आर एस एस की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में उसके मुखिया मोहनराव भागवत ने कह दिया कि संघ के कैडर अपने हिसाब से इस बात का चुनाव कर सकते हैं कि उन्हें किस पार्टी को वोट देना है . उन्होंने साफ किया कि ज़रूरी नहीं के संघ के सदस्य केवल बी जे पी को ही वोट दें .इस कथित बयान के बाद बी जे पी में हड़कंप मच गया . सच्ची बात यह है कि आर एस एस के कार्यकर्ताओं के अलावा , बी जे पी के पास और कोई जनाधार नहीं है . विश्वविद्यालयों में जो भी छात्र एबीवीपी के नाम पर इकठ्ठा होते हैं , उनमें लगभग सभी आर एस एस के ही सदस्य होते हैं.
मजदूरों में पार्टी की कहीं कोई हैसियत नहीं है. दत्तोपंत ठेंगडी की मौत के बाद ट्रेड यूनियन की राजनीति में संघ की कोई ख़ास उपस्थिति नहीं है. नौजवानों में भी वही आर एस एस वाले सक्रिय हैं . गरज कि बी जे पी के समर्थकों में से अगर आर एस एस वालों को हटा लिया जाए तो वहां कुछ नहीं बचेगा . ज़ाहिर है इस तरह की बात शुरू होने के बाद बी जे पी में चिंता का माहौल बन गया . वैसे भी २००९ में पार्टी की चुनाव में हुई हार के बाद उसकी दुर्दशा की खबरें रोज़ ही अखबारों में छपती ही रहती हैं .. लेकिन आर एस एस के मुखिया के बयान के बाद बी जे पी के प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद ने पटना में मीडिया को बताया कि मोहनराव भागवत ने ऐसा कुछ नहीं कहा है कि संघ के कार्यकर्ता चाहे तो भाजपा को वोट करें या न करें.
राजगीर में चल रही आर एस एस की कार्यकारिणी में शामिल किसी सूत्र के हवाले से आईएएनएस एजंसी ने एक खबर जारी कर दी थी जिसमें कहा गया था कि मोहनराव भागवत ने कहा है कि वे यह स्वयंसेवकों को तय करना है कि वे भाजपा को वोट करें या न करें. यह खबर जब अखबारों में छपी तो बी जे पी में खलबली मच गयी. इसके बाद रविशंकर ने कहा कि संघ हमेशा ही यह कहता रहता है कि संघ के स्वयंसेवक जिसे चाहें वोट कर सकते हैं, लेकिन व्यावहारिक रूप में ऐसा होता नहीं है.. आर एस एस की विश्वसनीयता के बारे में रवि शंकर प्रसाद की इस बात को शायाद उनकी पार्टी के लोग ही गंभीरता से न लें लेकिन इस बात में दो राय नईं है कि आर एस एस के नए प्रमुख मोहन भागवत बी जे पी के मौजूदा नेतृत्व से खुश नहीं हैं . यह बात उन्होंने बार बार कह भी दिया है .कम से कम सिद्धांत रूप से आर एस एस मानता है कि वह हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के लिए किसी भी राजनीतिक दल की मदद कर सकता है.
बी जे पी को अपने पूर्व अवतार में जनसंघ कहा जाता था. उसकी स्थापना के बाद से ही स्वर्गीय दीन दयाल उपाध्याय के ज़रिये आर एस एस ने पार्टी पर पूरा कंट्रोल रखा. और जब जनता पार्टी बनी तो जनसंघ घटक के लोगों को हुक्म नागपुर से ही लेना पड़ता था. बी जे पी बनने के बाद तो इस बात पर कभी चर्चा भी नहीं हुई कि पार्टी में आर एस एस की भूमिका क्या है. सब जानते हैं कि बी जे पी पूरी तरह से आर एस एस का सहयोगी संगठन है . लेकिन आजकल आर एस एस में बी जे पी की उपयोगिता के बारे में बेचैनी है. आर एस एस के कुछ ख़ास लोग कद्दावर आर एस एस नेता , गोविन्दाचार्य के नेतृत्व में बी जे पी के विकल्प की तालाश कर रहे हैं . उसी प्रोजेक्ट के तहत महात्मा गाँधी और सरदार पटेल जैसे कांग्रेस के बड़े नेताओं को अपना बना लेने की कोशिश चल रही है है. गोविन्दाचार्य के दोस्त लोग राष्ट्र निर्माण जैसे लोक लुभावन नारों के ज़रिये जनता तक पंहुचने की कोशिश कर रहे हैं जिस से सही वक़्त पर संघ की नयी पार्टी की घोषणा कर दी जाए. बताया गया है कि गोविन्दाचार्य के व्यक्तित्व के आकर्षण की वजह से वर्तमान बी जे पी के भी कुछ बड़े नेता उनके संपर्क में हैं . इन लोगों ने महात्मा गाँधी के नाम पर चलने वाले कई संगठनों पर कब्जा भी कर लिया है . आज कल आर एस एस वालों का एक बड़ा तबका अपने आप को गांधीवादी भी कहता पाया जा रहा है . इस लिए मोहन राव भागवत की इस बात में दम लगता है कि आर एस एस जल्दी ही बी जे पी से पिंड छुडाने वाला है.
