Wednesday, March 2, 2016

उर्दू को विदेशी भाषा बताना अज्ञानता है



शेष नारायण सिंह­­­



पिछले दिनों एक खबर आई थी कि दिल्ली की मेट्रो ट्रेन में एक आदमी उर्दू किताब पढ़ रहा था। जिसे देखकर पास ही खड़े कुछ लोगों ने उससे बात करनी शुरू कर दी। इन लोगों की आँखों में उस व्यक्ति के लिए नफरत साफ दिखाई दे रही थी। इतना ही नहींये लोग उसे देखकर कह रहे थे कि उर्दू पढनेवाले सभी पाकिस्तानी है। इन लोगों को पकिस्तान भेज देना चाहिए।’   ज़माना बदल गया है . इतनी बड़ी बात पर कहीं कोई हंगामा नहीं हुआ . उर्दू अखबारों के अलावा कहीं ज़िक्र तक नहीं हुआ . लेकिन आज से करीब तीस साल पहले था तक होता था . १९७८ में देश के गृहमंत्री चौधरी चरण सिंह ने कहीं कह दिया था कि उर्दू तो विदेशी भाषा है . उस वक़्त के अखबारों में इस बात की खूब चर्चा हुयी थी और कई सम्पादकीय लेखकों ने चौधरी साहेब को आगाह किया था कि उर्दू विदेशी तो कतई नहीं है , वह उनके अपने जन्मस्थान के आसपास के इलाकों  में ही पैदा हुयी और इसी खड़ी बोली के इलाके में परवान चढ़ी. उन दिनों राजनीति में  सरे फेहरिस्त ऐसे लोग होते थे जिनमें से ज़्यादातर आज़ादी की लड़ाई में शामिल हो चुके थे . उन्होंने अपनी आँखों से देखा था कि उर्दू बोलने और लिखने वालों की भारत की जंगे- आज़ादी में कितनी बड़ी भूमिका हुआ करती थी . चौधरी चरण सिंह भी भले आदमी थे और उन्होंने अपनी  गलती को स्वीकार कर लिया और बात आई गयी हो गयी.

दिल्ली मेट्रो की घटना को अगर पैमाना माना जाए तो यह मानना पडेगा कि हालात बिगड़ चुके हैं , बहुत बिगड़ चुके हैं . दिल्ली के आसपास जन्मी  और पलीबढी उर्दू ज़बान को अब गैर ज़िम्मेदार लोगों की नज़र में खतरनाक  भाषा माना जाने लगा है . किसी भी  भाषा और उसमें लिखा साहित्य अगर खतरनाक माना जाने लगे तो यह समाज में मनमानी की ताकतों के बढ़ने का संकेत माना जाता है . इंदिरा गांधी ने जब इमरजेंसी लगाई थी तो किसी को गिरफ्तार करने के लिए पुलिस वाले उसके घर से या झोले से मार्क्सवादी साहित्य की बरामदगी दिखा देते थे . बस उसको खूंखार आतंकवादी मान लिया जाता था. १९८६ में जब से बाबरी मस्जिद के खिलाफ आन्दोलन शुरू हुआ तब से उर्दू को भी खतरनाक  घोषित करने की साज़िश पर काम चल रहा है . हालांकि सरकारी तौर  पर तो ऐसा  नहीं हुआ है लेकिन सड़कों पर जो लोग किसी को भी अपमानित करने के लिए घूम रहे हैं , उन ठगों के लिए उर्दू पाकिस्तानी हो चुकी है जबकि सच्चाई यह है कि उर्दू भारतीय भाषा है और पाकिस्तान ने उसको अपनी सरकारी भाषा के तौर पर स्वीकार कर लिया है .  भारतीय के रूप में हमें इस पर गर्व होना चाहिए कि हमारी भाषा किसी और देश की राजभाषा है . तकलीफ तब होती है जब ऐसे कुछ नेता मिलते हैं जो हिंदुत्व की राजनीति के अलंबरदारों की बात को काटना तो चाहते हैं लेकिन उनको मालूम ही नहीं है कि देश के इतिहास में उर्दू का योगदान कितना है . वह उर्दू जो आज़ादी की ख्वाहिश के इज़हार का ज़रिया बनी आज एक धर्म विशेष के लोगों की जबान बताई जा रही है। इसी जबान में कई बार हमारा मुश्तरका तबाही के बाद गम और गुस्से का इज़हार भी किया गया था। इस लेख उन उर्दू प्रेमियों को संबोधित है जो इस ज़बान के खिलाफ हो रहे हमलों से तकलीफ महसूस  करते हैं .

