Friday, May 13, 2011

शिक्षा के बिना मुसलमानों का पिछड़ापन ख़त्म नहीं होगा

शेष नारायण सिंह

ओसामा बिन लादेन के मर जाने के बाद पूरी दुनिया से तरह तरह की प्रतिक्रियाएं आ रही हैं .अमरीका में वहां के राष्ट्रपति की लोकप्रियता में ११ प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है,यूरोप वाले पाकिस्तान को घेरने की कोशिश कर रहे हैं . पाकिस्तानी फौज और आई एस आई के चेहरे खिसियाहट में तरह तरह के रंग बदल रहे हैं , पाकिस्तानी हुकूमत की बेचारगी छुपाये नहीं छुप रही है , पाकिस्तानी अवाम को साफ लगने लगा है कि भारत से पाकिस्तानी शासकों ने जिस तरह की दुश्मनी कर रखी है ,उसके नतीजे बहुत भयानक हो सकते हैं.आग में घी डालते हुए भारत के सेना प्रमुख ने बयान दे दिया है कि भारतीय सेना अमरीकी कार्रवाई जैसे आपरेशन को अंजाम दे सकती है .आतंक के कारोबार में लगे पाकिस्तानी नेता सडकों पर रो रहे हैं और अपने लोगों को समझा नहीं पा रहे हैं कि उनके तरीके को लोग क्यों सही मानें . जब उनके सबसे बड़े आका को ही उसके घर में घुसकर अमरीकी मार सकते हैं तो यह बेचारे किस खेल की मूली हैं .पाकिस्तान में आतंकवादी संगठनों ने कोशिश शुरू कर दिया है कि ओसामा बिन लादेन की मौत को मुसलमानों की भावनाओं से जोड़कर एकजुटता की कोशिश की जाए . पता नहीं किस तरह यह लोग ओसामा बिन लादेन को मुसलमानों की अस्मिता से जोड़ेगें जबकि उसकी आतंक की राजनीति से मरने वालों में बहुत बड़ी संख्या मुसलमानों की है . ओसामा के सहयोगी संगठनों ने बेनजीर भुट्टो सहित जितने भी पाकिस्तानियों को मारा है वे सब मुसलमान थे . पाकिस्तान में उनके सहयोगी मुल्ला उमर और उनकी संस्था तालिबान ने जितने लोगों को मारा वे सब मुसलमान थे . भारत में भी उनके सहयोगी संगठनों की हिंसा के शिकार हुए लोगों में बहुत बड़ी संख्या मुसलमानों की है . लेकिन एक और अजीब बात सामने आ रही है . भारत में भी भावनाओं को उभारने के लिए कुछ लोग सक्रिय हो गए हैं . इसमें दो तरह के लोग हैं . एक तो वे धार्मिक नेता हैं जो चाहते हैं कि मुसलमान हमेशा पिछड़ा ही रहे. मुसलमानों के पिछड़े रहने में राजनेताओं का भी स्वार्थ रहता है . शायद इसीलिए वोट याचकों का एक वर्ग भी ओसामा की मौत को मुसलमानों की भावनाओं से जोड़ने की कोशिश कर रहा है . जबकि आम मुसलमान के सामने जिस तरह की समस्याएं हैं, उनकी तरफ इन में से किसी का ध्यान नहीं जा रहा है . या अगर जा रहा है तो उस समस्याओं को टाल देने की रणनीति के तहत ओसामा जैसे नान इशू को हवा देने की कोशिश की जा रही है . मुसलमानों की असली समस्याएं गरीबी, बेरोजगारी, सामाजिक असुरक्षा ,हमेशा साम्प्रदायिक दंगों का ख़तरा आदि हैं . इन मुद्दों को बहस की मुख्य धारा में लाने की कोशिश कोई नहीं कर रहा