Thursday, November 12, 2009

भ्रष्ट तंत्र के खिलाफ जनता का लामबंद होना ज़रूरी

शेष नारायण सिंह

कर्नाटक में सत्ता का संघर्ष चल रहा है. हो सकता है कि आज सब कुछ ठीक ठाक हो जाए.मुख्य मंत्री बने रहें और उनके विरोधी भी खुश हो जाएँ. एक सत्ता का संघर्ष पिछले १५ दिनों से महाराष्ट्र में चल रहा था , वहां भी सब कुछ निपट गया . अब सब शान्ति शान्ति है. हरियाणा में भी सत्ताधारी पार्टी के खातेमें बहुमत से कुछ कम सीटें आ गयी थीं तो वहां भी सत्ता में कुछ चिंता के बादल घिर आये थे ,वहां भी सब कुछ संभाल लिया गया. सभी निर्दलियों को मंत्री बना दिया गया. सब अमन चैन है. उत्तर परदेश में सत्ता की शीर्ष पर बैठी दलित अस्मिता की पहचान बन चुकी नेता भी कुछ कष्ट में चल रही हैं . उनके दुश्मनों ने कहीं से ढूंढ निकाला है कि उनके पास जो धन दौलत है , वह उनके घोषित आमदनी के साधनों से बहुत ज्यादा है.. झारखण्ड के एक पूर्व मुख्यमंत्री आजकल बीमार हैं जहां से वे सीधे जेल जायेंगें क्योंकि सत्ता में बिताये गए कीब २ वर्षों में उन्होंने इतनी दौलत इकठ्ठा कर ली कि उनके दुश्मनों को गुस्सा आ गया और उनकी सारी पोल खुल गयी. उनके साथ उनके गिरोह के कुछ और लोग भी पकडे जा सकते हैं . झारखण्ड वाले बाबूजी का खेल तो कुछ इतना दिलचस्प है कि उनकी संपत्ति की हनक पूरी दुनिया में महसूस की जा रही है. अबू धाबी के एम के माल से लाकर लाइबेरिया और थाईलैंड तक उनके रूपयों की खनक महसूस की जा रही है . लेकिन उनकी दौलत की कृपा से मुंबई में भी एक घर में उदासी छा गयी है. झारखण्ड के एक मधु कोडा मार्गी मंत्री के मुंबई वाले रिश्तेदार मंत्री बनते बनते रह गए क्योंकि दुश्मनों ने जनपथ में विराजमान सत्ता की अधिष्ठात्री को बता दिया था कि झारखण्ड से निकला रूपया मुंबई में भी काम कर रहा है. पश्चिम बंगाल में भी सत्ता का एक खतरनाक खेल खेला जा रहा है . वहां तो पिछले ३३ साल से गद्दी पर विराजमान वामपंथियों को खदेड़ने के लिए आतंकवादियों तक की मदद ली जा रही है ..

