Monday, August 3, 2009

कांग्रेस ने किया मीडिया और विपक्ष का इस्तेमाल

मिस्र के नगर शर्म-अल-शैख में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बीच हुई बातचीत का कोई नतीजा नहीं निकला था। दोनों देशों के नेता अपनी घोषित पोजीशन से हटने को तैय्यार नहीं थे। पाकिस्तान लगातार कंपोजि़ट डायलाग की बात करता रहा तो भारत का आग्रह था कि भारत के खिलाफ होने वाले आतंकवादी हमलों पर पाकिस्तान सही तरीके से विचार करे और अपने मुल्क में काम कर रहे आतंक के ढांचे का विनाश करे।

दोनों ही देशों पर अमरीका का दबाव था। भारत पर अमरीकी दबाव का असर कम पड़ता है लेकिन पाकिस्तान तो लगभग पूरी तरह से अमरीकी मदद पर ही निर्भर है। अमरीका डांट फटकार का पाकिस्तान से कुछ भी करवा सकता है लेकिन उसे एक सीमा से ज्यादा दबाने से सिविलियन सरकार के लिए बहुत मुश्किलें पेश आ सकती हैं। इसलिए शर्म-अल-शैख में भारत ने कंपोजिट डायलाग की बात मानने से इनकार कर दिया और अपने आपको किसी शर्त से मुक्त कर लिया। दोनों नेताओं की बातचीत के बाद जो बयान जारी किया गया उसके अनुसार अभी कोई कंपोजिट डायलाग नहीं होगा, दोनों देशों के विदेश सचिव आपस में मिलते जुलते रहेंगे और अपने विदेश मंत्रियों को बातचीत की जानकारी देते रहेंगे।

जब सही वक्त आएगा तो बातचीत शुरू की जाएगी। ज़ाहिर है कि भारत ने पाकिस्तान को झिटक दिया था और कंट्रोल अपने हाथ में ले लिया था कि जब भारत चाहेगा तो बातचीत होगी। पहले के भारतीय राजनीतिक कहते रहते थे कि भारत के खिलाफ होने वाले आतंक के नेटवर्क को जब तक पाकिस्तान खत्म नहीं करता, उससे कोई बातचीत नहीं होगी। शर्म-अल-शैख की यही उपलब्धि है कि वहां यह बात साफ कर दी गई कि आतंक और कंपोजिट डॉयलाग अलग-अलग बातें हैं, दोनों एक दूसरे पर निर्भर नहीं हैं। यानी भारत जब चाहे तब पाकिस्तान से बात करने को स्वतंत्र है, उस पर कोई पाबंदी नहीं है।

इस बातचीत के दौरान पाकिस्तानी खेमे ने भारतीय अधिकारियों को कथित रूप से एक पुलिंदा भी पकड़ा दिया था जिसमें बलूचिस्तान की आजादी की लड़ाई में भारत का हाथ होने की बात कही गई थी। यहां यह समझना जरूरी है कि शर्म-अल-शैख में दोनों पक्षों के बीच में किसी तरह की सहमति नहीं हुई थी बातचीत के बाद तय हुआ था कि फिर मौका लगा तो बातचीत की जायेगी। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गीलानी ने स्वदेश लौटकर अपनी यात्रा को बहुत सफल बताया और मीडिया में इस तरह का माहौल बनाया जैसे भारत विजय करके लौटे हों। पाकिस्तानी मीडिया भी उनकी रौ में बह गया लेकिन सच्चाई सबको मालूम थी। पाकिस्तानी फौज, आईएसआई पाकिस्तानी मीडिया, चीन, अमरीका और यूसुफ रजा गीलानी सबको मालूम था कि भारतीय प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान को एक इंच नहीं दिया है लेकिन सबकी अपनी मुकामी मजबूरियां होती हैं, सबने उसी तरह से बात करना शुरू कर दिया। भारत के मुख्य विपक्षी दल ने भी कहना शुरू कर दिया कि डा. मनमोहन सिंह ने शर्म-अल-शैख में सब कुछ लुटा दिया। भारत में पत्रकारों का एक बड़ा वर्ग अंतर्राष्टï्रीय मामलों की साफ समझ नहीं सकता। इस वर्ग के वरिष्ठ लोग सरकार की विदेश नीति संबंधी आलोचना मुख्य विपक्षी दल की राय को ध्यान में रखकर करते हैं। ज़ाहिर है कि पूरे देश में माहौल बन जाता है कि विपक्षी पार्टी के कुछ लोग जो कह रहे हैं, वही जनता का भी मत है। इस बार भी वही हुआ। पराश्रयी चिंतन पर आधारित मीडिया के मर्मज्ञों ने भारत-पाक रिश्तों पर राग बीजेपी में अलाप लेना शुरू कर दिया। उसी में तरह-तरह की रागिनियां गाई जाने लगीं।

