पूर्ववर्ती बुश की तरह वे कोई बेवकूफी नहीं करना चाहते, लेकिन पॉल वुल्फोविज टाइप अमरीकी लॉबीबाजों का दबाव रोज ही बढ़ता जा रहा है।
हथियार निर्माताओं की तरफ से काम करने वाले ऐसे लोगों की अमरीका में एक बड़ी जमात है। शायद इन्हीं के चक्कर में ओबामा प्रशासन ने ईरानी शासन के खिलाफ शुरू हुए विरोध को हवा दी थी लेकिन लगता है बात बिगड़ चुकी है। काहिरा में मुसलमानों से अस्सलाम-अलैकुम कहकर मुखातिब होने वाले बराक ओबामा ने ईरान में बहुत कुछ खोया है। उस पर तुर्रा यह कि अमरीका की दखलंदाजी के कारण अहमदीनेजाद और अयातोल्ला के खिलाफ जो थोड़ा बहुत भी जनमत था भी, वह सब एकजुट हो गया है। ओबामा को अब ज्यादा ताकतवर ईरान से बातचीत करनी पड़ेगी ईरान के रिश्ते पड़ोसियों से भी बहुत अच्छे हैं।
तुर्की, अज़रबैजान, तुर्कमेनिस्तान, पाकिस्तान अफगानिस्तान सब ईरान के साथ हैं। सीरिया, हिजबोल्ला और हमास भी ईरान के साथ पहले जैसे ही संबंध रख रहे हैं। चीन खुले आम ईरान की नई सरकार के साथ है। भारत भी ईरान से अच्छे रिश्तों का हमेशा पक्षधर रहा है और आगे तो दोनों देशों के बीच आर्थिक संबंध और भी गहराने वाले है। सीरिया ने सऊदी अरब और अमरीका से कुछ बातचीत का सिलसिला शुरू किया था लेकिन कई अवसरों पर उसने साफ कर दिया है कि ईरान से रिश्तों की कीमत पर कोई नई दोस्ती नहीं की जाएगी। ऐसी हालात में अमरीकी कूटनीति का एक बार फिर इम्तहान होगा।
इस बार की मुश्किल यह है कि अमरीका के पास इस बार फेल होने का विकल्प नहीं है। ओबामा के लिए फैसला करना आसान नहीं है। अमरीका जनमत को गुमराह कर रहे दंभी और बदतमीज पत्रकारों और नेताओं का एक वर्ग है जो ओबामा को वही इराक वाली गलती करने के लिए ललकार रहा है। दूसरी तरफ उनकी अपनी समझदारी और पश्चिम एशिया की जमीनी सच्चाई की मांग है कि इराक और वियतनाम वाली गलती न की जाय। बहरहाल एक बात सच है कि अगर इस बार अमरीका ने पश्चिमी एशिया में कोई गलती की तो उसका भी वही हश्र होगा जो ब्रिटेन का हो चुका है।

कायर, अपराधी और निर्दयी पुलिस

गाजियाबाद के छात्र रणबीर को देहरादून पुलिस ने इनकाउंटर में मार डाला। पोस्टमार्टम रिपोर्ट आने के बाद पता चला है कि लड़के को पुलिस ने प्वाइंट ब्लैंक रेंज से गोली मारी। पुलिस की बर्बरता की जब शुरुआती खबरें आने लगी थीं तो यही कहा जाता था कि ब्रिटिश राज की पुलिस लोकशाही में काम करने लायक नहीं है, इसे सेवा करने और सुरक्षा करने के लिए काम करने का प्रशिक्षण देना चाहिए। इसी तरह के और भी बहुत सारे तर्क दिए जाते थे।
लेकिन अब बात बहुत आगे निकल चुकी है। राजनीति के अपराधीकरण के बाद बहुत सारे पुलिस वालों ने ऐसे काम भी किए हैं जो बड़े बड़े अपराधियों को भी पीछे छोड़ जाने के लिए काफी है। इसलिए ब्रिटिश पुलिस बनाम लोकतांत्रिक पुलिस का तर्क बेमतलब है। कई राज्य सरकारों में ऐसे मंत्री हैं जो कई घृणित अपराधों के मुलजिम हैं, कई मंत्रियों पर हत्या, लूट, डकैती, बलात्कार, आगजनी जैसे मुकदमे चल रहे हैं। लोकतंत्र में मंत्री ही सत्ता का मुखिया होता है, वही सरकार होता है।
अगर वह अपराधी है तो लोकतंत्र के तबाह होने के खतरे बढ़ जाते हैं। लोक प्रतिनिधित्व कानून और संविधान में ऐसे प्रावधान नहीं हैं कि किसी अपराधी को चुनाव लडऩे से रोका जा सके। बाद में कुछ संशोधन आदि करके बात को कुछ संभालने की कोशिश की गई है लेकिन वह अपराधियों को संसद या विधानसभा में पहुंचने से रोकने के लिए नाकाफी है। दरअसल संविधान के निर्माताओं ने यह नहीं सोचा था कि एक दिन ऐसा भी आएगा कि अपराधी भी चुनाव लडऩे लगेगा। उनकी सोच थी कि अव्वल तो अपराधी चुनाव लडऩे की हिम्मत ही नहीं करेगा और अगर लड़ता भी है तो जनता उसे नकार देगी।
ऐसा हुआ नहीं। जातिपांत के दलदल में फंसे समाज में अपराधी स्वीकार्य होने लगा और एक समय तो ऐसा आया कि उत्तरप्रदेश विधानसभा में बड़ी संख्या में अपराधी पहुंचने लगे। जाहिर है कि प्रशासन का स्तर गिरना था, सो गिरा। लेकिन पुलिस को अपनी सेवा की शर्तों के हिसाब से काम करना चाहिए। जब पुलिस का अधिकारी नौकरी में आता है तो संविधान को पालन करने की शपथ लेता है किसी नेता की चापलूसी करने की शपथ नहीं लेता लेकिन नेताओं की हां में हां मिलाने वालों की पुलिस फोर्स में हो रही भरमार की वजह से देहरादून जैसी घटनाएं थोक में हो रही है जोकि अक्षम्य अपराध की श्रेणी में आती हैं।
अपने देश, खासकर उत्तराखंड और उत्तरप्रदेश में पुलिस प्रशासन की हालत बहुत खराब है। राज्य में पुलिस की लीडरशिप बिलकुल कमजोर है। बड़े अफसर अपराध के कम करने के लिए दबाव तो बनाते हैं लेकिन इंगेजमेंट के नियमों का पालन नहीं करवाते। अपराधियों को खत्म करने के लिए फर्जी मुठभेड़ का सहारा लेते हैं। कुछ मामलों में तो अपराधियों से ही दूसरे अपराधी को मरवाते हैं। एक जो सबसे खराब बात सिस्टम में आ गई है कि अगर कोई अपराधी मारा जाता है तो आउट ऑफ टर्न प्रमोशन की कल्चर के तहत अपराधी को मारने वाला प्रमोशन पा जाता है। कई बार उसे पुरस्कार भी मिल जाता है।
फर्जी मुठभेड़ के मामलों में सबसे ज्यादा योगदान प्रमोशन-एवार्ड कल्चर का है। इसके चलते चालू किस्म के पुलिस वाले जल्दबाजी में पड़कर निर्दोष लोगों को भी मार देते है। सबसे बड़ी जो गलती हो रही है, वह यह कि पुलिस वाले ठीक से मुखबिरों का विकास नहीं कर रहे है। निजी दुश्मनी के चलते कभी-कभी मुखबिर निर्दोष लोगों को मरवा देते हैं। जिले में तैनात पुलिस अधिकारियों को चाहिए कि मुखबिर व्यवस्था के विकास के लिए विभाग की तरफ से जो नियम बनाए गए हैं उसका पालन करवाएं। इनकाउंटर में भी रूल्स ऑफ इंगेजमेंट हैं। देहरादून में हुए रणबीर के $कत्ल में पुलिस प्रशासन की हर प्रक्रिया का उल्लंघन किया गया है।
लड़के के शरीर पर 28 ऐसे घाव हैं जो उसके जिंदा रहते उसे पुलिस प्रताडऩा के दौरान दिए गए थे। लगता है कि किसी गलत मुखबिरी के चक्कर में रणबीर को पकड़ लिया गया था और जब उसको इतनी प्रताडऩा दी गई कि उसके बचने की उम्मीद नहीं रह गई तो उसे इनकाउंटर दिखाकर गोलियों से भून दिया गया। यह अक्षम्य अपराध है। इन पुलिस वालों से पूछा जाना चाहिए कि उनके अपने बच्चों के साथ ऐसा व्यवहार हो, तो उन्हें कैसा लगेगा।
देहरादून की घटना पुलिस प्रशासन की सरासर असफलता है और इसकी सभ्य समाज के लोगों को कड़े से कड़े शब्दों में निंदा करनी चाहिए और राज्य सरकार को चाहिए कि जिम्मेदार पुलिस वालों को दंडित करें और कमजोर अफसरों को हटाकर योग्य पुलिस वालों को तैनात करें। दंड भी ऐसा हो कि भविष्य में पुलिस वालों की हिम्मत न पड़े कि किसी निर्दोष बच्चे को बेरहमी से पीटें और उसकी जान ले लें।

