Tuesday, November 15, 2011

गरीब सवर्णों को ओ बी सी के बराबर मानने की सिफारिश

शेष नारायण सिंह

सवर्ण जातियों के जो लोग इनकम टैक्स नहीं देते उन्हें ओ बी सी जातियों के बराबर माना जाना चाहिए और उन्हें भी वही सुविधा मिलनी चाहिए जो पिछड़ी जाति के लोगों के लिए उपलब्ध है . आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए बनाए गए कमीशन ने अपने सुझाव में कहा है कि इन वर्गों को शिक्षा, आवास,स्वास्थ्य और सामाजिक क्षेत्रोंमें वही सुविधाएं मिलनी चाहिए जो ओ बी सी को मिलती है .हालांकि इस कमीशन की सिफारिशों में नौकारियों में आरक्षण की बात नहीं कही गयी है लेकिन इसे सवर्ण आरक्षण के लिए कोशिश कर रही राजनीतिक पार्टियों के हाथ में एक महत्वपूर्ण हथियार के तौर पर देखा जा रहा है.

करीब चार साल पहले केंद्र सरकार ने आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों की पहचान के लिए मानदंड तय करने के लिये एक आयोग का गठन किया था.इसे यह भी पता करना था कि इन वर्गों का कल्याण कैसे किया जाए . एजेंडा में यह भी था कि क्या इन वर्गों के लिए नौकरियों में आरक्षण करना चाहिए कि नहीं . इस आयोग की रिपोर्ट तैयार हो गयी है . इसमें लिखा है कि करीब ६ करोड़ सवर्ण ऐसे हैं जिनको ओ बी सी के बराबर माना जाना चाहिए . कहा गया है कि आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों में सभी धर्मों के लोग शामिल किये जाने चाहिए .सरकारी नौकरियों में आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों को शामिल किये जाने की वकालत बहुत सारी पार्टियां करती रही हैं . उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री तो हर मंच पर यह बात कहती रही हैं. इस रिपोर्ट के बाद उनका काम आसान हो जाएगा. कांग्रेस और बीजेपी वाले ओ बी सी में अति पिछड़े वर्ग के नाम पर आरक्षण की मांग पहले से ही कर रहे हैं. उनकी कोशिश है कि पिछड़ों के लिए उपलब्ध २७ प्रतिशत के आरक्षण में से मुलायम सिंह यादव की पार्टी के मुख्य समर्थक, यादवों को केवल ५ प्रतिशत ही आरक्षण दिया जाए . आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्णों के आरक्षण के लिए भी राजनीतिक ज़मीन तैयार हो जाने के बाद बीजेपी वाले समाजवादी पार्टी को कमज़ोर करने की अपनी कोशिश तेज़ कर देगें . अभी कुछ दिन पहले ही केंद्र सरकार के योजना आयोग ने पिछड़े और अति पिछड़े वर्गों के नाम पर कोटा के अंदर कोटा की बहस शुरू की थी . अब आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्णों की बात को भी नौकरियों के रिज़र्वेशन की बहस में झोंक कर उत्तर प्रदेश की सबसे मज़बूत विपक्षी पार्टी पर ज़बरदस्त राजनीतिक हमला हो सकता है .

आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के कमीशन की रपोर्ट में यह तो लिखा है कि इन वर्गों के सवर्णों को सामाजिक रूप से तो वह अपमान नहीं झेलना पड़ता जो दलित जातियों के लोगों को झेलना पड़ता है. इस कमीशन ने देश के २८ राज्यों का दौरा करके अपनी रिपोर्ट तैयार की है और कहा है कि एक करोड़ परिवार इस श्रेणी में आते हैं . अगर प्रति परिवार छः लोगों की संख्या मान ली जाए तो यह आबादी छः करोड़ के आस पास पंहुच जाती है .अगर सरकार इन सिफारिशों को स्वीकार कर लेती है तो देश के राजनीतिक माहौल में कुछ उसी तरह का परिवर्तन आ जाएगा जैसा मंडल कमीशन के सुझावों को मान लेने के बाद १९९० में आ गया था .