है . या शायद करना नहीं चाह रहा है . सब को मालूम हैकि इन समस्याओं का हल तालीम से निकलेगा . दुर्भाग्य की बात है कि उत्तर भारत में मुसलमाओं की तालीम को वह इज्ज़त नहीं मिल रही है जो मिलनी चाहिए. चारों तरफ नज़र डाल कर देखें तो समझ में आ जाएगा कि जो अच्छी शिक्षा पा चुका है वह न गरीब है , न बेरोजगार है और उसे किसी तरह की सामाजिक असुरक्षा नहीं है. सवाल उठता है कि मुसलमानों के खैरख्वाह नेता लोग तालीम की बात को क्यों नहीं अपनी सर्वोच्च प्राथमिकता बनाते ? सच्चाई यह है कि इस्लाम में तालीम को बहुत ज्यादा मह्त्व दिया गया है . रसूले खुदा, हज़रत मुहम्मद ने कहा है कि इल्म के लिए अगर ज़रुरत पड़े तो चीन तक भी जाया जा सकता है. लेकिन दुर्भाग्य यह है कि कौम के नेता शिक्षा को उतना मह्त्व नहीं देते जितना देना चाहिए . दिल्ली में पिछले पैंतीस साल के अनुभव के आधार पर कहा जा सकता है कि मुसलमानों के ज़्यादातर धार्मिक और राजनीतिक नेता शिक्षा की कमी के लिए सरकार को दोषी ठहराते पाए जाते हैं .उससे भी ज्यादा तकलीफ की बात यह है कि जो सरकारी सुविधाएं मिल भी रही हैं ,उनसे भी मुसलमानों को वह फायदा नहीं मिल रहा है जो मिलना चाहिए . इस तरह की बहानेबाज़ी उत्तर भारत में ही हो रही है . दक्षिण भारत में सरकारी सुविधाओं का बेहतर इस्तेमाल किया जा रहा है .एक उदाहरण से बात को समझने में आसानी होगी. हैदराबाद से प्रकाशित होने वाले अखबार, सियासत के मालिकों ने एक स्कीम शुरू की . उन्होंने देखा कि उनके अखबार के दफ्तर में सुबह कोई काम नहीं होता . उन्होंने गरीब मुसलमानों के बच्चो के लिए मुफ्त कोचिंग शुरू करने का फैसला किया . कुछ ही वर्षों में नतीजे साफ़ नज़र आने लगे . एक बातचीत में पता चला कि शहर के एक गरीब ऑटोरिक्शा चालक की तीन बेटियाँ देश के सबसे अच्छे इंजीनियरिंग कालेज, आई आई टी में पढ़ रही हैं . हैदराबाद में ऐसे हज़ारों उदाहरण हैं . इसी अखबार की पहल पर ही केन्द्रीय अल्पसंख्यक मंत्रालय की ओर से शुरू की गयी छात्रवृत्ति की योजना का भी मुसलमानों के बच्चे बहुत बड़े पैमाने पार लाभ उठा रहे हैं और शिक्षा पा रहे हैं . हालांकि यह स्कीम अभी नई है और इसके नतीजे कुछ वर्षों में मिसाल बन सकेंगें लेकिन उत्तर भारत में तो सरकार के वजीफों के अधिक से अधिक इस्तेमाल की कोई गंभीर कोशिश ही नहीं हो रही है . दिलचस्प बात यह है कि इन वजीफों की कोई सीमा नहीं है .