भ्रष्टाचार खत्म किए बिना तरक्की नहीं

देश के हर क्षेत्र में तेजी से बदलाव की बयार बह रही है। लोकसभा चुनाव के बाद जो राजनीतिक संकेत आ रहे हैं उससे लगता है कि नई सरकार वह सब कुछ कर डालेगी, जो पिछली बार वाममोर्चा की वजह से नहीं हो पाया था। वाममोर्चे की पिछली पांच साल की राजनीति के चलते केंद्र सरकार को कुछ ऐसे फैसले करने से रोका जा सका जो अर्थ व्यवस्था की तबाह करने की क्षमता रखते थे। माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य सक्षम अर्थशास्त्रियों के कारण ऐसा संभव हो सका।
पार्टी के बड़े नेता सीताराम येचुरी खुद एक अर्थशास्त्री हैं और उन्होंने अर्थशास्त्रियों की एक टीम जोड़ी है जिसमें अर्थशास्त्र के विद्वान शामिल हैं। इस बार मनमोहन-मांटेक की जोड़ी लगता है वे सारे फैसले कर लेगी जो सीताराम की टीम ने नहीं होने दिया था। कुछ लोग कह सकते हैं कि अगर इतने बढिय़ा लोग थे तो चुनाव मैदान में क्यों पिछड़ गए। इसका सीधा सा जवाब है कि वाममोर्चे का राजनीति विंग की कमान बहुत ही जिद्दी टाइप लोगों के हाथ में है जो अपनी बात को सही साबित करने के लिए कुछ भी कर सकते हैं।
इसीलिए पार्टी को चुनाव में सफलता नहीं मिली और राजनीतिक हैसियत भी कम हुई है। इस स्थिति का फायदा नई सरकार के लोग इस बार उठाएंगे। इमकान है कि बजट में पूंजीपति वर्ग की वे मांगे पूरी कर दी जाएंगी जिन पर साढ़े चार साल तक वामपंथी लगाम लगी थी। मजदूरों की छंटनी वाला तथाकथित श्रमसुधार कानून भी पास कराया जा सकता है। वामपंथी नेताओं की समझ में शायद यह बात आने लगी है कि सरकार को गिराने की कोशिश में पार्टी के शीर्ष नेता की जिद को मानकर राजनीतिक गलती हुई थी। देखना यह है कि यह गलती ऐतिहासिक भूल का ओहदा हासिल करने में कितना वक्त लेती है।
कम्युनिस्टों के कंट्रोल से आजाद होकर नई सरकार ने कुछ अच्छे काम करने की योजना भी बनाई है। देश भर में सभी नागरिकों को पहचान-पत्र जारी करने की योजना ऐसी ही एक योजना है। इस काम के लिए निजी क्षेत्र की सबसे सफल कंपनी के उच्च अधिकारी नंदन नीलेकणी को बुलाकर प्रधानमंत्री ने साफ ऐलान कर दिया है कि जो भी नए पद सृजित किए जाएंगे वे सभी आई.ए.एस. बिरादरी की पिकनिक के लिए ही नहीं आरक्षित रहेंगे।
अब महत्वपूर्ण पदों पर गैर आई.ए.एस. लोगों को भी रखा जाएगा। आई.ए.एस. अफसरों को और भी चेतावनी दी जा रही है। मसूरी की लाल बहादुर शास्त्री प्रशासन अकादमी की स्वर्ण जयंती के अवसर पर राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने साफ घोषणा कर दी कि आई.ए.एस. अधिकारियों को शासक नहीं, सेवक के रूप में काम करना पड़ेगा। इससे भी बड़ी बात यह है कि मूल रूप से रिश्वत के प्रायोजक के रूप में कुख्यात नौकरशाही को अब भ्रष्टाचार के कैंसर से निजात पाना होगा। मसूरी में आई.ए.एस. अफसरों को राष्ट्रपति जी ने बताया कि लीक पर चलते हुए सांचाबद्घ सोच वाले अफसरों के लिए अब सिस्टम में जगह कम पड़ती जायेगी।
नौकरशाही को अब विकास के प्रेरक और प्रायोजक के रूप में काम करना पड़ेगा। श्रीमती पाटिल ने जब यह कहा कि सूचना का अधिकार कानून आ जाने के बाद हालात बदल गए हैं तो वे सूचना को दबाकर मनमानी करने वाली नौकरशाही के आइना दिखा रही थीं। अब जनता को सब कुछ पता चल जाता है लिहाजा आई.ए.एस. अफसरों की भलाई इसी में है कि भ्रष्टाचार का तंत्र खत्म करें। उन्होंने कहा कि सरकार ने फैसला किया है कि आम आदमी की जिंदगी में सकारात्मक परिवर्तन लाया जाएगा और सबको विकास के अवसर उपलब्ध कराए जाएंगे।
सरकार ने आर्थिक और सामाजिक विकास का एक लक्ष्य निर्धारित किया है जो इंसाफ की बुनियाद पर हासिल किया जायेगा। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए उन अधिकारियों की जरूरत नहीं है जो लाल फीताशाही वाली सोच के अधीन रहकर काम करते हैं। हमें ऐसे अफसर चाहिए जो सीमा में रहकर आम आदमी के विकास के लिए नई नई तरकीबें ढूंढ सकें। अफसरों को अब लोगों के सेवक के रूप में काम करना पड़ेगा, शासक के रूप में नहीं है। इसके लिए मित्रता के माहौल में सबको साथ लेकर चलने की आदत डालना पड़ेगा।
राष्ट्रपति ने चेतावनी दी कि सबको पता है कि विकास कार्यों के लिए निर्धारित पैसा उन तक नहीं पहुंचता और वह सिस्टम से ही चोरी हो जाता है। यह बहुत ही गंभीर बात है। अफसरों को इस पर नियंत्रण रखना चाहिए। ज़ाहिर है राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल अपना लिखा हुआ भाषण पढ़ रही थीं जो किसी नौकरशाह के परिश्रम का फल था, वरना यह कहना कि सिस्टम से चोरी हो रहे पैसे को बचाना आपका जिम्मा है, बिलकुल अजीब बात है। जब सारे देश को मालूम है कि सिस्टम से पैसा किस तरह से चोरी होता है तो क्या राष्ट्रपति महोदया को यह सच्चाई नहीं मालूम है।
जरूरत इस बात की है कि घूस के राक्षस को काबू में करने के लिए अब घुमाफिरा कर बात करने की जरूरत नहीं है, उस पर सामने से हमला करना होगा। इस बार सरकार यह भी नहीं कह सकती कि वामपंथियों का सहयोग नहीं मिल रहा है क्योंकि अब तो सरकार को समर्थन दे रही हर पार्टी कांग्रेस की हां में हां मिला रही है। और जब पश्चिमी पूंजीपति देशों की पसंद की आर्थिक नीतियां बनाई जा सकती हैं तो भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान क्यों नहीं चलाया जा सकता। यह किसी भी जिम्मेदार प्रशासन के अस्तित्व की जरूरी शर्त भी है।
पिछली सरकार में कम्युनिस्टों के अड़ंगे की बात करके बहुत कुछ बचत कर ली गई थी लेकिन इस बार कम्युनिस्ट नहीं हैं और अगर अफसरों के भ्रष्टाचार पर काबू पाने में आंशिक सफलता भी मिल गई तो सरकार अपना मकसद हासिल करने की दिशा में आगे बढ़ सकेगी। यह अलग बात है कि सरकार के शीर्ष पर बैठे लोगों की विचारधारा ही ऐसी है कि विकास का पैमाना पूंजीपति वर्ग का विकास ही माना जाएगा। इस सिद्घांत के अनुसार जब औद्योगिक विकास से पूंजीपति वर्ग की सम्पन्ना बढ़ती हैं तो गरीब आदमी को कुछ न कुछ फायदा हो हो ही जाता है।
ज़ाहिर है कि शासक वर्ग की आर्थिक विचारधारा को तो बदला नहीं जा सकता लेकिन जो भी विचारधारा है उसके हिसाब से भी सफलता मिले तो राष्ट्रहित तो होगा ही। लेकिन अगर भ्रष्टाचार को कम करने में सफलता नहीं मिली तो केंद्र सरकार की भी वही दुर्दशा होगी जो उत्तरप्रदेश की मौजूदा सरकार की हो रही है।