बीजेपी की प्रिय रागिनी जो कमजोर प्रधानमंत्री की कथा पर आधारित है, एक बार फिर चर्चा में आ गई। बीजेपी के प्रवक्ताओं ने कहना शुरू कर दिया कि मनमोहन सिंह ने शर्म-अल-शैख में मनमानी की है और कांग्रेस पार्टी भी उनके साथ नहीं है, उन्होंने संसद को विश्वास में लिए बिना इतनी बड़ी बात कर दी वगैरह-वगैरह। यह बात दस दिनों तक चली और पूरे विपक्ष ने शर्म-अल-शेख में हुई बातचीत और कांग्रेस के ताथाकथित मतभेद पर अपनी सारी ताकत लगा दी। कांग्रेस पार्टी के लिए यह स्थिति बहुत ही अच्छी थी। केंद्रीय बजट पर बहस चल रही थी और मंहगाई का मुद्दा बहुत ही भयानक रुख ले चुका है।

सरकार दावा कर रही है कि मंहगाई की दर बिलकुल घट गई है, हालत बहुत सुधर गए हैं। सच्चाई यह है कि जब आम आदमी दुकान पर कुछ भी खरीदने जाता है तो मंहगाई का दानव उसे घेर लेता है। मंहगाई पूरी तरह से मध्यवर्ग की कमर तोड़ रही है। लेकिन विपक्षी पार्टियों ने इस मुद्दे पर संसद में बजट पर बहस के दौरान कोई सवाल नहीं उठाया। जितना महत्व सरकारी प्रधानमंत्री का है, उतना ही महत्व विपक्ष के नेता का भी है। लोकतंत्र में जनता उम्मीद करती है कि नेता विपक्षी दल उसकी तरफ से सरकार पर लगाम लगाए लेकिन दुर्भाग्य है कि इस बार ऐसा कुछ नहीं हुआ। मुख्य विपक्ष के नेता वॉक आउट करते रहे, हल्ला मचाते रहे और कांग्रेस के भीतर की कलह के प्रहसन पर उल्टी सीधी टिप्पणी करते रहे।

बिना किसी संकोच कहा जा सकता है कि विपक्ष ने बजट पर हुई बहस के दौरान कोई रचनात्मक और सकारात्मक भूमिका नहीं निभाई हां, अगर कोई राष्टï्रीय संकट होता, देश की एकता और अखंडता पर प्रश्न उठ रहे होते तो नून, तेल, लकड़ी की चर्चा को भूल जाना उचित था लेकिन ऐसी कोई बात नहीं थी। कांग्रेस अध्यक्ष और प्रधानमंत्री के जिस मतभेद की चर्चा की जा रही थी, उसका आम आदमी से कोई लेना देना नहीं है। वैसे भी दस दिन के हल्ले के बाद कांग्रेस ने स्पष्टï कर दिया कि वह पूरी तरह से प्रधानमंत्री के साथ है, यानी विपक्षी पार्टियों ने एक नॉन इश्यू पर अपनी ताकत बर्बाद की। ऐसा लगता है कि कांग्रेस ने बजट और मंहगाई से विपक्ष का ध्यान बंटाने के लिए यह हालात जान बूझकर पैदा किया था और विपक्ष उस जाल में पूरी तरह उलझ गया। लेकिन इस सारी प्रक्रिया में लोकतंत्र और राजनीति का भारी नुकसान हुआ।