आर एस एस के लिए नयी राजनीतिक पार्टी की तलाश कोई नयी बात नहीं है. १९७५ में जब पूरी दुनिया संजय गाँधी की क्रूर तानाशाही प्रवृत्तियों से दहशत में थी, तो आर एस एस वाले उन्हें अपना बना लेने के चक्कर में थे. अकाल मृत्यु ने संजय गाँधी के जीवन में हस्तक्षेप कर दिया वरना हो सकता है कि बाद में जो उनकी पत्नी और बेटे ने किया वह काम संजय गाँधी के जीवन में ही हो गया होता.
आजकल भी आर एस एस के लोग पुराने कांग्रेसियों, महात्मा गाँधी और सरदार पटेल को अपना पूर्वज बताने की कोशिश तो कर ही रहे हैं , नए वालों पर भी उनकी नज़र है. आर एस एस के प्रमुख ने पिछले दिनों राहुल गाँधी की तारीफ़ की और पी चिदंबरम के काम पर बहुत ही संतोष ज़ाहिर किया. महाराष्ट्र विधानसभा के चुनावों के बीच में आर एस एस के कांग्रेस के नेताओं की तारीफ करना बीजेपी को ठीक बिलकुल नहीं लगा लेकिन बेचारे कर क्या सकते हैं. इस लिए आर एस एस के मुखिया के बयान के बाद बीजेपी में परेशानी शुरू होना स्वाभाविक है और इस बात को भी पूरा बल मिलता है कि आर एस एस ने नयी राजनीतिक पार्टी के विकल्प वाले प्रोजेक्ट पर गंभीरता से काम शुरू कर दिया है. इसके लिए खुद आरएसएस के अंदर ही कई धाराएं हैं जो नये राजनीतिक विकल्प का खाका तैयार करने में लगी हुई हैं. हालांकि आरएसएस 2007 में कह चुका है कि वह इसी भाजपा को ठीक करेगा लेकिन यह भाजपा ठीक होती दिखाई न दी तो नये विकल्पों को आजमाने से आरएसएस हिचकेगा भी नहीं
Tuesday, October 20, 2009
पाकिस्तान के बिना बी जे पी का क्या होगा
बी जे पी की राजनीति का एक और प्रमुख स्तम्भ ढहने वाला है...लगता है कि पाकिस्तान पर भी अब वोटों की खेती नहीं हो पायेगी. अयोध्या विवाद पर तो अब वोट की खेती नहीं हो सकती और बोफोर्स का मुद्दा भी अब दफ़न हो गया है . उसके सहारे बी जे पी जैसी भावनाओं पर राजनीति करने वाली पार्टियों को काफी खुराक मिलती थी. वह भी ख़त्म ही है .लोक सभा चुनावों के पहले से ही मुद्दों की तलाश जारी है . बी जे पी की राजनीति में पाकिस्तान का बहुत बड़ा महत्व है . पाकिस्तान के खिलाफ तलवारें भांज कर बी जे पी वाले अपने सीधे सादे कार्यकर्ताओं को अब तक चलाते रहे हैं . कभी पाकिस्तान का कच्छ में घुसना , कभी ताशकंद में गडबडी, कभी सीमा पर झंझट ,कभी कारगिल तो कभी सीमा पार से आने वाला आतंकवाद , यह सब बी जे पी की सियासत को जिंदा रखने में काम आते रहे हैं . लेकिन अब खबर आ रही है कि कांग्रेस पार्टी वाले पाकिस्तान को टालने की राजनीति शुरू कर चुके हैं . कांग्रेस के महासचिव राहुल गाँधी ने शिमला में बयान दे दिया है कि भारत की तुलना पाकिस्तान से नहीं की जानी चाहिए . उन्होंने कहा कि पाकिस्तान उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना हम समझते हैं . भारत और पाकिस्तान में बहुत फर्क है. हम अंतरराष्ट्रीय राजनीति में एक अहम् मुकाम रखते हैं जब कि पाकिस्तान एक ऐसा मुल्क है जो अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है . उन्होंने कहा कि यह अलग बात है कि पाकिस्तान कुछ न कुछ गड़बड़ करता रहता है और उसका इलाज़ वही लोग कर देंगें जिन्हें उसका ज़िम्मा दिया गया है . पाकिस्तान हमारी विश्वदृष्टि में एक बहुत ही मामूली जगह घेरता है राहुल गाँधी के इस बयान के बाद बी जे पी में चिंता की स्थिति दिख रही है . राहुल गाँधी का बयान किसी मामूली कांग्रेसी का बयान नहीं है . वैसे भी, राहुल गाँधी के व्यक्तित्व की एक खासियत उभर कर सामने आ रही है कि वे बहुत गंभीर बात भी साधारण तरीके से कह देते हैं . बाद में उस पर बहस होती है और उनकी बात ही पार्टी की नीति के रूप में स्वीकार कर ली जाती है . इस लिए हो सकता है कि पाकिस्तान संबन्धी उनका बयान भी कांग्रेस की मौजूदा सोच की प्रतिध्वनि हो. बहरहाल, भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद ने बयान दे दिया कि राहुल गाँधी को अभी बहुत कुछ सीखना है . आपने फरमाया कि अगर पाकिस्तान इतना कम महत्वपूर्ण है तो प्रधान मंत्री को शर्म अल शैख़ में क्यों शर्म उठानी पडी. बी जे पी की चिंता का कारण यह है कि पाकिस्तान के इस्लामी गणराज्य और उसके एजेंटों की मुखालिफत की बुनियाद पर राजनीति करने वाली बी जे पी को कहाँ ठिकाना मिलेगा. वैसे भी पार्टी के पास आम आदमी से जुड़ा कोई