बाबरी मस्जिद, सियासत और गुमनाम नेता

बाबरी मस्जिद की शहादत के करीब साढ़े सोलह साल बाद मस्जिद के विध्वंस की साजिश रचने वालों के रोल की जांच करने के लिए बनाए गए लिब्रहान कमीशन की रिपोर्ट आई है। लिब्राहन आयोग को तीन महीने के अंदर अपनी जांच पूरी करने का आदेश हुआ था। उन्हें केवल साजिश के बारे में जांच करना था लेकिन मामला बढ़ता गया, और कमीशन के कार्यकाल में 48 बार बढ़ोतरी की गई। करीब 400 बार सुनवाई हुई और एक रिपोर्ट सामने आ गई।
रिपोर्ट के अंदर क्या है, यह अभी सार्वजनिक डोमेन में नहीं आया है लेकिन लाल बुझक्कड़ टाइप नेताओं और पत्रकारों ने रिपोर्ट के बारे में अंदर खाने की जानकारी पर बात करना शुरू कर दिया है। ऐसा नहीं लगता कि इस रिपोर्ट में ऐसा कोई रहस्य होगा जो जनता को नहीं मालूम है। समकालीन राजनीतिक इतिहास के मामूली से मामूली जानकार को भी मालूम होगा कि बाबरी मस्जिद की शहादत की साजिश में आर.एस.एस. और उसके बड़े कार्यकर्ताओं का हाथ था।
लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती, विनय कटियार जैसे बहुत सारे संघी वफादार मौका-ए-वारदात पर मौजूद थे और मस्जिद ढहाने वालों की हौसला अफजाई कर रहे थे। जिस वक्त मस्जिद जमींदोज हुई उमा भारती की खुशियों का ठिकाना नहीं था और वे कूद कर मुरली मनोहर जोशी की गोद में बैठ गई थीं और हनुमान चालीसा पढऩे लगी थीं। ऐसी बहुत ही जानकारियां हैं जो पब्लिक को मालूम हैं। मसलन कल्याण सिंह और पी.वी. नरसिम्हाराव भी साजिश में शामिल थे, यह जानकारी जनता को है। पूरी उम्मीद है कि लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट में यह सब कुछ होगा लेकिन बहुत सारी ऐसी बातें भी हैं जो कि लिब्रहान कमीशन की रिपोर्ट में कहीं नहीं होंगी।
संविधान में पूजा स्थल को नुकसान पहुंचाने को अपराध माना गया है और भारतीय दंड संहिता में इस अपराध की सजा है। अदालत में मुकदमा चल रहा है और शायद अपराधियों को माकूल सजा मिलेगी। लेकिन बाबरी मस्जिद के नाम पर राजनीति करने वालों ने बहुत सारे ऐसे अपराध किए हैं जिनकी सजा इंसानी अदालतें नहीं दे सकतीं। बाबरी मस्जिद को ढहाने वालों ने परवरदिगार की शान में गुस्ताखी की है, उसके बंदों की भावनाओं को ठेस पहुंचाई है। आर.एस.एस. से जुड़े जिन लोगों ने बाबरी मस्जिद को शहीद करने की साजिश रची, उनको न तो इतिहास कभी माफ करेगा और न ही राम उन्हें माफी देंगे।
देश की हिंदू जनता की भावनाओं को भड़काने के लिए संघियों ने भगवान राम के नाम का इस्तेमाल किया। उन्हीं राम का जो सनातनधर्मी हिंदुओं के आराध्य देव हैं जिन्होंने कहा है कि 'पर पीड़ा सम नहिं अधमाईÓ। यानी दूसरे को तकलीफ देने से नीच कोई काम नहीं होता। राम के नाम पर रथ यात्रा निकालकर सीधे सादे हिंदू जनमानस को गुमराह करने का जो काम आडवाणी ने किया था जिसकी वजह से देश दंगों की आग में झोंक दिया गया था उसकी सजा आडवाणी को अब मिल रही है। प्रधानमंत्री बनने के अपने सपने को पूरा करने के उद्देश्य से आडवाणी ने पिछले बीस वर्षों में जो दुश्मनी का माहौल बनाया उसकी सजा उनको अब मिली है, जब प्रधानमंत्री पद का सपना एक खौफनाक ख्वाब बन गया है।
बाबरी मस्जिद के खिलाफ चले आंदोलन में विनय कटियार, उमा भारती, साध्वी रितंभरा, नृत्य गोपाल दास, अशोक सिंहल जैसे लोगों ने बार-बार आम आदमी को भड़काने का काम किया था। इन लोगों की सबसे बड़ी सजा यही है कि आज इनकी किसी बात पर कोई भी हिंदू विश्वास नहीं करता। कांग्रेस में भी वीर बहादुर सिंह, अरुण नेहरू, बूटा सिंह आदि ने बढ़ चढ़कर सॉफ्ट हिंदुत्व की राजनीति की थी। यह सारे लोग या तो हाशिए पर हैं या कहीं नहीं हैं। पी.वी. नरसिम्हाराव के बारे में भी यही कहा जाता है कि वे साजिश में शामिल थे और जिस गुमनामी में उन्होंने बाकी जिंदगी काटी, वह उस नीली छतरी वाले की बे आवाज़ लाठी की मार का ही नतीजा था। दुनिया के मालिक और उसके घर को सियासत का हिस्सा बनाने वालों को भी उसी बे आवाज लाठी की मार पड़ चुकी है। कहां हैं शहाबुद्दीन और उनके वे साथी जो अवामी और धार्मिक मसलों पर तानाशाही रवैय्या रखते थे। बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के ज्यादातर नेता आज गुमनामी की जिंदगी बिता रहे हैं हालांकि उन्होंने सियासी बुलंदी हासिल करने के लिए एक ऐतिहासिक मस्जिद के इर्द-गिर्द अपने तिकड़म का ताना बना बुना था।
मुसलमानों के स्वयंभू नेता बनने के चक्कर में इन तथाकथित नेताओं ने उन हिंदुओं को भी नाराज करने की कोशिश की थी जो मुसलमानों के दोस्त हैं। शुक्र है उस पाक परवरदिगार का जिसने इस देश के धर्मनिरपेक्ष हिंदुओं को यह तौफीक दी कि वे आर.एस.एस. के जाल बट्टे में नहीं फंसे वरना शहाबुद्दीन टाइप लोगों ने तो कोई कसर नहीं छोड़ी थी। बाबरी मस्जिद की शहादत के लिए जिम्मेदार हर राजनेता को उसी मालिक की लाठी ने ठिकाने लगा दिया है जिसमें कोई आवाज नहीं होती। जहां तक लिब्रहान कमीशन की रिपोर्ट का सवाल है, राजनीतिक समीकरणों पर उसका असर पड़ेगा। बीजेपी वाले चिल्ला रहे हैं कि ऐसे वक्त पर रिपोर्ट आई है जिसका उनकी अंदरूनी लड़ाई पर नकारात्मक असर पड़ेगा। आरोप लगाए जा रहे है कि कांग्रेस लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट की टाइमिंग को राजनीतिक फायदे के लिए इस्तेमाल करना चाहती है। कोई इन हिंदुत्वबाज़ों से पूछे कि आपने भी तो बाबरी मस्जिद के नाम पर सियासत की थी, हिंदुओं के आराध्य देवता, भगवान राम को चुनाव में वोट बटोरने के लिए इस्तेमाल किया था, वोट हासिल करने के नाम पर हर शहर में दंगे फैलाए थे, अयोध्या से लौट रहे रामभक्तों को गोधरा में रेलगाड़ी के डिब्बे में साजिश का शिकार बनाकर, गुजरात में दुश्मनी का ज़हर बोया था और गुजरात भर में मुसलमानों को मोदी की सरकार के हमलों का शिकार बनाया था।
सच्चाई यह है कि बाबरी मस्जिद अयोध्या में चार सौ साल से मौजूद थी, लेकिन उसके नाम पर सियासत का सिलसिला 1948 से शुरू हुआ जो मस्जिद की शहादत के बाद भी जारी है। आज बीजेपी को शिकायत है कि कांग्रेस सियासत कर रही है, जबकि बीजेपी भी लगातार सियासत करती रही है। 1984 में लोकसभा की मात्र दो सीटें हासिल करने वाली बीजेपी ने केन्द्र की सत्ता तक पहुंचने की जो भी ऊर्जा हासिल की, वो बाबरी मस्जिद की सियासत से ही हासिल की थी। अब बीजेपी तबाही की तरफ बढ़ रही है जो उसके पुराने पापों का फल है। वैसे भी काठ की हांडी और धोखेबाजी की राजनीति बार-बार नहीं सफल होती, इसे बीजेपी से बेहतर कोई नहीं जानता।

Sunday, July 26, 2009

चुनाव आयोग पर हमला नहीं

मायावती ने एक बार फिर चुनाव आयोग को अपने ग़ुस्से का निशाना बनाया है। उनका आरोप है कि मुख्य चुनाव आयुक्त नवीन चावला और चुनाव आयुक्त एस वाई कुरेशी कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के इशारे पर काम कर रहे हैं। नवीन चावला ने साफ़ कर दिया है कि मायावती के इन बयानों के गंभीरता से लेने की ज़रूरत नहीं है।