विपक्षी पार्टियों को चाहिए कि आगे इस तरह की स्थिति न आने दें। इस सारे गोरखधंधे में मीडिया की भूमिका पर भी गौर करने की जरूरत है। हमने शर्म-अल-शेख की दोनों प्रधान मंत्रियों की बातचीत के बात जारी की गई विज्ञप्ति को इस तरह से पेश किया जैसे वह किसी समझौते के बाद जारी किया गया घोषणा पत्र हो। ऐसा नहीं था, वह बातचीत की एक तरह से रिपोर्ट थी। उसमें जो सहमति हुई थी वह यह कि जब भी कभी दोनों विदेश सचिव मिलेंगे तो बातचीत करेंगे और अपने विदेश मंत्री को बता देंगे। हां आतंकवाद और कंपोजिट डॉयलाग को एक दूसरे से अलग कर दिया गया था। शर्म-अल-शेख से लौटकर कूटनीति और अंतर्राष्टï्रीय संबंधों के जानकार कद्दावर पत्रकारों ने अपने-अपने अखबारों में इसी तरह के विश्लेषण भी लिखे लेकिन जिन भाइयों की समझ में विज्ञप्ति की भाषा नहीं आई या कूटनीति की बारीकियां नहीं आईं, उन्होंने विपक्षी पार्टी के नेताओं के वक्तव्यों को आधार बनाकर राजनीतिक कूटनीतिक विश्लेषण लिख मारा।

विपक्ष की तो डयूटी है कि वह सरकार को कटघरे में खड़ा करे लेकिन मीडिया की डयूटी सच्चाई को बिना किसी लाग लपेट के बयान करना है। शर्म-अल-शेख वाले मामले में मीडिया का एक बड़ा वर्ग सच्चाई को पकडऩे में गफलत का शिकार हुआ है। कोशिश की जानी चाहिए कि ऐसे मौके दुबारा न आएं। जहां तक विपक्ष का सवाल है वह कांग्रेसी चाल का शिकार हुआ है, उन्हें भी आगे से संभल कर रहना होगा और कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार को जनता के हित में काम करने को मजबूर करना होगा।

हिंदू धर्म और हिंदुत्व मे फर्क

हिंदू धर्म भारत का प्राचीन धर्म है। इसमें बहुत सारे संप्रदाय हैं। संप्रदायों को मानने वाला व्यक्ति अपने आपको हिंदू कहता है लेकिन हिंदुत्व एक राजनीतिक विचारधारा है जिसका प्रतिपादन 1924 में वीडी सावरकर ने अपनी किताब 'हिंदुत्व में किया था। सावरकर इटली के उदार राष्ट्रवादी चिंतक माजिनी से बहुत प्रभावित हुए थे। उनके विचारों से प्रभावित होकर ही उन्होंने हिंदुत्व का राजनीतिक अभियान का मंच बनाने की कोशिश की थी।

सावरकर ने हिंदुत्व की परिभाषा भी दी। उनके अनुसार -''हिंदू वह है जो सिंधु नदी से समुद्र तक के भारतवर्ष को अपनी पितृभूमि और पुण्यभूमि माने। इस विचारधारा को ही हिंदुत्व नाम दिया गया है। ज़ाहिर है हिंदुत्व को हिंदू धर्म से कोई लेना देना नहीं है। लेकिन हिंदू धर्म और हिंदुत्व में शाब्दिक समानता के चलते पर्यायवाची होने का बोध होता है। इसी भ्रम के चलते कई बार सांप्रदायिकता के खतरे भी पैदा हो जाते हैं। धर्म और सांप्रदायिकता के सवाल पर कोई भी सार्थक बहस शुरू करने के पहले यह जरूरी है कि धर्म के स्वरूप और उसके दर्शन को समझने की कोशिश की जाये।

दर्शन शास्त्र के लगभग सभी विद्वानों ने धर्म को परिभाषित करने का प्रयास किया है। धर्म दर्शन के बड़े ज्ञाता गैलोबे की परिभाषा लगभग सभी ईश्वरवादी धर्मों पर लागू होती है। उनका कहना है कि -''धर्म अपने से परे किसी शक्ति में श्रद्घा है जिसके द्वारा वह अपनी भावात्मक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है और जीवन में स्थिरता प्राप्त करना है और जिसे वह उपासना और सेवा में व्यक्त करता है।
इसी से मिलती जुलती परिभाषा ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी में भी दी गयी है जिसके अनुसार ''धर्म व्यक्ति का ऐसा उच्चतर अदृश्य शक्ति पर विश्वास है जो उसके भविष्य का नियंत्रण करती है जो उसकी आज्ञाकारिता, शील, सम्मान और आराधना का विषय है।

