शेष नारायण सिंह
पश्चिम बंगाल में एक और ट्रेन हाद्से का शिकार हो गयी . पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री समेत शासक वर्गों के सभी प्रतिनिधियों ने कहा कि माओवादियों ने किया . ऐसा करने से इन सत्ताधीशों को बड़ी राहत मिल गयी . अब जब भी इस हादसे की जांच का स्वांग रचाया जाएगा तो जांच एजेंसी वालों को मालूम रहेगा कि सत्ताधीशों की क्या मर्जी है .आम तौर पर होता यह है कि जब भी कोई आतंकवादी संगठन इस तरह के धमाके करता है तो वह उसकी ज़िम्मेदारी लेता है . वह यह काम करता ही प्रचार के लिए है . लेकिन जब कोई आतंकवादी संगठन ज़िम्मेदारी नहीं ले रहा है तो बात गंभीर हो जाती है . इसमें देश के दुश्मनों का हाथ हो सकता है .सवाल पैदा होता है कि यह हमारे नेता लोग बिना किसी तरह की जांच पड़ताल कराये कैसे जान लेते हैं कि किसने किया विस्फोट , किसने की तबाही ? यह निहायत ही गैर जिम्मेदाराना रवैया है और इस पर लगाम लगाई जानी चाहिए. कोलकता से दिल्ली तक बैठे इन नेताओं को किसने बता दिया कि ट्रेन पर हमला माओवादियों ने किया था. यहाँ माओवादियों को दोषमुक्त करने की कोई कोशिश नहीं की जा रही है लेकिन सत्ता पर काबिज़ लोग जिनके पास सारी ताक़त है उन्हें बिना किसी बुनियाद के किसी को अपराधी घोषित नहीं करना चाहिए क्योंकि इस में सबसे बड़ा ख़तरा है कि अपराधी बच जाते हैं और जांच गलत दिशा में चल पड़ती है . खडग पुर के पास हुए ट्रेन हादसे में मारे गए लोगों को जिसने भी मारा है , वह अपराधी है . ट्रेन में सभी सीधे सादे लोग थे. उसको उड़ा देने की कोशिश करने वाले अपराधी को पकड़ कर कानून के अनुसार सख्त से सख्त सज़ा दी जानी चाहिये . उसकी सजा वही होनी चाहिए जो ७८ लोगों का क़त्ल करने वाले की हो . लेकिन बिना यह पता लगाए कि हत्या किसने की है , यह नहीं किया जाना चाहिए .हाँ , इस तरह के हादसों के लिए जो सरकारें ज़िम्मेदार हैं उनको भी सख्त से सख्त सज़ा देने के बारे में बहस शुरू हो जानी चाहिए . उसमें नक्सलवाद को बढ़ावा देने वालों को सज़ा देने के अलावा ठीक से सरकार न चला पाने वालों को भी दण्डित किये जाने का प्रावधान होना चाहिए .