उन्होंने कहा कि सही काम करने की चुनाव आयोग की मंशा पर उंगली उठाना ठीक नहीं है। नवीन चावला ने यह भी कहा कि 2007 के विधानसभा चुनावों के बाद मायावती इतना अभिभूत हो गई थीं कि रविवार के दिन चुनाव आयोग के दफ्तर में आईं और निष्पक्ष चुनाव संपन्न कराने के लिए धन्यवाद दिया था।दरअसल चुनाव आयोग का ताज़ा आदेश मायावती को बुरा लगा है।

जौनपुर जि़ले में एक दलित उम्मीदवार की हत्या हो गई थी। मायावती जी के पुलिस विभाग ने जांच की और पाया कि उम्मीदवार ने आत्मा हत्या की थी। उधर उम्मीदवार के परिवार वालों और उम्मीदवार की पार्टी के राष्ट्ररीय अध्यक्ष का आरोप था कि बहुजन समाज पार्टी के बाहुबली उम्मीदवार ने पुलिस और स्थानीय प्रशासन का इस्तेमाल करके पहले तो उम्मीदवार को डराने धमकाने की कोशिश की और नाम वापसी के लिए दबाव डाला।

जब वह राज़ी नहीं हुआ तो उसकी हत्या करवा दी गई और आतंक फैलाने के उद्देश्य से लाश को पेड़ पर लटका दिया। अब आयोप के सही साबित होने की संभावना बहुत कम है क्योंकि उत्तर प्रदेश पुलिस के एक मुख्य अधिकारी ने खुद जांच कर के मामले को र$फा दफ ा कर दिया है लेकिन चुनाव आयोग ने इस बात को नोटिस किया कि जि़ले के जि़लाधीश और पुलिस अधीक्षक शक के दायरे में हैं, लिहाज़ा निष्पक्ष चुनाव करवाने के लिए उनको हटाया जाना ज़रूरी है।

मायावती जी को यह बात बिलकुल पसंद नहीं आई कि कोई उनकी मर्जी के खिला$फ कुछ करे। खास तौर पर अपने खास अधिकारियों की रक्षा करने के लिए व हरदम तैयार रहती हैं। ऐसी हालत में जब चुनाव आयोग के सर्वोच्च अधिकारी ने ऐसा कोई फैसला सुना दिया जो उनके अफसरों को प्रभावित करता है तो तुरंत प्रेस कांफ्रेंस करके उन्होंने हमला बोल दिया। यह अलग बात है कि उनके बयान का कोई असर नहीं हुआ। देश के विकासमान लोकतंत्र के लिए यह ज़रूरी है कि संवैधानिक संस्थाओं की इज्जत करने की परंपरा को बल दिया जाए। चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट ऐसी संस्थाएं हैं जिन पर देश के लोकतंत्र को संभालने का जि़म्मा है।

ऐसी संस्थाओं पर बिना सोचे समझे गैर जि़म्मेदार तरीके से हमला नहीं किया जाना चाहिए। मायावती ने एक और सनसनीख़ेज़ खुलासा किया है। उनका कहना है कि कुछ विपक्षी राजनीतिक पार्टियां उनकी हत्या करवाना चाहती हैं। यदि उन्हें कुछ हो गया तो उसकी जि़म्मेदार विपक्षी पार्टियां होगी। यह बात भी अजीब है कि देश के सबसे बड़े राज्य की मुख्यमंत्री इतना डर कर काम कर रही हैं। अगर वास्तव में उन्हें कोई ख़तरा है तो उनको चाहिए कि अपनी सुरक्षा की व्यवस्था और मज़बूत कर लें। आखिर सब कुछ उनके नियंत्रण में है लेकिन अगर वह ख़ुद ही अपने भय का प्रचार करेंगी तो राज्य की जनता अपनी सुरक्षा के प्रति कैसे आश्वस्त होगी।

प्रधानमंत्री कौन? मोदी या आडवाणी

भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार लालकृष्ण आडवाणी बहुत बुरे फंस गये हैं। पिछले पांच साल से मनमोहन सिंह को कमजोर और अपने को बहुत भारी सूरमा बताने वाले प्रधानमंत्री इन वेटिंग बेचारे अपनों की नजर में ही गिर गए हैं। कांग्रेस और मनमोहन सिंह पर अपनी कल्पना शक्ति की ताकत के आधार पर तरह-तरह के आरोपों से विभूषित कर रहे, आडवाणी पर पिछले एक महीने से कांग्रेस ने हमले तेज कर दिए।

कांग्रेसी हमलों की खासियत यह थी, कि वह सचाई पर आधारित थे। कंदहार में आडवाणी की पार्टी की सरकार का शर्मनाक कारनामा, संसद पर हुआ आतंकी हमला और लाल किले पर हुए हमले पर जब कांग्रेसी नेताओं ने विस्तार से चर्चा करनी शुरू की तो आडवाणी और उनकी पार्टी के सामने बगलें झांकने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था। मीडिया में नौकरी करने वाले संघ के कार्यकर्ताओं तक के लिए मुश्किल पैदा हो गयी कि आडवाणी जैसे कमजोर आदमी का पक्ष कैसे लिया जाय। मजबूत नेता के रूप में आडवाणी की पेश करने के चक्कर में जो अरबों रूपए विज्ञापनों पर खर्च किये गए हैं उस पर पानी फिर गया।

सचाई यह है कि कांग्रेसी हमलों को मीडिया ने जिस तरह की कवरेज दी, उससे आडवाणी का व्यक्ति एक बहुत ही कमजोर आदमी के रूप में उभर कर आई। और उनको फोकस में रखकर चुनाव अभियान चलाने की बीजेपी कोशिश ज़मींदोज़ हो गई। इस सचाई का इमकान होने के बाद बीजेपी के चुनाव प्रबंधकों में हडक़ंप मच गया। बीजेपी के प्रचार की कमान का संचालन कर रहे तथाकथित वार रूम की ओर से काफी सोच विचार के बाद नया शिगूफा डिजाइन किया गया और मोदी के नाम को आगे करने की कवायद शुरू हो गई।

काफी सोच विचार के गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का नाम आगे बढ़ाया गया। हालांकि उसके साथ यह भी कहा जा रहा है कि आडवाणी के बाद मोदी प्रधानमंत्री के पद के उम्मीदवार होंगे। बीजेपी के अधिकारिक प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद ने दिल्ली में पत्रकारों को बताया कि मोदी में प्रधानमंत्री पद बनने के सारे गुण हैं और आडवाणी के बाद पार्टी उन्हें प्रधानमंत्री बनाने पर विचार कर सकती है। यहां यह बात अपने आप में हास्यास्पद है कि जिस पार्टी का जनाधार लगातार गिर रहा है और जिसे 16 मई के दिन 100 की संख्या पार करना पहाड़ हो जायेगा, वह प्रधानमंत्री पद पर आडवाणी को बैठाने के बाद मोदी को लादने की योजना बना रही है।

अजीब बात यह है कि चुनाव अभियान के दौरान प्रधानमंत्री पद के अगले दावेदार की चर्चा क्यों शुरू कर दी गई। इस बात पर गौर करने पर बीजेपी की उस मानसिकता के बारे में जानकारी मिल जायेगी, जिसे हारे हुए इंसान की मानसिकता के नाम से जाना जाता है। दो दौर के चुनावों के बाद जो संकेत आ रहे हैं, उससे अंदाज लग गया है कि बीजेपी की सीटें घट रही हैं। एक हताश सेना की तरह बीजेपी ने लड़ाई के दौरान सिपहसालार बदलने की कोशिश की है। बाकी कोई मुद्दा तो चला नहीं, मंहगाई, आतंकवाद जैसे मुद्दों को चलने की कोशिश तो बीजेपी ने की लेकिन इन दोनों के घेरे में वे ही फंस गए।

मालेगांव के आतंकवादी हमले के लिए बीजेपी के ही सदस्य पकड़ लिए गए। आतंकवाद से लडऩे की बीजेपी की क्षमता की भी धज्जियां उड़ गईं जब कंदहार का अपमान, संसद का हमला और लाल किले का हमला सीधे-सीधे आडवाणी के गले की माला बन गया। बीजेपी मैनेजमेंट ने आडवाणी से जान छुड़ाना ही बेहतर समझा और मोदी को आगे कर दिया। रणनीति में इस बदलाव का सीधा असर लालकृष्ण आडवाणी पर भी पड़ा और वे पिछले दो दिनों से कहते पाए जा रहे हैं कि इस चुनाव के बाद सन्यास ले लूंगा।

