Friday, July 9, 2010

उदयन शर्मा की याद में लगेगा ११ जुलाई को मेला

शेष नारायण सिंह

११ जुलाई दिन रविवार को नयी दिल्ली में समकालीन पत्रकारिता से जुड़े मुद्दों पर एक अहम सेमिनार का आयोजन किया गया है . दिल्ली में पिछले कई वर्षों से ११ जुलाई के दिन यह सेमिनार आयोजित किया जा रहा है . यह अवसर उदयन शर्मा के जन्मदिन का है और उनके साथी इकठ्ठा होकर उन्हें याद करते हैं . उदयन का देहांत कुछ साल पहले हो गया था लेकिन पुण्यतिथि के दिन कोई कार्यक्रम नहीं होता क्योंकि उदयन शर्मा जैसे जिंदादिल इंसान की शोकसभा तो आयोजित ही नहीं की जा सकती. उदयन शर्मा सत्तर के शुरुआती वर्षों में पत्रकारिता में आये और ३० साल तक सक्रिय रहे. कुशाग्रबुद्धि उदयन शर्मा को उनके दोस्त पंडित जी कहते थे. आगरा के बहुत बड़े पत्रकार स्व श्रीराम शर्मा के बेटे उदयन मूल रूप से समाजवादी थे. आगरा में छात्र जीवन में समाजवादी राजनीति में सक्रिय भी रहे लेकिन बेनेट कोलमैन एंड कंपनी की ट्रेनी जर्नलिस्ट स्कीम में दरखास्त भेजी और चुन लिए गए.यह परीक्षा उन दिनों पत्रकारिता में प्रवेश के लिए सबसे सम्मानजनक परीक्षा हुआ करती थी. लिखित परीक्षा पास करने के बाद जब साक्षात्कार के लिए बम्बई गए तो वहां बहुत सारे उम्मीदवार आये थे . उसी दिन कलकत्ता से आये दो और लड़कों का इंटरव्यू भी था. वहीं परिचय हुआ और तीनों ही चुन लिए गए . एस पी और उदयन को डॉ धर्मवीर भारती के साथ धर्मयुग में भेजा गया जब कि अकबर को अंग्रेज़ी में भेजा गया . उनकी यह दोस्ती ज़िंदगी भर कायम रही. नौजवानों की इस तिकड़ी ने भारतीय पत्रकारिता में नए आयाम जोड़े. बम्बई में जिन दो अन्य नौजवानों से उदयन की मुलाक़ात हुई थी ,उनके नाम हैं एम जे अकबर और सुरेन्द्र प्रताप सिंह .तीनों मित्र किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं. तीनों ने ही बुलंदियां हासिल कीं . एस पी और उदयन अब हमारे बीच नहीं हैं लेकिन हिन्दी पत्रकारिता के आज के बहुत सारे बड़े नाम कभी न कभी इन दोनों के साथ काम कर चुके हैं .

उदयन शर्मा बेजोड़ आदमी थे. रिस्क लेना उनकी फितरत थी . शायद इसीलिए वे ऐन इमरजेंसी में धर्मयुग की अच्छी नौकरी छोड़कर दिल्ली चले आये. प्रभाष जोशी के साथ मिलकर एक अखबार निकाला . सेंसर का ज़माना था . जब पेज बनाकर सेंसर में पास करवाने भेजते तो सारी राजनीतिक खबरें काट दी जातीं, केवल खेलकूद की खबरें बचतीं . गुस्सा आता लेकिन दोनों ही जिद्दी थे. जमे रहे. बाद में जब एस पी,आनंद बाज़ार ग्रुप की पत्रिका 'रविवार' निकालने कलकत्ता गए तो उदयन भी उसी में शामिल हो गए. उसके बाद तो हिन्दी पत्रकारिता में जमी जमाई गंभीर पत्रिका , दिनमान की विदाई का राग शुरू हो गया. कहीं कोई टिक ही नहीं पाया. बाद मेंजब एस पी नवभारत टाइम्स में चले गए तो उदयन शर्मा सम्पादक हुए और रविवार की वह हैसियत बनी जो किसी भी प्रकाशन का सपना हो सकता है . . खतरों से खेलने के शौक़ीन उदयन ने रविवार की संपादकी तब छोडी जब वह टाप पर था. हिन्दी का सन्डे ऑब्ज़र्वर निकाला और जब भारतीय राजनीति में केंद्र सरकार के गठन में गठबंधन युग का प्रारम्भ हो रहा था , उदयन शर्मा दिल्ली के सत्ता के गलियारोंमें बहुत बड़ा नाम थे. देश का कोई भी बड़ा नेता ऐसा नहीं था जो उन्हें न जानता हो लेकिन उन्होंने राजनीतिक संबंधों का प्रयोग हमेशा ख़बरों के लिए किया. उस दौर में जो लोग उनके आगे पीछे घूमा करते थे , उनमें से कई बाद में करोडपती पत्रकार बने . लेकिन हिन्दी पत्रकारिता के इस फकीर की जब मृत्यु हुई तो उनके खाते में कुछ हज़ार रूपये थे और उस से भी ज्यादा उनके क्रेडिट कार्ड पर बकाया था. लेकिन उनके परिवार पर कोई फर्क नहीं पड़ा क्योंकि दोनों बच्चे बहुत ही अच्छी शिक्षा पा चुके थे और काम कर रहे थे . और उनकी पत्नी ने बच्चों को माता पिता की कमी खलने नहीं दी.

