Saturday, November 3, 2012

मध्यप्रदेश के किसानों के खिलाफ कांग्रेस और बीजेपी एक साथ , डॉ सुनीलम को साजिशन सज़ा दी गयी




शेष नारायण सिंह 

नयी दिल्ली, 2 नवम्बर . किसान  संघर्ष समिति के अध्यक्ष और मध्य प्रदेश के पूर्व विधायक डॉ सुनीलम को मुलताई मामले में हुयी सज़ा का चारों तरफ विरोध हो रहा है . मानवाधिकार नेता , चितरंजन सिंह ने बताया की पटना में 11 नवम्बर को जुलूस निकाल कर विरोध किया जाएगा जबकि मुंबई और दिल्ली में नागरिक अधिकारों के कार्यकर्ता आंदोलित  हैं और अपने तरीकों से विरोध कर रहे हैं . आज  यहाँ सोशलिस्ट फ्रंट के बैनर  तले  एक प्रेस वार्ता का आयोजन करके डॉ सुनीलम और उनके साथ  दो किसानों को हुयी सज़ा को गलत बताया  गया। इस अवसर पर जस्टिस राजिंदर सच्चर, चितरंजन सिंह , पी यूं सी एल के नए महासचिव डॉ वी सुरेश , किसान नेता  विनोद सिंह आदि ने अपनी बात रखी। 

जस्टिस राजिंदर सच्चर ने  कहा की 12 जनवरी 1998  के दिन पुलिस फायरिंग में हुयी 24 किसानों  और एक पुलिस कर्मी की हत्या में डॉ सुनीलम को जो सजा हुयी है ,वह न्याय की कसौटी पर  सही नहीं है .उसमें बहुत  सारी गलतियाँ हैं . उन्होंने कहा  कि एक किसान  ने मरने के  पहले एक बयान दिया था।  मौत के समय दिए गए बयान को न्याय प्रक्रिया में बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है लेकिन अजीब बात है की कोर्ट ने उसके बयान को साक्ष्य नहीं माना . उन्होंने कहा कि मुलताई केस को देखने से लगता है की बीजेपी और कांग्रेस में कोई विवाद नहीं है।खासकर जब गरीब आदमी के अधिकारों को छीन कर पूंजीपतियों को  खुश करना होता है . उन्होने कहा की जब मुलताई में गोली चली थी तो कांग्रेस नेता ,दिग्विजय सिंह मुख्यमंत्री थे। उसके बाद बीजेपी के कई नेता मुख्यमंत्री बने लेकिन मध्य प्रदेश सरकार का रुख वही बना रहा .उन्होंने इस बात पर अफ़सोस जताया  कि  24 किसानों को उस दिन मार डाला गया था लेकिन किसी भी न्यायिक जांच के आदेश नहीं दिए गए . पुलिस ने मनमानी करके केस  बनाया और साजिशन डॉ सुनीलम और दो किसानों को सज़ा दिलवा दी। . उन्होंने कहा क़ानून का कोई भी विद्यार्थी बता देगा कि इस केस में किसी भी हालत में सज़ा नहीं होनी चाहिए थी लेकिन लगता है कि न्याय प्रक्रिया किसी दबाव के तहत काम कर रही थी।

जब तक समाज महिलाओं को बराबरी का दर्ज़ा नहीं देगा तब तक राष्ट्र की तरक्की नामुमकिन है.