क्या नेहरू के नाम पर यू पी में कांग्रेस की डूबती नैया पार होगी

शेष नारायण सिंह

कांग्रेस के सरताज राहुल गांधी जवाहरलाल नेहरू के चुनाव क्षेत्र ,फूलपुर से उत्तरप्रदेश विधान सभा के २०१२ के चुनाव अभियान की शुरुआत कर चुके हैं . अपने पिताजी के नाना से अपने नाम को जोड़ने के चक्कर में राहुल गांधी, जवाहरलाल नेहरू की विरासत को केवल अपने परिवार तक सीमित करने की कोशिश कर रहे हैं . यह सच नहीं है. जवाहरलाल नेहरू को इंदिरा गाँधी के पिता के रूप में ही प्रस्तुत करना देश की आज़ादी की लड़ाई के संघर्ष के साथ मजाक है . यह भी वैसी ही कोशिश है जिसके तहत एक राजनीतिक पार्टी के लोग हर गलती के लिए जवाहरलाल नेहरू को ज़िम्मेदार ठहराते पाए जाए हैं . आजकल तो इस प्रजाति के लोग अखबारों में भी खासी संख्या में पंहुच गए हैं और वे कहते रहते हैं कि कश्मीर समस्या सहित देश की सभी बड़ी समस्याएं नेहरू की देन हैं . समकालीन इतिहास की इससे बड़ी अज्ञानतापूर्ण समझ हो ही नहीं सकती. सच्ची बात यह है कि अगर महात्मा गाँधी ,जवाहरलाल नेहरू , सरदार पटेल और शेख अब्दुल्ला ने राजनीतिक बुलंदी न दिखाई होती तो राजा हरि सिंह और मुहम्मद अली जिन्ना ने तो जम्मू-कश्मीर को पाकिस्तान में मिला ही दिया था. लेकिन सरदार पटेल और शेख अब्दुल्ला की संयुक्त कोशिश का नतीजा था कि कश्मीर आज भारत का हिस्सा है .समकालीन इतिहास के इस सच को जनता तक पंहुचाने का काम किसी राजनीतिक विश्लेशक का नहीं है . यह काम तो कांग्रेस पार्टी का है लेकिन उसने सच्चाई को पब्लिक डोमेन में लाने का काम कभी नहीं किया . नतीजा यह है कि आज की पीढी के एक बहुत बड़े वर्ग को अब भी यही बताया जा रहा है कि जवाहरलाल नेहरू ने देश को कमज़ोर किया . शायद इसका करण यह है कि कांग्रेस पार्टी वाले नेहरू के वंशजों की जय जय कार में इतने व्यस्त हैं कि उन्हें नेहरू की विरासत को याद करने का मौक़ा ही नहीं मिल रहा है .आज कांग्रेसी नेता यह कोशिश करते देखे जा रहे हैं कि राहुल गांधी भी उतने ही दूरदर्शी नेता हैं ,जितने कि जवाहरलाल नेहरू थे.. लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि जवाहरलाल नेहरू का वंशज होकर कोई उन जैसा नहीं बन जाता . कल्पना कीजिये कि अगर जवाहरलाल नेहरू के बाद लाल बहादुर शास्त्री की प्रधानमंत्री के रूप में असमय मृत्यु न हो गयी होती और उस दौर के कांग्रेसी चापलूस, जिसमें कामराज सर्वोपरि थे, ने इंदिरा गाँधी को प्रधानमंत्री न बनवा दिया होता तो आज राहुल गांधी और वरुण गांधी जैसे अजूबे कहाँ होते. वास्तव में राहुल गांधी और वरुण गांधी टाइप नेताओं को अपने आप को जवाहरलाल नेहरू का वारिस कहना ही नहीं चाहिए . में यह सब तो इंदिरा गाँधी के वारिस हैं . वही इंदिरा गाँधी जिन्होंने सत्ता में बने रहने के लिए लोकतंत्र का सर्वनाश करने की गरज से इमरजेंसी लगाई थी, विपक्षी नेताओं को जेल में ठूंस दिया था, प्रेस का गला घोंट दिया था और इस देश के लगभग सभी नेताओं को यह प्रोत्साहन दिया था कि वे अपने वंशजों को राजनीति में बढ़ावा दें और जनता के धन की लूट के अभियान में शामिल हों. आज हर पार्टी का नेता अपने बच्चों को राजनीति में शामिल करवा रहा है और उनको भी वैसी ही चोरी करने की प्रेरणा दे रहा है जिसके चलते वह खुद करोडपति या अरबपति बन गया है.
