Saturday, November 16, 2013

नरेंद्र मोदी का इतिहासबोध भी सरदार पटेल को आर एस एस का हमदर्द नहीं बना सकता



शेष नारायण सिंह 

आजकल आर एस एस / बीजेपी की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी अपनी पार्टी की राजनीति को इतिहाससम्मत बनाने के काम में जुटे हुए है . इस चक्कर में वे बहुत ऊलजलूल काम कर रहे हैं . अभी गुजरात में किसी भाषण में उन्होंने कह दिया कि उनकी पार्टी के संस्थापक डॉ श्यामा  प्रसाद मुखर्जी १९३० में स्विट्ज़रलैंड में मर गए थे जबकि इतिहास का कोई भी विद्यार्थी बता देगा कि डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मृत्यु १९५३ में कश्मीर में हुई थी. पटना के भाषण में उन्होंने कह दिया कि सिकंदर गंगा नदी तक आया  था. या कि तक्षशिला बिहार में था . मोदी जी की इन गलतियों का कारण यह है कि वे या इतिहास की सही जानकारी नहीं रखते और उनका दिमाग इस बात की कोशिश करता रहता है कि अपनी पार्टी को भी इतिहास की महान परंपरा से जोड़ने में सफलता हासिल करें .उनके ऊपर इस बात का दबाव है कि वे आज़ादी की लड़ाई के कुछ महानायकों के साथ अपनी पार्टी को भी जोड़ें . इस चक्कर में कभी वह मौलाना आज़ाद का नाम लेते हैं, कभी बाल गंगाधर तिलक का नाम लेते हैं लेकिन उनका दुर्भाग्य है कि यह सभी महान लोग आर एस एस में कभी नहीं रहे जबकि आज़ादी की लड़ाई के सारे महान नायक कांग्रेस में रह चुके हैं . मोदी  केवल एक प्वाइंट पर भारी पड़ते हैं कि कांग्रेस का मौजूदा नेतृत्व इंदिरा गांधी के परिवार के अलावा किसी का नाम नहीं लेता जबकि १९२० से १९५०  तक का कांग्रेस का इतिहास ऐसा है कि उस पर कोई भी गर्व कर सकता है और उसी  कालखंड का आर एस एस का इतिहास ऐसा है जिसे कोई भी गौरवशाली व्यक्ति अपना कहने में संकोच करेगा क्योंकि उसी दौर में भी महात्मा गांधी की हत्या हुई थी.

आज़ादी की लड़ाई के  नायकों को अपनाने की कोशिश आर एस एस और उसके मातहत संगठन अक्सर करते रहते हैं .२००९ में जब महात्मा गांधी की किताब हिंद स्वराज की रचना के सौ साल पूरे हुए तो आर.एस.एस. वालों ने एक बार फिर योग्य पूर्वजों की तलाश का काम शुरू कर दिया था. उस किताब के सौ साल पूरे होने के उपलक्ष्य में सेमीनार आदि आयोजित किये गए . करीब ३३ साल पहले महात्मा गांधी को अपनाने की कोशिश के नाकाम रहने के बाद उस प्रोजेक्ट को दफन कर दिया गया था लेकिन पता नहीं क्यों एक बार फिर महात्मा गांधी को अपनाने की जुगत चालू कर दी गयी थी. आर एस एस ने इस बार महात्मा गांधी के व्यक्तित्व पर नहीं उनके सिद्धांतों का अनुयायी होने की योजना शुरू किया है . हिंद स्वराज को अपनाने की स्कीम उसी रणनीति का हिस्सा है .।