आज जिस जबान को उर्दू कहते हैं वह विकास के कई पड़ावों से होकर गुजरी है। इसके विकास में दोस्ती का पैगाम लेकर आये सूफी फकीरों की खानकाहों का भी बहुत ज़्यादा  योगदान है .सूफियों के दरवाज़ों पर अमीर गरीब सभी आते थे .सब अपनी अपनी जबान में कुछ कहते। इस बातचीत से जो जबान पैदा हो रही थी वही जम्हूरी जबान आने वाली सदियों में इस देश की सबसे महत्वपूर्ण जबान बनने वाली थी। इस तरह की संस्कृति का सबसे बड़ा केंद्र महरौली में कुतुब साहब की खानकाह थी। उनके चिश्तिया सिलसिले के सबसे बड़े बुजुर्ग ख़्वाजा गऱीब नवाज के दरबार में अमीर गरीब हिन्दूमुसलमान सभी आते थे और आशीर्वाद की जो भाषा लेकर जाते थेआने वाले वक्त में उसी का नाम उर्दू होने वाला था। सूफी संतों की खानकाहों पर एक नई ज़बान परवान चढ़ रही थी। मुकामी बोलियों में फारसी और अरबी के शब्द मिल रहे थे और हिंदुस्तान को एक सूत्र में पिरोने वाली ज़बान की बुनियाद पड़ रही थी।इस ज़बान को अब हिंदवी कहा जाने लगा था। बाबा फरीद गंजे शकर ने इसी ज़बान में अपनी बात कही। बाबा फरीद के कलाम को गुरूग्रंथ साहिब में भी शामिल किया गया। दिल्ली और पंजाब में विकसित हो रही इस भाषा को दक्षिण में पहुंचाने का काम ख्वाजा गेसूदराज ने किया। जब वे गुलबर्गा गए और वहीं उनका आस्ताना बना। इस बीच दिल्ली में हिंदवी के सबसे बड़े शायर हज़रत अमीर खुसरो अपने पीर हजरत निजामुद्दीन औलिया के चरणों में बैठकर हिंदवी जबान को छापा तिलक से विभूषित कर रहे थे।


हज़रत अमीर खुसरो की शायरी हमारी  बेहतरीन अदब और विरासत का हिस्सा है . उनसे महबूब-ए-इलाही, हज़रत निजामुद्दीन औलिया  ने ही फरमाया था कि हिंदवी में शायरी करो और इस महान जीनियस ने हिंदवी में वह सब लिखा जो जिंदगी को छूता है। हजरत निजामुद्दीन औलिया के आशीर्वाद से दिल्ली की यह जबान आम आदमी की जबान बनती जा रही थी।