भारत का मित्र नहीं अमेरिका

इस सूचना से उत्साहित होने से बचा जाना चाहिए कि लंदन में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के बीच आपसी विश्वास बढ़ाने वाली बातचीत हुई। नि:संदेह भारत-अमेरिका के संबंध दिन-प्रतिदिन और प्रगाढ़ होने के प्रबल आसार हैं, क्योंकि दोनों स्वाभाविक मित्र हैं तथा दोनों को एक-दूसरे के सहयोग की आवश्यकता है, लेकिन पाकिस्तान में पोषित हो रहे आतंकवाद के संदर्भ में अमेरिकी प्रशासन ने जैसा रवैया अपना रखा है वह भारतीय हितों के अनुकूल नहीं है।

भले ही मनमोहन सिंह और बराक ओबामा की मुलाकात को इस रूप में रेखांकित किया जा रहा हो कि आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई के मामले में भारत एवं अमेरिका एकजुट हैं, लेकिन इस शाब्दिक एकजुटता से पाकिस्तान की सेहत पर कोई असर पडऩे वाला नहीं है। इसका ताजा प्रमाण पाकिस्तान का यह बयान है कि वह रुकी पड़ी शांति वार्ता को आगे बढ़ाने के लिए कोई शर्त स्वीकार नहीं करेगा।

यह बयान मनमोहन सिंह के इस कथन के जवाब में आया है कि संवाद शुरू करने के लिए पहले पाकिस्तान मुंबई हमले के षड्यंत्रकारियों को दंडित करने का काम करे। स्पष्ट है कि भारत यह मानकर संतुष्ट नहीं हो सकता कि अब गेंद पाकिस्तान के पाले में है, क्योंकि पाकिस्तानी शासक एक बार फिर दुष्प्रचार का सहारा लेकर यह साबित करने की कोशिश में हैं कि भारत उनसे बातचीत करने के मामले में उन पर शर्ते थोप रहा है।

इससे भी अधिक चिंताजनक बराक ओबामा का यह सुझाव है कि जब दोनों देशों की सबसे बड़ी शत्रु गरीबी है तब भारत-पाकिस्तान के बीच प्रभावशाली संवाद आवश्यक है। क्या ऐसे किसी सुझाव का तब कोई मतलब हो सकता है जब पाकिस्तान उन तत्वों के खिलाफ कार्रवाई करने के मामले में नित-नए बहाने बना रहा हो जो भारत के लिए सबसे बड़ा खतरा बन गए हैं? यह सही समय है जब भारत इस अमेरिकी रट के खिलाफ दृढ़ता का परिचय दे कि उसे पाकिस्तान से बातचीत करनी चाहिए, क्योंकि इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि बराक ओबामा के बयान के बाद पाकिस्तान इस नतीजे पर पहुंच सकता है कि अमेरिकी प्रशासन तो उसका पक्ष ले रहा है।

भारत इसकी भी अनदेखी नहीं कर सकता कि ओबामा प्रशासन पाकिस्तान में बेकाबू हो रहे आतंकवाद के संदर्भ में लगभग उसी नीति पर चल रहा है जिस पर बुश प्रशासन चल रहा था। मौजूदा अमेरिकी प्रशासन पाकिस्तान और अफगानिस्तान में कथित उदार आतंकियों की भी तलाश कर रहा है। इसके अतिरिक्त वह यह मानकर भी चल रहा है कि पाकिस्तान को आर्थिक सहायता देकर वहां पनप रहे आतंकवाद को आसानी से समाप्त किया जा सकता है।

नि:संदेह पाकिस्तान को आर्थिक मदद की जरूरत है, लेकिन तभी जब वह उसका उपयोग आतंकी संगठनों से लडऩे में करे। अमेरिका का कुछ भी मानना हो, लेकिन पाकिस्तान के मौजूदा सत्ता तंत्र की एक मात्र कोशिश आतंकी संगठनों की गतिविधियों पर पर्दा डालने की है। इसके लिए वह विश्व समुदाय की आंखों में धूल झोंक रहा है, लेकिन अमेरिका असलियत समझने से इनकार कर रहा है।

सेकुलर सरकार या गैर कांग्रेसी सरकार

लोकसभा चुनावों के पहले दौर में 124 सीटों पर मतदान संपन्न हो गया। अब तक के राजनीतिक और चुनावी संकेत ऐसे हैं, कि केंद्र में इस बार भी ऐसी सरकार बनेगी जिसमें बीजेपी का कोई योगदान नहीं होगा। ऐसा ही संकेत प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने दिया जब उन्होंने कहा कि चुनावों के बाद की परिस्थितियां तय करेगी कि सरकार बनाने में किन पार्टियों का सहयोग लिया जाए।

प्रधानमंत्री ने लेफ्ट फ्रंट की तारीफ की और स्वीकार किया कि कुम्युनिस्टों के सहयोग से सरकार चलाना एक अच्छा अनुभव था। अपने इस बयान से मनमोहन सिंह वामपंथी पार्टियों के सहयोग के संवाद को फिर से जिंदा कर दिया है।प्रधानमंत्री के इस बयान में जो न्यौता है उसमें राजनीतिक आचरण की कई परते हैं जिसे राजनीति के मंझे हुए खिलाड़ी प्रकाश करात ने तुरंत भांप लिया। गठबंधन राजनीति की स्थिति पर पहुंचने से पहले सभी पार्टियां चुनावी राजनीति के समुद्र में गोते लगा रहीं है। पूरे देश में राजनीतिक हार जीत की चर्चा चल रही है और कांग्रेस और वामपंथी पार्टियों आमने सामने है।

पश्चिम बंगाल और केरल, जहां से अधिकतर कम्युनिस्ट सदस्य लोकसभा में पहुंचते है, वहां दोनों की पक्षों के गंठबंधन एक दूसरे के खिलाफ कठिन लड़ाई लड़ रहे हैं। बंगाल में कांग्रेस-तृणमूल गठबंधन की ओर से वामपंथियों को कड़ी चुनौती मिल रहीं है, ऐसे माहौल में प्रधानमंत्री का यह संदेश कि अभी की लड़ाई तो ठीक है लेकिन चुनाव के बाद हम फिर एक होने की कोशिश करेंगे चुनाव में कार्यकर्ताओं के हौंसले को प्रभावित कर सकता है। ज़ाहिर है कि इससे वामपंथी चुनावी अभियान की धार कुंद हो सकती है।

शायद इसी संभावना की काट के लिए माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव प्रकाश करात ने तुरंत बयान दे दिया कि चुनाव के बाद भी कांग्रेस से कोई समझौता नहीं होगा।जानकार मानते है कि अपने अभियान की हवा निकालने वाले किसी भी बयान को बेमतलब साबित करने के उद्देश्य से ही माक्र्सवादी नेता ने यह बयान दिया है। वरना यह सभी जानते है कि लेफ्ट फ्रंट के नेता दिल्ली में एक सेकुलर सरकार बनाना चाहते हैं।

अभी उनकी पोजीशन है कि केंद्र में गैर कांग्रेस सेकुलर सरकार बनानी है। यह उनकी इच्छा है और इस आदर्श स्थिति को हासिल करने के लिए वामपंथी नेता सारी कोशिशें कर रहे हैं। हालांकि उन्हें मालूम है कि मौजूदा स्थिति में जो पार्टियां वामपंथी मोर्चा में शामिल है अगर उनके सभी उम्मीदवार जीत जायं तो भी 272 सीटों का लक्ष्य नहीं हासिल कर सकेंगे। जाहिर है ऐसी हालत में तीसरे मोर्चे को अपनी वैकल्पिक योजना को फौरन प्रस्तुत करना पड़ेगा क्योंकि अगर इसमें ज्यादा वक्त लगा तो तीसरा मोर्चा बिखरना शुरू हो जायेगा।

तीसरे मोर्चे में शामिल सभी गैर कम्युनिस्ट पार्टियां कभी न कभी भाजपा के साथ काम कर चुकी हैं और अगर बीजेपी की सरकार बनने की संभावना बनी तो इन पार्टियों को विचारधारा का कोई संकट पेश नहीं आयेगा क्योंकि सभी पार्टियां एनडीए या अन्य गठबंधनों में बीजेपी के साथ रही चुकी हैं। कभी किसी को अपना लक्ष्य मुकम्मल तौर पर नहीं मिलता। यहां सवाल यह पूछा जाना चाहिए कि अगर गैर कांग्रेस सेकुलर सरकार का लक्ष्य हासिल करने में तीसरे मोर्चे को सफलता न मिली तो क्या बीजेपी की सरकार बनने की स्थितियां उन्हें स्वीकार होगी अगर बीजेपी के सहयोग से बनने वाली सरकार में वामपंथी पार्टियों को कोई दिक्कत नहीं है, तब तो कोई बात नहीं।

