Friday, May 11, 2012

कैफ़ी आजमी के बिना दस साल




शेष नारायण सिंह 

कैफ़ी  आज़मी  को गए १०  साल हो गए. अवाम के शायर कैफ़ी इस बीच बहुत याद आये लेकिन मैं किसी से कह भी नहीं सकता कि मुझे कैफ़ी की याद आती है . मैं अपने आपको उस  वर्ग का आदमी मानता हूँ जिसने कैफ़ी को करीब से कभी नहीं देखा . लेकिन हमारी पीढी की एक बड़ी जमात के लिए कैफ़ी  प्रेरणा का स्रोत थे. एक सामंती सोच वाले लेकिन गरीब परिवार से आये व्यक्ति को कैफे एकी जिस नज़्म ने सबसे ज्यादा प्रभावित किया था वह उनकी मशहूर नज़्म ' औरत '  है . छात्र जीवन में उसे मैंने बार बार पढ़ा .  मैं बयान नहींकर सकता कि औरत  को कुछ भी न समझने वालों के गाँव  का होते हुए मैंने किस तरह से अपनी ही माँ और बहनों को किस तरह से  बिलकुल अलग किस्म के इंसान के रूप में देखना शुरू कर दिया था  . बाद में जब मैं दिल्ली में आकर रहने लगा तो  इस नज़्म को पढ़ते हुए  मुझे अपनी दोनों बेटियाँ  याद आती थीं. मैं गरीबी में बीत रहे उनके बचपन को इस नज़्म  के टुकड़ों से  बुलंदी देने की कोशिश करता था .हालांकि यह नज़्म मैंने  कभी भी पूरी पढ़ कर नहीं सुनायी लेकिन इसके टुकड़ों को हिन्दी या अंग्रेज़ी में अनुवाद करके उनको समझाया करता था .मेरे दोस्त खुर्शीद अनवर ने एक बार लिखा था कि कैफ़ी ने  "उठ मिरी जान  मिरे साथ ही चलना है तुझे " कह कर लगाम अपने  हाथ में ले ली थी.  आज के सन्दर्भ में उनकी बात बिकुल सही है . सवाल उठता है कि भाई आप के साथ क्यों चलना  है . औरत खुद ही चली जायेगी लेकिन जब यह नज़्म चालीस के दशक में लिखी गयी तो उस वक़्त की क्रांतिकारी नज्मों में से एक थी. अगर कोई समाज  औरत को मर्द के बराबर का दर्ज़ा देता  था तो वह भी  बहुत बड़ी बात थी .
जहां तक  शायरी और साहित्य की  बात है मैं कैफ़ी आजमी के बारे में कुछ भी  लिख सकने का हक़दार नहीं हूँ . मुझे साहित्य की समझ नहीं है . लेकिन एक शायर के रूप में बाकी दुनिया में अपनी पहचान  बनाने वाले कैफ़ी आज़मी एक  बेहतरीन इंसान  थे. आज़मगढ़ जिले के मिजवां में जन्मे अतहर हुसैन रिज़वी  ही बाद में कैफ़ी आज़मी बने .कैफ़ी  बहुत ही संवेदनशील इंसान थे , बचपन से ही .. जो आदमी सारी दुनिया की तकलीफों को ख़त्म कर देने वालों की जमात में जाकर शामिल हुआ , सबके दर्द को गीतों के ज़रिये ताक़त दी और इंसाफ़ की लड़ाई में जिसके गीत अगली कतार में हों , वह अपना दर्द कभी बयान नहीं करता था. कैफ़ी बहुत बड़े शायर थे . अपने भाई की ग़ज़ल को पूरा करने के लिए उन्होंने शायद १२ साल की उम्र में जो ग़ज़ल कही वह अमर हो गयी. बाद में उसी ग़ज़ल को बेग़म अख्तर ने आवाज़ दी और " इतना तो ज़िंदगी में किसी की ख़लल पड़े , हंसाने से हो सुकून न रोने से कल पड़े ."  अपने  अब्बा के घर में हुए एक मुशायरे में अपने बड़े भाई की सिफारिश से अतहर हुसैन रिज़वी ने यह ग़ज़ल पढी थी. जब इनके भाई ने लोगों को बताया कि ग़ज़ल अतहर  मियाँ की ही है , तो लोगों  ने सोचा कि छोटे भाई का दिल रखने के लिए बड़े भाई ने अपनी ग़ज़ल छोटे भाई से पढ़वा दी है . 