आर एस एस की समस्या यह है कि उनके पास ऐसा कोई हीरो नहीं है जिसने भारत की आजादी में संघर्ष किया हो। एक वी.डी.सावरकर को आजादी की लड़ाई का हीरो बनाने की कोशिश की गई . जब संघ परिवार की केंद्र में सरकार बनी तो सावरकर की तस्वीर संसद के सेंट्रल हाल में लगाने में सफलता भी मिल गई लेकिन बात बनी नहीं क्योंकि 1910 तक के सावरकर और ब्रिटिश साम्राज्य से माफी मांगकर आजाद हुए सावरकर में बहुत फर्क है और पब्लिक तो सब जानती है। सावरकर को राष्ट्रीय हीरो बनाने की बीजेपी की कोशिश मुंह के बल गिरी। इस अभियान का नुकसान  हुआ क्योंकि जो लोग नहीं भी जानते थेउन्हें भी पता लग गया कि वी.डी. सावरकर ने अंग्रेजों से माफी मांगी थी और ब्रिटिश साम्राज्य की सेवा करने की शपथ ली थी।1980 में अटल बिहारी वाजपेयी ने गांधी को अपनाने की कोशिश शुरू की थी लेकिन गांधी के हत्यारों और संघ परिवार के संबंधों को लेकर मुश्किल सवाल पूछे जाने लगे तो योजना को छोड़ दिया  गया और कई साल तक महात्मा गांधी का नाम नहीं लिया। क्योंकि हिंद स्वराज में उन्होंने लिखा है - ''अगर हिंदू माने कि सारा हिंदुस्तान सिर्फ हिंदुओं से भरा होना चाहिएतो यह एक निरा सपना है। मुसलमान अगर ऐसा मानें कि उसमें सिर्फ मुसलमान ही रहेंतो उसे भी सपना ही समझिए। फिर भी हिंदूमुसलमानपारसीईसाई जो इस देश को अपना वतन मानकर बस चुके हैंएक देशीएक-मुल्की हैंवे देशी-भाई हैं और उन्हें एक -दूसरे के स्वार्थ के लिए भी एक होकर रहना पड़ेगा।" ज़ाहिर है यह आर एस एस बीजेपी की राजनीति के लिए कोई फायदे की बात नहीं है .
महात्मा जी ने अपनी बात कह दी और इसी सोच की बुनियाद पर उन्होंने 1920 के आंदोलन में हिंदू-मुस्लिम एकता की जो मिसाल प्रस्तुत कीउससे अंग्रेजी राज्य की चूलें हिल गईं। आज़ादी की पूरी लड़ाई में महात्मा गांधी ने धर्मनिरपेक्षता की इसी धारा को आगे बढ़ाया। शौकत अलीसरदार पटेलमौलाना अबुल कलाम आजाद और जवाहरलाल नेहरू ने इस सोच को आजादी की लड़ाई का स्थाई भाव बनाया। लेकिन अंग्रेज़ी सरकार हिंदू मुस्लिम एकता को किसी कीमत पर कायम नहीं होने देना चाहती थी। उसने जिन्ना जैसे लोगों की मदद से आजादी की लड़ाई में अड़ंगे डालने की कोशिश की और सफल भी हुए। महात्मा गांधी के १९२० के आंदोलन के बाद ही वी डी सावरकर की किताब “ हिंदुत्व “ को आधार बनाकर आर एस एस की स्थापना भी हुई.

बीच में कोशिश की गई कि आर.एस.एस. के संस्थापक डॉ के बी हेडगेवार के बारे में प्रचार किया जाय कि वे भी आजादी की लड़ाई में जेल गए थे लेकिन मामला चला नहीं। उल्टेजनता को पता लग गया कि वे जंगलात महकमे के किसी विवाद में जेल गए थे जिसे आर एस एस वाले अब वन सत्याग्रह नाम देते हैं . वन सत्याग्रह शब्द को सच भी मान लें तो आर.एस.एस. भी यह दावा कभी नहीं करता कि उसके संस्थापक १९२५ के बाद आजादी के किसी कार्यक्रम में संघर्ष का हिस्सा बने थे. हाँ कलकत्ता में कांग्रेस के सदस्य के रूप में वे शायद आज़ादी के संघर्ष में शामिल हुए रहे हों .। वन सत्याग्रह वाली बात को साबित करने के लिए आर एस एस की ओर से दिल्ली के किसी कालेज में काम करने वाले एक मास्टर साहेब की किताब का ज़िक्र किया जाता है . वे लोग बहुत जोर देकर बताते हैं कि कि वह किताब केन्द्र सरकार के प्रकाशन विभाग ने छापी है . हो सकता है कि सरकार ने किताब छापी हो लेकिन उस किताब का सोर्स क्या है इसपर कोई बात नहीं करता . 1940 में संघ के मुखिया बनने के बाद एम एस गोलवलकर भी घूमघाम तो करते रहे लेकिन एक दिन के लिए भी जेल नहीं गए। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौर में जब पूरा देश गांधी के नेतृत्व में आजादी की लड़ाई में शामिल था तो न तो आर.एस.एस. के प्रमुख एम एस गोलवलकर को कोई तकलीफ हुई और न ही मुस्लिम लीग के नेता मुहम्मद अली जिनाह को। दोनों जेल से बाहर की आजादी का सुख भोगते रहे।