मुद्दा नहीं है . अगर पाकिस्तान भी निकल गया तो क्या होगा . दरअसल बी जे पी की राजनीतिक सोच में पाकिस्तान का केंद्रीय मुकाम है . कश्मीर, संविधान की धारा ३७०. आतंकवाद, मुसलमान , राष्ट्रीय सुरक्षा मुस्लिम तुष्टिकरण , सीमा पार से सांस्कृतिक हमले उर्फ़ सांस्कृतिक राष्ट्रवाद , बी जे पी की राजनीति के प्रमुख शब्दजाल हैं और अगर पाकिस्तान को कम महत्व देने की राहुल गाँधी की राजनीति ने जोर पकड़ लिया तो संघ की राजनीति को मीडिया में मिलने वाली जगह अपने आप कम हो जायेगी क्योंकि जब पाकिस्तान की ही कोई औकात नहीं रहेगी ,तो उसके विरोध की राजनीति को कौन पूछेगा. सवाल यह कि बी जे पी की राजनीति को जिंदा रखने के लिए पाकिस्तान के मह्त्व को कब तक जिंदा रखा जा सकता है . अमरीका और अन्य पश्चिमी देशों की शुरू से कोशिश रही है कि भारत और पाकिस्तान को एक ही तराजू में तौला जाए. अब तक वे सफल भी होते रहे हैं . लेकिन अब ऐसा करना अमरीका के लिए भी संभव नहीं है . पिछले ६० वर्षों में पाकिस्तान विकास के क्षेत्र में भारत से बहुत पीछे रह गया है और अब पाकिस्तान एक गरीब खस्ताहाल देश है . जो अपने अस्तित्व को बचाने के लिए संघर्ष कर रहा है . बलोचिस्तान और सूबा-ए- सरहद, पाकिस्तान से अलग होने की कोशिश कर रहे हैं .उसकी अर्थव्यवस्था तबाह हो चुकी है . फौज ने पिछले ५५ वर्षों में पाकिस्तान की जो दुर्दशा की है कि उसके लिए अपनी रोटी के लिए भी विदेशी मदद की ज़रुरत पड़ती है . ऐसी हालात में पाकिस्तान को कब तक बी जे पी की राजनीतिक सुविधा के लिए जिंदा रखा जा सकता है .जहां तक पाकिस्तान से भारत में आतंकवाद आने का खतरा है वह अब राजनीतिक या कूटनीतिक सवाल नहीं है . क्योंकि वहां की ज़रदारी-गीलानी की सिविलियन सरकार की इतनी हैसियत नहीं है कि वह पाकिस्तानी फौज को लगाम लगा सके. इसका मतलब यह हुआ कि पाकिस्तानी शरारतों को राजनीतिक तरीके से नहीं रोका जा सकता . उसे रोकने के लिए तो पाकिस्तानी फौज और आई एस आई को ही काबू करना पड़ेगा . आजकल यह काम अमरीकी फौज के अफगानिस्तान में तैनात जनरलों के जिम्मे है और वे उठते बैठते पाकिस्तानी सेना के आला अफसरों को धमका रहे हैं .सभी जानते हैं कि पाकिस्तान में सारी मुसीबतों की जड़ फौज ही है और अगर उनको दबा दिया गया तो पाकिस्तानी अवाम भी खुश हो जाएगा और भारत पर पाकिस्तान से आने वाली रोज़ रोज़ की परेशानियां अपने आप ख़त्म हो जायेगी . ज़ाहिर है कि यह भारत के लिए एक अच्छी स्थिति होगी.हाँ बी जे पी वालों को चाहिए कि वे राजनीति करने के लिए नए मुद्दे ढूंढ लें क्योंकि पाकिस्तान दीन, हीन खस्ताहाल और गरीब मुल्क है उसकी दुश्मनी की बुनियाद पर बहुत दिन तक राजनीति नहीं चलने वाली है .
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प्राकृतिक सम्पदा पर अधिकार का सवाल और अर्थशास्त्र का नोबेल
इस साल का अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार अमरीका की अर्थ शास्त्री ,एलिनोर ओस्ट्रॉम को उन्हीं के देश के ओलिवर विलियम्सन के साथ साझा रूप में दिया गया है .अर्थ शास्त्र का नोबेल पहली बार एक महिला को दिया गया है .दोनों अर्थशास्त्रियों को आर्थिक प्रशासन के क्षेत्र में किए गए योगदान के लिए ये सम्मान दिया जा रहा है. आर्थिक प्रशासन ऐसे नियम-क़ानूनों का क्षेत्र होता है जिनसे व्यक्ति कंपनियों या किसी आर्थिक व्यवस्था को संचालित करते हैं.एलिनोर ओस्ट्रॉम इंडियाना यूनीवर्सिटी और ओलिवर विलियम्सन बर्कले विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर हैं.\इस साल के नोबेल पुरस्कार विजेताओं में अमरीकी नागरिकों की संख्या बहुत ज्यादा है .इस वर्ष कुल 13 लोगों को नोबेल पुरस्कार दिए जाने की घोषणा की गई है जिनमें 11 अमरीकी नागरिक हैं. इस साल नोबेल पुरस्कार विजेताओं में महिलाओं की संख्या भी खासी है नोबेल पुरस्कार की समिति के अब तक के इतिहास पर नज़र डालें तो यह एक स्वागत योग्य आश्चर्य ही माना जाएगा. इस साल साहित्य का नोबेल जर्मन-रोमानियन लेखिका हरता म्युल्लर को दिया गया है , अमरीकी नागरिक एलिजाबेथ ब्लैकबर्न और कैरोल ग्रीडर को मेडीसिन का जब कि इस्राइली महिला वैज्ञानिक को रसायन शास्त्र का नोबेल दिया गया. एक साल की नोबेल पुरस्कारों की लिस्ट में इतनी महिलायें एक साथ कभी नहीं रही हैं .