जो भी मुस्लिम बच्चा स्कूल जाता हो वह इसका हक़दार है और सभी बच्चे इस सुविधा का का इस्तेमाल कर सकते हैं . ज़रुरत सिर्फ इस बात की है कि समाज के नेता इस दिशा में कोई पहल करें. इसी तरह से शिक्षा के केन्द्रों के बारे में भी सोच है . राज्यसभा के उपाध्यक्ष ,के रहमान खान ने एक दिन बताया कि पिछले अठारह साल से वे दिल्ली में हैं ,लेकिन इधर कहीं भी अल्पसंख्यकों के किसी इंजीनियरिंग कालेज के खुलने की चर्चा नहीं सुनी . हाँ यह खूब सुना गया कि अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की सियासत में क्या उठा पटक हो रही है. जबकि दक्षिण भारत में हर बड़े शहर में पूरी तरह से मुसलमानों की शिक्षा के लिए कोशिश चल रही है . उन्होंने अपने खुद के उदाहरण से बात को साफ़ किया . बताने लगे कि १९६४ में बंगलोर शहर में मुसलमानों का को कालेज नहीं था. कुछ हाई स्कूल ज़रूर थे. उन्होंने अल अमीन नाम के एक संगठन के तत्वावधान में १९६७ में एक कालेज शुरू कर दिया . एक टिन शेड में शुरू हुआ यह कालेज आज एक नामी शिक्षा संस्था है .शुरू में सरकार की बात तो छोड़ दीजिये , मुसलमानों को ही भरोसा नहीं हुआ . लेकिन जब कुछ बच्चे अच्छी तालीम लेकर यूनिवर्सिटी में नाम पैदा करने में सफल हो गए तो लोग आगे आये और आर्थिक मदद शुरू की. सरकार से कोई मदद नहीं ली गई. केवल मान्यता वगैरह के जो ज़रूरी कानूनी काम थे वह सरकार ने दिया . आर्थिक मदद पूरी तरह से मुसलमानों ने किया और कालेज चल निकला . आज वह एक बहुत बड़ा कालेज है . पूरे कर्नाटक में अल अमीन संस्थाओं की संख्या अब बहुत जयादा है . . बीजापुर के अल अमीन मेडिकल कालेज की स्थापना की कहानी भी गैर मामूली है . के रहमान खान ने अपने सात दोस्तों के साथ मिल कर एक ट्रस्ट बनाया . कुल सात सौ सात रूपये जमा हुए . गरीब लोगों के लिए एक अस्पताल बनाने की योजना बना कर काम करना शुरू कर दिया . सात दोस्तों में एक डाक्टर भी था. किराए का एक मकान लेकर क्लिनिक शुरू कर दिया . डाक्टर दोस्त बहुत ऊंची डाक्टरी तालीम लेकर विदेश से आया था , उसका नाम मशहूर हो गया जिसकी वजह से पैसे वाले भी इलाज़ के लिए आने लगे. ऐसे ही एक संपन्न मरीज़ का मुफ्त में गरीब आदमियों के साथ इलाज़ किया गया . उसने खुश होकर एक लाख रूपये का दान देने का वादा किया . उस एक लाख रूपये के वादे ने इन दोस्तों के सपनों को पंख लगा दिया . १०० बिस्तरों वाले अस्पताल का खाका बना कर कौम से अपील की. इन लोगों को अब तक आम आदमी का भरोसा मिल चुका था. अस्पताल बन गया . फिर एक मेडिकल कालेज बनाने के सपने देखे . सरकार से केवल मदद मिली. करनाटक के उस वक़्त के मुख्य मंत्री , राम कृष्ण हेगड़े ने बीजापुर में ज़मीन अलाट कर दी. आज बीजापुर का अल अमीन मेडिकल देश के बेहतरीन मेडिकल कालेजों में गिना जाता है . कहने का तात्पर्य यह है कि अगर मुसलमान या कोई भी अपने लिए संस्थाएं बनाने का मन बना ले तो कहीं कोई रोकने वाला नहीं है और सरकार की मर्जी के खिलाफ भी शिक्षा के क्षेत्र में तरक्की की जा सकती. . हाँ यह बात बिलकुल सही है कि शिक्षा में तरक्की के बिना किसी भी कौम की तरक्की नहीं हो सकती.

