Saturday, July 6, 2013

डॉ अम्बेडकर ने कहा था " बाबू जगजीवन राम भारत के चोटी के विचारक,भविष्यद्रष्टा और ऋषि राजनेता हैं ".



शेष नारायण सिंह  

महात्मा गांधी ने जगजीवनराम  बारे में  कहा था कि  " जगजीवन राम  कंचन की भांति खरे और सच्चे हैं . मेरा हृदय इनके प्रति आदरपूर्ण  प्रशंसा से आपूरित है " यह तारीफ़ किसी के लिए भी एक बहुत बड़ी सर्टिफिकेट हो सकती है . जब आज़ादी के लड़ाई  शिखर पर थी तब महात्मा गांधी ने बाबू जगजीवन राम के प्रति यह राय बनायी थी . लेकिन जगजीवन राम ने इसे कभी भी अपने सर पर सवार नहीं होने दिया हमेशा महात्माजी के बताये गए रास्ते पर चलते रहे और कंचन की तरह तप कर भारत राष्ट्र और उसकी संस्थाओं के निर्माण में लगे रहे . जवाहर लाल नेहरू के पहले मंत्रिमंडल के सदस्य रहेजब कामराज योजना आयी तो सरकार से इस्तीफा दिया फिर नेहरू के आवाहन सरकार में आये .  लाल बहादुर शास्त्री की  सरकार में मंत्री रहे ,इंदिरा गांधी के साथ मंत्री रहे .जब  इंदिरा गांधी ने कुछ  क़दम उठाये  तो कांग्रेसी मठाधीशों के वर्ग सिंडिकेट वालों ने इंदिरा गांधी को औकात बताने की योजना पर काम शुरू किया तो वे इंदिरा गांधी एक साथ रहे . उन्होंने कहा कि  पूंजीवादी विचारों से अभिभूत कांग्रेसी अगर इंदिरा गांधी को हटाने में  सफल हो जाते हैं तो कांग्रेस ने जो भी प्रगतिशील काम करना शुरू किया है वह सब ख़त्म हो जाएगा .इसी सोच के तहत उन्होंने चट्टान की तरह इंदिरा गांधी का साथ दिया . कांग्रेस  विभाजन के बाद वे कांग्रेस के अध्यक्ष बने और कांग्रेस का नाम उनके नाम से जोड़कर देखा गया . इंदिरा गांधी जिस कांग्रेस की नेता के रूप में  प्रधानमंत्री बनी थीं उसका नाम कांग्रेस ( जगजीवन राम ) था.  पिछली सदी के सबसे महान राजनेताओं में उनका नाम शुमार किया जाता है .  दलित अधिकारों के संघर्ष का पर्याय बन चुके डॉ भीम राव आंबेडकर ने उनके बारे में जो कहा वह किसी भी भारतीय के लिए गर्व की बात  हो सकती है . बाबासाहेब ने कहा  कि ," बाबू जगजीवन राम भारत के  चोटी के विचारक,भविष्यद्रष्टा  और ऋषि  राजनेता  हैं जो सबके कल्याण की सोचते हैं ".

इतनी सारी खूबियों के बावजूद बाबू जगजीवन राम ने कभी भी सफलता को अंतिम लक्ष्य  नहीं माना .अपने जीवन एक अंतिम क्षण तक उन्होंने लोकतंत्र , समानता  और इंसानी सम्मान के लिए प्रयास किया . ," बाबू जगजीवन राम भारत के  चोटी के विचारक,भविष्यद्रष्टा  और ऋषि  राजनेता  हैं जो सबके कल्याण की सोचते हैं” . यह बता ऐतिहासिक रूप से  साबित हो चुकी है कि जब बाबू जगजीवन राम ने कांग्रेस से किनारा किया तो कांग्रेस के सबसे पक्के वोट बैंक ने कांग्रेस से अपने आपको अलाग कर लिया था. जानकार बताते हैं कि अगर १९७७ की फरवरी में बाबू जगजीवन राम ने कांग्रेस से इस्तीफ़ा न दिया होता तो कांग्रेस  को १९७७ न देखना पड़ा होता .इस पहेली को समझने के लिए समकालीन इतिहास पर नज़र डालना ज़रूरी है .