नोबेल पुरस्कारों की स्थापना डायनामाइट के आविष्कारक, स्वीडन के वैज्ञानिक अल्फ़्रेड नोबेल के नाम पर हुई थी.1901 से दिए जा रहे नोबेल पुरस्कार पहले तो पाँच वर्गों में दिए जाते थे मगर 1968 से अर्थशास्त्र के क्षेत्र में भी नोबेल पुरस्कार दिए जाने लगे. इस साल के अर्थशास्त्र के पुरस्कार की घोषणा करते हुए नोबेल समिति ने प्रोफ़ेसर ओस्ट्रॉम की बहुत तारीफ़ की और कहा कि उन्होंने ये दिखाया कि वनों, और जलस्रोतों जैसी प्राकृतिक और सार्वजनिक संपदाओं की व्यवस्था सरकारों और निजी कंपनियों से बेहतर इनका इस्तेमाल करनेवाले लोग करते हैं.76 वर्षीया एलिनोर ओस्ट्रॉम ने कहा कि पुरस्कार मिलने की खबर सुनकर उन्हें बहुत खुशी हुई है .उन्होंने कहा,"जब उन्होंने मुझे फ़ोन कर बताया तो मैं बिल्कुल चौंक गई. ऐसे बहुत सारे लोग हैं जिन्होंने बहुत-बहुत संघर्ष किया है और उनके बीच से पुरस्कार के लिए चुना जाना बहुत बड़े सम्मान की बात है."
हालांकि पश्चिमी देशों में महिलाओं का सम्मान किया जाता है लेकिन अभी पुरुष प्रधान समाज में उनकी स्थिति उतनी मज़बूत नहीं है जितनी कि पुरुषों की है .इसके लिए पूरी दुनिया की तरह ऐतिहासिक कारण ही जिम्मेदार हैं लेकिन जागरूकता की कमी भी महिलाओं की शक्ति को सीमित करने के लिए काफी हद तक जिम्मेवार हैं . प्रोफ़ेसर एलिनोर ओस्ट्रॉम को पुरस्कार देने से महिला सशक्तिकरण की कोशिशों को ताक़त मिलेगी . इसके दो कारण हैं . एक तो किसी महिला को अर्थशास्त्र का सबसे बड़ा सम्मान मिलने के अपने ही प्रेरक रहेंगें और दूसरी तरफ उनको जिस विषय के लिए पुरस्कार दिया गया है वह कम क्रांतिकारी नहीं है .प्रोफ़ेसर एलिनोर ओस्ट्रॉम ने बताया है कि जंगलों और पानी के ठिकानों का इन्तेजाम वही लोग सबसे अच्छा करते हैं जो वास्तव में उसका इस्तेमाल करते हैं . . यानी सरकार या वन सम्पदा का लाभ लेने वाली कंपनियाँ जंगलों का सही देखभाल नहीं कर सकतीं . इस विचार को अगर आगे बढाया जाए और भारत की सरकार इसे ईमानदारी से लागू कर दे तो भारत की बहुत सारी समस्यायें अपने आप ख़त्म हो जाएँगीं. देश के आदिवासी इलाकों में चल रहे माओवादी हमलों के बहुत सारे कारण हैं लेकिन एक यह भी है कि उन इलाकों में रहने वाले आदिवासियों से वन सम्पदा संबन्धी उनके अधिकारों को सरकारों ने छीन लिया है और राजधानियों में बैठकर बनाए गए कानूनों के ज़रिये जंगलों के मूल निवासियों को केवल मजदूर की औकात पर ला कर रख दिया है . आजकल तो खनिज सम्पदा के चक्कर में बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ भी आदिवासी इलाकों पर काबू करने की जुगाड़ भिड़ा रही हैं . नतीजा यह हो रहा है कि वहां रहने वाले लोग राजनीतिक नेताओं और व्यापारी वर्ग को अपना दुश्मन नंबर एक मानने लगे हैं . ऐसे माहौल में कुछ दिग्भ्रमित वामपंथियों ने उन्हें माओ के नाम पर लामबंद किया और गलत राजनीतिक उद्देश्यों के लिए उन्हें हथियार पकडा दिए. यह समझ लेना ज़रूरी है कि संशोधनवादी विचारधारा का शिकार कम्युनिस्ट भी पूंजीपति वर्ग के हित में ही काम करता है . देश के आदिवासी इलाकों में चल रहे खूनी संघर्ष के बाद उसके नेतागण तो सरकार से सुलह कर लेंगें लेकिन आदिवासी समाज का जो नुक्सान हो जाएगा उसकी भरपाई असंभव होगी. अगर प्रोफ़ेसर एलिनोर ओस्ट्रॉम की वन सम्पदा के प्रबंधन के अर्थशास्त्रीय सिद्धांत को भारत के आदिवासी इलाकों में लागू कर दिया जाए तो देश और समाज का बहुत ही भला होगा.