नक्सलवाद और उस से जुड़े मुद्दों की एक बार फिर पड़ताल की ज़रुरत है . कुछ बुद्धिजीवियों का एक वर्ग आजकल यह कहता पाया जाता है कि देश के आदिवासी इलाकों में जो शोषित पीड़ित गरीब जनता रहती है उसने अपनी स्थिति को सुधारने के लिए आतंकवाद का रास्ता अपनाया है और वे नक्सलियों से मिलकर सत्ता के केन्द्रों को कमज़ोर कर रहे हैं . वे बहुत गरीब हैं और अब उन्होंने हथियार उठा लिये है . यह तर्क बिलकुल बोगस है और साधारणीकरण के भयानक दोष से ग्रस्त है . इसका मतलब यह हुआ कि जो भी गरीब होगा हथियार उठा लेगा . इस लिए इस तर्क को आगे बढाने की ज़रुरत नहीं है . आदिवासी इलाकों के शोषण और खनिज सम्पदा के बेजा दोहन के लिए सरकारों को ज़िम्मेदार ठहराया जाना चाहिए , पूंजीवादी मानसिकता के सत्ताधीशों की इलीट सोच को दोषी ठहराया जाना चाहिए और जागरूक लोगों को बड़े पैमाने पर आन्दोलन शुरू करने की कोशिश करनी चाहिए . यहाँ यह भी समझ लेने की ज़रूरत है कि माओवाद के नाम पर आदिवासी इलाकों के गरीब , बेरोजगार नौजवानों को फंसाने वाले तथाकथित माओवादियों को भी एक्सपोज़ करने की ज़रुरत है .. वामपंथी राजनीति की वैज्ञानिक सोच से विचलित हुए ये संशोधनवादी अपने निजी स्वार्थ को पूरा करने के लिए इन गरीब आदिवासियों को चारे की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं . आज ही कुछ अखबारों के संवाददाताओं ने आदिवासी इलाकों में सक्रिय माओवादी हथियारबंद नौजवानों से बातचीत करके खबर दी है कि उन लड़कों को यह माओवादी नेता लोगों को मार डालने केलिए भेजते हैं लेकिन यह नहीं बताते कि क्यों मार डालना है . यानी यह तथाकथित माओवादी नेता इन नौजवानों का इस्तेमाल शार्प शूटर की तरह कर रहे हैं . ज़ाहिर है कि अपनी राजनीतिक किलेबंदी के लिए वे इन लोगों को इस्तेमाल कर रहे हैं .इतने शातिर दिमाग दिग्भ्रमित कम्युनिस्टों की चाल को बेनकाब करने के लिए अपनाई जाने वाली रण नीति में गोली बन्दूक को प्रातामिकता देना ठीक नहीं है . क्योंकि अगर चिदंबरम साहेब वाला कार्यक्रम चल पड़ा कि हवाई हमले करके इन माओवादियों को मारो , तो मारे यही गरीब आदिवासी जायेंगें जिनका पिछले कई वर्षों से बूढ़े माओवादी नेता इस्तेमाल कर रहे हैं . लेकिन दिल्ली और कोलकता की सरकारें भी इन माओवादी नेताओं से कम ज़िम्मेदार नहीं है .पूंजीवादी पार्टियां और कम्युनिस्ट विचारधारा की सभी पार्टियां, माओवादी आतंक में बढ़ोतरी के लिए ज़िम्मेदार हैं इसलिए इन सब के खिलाफ जनता और जागरूक पब्लिक ओपिनियन को लामबंद होना पड़ेगा और दिशा भ्रम के मरीज़ इन माओवादियों और गैर ज़िम्मेदार सरकारों को सच्चाई से रू ब रू करवाना पड़ेगा.
Sunday, May 30, 2010
मंसूर सईद साठ के दशक के नौजवानों के हीरो थे
शेष नारायण सिंह
भाई मंसूर नहीं रहे. पाकिस्तान के शहर कराची में मंसूर सईद का इंतकाल हो गया. मौलाना अहमद सईद का एक पोता और चला गया .मृत्यु के समय मंसूर सईद की उम्र 68 साल थी . वे जियों टी वी में बहुत ऊंचे पद पर थे. उनकी पत्नी आबिदा , कराची में एक मशहूर स्कूल की संस्थापक और प्रिंसिपल हैं , उनकी बड़ी बेटी सानिया सईद पाकिस्तान की बहुत मशहूर एंकर और एक्टर है. पाकिस्तानी टेलीविज़न देखने वाला हर शख्श उन्हें पहचानता है . बेटा अहमर सईद पाकिस्तान की अंडर 19 टीम का कप्तान रह चुका है . फिलहाल ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड में क्रिकेट खेलने के अलावा मीडिया से भी जुड़ा हुआ है .