यह परिभाषाएं लगभग सभी ईश्वरवादी धर्मों पर लागू होती हैं। यह जानना दिलचस्प होगा कि भारत में कुछं ऐसे भी धर्म हैं जो सैद्घांतिक रूप से ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करते। जैन धर्म में तो ईश्वर की सत्ता के विरूद्घ तर्क भी दिए गये हैं। बौद्घ धर्म में प्रतीत्य समुत्पाद के सिद्घांत को माना गया है जिसके अनुसार प्रत्येक कार्य का कोई कारण होता है और यह संसार कार्य-कारण की अनन्त श्रंखला है। इसी के आधार पर दुख के कारण स्वरूप बारह कडिय़ों की व्याख्या की गयी है। जिन्हें द्वादश निदान का नाम दिया गया है।

इसीलिए धर्म वह अभिवृत्ति है जो जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को, प्रत्येक क्रिया को प्रभावित करती है। इस अभिवृत्ति का आधार एक सर्वव्यापक, अदार्श विषय के प्रति आस्था है। यह विषय जैन धर्म का कर्म-नियम, बौद्घों का प्रतीत्य समुत्पाद का सिद्घांत या वैष्णवों, ईसाइयों और मुसलमानों का ईश्वर हो सकता है। आस्था और विश्वास में अंतर है। विश्वास तर्क और सामान्य प्रेक्षण पर आधारित होता है लेकिन आस्था तर्क से परे की स्थिति है। विश्वविख्यात दार्शनिक इमनुअल कांट ने आस्था की परिभाषा की है। उनके अनुसार ''आस्था वह है जिसमें आत्मनिष्ठ रूप से पर्याप्त लेकिन वस्तुन्ष्टि रूप से अपर्याप्त ज्ञान हो।

आस्था का विषय बुद्घि या तर्क के बिल्कुल विपरीत नहीं होता लेकिन उसे तर्क की कसौटी पर कसने की कोशिश भी नहीं की जानी चाहिए। स्वामी विवेकानन्द ने कहा है कि जो धार्मिक मान्यताएं बुद्घि के विपरीत हों, वे स्वीकार्य नहीं। धार्मिक आस्था तर्कातीत है तर्क विपरीत नहीं। सच्चाई यह है कि धार्मिक आस्था का आधार अनुभूति है। यह अनुभूति सामान्य अनुभूतियों से भिन्न है। इसी अनुभूति को रहस्यात्मक अनुभूति या समाधिजन्य अनुभूति का जाता है। यह अनुभूति सबको नहीं होती केवल उनको ही होती है जो अपने आपका इसके लिए तैयार करते हैं।

इस अनुभूति को प्राप्त करने के लिए धर्म में साधना का मार्ग बताया गया है। इस साधना की पहली शर्त है अहंकार का त्याग करना। जब तक व्यक्ति तेरे-मेरे के भाव से मुक्त नहीं होगा, तब तक चित्त निर्मल नहीं होगा और दिव्य अनुभूति प्राप्त नहीं होगी। इस अनुभूति का वर्णन नहीं किया जा सकता क्योंकि इस अनुभूति के वक्त ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान की त्रिपुरी नहीं रहती। कोई भी साधक जब इस अनुभूति का वर्णन करता है तो वह वर्णन अपूर्ण रहता है। इसीलिए संतों और साधकों ने इसके वर्णन के लिए प्रतीकों का सहारा लिया है। प्रतीक उसी परिवेश के लिए जाते हैं, जिसमें साधक रहता है इसीलिए अलग-अलग साधकों के वर्णन अलग-अलग होते हैं, अनुभूति की एकरूपता नहीं रहती।

लेकिन यह बात निर्विवाद है कि इस दिव्य अनुभूति का प्रभाव सभी देशों और कालों में रहने वाले साधकों पर एक सा पड़ता है। अध्यात्मिक अनुभूति की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि सन्त चरित्र है। सभी धर्मों के संतों का चरित्र एक सा रहता है। सन्तों का जीवन के प्रति दृष्टिïकोण बदल जाता है, ऐसे सन्तों की भाषा सदैव प्रतीकात्मक होती है। इसका उद्देश्य किसी वस्तुसत्ता का वर्णन करना न होकर, जिज्ञासुओं तथा साधकों में ऊंची भावनाएं जागृत करना होता है। सन्तों में भौतिक सुखों के प्रति उदासीनता का भाव पाया जाता है। लेकिन यह उदासीनता नकारात्मक नहीं होती। पतंजलि ने साफ साफ कहा है कि योग साधक के मन में मैत्री, करुणा एवं मुदिता अर्थात दूसरों के सुख में संतोष के गुण होने चाहिये।

