शेष नारायण सिंह
सितम्बर १९४८ में मुहम्मद अली जिन्नाह का इंतकाल हो गया था. आज ६४ साल बाद जिन्नाह की विरासत को एक बार पाकिस्तान में भी नए सिरे से समझने की कोशिश की जा रही है . ज़रुरत इस बात की है कि भारत और पाकिस्तान के संबंधों में हो रहे विकास के मद्दे नज़र भारत में भी जिन्नाह की विरासत को समझा जाये इस बात में दो राय नहीं है जिन्नाह भारत की आज़ादी के सबसे बड़े सूत्रधारों में गिने जाते थे. कांग्रेस के संस्थापकों दादाभाई नौरोजी और फीरोज़ शाह मेहता के तो वे बहुत बड़े प्रशंसक थे , गोपाल कृष्ण गोखले का भी अपार स्नेह मुहम्मद अली जिन्नाह को हासिल था. आज़ादी की लड़ाई के बहुत शुरुआती वर्षों में ही उन्होंने कांग्रेस की धर्मनिरपेक्ष राजनीति की बुनियाद रख दी थी. जो महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू के युग में इस देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी का आधार बना रहा . बाद के वर्षों में साफ्ट हिंदुत्व के चक्कर में कांग्रेस की राजनीति का दार्शनिक आधार बहुत उलटे सीधे रास्तों से गुज़रा लेकिन जिन्नाह ने जिस देश की स्थापना की थी वहां तो धर्मनिरपेक्ष राजनीति पता नहीं कब की ख़त्म हो चुकी है . हालांकि इस बात में भी दो राय नहीं है कि पाकिस्तान में मध्यवर्ग का एक बड़ा हिस्सा सेकुलर है और वह भारत से दुश्मनी को पाकिस्तान के विकास में सबसे बडी बाधा मानता है .जिन्नाह को जब पाकिस्तान की संविधान सभा का सर्वसम्मति से अध्यक्ष चुना गया था तो उस पद को स्वीकार करने के लिए उन्होंने जो भाषण दिया था , आम तौर पर माना जाता है कि वही भाषण पाकिस्तान की भविष्य की राजनीति का आदर्श बनने वाला था . ११ अगस्त १९४७ का उनका भाषण इतिहास की एक अहम धरोहर है.नए जन्म ले रहे पाकिस्तान के राष्ट्र के भविष्य का नुस्खा था उस भाषण में था . लेकिन पाकिस्तान, भारत और इस इलाके में रहने वाले लोगों का दुर्भाग्य है कि उनके उस भाषण में कही गयी गयी हर बात को आज़ाद पाकिस्तान के शासकों ने तबाह कर दिया . अपने नए मुल्क के लोगों से मुखातिब पाकिस्तान के संस्थापक, मुहम्मद अली जिन्नाह ने उस मशहूर भाषण में कहा कि , " अब आप आज़ाद हैं .पाकिस्तान में आप अपने मंदिरों ,अपनी मस्जिदों और अन्य पूजा के स्थलों पर जाने के लिए स्वतन्त्र हैं . आप का धर्म या जाति कुछ भी हो सकती है लेकिन पाकिस्तान के नए राज्य का उस से कोई लेना देना नहीं हैं .. हम एक ऐसा देश शुरू करने जा रहे हैं जिसमें धर्म या जाति के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा . हम यह मानते हैं कि हम सभी एक स्वतन्त्र देश के नागरिक हैं जिसमें हर नागरिक एक दूसरे के बराबर हैं . " इसी भाषण में जिन्नाह ने कहा था कि " हमें अपना आदर्श याद रखना चाहिए कि कि कुछ समय बाद पाकिस्तान में न कोई हिन्दू रहेगा ,न कोई मुसलमान सभी लोग पाकिस्तान के स्वतन्त्र नागरिक के रूप में रहेगें . हालांकि व्यक्तिगत रूप से सब अपने धर्म का अनुसरण करेगें लेकिन राष्ट्र के रूप में कोई धर्म नहीं रहेगा, "
मुहम्मद अली जिनाह के इस रूप से इतिहास का हर विद्यार्थी वाकिफ है .१९२० के पहले जब जिन्नाह कांग्रेस के बड़े नेता हुआ करते थे उन्होंने हमेशा ही धर्म निरपेक्ष राजनीति का समर्थन किया . उन्होंने तो महात्मा गांधी की खिलाफत को बचाने के लिए चल रही मुहिम का भी विरोध किया था लेकिन बाद में वे धार्मिक आधार पर बन रहे एक राष्ट्र के संस्थापक बने . लेकिन जिन्नाह के दिमाग में तस्वीर बहुत ही स्पष्ट थी. उन्होंने १४ अगस्त १९४७ को पाकिस्तान की विधिवत स्थापना होने के तीन दिन पहले ११ अगस्त को ही साफ़ कह दिया था कि पाकिस्तान एक धर्म निरपेक्ष राष्ट्र बनेगा.
