Sunday, May 16, 2010

हमारी आज़ादी की विरासत का केंद्र है देवबंद

शेष नारायण सिंह


दारुल उलूम, देवबंद को दुश्मन की तरह पेश करने वाले सांप्रदायिक हिंदुओं को भी यह बता देने की जरूरत है कि जब भी अंग्रेजों के खि़लाफ बगावत हुई, देवबंद के छात्र और शिक्षक हमेशा सबसे आगे थे। इन लोगों को यह भी बता देने की ज़रूरत है कि देवबंद के स्कूल की स्थापना भी उन लोगों ने की थी जो 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के हीरो थे।

हाल में ही देवबंद के मौलाना नूरुल हुदा को दिल्ली हवाई अड्डे पर गिरफ्तार कर लिया गया। उन पर दफा 341 के तहत चार्जशीट दाखिल की गई और उन्हें दिल्ली की एक अदालत से जमानत लेनी पड़ी। वे जेल से तो बाहर आ गए हैं लेकिन अभी केस खत्म नहीं हुआ है। उन पर अभी मुकदमा चलेगा और अदालत ने अगर उन्हें निर्दोष पाया तो उनको बरी कर दिया जायेगा वरना उन्हें जेल की सजा भी हो सकती है। उनके भाई का आरोप है कि 'यह सब दाढ़ी, कुर्ता और पायजामे की वजह से हुआ है, यानी मुसलमान होने की वजह से उनको परेशान किया जा रहा है।

हुआ यह कि मौलाना नूरुल हुदा दिल्ली से लंदन जा रहे थे। जब वे जहाज़ में बैठ गए तो किसी रिश्तेदार का फोन आया और उन्होंने अपनी खैरियत बताई और और कहा कि 'जहाज उडऩे वाला है और हम भी उडऩे वाले है।' किसी महिला यात्री ने शोरगुल मचाया और कहा कि यह मौलाना जहाज़ को उड़ा देने की बात कर रहे हैं। जहाज़ रोका गया और मौलाना नूरुल हुदा को गिरफ्तार कर लिया गया। पूछताछ हुई और पुलिस ने स्वीकार किया कि बात समझने में महिला यात्री ने गलती की थी। सवाल यह है कि अगर पुलिस ने यह पता लगा लिया था कि महिला की बेवकूफी की वजह से मौलान नूरुल हुदा को हिरासत में लिया गया था तो केस खत्म क्यों नहीं कर दिया गया। उन पर चार्जशीट दाखिल करके पुलिस ने उनके नागरिक अधिकारों का हनन किया है और उनके लोकतांत्रिक अधिकारों का अपमान किया है। इसके लिए पुलिस को माफी मांगनी चाहिए। अगर माफी न मांगे तो सभ्य समाज को चाहिए कि वह पुलिस पर इस्तगासा दायर करे और उसे अदालत के जरिए दंडित करवाए। पुलिस को जब मालूम हो गया था कि महिला का आरोप गलत है तो मौलाना के खिलाफ दफा 341 के तहत मुकदमा चलाने की प्रक्रिया क्यों शुरू की? इस दफा में अगर आरोप साबित हो जाय तो तीन साल की सज़ा बामशक्कत का प्रावधान है। इतनी कठोर सजा की पैरवी करने वालों के खि़लाफ सख्त से सख्त प्रशासनिक और कानूनी कार्रवाई की जानी चाहिए। मामला और भी गंभीर हो जाता है क्योंकि जांच के दौरान ही पुलिस को मालूम चल गया था कि आरोप लगाने वाली महिला झूठ बोल रही थी। इस मामले में मौलाना नूरुल हुदा, उनके परिवार वालों और मित्रों को जो मानसिक प्रताडऩा झेलनी पड़ी है, सरकार को चाहिए कि उसके लिए संबंधित एअरलाइन, झूठ बोलनी वाली महिला, दिल्ली पुलिस और जांच करने वाले अधिकारियों के खिलाफ मु$कदमा चलाए और मौलाना को मुआवज़ा दिलवाए। इस मामले में मौलाना नूरुल हुदा को मानसिक क्लेश पहुंचा कर सभी संबंधित पक्षों ने उनका अपमान किया है।