उदयन शर्मा समाजवादी सोच के इंसान थे और वह उनकी पत्रकारिता में साफ़ नज़र आता था. वे हमेशा से गंगा- जमुनी तहजीब को भारत की थाती मानते रहे. साम्प्रदायिक ताक़तों का उन्होंने ऐलानिया विरोध किया और उनकी राजनीति की खामियों को हमेशा ही उजागर करते रहे. जब आर एस एस ने बाबरी मस्जिद के मुद्दे को राजनीतिक मोबिलाइज़ेशन के लिए इस्तेमाल करने का फैसल किया तो पंडित जी की पत्रकारिता की बुलंदी का युग था . उन्होंने हिन्दुत्ववादी ताक़तों को हर मोड़ पर टोका और बताया कि यह पब्लिक है सब जानती है . जिस दिन अयोध्या में बाबरी मस्जिद को ज़मींदोज़ किया गया , पंडित जी किसी अखबार के मुलाजिम नहीं थे . उनका कालम बहुत सारे हिन्दी अखबारों में छपता था . ६ दिसंबर १९९२ के बाद कुछ दिन तक ऐसा माहौल बन गया था कि लगता था कि देश एक बार फिर टूट जाएगा .. उन दिनों मेरी भी नौकरी छूटी हुई थी . मैं उनके साथ ही दिन भर रहता था. मैंने देखा है कि पंडित जी अनिष्ट की आशंका से उद्विग्न हो उठते थे . एक दिन एकाएक बोल पड़े , मदर टेरेसा को गांधी समाधि पर बुलाते हैं . बस शुरू हो गयी कोशिश और राजघाट पर उन दिन हर वह आदमी आया जो साम्प्रदायिक ताक़तों के खतरे से डरा हुआ था. दिसंबर की धुप में दिन भर महात्मा गाँधी की समाधि के आस पास लोग आते रहे , जाते रहे . रामधुन बजती रही . देश का बड़े से बड़े इंसान वहां आया क्योंकि उदयन शर्मा ने फोन कर दिया था . जब शाम को लौटे तो बहुत ही आश्वस्त थे . और साम्प्रदायिक ताक़तों से लड़ने की तैयारी शुरू हो चुकी थी. उदयन शर्मा ने बार बार कहा था कि उस दौर में साम्प्रदायिकता फैलाने वालों में आर एस एस तो था ही , शहाबुद्दीन जैसे मुसलमानों ने भी गैर ज़िम्मेदार बयान देकर माहौल को ज़हरीला बनाया था .एक साथ हिन्दू और मुस्लिम साम्प्रदायिकता से लड़ने का उनका फन लाजवाब था. अगर किसी मुद्दे पर कोई शक़ होता तो जानकार से पूछ लेने में उदयन ने कभी संकोच नहीं किया . मैंने उनके घनिष्ठ मित्र और सहयोगी कुरबान अली से उनको बहस करते , झगड़ते और आखिर में कुरबान की बात मान लेते देखा है . एक बार उन्होंने अपने पहले बयान को गलत मान लिया तो उसे भूल जाते थे . नयी बात को पूरी शिद्दत से आगे बढाते थे.

उदयन शर्मा ने जितने नए लोगों को प्रोत्साहन दिया है , शायद ही किसी और ने दिया हो .लेकिन उन्होंने कभी किसी पर एहसान नहीं जताया. और अगर किसी ने उनकी मामूली भी मदद कर दी तो उसको हमेशा याद रखते थे. आज नहीं हैं लेकिन उनके यादों का ज़खीरा उनके साथियों को बहुत दिन तक ताक़त देता रहेगा