मुराद यह है सत्ता के खेल में हर जगह उठा पटक मची है . यहाँ गौर करने की बात यह है कि इस खेल में हर पार्टी के बन्दे शामिल हैं और सत्ता हासिल करने के लिए कुछ भी करने पर आमादा हैं. सत्ता के प्रति इस दीवानगी की उम्मीद संविधान निर्माताओं को नहीं थी वरना शायद इसका भी कुछ इंतज़ाम कर दिया गया होता. आज़ादी के बाद जब सरदार पटेल अपने गाव गए ,तो कुछ महीनों तक वहीं रह कर आराम करना चाहते थे लेकिन नहीं रह सके क्योंकि जवाहरलाल नेहरु को मालूम था कि देश की एकता का काम सरदार के बिना पूरा नहीं हो सकता. इस तरह के बहुत सारे नेता थे जो सत्ता के निकट भी नहीं जाना चाहते थे. १९५२ के चुनाव में ऐसे बहुत सारे मामले हैं जहां कांग्रेस ने लोगों को टिकट दे दिया और वे लोग भाग खड़े हुए , कहीं रिश्तेदारी में जा कर छुप गए और टिकट किसी और को देना पड़ा लेकिन वह सब अब सपना है . अब वैसा नहीं होता . ६० के दशक तक चुनाव लड़ने के लिए टिकट मांगना अपमान समझा जाता था . पार्टी जिसको ठीक समझती थी , टिकट दे देती थी . ७० के दशक में उस वक़्त की प्रतिष्ठित पत्रिका दिनमान ने जब टिकट याचकों को टिकटार्थी नाम दिया तो बहुत सारे लोग इस संबोधन से अपमानित महसूस करते थे. लेकिन ८० के दशक तक तो टिकटार्थी सर्व स्वीकार्य विशेषण हो गया. लोग खुले आम टिकट माँगने लगे, जुगाड़बाजी का तंत्र शुरू हो गया. इन हालात को जनतंत्र के लिए बहुत ही खराब माना जाता था लेकिन अब हालात बहुत बिगड़ गए हैं . जुगाड़ करके टिकट माँगने वालों की तुलना आज के टिकट याचकों से की जाए तो लगेगा कि वे लोग तो महात्मा थे क्योंकि आजकल टिकट की कीमत लाखों रूपये होती है. दिल्ली के कई पडोसी राज्यों में तो एक पार्टी ने नियम ही बना रखा है कि करीब १० लाख जमा करने के बाद कोई भी व्यक्ति टिकट के लिए पार्टी के नेताओं के पास हाज़िर हो सकता है . उसके बाद इंटरव्यू होता है जिसके बाद टिकट दिया जाता है यानी टिकट की नीलामी होती है. ज़ाहिर है इन तरीकों से टिकट ले कर विधायक बने लोग लूट पाट करते हैं और अपना खर्च निकालते हैं . इसी खर्च निकालने के लिए सत्ता के इस संघर्ष में सभी पार्टियों के नेता तरह तरह के रूप में शामिल होते हैं .सरकारी पैसे को लूट कर अपने तिजोरियां भरते हैं और जनता मुंह ताकती रहती है . अजीब बात यह है कि दिल्ली में बैठे बड़े नेताओं को इन लोगों की चोरी बे-ईमानी की ख़बरों का पता नहीं लगता जबकि सारी दुनिया को मालूम रहता है.

इसी लूट की वजह से सत्ता का संघर्ष चलता रहता है .सत्ता के केंद्र में बैठा व्यक्ति हजारों करोड़ रूपये सरकारी खजाने से निकाल कर अपने कब्जे में करता रहता है. और जब बाकी मंत्रियों को वह ईमानदारी का पाठ पढाने लगता है तो लोग नाराज़ हो जाते हैं और मुख्यमंत्री को हटाने की बात करने लगते हैं . कर्णाटक की लड़ाई की यही तर्ज है.. झारखण्ड की कहानी में एक अनुभवहीन नेता का चरित्र उभर कर सामने आता है जिसने चोरी की कला में महारत नहीं हासिल की थी . जबकि महाराष्ट्र और हरियाणा में सत्ता के संघर्ष में सरकारी पैसा झटकने के गुणी लोगों की बारीक चालों का जो बांकपन देखने को मिला वह झारखण्ड जैसे राज्यों में बहुत समय बाद देखा जाएगा.
सवाल पैदा होता है कि यह नेता लोग जनता के पैसे को जब इतने खुले आम लूट रहे होते हैं तो क्या सोनिया गाँधी, लाल कृष्ण आडवाणी. प्रकाश करात, लालू यादव , मुलायम सिंह यादव , मायावती , करूणानिधि , चन्द्रबाबू नायडू , फारूक अब्दुल्ला जैसे नेताओं को पता नहीं लगता कि वे अपनी अपनी पार्टी के चोरों को समझा दें कि जनता का पैसा लूटने वालों को पार्टी से निकाल दिया जाएगा. लेकिन यह इस देश का दुर्भाग्य है कि इन सारे नेताओं को सब कुछ पता रहता है और यह लोग भ्रष्ट लोगों को सज़ा देने की बात तो खैर सोचते ही नहीं, उनको बचाने की पूरी कोशिश करते हैं . हाँ अगर बात खुल गयी और पब्लिक ओपीनियन के खराब होने का डर लगा तो उसे पद से हटा देते हैं . सजा देने की तो यह लोग सोचते ही नहीं, अपने लोगों को बचाने की ही कोशिश में जुट जाते हैं . यह अपने देश के लिए बहुत ही अशुभ संकेत हैं . जब राजनीतिक सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग भ्रष्टाचार को उत्साहित करने लगें तो देश के लिए बहुत ही बुरी बात है. लेकिन अगर भारत को एक रहना है तो इस प्रथा को ख़त्म करना होगा . हम जानते हैं कि यह बड़े नेता अपने लोगों को तभी हटाते हैं जब कि पब्लिक ओपीनियन इनके खिलाफ हो जाए. यानी अभी आशा की एक किरण बची हुई है और वह है बड़े नेताओं के बीच पब्लिक ओपीनियन का डर . इसलिए सभ्य समाज और देशप्रेमी लोगों की जमात का फ़र्ज़ है कि वह पब्लिक ओपीनियन को सच्चाई के साथ खड़े होने की तमीज सिखाएं और उसकी प्रेरणा दें. लेकिन पब्लिक ओपीनियन तो तब बनेगे जब राजनीति और राजनेताओं के आचरण के बारे में देश की जनता को जानकारी मिले. जानकारी के चलते ही १९२० के बाद महात्मा गाँधी ने ताक़तवर ब्रितानी साम्राज्यवाद को चुनौती दी और अंग्रेजों का बोरिया बिस्तर बंध गया. . एक कम्युनिकेटर के रूप में महात्मा गाँधी की यह बहुत बड़ी सफलता थी . आज कोई गाँधी नहीं है लेकिन देश के गली कूचों तक इन सत्ताधारी बे-ईमानों के कारनामों को पहुचाना ज़रूरी है . क्योंकि अगर हर आदमी चौकन्ना न हुआ तो देश और जनता का सारा पैसा यह नेता लूट ले जायेंगें .