वास्तव में देवबंद का दारुल उलूम विश्व प्रसिद्घ धार्मिक केंद्र होने के साथ-साथ हमारी आज़ादी की लड़ाई की भी सबसे महत्वपूर्ण विरासत भी है। हिंदू-मुस्लिम एकता का जो संदेश महात्मा गांधी ने दिया था, दारुल उलूम से उसके समर्थन में सबसे ज़बरदस्त आवाज़ उठी थी। 1930 में जब इलाहाबाद में संपन्न हुए मुस्लिम लीग के सम्मेलन में डा. मुहम्मद इकबाल ने अलग मुस्ल्मि राज्य की बात की तो दारुल उलूम के विख्यात कानूनविद मौलाना हुसैन अहमद मदनी ने उसकी मुखालिफत की थी। उनकी प्रेरणा से ही बड़ी संख्या में मुसलमानों ने महात्मा गांधी की अगुवाई में नमक सत्याग्रह में हिस्सा लिया था। सरकारी आंकड़ों के अनुसार करीब 12 हज़ार मुसलमानों ने नमक सत्याग्रह के दौरान गिरफ्तारी दी थी। दारुल उलूम के विद्वानों की अगुवाई में चलने वाला संगठन जमीयतुल उलेमा-ए-हिंद आज़ादी की लड़ाई के सबसे अगले दस्ते का नेतृत्व कर रहा था।

आजकल देवबंद शब्द का उल्लेख आते ही कुछ अज्ञानी प्रगतिशील लोग ऊल जलूल बयान देने लगते हैं और ऐसा माहौल बनाते हैं गोया देवबंद से संबंधित हर व्यक्ति बहुत ही खतरनाक होता है और बात बात पर बम चला देता है। पिछले कुछ दिनों से वहां के फतवों पर भी मीडिया की टेढ़ी नज़र है। देवबंद के दारुल उलूम के रोज़मर्रा के कामकाज को अर्धशिक्षित पत्रकार, सांप्रदायिक चश्मे से पेश करने की कोशिश करते हैं जिसका विरोध किया जाना चाहिए।1857 में आज़ादी की लड़ाई में $कौम, हाजी इमादुल्ला के नेतृत्व में इकट्ठा हुई थी। वे 1857 में मक्का चले गए थे। उनके दो प्रमुख अनुयायियों मौलाना मुहम्मद कासिम नानौतवी और मौलाना रशीद अहमद गंगोही ने देवबंद में दारुल उलूम की स्थापना करने वालों की अगुवाई की थी। यही वह दौर था जब यूरोपीय साम्राज्यवाद एशिया में अपनी जड़े मज़बूत कर रहा था। अफगानिस्तान में यूरोपी साम्राज्यवाद का विरोध सैय्यद जमालुद्दीन कर रहे थे। जब वे भारत आए तो देवबंद के मदरसे में उनका जबरदस्त स्वागत हुआ और अंग्रेजों की सत्ता को उखाड़ फैंकने की कोशिश को और ताकत मिली। जब 1885 में कांग्रेस की स्थापना हुई तो दारुल उलूम के प्रमुख मौलाना रशीद अहमद गंगोही थे। आपने फतवा दिया कि शाह अब्दुल अज़ीज़ का फतवा है कि भारत दारुल हर्ब है। इसलिए मुसलमानों का फर्ज है कि अंग्रेजों को भारत से निकाल बाहर करें। उन्होंने कहा कि आजादी के लक्ष्य को हासिल करने के लिए हिन्दुओं को साथ लेकर संघर्ष करना शरियत के लिहाज से भी बिल्कुल दुरुस्त है। वें भारत की पूरी आजाद के हिमायती थे। इसलिए उन्होंने कांग्रेस में शामिल न होने का फैसला किया। क्योंकि कांग्रेस 1885 में पूरी आजादी की बात नहीं कर रही थी। लेकिन उनकी प्रेरणा से बड़ी संख्या में मुसलमानों ने कांग्रेस की सदस्यता ली और आजादी की लड़ाई में शामिल हो गये।