हम सभी जानते हैं कि जिन्नाह का वह सपना धूल में मिल चुका है . विभाजन के तुरंत बाद से ही पाकिस्तान में धार्मिक कट्टरपंथियों ने स्वतंत्र देश की राजनीति पर क़ब्ज़ा करने की कोशिश शुरू कर दी थी और आज पाकिस्तान में उनका ही पूरी तरह से क़ब्ज़ा है . पाकिस्तान की फौज भी पूरी तरह से धार्मिक कट्टरपंथियों की मर्जी से चलती है . सही बात यह है कि पाकिस्तान को एक राष्ट्र के रूप में स्थापित करवाने के लिए तो जिन्नाह ने १९३६ के बाद से लगातार कोशिश की और केवल १० साल की मेहनत के बाद अंग्रेजों और कांग्रेस को मजबूर कर दिया कि भारत का बंटवारा हो गया लेकिन जिन्नाह मूल रूप से सेकुलर इंसान थे जो उन्होंने अपने ११ अगस्त के भाषण में साफ़ कह दिया था. पाकिस्तान में भी जिन्नाह की विरासत को लेकर ज़बरदस्त बहस चल रही है . लेकिन वहां आम तौर पर यही चर्चा होती है कि जिन्नाह ने धार्मिक आधार पर राज्य स्थापित करने की बात की थी या धर्म को निजी जीवन का आदर्श बताकर राज्य को सेकुलर बनाने की बात की थी . . पाकिस्तान के पहले प्रधान मंत्री और कायद-ए-आज़म के सबसे करीबी शिष्य लियाक़त अली के क़त्ल के बाद यह साफ़ हो गया था कि जिन्नाह ने जिन मान्याताओं को ध्यान में रख कर पाकिस्तान के भविष्य को डिजाइन करने के सपने देखे थे वे नहीं चलने वाले थे . पाकिस्तान की आजादी के करीब १५ साल बाद या यूं कहिये कि जनरल अयूब की हुकूमत के खात्मे के बाद से ही पाकिस्तान में जिन्ना की विरासत को तोड़ने मरोड़ने का काम पूरी शिद्दत से चल रहा है . उसमें सभी ने अपनी तरह से योगदान किया है . ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने इस्लामिक सोशलिज्म का आयाम भी जोड़ने की कोशिश की .हालांकि १९४८ में चिटगांव के किसी भाषण में जिन्नाह ने एक बाद इस शब्द का इस्तेमाल कर दिया था ,बाकी कहीं कोई ज़िक्र नहीं है . लेकिन भुट्टो को शेख मुजीब से जो दहशत मिल रही थी उसके चलते उन्होंने पाकिस्तान की राजनीति में तरह तरह के विरोधाभासों को जन्म दिया, उसी में से एक यह भी हो सकता. है. जब भुट्टो को जिया उल हक ने बेदखल किया उसके बाद तो जिनाह के धर्म निरपेक्ष पाकिस्तान के सपने की कोई भी बात चर्चा में नहीं आने नहीं दी गयी , लागू करना तो अलग बात है .