सांसारिक सुखों के प्रति जो उदासीनता सन्तों में पाई जाती है उसे एक उदाहरण में समझा जा सकता है। छोटी बच्ची गुडिय़ा के गायब हो जाने पर दुखी होती है और मिल जाने पर खुश होती है। उसके माता पिता मुस्कुराते हैं और बच्ची के व्यवहार को नासमझी समझते हैं। उसी प्रकार सन्त भी आम आदमी के ईप्र्या, द्वेष, मान-अपमान संबंधी मापदंडों पर मुस्कुराते हैं और मानते हैं कि जीवन के उच्चतर मूल्यों को न समझ पाने के कारण व्यक्ति इस तरह का आचरण करता है। भौतिक उपलब्धियों के प्रति उदासीनता का यह भाव श्रेष्ठ वैज्ञानिकों, चिन्तकों आदि में भी पाया जाता है।

लेकिन सन्त मानवीय तकलीफों के प्रति उदासीन नहीं होते। अरण्यकांड के अंत मे गोस्वामी तुलसीदास ने सन्तों के स्वभाव की विवेचना की है। कहते हैं-संत सबके सहज मित्र होते हैं-श्रद्घा, क्षमा, मैत्री और करुणा उनके स्वाभाविक गुण होते हैं। बौद्घ ग्रंथों में भी ब्रह्मï विहार को भिक्षुओं का स्वाभाविक गुण बताया गया है। मैत्री, करुणा, मुदिता और सांसारिक भागों के प्रति उपेक्षा ही ब्रह्मï विहार हैं। किसी भी धर्म की सर्वोच्च उपलब्धि सन्त चरित्र ही है। इसीलिए हर धर्म के महान संतों ने मैत्री, करुणा और मुदिता का ही उपदेश दिया है। भारतीय संदर्भ में धर्म का विशेष अर्थ है। प्राचीन भारतीय चिन्तन में मूल्य का प्रयोग नहीं हुआ है। मूल्य की बजाय पुरुषार्थ शब्द का प्रयोग किया गया है।

चार पुरुषार्थ हैं-धर्म, अर्थ, काम है मोक्ष। आमतौर पर 'धर्म शब्द का प्रयोग मोक्ष या पारलौकिक आनन्द प्राप्त करने के मार्ग के रूप में किया जाता है। लेकिन भारतीय परम्परा में धर्म और मोक्ष समानार्थी शब्द नहीं हैं। धर्म का अर्थ नैतिक आचरण के रूप में किया गया है, धर्म सम्मत अर्थ और काम ही पुरुषार्थ हैं। धर्म शब्द की व्युत्पत्ति 'धृ धातु से हुई है। जिसका अर्थ है धारण करना। महाभारत में कहा गया है कि जो समाज को धारण करे वही धर्म है।

यहां धर्म नैतिक चेतना या विवेक के अर्थ में प्रयोग किया गया है। वैसे भी भारतीय परम्परा में धर्म शब्द का प्रयोग अधिकतर कर्तव्य के अर्थ में ही होता है। इसीलिए धर्म के दो प्रकार बताए गये हैं-विशेषधर्म और सामान्य धर्म। सामान्य धर्म मानव का स्वाभाविक धर्म है जबकि विशेष धर्म उसके विभिन्न सामाजिक सन्दर्भों में कर्तव्य है। सामान्य धर्म है-धृति:, क्षमा,यम, शौचम् अस्तेयम् इन्द्रिय निग्रह, धा,विद्या, सत्यम, आक्रोध। मतलब यह है कि धर्म इंसान के लिए बहुत जरूरी चीज है। सच्चा धर्म मनुष्य के चरित्र को उदात्त बनाता है और वसुधैव कुटुंबकम् की धारणा को विकसित करता है। धर्म मनुष्यों को जोड़ता है, तोड़ता नहीं।

प्रथम पुरुषार्थ के रूप में धर्म नैतिकता है और चौथे पुरुषार्थ, मोक्ष की प्राप्ति का साधन है। इसीलिए नैतिक आचरण या धर्म आचरण का पालन न करने वाला व्यक्ति मोक्ष प्राप्ति का अधिकारी नहीं हो सकता। हमने देखा कि भारतीय परम्परा के अनुसार धर्म पूरी तरह से जीवन के हर पक्ष को प्रभावित करता है जबकि सम्प्रदाय का एक सीमित क्षेत्र है। संस्कृत कोश के अनुसार सम्प्रदाय का अर्थ है-धर्म (मोक्ष) शिक्षा की विशेष पद्घति। औक्सफोर्ड डिक्शनरी के अनुसार मज़हब का अर्थ है-वह धार्मिक ग्रुप या वर्ग जो मुख्य परम्परा से हटकर हो। सवाल यह है कि विभिन्न सम्प्रदाय पैदा क्यों और कैसे होते हैं। ऐसा लगता है कि सभी लोग धर्म के उदात्त स्वरूप को समझ नहीं पाते हैं जिस अहंकार से मुक्ति धर्म साधना की मुख्य शर्त होती है, उसी के वशीभूत होकर अपने-अपने ढंग से धर्म के मूल स्वरूप की व्याख्या करने लगते हैं।