कैफ़ी आजमी इस मामले में बहुत खुश्किसम्त रहे कि उन्हें दोस्त हमेशा ही बेहतरीन मिले.  मुंबई में इप्टा के दिनों में उनके दोस्तों की फेहरिस्त में जो लोग थे वे बाद में बहुत बड़े  और नामी कलाकार के रूप में जाने गए . इप्टा में ही  होमी भाभा, क्रिशन चंदर ,मजरूह सुल्तानपुरी , साहिर लुधियानवी ,बलराज साहनी ,मोहन सहगल, मुल्क राज आनंद, रोमेश थापर, शैलेन्द्र ,प्रेम धवन ,इस्मत चुगताई .ए के हंगल, हेमंत कुमार , अदी मर्जबान,सलिल चौधरी जैसे कम्युनिस्टों के साथ उन्होंने काम किया . प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन  के संस्थापक , सज्जाद ज़हीर  के ड्राइंग रूम में मुंबई में उनकी शादी हुई थी. उनकी जीवन साथी , शौकत कैफ़ी ने उन्हें इस लिए पसंद किया था कि कैफ़ी आज़मी बहुत बड़े शायर थे . १९४६ में भी उनके तेवर इन्क़लाबी थे और अपनी माँ की मर्जी के खिलाफ अपने प्रगतिशील पिता के साथ औरंगाबाद से मुंबई आकर उन्होंने कैफ़ी से शादी कर ली थी. शादी के बाद  मुझे लगता  कैफ़ी ने बड़े पापड़ बेले . अपने गाँव चले गए जहां एक बेटा पैदा हुआ,शबाना आज़मी के बड़ा भाई . एक साल का भी नहीं  हो पाया था कि चला गया . बाद में वाया लखनऊ मुंबई पंहुचे . शुरुआत में भी लखनऊ रह चुके थे, दीनी तालीम के लिए  गए थे लेकिन इंसाफ़ की लड़ाई शुरू कर दी और निकाल दिए गए थे. जब उनकी बेटी शबाना शौकत आपा के  पेट में आयीं तो कम्युनिस्ट पार्टी ने फरमान सुना दिया कि एबार्शन कराओ  , कैफ़ी अंडरग्राउंड थे  और पार्टी को लगता था कि  बच्चे का खर्च कहाँ से आएगा.  शौअक्त कैफ़ी अपनी माँ के  पास हैदराबाद चली गयीं. वहीं शबाना आज़मी का जन्म हुआ. उस वक़्त की मुफलिसी के दौर में इस्मत चुगताई और उनेक पति शाहिद लतीफ़ ने एक हज़ार रूपये भिजवाये थे . यह खैरात नहीं थी , फिल्म निर्माण के काम में लगे शाहिद  लतीफ़ साहब अपने एफिल्म में कैफ़ी  लिखे दो गीत इस्तेमाल किये थे .लेकिन शौकत आपा अब तक उस बात का ज़िक्र करती रहती हैं .

कैफ़ी आजमी अपने बच्चों  से बेपनाह प्यार करते थे . जब कभी ऐसा होता था कि शौकत आपा पृथ्वी थियेटर के अपने काम के  सिलसिले में शहर से बाहर चली जाती थीं तो शबाना और बाबा आजमी को लेकर वे मुशायरों में भी जाते थे . मंच पर जहां शायर बिताहे होते थे उसी के  पीछे  दोनों बच्चे बैठे रहते थे . जो लोग कभी बच्चे रहे हैं उन्हें मालूम है कि बाप से इज्ज़त मिलने पर बहुत अच्छा लगता है .जीरो आमदनी वाले कम्युनिस्ट पार्टी के होल टाइमर कैफ़ी आज्मे एको जब पता लगा  कि उनकी बेटी अपने स्स्कूल से खुश नहीं थी और वह किसी दूसरे स्कूल में जाना चाहती थी जिसकी फीस तीस रूपये माहवार थी , तो कैफ़ी आजमी ने उसे उसी स्कूल में भेज दिया . बाद में अतरिक्त काम करके अपनी बेटी के लिए ३० रूपये महीने का इंतज़ाम किया 