आज ही खबर आई है कि पश्चिम बंगाल, बिहार और झारखण्ड के इलाकों में माओवादियों ने हिंसा का तांडव शुरू करवा दिया है . इन माओवादियों की तरफ से हथियार उठाने वाले और कोई नहीं , भारत के जंगली इलाकों में रहने वाले गरीब लोग हैं अगर नोबेल पुरस्कार की इस साल की विजेता एलिनोर ओस्ट्रॉम के वन सम्पदा के प्रबंधन के सिद्धांत को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह लागू करना शुरू कर दें तो समस्या की जड़ तक पंहुचना आसान हो जाएगा. इसका असर सामाजिक व्यवस्था पर भी पड़ेगा . आदिवासी इलाकों में परंपरागत रूप से स्त्री पुरुष में बहुत ज्यादा भेद नहीं होता. इसलिए अगर आदिवासी समाज को उसकी पुश्तैनी संपत्ति के प्रबंधन का अधिकार दिया गया तो जाहिरा तौर पर औरतों को भी अधिकार मिलेगा और जिस समाज में महिलाओं के पास आर्थिक अधिकार होते हैं वह समाज कभी भी पिछड़ नहीं सकता . इस लिहाज़ से कहा जा सकता है कि एलिनोर ओस्ट्रॉम को नोबेल ऐसे वक़्त पर दिया आ है जब कि उनके सिद्धांत को सामाजिक आर्थिक परिवर्तन के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है .
इस बीच झारखण्ड सरकार ने बताया है कि राज्य में रहने वाले आदिवासियों पर लगाए गए १ लाख मुक़दमे वापस ले लिए गए हैं . यह संख्या हैरानी में डालने वाली है . एक छोटे से राज्य में १ लाख ऐसे मुक़दमे थे जिन्हें कि वापस लेने लायक माना गया . इसका सीधा मतलब यह है कि आदिवासियों के खिलाफ राज्य सरकार की ताकत का इस्तेमाल उन्हें परेशान करने के लिए किया जा रहा था . मुक़दमे वापस ले कर तो बीमारी के लक्षणों का इलाज़ ही संभव होगा . ज़रुरत इस बात की है कि बीमारी को जड़ से मिटा दिया जाए. और उसके लिए भूमिपुत्रों को उनके अधिकार देना पड़ेगा जिसके लिए दार्शनिक पृष्ठभूमि नोबेल पुरस्कार विजेता प्रोफ़ेसर एलिनोर ओस्ट्रॉम के अर्थ शास्त्र के सिद्धांतों से ली जा सकती है.
नोबेल पुरस्कारों की स्थापना डायनामाइट के आविष्कारक, स्वीडन के वैज्ञानिक अल्फ़्रेड नोबेल के नाम पर हुई थी.1901 से दिए जा रहे नोबेल पुरस्कार पहले तो पाँच वर्गों में दिए जाते थे मगर 1968 से अर्थशास्त्र के क्षेत्र में भी नोबेल पुरस्कार दिए जाने लगे. इस साल के अर्थशास्त्र के पुरस्कार की घोषणा करते हुए नोबेल समिति ने प्रोफ़ेसर ओस्ट्रॉम की बहुत तारीफ़ की और कहा कि उन्होंने ये दिखाया कि वनों, और जलस्रोतों जैसी प्राकृतिक और सार्वजनिक संपदाओं की व्यवस्था सरकारों और निजी कंपनियों से बेहतर इनका इस्तेमाल करनेवाले लोग करते हैं.76 वर्षीया एलिनोर ओस्ट्रॉम ने कहा कि पुरस्कार मिलने की खबर सुनकर उन्हें बहुत खुशी हुई है .उन्होंने कहा,"जब उन्होंने मुझे फ़ोन कर बताया तो मैं बिल्कुल चौंक गई. ऐसे बहुत सारे लोग हैं जिन्होंने बहुत-बहुत संघर्ष किया है और उनके बीच से पुरस्कार के लिए चुना जाना बहुत बड़े सम्मान की बात है."
