शेष नारायण सिंह
गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री के संभावित दावेदार के रूप में पेश करके बी जे पी अध्यक्ष,नितिन गडकरी ने एक साथ कई निशानों पर तीर मारा है .पार्टी के आडवाणी गुट से मिल रही चुनौती को उन्होंने बिलकुल भोथरा कर दिया है .इस गुट के बाकी नेताओं की यह हैसियत तो है नहीं कि अपने ही गुट के अन्नदाता नरेन्द्र मोदी से पंगा लें. इस लिए अब दिल्ली में रहकर सियासी शतरंज खेलने वाले नेता लोग राग मजबूरी में काम करने लगेंगें. जानकार बताते हैं कि गडकरी के बयान के बाद आर एस एस के दंगाई सक्रिय हो जायेंगें और देश के अलग अलग इलाकों में दंगें शुरू हो जायेंगें क्यंकि बी जे पी की राजनीति को धार दंगों के बाद ही मिलती है . उत्तर प्रदेश के बरेली शहर में करीब २ हफ्ते से चल रहे कर्फ्यू को इसी सच्चाई की रोशनी में देखा जाना चाहिए.बरेली के दंगें में सियासत की कई परते हैं .सबसे अहम तो यह है कि १९९१ से ही बी जे पी ने बरेली की लोकसभा सीट को अपनी सीट मान रखा है .बाबरी मस्जिद के खिलाफ बी जे पी के अभियान के दौरान यहाँ से पहली बार बी जे पी का उम्मीदवार जीता था. जो २००४ तक जीतता रहा लेकिन लोकसभा -२००९ में यहाँ से कांग्रेस जीत गयी. कांग्रेस के नेता लोग भी अब बरेली को अपनी सीट मानने लगे हैं . उनके कुछ नेता बरेली जाते रहते हैं और वहां की सबसे पवित्र दरगाह, पर अपनी श्रद्धा दिखाते रहते हैं .यानी कांग्रेस अब बरेली को अपनी सीट के रूप में पक्का करने की कोशिश कर रही है . यह बात बी जे पी को बिलकुल पसंद नहीं है . बी एस पी भी इस राजनीतिक घटनाक्रम से बहुत नाराज़ है . वैसे भी उत्तरप्रदेश में कांग्रेस महासचिव राहुल गाँधी बी एस पी के प्रभाव वाले इलाकों में अपनी गतिविधियाँ बढ़ाकर बी एस पी लीडरशिप को डराते रहते हैं . बरेली में कांग्रेस की मजबूती को कमज़ोर करने की चिंता बी एस पी के एजेंडे में भी है. जहां तक बी जे पी की बात है उसकी तो जांची परखी नीति है कि दंगे के बाद जो राजनीतिक ध्रुवीकरण होता है , उस से पार्टी का फायदा होता है . इस तरह से कई तरह के राजनीतिक सोच के माहौल के बीच २ मार्च को बारावफात के जुलूस से सम्बंधित एक मामूली विवाद के बीच पुलिस ने एक धार्मिक नेता को गिरफ्तार कर लिया. काफी जाच पड़ताल के बाद पुलिस को पता लगा कि उस धार्र्मिक नेता का कोई कुसूर नहीं था लिहाज़ा उसे छोड़ दिया गया . बी जे पी के हाथ एक भड़काऊ मुद्दा लग गया और उसके नेता मुस्लिम धार्मिक नेता की रिहाई का विरोध करने लगे . अफवाहें फैलने लगीं, आगज़नी और तोड़ फोड़ की घटनाएं शुरू हो गयीं. एक मित्र ने कहा कि बी एस पी तो मुसलमानों की हमदर्द जमात है , वह दंगें को क्यों भड़का रही है . जवाब साफ़ है कि बरेली में अगर किसी वजह से उनका अपना फायदा नहीं होता तो वे कांग्रेस का नुकसान करने की गरज से बी जे पी को ही फायदा पंहुचा देगें क्योंकि बी एस पी की नज़र में अब बी जे पी