बहरहाल अब कोई जवाहरलाल नेहरू का अभिनय करना चाहे तो उसे कोई रोक नहीं सकता है इसलिए आज फूलपुर में राहुल गांधी का भाषण उसी तर्ज़ पर हो गया जैसा फिल्म्स डिवीज़न के आर्काइव्ज़ में जवाहरलाल नेहरू का भाषण देखा जाता है . लेकिन यह समझ लेना ज़रूरी है कि फूलपुर में जवाहरलाल नेहरू इसलिए जीत जाते थे कि उनको कहीं से भी मज़बूत विरोध नहीं मिल रहा था. एक बार तो उनके खिलाफ स्वामी करपात्री जी लड़े थे और एकाध बार स्वामी प्रभुदत्त ब्रह्मचारी ने उन्हें चुनौती दी थी. जवाहरलाल नेहरू देश को प्रगति के रास्ते पर ले जा रहे थे तो सभी चाहते थे कि उन्हें कोई चुनावी चुनौती न मिले . लेकिन जब उन्हें चुनौती मिली तो जीत बहुत आसान नहीं रह गयी थी. १९६२ के चुनाव में फूलपुर में जवाहरलाल नेहरू के खिलाफ सोशलिस्ट पार्टी से डॉ. राम मनोहर लोहिया उम्मीदवार थे . डॉ लोहिया भी आज़ादी के लड़ाई के महान नेता थे. कांग्रेस से अलग होने के पहले वे नेहरू के समाजवादी विचारों के बड़े समर्थक रह चुके थे. बाद में भी एक डेमोक्रेट के रूप में वे नेहरू जी की बहुत इज्ज़त करते थे . लेकिन जब आज़ादी के एक दशक बाद यह साफ़ हो गया कि जवाहरलाल नेहरू भी समाजवादी कवर के अंदर देश में पूंजीवादी निजाम कायम कर रहे हैं तो डॉ लोहिया ने जवाहरलाल को आगाह किया था . तब तक जवाहरलाल पूरी तरह से नौकरशाही और पुरातनपंथी लोगों से घिर चुके थे. नतीजा यह हुआ कि डॉ राम मनोहर लोहिया ने फूलपुर चुनाव में पर्चा दाखिल कर दिया . ऐसा लगता है कि डॉ लोहिया भी जवाहरलाल नेहरू को हराना नहीं चाहते थे क्योंकि उन्होंने फूलपुर चुनाव क्षेत्र में केवल दो सभाएं कीं . स्वर्गीय जनेश्वर मिश्र ने बताया था कि जहां भी डॉ लोहिया गए और उन्होंने नेहरू की अगुवाई वाली सरकार की कमियाँ गिनाई तो जनता की समझ में बात आ गयी. जनेश्वर मिश्रा का कहना था कि जिन इलाकों में लोहिया ने सभाएं की थीं वहां नेहरू को बहुत कम वोट मिले थे. मसलन कोटवा नाम के पोलिंग स्टेशन पर डॉ लोहिया को ७५० वोट मिले थे तो जवाहरलाल नेहरू के नाम पर केवल २ वोट पड़े थे. इसी तरह से हरिसेन गंज में लोहिया को ३७५ वोट मिले तो जवाहरलाल को ३ वोट मिले.राहुल गांधी और उनकी मंडली के लोगों को यह मानकर नहीं चलना चाहिए कि जवाहर लाल नेहरू की तरह चुनाव लड़ने का अभिनय करके बहुत कुछ हासिल किया जा सकता है . उत्तर प्रदेश या देश के किसी भी हिस्से में जवाहरलाल नेहरू की तरह सफल होने के लिए राजनीतिक छुटपन से बाहर निकलना होगा और देश की समस्यायों को सही सन्दर्भ में समझना होगा . अगर ऐसा न हुआ तो जवाहरलाल नेहरू की बेटी का पौत्र बनकर राजनीतिक सफलता हासिल कर पाना आसान नहीं होगा .