इस माहौल में यह बहुत ज़रूरी है कि जनता तक सबकी खबर पहुचाने का काम मीडिया के लोग करें. यह वास्तव में मीडिया के लिए एक अवसर है कि वह अपने कर्त्तव्य का पालन करके देश को इन भ्रष्ट और बे-ईमान नेताओं के चंगुल से बचाए रखने में मदद करें. अब कोई महात्मा गाँधी तो पैदा होंगें नहीं, उनका जो सबसे बड़ा हथियार कम्युनिकेशन का था , उसी को इस्तेमाल करके देश में जवाबदेह लोकशाही की स्थापना की जा सकती है . गाँधी युग में भी कहा गया था कि जब 'तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो '. अखबार निकाले गए और ब्रितानी साम्राज्य की तोपें हमेशा के लिए शांत कर दी गयी. इस लिए मीडिया पर लाजिम है कि वह जन जागरण का काम पूरी शिद्दत से शुरू कर दे और जनता अपनी सत्ता को लूट रहे इन भ्रष्ट नेताओं-अफसरों से अपना देश बचाने के लिए आगे आये.

दूध वाले मजनूं कभी खून वाले मजनूं का स्थान नहीं ले सकते

शेष नारायण सिंह

कुछ राज्यों में हुए उप-चुनावों ने भारतीय लोकतंत्र के परिपक्व होते रूप को और मजबूती दी है. इन चुनावों के नतीजों ने यह साफ़ कर दिया है कि जनता के विश्वास पर किसी का एकाधिकार नहीं हो सकता और अब वोटों की ज़मींदारी प्रथा ख़त्म हो रही है. पश्चिम बंगाल से जो नतीजे आये हैं उनसे साफ़ है कि अगर जनता को भरोसेमंद विकल्प मिले तो वह वोट देने में उसका सही इस्तेमाल करने में संकोच नहीं करेगी. वर्षों तक , तृणमूल कांग्रेस को नॉन-सीरियस राजनीतिक ताक़त मानने वाली पश्चिम बंगाल की जनता ने ऐलान कर दिया है कि वह राज करने वाला नौकर बदलने के मूड में है .ममता बनर्जी को अब वहां की जनता ने गंभीरता से लेने का मन बना लिया है .. पिछले ३३ साल के राज में लेफ्ट फ्रंट ने बहुत सारे अच्छे काम किये जिसकी वजह से दिल्ली की हर सरकार की मर्जी के खिलाफ जनता ने कम्युनिस्टों को सत्ता दे रखी थी लेकिन अब जब कि लेफ्ट फ्रंट के नेता लोग गलतियों पर गलतियाँ करते जा रहे हैं तो जनता ने उन्हें सबक सिखाने का फैसला कर लिया है . इन नतीजों के संकेत बहुत ही साफ़ हैं कि जनता ने . राज्य सरकार और लेफ्ट फ्रंट को समझा दिया है कि अगर ठीक से काम नहीं करोगे तो बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा.
उत्तर प्रदेश में हुए उपचुनावों से भी कई तरह के संकेत सामने आ रहे हैं . सबसे बड़ा तो यही कि राज्य में कांग्रेस पार्टी ने अपनी स्वीकार्यता की जो प्रक्रिया लोकसभा चुनावों के दौर में शुरू की थी, उसे और भी मज़बूत किया है . इन नतीजों से साफ़ है कि आगे उत्तर प्रदेश में जब भी चुनाव होंगें, कांग्रेस भी एक संजीदा राजनीतिक ताक़त के रूप में हिस्सा लेगी. . जो दूसरी बात बहुत ही करीने से कह दी गयी है , वह यह कि कोई भी सीट किसी का गढ़ नहीं रहेगी. जनता हर सीट पर अपने आप फैसला करेगी. . उत्तर प्रदेश के नतीजों से कई और बातें भी सामने आई हैं. सबसे बड़ी बात तो यही है कि पिछले कई दशकों से चल रहे जाति के आधार पर वोट लेने या देने की परंपरा को ज़बरदस्त झटका लगा है . इटावा और भरथना की सीटों पर मुलायम सिंह यादव की मर्जी के खिलाफ पड़ा एक