१९७१ के बाद से भाई मंसूर पाकिस्तान चले गए थे और वहीं के हो गए लेकिन थे वे असली दिल्ली वाले. उनके दादा मौलाना अहमद सईद देहलवी ने 1919 में अब्दुल मोहसिन सज्जाद , क़ाज़ी हुसैन अहमद , और अब्दुल बारी फिरंगीमहली के साथ मिल कर जमीअत उलमा -ए - हिंद की स्थापना की थी. जो लोग बीसवीं सदी भारत के इतिहास को जानते हैं ,उन्हें मालूम है की जमियत उलेमा ए हिंद ने महात्मा गाँधी के १९२० के आन्दोलन को इतनी ताक़त दे दी थी की अंग्रेज़ी साम्राज्य के बुनियाद हिल गयी थी और अंग्रेजों ने पूरी शिद्दत से भारत के हिन्दुओं और मुसलमानों में फूट डालने के अपने प्रोजेक्ट पर काम करना शुरू कर दिया था.
जमीअत उस समय के उलमा की संस्था थी . खिलाफत तहरीक के समर्थन का सवाल जमीअत और कांग्रेस को करीब लाया . जमीअत ने हिंदुस्तान भर में मुसलमानों को आज़ादी की लड़ाई में शामिल होने के लिए प्रेरित किया और खुले रूप से पाकिस्तान की मांग का विरोध किया . मौलाना साहेब कांग्रेस के महत्त्वपूर्ण लीडरों में माने जाते थे , मौलाना अहमद सईद के इन्तेकाल पर पंडित नेहरु ने कहा था की आखरी दिल्ली वाला चला गया , उनकी शव यात्रा में जवाहरलाल नेहरू बिना जूतों के साथ साथ चले थे.
भाई मंसूर इन्हीं मौलाना अहमद सईद के पोते थे. उन्होंने दिल्ली के जामिया स्कूल और एंग्लो-अरबिक स्कूल में शुरुआती तालीम पायी ,दिल्ली के दयाल सिंह कॉलेज और दिल्ली कॉलेज से BA और MA किया . कॉलेज के दिनों में वे वामपंथी छात्र आन्दोलन से जुड़े , . उन दिनों दिल्ली में वामपंथी छात्र आन्दोलन में सांस्कृतिक गतिविधियों पर ज्यादा जोर था और इसी दौरान मंसूर सईद ने मशहूर जर्मन नाटककार ब्रेख्त के नाटकों का अनुवाद हिन्दुस्तानी में किया , जो बहुत बार खेला गया .अपनी पूरी ज़िंदगी में मंसूर सईद ने हार नहीं मानी हालांकि बार बार ऐसी परिस्थितियाँ पैदा हुईं कि लोगों को लगता था कि वे हार गए हैं . लेकिन वे हमेशा जीत की तरफ बढ़ते रहे. जेम्स बांड फिल्मों में शुरुआती दौर में जेम्स बांड का रोल करने वाले ब्रिटिश अभिनेता , शान कोनरी और भाई मंसूर की शक्ल मिलती जुलती थी. जब कोई इस बात की तरह संकेत करता तो मंसूर सईद फरमाते थे , Yes, Sean Connery tries to look like me .
वे सन १९७१ में अपनी दोस्त आबिदा हाशमी से मिलने पकिस्तान गए और शादी करके वहीं बस गए. आबिदा के पिता,अनीस हाशमी कराची में रहते थे. और पाकिस्तान में जम्हूरियत की बहाली के बड़े पैरोकार थे . वे रावलपिंडी साज़िश केस में फैज़ के साथ जेल में रह चुके थे और पाकिस्तान सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष थे .१९७१ के युद्ध के कारण मंसूर सईद का भारत वापस आना संभव नहीं हो पाया . बाद में बंगलादेश बन जाने के बाद दोनों मुल्कों के बीच तनाव बढ़ गया और भाई मंसूर को मजबूरन वहीं रहना पड़ा . मंसूर सईद ने वहां की कम्युनिस्ट तहरीक का हिस्सा बनने का फैसला कर लिया . अपनी मृत्यु के समय वे पकिस्तान की कम्युनिस्ट पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व का हिस्सा थे.