जब तुगलक ने अपनी राजधानी दिल्ली से दौलताबाद शिफ्ट करने का फैसला लिया तो दिल्ली की जनता पर तो पहाड़ टूट पड़ा लेकिन जो लोग वहां गए वे अपने साथ संगीतसाहित्यवास्तु और भाषा की जो परंपरा लेकर गए वह आज भी उस इलाके की थाती है। इस तरह दक्षिण में  भी उर्दू भाषा पूरी शान की भाषा बनी .  1526 में जहीरुद्दीन बाबर ने इब्राहीम लोदी को हराकर भारत में मुग़ल साम्राज्य की बुनियाद डाली। 17 मुगल बादशाह हुए जिनमें मुहम्मद जलालुद्दीन अकबर सबसे ज्यादा प्रभावशाली हुए। उनके दौर में एक मुकम्मल तहज़ीब विकसित हुई। अकबर ने इंसानी मुहब्बत और रवादारी को हुकूमत का बुनियादी सिद्घांत बनाया। दो तहजीबें इसी दौर में मिलना शुरू हुईं। और हिंदुस्तान की मुश्तरका तहजीब की बुनियाद पड़ी। अकबर की राजधानी आगरा में थी जो ब्रज भाषा का केंद्र था और अकबर के दरबार में उस दौर के सबसे बड़े विद्वान हुआ करते थे।वहां अबुलफजल भी थेतो फैजी भी थेअब्दुर्रहीम खानखाना थे तो बीरबल भी थे। इस दौर में ब्रजभाषा और अवधी भाषाओं का खूब विकास हुआ। यह दौर वह है जब सूफी संतों और भक्ति आंदोलन के संतों ने आम बोलचाल की भाषा में अपनी बात कही। सारी भाषाओं का आपस में मेलजोल बढ़ रहा था और उर्दू जबान की बुनियाद मजबूत हो रही थी। बाबर के समकालीन थे सिखों के गुरू नानक देव। उन्होंने नामदेवबाबा फरीद और कबीर के कलाम को सम्मान दिया और अपने पवित्र ग्रंथ में शामिल किया। इसी दौर में मलिक मुहम्मद जायसी ने पदमावत की रचना की जो अवधी भाषा का महाकाव्य है लेकिन इसका रस्मुल खत फारसी ही है .


उर्दू भारत की आज़ादी की लडाई के भी भाषा  है .कांग्रेस के अधिवेशन में 1916 में लखनऊ में होम रूल का जो प्रस्ताव पास हुआ वह उर्दू में है। 1919 में जब जलियां वाला बाग में अंग्रेजों ने निहत्थे भारतीयों को गोलियों से भून दिया तो उस गम और गुस्से का इज़हार पं. बृज नारायण चकबस्त और अकबर इलाहाबादी ने उर्दू में ही किया था। इस मौके पर लिखा गया मौलाना अबुल कलाम आजाद का लेख आने वाली कई पीढिय़ां याद रखेंगी। हसरत मोहानी ने 1921 के आंदोलन में इकलाब जिंदाबाद का नारा दिया था जो आज न्याय की लड़ाई का निशान बन गया है।आज़ादी के बाद सीमा के दोनों पार जो क़त्लो ग़ारद हुआ था उसको भी उर्दू जबान ने संभालने की पूरी को कोशिश की। हमारी मुश्तरका तबाही के खिलाफ अवाम को फिर से लामबंद करने में उर्दू का बहुत योगदान है। आज यह सियासत के घेर में है  लेकिन उम्मीद बनाए रखने की ज़रूरत है क्योंकि इतनी संपन्न भाषा को राजनीति का कोई भी कारिन्दा दफ़न नहीं का सकता ,चाहे जितना ताक़तवर हो जाए . उर्दू भारत की भाषा है और इसको विदेशी कहना अपनी जहालत का परिचय देना ही है 

प्रधानमंत्री को अपनों से ही मिल रही है चुनौती


शेष नारायण सिंह

·        प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उड़ीसा की एक सभा में दुःख प्रकट किया कि उनके विरोधी उनकी सरकार गिराना चाहते हैं और इस काम में विरोधियों को उन गैर सरकारी संगठनों से मदद मिल रही है जिनको विदेशों से आर्थिक सहायता मिलती है . प्रथम दृष्टया यही लगता है कि उनका इशारा साफ़ साफ़ कांग्रेस की तरफ था क्योंकि कांग्रेस ने ही उनके हाथों २०१४ में सत्ता गंवाई थी . जहां तक गैर सरकारी संगठनों का सवाल है उनकी सरकार तीस्ता सीतलवाड जैसे लोगों के कुछ संगठनों पर कार्रवाई कर रही है सो शक की सुई उनकी तरफ गयी.  गौर से देखने पर समझ में आता है कि कांग्रेस के पास लोकसभा में कुल ४५  सीटें हैं, स्पष्ट बहुमत के साथ बनी हुयी सरकार को गिरा पाना कांग्रेस के बूते की बात नहीं है . विपक्ष की पार्टियों में वैसा एका भी नहीं है कि कांग्रेस को कुछ मजबूती मिल सके. नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव के अलावा बाकी सभी नेताओं की पार्टियां कांग्रेस को नापसंद करती हैं . ऐसी हालत में  प्रधानमंत्री मोदी के उन विरोधियों की पड़ताल ने एक दिलचस्प मोड़ ले लिया कि वे कौन लोग हैं जो उनकी सरकार गिराना चाहते हैं . नई दिल्ली के सत्ता के गलियारों में दिन भर चकरघिन्नी काटने वाले पत्रकारों की नज़र कुछ ऐसे तथ्यों की तरफ मुड़ गयी जो आम तौर पर असंभव माने जायेगें . पिछले एक महीने के राजनीतिक घटनाक्रम की अगर व्याख्या की जाए तो तस्वीर बिलकुल दूसरी उभरती है .  ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री के वे विरोधी जो उनकी सरकार गिराना चाहते हैं वे सत्ता के बाहर नहीं , अन्दर ही कहीं विद्यमान हैं . ठीक उसी  तरह से जैसे १९७८ में मोरारजी देसाई की सरकार गिराई गयी थी या १९८९ में राजीव गांधी को तीन चौथाई बहुमत वाली सरकार  का नेता होने के बावजूद  बहुत ही मजबूर सरकार का मुखिया बनना  पडा था.