जब संसद में सावरकर की तस्वीर लगाने के मामले पर एन.डी.ए. सरकार की पूरी तरह से दुर्दशा हो गई तो सरदार पटेल को अपनाने की कोशिश शुरू की गई ,जो आज तक चल रही है .  सरदार पटेल को अपनाने की आर.एस.एस. की हिम्मत की दाद देनी पडे़गी क्योंकि आर.एस.एस. को अपमानित करने वालों की अगर कोई लिस्ट बने तो उसमें सरदार पटेल का नाम सबसे ऊपर आएगा। सरदार पटेल ने ही महात्मा गांधी की हत्या वाले केस में आर.एस.एस. पर पाबंदी लगाई थी और उसके मुखिया गोलवलकर को गिरफ्तार करवाया था। जब हत्या में गोलवलकर का रोल सिद्ध नहीं हो सका तो उन्हें छोड़ दिया जाना चाहिए था लेकिन सरदार पटेल ने कहा कि तब तक नहीं छोड़ेंगे जब तक वह अंडरटेकिंग न दें। सरदार पटेल ने लिखित अंडरटेकिंग लेकर गोलवलकर को जेल से रिहा होने दिया था . सरदार पटेल  की एक दूसरी शर्त थी कि रिहाई के पहले आर एस एस का  एक लिखित संविधान भी बनाया जाए.संविधान बन भी गया लेकिन उसका इस्तेमाल केवाल अपने प्रमुख  की रिहाई मात्र था.वह कभी लागू नहीं हुआ. उस संविधान में लिखा गया है कि संघ वाले किसी तरह ही राजनीति में शामिल नहीं हो सकेंगे। उसके बाद राजनीति करने के लिए 1951 में जनसंघ की स्थापना हुई। १९७७ में भारतीय जनसंघ का  जनता पार्टी में विलय हुआ और उसी जनता पार्टी को तोड़कर बाद में भारतीय जनता पार्टी बनी जिसको आज लोग बीजेपी के नाम से जानते हैं ..

अपने को आज़ादी की लड़ाई से जोड़ने की कोशिश करने का काम पिछले दिनों बीजेपी और  आर एस एस की तरफ से प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी को सौंपा गया .नरेंद्र मोदी ने सबसे पहले तो सरदार पटेल को अपना साबित करने का अभियान चालू किया और उन्हें गुजराती तक कह डाला जबकि सरदार पटेल को किसी एक भौगोलिक सीमा में बांधना असंभव है . वे तो सारे देश के नेता थे.  सरदार पटेल को अपना सकना नरेंद्र मोदी के लिए बहुत मुश्किल साबित होने वाला है क्योंकि नरेंद्र मोदी की छवि एक ऐसे व्यक्ति की  है जिसके राज में २००२ में हज़ारों मुसलमानों को निर्दयता पूर्वक क़त्ल कर दिया गया था  और सरकार ने राजधर्म नहीं निभाया था. जबकि सरदार पटेल ने देश के विभाजन के बाद के हुए खून खराबे में लोगों को मुसलमानों की जान बचाने के लिए प्रेरित किया था . सरदार धर्मनिरपेक्षता के पक्षधर थे .केन्द्र सरकार के गृहमंत्री के रूप में सरदार पटेल ने 16 दिसंबर 1948 को घोषित किया कि सरकार भारत को ''सही अर्थों में धर्मनिरपेक्ष सरकार बनाने के लिए कृत संकल्प है।" (हिंदुस्तान टाइम्स - 17-12-1948)

सरदार पटेल को इतिहास मुसलमानों के एक रक्षक के रूप में भी याद रखेगा। सितंबर 1947 में सरदार को पता लगा कि अमृतसर से गुजरने वाले मुसलमानों के काफिले पर वहां के सिख हमला करने वाले हैं।सरदार पटेल अमृतसर गए और वहां करीब दो लाख लोगों की भीड़ जमा हो गई जिनके रिश्तेदारों को पश्चिमी पंजाब में मार डाला गया था। भारत के गृहमंत्री के साथ पूरा सरकारी अमला था और उनकी बेटी भी थीं। भीड़ बदले के लिए तड़प रही थी और कांग्रेस से नाराज थी। सरदार ने इस भीड़ को संबोधित किया और कहा, ''इसी शहर के जलियांवाला बाग की माटी में आज़ादी हासिल करने के लिए हिंदुओंसिखों और मुसलमानों का खून एक दूसरे से मिला था। ............... मैं आपके पास एक ख़ास अपील लेकर आया हूं। इस शहर से गुजर रहे मुस्लिम शरणार्थियों की सुरक्षा का जिम्मा लीजिए ............ एक हफ्ते तक अपने हाथ बांधे रहिए और देखिए क्या होता है।मुस्लिम शरणार्थियों को सुरक्षा दीजिए और अपने लोगों की डयूटी लगाइए कि वे उन्हें सीमा तक पहुंचा कर आएं।" सरदार पटेल की इस अपील के बाद पंजाब में हिंसा नहीं हुई। कहीं किसी शरणार्थी पर हमला नहीं हुआ. ज़ाहिर है कि इस राजनीतिक सोच के मालिक सरदार पटेल के जीवन में ऐसे सैकड़ों काम होंगें जो नरेंद्र मोदी या उनकी राजनीति के हित के साधन के लिए किसी काम के नहीं होगें . इसलिए आर एस एस की सरदार पटेल को अपनाने की कोशिश भी सफल  नहीं होने वाली है .ऐसी हालत में बेहतर यही होगा कि नरेंद्र मोदी समेत आर एस एस के बाकी लोग इतिहास को स्वीकार कर लें और उसे बदलने की कोशिश न करें .