हालांकि पश्चिमी देशों में महिलाओं का सम्मान किया जाता है लेकिन अभी पुरुष प्रधान समाज में उनकी स्थिति उतनी मज़बूत नहीं है जितनी कि पुरुषों की है .इसके लिए पूरी दुनिया की तरह ऐतिहासिक कारण ही जिम्मेदार हैं लेकिन जागरूकता की कमी भी महिलाओं की शक्ति को सीमित करने के लिए काफी हद तक जिम्मेवार हैं . प्रोफ़ेसर एलिनोर ओस्ट्रॉम को पुरस्कार देने से महिला सशक्तिकरण की कोशिशों को ताक़त मिलेगी . इसके दो कारण हैं . एक तो किसी महिला को अर्थशास्त्र का सबसे बड़ा सम्मान मिलने के अपने ही प्रेरक रहेंगें और दूसरी तरफ उनको जिस विषय के लिए पुरस्कार दिया गया है वह कम क्रांतिकारी नहीं है .प्रोफ़ेसर एलिनोर ओस्ट्रॉम ने बताया है कि जंगलों और पानी के ठिकानों का इन्तेजाम वही लोग सबसे अच्छा करते हैं जो वास्तव में उसका इस्तेमाल करते हैं . . यानी सरकार या वन सम्पदा का लाभ लेने वाली कंपनियाँ जंगलों का सही देखभाल नहीं कर सकतीं . इस विचार को अगर आगे बढाया जाए और भारत की सरकार इसे ईमानदारी से लागू कर दे तो भारत की बहुत सारी समस्यायें अपने आप ख़त्म हो जाएँगीं. देश के आदिवासी इलाकों में चल रहे माओवादी हमलों के बहुत सारे कारण हैं लेकिन एक यह भी है कि उन इलाकों में रहने वाले आदिवासियों से वन सम्पदा संबन्धी उनके अधिकारों को सरकारों ने छीन लिया है और राजधानियों में बैठकर बनाए गए कानूनों के ज़रिये जंगलों के मूल निवासियों को केवल मजदूर की औकात पर ला कर रख दिया है . आजकल तो खनिज सम्पदा के चक्कर में बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ भी आदिवासी इलाकों पर काबू करने की जुगाड़ भिड़ा रही हैं . नतीजा यह हो रहा है कि वहां रहने वाले लोग राजनीतिक नेताओं और व्यापारी वर्ग को अपना दुश्मन नंबर एक मानने लगे हैं . ऐसे माहौल में कुछ दिग्भ्रमित वामपंथियों ने उन्हें माओ के नाम पर लामबंद किया और गलत राजनीतिक उद्देश्यों के लिए उन्हें हथियार पकडा दिए. यह समझ लेना ज़रूरी है कि संशोधनवादी विचारधारा का शिकार कम्युनिस्ट भी पूंजीपति वर्ग के हित में ही काम करता है . देश के आदिवासी इलाकों में चल रहे खूनी संघर्ष के बाद उसके नेतागण तो सरकार से सुलह कर लेंगें लेकिन आदिवासी समाज का जो नुक्सान हो जाएगा उसकी भरपाई असंभव होगी. अगर प्रोफ़ेसर एलिनोर ओस्ट्रॉम की वन सम्पदा के प्रबंधन के अर्थशास्त्रीय सिद्धांत को भारत के आदिवासी इलाकों में लागू कर दिया जाए तो देश और समाज का बहुत ही भला होगा.
आज ही खबर आई है कि पश्चिम बंगाल, बिहार और झारखण्ड के इलाकों में माओवादियों ने हिंसा का तांडव शुरू करवा दिया है . इन माओवादियों की तरफ से हथियार उठाने वाले और कोई नहीं , भारत के जंगली इलाकों में रहने वाले गरीब लोग हैं अगर नोबेल पुरस्कार की इस साल की विजेता एलिनोर ओस्ट्रॉम के वन सम्पदा के प्रबंधन के सिद्धांत को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह लागू करना शुरू कर दें तो समस्या की जड़ तक पंहुचना आसान हो जाएगा. इसका असर सामाजिक व्यवस्था पर भी पड़ेगा . आदिवासी इलाकों में परंपरागत रूप से स्त्री पुरुष में बहुत ज्यादा भेद नहीं होता. इसलिए अगर आदिवासी समाज को उसकी पुश्तैनी संपत्ति के प्रबंधन का अधिकार दिया गया तो जाहिरा तौर पर औरतों को भी अधिकार मिलेगा और जिस समाज में महिलाओं के पास आर्थिक अधिकार होते हैं वह समाज कभी भी पिछड़ नहीं सकता . इस लिहाज़ से कहा जा सकता है कि एलिनोर ओस्ट्रॉम को नोबेल ऐसे वक़्त पर दिया आ है जब कि उनके सिद्धांत को सामाजिक आर्थिक परिवर्तन के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है .
इस बीच झारखण्ड सरकार ने बताया है कि राज्य में रहने वाले आदिवासियों पर लगाए गए १ लाख मुक़दमे वापस ले लिए गए हैं . यह संख्या हैरानी में डालने वाली है . एक छोटे से राज्य में १ लाख ऐसे मुक़दमे थे जिन्हें कि वापस लेने लायक माना गया . इसका सीधा मतलब यह है कि आदिवासियों के खिलाफ राज्य सरकार की ताकत का इस्तेमाल उन्हें परेशान करने के लिए किया जा रहा था . मुक़दमे वापस ले कर तो बीमारी के लक्षणों का इलाज़ ही संभव होगा . ज़रुरत इस बात की है कि बीमारी को जड़ से मिटा दिया जाए. और उसके लिए भूमिपुत्रों को उनके अधिकार देना पड़ेगा जिसके लिए दार्शनिक पृष्ठभूमि नोबेल पुरस्कार विजेता प्रोफ़ेसर एलिनोर ओस्ट्रॉम के अर्थ शास्त्र के सिद्धांतों से ली जा सकती है.