शेष नारायण सिंह 

नरेंद्र मोदी ने हिमाचल प्रदेश में एक चुनाव सभा में केंद्रीय मंत्री  शशि थरूर की पत्नी के बारे में एक अभद्र टिप्पणी कर दी. मीडिया में हल्ला मच गया और उनकी इस टिप्पणी के लिए माफी मांगने की मांग उठने लगी.  जो लोग नरेंद्र मोदी को जानते हैं उनको पता है कि गुजरात के मुख्य मंत्री अपने किसी काम को गलत नहीं मानते और किसी भी गलत काम के करने के बाद माफी नहीं मांगते.२००२ में उनकी सरकार के रहते गुजरात में जो नर संहार हुआ था,उसके लिए उन्होंने कभी कोई अफ़सोस नहीं जताया. देश की निचली अदालतों से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक उनके काम पर टीका टिप्पणी हो रही है , कई मामलों में तो उनके खास साथियों के खिलाफ फैसले भी आ चुके हैं लेकिन नरेंद्र मोदी के चेहरे पर कभी शिकन तक नहीं आयी. गुजरात के २००२ के नर संहार में बहुत सी महिलाओं के साथ बलात्कार भी हुआ था, नरेंद्र मोदी के एक समर्थक ने  टेलिविज़न के कैमरे के सामने स्वीकार किया था कि उसने किस तरह से एक गर्भवती महिला के पेट पर तलवार से वार किया था और पेट में पल रहा उसका बच्चा  बाहर आ गया था . गुजरात २००२ में बहुत सी महिलाओं की हत्या हुयी थी, बहुत सी बच्चियों के साथ बलात्कार हुआ था और बहुत सी लडकियों को अपमानित किया गया था .उस  वाकये  पर भी नरेंद्र मोदी ने कोई माफी नहीं माँगी . उलटे उनकी सरकार के मंत्री और गुजरात बीजेपी के कुछ नेता उस जघन्य कांड की भी सफाई देते फिर रहे थे . इसलिए मोदी जी से यह उम्मीद नहीं की जानी चाहिए कि वे महिलाओं के प्रति कही गयी ऐसी किसी अपमान जनक बात के  लिए माफी मांग लेगें. मोदी के कई समर्थक हिमाचल प्रदेश की अभद्र टिप्पणी वाली घटना के बाद से ही टेलिविज़न चैनलों पर कहते  पाए जा रहे हैं कि मोदी जी अपने शब्दों को खूब नाप तौल कर  ही बोलते हैं. यानी यह भी नहीं कहा जा सकता कि उनके मुंह से यह बात गलती से निकल गयी. नरेंद्र मोदी उस असहनशील भारतीय समाज की पैदाइश हैं  जिसमें महिलाओं को सम्मान की नज़र से नहीं देखा जाता है .

लेकिन नरेंद्र मोदी की ५० करोड वाली टिप्पणी को अलग थलग राय के रूप में देखने की भी ज़रूरत नहीं है .आज़ादी के ६५ साल बाद भी हम एक राष्ट्र के रूप में भी समाज की तरक्की के बारे में गाफिल हैं . नरेंद्र मोदी से महिलाओं के प्रति सम्मान की उम्मीद करने का  कोई मतलब नहीं है. शायद यह उनकी प्रकृति नहीं है .लेकिन एक समाज के रूप में हम क्या  महिलाओं और पुरुषों की बराबरी के बारे में संविधान में कही  गयी बातों को राजनीतिक बिरादरी में लागू कर पा रहे हैं. कांग्रेस के नेता और  हरियाणा के मुख्य मंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने कुछ दिन पहले खाप पंचायतों के  उस हुक्म को सही ठहरा दिया था  जिसमें महिलाओं को पुरुषों  की गुलाम का दर्ज़ा देने की साज़िश की बू आ रही थी. हरियाणा के ही पूर्व मुख्य मंत्री ओम प्रकाश चौटाला ने लड़कियों की कम उम्र में शादी के कुछ  खापों के सुझाव को सही बताया था.ऐसे ही अनगिनत मामले हैं जहां नेताओं ने महिलाओं के प्रति अभद्र टिप्पणी की  और उसके बाद उसे ठीक करने की ज़रूरत नहीं समझी, कोई माफी नहीं माँगी. इस तरह के  तत्व मीडिया में भी मौजूद हैं . एक बड़े मीडिया ग्रुप के एक बड़े  संपादक की रिकार्ड की गयी एक टेलीफोन वार्ता में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के हवाले से एक बहुत ही अभद्र  टिप्पणी की  गयी थी. बाद में उनके  ग्रुप के मालिक ने बात को संभालने की कोशिश तो की लेकिन कहीं भी कोई माफी नहीं माँगी गयी , कोई अफ़सोस  नहीं जताया गया . शिक्षा संस्थाओं में इस तरह की  घटनाएं रोज ही होती रहती हैं.राजनीति को कैरियर बनाने वाले नेता इस तरह की वारदात रोज ही  करते रहते हैं . इस तरह के कई नेता तो आजकल भी जेलों की हवा खा रहे हैं . उनके नाम लेकर उन्हें महत्व देना ठीक नहीं है.