लेकिन अगर बीजेपी को सत्ता में अपने से रोकने के अपने घोषित उद्देश्य को माक्र्सवादी नेता पूरी करना चाहते हैं तो उन्हें कांग्रेस का सहयोग जरुरी होगा। और प्रधानमंत्री का संवाद शुरु करने वाला बयान ऐसी परिस्थिति में सार्थक होगा। सरकार किसकी बनती है, यह उस वक्त की राजनीतिक स्थिति पर निर्भर करेगा। वामपंथियों के सामने विकल्प दो ही हैं या तो सरकार कांग्रेस की हो और धर्मनिरपेक्ष ताकतें उसका समर्थन करें और या तीसरे मोर्चे का कोई नेता प्रधानमंत्री बने और कांग्रेस उसे समर्थन दे।

एक और ऐतिहासिक भूल

केंद्र की मनमोहन सिंह सरकार से समर्थन वापसी की वाम मोर्चा की नीति कुतूहल का विषय तो तब से ही थी, जब प्रकाश करात ने इसकी घोषणा की थी। 2004 में कांग्रेस ने वामपंथी दलों के सहयोग से केंद्र में सरकार बनाने का फैसला किया था, तभी से जानकारों को विश्वास था कि सरकार के चार सला पूरा होने के बाद ही समर्थन वापसी हो जायेगी।

इस सोच का आधार यह था कि बाहर से रहकर समर्थन दे रही पार्टी चुनाव में जाने के पहले कांग्रेस से झगड़ा करके कांग्रेस पार्टी के उन कामों से पल्ला झाड़ लेगी जो अलोक प्रिय होंगे और उन कामों के लिए क्रेडिट लेगी जिनसे चुनावी फायदा होगा, जो जनहित में होंगी। आजकल वामपंथी पार्टियों के प्रवक्ता चारों तरफ यह कहते फिर रहे हैं कि देश की अर्थ व्यवस्था को तबाह होने से कम्युनिस्टों ने बचाया। उनका दावा है कि मनमोहन सिंह सरकार तो ऐसी नीतियां बनाने और लागू करने की फिराक में थी जो देश की अर्थव्यवस्था को पूरी तरह अमरीकियों का मोहताज बना देतीं और उनका विरोध परमाणु संधि से था, जिसके कारण उन्होंने सरकार से समर्थन वापस ले लिया।

सब जानते है कि यह बहाना है क्योंकि अगर समर्थन वापसी का यही कारण है तो जब परमाणु समझौते की बात शुरू हुई, यह काम तभी हो जाना चाहिए था। दरअसल समर्थन वापसी की कुछ गुत्थियां अब सुलझने लगी हैं। माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के बड़े लेकिन बरखास्त नेता सोमनाथ चटर्जी ने कहा है कि उन्होंने माकपा नेत्तत्व को समझाने की कोशिश की थी और आगाह किया था कि 1996 वाली गलती की तरह फिर ऐतिहासिक भूल न करें। 1996 में गठबंधन सरकार का नेतृत्व करने का काम माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के ज्योति बसु को मिल रहा था, लेकिन माकपा की केंद्रीय कमेटी ने प्रस्ताव को खारिज कर दिया और एच. डी. देवगौड़ा प्रधानमंत्री बन गए।

सोमनाथ चटर्जी ने दावा किया है कि उन्होंने माकपा के नेताओं को समझाया था कि परमाणु समझौते के खिलाफ अपना रूख ज्यों का त्यों रखो- देश की जनता को अपनी बात से अवगत कराओ लेकिन समर्थन वापस मत लो। सोमनाथ चटर्जी का कहना है कि समर्थन वापसी से वही ताकते मजबूत होंगी जिनके खिलाफ हम जीवन भर संघर्ष करते रहे हैं। लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ा और अपनी जिद पर आमादा वामपंथी नेतृत्व ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया। नतीजा सामने है एक सरकार सांप्रदायिक शक्तियों के खिलाफ मोर्चा खोले हुए थी, उसके सामने अस्त्तित्व का संकट पैदा हो गया। आज वामपंथी पार्टियां चुनाव मैदान में हैं अब तक के संकेतों से साफ है कि लोकसभा में वामपंथी सदस्यों की जो संख्या थी, इस बार उससे कम होगीं यानी सरकार से समर्थन वापसी से जिस राजनीतिक फायदे की उम्मीद थी, वह नहीं हुई उल्टे घाटा होने का खतरा पैदा हो गया है।

Friday, June 26, 2009

दंगाई के हाथ में वोटर लिस्ट

बीजेपी की राजनीति की कुछ बारीकियां सामने आई हैं। पार्टी के मुसलमान, सांसद सैयद शाहनवाज़ हुसैन की ओर से एक ख़त दिल्ली के मुसलमान मतदाताओं के यहां पहुंचा है। इस ख़त में बीजेपी उम्मीदवार को जिताने की अपील की गई हैं। यह सब कुछ सामान्य सा है इस अपील करने के अधिकार पर कोई सवाल नहीं उठाया जा सकता। शाहनवाज हुसैन की इस चिट्ठी को पढक़र धर्मनिरपेक्षता की राजनीति की बड़ी कार्यकर्ता शबनम हाशमी ने जो जवाब लिखा वह चौंकाने वाला है।

उन्होंने लिखा कि लगता है कि बीजेपी वालों ने वोटर लिस्ट से नाम देखकर ऐसे लोगों के पास ही खत भेजा है तो मुसलमान लगते हों। उन्होंने आगे बताया कि इस बार तो अपने वोट मांगने के लिए मुसलमानों का नाम ढूंढा है लेकिन यही लिस्ट चुन-चुनकर घर जलाने में, हमला करने में, लूटपाट और खून खराबा करने में भी इस्तेमाल की जाती होगी। ज़ाहिर है बीजेपी के पास हर इलाके में रहने वाले मुसलमानों की फेहरिस्त है और दंगे के वक़्त उस लिस्ट का इस्तेमाल किया जाता है। शबनम हाशमी को गुजरात 2002 के नरसंहार के बाद राज्य में चले पुनर्वास और सहायता के काम में शामिल होने का तजुर्बा है।

उन्होंने बीजेपी और आर.एस.एस की मुस्लिम विरोधी राजनीति को बहुत करीब से समझा है, ज़ाहिर है उनके अनुभव से सभ्य समाज को कुछ न कुछ सीखना चाहिए। संघ बिरादरी के लोग आम तौर पर आरोप लगाते हैं कि मुसलमान उन्ही इलाकों में रहना पसंद करते है जहां मुसलमानों की घनी आबादी होती है और मुख्य धारा के लोगों से मेल जोल नहीं बढ़ाते। एक बीजेपी नेता ने तो एक बार यहां तक कह दिया कि बीजेपी को वोट देकर मुसलमान मुख्यधारा में शामिल हो सकते हैं।

यह बहुसंख्यक होने का दंभ है और इसको रोका जाना चाहिए। मुस्लिम बहुल इलाकों में ही मुसलमान इसलिए रहना पसंद करते है क्योंकि आम तौर पर दंगा फैलाने वाला संघ का आदमी मुस्लिम बहुल इलाकों में जाने की हिम्मत नहीं करता। हां गुजरात की बात अलग है। वहां के दंगाई को मालूम था कि राज्य सरकार उसके साथ है। मुख्यमंत्री उनका अपना बंदा है और पुलिस को पूरी हिदायत दे दी गई है। इसीलिए गुजरात 2002 नरसंहार में दंगाईयों ने मुहल्लों में बसे छिटपुट मुसलमानों को भी चुनचुन कर मारा था क्योंकि उनके पास वोटर लिस्ट थी।

इस तरह की सैकड़ों घटनाएं स्लाइड की तरह दिमाग से गुजर जाती है। शुरू में तो समझ में नहीं आता था कि सब होता कैसे है। बाद में समझ में आया कि दंगाइयों के पास वोटर लिस्ट होती है और उसी का इस्तेमाल किया जाता है। दंगों के इतिहास में इस तरीके का इस्तेमाल बार-बार हुआ है। 1984 के दिल्ली के सिख विरोधी दंगों में भी इसी तरकीब इस्तेमाल करके सिखों के घर जलाए गये थे। दक्षिण दिल्ली की सम्पन्न कालोनियों में इंदिरा गांधी के भक्तों ने बाकायदा आतंक का तांडव किया था, शायद सरकारी इशारे पर पुलिस मूक दर्शक बनी खड़ी थी और इंसानियत का सिर झुक गया था जरूरत इस बात की है कि देश का जागरूक मध्यवर्ग दंगा फैलाने के इन तरीकों और हर तरह के दंगाइयों के खिलाफ लामबंद हो और समाज विरोधी तत्वों को हाशिए पर लाए।

जेल, नरेंद्र मोदी और नरसंहार

गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को अब डर लग रहा है कि शायद गुजरात के 2002 के नरसंहार में उनके शामिल होने की बात को छुपाया नहीं जा सकता। अब तक तो जितनी भी जांच हुई है, वह सब मोदी के ही बंदों ने कीं इसीलिए उसमें उनके फंसने का सवाल ही नहीं था। एक और जांच रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव ने करवाई थी, जिसे बीजेपी के नेताओं और पत्रकारों ने मजाक में उड़ा दिया था।