जिन कारणों से प्रधानमंत्री की राजनीतिक अथारिटी कमज़ोर पड़ रही है उसमें उनका उन वर्गों में अलोकप्रिय होना है जिन वर्गों ने  उनको पूरे जोरशोर से मदद किया था . लोकसभा चुनाव २०१४ में प्रधानमंत्री का सबसे बड़ा सहयोगी नौजवानों का वह तबका था जो  देश को प्रगति के रास्ते पर ले जाना चाहता था. उस वर्ग को प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नरेंद्र मोदी में वे संभावनाएं नज़र आई थीं .उन नौजवानों में एक बहुत बड़ा वर्ग छात्रों का था. पहली बार बीजेपी को जातपांत  के दायरे से ऊपर उठकर नौजवानों ने समर्थन दिया था . लेकिन आजकल छात्रों के बीच नरेंद्र मोदी के विरोध का माहौल बन गया  हैं . हालांकि उनके चाकर विश्लेषक यह बताने की कोशिश करेगें कि हैदराबाद और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में चल रहा विरोध बहुत ही छोटा है लेकिन उनको भी मालूम है  कि देश के हर विश्वविद्यालय में मौजूदा सरकार की वह साख नहीं है जो डेढ़ साल पहले हुआ करती थी . जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की घटना का नतीजा तो यह हुआ है कि दुनिया भर के नामी शिक्षा केन्द्रों में भी सरकार की निंदा हो रही है . हार्वर्ड  विश्वविद्यालय जैसे केन्द्रों में भी सरकार के अकादमिक संस्थाओं को दबोचने के  रुख के खिलाफ प्रस्ताव पास किये गए हैं . अमरीकी और यूरोपीय विश्वविद्यालय में नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ बने माहौल का नतीजा यह होगा कि अगली बार की अमरीका यात्रा के दौरान उनको वह स्वागत नहीं मिलेगा जो पिछली यात्राओं में मिलता रहा है .
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की घटना को इतना  बड़ा बनाने वालों पर नज़र डालें तो साफ़ समझ में  जाएगा इस घटना को इतनाबड़ा बनाने में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का योगदान है . आम तौर पर माना जाता है कि खिल भारतीय विद्यार्थी परिषद बीजेपी का छात्र संगठन है लेकिन ऐसा नहीं है . अगर यह कहा जाए की बीजेपी एबीवीपी का राजनीतिक संगठन है तो ज्यादा सही होगा क्योंकि बीजेपी की पूर्ववर्ती  पार्टी , भारतीय जनसंघ  की स्थापना १९५१ में हिन्दू महासभा के नेता डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने  की थी जबकि अखिल भारतीय विद्यार्थी की स्थापना मुंबई में ९ जुलाई १९४९ को चुकी थी और यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का संगठन था . आज एबीवीपी विश्व के सबसे बड़ा छात्र संगठन हैं।  अगर गौर से देखा जाए तो साफ़ समझ में आता है  कि हैदराबाद और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालयों की घटनाओं को बिगाड़ने में एबीवीपी की सबसे अहम् भूमिका है . ज़ाहिर है कि एबीवीपी को किसी विरोधी दल के नेता का आशीर्वाद नहीं मिला हुआ है . यह आर एस एस का एक बहुत ही मज़बूत संगठन है और देश के कई बहुत बड़े नेताओं ने एबीवीपी से ही अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की है . गृहमंत्री राजनाथ सिंह  और वित्त मंत्री अरुण जेटली एबीवीपी से ही आये हैं . दिल्ली विधान सभा के जिन सदस्य महोदय ने पटियाला हाउस कोर्ट में सारी हंगामा आयोजित किया वे भी एबीवीपी के  हैं . दिल्ली के विवादास्पद पुलिस कमिश्नर भीम सैन बस्सी  के बारे में पक्का पता तो  नहीं है लेकिन वे भी दिल्ली के श्रीराम कालेज आफ कामर्स के छात्र रहे हैं जहां एबीवीपी का भारी प्रभाव हुआ  करता था. यह लगभग तय है कि बंडारू दत्तात्रेय  , महेश  गिरी और स्मृति इरानी के कार्यों से हालात इस मुकाम पर न पंहुचते जहां पंहुचे हुए हैं और दिल्ली के विधायक ओ पी शर्मा अगर दिल्ली के पुलिस कमिश्नर बी एस बस्सी ने योगदान न किया होता. इनमें से कोई भी विपक्षी पार्टियों का नहीं है .
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उडीसा की सभा में कुछ  गैर सरकारी संगठनों को भी अपने खिलाफ हो रही साज़िश में ज़िम्मेदार बताया . प्रधानमंत्री को चाहिए कि इस बात की पूरी जांच करवाएं और देश को बाखबर करें . वैसे यह भी सच है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी एक गैर सरकारी सांस्कृतिक संगठन है और उनकी सरकार में मजुजूद बहुत सारी ताक़तवर लोगों के अपने निजी एन जी ओ हैं .