 नरेंद्र मोदी की अभद्र टिप्पणी को और भी  अन्य नेताओं के साथ जोड़कर नरेंद्र मोदी की अमर्यादित बात को हल्का करना उद्देश्य नहीं  है . ऐसा लगता है कि  इस देश के पुरुषों में माचो कल्चर का अनुसरण करने  का फैशन है . जिसके चलते लड़कियों को अपमानित करने की बातें  होती हैं . इन नेताओं को दुरुस्त करने का तो शायद यही तरीका  है कि इनको संविधान के अनुसार  काम करने के लिए मजबूर कर दिया जाए. संविधान में जहां मौलिक अधिकारों का उल्लेख  किया गया  है ,वहीं अनुच्छेद १४  में लिखा है कि राज्य ,भारत के   किसी भी इलाके में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा. अनुच्छेद १५ में बात को और साफ़ कर दिया गया है जहां लिखा है कि राज्य किसी नागरिक के विरुद्ध केवल धर्म,मूलवंश, जाति , लिंग ,जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा. सवाल उठता है कि क्या इसी संविधान की  शपथ ले चुके किसी मोदी या  किसी हुड्डा को इस संविधान  का पालन करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता . हमें एक राष्ट्र के रूप में इन नेताओं के इस आचरण पर चिंतित होना चाहिए और इन्हें सभ्य आचरण करने के लिए मजबूर करने के उपाय करने चाहिए .

जहां तक नेताओं की बात है उनको तो काबू में करने के लिए सरकारी दंड विधान जैसी किसी बात को आगे किया जा सकता है. हो सकता है कि ऐसा संभव हो जाय कि कानून में कोई परिवर्तन कर दिया जाए और महिलाओं के प्रति अभद्रता करने वालों को किसी भी राजनीतिक पद के अयोग्य करार दे दिया जाए. या ऐसी ही कोई और सख्ती कर दी जाए  . सरकारी पद गंवाने  का डर अगर नेताओं के  दिमाग में डाल दिया जाए तो वे तो सुधर  जायगें . लेकिन एक समाज के रूप में देश के बहुत बड़े पुरुष वर्ग में महिलाओं के प्रति अपमान का जो भाव है उसको ठीक करने के लिए क्या क़दम उठाये जाने चाहिए.इस सवाल का जवाब तलाश करना ज़रूरी है . पूरे समाज को जब तक यह अहसास नहीं होगा कि स्त्री और पुरुष के अधिकारों में  समानता है तब तक कुछ भी बदलने वाला नहीं है.हम जानते हैं कि इसी देश में सती प्रथा भी थी और जौहर भी होता था  . महिलाओं के प्रति आचरण की जितनी  बातें पब्लिक डोमेन में आ रही हैं  उससे तो लगता है कि अपना देश एक बार फिर उसी सती और जौहर युग की तरफ बढ़ रहा है . अपनी पसंद के जीवन साथी चुनने के बाद दिल्ली के आस पास के  गाँवों में लड़कियों को क़त्ल करने वालों के जघन्य अपराध को कुछ  वर्गों में आनर किलिंग का नाम देने की कोशिश भी की जा रही  है . एक बात और भी समझ में आती है . उत्तर भारत में महिलाओं के प्रति जिस तरह का व्यवहार देखने को मिलता है ,देश के अन्य भागों में वैसा नहीं है. इसकी भी पड़ताल  की जानी चाहिए  .लगता है कि शिक्षा की कमी के  कारण ही महिलाओं के प्रति अपमान का माहौल बन रहा है . जहाँ शिक्षा  है वहाँ महिलाओं की इज्ज़त अपेक्षाकृत ज्यादा है.