दार्शनिक मतभेद के कारण भी अलग-अलग सम्प्रदायों का उदय होता है। उपनिषदों में अनुभूतिजन्य सत्य का वर्णन किया गया है। इन अनुभूतियों की व्याख्या उद्वैत, विशिष्टाद्वैत, द्वैत, शुद्घाद्वैत आदि दार्शनिक दृष्टिïयों से की गयी है। सत्य की अनुभूति के लिए इन सम्प्रदायों में अलग-अलग पद्घति बताई गयी है। लेकिन जो बात सबसे अहम है, वह यह है कि सभी सम्प्रदायों में साधना की पद्घति की विभिन्नता तो है लेकिन नैतिक आचरण के मामले पर लगभग पूरी तरह से एक रूपता है। परेशानी तब होती है जब विभिन्न सम्प्रदायों के अनुयायी इस एकरूपता का कम महत्व देकर, भिन्नता पर ही फोकस कर लेते हैं और अपनी सांप्रदायिक मान्यता को सबसे ऊपर मानने लगते हैं।

यहां समझने की बात यह है कि अपने सम्प्रदाय को सबसे बड़ा मानने में वे अहंकार की शरण जाते हैं और हमने इस की शुरूआत में ही बता दिया है कि धार्मिक साधना की पहली शर्त ही अहंकार का खात्मा है। जब व्यक्ति या सम्प्रदाय अहंकारी हो जाता है तो संघर्ष की स्थिति पैदा हो जाती है। जाहिर है कि अहंकारी व्यक्ति सांप्रदायिक तो हो सकता है, धार्मिक कतई नहीं हो सकता। संकुचित दृष्टि के कारण सामाजिक विद्वेष उत्पन्न होता है। लोग लक्ष्य को भूल जाते हैं और सत्य तक पहुंचने के रास्ते को ही महत्व देने लगते हैं और यही सांप्रदायिक आचरण है।

कभी-कभी स्वार्थी और चालक लोग भी साधारण लोगों को सांप्रदायिक श्रेष्ठता के नाम पर ठगते हैं। एक खास किस्म की पूजा पद्घति, कर्मकांड आदि के चक्कर में सादा दिल इंसान फंसता जाता है। समाज में दंगे फसाद इसे संकीर्ण स्वार्थ के कारण होते हैं। जो सत्ता सारी सृष्टि में व्याप्त है, उसे हम मंदिरों और गिरिजाघरों में सीमित कर देते हैं और इंसान को बांट देते हैं।धर्म का लक्ष्य सन्त चरित्र है, दम्भी, लोभी और भोगी गुरू नहीं सत्य तो एक ही है उसकी प्राप्ति के उपाय अनेक हो सकते हैं और अगर मकसद को भूलकर उस तक पहुंचने के साधन पर लड़ाई भिड़ाई हो जाए तो हम लक्ष्यहीन हो जाएंगी और दिग्भ्रम की स्थिति पद होगी। और इसी हालत का फायदा उठाकर हर धर्म का कठमुल्ला और धार्मिक विद्वेष की राजनीति की रोटी खाने वाला नेता सांप्रदायिक दंगे कराएगा, समाज को बांटेगा और धार्मिकता के लक्ष्य में अडंगा खड़ा करेगा।

ज़ाहिर है धर्म को सम्प्रदाय मानने की गलती से ही संघर्ष और दंगे फसाद के हालात पैदा होते हैं और अगर हमारी आजादी की लड़ाई के असली मकसद को हासिल करना है तो उदारवादी राजनीति के नेताओं को चाहिए वे आम आदमी को धर्म के असली अर्थ के बारे में जानकारी देने का अभियान चलाएं और लोगों को जागरूक करें। ऐसा करने से आजादी की लड़ाई का एक अहम लक्ष्य हासिल किया जा सकेगा।