पाकिस्तान पर अमेरिका का शिकंजा
अमेरिका में पिछले महीने एक ऐसा कानून पास हुआ है जिसके अनुसार पाकिस्तान को हर साल 150 करोड़ डालर की आर्थिक मदद मिला करेगी। सीनेट के सदस्यों-केरी और लूगर के नाम से जुड़ा यह बिल पाकिस्तान की खस्ताहाल अर्थव्यवस्था के लिए बड़ी राहत का काम करेगा, लेकिन अजीब बात है कि पाकिस्तानी फौज ने इस सहायता पैकेज का विरोध करने का फैसला किया है। उसे आर्थिक सहायता से जुड़ी कुछ शर्तो पर ऐतराज है।
अब तक जो भी अमेरिकी सहायता पाकिस्तान को मिलती थी उससे फौज के आला अफसर मजे करते थे। उनकी कोई जवाबदेही नहीं होती थी। इस रकम का इस्तेमाल भारत के खिलाफ हथियार जुटाने और आतंकवाद फैलाने के लिए भी किया जाता था। इस बार अमेरिका की कोशिश है कि पाकिस्तान में सत्तारूढ़ लोकतांत्रिक सरकार को मजबूत किया जाए। आपरेशन एक्ट (पीस एक्ट) नाम के इस कानून में वास्तव में कुछ शर्तें ऐसी हैं जिन्हें किसी भी स्वतंत्र और संप्रभु देश के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप माना जा सकता है। एक्ट में व्यवस्था है कि अमेरिकी विदेश मंत्री हर छह महीने बाद एक सर्टिफिकेट जारी करेंगी कि पाकिस्तान ने बीते छह महीने सही तरह काम लिया है, लिहाजा अगली किस्त जारी की जा सकती है। सही तरह काम करने वाले देश के रूप में अमेरिकी विदेश मंत्री की सनद हासिल करने के लिए पाकिस्तान को परमाणु प्रसार और अनधिकृत कारोबार के बारे में जानकारी अमेरिका को देनी पड़ेगी। पाकिस्तानी परमाणु वैज्ञानिक एक्यू खान का नाम लिए बिना उनकी हर गतिविधि पर अमेरिकी नियंत्रण की बात की गई है।
पड़ोसी देशों के खिलाफ आतंकवादी गतिविधियां करने वालों पर पूरी तरह से रोक लगाने की बात भी की गई है। अल-कायदा, तालिबान, लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मुहम्मद का साफ उल्लेख करके यह बता दिया गया है कि अगर भारत के खिलाफ आतंक फैलाया गया तो दाना-पानी बंद कर दिया जाएगा। दुनिया जानती है कि लाहौर के पास स्थित मुरीदके शहर में लश्कर-ए-तैयबा के संस्थापक हाफिज मुहम्मद सईद और जमात-उद्-दावा का मुख्यालय है। इस शहर को अमेरिकी पीस एक्ट में आतंकवाद के प्रमुख केंद्र के रूप में दिखाया गया है। जाहिर है कि अगर पाकिस्तान सरकार हाफिज मुहम्मद सईद को काबू में नहीं रखती तो अमेरिकी खैरात पर रोक लग सकती है। पाकिस्तानी फौज को जो बात सबसे नागवार गुजरी है वह यह कि अमेरिका पाकिस्तान की सरकार और वहां की फौज पर नियंत्रण रखे। सरकार को आगे से सेना के बजट, कमांड की प्रक्रिया, जनरलों का प्रमोशन, रणनीतिक नीति निर्धारण और नागरिक प्रशासन में सेना की भूमिका पर नजर रखनी पड़ेगी और अमेरिका को इसके बारे में जानकारी देनी पड़ेगी। सबसे मुश्किल बात यह है कि पाकिस्तानी सरकार के लिखकर देने मात्र से बात नहीं बनेगी। अमेरिकी विदेश मंत्री की ओर से अच्छे काम की सनद तब मिलेगी जब मौके पर तैनात अमेरिकी अधिकारी इस बात की पुष्टि कर देंगे। सही बात यह है कि अगर अमेरिका इस बात पर अड़ा रहता है तो यह माना जाएगा कि उसने पाकिस्तान की सरकार पर एक प्रकार से कब्जा कर लिया है, लेकिन अमेरिकी प्रशासन की परेशानी यह है कि पिछले तीस साल में पाकिस्तानी शासकों ने अमेरिकी मदद का दुरुपयोग ही किया है।
पिछले दिनों रावलपिंडी में सेना प्रमुख जनरल अशफाक परवेज कियानी ने पाकिस्तानी सेना के शीर्ष कमांडरों की बैठक की अध्यक्षता की। इस बैठक के बाद एक बयान जारी किया गया, जिसमें पीस एक्ट के प्रावधानों पर गहरी चिंता व्यक्त करते हुए कहा गया कि इन प्रावधानों के लागू होने पर पाकिस्तान की राष्ट्रीय सुरक्षा पर उलटा असर पड़ेगा। कमांडरों ने लगभग आदेश देने की भाषा में जरदारी सरकार को कहा कि राष्ट्रीय असेंबली (संसद) की बैठक बुलाएं और इस कानून के खिलाफ राष्ट्रीय प्रतिक्रिया व्यक्त करें। पाकिस्तान मुस्लिम लीग (एन) ने भी अमेरिकी मदद के साथ जुड़ी हुई शर्तो का विरोध किया है, जबकि जरदारी सरकार इस कानून से खुश है। पाकिस्तानी राष्ट्रपति के प्रवक्ता फरहत उल्ला बाबर ने कहा कि जो लोग अमेरिकी सहायता का विरोध कर रहे हैं वे वैकल्पिक रास्ता सुझाएं। दक्षिण एशिया और मध्य पूर्व विदेशी मामलों की उपसमिति के उपाध्यक्ष सीनेटर गैरी एकरमैन ने पाक अधिकारियों को हड़काया है कि अमेरिकी मदद किसी मकसद को हासिल करने के लिए दी जा रही है। यह कोई खैरात नहीं है। उन्होंने यह भी कहा कि अगर पाकिस्तान शर्तो का उल्लंघन करता है तो मदद को रद भी किया जा सकता ह
