Sunday, October 3, 2010

चली है रस्म जहां के कोई न सर उठा के चले

शेष नारायण सिंह

बाबरी मस्जिद की ज़मीन के मालिकाना हक के फैसले के बाद संघी बिरादरी खुश है . उन्हें उम्मीद से ज्यादा सफलता मिली है और अब वे बाबरी मस्जिद के ढहाए जाने के आपराधिक मुक़दमे को भी इसी में लपेट कर पेश करने की कोशिश कर रहे हैं. शायद इसीलिए जब गृहमंत्री ने कहा कि आपराधिक मुक़दमा अपनी जगह है और यह फैसला अपनी जगह तो संघ की राजनीतिक शाखा के लोग गुस्से में आ गए और बयान देने लगे. टेलेविज़न की कृपा से पत्रकार बने कुछ लोग अखबारों में लेख लिखने लगे कि देश की जनता ने शान्ति को बनाए रखने की दिशा में जो काम किया है वह बहुत ही अहम है. आर एस एस के संगठनों के लोग हर उस लेखक के लिए गालियाँ बक रहे हैं जो फैसले पर किसी तरह का सवाल उठा रहा है. लेकिन सवाल तो उठ रहे हैं और उम्मीद की जानी चाहिये कि अगले कुछ दिनों में अयोध्या की विवादित ज़मीन के फैसले में जो सूराख हैं वह सारी दुनिया के सामने आ जायेगें . इस बीच धर्मनिरपेक्ष ताक़तों में भी कमजोरी नज़र आ रही है . आम तौर पर सही सोच वाले बहुत सारे लोग अब अजीब बात करने लगे हैं . वह कह रहें हैं कि कितना संयम बरत रहा है हिंदुस्तान . कोई हिंसा नहीं . आम मुसलमान उन्हें याद आ गया है जो सिर्फ रोज़ी रोटी चाहता है . कह रहे हैं कि वह बहुत खुश है फैसले से . सरकार की तारीफ़ कर रहे हैं और इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच के उन तीनों जजों को भारत रत्न देने की बात कर रहे हैं जिन्होंने यह फैसला सुनाया आज भारत के आम मुसलमान को दूसरे दर्जे का नागरिक बना दिया गया है और उस से उम्मीद की जा रही है की वह खुश रहे . पिछले दो महीने से इस फैसले के आने की खबर को इतनी हवा दी गयी है की आम मुसलमान डरा हुआ है कि पता नहीं क्या होगा. ऐसे में सवाल यह उठता है की अगर फैसला कानून के आधार पर हुआ होता और आस्था के आधार पर न हुआ होता ,तो भी क्या इतना ही संयम रहता . सब को मालूम है की संघी बिरादारी बहुत पहले से कहती आ रही थी कि अगर फैसला सुन्नी वक्फ बोर्ड के पक्ष में गया तो वे इस फैसले को नहीं मानेगें. ज़ाहिर है कि फैसला आर एस एस का पसंद का आया है ,इसलिए वे संयम की बात कर रहे हैं . इस तथाकथित संयम के अलम्बरदार यह भी कह रहे हैं की मुसलमान ने संयम दिखा कर बहुत अच्छा किया . इसका अर्थ यह हुआ कि पहले जो भी दंगे होते थे वह मुसलमान की करवाता था. इस फैसले के बाद लगता है कि अब आम आदमी को कहीं से भी न्याय की उम्मीद नहीं करनी चाहिए. सबसे अजीब बात यह है कि इस फैसले को कानून की कसौटी पर कसने की कोई कोशिश ही नहीं की जा रही है . शान्ति की बात को फोकस में रख कर सारी चर्चा की जा रही है . इस बात पर कहीं चर्चा नहीं की जा रही है कि आस्था को नापने का कोई वैज्ञानिक तरीका है क्या? या ज्यूरिसप्रूडेंस की बारीकियां अगर आस्था के आधार पर तय की जायेगीं तो हमारे संविधान का क्या होगा? यह सवाल भी उठाये जाने चाहिए कि कि इस फैसले के बाद संविधान के धर्म निरपेक्ष चरित्र का क्या होगा. यह फैसला कोई मामूली फैसला नहीं है. यह एक हाई कोर्ट का फैसला है ज्सिको कि बाकी अदालतों में नज़ीर के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है . जिसके बाद निचली अदालतों से इस तरह के फैसले थोक में आने लगेगें.
इस बीच खबर है कि दिल्ली के कुछ बुद्धिजीवियों ने इस फैसले से पैदा होने वाले नतीजों के बारे में विचार किया है और तय किया गया है कि इलाहाबाद हाई कोर्ट के इस फैसले की वैधता को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देकर यह आदेश लेने की कोशिश करेगें कि क्या आस्था के सवाल पर अदालत को फैसला देने की आज़ादी है . यह भी सवाल पूछा जाएगा कि क्या कानून को दरकिनार करके किसी विवाद पर आया फैसला मानने के लिए जनता को बाध्य किया जा सकता है . कुछ जागरूक वर्गों की कोशिश है कि सभी राजनीतिक दलों को भी इस फैसले पर अपनी राय बनाने को मजबूर किया जाए, उनसे सार्वजनिक मंचों से सवाल किये जाएँ और भारत के संविधान को बचाने की कोशिश में ज्यादा से ज्यादा लोगों को शामिल किया जाये.
.