उनकी सरकार के इकबाल को कमज़ोर करने में पिछले कई  दिनों से जारी जाट आरक्षण के मामले में हरियाणा में चल रहे आन्दोलन का भी योगदान है . इस आन्दोलन का कोई नेता नहीं है . पता चला है कि  हरियाणा के कुछ  कांग्रेसी और बीजेपी के वे नेता जो मुख्यमंत्री पद के दावेदार थे , इस आन्दोलन को हवा दे रहे हैं .इस आन्दोलन का कोई  नेता भी नहीं है इसलिए इसने विकराल रूप धारण कर लिया है . दिल्ली में जब निर्भया बलात्कार काण्ड का जघन्य अपराध हुआ था तब भी सडकों पर उतर आये नौजवानों का कोई नेता नहीं  था जिसके कारण उस वक़्त की मनमोहन सरकार की छवि बहुत खराब हुयी थी . उसी तरह इस बात की पूरी संभावना है कि  आरक्षण का यह आन्दोलन स्वतःस्फूर्त हो लेकिन सरकार की छवि को निश्चित रूप से कमज़ोर कर रहा  है . प्रधानमंत्री के लिए चिंता की बात यह भी हो सकती है कि जाट समुदाय के लोग उनकी सरकार से नाराज़ हो रहे हैं . सबको मालूम है कि उत्तर प्रदेश ,हरियाणा और राजस्थान में जाट बिरादरी के लोगों ने लोकसभा २०१४ में बीजेपी को लगभग १०० प्रतिशत समर्थन दिया था . ज़ाहिर है कि उनको भी बीजेपी के अन्दर के लोग ही भड़का रहे हैं , बाहरी कोई नहीं है .
ऐसी स्थिति में प्रधानमंत्री को राजनीतिक प्रबंधन के काम में फ़ौरन जुट जाना चाहिए क्योंकि स्पष्ट बहुमत की सरकार बनवा कर देश ने उनसे बहुत उम्मीदें लगा रखी हैं . राजनीतिक अस्थिरता से देश के विकास को धक्का लगता है इसलिए उसे हर कीमत पर काबू में रखना चाहिए .