इतिहास गवाह है कि देवबंद के उलेमा दंगों के दौरान भी भारत की आजादी और राष्ट्रीय एकता के सबसे बड़े पक्षधर के रूप में खड़े रहते थे। देवबंद के बड़े समर्थकों में मौलाना शिबली नोमानी का नाम भी लिया जा सकता है। उनके कुछ मतभेद भी थे। लेकिन आजादी की लड़ाई के मसले पर उन्होंने देवबंद का पूरी तरह से समर्थन किया। सर सैय्यद अहमद खां की मृत्यु तक वे अलीगढ़ में शिक्षक रहे लेकिन अंग्रेजी राज के मामले में वे सर सैय्यद से अलग राय रखते थे। प्रोफेसर ताराचंद ने अपनी किताब 'भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास' में साफ लिखा है कि देवबंद के दारुल उलूम ने हर उस आंदोलन का समर्थन किया जो भारत से अंग्रेजों को खदेडऩे के लिए चलाया गया था। 1857 के जिन बागियों ने देवबंद में धार्मिक मदरसे की स्थापना की उनके प्रमुख उद्देश्यों में भारत की सरजमीन से मुहब्बत भी थी। कलामे पाक और हदीस की शिक्षा तो स्कूल का मुख्य काम था लेकिन उनके बुनियादी सिद्घांतों में यह भी था कि विदेशी सत्ता खत्म करने के लिए जिहाद की भावना को हमेंशा जिंदा रखा जाए। आज कल जिहाद शब्द के भी अजीबो गरीब अर्थ बताये जा रहे हैं। यहां इतना ही कह देना काफी होगा कि 1857 में जिन बागी सैनिकों ने अंग्रेजों के खि़लाफ सब कुछ दांव पर लगा दिया था वे सभी अपने आपको जिहादी ही कहते थे। यह जिहादी हिन्दू भी थे और मुसलमान भी और सबका मकसद एक ही था विदेशी शासक को पराजित करना।

मौलाना रशीद अहमद गंगोही के बाद दारुल उलूम के प्रमुख मौलाना महमूद उल हसन बने। उनकी जिंदगी का मकसद ही भारत की आजादी था। यहां तक कि कांग्रेस ने बाद में महात्मा गांधी के नेतृत्व में पूरी स्वतंत्रता का नारा दिया। लेकिन मौलाना महमूद उल हसन ने 1905 में ही पूर्ण स्वतंत्रता की अपनी योजना पर काम करना शुरू कर दिया था। उन्होंने भारत से अंगे्रजों को भगा देने के लिए एक मिशन की स्थापना की जिसका मुख्यालय देवबंद में बनाया गया। मिशन की शाखाएं दिल्ली, दीनापुर, अमरोट, करंजी खेड़ा और यागिस्तान में बनाई गयीं। इसमें बड़ी संख्या में मुसलमान शामिल हुए। लेकिन यह सभी धर्मों के लिए खुला था। पंजाब के सिख और बंगाल की क्रांतिकारी पार्टी के सदस्य भी इसमें शामिल हुए। मौलाना महमूद उल हसन के बाद देवबंद का नेतृत्व मौलाना हुसैन अहमद मदनी के कंधों पर पड़ा। उन्होंने भी कांग्रेस, महात्मा गांधी और मौलाना अबुल कलाम आजाद के साथ मिलकर मुल्क की आजादी के लिए संघर्ष किया। उन्होंने 1920 में कांग्रेस के असहयोग आंदोलन का समर्थन करने का फै सला किया और उसे अंत तक समर्थन देते रहे। उन्होंने कहा कि धार्मिक मतभेद के बावजूद सभी भारतीयों को एक राष्ट्र के रूप में संगठित रहना चाहिए। उन्होंने कहा कि राष्ट्र की स्थापना भौगोलिक तरीके से की जानी चाहिए। धार्मिक आधार पर नहीं। अपने इस विचार की वजह से उनको बहुत सारे लोगों, खासकर पाकिस्तान के समर्थकों का विरोध झेलना पड़ा लेकिन मौलाना साहब अडिग रहे। डा. मुहम्मद इकबाल ने उनके खि़ला$फ बहुत ही जहरीला अभियान शुरू किया तो मौलाना हुसैन अहमद मदनी ने फारसी में एक शेर लिखकर उनको जवाब दिया कि अरब के रेगिस्तानों में घूमने वाले इंसान जिस रास्ते पर आप चल पड़े हैं वह आपको काबा शरीफ तो नहीं ले जाएगा अलबत्ता आप इंगलिस्तान पहुंच जाएंगे। मौलाना हुसैन अहमद मदनी 1957 तक रहे और भारत के संविधान में भी बड़े पैमाने पर उनके सुझावों को शामिल किया गया है।