पाकिस्तान जाने के पहले भाई मंसूर दिल्ली में नौजवानों की एक पूरी पीढी के हीरो थे. दिल्ली में जब साठ के दशक में छात्रों में वामपंथी राजनीति की समझ का सिलसिला शुरू हुआ तो भाई मंसूर उन प्रगतिशील छात्रों की अगली कतार में थे. उनके दो भाई सुहेल हाशमी और सफ़दर हाशमी बाद के वामपंथी आन्दोलन में महत्वपूर्ण हस्ताक्षर माने जाते हैं . सफ़दर की तो कुछ राजनीतिक बदमाशों ने हत्या कर दी थी और सुहेल आज भी वैज्ञानिक सोच और दिल्ली की विरासत के बड़े जानकार माने जाते हैं . मंसूर की चचेरी बहन शबनम हाशमी ने पूरे देश में शोषित वर्गों के अधिकारों की लड़ाई छेड़ रखी है . और धर्म निरपेक्षता के आन्दोलन की बड़ी नेता हैं .
भाई मंसूर की कमी दिल्ली में बहुत से परिवारों में महसूस की जायेगी . उनका जाना हमारी पीढी के लोगों के लिए निजी नुकसान है , सरहद के इस पार भी और उस पार भी .
भाई मंसूर नहीं रहे. पाकिस्तान के शहर कराची में मंसूर सईद का इंतकाल हो गया. मौलाना अहमद सईद का एक पोता और चला गया .मृत्यु के समय मंसूर सईद की उम्र 68 साल थी . वे जियों टी वी में बहुत ऊंचे पद पर थे. उनकी पत्नी आबिदा , कराची में एक मशहूर स्कूल की संस्थापक और प्रिंसिपल हैं , उनकी बड़ी बेटी सानिया सईद पाकिस्तान की बहुत मशहूर एंकर और एक्टर है. पाकिस्तानी टेलीविज़न देखने वाला हर शख्श उन्हें पहचानता है . बेटा अहमर सईद पाकिस्तान की अंडर 19 टीम का कप्तान रह चुका है . फिलहाल ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड में क्रिकेट खेलने के अलावा मीडिया से भी जुड़ा हुआ है .
१९७१ के बाद से भाई मंसूर पाकिस्तान चले गए थे और वहीं के हो गए लेकिन थे वे असली दिल्ली वाले. उनके दादा मौलाना अहमद सईद देहलवी ने 1919 में अब्दुल मोहसिन सज्जाद , क़ाज़ी हुसैन अहमद , और अब्दुल बारी फिरंगीमहली के साथ मिल कर जमीअत उलमा -ए - हिंद की स्थापना की थी. जो लोग बीसवीं सदी भारत के इतिहास को जानते हैं ,उन्हें मालूम है की जमियत उलेमा ए हिंद ने महात्मा गाँधी के १९२० के आन्दोलन को इतनी ताक़त दे दी थी की अंग्रेज़ी साम्राज्य के बुनियाद हिल गयी थी और अंग्रेजों ने पूरी शिद्दत से भारत के हिन्दुओं और मुसलमानों में फूट डालने के अपने प्रोजेक्ट पर काम करना शुरू कर दिया था.
जमीअत उस समय के उलमा की संस्था थी . खिलाफत तहरीक के समर्थन का सवाल जमीअत और कांग्रेस को करीब लाया . जमीअत ने हिंदुस्तान भर में मुसलमानों को आज़ादी की लड़ाई में शामिल होने के लिए प्रेरित किया और खुले रूप से पाकिस्तान की मांग का विरोध किया . मौलाना साहेब कांग्रेस के महत्त्वपूर्ण लीडरों में माने जाते थे , मौलाना अहमद सईद के इन्तेकाल पर पंडित नेहरु ने कहा था की आखरी दिल्ली वाला चला गया , उनकी शव यात्रा में जवाहरलाल नेहरू बिना जूतों के साथ साथ चले थे.
