Monday, October 19, 2009

बिज़नस स्कूलों के सर्वे का खेल

आर्थिक उदारीकरण और वैश्वीकरण के नारे के साथ साथ यह तय हो गया था कि शिक्षा के क्षेत्र में भी बड़े पैमाने पर पूंजी निवेश होगा, निजी क्षेत्र के लोगों को प्रतिष्ठित शिक्षा संस्थान खोलने और चलाने के अवसर मिलेंगें , देश में उद्योग और व्यापार की दुनिया में काम आने वाले कुशल लोग जॉब मार्केट में आ जायेंगें. नए अवसर की बात आते उच्च, प्राविधिक और प्रोफेशनल शिक्षा के क्षेत्र में बड़े पैमाने पर निजी पूंजी का निवेश हुआ. जो अभी तक हो रहा है लेकिन इसके साथ ही बहुत बड़े पैमाने पर हेराफेरी करने वाले लोग भी शिक्षा के क्षेत्र में टूट पड़े.वर्तमान शिक्षा मंत्री के सामने पिछले दस पंद्रह साल में शिक्षा के नाम पर हुई हेराफेरी को साफ़ कर पाने की चुनौती मुंह बाए खडी है.. कभी नक़ली विश्वविद्यालयों का मामला ऊपर आ जाता है तो कभी तकनीकी शिक्षा के नाम पर हुई बेइमानी का . शिक्षा व्यवस्था की देख रेख करने वाले ज्यादातर शीर्ष अधिकारियों की जांच हो रही है . एकाध को तो सी बी आई ने पकड़ कर जेल में भी डाल दिया है . रोज़ ही कुछ न कुछ गड़बड़ सामने आ जाती है. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग भी इस बार की जांच के घेरे से बच नहीं पाया है अगर गुप्त जानकारी सही पायी गयी तो जल्दी ही यू जी सी के कुछ सूरमा भी पकड़ लिए जायेंगें .
शिक्षा के क्षेत्र में निजी पूंजी की धमाकेदार एंट्री के साथ व्यापारी वर्ग का प्रिय विषय भी अब शिक्षा के क्षेत्र में शामिल हो गया है .कोई भी काम कुछ भी ले दे कर, करा लेने वाले लोग बड़े पैमाने पर सक्रिय हो गए हैं .. सरकार में शिक्षा विभाग के टॉप पर बैठे लोग अब शिक्षा के प्रबंधन और नियमन से जुड़े हर आदमी को शक की नज़र से देख रहे हैं .किसी तरह का शिक्षा केंद्र खोलना बहुत बड़ी कमाई का जरिया हो गया है .निजी पूंजी से चल बहुत सारे शिक्षा संस्थान तो अच्छा काम कर रहे हैं लेकिन उस से भी ज्यादा संस्थान मालिक ठेकेदार मानसिकता से काम कर रहे हैं . एम बी ए की पढाई करने के लिए निजी शिक्षा संस्थानों में जाने वाले बच्चे ७ से १० लाख रूपय्रे तक की फीस देते हैं . इन बच्चों को अपनी तरफ खींच लेने के लिए बिज़नस स्कूल वाले कुछ भी करने पर आमादा हैं .दुर्भाग्य की बात है कुछ नामी पत्रिकाएं भी निजी पूंजी के स्कूलों को टॉप बिज़नस स्कूल का सर्टिफिकेट देने लगी हैं जिसकी वजह से बड़े पैमाने पर दूर दराज़ से आने वाले छात्र छात्राएं धोख्रे का शिकार हो रहे हैं .