जाहिर है पिछले 150 वर्षों के भारत के इतिहास में देवबंद का एक अहम मुकाम है। भारत की शान के लिए यहां के शिक्षकों और छात्रों ने हमेशा कुर्बानियां दी हैं। अफसोस की बात है कि आज देवबंद शब्द आते ही सांप्रदायिक ताकतों के प्रतिनिधि ऊल-जलूल बातें करने लगते हैं। जरूरत इस बात की है कि धार्मिक मामलों में दुनिया भर में विख्यात देवबंद को भारत की आजादी में उनके सबसे महत्वपूर्ण रोल के लिए भी याद किया जाए और उनके रोजमर्रा के कामकाज को सांप्रदायिकता के चश्मे से न देखा जाए

आर्थिक विकास के साथ साथ सामाजिक विकास भी ज़रूरी

शेष नारायण सिंह

हमारे समाज में लोगों को अपने को सही और दूसरों को गलत मानने की बीमारी जोर पकडती जा रही है .शिक्षा के क्षेत्र में बहुत बड़े पैमाने पर बदलाव हो रहे हैं . ग्रामीण इलाकों के लड़के लडकियां उच्च और प्रोफेशनल शिक्षा के ज़रिये सफलता हासिल करने की कोशिश में लगे हुए हैं . अभी २५ साल पहले तक जिन गावों की लड़कियों को उनके माता पिता , दसवीं की पढ़ाई करने के लिए २ मील दूर नहीं जाने देते थे , उन इलाकों की लडकियां दिल्ली, पुणे, बंगलोर नोयडा ,ग्रेटर नोयडा में स्वतन्त्र रूप से रह रही हैं और शिक्षा हासिल कर रही हैं . उनके माता पिता को भी मालूम है कि बच्चे पढ़ लिख कर जीवन में कुछ हासिल करने लायक बन जायेंगें . लेकिन अभी भारत के मध्यवर्गीय समाज में यह जागरूकता नहीं है कि शिक्षा के विकास के बाद जब पश्चिमी देशों की तरह बच्चे आत्म निर्भर होंगें तो उनको अपनी निजी ज़िंदगी में भी स्पेस चाहिए . उनको अपनी ज़िंदगी के अहम फैसले खुद लेने कीआज़ादी उन्हें देनी पड़ेगी लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है . ताज़ा मामला झारखण्ड की पत्रकार निरुपमा पाठक का है . उसके माता पिता ने उसे पत्रकारिता की शिक्षा के लिए दिल्ली भेजा, लड़की कुशाग्रबुद्धि की थी, उसने अपनी कोशिश से नौकरी हासिल की और अपनी भावी ज़िंदगी की तैयारियां करने लगी. अपने साथ पढने वाले एक लडके को पसंद किया और उसके साथ घर बसाने का सपना देखने लगी. जब वह घर से चली थी तो उसके माता पिता अपने दोस्तों के बीच हांकते थे कि उनकी बेटी बड़ी सफल है और वे उसकी इच्छा का हमेशा सम्मान करते हैं . लेकिन अब पता चला है कि वे तभी तक अपनी बच्ची की इज्ज़त करते थे जब तक वह उनकी हर बात मानती थी लेकिन जैसे ही उसने उनका हुक्म मानने से इनकार किया , उन्होंने उसे मार डाला . यह तो बस एक मामला है . ऐसे बहुत सारे मामले हैं .. इसके लिए बच्चों के माँ बाप को कसाई मान लेने से काम