एक वोट इस बता की घोषणा है कि जातिगत आधार पर पड़ने वाले वोटों का वक़्त अब अपनी आख़री साँसे ले रहा है. मुलायम सिंह यादव के लिए इस चुनाव से और भी कई संकेत आये हैं. इन् नतीजों ने साफ़ कर दिया है कि धरती पुत्र के रूप में अपनी पहचान बनाने वाले मुलायम सिंह अब जनता के उतने करीब नहीं रहे जितने कि पहले हुआ करते थे. . इस बात में दो राय नहीं है कि इन चुनावों में उनकी बदली हुई सोच को धारदार चेतावनी मिली है . फिरोजाबाद लोक सभा सीट पर उनकी निजी प्रतिष्ठा दांव पर लगी थी . अपने बेटे अखिलेश यादव की खाली हुई सीट पर उन्होंने अपनी बहू को टिकट दे कर अपनी जिन्दगी का सबसे बड़ा राजनीतिक जुआ खेला था. फिरोजाबाद का इलाका उनकी अपनी जाति के लोगों के बहुमत वाला इलाका है. वहां उनके परम्परागत वोटर, मुसलमान भी बड़ी संख्या में हैं .लोकसभा चुनाव २००९ हे दौरान बहुत दिन बाद यह सामान्य सीट बनायी गयी थी . इसके पहले यह रिज़र्व हुआ करती थी और समाजवादी पार्टी के ही रामजी लाल सुमन यहाँ से विजयी हुआ करते थे. लोकसभा २००९ में वे पड़ोस की रिज़र्व सीट आगरा से चुनाव लड़ गए थे . लेकिन हार गए. जब फिरोजाबाद में उपचुनाव का अवसर आया तो मुलायम सिंह यादव को समझने वालों को भरोसा था कि वे उपचुनाव में रामजी लाल को ही उम्मीदवार बनायेगें. लेकिन ऐसा न हुआ. उन्होंने अपनी बहू को टिकट दे दिया. इस एक टिकट ने मुलायम सिंह यादव की राजनीति को आम आदमी की राजनीति के दायरे से बाहर कर दिया..ज़ाहिर है कि किसी भी पुराने साथीको टिकट न देकर अपनी बहू को आगे करना , उनकी नयी राजनीतिक सोच का नतीजा है .. उनके ऊपर इस तरह के आरोप बहुत दिनों से लग रहे थे. उनके कई पुराने साथी उनसे अलग होकर उनके खिलाफ काम काम कर रहे हैं. अजीब इत्तेफाक है कि उन सबकी नाराज़गी एक ही व्यक्ति से है. . जो लोग उनके साथ १९८० से १९८९ के बुरे वक़्त में साथ थे , उनमें से बड़ी संख्या लोग अब उनके खिलाफ हैं. मुख्य मंत्री बनने के बाद उनके साथ बहुत सारे नए लोग जुड़े थे , उनसे यह उम्मीद करना कि वे बहुत दिन तक साथ निभायेंगें ,ठीक नहीं था क्योंकि दूध वाले मजनूं कभी खून वाले मजनूं का स्थान नहीं ले सकते. यह लोग तो सत्ता के केंद्र में बैठे मुलायम सिंह यादव के साथी थे . जब सत्ता नहीं रहेगी तो इन लोगों की कोई ख़ास रूचि नेता के साथ रहने में नहीं रह जायेगी. लेकिन उत्तर प्रदेश के गावों में ,कस्बों में और जिलों में ऐसे लोगों की बड़ी जमात है जो मुलायम सिंह यादव से किसी स्वार्थ साधन की उम्मीद नहीं रखते लेकिन वे उन्हें अपना साथी मानते हैं . भरथना, इटावा और फिरोजाबाद में समाजवादी पार्टी की हार , मुलायम सिंह के उन्हीं दोस्तों की तरफ से साथ छोड़ने का ऐलान है. उन्होंने साफ़ कह दिया है कि भाई , वही पुराना वाला, साथी मुलायम सिंह यादव लाओ वरना हम रास्ता बदलने को मजबूर हो जायेंगें. यह समाजवादी पार्टी के आला नेतृत्व पर निर्भर है कि वह इस संकेत को चेतावनी मानकर इसमें सुधार करने की कोशिश करता है कि इसे नज़रंदाज़ करके आगे की राह पकड़ता है जिसमें कि अनजानी मुश्किले हो सकती हैं .