२४ मार्च १९७७ के दिन मोरारजी देसाई ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी.कांग्रेस की स्थापित सत्ता के खिलाफ जनता ने फैसला सुना दिया था .अजीब इत्तफाक है कि देश के राजनीतिक इतिहास में इतने बड़े परिवर्तन के बाद सत्ता के शीर्ष पर जो आदमी स्थापित किया गया वह पूरी तरह से परिवर्तन का विरोधी था. मोरारजी देसाई तो इंदिरा गाँधी की कसौटी पर भी दकियानूसी विचारधारा के राजनेता थे लेकिन इंदिरा गाँधी की इमरजेंसी की सत्ता से मुक्ति की अभिलाषा ही आम आदमी का लक्ष्य बन चुकी थी इसलिए जो भी मिला उसे स्वीकार कर लिया . उत्तर भारत में कांग्रेस के खिलाफ जनता खड़ी हो गयी थी .जो भी कांग्रेस के खिलाफ खड़ा हुआ उसको ही नेता मान लिया . कांग्रेस को हराने के बाद जिस जनता पार्टी के नेता के रूप में मोरारजी देसाई ने सत्ता संभाली थी चुनाव के दौरान उसका गठन तक नहीं हुआ था. सत्ता मिल जाने के बाद औपचारिक रूप से १ मई १९७७ के दिन जनता पार्टी का गठन किया गया था .
कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने की फौरी कारण तो इमरजेंसी की ज्यादतियां थीं .इमरजेंसी में तानाशाही निजाम कायम करके इंदिरा गाँधी ने अपने एक बेरोजगार बेटे को सत्ता थमाने की कोशिश की थी . उस लड़के ने इंदिरा गाँधी के शासन काल में सरकार के फैसलों दखल देना शुरू कर दिया था .वह पूरी तरह से मनमानी कर रहा था . इमरजेंसी लागू होने के बाद तो वह और भी बेकाबू हो गया . कुछ चापलूस टाइप नेताओं और अफसरों को काबू में करके उसने पूरे देश में मनमानी का राज कायम कर रखा था. इमरजेंसी लगने के पहले तक आमतौर पर माना जाता था कि कांग्रेस पार्टी मुसलमानों और दलितों की भलाई के लिए काम करती थी . इमरजेंसी में दलितों और मुसलमानों के प्रति कांग्रेस का जो रुख सामने आया ,वह बहुत ही डरावना था . दोनों ही वर्गों पर खूब अत्याचार हुए . देहरादून के दून स्कूल में कुछ साल बिता चुके इंदिरा गाँधी के उसी बेटे ने ऐसे लोगों को कांग्रेस की मुख्यधारा में ला दिया था जिसकी वजह से कांग्रेस का पुराना स्वरुप पूरी तरह से बदल गया . संजय गांधी के कारण  कांग्रेस ऐलानियाँ सामंतों और उच्च वर्गों की हितचिन्तक पार्टी बन चुकी थी. ऐसी हालत में दलितों और मुसलमानों ने उत्तर भारत में कांग्रेस से किनारा कर लिया . नतीजा दुनिया जानती है . कांग्रेस उत्तर भारत में पूरी तरह से हार गयी और केंद्र में पहली बार गैरकांग्रेसी सरकार स्थापित हुई .लेकिन सत्ता में आने के पहले ही कांग्रेस के खिलाफ जीत कर आई पार्टियों ने अपनी दलित विरोधी मानसिकता का परिचय दे दिया . जनता पार्टी की जीत के बाद जो नेता चुनाव जीतकर आये उनमें सबसे बुलंद व्यक्तित्व बाबू जगजीवन राम का था . आम तौर पर माना जा रहा था कि प्रधानमंत्री पद पर उनको ही बैठाया जाएगा लेकिन जयप्रकाश नारायण के साथ कई दौर की बैठकों के बाद यह तय हो गया कि जगजीवन राम को जनता पार्टी ने किनारे कर दिया हैजो सीट उन्हें मिलनी चाहिए थी वह यथास्थितिवादी राजनेता मोरारजी देसाई को दी गयी . इसे उस वक़्त के प्रगतिशील वर्गों ने धोखा माना था . आम तौर पर माना जा रहा था कि एक दलित और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी को प्रधानमंत्री पद पर देख कर सामाजिक परिवर्तन की शक्तियां और सक्रिय हो जायेगीं . जिसका नतीजा यह होता कि सामाजिक परिवर्तन का तूफ़ान चल पड़ता और राजनीतिक आज़ादी का वास्तविक लक्ष्य हासिल कर लिया गया होता . जिन लोगों ने इमरजेंसी के दौरान देश की राजनीतिक स्थिति देखी है उन्हें मालूम है कि बाबू जगजीवन राम के शामिल होने के पहले सभी गैर कांग्रेसी नेता मानकर चल रहे थे कि समय से पहले चुनाव की घोषणा इंदिरा गाँधी ने इसलिए की थी कि उन्हें अपनी जीत का पूरा भरोसा था. विपक्ष की मौजूदगी कहीं थी ही नहीं .