अब तक जो भी अमेरिकी सहायता पाकिस्तान को मिलती थी उससे फौज के आला अफसर मजे करते थे। उनकी कोई जवाबदेही नहीं होती थी। इस रकम का इस्तेमाल भारत के खिलाफ हथियार जुटाने और आतंकवाद फैलाने के लिए भी किया जाता था। इस बार अमेरिका की कोशिश है कि पाकिस्तान में सत्तारूढ़ लोकतांत्रिक सरकार को मजबूत किया जाए। आपरेशन एक्ट (पीस एक्ट) नाम के इस कानून में वास्तव में कुछ शर्तें ऐसी हैं जिन्हें किसी भी स्वतंत्र और संप्रभु देश के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप माना जा सकता है। एक्ट में व्यवस्था है कि अमेरिकी विदेश मंत्री हर छह महीने बाद एक सर्टिफिकेट जारी करेंगी कि पाकिस्तान ने बीते छह महीने सही तरह काम लिया है, लिहाजा अगली किस्त जारी की जा सकती है। सही तरह काम करने वाले देश के रूप में अमेरिकी विदेश मंत्री की सनद हासिल करने के लिए पाकिस्तान को परमाणु प्रसार और अनधिकृत कारोबार के बारे में जानकारी अमेरिका को देनी पड़ेगी। पाकिस्तानी परमाणु वैज्ञानिक एक्यू खान का नाम लिए बिना उनकी हर गतिविधि पर अमेरिकी नियंत्रण की बात की गई है।
पड़ोसी देशों के खिलाफ आतंकवादी गतिविधियां करने वालों पर पूरी तरह से रोक लगाने की बात भी की गई है। अल-कायदा, तालिबान, लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मुहम्मद का साफ उल्लेख करके यह बता दिया गया है कि अगर भारत के खिलाफ आतंक फैलाया गया तो दाना-पानी बंद कर दिया जाएगा। दुनिया जानती है कि लाहौर के पास स्थित मुरीदके शहर में लश्कर-ए-तैयबा के संस्थापक हाफिज मुहम्मद सईद और जमात-उद्-दावा का मुख्यालय है। इस शहर को अमेरिकी पीस एक्ट में आतंकवाद के प्रमुख केंद्र के रूप में दिखाया गया है। जाहिर है कि अगर पाकिस्तान सरकार हाफिज मुहम्मद सईद को काबू में नहीं रखती तो अमेरिकी खैरात पर रोक लग सकती है। पाकिस्तानी फौज को जो बात सबसे नागवार गुजरी है वह यह कि अमेरिका पाकिस्तान की सरकार और वहां की फौज पर नियंत्रण रखे। सरकार को आगे से सेना के बजट, कमांड की प्रक्रिया, जनरलों का प्रमोशन, रणनीतिक नीति निर्धारण और नागरिक प्रशासन में सेना की भूमिका पर नजर रखनी पड़ेगी और अमेरिका को इसके बारे में जानकारी देनी पड़ेगी। सबसे मुश्किल बात यह है कि पाकिस्तानी सरकार के लिखकर देने मात्र से बात नहीं बनेगी। अमेरिकी विदेश मंत्री की ओर से अच्छे काम की सनद तब मिलेगी जब मौके पर तैनात अमेरिकी अधिकारी इस बात की पुष्टि कर देंगे। सही बात यह है कि अगर अमेरिका इस बात पर अड़ा रहता है तो यह माना जाएगा कि उसने पाकिस्तान की सरकार पर एक प्रकार से कब्जा कर लिया है, लेकिन अमेरिकी प्रशासन की परेशानी यह है कि पिछले तीस साल में पाकिस्तानी शासकों ने अमेरिकी मदद का दुरुपयोग ही किया है।
पिछले दिनों रावलपिंडी में सेना प्रमुख जनरल अशफाक परवेज कियानी ने पाकिस्तानी सेना के शीर्ष कमांडरों की बैठक की अध्यक्षता की। इस बैठक के बाद एक बयान जारी किया गया, जिसमें पीस एक्ट के प्रावधानों पर गहरी चिंता व्यक्त करते हुए कहा गया कि इन प्रावधानों के लागू होने पर पाकिस्तान की राष्ट्रीय सुरक्षा पर उलटा असर पड़ेगा। कमांडरों ने लगभग आदेश देने की भाषा में जरदारी सरकार को कहा कि राष्ट्रीय असेंबली (संसद) की बैठक बुलाएं और इस कानून के खिलाफ राष्ट्रीय प्रतिक्रिया व्यक्त करें। पाकिस्तान मुस्लिम लीग (एन) ने भी अमेरिकी मदद के साथ जुड़ी हुई शर्तो का विरोध किया है, जबकि जरदारी सरकार इस कानून से खुश है। पाकिस्तानी राष्ट्रपति के प्रवक्ता फरहत उल्ला बाबर ने कहा कि जो लोग अमेरिकी सहायता का विरोध कर रहे हैं वे वैकल्पिक रास्ता सुझाएं। दक्षिण एशिया और मध्य पूर्व विदेशी मामलों की उपसमिति के उपाध्यक्ष सीनेटर गैरी एकरमैन ने पाक अधिकारियों को हड़काया है कि अमेरिकी मदद किसी मकसद को हासिल करने के लिए दी जा रही है। यह कोई खैरात नहीं है। उन्होंने यह भी कहा कि अगर पाकिस्तान शर्तो का उल्लंघन करता है तो मदद को रद भी किया जा सकता ह
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