नहीं चलने वाला है . वास्तव में यह एक सामाजिक समस्या है . अभी लोग अपने पुराने सामाजिक मूल्यों के साथ जीवित रहना चाहते हैं . इसका यह मतलब कतई नहीं है कि वे नए मूल्यों को अपनाना नहीं चाहते . शायद वे चाहते हों लेकिन अभी पूंजीवादी रास्ते पर तो विकास आर्थिक क्षेत्र में पींगें मार रहा है लेकिन परिवार और समाज के स्तर पर किसी तरह का मानदंड विकसित नहीं हो रहा है . नतीजा यह हो रहा है कि पूंजीवादी आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था में भारत के ग्रामीण समाज के लोग सामन्ती मूल्यों के साथ जीवन बिताने के लिए मजबूर हैं . खाप पंचायतों के मामले को भी इसी सांचे में फिट करके समझा जा सकता है . सूचना क्रान्ति के चलते गाँव गाँव में लडके लड़कियां वह सब कुछ देख रहे हैं जो पश्चिम के पूंजीवादी समाजों में हो रहा है . वह यहाँ भी हो सकता है . दो नौजवान एक दूसरे को पसंद करने लगते हैं लेकिन फिर उन्हें उसके आगे बढ़ने की अनुमति सामंती इंतज़ाम में नहीं मिल पाती . दिल्ली के पास के दादरी इलाके में यही हुआ. वहां पंचायत को इस बात पर एतराज़ था कि जिन दो गावों के लोग अपने को एक ही परिवार का मानते हैं और लडके लड़कियों के बीच भाई बहन का रिश्ता होता है , वे शादी कैसे कर सकते हैं . पुराने समय में तो यह व्यवस्था एक तरह से सुरक्षा की शील्ड थी लेकिन अब ज़माना बदल गया है .लड़कियों की सुरक्षा के और भी अच्छे तरीके विकसित हो गए हैं तो ऐसी हालत में इन मान्यताओं को बदला जा सकता है लेकिन पंचायत और और बिरादरी के लोग अड़े हुए हैं लिहाज़ा पुलिस की सुरक्षा में शादी विवाह संपन्न हो रहे हैं.

इसी तरह के बहुत सारे मामले हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश से भी सुने जाते हैं . दुर्भाग्य यह है कि सरकारें और दिल्ली में बैठे बुद्धिजीवी इसे कानून व्यवस्था की समस्या मानते हैं और नेता सच कहने से भागते हैं . वास्तव में यह सामाजिक विकास की समस्या है . इसको हल करने के लिए पुलिस वालों की नहीं , समाजशास्त्रियों की ज़रुरत है ,सामाजिक विघटन और संयुक्त परिवार के ख़त्म होने की बारीकियों की रोशनी में इन समस्याओं को समझने की ज़रुरत है . आर्थिक और औद्योगिक विकास के साथ साथ समाज और परिवार के जीवन मूल्यों के विकास के बिना यह समस्याएं ज्यों की त्यों बनी रहेंगी. इस काम को दुरुस्त करने के लिए जनमत बनाना पड़ेगा और जनमत बनाने वाले लोगों बुद्धिजीवियों , राजनेताओं और मीडिया को अपनी ज़िम्मेदारी निभानी होगी क्योंकि यह पूरे समाज की ज़िम्मेदारी है .