महाराष्ट्र  में लड़कियों की शिक्षा को सामाजिक परिवर्तन का सबसे बड़ा कारण माना जाता है . १८४८ में ही ज्योतिबा फुले ने दलित लड़कियों के लिए अलग से स्कूल खोलकर इस क्रांति का ऐलान कर दिया था . और आज भी महाराष्ट्र में लड़कियों की इज्ज़त अन्य राज्यों की तुलना में कहीं अधिक है. बीच में मराठी मानूस के नारे के राजनीतिक इस्तेमाल के बाद लुम्पन लड़कों पर जोर ज्यादा दिया जाने लगा और पिछले ५० साल में महाराष्ट्र के ग्रामीण इलाकों में लड़कियों की शिक्षा पर  उतना ध्यान नहीं दिया गया जो आज़ादी की लड़ाई के दौरान दिया गया था . लड़कियों की शिक्षा में आयी कमी को पूरा करने के लिए महाराष्ट्र में  सरकारी तौर  पर एक अभियान चलाया जा रहा है जिसके तहत प्रचार किया जा रहा है कि अगर लडकी शिक्षित होगी , तभी प्रगति होगी.इस अभियान का फर्क भी पड़ना शुरू हो गया है. यह मानी हुई बात है कि तरक्की के लिए शिक्षा की ज़रुरत है. और परिवार की तरक्की तभी होगी  जब माँ सही तरीके से शिक्षित होगी.यह बात उत्तर भारत के बड़े राज्यों, बिहार और उत्तर प्रदेश  के  उदाहरण से बहुत अच्छी तरह से समझी जा सकती है. यहाँ पर लड़कियों की शिक्षा लड़कों की तुलना में बहुत कम है .शायद इसी वजह से यह राज्य देश के सबसे  अधिक पिछडे राज्यों में शुमार किये  जाते हैं . 
इसलिए यह ज़रूरी है कि देश में लड़कियों की शिक्षा और अधिकारिता का एक अभियान चलाया जाए तभी कोई राजनीतिक नेता किसी भी महिला की  शान में अभद्र टिप्पणी करने से डरेगा . सभी धर्मों में शिक्षा को बहुत ज्यादा महत्त्व दिया  गया है .इसलिए धार्मिक कारणों से भी शिक्षा का विरोध नहीं किया जाना चाहिए .शिक्षा ,खासकर लड़कियों की शिक्षा के ज़रिये ही समाज भी सभ्यता की उन सीमाओं में रहने की क्षमता  हासिल करेगा जिसके कारण  पश्चिमी  देशों  और समाजों  ने  तरक्की की है .क्योंकि इस बात में दो राय नहीं है कि जब तक देश और समाज महिलाओं को बराबरी का दर्ज़ा नहीं देगा  राष्ट्र की तरक्की नामुमकिन है. 

क्या के रहमान खान तालीम के ज़रिये मुसलमानों को तरक्की के रास्ते पर डाल पायेगें?



शेष नारायण सिंह 

अल्पसंख्यक मामलों के नए मंत्री, के रहमान खां कर्नाटक की राजनीति में एक दमदार नाम हैं. कर्नाटक में शिक्षा के क्षेत्र में निजी पहल की जो बुलंदियां हैं, उसमें रहमान खां साहेब का बड़ा योगदान है.वे पिछले ३६  वर्षों से कर्नाटक की राजनीति में सक्रिय हैं और  ३४  साल पहले कर्नाटक विधान परिषद् के सदस्य बन गए थे. राज्य के मुसलमानों की समस्याओं को वे बहुत ही बारीकी से समझते हैं और उसी बारीक समझ का नतीजा है कि जब संसद ने वक्फ की संपत्तियों के लिए संयुक्त संसदीय समिति बनाने का फैसला किया तो उसकी अध्यक्षता का काम रहमान साहेब को ही सौंपा.केरहमान खां देश के मुसलमानों का दर्द समझने वाले नेता के रूप में पहचाने जाते हैं . करीब एक साल पहले उनसे एक इंटरव्यू किया था.और उनसे  धार्मिक लाइन पर हिंदुओं को पोलराइज़ करने  की आर एस एस -बीजेपी की कोशिश की बात की गयी थी. उन्होंने दो टूक कहा कि इस देश में धार्मिक लाइन पर कभी भी पोलराइज़ेशन नहीं हो सकता.इस देश का हिन्दू आम तौर पर साम्प्रदायिक नहीं है और यही  भारत की राजनीतिक ताक़त का सबसे बड़ा सहारा है.सवाल पैदा होता है कि इस देश की कुल आबादी का करीब ८५ प्रतिशत हिन्दू हैं .वे खुद ही बहुसंख्या में हैं . उनको किसी के खिलाफ एकजुट होने की कोई ज़रुरत ही नहीं है . संविधान में बताया गया सेकुलरिज्म देश के बहुसंख्यक हिन्दू समाज की ताकत पर ही लागू हो सका है .हालांकि सावरकरवादी  नेताओं की पूरी कोशिश थी कि देश में  हिन्दू संगठित होकर दूसरे धर्म वालों का हाशिये पर लायें लेकिन सेकुलर मिजाज़ वाले इस देश में यह संभव नहीं है. इस पृष्ठभूमि में अल्पसंख्यकों के कल्याण के इंचार्ज मंत्री पद पर बैठने  वाले रहमान खान से देश को बहुत उम्मीदें हैं वे मुसलामानों की समस्याओं को अच्छी तरह समझते हैं 