वर्तमान उपचुनावों के नतीजों से कम से कम उत्तर प्रदेश में एक बात और साफ़ उभरी है कि अगला जो भी चुनाव होगा उसमें कांग्रेस एक मज़बूत ताक़त के रूप में मुकाबले में होगी . इसमें दो राय नहीं है कि मुख्य मुकाबला मायावती की बहुजन समाज पार्टी और मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी में होगा लेकिन कांग्रेस निश्चित रूप से एक अहम् भूमिका निभाने वाली है . फिरोजाबाद के अलावा उतर प्रदेश में जिस दूसरी सीट पर कांग्रेस को जीत हासिल हुई है , वह लखनऊ पश्चिम की विधान सभा सीट है. बी जे पी के बड़े नेता , लालजी टंडन के लोकसभा पंहुंच जाने के बाद यह सीट खाली हुई थी.पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की लोकसभा सीट का हिस्सा, लखनऊ पश्चिम को बी जे पी का गढ़ माना जाता था लेकिन वहां से कांग्रेस की जीत इस बात का पक्का संकेत है कि अगर कांग्रेस वाले अपने नेता राहुल गाँधी की तरह जुट जाएँ तो राज्य की राजनीति में दोबारा महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं. . हाँ , बी जे पी के लिए यह चुनाव निश्चित रूप से बहुत बुरी खबर है . जिस राज्य में बी जे पी ने बाबरी मस्जिद को ढहाया, भव्य राम मंदिर का वादा किया , कई साल तक या तो खुद राज किया और या मायावती को मुख्य मंत्री बना कर रखा वहां पार्टी के उम्मीदवारों की धडाधड ज़मानते ज़ब्त हो रही हैं. ज़ाहिर है बी जे पी की पोल राज्य में खुल चुकी है और अब उसे उत्तर प्रदेश से बहुत ज़्यादा उम्मीद नहीं करनी चाहिए..

उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल के नतीजों से मुसलमानों को वोट बैंक मानने वालों को भी निराशा होगी. इन चुनावों में वोटर कांग्रेस की तरफ खिंचा है . बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद, आम तौर पर मुसलमान कांग्रेस से दूर चला गया था क्योंकि , उस कारनामें में वह बी जे पी के साथ साथ उस वक़्त के कांग्रेसी प्रधानमंत्री पी वी नरसिम्हा राव को भी बराबर का जिम्मेदार मानता था लेकिन इस बार यह संकेत बहुत साफ़ है कि वह अब बी जे पी के अलावा किसी को भी वोट देने से परहेज़ नहीं करेगा.. हर बार की तरह यह चुनाव पार्टियों के केंद्रीय नेतृत्व की दशा दिशा पर भी फैसला है. केरल और पश्चिम बंगाल में लेफ्ट फ्रंट की हार का एक संकेत यह भी है क उन् राज्यों में पार्टी के कार्यकर्ता दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं . उनकी नज़र में लेफ्ट फ्रंट की सबसे बड़ी पार्टी का आला नेता कमज़ोर है और वह मनमानी करने का शौकीन है.. केंद्र सरकार को परमाणु मुद्दे पर घेरने की असफल कोशिश, पूर्व लोकसभा अध्यक्ष , सोमनाथ चटर्जी के साथ अपमान पूर्ण व्यवहार, केरल की राजनीति में गुटबाजी को न केवल प्रोत्साहन देना बल्कि उसमें शामिल हो जाना , पार्टी के आला अफसर के रिपोर्ट कार्ड में ऐसे विवरण हैं जो उसे फ़ेल करने के लिए काफी हैं लेकिन वह जमा हुआ है . शायद इसी लिए जनता ने पार्टी के बाकी नेताओं को यह चेतावनी दी है कि अगर पार्टी को बचाना है तो फ़ौरन कोई कार्रवाई करो वरना बहुत देर हो जायेगी.