दरअसल लालू प्रसाद की अपनी विश्वसनीयता भी ऐसी नहीं है कि उनकी जांच को गंभीरता से लिया जाता, लेकिन इस बार मामला अलग है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश से जांच होने वाली है और जांच करने वाला अफसर भी ऐसा है जिसे खरीदा नहीं जा सकता। सी बी आई के पूर्व निदेशक राघवन को जांच का जिम्मा सौंपा गया है जिनका अब तक का रिकार्ड एक ईमानदार और आत्म सम्मानी अफसर का है।

यानी अब 2002 के नरसंहार में मोदी के शामिल होने के शक पर सही जांच की संभावना बढ़ गई है। मोदी भी जानते हैं और दुनिया भी जानती है कि गोधरा और उससे संबंधित नरसंहार के मुख्य प्रायोजक नरेंद्र मोदी ही हैं। जब राघवन जैसा ईमानदार अफसर जांच करेगा तो मोदी के बच निकलने की संभावना बहुत कम रहेगी।

इसी सच्चाई के नतीजों से घबरा कर मोदी और बीजेपी के आडवाणी गुट के नेता सुप्रीम कोर्ट के आदेश को राजनीतिक रंग देने की कोशिश कर रहे हैं। बीजेपी के नेता ऐसा माहौल बनाने की कोशिश कर रहे हैं जिससे लगे कि मोदी के खिलाफ जांच का काम कांग्रेस पार्टी और केंद्र सरकार करवा रही है, जबकि जंाच सुप्रीम कोर्ट के आदेश से हो रही है। नरेंद्र मोदी ने एक चुनावी सभा में कहा कि कांग्रेस उन्हें जेल में डालने की साज़िश रच रही है।

हो सकता है कि वे तीन महीनों बाद जेल की सलाखों के अंदर हों। मोदी का यह बयान बहुत ही गैर जिम्मेदार है। इस बयान का भावार्थ यह है कि सुप्रीम कोर्ट के काम को कांग्रेस साजिश करके प्रभावित कर सकती है। शायद मोदी को भी मालूम हो कि यह बयान सुप्रीम कोर्ट की अवमानना है और अगर माननीय सुप्रीम कोर्ट ने उनके इस बयान पर कारवाई करने का फैसला कर लिया तो तीन महीने तो दूर की बात है, मोदी को अभी जेल की सज़ा हो जाएगी। जहां तक मोदी के अपने जेल जाने की बात कहकर सहानुभूति बटोरने की बात है, वह बेमतलब है।

मोदी जैसे व्यक्ति को तो 2002 के बाद ही जेल में बंद कर दिया जाना चाहिए था। राजनीति की बात का न्यायालय के आदेशों पर थोपने की कोशिश हर फासिस्ट पार्टी करती है इसलिए बीजेपी की इस कोशिश के पीछे भी उसकी नीत्शेवादी राजनीतिक सोच ही है।हिटलर की नैशनलिस्ट सोशलिस्ट पार्टी भी ऐसे कारनामों के जरिये, अदालतों पर दबाव डालती थी। जो बात उत्साह वद्र्घक है वह यह कि गुजरात नरसंहार के मामले में सुप्रीम कोर्ट का सकारात्मक दखल बहुत ही अहम है।

अब तक तो दंगों में मारे गए व्यक्तियों का कहीं कोई हिसाब ही नहीं होता था और कभी भी किसी दंगाई को सजा नहीं होई थी। सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद गुजरात के नरसंहार की जांच के नतीजों के बाद शायद दंगाईयों की समझ मे आ जाएगा कि दंगा कराने वालों तक भी कानून की पहुंच होती है और अगर नरेंद्र मोदी को गुजरात नरसंहार 2002 के अपराध में सजा हो गई तो आगे दंगाइयों के हौंसलों को पस्त करने में मदद मिलेगी।

कांग्रेस और राजनीतिक आत्महत्या की प्रवृत्ति

1989 के चुनाव में पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय विश्वनाथ प्रताप सिंह ने बोफोर्स तोप दलाली केस को चुनावी मुद्दा बनाने में सफलता हासिल की थी। नतीजा यह हुआ कि वे विपक्ष की मदद से प्रधानमंत्री बन गए। उनको कांग्रेस विरोधी सभी महत्वपूर्ण पार्टियों का समर्थन मिला था। माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और भारतीय जनता पार्टी ने वी पी सिंह की सरकार को बाहर से समर्थन दिया था।

चुनाव प्रचार के दौरान वीपी सिंह ने दावा किया था कि 100 दिन के अंदर बोफोर्स दलाली केस के अभियुक्तों की शिनाख़्त हो जाएगी और दलाली की रकम प्रधानमंत्री राहत कोष में जमा हो जाएगी। लेकिन कुछ नहीं हुआ। पिछले बीस वर्षो से कई सरकारें आती जाती रहीं लेकिन बोफोर्स का मद्दा ज्यों का त्यों है। जहां तक बोफोर्स दलाली की बात है, आम धारणा है कि इटली के व्यापारी ओतावियो क्वात्रोची ने दलाली ली थी और उनके राजीव गांधी के सुसराल वालों से बहुत अच्छे संबंध थे। यानी ठीकरा राजीव गांधी के परिवार के सिर पर फोड़ा जा सकता है।

बोफोर्स दलाली केस पिछले बीस वर्षो से बीजेपी के नेताओं का बहुत ही प्रिय विषय रहा है। इस चाबुक का इस्तेमाल करके बीजेपी वाले राजीव गांधी की पत्नी और बच्चों को डराते रहते हैं और इस मुद्दे का यही इस्तेमाल है। इस बार भी यह मुद्दा चुनाव प्रचार के मध्य में एक बार फिर उठ गया है। ताज्जुब यह है कि सरकार की तरफ से इसे उठाया गया है। कुछ लोगों को शक है कि कांग्रेस के अंदर ही नेताओं का एक गुट है जो सोनिया गांधी को चेतावनी देना चाह रहा है कि अगर उन्होंने इस गुट को हाशिए पर लाने की कोशिश की तो नतीजा ठीक नहीं होगा।

जाहिर है कि कांग्रेस नेतृत्व जानबूझ कर तो इस मामले को ऐन चुनाव प्रचार के सीजन में सामने नहीं लाना चाहेगा। और अगर कांग्रेस के नेतृत्व ने सोची समझी राजनीति के तहत इस मामले को आगे करने की कोशिश की है, तो इसमे कोई शक नहीं कि कांग्रेस पार्टी में राजनीतिक हत्या करने की इच्छा बहुत ही प्रबल है। जहां तक चुनाव नतीजों की बात है, बोफोर्स केस की अब यह औक़ात नहीं है कि वह उसे प्रभावित कर सके। 1987-88 में जब यह मामला सामने आया था, तो 65 करोड़ रूपये की दलाली बड़ी रकम माना जाता था लेकिन पिछले बीस वर्षो मे सत्ताधारी पार्टियों के नेताओं की दलाली के जो कारनामे सामने आए हैं, उसके सामने 65 करोड़ की कोई अहमियत नहीं रह गई है।

1989 में जब वीपी सिंह और भारतीय जनता पार्टी ने बोफोर्स को चुनावी मुद्दा बनाया था तो बीजेपी भी अपेक्षाकृत ईमानदार पार्टी मानी जाती थी और वीपी सिंह की तो ईमानदार नेता की छवि थी ही। लेकिन आज बीस साल बाद जब बीजेपी के नेताओं की दलाली की कहानियां सुनाई पड़ती हैं तो लगता है कि उनकी घूस लेने की क्षमता बहुत बड़ी है। एक पूर्व प्रधानमंत्री के तथाकथित दामाद और एक स्वर्गीय भाजपाई मंत्री और तिकड़म बाज़ के दलाली संबंधी कारनामों के सामने बोफोर्स दलाली की र$कम फुटकर पैसे की हैसियत रखती है।

इसलिए बीजेपी में यह राजनीतिक ता$कत नहीं है कि वह बोफोर्स या किसी भी दलाली के सौदे को चुनावी मुद्दा बना सके। बीजेपी के अपने दलाली के कारनामे ऐसे हैं कि जिस के सामने बोफोर्स दलाली मामला एक दम बौना लगेगा। हां इस मुद्दे का इस्तेमाल बीजेपी वाले अखबारों और टीवी चैनलों में भगवा पत्रकारों के सहयोग से हड़बोंग मचाने में कर सकते हैं। जहां तक कांग्रेस का सवाल है, इस के नेता इस मामले को वर्तमान चुनाव के अंत तक टाल सकते थे लेकिन उन्होंने राजनीतिक आत्महत्या करने का फैसला किया। वैसे भी इस देश में राजनीतिक आत्माहत्या करने की कोई पाबंदी नहीं है।

स्कूल प्रशासन का शोषण

दिल्ली उच्च न्यायालय, अभिभावकों और समाचार माध्यमों के दबाव में शिक्षा निदेशालय अब भले ही फीस बढ़ोत्तरी के मुद्दे पर फरमान जारी कर रहा है, लेकिन इसका तब तक कोई मतलब नहीं जब तक कि स्कूल फीस बढ़ाने का अपना कदम वापस नहीं ले लेते। स्कूलों को अपना लेखा-जोखा हर हाल में तीस अप्रैल तक पेश करने के निदेशालय के फरमान से यह स्पष्ट नहीं होता कि क्या इस कदम से फीस वृद्धि पर वाकई कोई अंकुश लग पाएगा?