मुसलमानों की असली समस्याएं गरीबी, बेरोजगारी, सामाजिक असुरक्षा ,हमेशा साम्प्रदायिक दंगों का ख़तरा आदि हैं . इन मुद्दों को बहस की मुख्य धारा में लाने की कोशिश कोई नहीं कर रहा है . या शायद करना नहीं चाह रहा है .  सब को मालूम हैकि इन समस्याओं का हल तालीम से निकलेगा . दुर्भाग्य की बात है कि  उत्तर भारत में मुसलमाओं की तालीम को वह इज्ज़त नहीं मिल रही है जो मिलनी चाहिए. चारों तरफ नज़र डाल कर देखें तो समझ में आ जाएगा कि जो अच्छी शिक्षा पा चुका है वह न गरीब है , न बेरोजगार है और उसे किसी तरह की सामाजिक असुरक्षा नहीं है. इस्लाम में तालीम को बहुत ज्यादा मह्त्व दिया गया है . रसूले खुदा, हज़रत मुहम्मद ने कहा है  कि इल्म के लिए अगर ज़रुरत पड़े तो चीन तक भी जाया जा सकता है. लेकिन दुर्भाग्य यह है कि कौम के नेता शिक्षा को उतना मह्त्व नहीं देते जितना देना चाहिए . दिल्ली में पिछले पैंतीस साल के अनुभव के आधार पर कहा जा सकता है कि मुसलमानों के ज़्यादातर धार्मिक और राजनीतिक नेता शिक्षा की कमी के लिए सरकार को दोषी ठहराते पाए जाते हैं .उससे भी ज्यादा  तकलीफ की बात यह है कि जो सरकारी सुविधाएं मिल भी रही हैं ,उनसे भी मुसलमानों को  वह फायदा नहीं मिल रहा है जो मिलना चाहिए . इस तरह की बहानेबाज़ी उत्तर भारत में ही हो रही है .