मुहम्मद अली जिन्नाह के ११ अगस्त १९४७ के प्रसिद्द भाषण में कहे गए धर्म निरपेक्षता वाले विचारों को तो उनके उत्तराधिकारियों ने दफ़न कर ही दिया , उस भाषण में कहीं गयी हर बात को आज़ाद पाकिस्तान के नेताओं ने तबाह करने में कोई कसर नहीं छोडी है . जब उनको कराची में उस ११ अगस्त की सुबह पाकिस्तान की संविधान सभा का अध्यक्ष चुना गया था तो उन्होंने कहा था कि उन्हें उम्मीद है कि उनकी संविधान सभा दुनिया के लिए मिसाल बनेगी. उन्होंने कहा था कि किसी भी सरकार का पहला कर्तव्य होता है कि वह कानून -व्यवस्था को दुरुस्त करे जिस से देश में रहने वाले लोग भय मुक्त रह सकें. लेकिन दुनिया जानती है कि पाकिस्तान में कभी कोई भी भयमुक्त नहीं रह सका. जहां तक हिन्दू और मुसलमानों के बराबर अधिकार का सवाल है वह तो पाकिस्तान में कभी था ही नहीं . अजीब बात यह है कि मुसलमानों के अलग अलग सम्प्रदायों के लोगों के बीच भी लगातार झगडे होते रहे हैं और खून खराबा होता रहा है .अपने उस भाषण में जिन्नाह ने घूसखोरी और आर्थिक भ्रष्टाचार के बारे में चिंता जताई थी. उन्होंने कहा था कि यह ब्रिटिश भारत की जड़ों को खोखला कर रहा था. लेकिन उनके उत्तराधिकारियों ने घूस और भ्रष्टाचार को इतना महत्व दिया कि बाद के पाकिस्तान में यह सर्वोच्च स्तर भी चलता रहा और आज भी पाकिस्तानी जीवन का स्थायी भाव है. उन्होंने कालाबाजारी के खिलाफ मजबूती से काम करने की भी बात की थी लेकिन आज तो पाकिस्तान एक राष्ट्र के रूप में राशनिंग और कालाबाजारी का शिकार है . यह काम १९४७ से अब तक कभी नहीं रुका . ज़ाहिर है कि कायद-ए-एअज़म की वह बात भी नहीं मानी गयी. . उन्होंने उसी भाषण में कहा था कि बहुत ही मजबूती से पाकिस्तान को भाई भतीजावाद को ख़त्म कर देना चाहिए . जिसको पाकिस्तानी हुक्मरान ने पूरी तरह से नज़र अंदाज़ किया .
सही बात यह है कि पाकिस्तान के शासक वर्ग ने पहले दिन से ही अपने संस्थापक की हर बात को नज़र अंदाज़ किया और कई मामलों में तो उल्टा किया. अगर उनके धर्मनिरपेक्ष पाकिस्तान के सपने को पूरा करने की कोशिश पाकिस्तान के शासकों ने की होती तो न आज तालिबान होता ,न हक्कानी होता , न जिया उल हक की सत्ता आती , न ही हुदूद का कानून बनता और न ही एक गरीब देश की संपत्ति को पाकिस्तानी फौज के आला अफसर आतंकवादियों की मदद के लिए इस्तेमाल कार पाते . उनकी मौत की ६४ साल बाद आज पाकिस्तान उस मुकाम पर खड़ा है जब उसका सबसे बड़ा दानदाता अमरीका इस बात पर बहस कर रहा है कि पाकिस्तान को आतंकवादी राष्ट्र घोषित होने से कैसे बचाया जाए. ज़ाहिर है पाकिस्तान के संस्थापक की हर बात को पाकिस्तानी सत्ताधीश भूल चुके हैं और मौजूदा हालात में यह मुश्किल है कि जिन्नाह के आदर्शों पर पाकिस्तान को चलाया जा सकेगा.