पिछले दिनों देश की एक नामी पत्रिका में भी बेस्ट बिज़नस स्कूलों का सर्वे आया है . जिसने आई आई एम अहमदाबाद , बंगलोर , कलकत्ता और लखनऊ को तो टॉप बिज़नस स्कूलों में नाम दिया है लेकिन बाकी के चोटी के दस बिज़नस स्कूलों में जिन संस्थाओं का नाम दिया है वे बहुत सारे सवाल उठा देती हैं . . इस लिस्ट में एफ एम एस दिल्ली, आई आई एम इंदौर, आई आई एम कोजीकोड, आई एस बी हैदराबाद , एम डी आई गुडगाँव , आई आई टी दिल्ली, टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेस , मुंबई को टॉप टेन के लायक नहीं समझा गया है जब कि सबसे जादा विज्ञापन देने वाले एमिटी बिज़नस स्कूल को टॉप टेन में जगह दी गयी है. सवाल पैदा होता है कि क्या यह सर्वे करने वाले लोगों के बच्चों को अगर एफ एम एस दिल्ली, आई आई एम इंदौर, आई आई एम कोजीकोड, आई एस बी हैदराबाद , एम डी आई गुडगाँव , आई आई टी दिल्ली, टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेस , मुंबई में दाखिला मिल जाए तो वे वहां से हटा कर अपनी लिस्ट के टॉप बिज़नस स्कूल एमिटी , सिम्बिओसिस ,लीबा जैसे संस्थान में दाखिला दिलवा देंगें . ज़ाहिर है ऐसा कोई नहीं करेगा . सच्ची बात यह है कि इस देश में जब सबसे अच्छे बिज़नस स्कूलों का ज़िक्र आता है तो सबसे पहले दिमाग में आई आई एम का नाम आता है और वे ही इस देश के टॉप प्रबंध संस्थान माने जाते हैं .इसके बाद आई एस बी हैदराबाद , एम डी आई गुडगाँव , आई आई टी दिल्ली, टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेस , मुंबई जैसे नामी संस्थानों का शुमार किया जाता है लेकिन बड़ी पत्रिकाओं और मीडिया समूहों की ओर से सबसे जादा विज्ञापन देने वाले बिज़नस स्कूलों का नाम टॉप पर डाल देने से मीडिया की अपनी विश्वसनीयता , सवालों के घेरे में गिड़गिडाती हुई खडी हो जाती है .मीडिया को अपनी लाज बचाने के लिए इस तरह के सर्वे से बाज़ आना चाहिए.. क्योंकि इन पत्रिकाओं की विश्वसनीयता बहुत ज्यादा होती है और सीधे सादे छात्र और उनके माता पिता इन् का भरोसा करके इन् स्कूलों के चक्कर में आ जाते हैं और २ साल का वक़्त बिताने और करीब १५ लाख रूपये खर्च करने के बाद जब जॉब मार्केट में जाते हैं या उसके पहले ही उन्हें पता लग जाता है कि एफ एम एस दिल्ली तो बहुत ही अच्छा संस्थान है और वहां फीस भी बहुत कम लगती है ,तो वे उस मैगजीन को शाप देते हैं जिसके सर्वे को पढ़ कर उन्होंने उस तथा कथित टॉप टेन बिज़नस स्कूल में दाखिला लिया था.
बिज़नस स्कूलों के सर्वे का यह खेल और उस से जुडी हेराफेरी कोई नई बात नहीं है .१९९८ में जब इस पत्रिका का सर्वे आया था तो एफ एम एस दिल्ली ने शिकायत की थी किउनक अनाम नीचे डाल दिया गया क्योंकि पत्रिका के प्रतिनधि ने विआपन माँगा था जो नहीं दिया गया था , इस तरह के सर्वे का काम पूरे अमरीका और यूरोप में होता है. वहां होने वाले सर्वे आम तौर पर भरोसे मंद भी होते हैं . अगर वे हेरा फेरी करते पाए जाते हैं तो उन पर मुक़दमा भी होता है और जुर्माना भा, शायद इसी लिए वहां की मीडिया कंपनियां गड़बड़ नहीं करतीं . लेकिन भारत में यह सारा काम नया है . शायद दस साल के करीब से यह धंधा चल रहा है.. लेकिन अगर मीडिया हाउस फ़ौरन से पेश्तर संभल न गए तो उन्हें सज़ा भी होगी और जुर्माना भी क्योंकि इन्टरनेट के चलते उनकी पोल पट्टी किसी भी वेबसाइट पर खुल जायेगी . मीडिया का जनवादीकरण हो चुका है . मीडिया पर धीरे धीरे धन्ना सेठों की गिरफ्त कमज़ोर पड़ रही है और कुछ न्यायप्रिय नौजवान पत्रकार मीडिया को पूंजी के शिकंजे से मुक्ति दिलाने की क्रान्ति के हरावल दस्ते की अगुवाई कर रहे हैं .