जेलों से जो नेता छूट कर आ रहे थे ,वे आराम की बात ही कर रहे थे. ,सबकी हिम्मत पस्त थी लेकिन २ फरवरी १९७७ के दिन सब कुछ बदल गया . जब इंदिरा गाँधी की सरकार के मंत्री बाबू जगजीवन राम ने बगावत कर दी . सरकार से इस्तीफ़ा देकर कांग्रेस फार डेमोक्रेसी बना डाली उनके साथ हेमवती नन्दन बहुगुणा और नंदिनी सत्पथी भी थे . उसके बाद तो राजनीतिक तूफ़ान आ गया . इंदिरा गाँधी के खिलाफ आंधी चलने लगी और वे रायबरेली से खुद चुनाव हार गयीं . सबको मालूम था कि १९७७ के चुनाव में उत्तर भारत के दलितों ने पूरी तरह से कांग्रेस के खिलाफ वोट दिया था लेकिन जब बाबू जगजीवन राम को प्रधानमंत्री बनाने की बात आई तो सबने कहना शुरू कर दिया कि अभी देश एक दलित को प्रधानमंत्री स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है .मीडिया में भी ऐसे ही लोगों का वर्चस्व था जो यही बात करते रहते थे . और इस तरह एक बड़ी संभावित सामाजिक क्रान्ति को कुचल दिया गया . जनाकांक्षाओं पर मोरारजी देसाई का यथास्थितिवादी बुलडोज़र चल गया . उसके बाद शासक वर्गों के हितों के रक्षक जनहित की बातें भूल कर अपने हितों की साधना में लग गए . जनता पार्टी में आर एस एस के लोग भी भारी संख्या में मौजूद थे . ज़ाहिर है उनकी ज़्यादातर नीतियों का मकसद सामंती सोच वाली सत्ता को स्थापित करना था. जिसकी वजह से जनता पार्टी राजनीतिक विरोधाभासों का पुलिंदा बन गयी और इंदिरा गाँधी की राजनीतिक कुशलता के सामने धराशायी हो गयी . जो सरकार पांच साल के लिए बनाई गयी थी वह दो साल में ही तहस नहस हो गयी . 
लेकिन जनता पार्टी की दलित और मुसलमान विरोधी मानसिकता को एक भावी राजनीतिक विचारक ने भांप लिया था. और इन वर्गों को एकजुट करने के काम में जुट गए थे. १९७१ में ही वंचितों के हक के पैरोकारकांशीराम ने दलित ,पिछड़े और अल्पसंख्यक सरकारी कर्मचारियों के हित के लिए काम करना शुरू कर दिया था. उन्होंने डॉ अंबेडकर के महापरिनिर्वाण दिवस,६ दिसंबर के दिन १९७८ में नई दिल्ली के बोट क्लब पर दलित ,पिछड़े और अल्पसंख्यक कर्मचारियों के फेडरेशन का बहुत बड़ा सम्मलेन किया  बामसेफ नाम का यह संगठन वंचित तबक़ों के कर्मचारियों में बहुत ही लोकप्रिय हो गया था . शुरू में तो यह इन वर्गों के कर्मचारियों के शोषण के खिलाफ एक मोर्चे के रूप में काम करता रहा लेकिन बाद में इसी संगठन के अगले क़दम के रूप में दलित शोषित समाज संघर्ष समिति यानी डी एस फोर नाम के संगठन की स्थापना की गई. इस तरह जनता पार्टी के जन्म से जो उम्मीद बंधी उसके निराशा में बदल जाने के बाद दलितों के अधिकारों के संघर्ष का यह मंच सामाजिक बराबरी के इतिहास में मील का एक पत्थर बना. जनता पार्टी जब यथास्थिवाद की बलि चढ़ गयी तो कांशी राम ने सामाजिक बराबरी और वंचित वर्गों के हितों के संगर्ष के लिए एक राजनीतिक मंच की स्थापना की और उसे बहुजन समाज पार्टी का नाम दिया . बाद में यही पार्टी पूरे देश में पुरातनपंथी राजनीतिक और समाजिक् सोच को चुनौती देने के एक मंच में रूप में स्थापित हो गयी. इस तरह हम देखते हैं कि हालांकि मोरारजी देसाई का प्रधानमंत्री बनना देश के राजनीतिक इतिहास में एक कामा की हैसियत भी नहीं रखता लेकिन उनका सत्ता में आना सामाजिक बराबरी के संघर्ष के इतिहास में एक बहुत बड़े रोड़े के के रूप में हमेशा याद किया जाएगा . यह भी सच है कि जगजीवन राम के कांग्रेस से अलग होने के बाद सामाजिक  परिवर्तन की जो संभावना बनी थी वह मोरारजी देसाई के प्रधानमंत्री बनने के बाद शून्य में बदल गयी .