एक बार  शबाना आजमी की किसी फिल्म को  प्रतिष्ठित कान फिल्म समारोह में दिखाया जाना था .जाने के पहले  शबाना को  पता लगा कि मुंबई के एक इलाके के लोगों की झोपड़ियां उजाड़ी जा रही हैं तो शबाना आज़मी ने कान का कार्यक्रम रद्द कर दिया और झोपड़ियां बचाने के लिए  भूख हड़ताल पर बैठ गयीं. भयानक गर्मी और ज़मीन पर बैठ कर हड़ताल करती शबाना आज़मी का बी पी बढ़ गया. बीमार हो गयीं .सारे रिश्तेदार परेशान हो गए . कैफ़ी आजमी ,शहर से कहीं बाहर गए हुए थे .लोगों ने सोचा कि उनके अब्बा से कहा जाए तो वे शायद इस जिद्दी लड़की को समझा दें. उनके अब्बा , कैफ़ी आजमी बहुत बड़े शायर थे ,अपनी बेटी से बेपनाह मुहब्बत करते थे और शबाना के सबसे अच्छे दोस्त थे. लेकिन कैफ़ी आज़मी कम्युनिस्ट भी थे और उनका टेलीग्राम आया . लिखा था," बेस्ट ऑफ़ लक कॉमरेड." शबाना की बुलंदी में उनके अति प्रगतिशील पिता की सोच का बहुत ज्यादा योगदान है . हालांकि शबाना का दावा है कि उन्हें बचपन में राजनीति में कोई रूचि नहीं थी, वे अखबार भी नहीं पढ़ती थी. लेकिन सच्चाई यह है कि वे राजनीति में रहती थी. उनका बचपन मुंबई के रेड फ्लैग हाल में बीता था. रेड फ्लैग हाल किसी एक इमारत का नाम नहीं है . वह गरीब आदमी के लिए लड़ी गयी बाएं बाजू की लड़ाई का एक अहम मरकज़ है . आठ कमरों और एक बाथरूम वाले इस मकान में आठ परिवार रहते थे . हर परिवार के पास एक एक कमरा था . और परिवार भी क्या थे . इतिहास की दिशा को तय किया है इन कमरों में रहने वाले परिवारों ने. शौकत कैफ़ी ने अपनी उस दौर की ज़िन्दगी को अपनी किताब में याद किया है . लिखती हैं ,' रेड फ्लैग हाल एक गुलदस्ते की तरह था जिसमें गुजरात से आये मणिबेन और अम्बू भाई , मराठवाडा से सावंत और शशि ,यू पी से कैफ़ी,सुल्ताना आपा ,सरदार भाई ,उनकी दो बहनें रबाब और सितारा ,मध्य प्रदेश से सुधीर जोशी , शोभा भाभी और हैदराबाद से मैं . रेड फ्लैग हाल में सब एक एक कमरे के घर में रहते थे. सबका बावर्चीखाना बालकनी में होता था . वहां सिर्फ एक बाथरूम था और एक ही लैट्रीन लेकिन मैंने कभी किसी को बाथ रूम के लिए झगड़ते नहीं देखा."
कैफ़ी आजमी ने अपने बच्चों को संघर्ष की तमीज सिखाई .शायाद इसी लिए उनकी बेटी को  संघर्ष करने में मज़ा आता है . हो सकता है इसकी बुनियाद वहीं रेड  फ्लैग हाल में पड़ गयी हो . रेड फ्लैग हाल के उनके बचपन में जब मजदूर संघर्ष करते थे तो शबाना के माता पिता भी जुलूस में शामिल होते थे. बेटी साथ जाती थी. इसलिए बचपन से ही वे नारे लगा रहे मजदूरों के कन्धों पर बैठी होती थी. चारों तरफ लाल झंडे और उसके बीच में एक अबोध बच्ची. यह बच्ची जब बड़ी हुई तो उसे इन्साफ के खिलाफ खड़े होने की ट्रेनिंग नहीं लेनी पड़ी. क्योंकि वह तो उन्हें घुट्टी में ही पिलाया गया था. शबाना आजमी ने एक बार मुझे बताया था कि लाल झंडे देख कर उनको लगता था कि उन्हें उसी के बीच होना चाहिए था क्योंकि वे तो बचपन से ही वहीं होती थीं .उन्हें दूर दूर तक फहर रहे लाल झंडों को देख कर लगता था ,जैसे शबाना पिकनिक पर आई हों .
  बीसवीं सदी की कुछ  बेहतरीन फ़िल्में कैफ़ी के नाम से पहचानी जाती हैं .हीर रांझा में चेतन आनंद ने सारे संवाद  कविता में पेश करना चाहा और कैफ़ी ने उसे लिखा. राजकुमार के यह फिल्म पता नहीं कहाँ तक पंहुचती अगर प्रिया की जगह को और हेरोइन होती. हकीकत भी कैफ़ी की फिल्म है और गरम हवा भी . कागज़  के फूल , मंथन, कोहरा, सात हिन्दुस्तानी, बावर्ची  , पाकीज़ा ,हँसते ज़ख्म ,अर्थ ,रज़िया सुलतान जैसी फिल्मों को भी कैफ़ी ने अमर कर दिया .
आज दस साल हो गए . जब तक ज़िंदगी है  कैफ़ी आजमी बहुत याद आयेगें.