बेहतर तो यह होता कि निदेशालय पहले बढ़ाई गई फीस को वापस लेने के लिए स्कूलों पर दबाव बनाता। पीड़ित अभिभावकों की मांग भी यही थी, लेकिन ऐसा न होने से यह आशंका गलत नहीं लगती कि कहीं चुनावी माहौल को देखते हुए निदेशालय ने यह कदम लोगों को बरगलाने के लिए तो नहीं उठाया? अगर ऐसा है तो इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि चुनाव खत्म होने के बाद इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया जाएगा। यदि शिक्षा निदेशालय की नीयत वाकई साफ है तो उसे सबसे पहले अभिभावकों को राहत देने वाला कदम उठाना चाहिए।

यहां सवाल उठता है कि क्या निदेशालय स्कूल प्रबंधनों पर ऐसा दबाव बनाने में सक्षम है? शिक्षा माफियाओं के उच्चस्तरीय दबाव को देखते हुए क्या वह ऐसा करना चाहेगा? यह सवाल भी कम पेचीदा नहीं कि जिन अभिभावकों ने स्कूलों के दबाव में पहले ही बढ़ी हुई फीस और एरियर की धनराशि जमा करा दी है क्या उन्हें यह रकम लौटाई जाएगी? फीस वृद्धि के मसले पर आज अभिभावक भले ही आरपार की लड़ाई के मूड में हैं, लेकिन देखा जाए तो आमतौर पर अधिकांश अभिभावक अपने बच्चों को किसी मुसीबत में नहीं डालना चाहते।

यही कारण है कि अधिकांश अभिभावकों ने कोई न कोई जुगत करके बढ़ी फीस स्कूलों के पास जमा करा दी है। ऐसी स्थिति में निदेशालय को इस पर भी गंभीरता से विचार करना चाहिए ताकि राहत मिलने की स्थिति में सभी अभिभावकों को इसका लाभ मिल सके। फिलहाल तो दिल्ली सहित एनसीआर के शहरों से संबंधित राज्यों की सरकारों को भी फीस वृद्धि के मुद्दे पर शिक्षा प्राधिकरणों पर भरपूर दबाव डालना चाहिए जिससे कि वे स्कूलों पर लगाम लगा सकें, अन्यथा उन्हें अभिभावकों के असंतोष का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए।

राजनीति और हवाई नेता

संजय दत्त को समाजवादी पार्टी ने महासचिव बना दिया। समाजवादी पार्टी को इस देश में समाजवादी आंदोलन और लोहिया की विरासत का ट्रस्टी माना जाता है। संयुक्त समाजवादी पार्टी प्रजा सोशलिस्ट पार्टी या अन्य समाजवादी धाराओं के लोग पूरे देश में कहीं न कहीं बिखरे पड़े हैं। कुछ लोग हाशिए पर आ गये हैं। तो बाकी लोग कांग्रेस और भाजपा जैसी पार्टियों की शरण में हैं।

कुछ लोगों ने अपनी राजनीतिक पार्टियां बना रखी हैं। और मौका मिलते ही सत्ता के रथ पर सवार हो जाते हैं। समाजवादी पार्टी के नेता भी इसी ताक में रहते हैं, लेकिन अभी उत्तर प्रदेश के गांवों में कुछ ऐसे लोग मिल जायेंगे जिन्होंने डॉ. राम मनोहर लोहिया के साथ काम किया था और आम आदमी की पक्षधरण के संघर्ष में शामिल हुए थे, जुलूस निकाला था। और लाठियां खाईं थी। हर उस सरकार को निकम्मी घोषित किया था जो रोटी रोज़ी नहीं दे सकती थी।

उसी समाजवादी पार्टी में मुंबई की फिल्मी दुनिया के लोग लाइन लगाकर चले आ रहे हैं। इस बात पर कोई एतराज नहीं हो सकता। लेकिन राजनीतिक पार्टी के संचालन में जिस तरह की अफरातफरी का माहौल समाजवादी पार्टी में शुरू किया किया है, उस पर आश्चर्य होता है।राजनीति फर्म को समाज की सामूहिक सोच और मनीषा का संगम माना जाता है।

विद्वान मानते हैं कि राजनीति अधिकतम संख्या जनता की वैध महत्तवाकांक्षाओं को पूरा करने का ही नाम है और वैध महत्वाकांक्षाओं का वाहक बने। इन्हीं महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए किए गए संघर्ष के दौरान उसी जनता के बीच से राजनीतिक पार्टियों के नेता उभरते हैं मुलायम सिंह यादव, जनेश्वर मिश्र, राम गोपाल यादव, लालू यादव, नीतिश कुमार, वृंदा करात, करूणानिधि शरद पवार, बुद्घदेव भट्टाचार्य आदि ऐसे ही लोग हैं, लेकिन जब ऊपर पहुंच चुके नेताओं की व्यक्तिग कुछ और आशिर्वाद लेकर पैराशूट के जरिए, आम कार्यकर्ता के सिर पर नेता उतार दिए जाते हैं तो पार्टी का जनाधार प्रभावित होता है।

और पार्टी की हैसियत रोज-ब-रोज कम होती जाती है। कांग्रेस पार्टी का पिछले 30 साल का इतिहास इस तथ्य को विधिवत स्पष्टï कर देता है। संजय गांधी के दौर में उपर फट्ट लोगों को भर्ती करने का सिलसिला शुरू हुआ और राजीव गांधी ने दून स्कूल के अपने साथियों से कांग्रेस को भर दिया और वही लोग देश के भाग्य विधाता बन गए। नतीजा दुनिया के सामने हैं। अपनी मां इंदिरा गांधी की हत्या से उपजी सहानुभूति के बल पर चार सौ के आसपास सीट पाने वाले राजीव गांधी पांच साल के अंदर कांग्रेस की हार के जिम्मेदार बने। कांग्रेस पार्टी का जनाधार तितर-बितर हो गया और तबसे आज तक संभल नहीं सकी।

2004 के चुनावों के पहले भारतीय ने भी हवाई नेताओं को बड़े पैमाने पर भरती किया था और उनका भी वही हाल हो रहा है। जो कांग्रेस का हुआ था। आम कार्यकर्ता जो निराश हुआ तो थामे नहीं थम रहा है। और अब समाजवादी पार्टी भी उसी ढर्रे पर चल निकली है। अपनी पार्टी के रामपुर के बड़े नेता आजम खां की मर्जी के खिलाफ जिसे पार्टी चुनाव लड़ा रही है, उसके भी आम कार्यकर्ता तो कभी नहीं कहा जा सकता। संजय दत्त भी इसी श्रेणी में आते हैं। अजीब बात यह है कि समाजवादी पार्टी जैसा जमीन से जुड़ा संगठन संजय दत्त की आपराधिक पृष्ठभूमि को धमकाकर दबाने की कोशिश कर रहा है।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ शक का माहौल पैदा किया जा रहा है। और कांग्रेस पार्टी के खिलाफ लामबंदी की कोशिश की जा रही है। इस सबसे ज्यादा मुश्किल यह है कि इस तरह के संकेत देने की कोशिश हो रही है कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला कांग्रेस के दबाव में आया है। वरना संजय दत्त लखनऊ से उम्मीदवार रहते। और जैसे सुप्रीम कोर्ट को ही चिढ़ाने के लिए फैसले के अगले दिन ही संजय दत्त को पार्टी को महासचिव बना दिया गया। समझ में नहीं आता ऐसी हड़बड़ी क्यों है।

आखिर संजयदत्त कोई दूध के धुले तो हैं नहीं। जिस तरह के आरोप उनपर लगे हैं और अदालत ने उन्हें सज़ा दी है, वह कोई साधारण सज़ा तो है नहीं। इसलिए जरूरत इस बात की है कि जिद में कोई काम करने के पहले समाजवादी पार्टी, कांग्रेस और भाजपा के जनाधार खिसकने की कहानी पर गौर कर ले। जल्दबाजी और जिद में किए गए फैसले कभी भी अपने हित में नहीं होते।