भाई मंसूर इन्हीं मौलाना अहमद सईद के पोते थे. उन्होंने दिल्ली के जामिया स्कूल और एंग्लो-अरबिक स्कूल में शुरुआती तालीम पायी ,दिल्ली के दयाल सिंह कॉलेज और दिल्ली कॉलेज से BA और MA किया . कॉलेज के दिनों में वे वामपंथी छात्र आन्दोलन से जुड़े , . उन दिनों दिल्ली में वामपंथी छात्र आन्दोलन में सांस्कृतिक गतिविधियों पर ज्यादा जोर था और इसी दौरान मंसूर सईद ने मशहूर जर्मन नाटककार ब्रेख्त के नाटकों का अनुवाद हिन्दुस्तानी में किया , जो बहुत बार खेला गया .अपनी पूरी ज़िंदगी में मंसूर सईद ने हार नहीं मानी हालांकि बार बार ऐसी परिस्थितियाँ पैदा हुईं कि लोगों को लगता था कि वे हार गए हैं . लेकिन वे हमेशा जीत की तरफ बढ़ते रहे. जेम्स बांड फिल्मों में शुरुआती दौर में जेम्स बांड का रोल करने वाले ब्रिटिश अभिनेता , शान कोनरी और भाई मंसूर की शक्ल मिलती जुलती थी. जब कोई इस बात की तरह संकेत करता तो मंसूर सईद फरमाते थे , Yes, Sean Connery tries to look like me .
वे सन १९७१ में अपनी दोस्त आबिदा हाशमी से मिलने पकिस्तान गए और शादी करके वहीं बस गए. आबिदा के पिता,अनीस हाशमी कराची में रहते थे. और पाकिस्तान में जम्हूरियत की बहाली के बड़े पैरोकार थे . वे रावलपिंडी साज़िश केस में फैज़ के साथ जेल में रह चुके थे और पाकिस्तान सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष थे .१९७१ के युद्ध के कारण मंसूर सईद का भारत वापस आना संभव नहीं हो पाया . बाद में बंगलादेश बन जाने के बाद दोनों मुल्कों के बीच तनाव बढ़ गया और भाई मंसूर को मजबूरन वहीं रहना पड़ा . मंसूर सईद ने वहां की कम्युनिस्ट तहरीक का हिस्सा बनने का फैसला कर लिया . अपनी मृत्यु के समय वे पकिस्तान की कम्युनिस्ट पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व का हिस्सा थे.
पाकिस्तान जाने के पहले भाई मंसूर दिल्ली में नौजवानों की एक पूरी पीढी के हीरो थे. दिल्ली में जब साठ के दशक में छात्रों में वामपंथी राजनीति की समझ का सिलसिला शुरू हुआ तो भाई मंसूर उन प्रगतिशील छात्रों की अगली कतार में थे. उनके दो भाई सुहेल हाशमी और सफ़दर हाशमी बाद के वामपंथी आन्दोलन में महत्वपूर्ण हस्ताक्षर माने जाते हैं . सफ़दर की तो कुछ राजनीतिक बदमाशों ने हत्या कर दी थी और सुहेल आज भी वैज्ञानिक सोच और दिल्ली की विरासत के बड़े जानकार माने जाते हैं . मंसूर की चचेरी बहन शबनम हाशमी ने पूरे देश में शोषित वर्गों के अधिकारों की लड़ाई छेड़ रखी है . और धर्म निरपेक्षता के आन्दोलन की बड़ी नेता हैं .
भाई मंसूर की कमी दिल्ली में बहुत से परिवारों में महसूस की जायेगी . उनका जाना हमारी पीढी के लोगों के लिए निजी नुकसान है , सरहद के इस पार भी और उस पार भी .
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