सुप्रीम कोर्ट के इंसाफ़ के बाद मुल्क मज़बूत होगा

शेष नारायण सिंह

बाबरी मस्जिद की ज़मीन के मालिकाना हक के बारे में ३० सितम्बर २०१० के इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच के फैसले के बाद संघी बिरादरी के लोग बहुत खुश हुए थे. . उन्हें उम्मीद से ज्यादा सफलता मिली थी.वे बाबरी मस्जिद के ढहाए जाने के आपराधिक मुक़दमे को भी उसी फैसले में लपेट कर पेश करने की कोशिश कर रहे थे. जब गृहमंत्री ने कहा कि आपराधिक मुक़दमा और अयोध्या की ज़मीन के मालिकाना हक का मुक़दमा अलग अलग विषय हैं तो आर एस एस वाले लाल पीले होने लगे और उसकी राजनीतिक शाखा के लोग गुस्से में आ गए और उल जलूल बयान देने लगे. आर एस एस के संगठनों के लोग हर उस लेखक के लिए गालियाँ बकने लगे जो फैसले पर किसी तरह का सवाल उठा रहा था . आर एस एस वालों ने इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच के उन तीनों जजों को भारत रत्न देने की बात करना शुरू कर दिया . लेकिन सच्चाई यह है कि उन तीनों जजों के एक फैसले ने भारत के आम मुसलमान को दूसरे दर्जे का नागरिक बना दिया गया . इस फैसले के बाद इंसाफ़ पसंद लोगों में चारों तरफ निराशा का माहौल था और लगता था कि आम आदमी को कहीं से भी न्याय की उम्मीद नहीं करनी चाहिए. सबसे अजीब बात यह थी कि उस फैसले को कानून की कसौटी पर कसने की कोई कोशिश ही नहीं की जा रही थी . शान्ति की बात को फोकस में रख कर सारी चर्चा की जा रही थी . इस बात पर कहीं चर्चा नहीं की जा रही थी कि आस्था को नापने का कोई वैज्ञानिक तरीका है क्या? या ज्यूरिसप्रूडेंस की बारीकियां अगर आस्था के आधार पर तय की जायेगीं तो हमारे संविधान का क्या होगा? यह सवाल भी उठाये जाने चाहिए थे कि उस फैसले के बाद संविधान के धर्म निरपेक्ष चरित्र का क्या होता . यह फैसला कोई मामूली फैसला नहीं था . यह एक हाई कोर्ट का फैसला था जिसको बाकी अदालतों में नज़ीर के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता था . ख़तरा यह था कि उसके बाद निचली अदालतों से इस तरह के फैसले थोक में आने लगते .

संतोष की बात है कि सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच के उस फैसले को खारिज कर दिया है और उसे अजीब कहा है . सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के उल जलूल फैसले पर कड़ा एतराज़ जताया और ताज्जुब व्यक्त किया . सुप्रीम कोर्ट ने भारत के संविधान की लाज रख ली वरना हाई कोर्ट का फैसला तो पूरी तरह से मध्यकालीन न्यायपद्धति का उदाहरण था. उसमें कानून कहीं नहीं था, बस आस्था के मुद्दे को केन्द्र में रख कर एक पंचायती फैसला कर दिया गया था. सुप्रीम कोर्ट का ९ मई २०११ का फैसला देश में न्याय बहाल करने की दिशा में बहुत दूर तलक जाएगा .इस फैसले में यह सन्देश है कि इंसाफ हमेशा कानून की सही व्याख्या कर के ही किया जा सकता है , आस्था को केंद्र में रख कर नहीं. .बाबरी मस्जिद के मामले से अब लोग ऊब चुके हैं लेकिन यह ठीक बात नहीं है . अगर ऐसा हुआ तो देश को तोड़ने की कोशिश कर रही ताक़तें कुछ भी कहर बरपा कर सकती हैं .अब उम्मीद की जानी चाहिये कि बाबरी मस्जिद की ज़मीन के बारे में सुप्रीम कोर्ट सारे तथ्यों पर गौर करके एक सही फैसला करेगी . सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद आर एस एस और उसके मातहत संगठनों में हडकंप है . बीजेपी के प्रवक्ता गण कहने लगे हैं कि मुसलमानों को दरियादिली दिखानी चाहिए और उन्हें सारी ज़मीन राम मंदिर के लिए दे देनी चाहिए . अगर यह मान भी लिया जाए कि मुसलमानों में आम राय बनती है कि सुप्रीम कोर्ट में मुक़दमा जीतने के बाद ज़मीन राममंदिर के लिए दे दी जाए तो वे आर एस एस वालों को तो कभी नहीं देगें . जिस आर एस एस ने बाबरी मस्जिद का विरोध करते हुए पूरे देश के मुसलमानों और ९८ प्रतिशत हिन्दुओं की भावनाओं को ठेस पंहुचाया है . लेकिन अभी इन बातों का वक़्त बिलकुल नहीं है . अभी तो देश की एकता के रास्ते में आर एस एस और ३० सितम्बर के फैसलें ने जो रुकावटें पैदा कीथीं उसे दुरुस्त करने का वक़्त है . खुशी की बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने उस फैसले को फटकार करके पहला क़दम उठा लिया है .