मायावती की ताक़त को किसी इतरह से चुनौती नहीं दे सकती. . दूसरी बात यह है कि नौकरशाही आजकल बहुत ही साम्प्रदायिक हो गयी है ,उसे मुसलमान को परेशान होते देख कर मज़ा आने लगा है . लेकिन एक हकीकत से और भी ध्यान नहीं हटाना चाहिए कि बरेली का दंगा आर एस एस और बी जे पी की पूरी गेम में एक बहुत मामूली चाल है . हालांकि बी जे पी नेतृत्व ने इस मामले को प्रहसन बनाने की पूरी कोशिश की है और बहुत ही मामूली टाइप के नेताओं को वहां भेज कर मामले को साधारण साबित करने में जुट गए हैं . भला बताइये, साम्प्रदायिक दंगें की जांच करने वाले सांसदों के दल में ,गोरखपुर के योगी आदित्य नाथ बतौर सदस्य नामित किये गए हैं. कोई गडकरी से पूछे के आप वहां दंगा भड़काना चाहते हैं या वहां कुछ शान्ति करना चाहते हैं . क्योंकि आदित्य नाथ की ख्याति एक खूंखार मुस्लिम विरोधी की है और उनका नाम सुन कर अल्पसंख्यक समुदाय के लोग भड़क सकते हैं ..
बहरहाल सच्चाई यह है कि बी जे पी ने अपनी उसी रणनीति पर काम करना शुरू कर दिया है जो उसने १९८६ में अपनाई थी. देश भर के शहरों में दंगें हए, बाबरी मस्जिद के खिलाफ आन्दोलन चला , आडवानी की रथयात्रा हुई और जहां जहां से रथ गुज़रा ,वह इलाका दंगों की चपेट में आया . बहुत सारे दंगाई लोग राष्ट्रीय नेता बन गए , बाबरी मस्जिद ढहाई गयी , फिर दंगें हुए और बी जे पी की ताजपोशी हुई . उसी तरह से २००२ के विधान सभा चुनावों के पहले पूरी तरह से हाशिये पर पंहुच चुकी बी जे पी ने नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में गुजरात नरसंहार की योजना पर काम किया और मोदी दुबारा सत्ता में आ गए.. इन्हीं मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के नाम पर पूरे देश में गोधरा टाइप हालात पैदा करने की संघ की योजना में बरेली को पहली कड़ी माना जा सकता है . ऐसी हालत में देश की सभी धर्मनिरपेक्ष जमातों को चाहिए कि बी जे पी और संघ की इस साज़िश को बेनकाब करें और मोदी को प्रधानमंत्री पद पर बैठाने के आर एस एस के सपने पर ब्रेक लगाएं . मौजूदा परिस्थितियों में मुसलमानों की भी ज़िम्मेदारी कम नहीं है . उन्हें चाहिए कि एक राजनीतिक नेतृत्व का विकास करें और धार्मिक नेताओं से हाथ जोड़ कर प्रार्थना करें कि वे दीनी मामलों तक ही अपने आप को सीमित कर के रखें . राजनीतिक मामले राजनीति के सहारे हल होने चाहिए और उसमें धार्मिक नेताओं की भूमिका से नुकसान ज्यादा होता है . एक बात पर और भी गौर करना पड़ेगा कि बाबरी मस्जिद के खिलाफ चले आर एस एस के अभियान के वक़्त जिस तरह से कुछ स्वार्थी मुसलमान नेता बन कर डोलने लगे थे उन्हें भी कौम का नेता बनने का मौक़ा न दें . अगर सेकुलर जमातें और मुसलमान संभल न गए तो गडकरी-भागवत-मोदी की टोली देश में भयानक साम्प्रदायिक हालात पैदा करने में कोई कसर नहीं छोड़ेगी.
Monday, March 15, 2010
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