 केन्द्रीय अल्पसंख्यक मंत्रालय की ओर से शुरू की गयी छात्रवृत्ति की योजना का भी मुसलमानों के बच्चे बहुत बड़े पैमाने पर लाभ उठा रहे हैं और शिक्षा पा रहे हैं . हालांकि यह स्कीम अभी नई है और इसके नतीजे कुछ वर्षों में मिसाल बन सकेंगें लेकिन उत्तर भारत में तो सरकार के वजीफों के अधिक से अधिक इस्तेमाल की कोई गंभीर कोशिश ही नहीं हो रही है . दिलचस्प बात यह है कि इन वजीफों की कोई सीमा नहीं है .जो भी मुस्लिम बच्चा स्कूल जाता हो वह इसका हक़दार है और सभी बच्चे इस सुविधा का का इस्तेमाल कर सकते हैं . ज़रुरत सिर्फ इस बात की है कि समाज के नेता इस दिशा में कोई पहल करें. इसी तरह से शिक्षा के केन्द्रों के बारे में भी सोच है . अल्पसंख्यक मामलों के नए मंत्री के रहमान खान ने करीब एक साल पहले इस लेखक को बताया था कि पिछले अठारह साल से वे दिल्ली में हैं ,लेकिन इधर कहीं भी अल्पसंख्यकों के किसी इंजीनियरिंग कालेज के खुलने की चर्चा नहीं सुनी . हाँ यह खूब सुना गया कि अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की सियासत में क्या उठा पटक हो रही है. जबकि दक्षिण भारत में हर बड़े शहर में पूरी तरह से मुसलमानों की शिक्षा के लिए कोशिश चल रही है . उन्होंने अपने खुद के उदाहरण से बात को साफ़ किया . बताने लगे कि १९६४ में  बंगलोर शहर में मुसलमानों का कोई कालेज नहीं था. कुछ हाई स्कूल ज़रूर थे.  उन्होंने अल अमीन नाम के एक संगठन के तत्वावधान में १९६७ में एक कालेज  शुरू कर दिया . एक टिन शेड में शुरू हुआ  यह कालेज आज एक नामी शिक्षा संस्था है .शुरू में सरकार की बात तो छोड़ दीजिये , मुसलमानों  को ही भरोसा नहीं हुआ . लेकिन जब कुछ बच्चे अच्छी तालीम लेकर यूनिवर्सिटी में नाम पैदा करने में सफल हो गए तो लोग आगे आये और आर्थिक मदद शुरू की. सरकार से कोई मदद नहीं ली  गई. केवल मान्यता वगैरह के जो ज़रूरी कानूनी काम थे वह सरकार ने दिया . आर्थिक मदद  पूरी तरह से मुसलमानों ने किया और कालेज चल निकला . आज वह एक बहुत बड़ा कालेज है . पूरे कर्नाटक में अल अमीन संस्थाओं की संख्या अब बहुत जयादा है . . बीजापुर के अल अमीन मेडिकल कालेज की स्थापना की कहानी भी गैर मामूली है . के रहमान खान ने अपने सात  दोस्तों के साथ मिल कर एक ट्रस्ट बनाया था . कुल सात सौ सात रूपये जमा हुए . गरीब लोगों के लिए एक अस्पताल बनाने की योजना बना कर काम करना शुरू कर दिया . सात दोस्तों में एक डाक्टर भी था. किराए का एक मकान लेकर क्लिनिक शुरू कर दिया . डाक्टर दोस्त बहुत ऊंची डाक्टरी तालीम लेकर  विदेश से आया था , उसका नाम मशहूर हो गया जिसकी वजह से  पैसे वाले भी इलाज़ के लिए आने लगे. ऐसे  ही एक संपन्न मरीज़ का मुफ्त में गरीब आदमियों के साथ इलाज़ किया गया . उसने खुश होकर एक लाख रूपये का दान देने का वादा किया . उस एक लाख रूपये के वादे ने इन दोस्तों के सपनों को पंख लगा दिया . १०० बिस्तरों वाले अस्पताल का खाका बना कर  कौम से अपील की. इन लोगों को अब  तक आम आदमी का भरोसा मिल चुका था. अस्पताल बन  गया . फिर एक मेडिकल कालेज बनाने के सपने देखे . सरकार से केवल मदद  मिली. कर्नाटक के उस वक़्त के मुख्य मंत्री , राम कृष्ण हेगड़े ने बीजापुर में ज़मीन अलाट कर दी. आज बीजापुर का अल अमीन मेडिकल देश के बेहतरीन मेडिकल कालेजों में गिना जाता है . कहने का  तात्पर्य यह है कि अगर मुसलमान या कोई भी अपने लिए संस्थाएं बनाने का मन बना ले तो कहीं कोई रोकने वाला नहीं है और सरकार की मर्जी के खिलाफ भी शिक्षा के क्षेत्र में तरक्की की जा सकती. . हाँ यह बात बिलकुल सही है कि शिक्षा में तरक्की के बिना किसी भी कौम की तरक्की नहीं हो सकती.  

यह बहुत ही संतोष की बात है  कि आज के रहमान खान इस देश के अल्पसंख्यकों के कल्याण के सबसे बड़े मंत्री हैं . उन्होंने बार बार कहा है कि तालीम के बिना मुसलमानों का मुस्तकबिल नहीं सुधरेगा. उम्मीद की जानी चाहिए कि अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री के रूप में वे देश की आबादी के एक बड़े हिस्से को तालीम और तरक्की के अवसर देगें .