Saturday, August 24, 2013

भारत के चुनाव सुधार कार्यक्रम में नार्वे की चुनाव प्रक्रिया से सबक लिया जा सकता है


शेष नारायण सिंह

 नार्वे के संसदीय चुनावों में सत्ताधारी लेबर पार्टी ताज़े चुनाव  चुनाव सर्वेक्षणों में अपनी स्थिति में सुधार कर रही है . अब तक यह मध्यमार्गी-दक्षिणपंथी विपक्षी चुनौती के सामने लड़खड़ा रही थी . प्रधानमंत्री येंस स्तूलतेंबर्ग की लेबर पार्टी अब नार्वे की सबसे लोकप्रिय पार्टी हो गयी है . टी वी २ टेलिविज़न के नए सर्वे के अनुसार प्रधानमंत्री की अपनी पार्टी तो आगे चली गयी  है लेकिन उनकी अगुवाई वाला गठबंधन अभी भी पीछे चल रहा है . इस गठबंधन में लेबर पार्टी के अलावा सेंटर पार्टी और सोशलिस्ट लेफ्ट पार्टी भी शामिल हैं .येंस स्तूलतेंबर्ग की यही स्थिति चार साल पहले हुए चुनावों में भी थी लेकिन बहुत ही आश्चर्यजनक तरीके से उन्होने चुनाव में वापसी की थी और उनका गठबंधन विजयी रहा था .
अभी कुछ दिन पहले हुए सर्वे में  लेबर पार्टी को ३०.२ प्रतिशत वोटरों का समर्थन रिकार्ड किया गया था जबकि ताज़े सर्वे में उसे ३१.८ प्रतिशत का समर्थन मिल रहा है . पिछले सर्वे में सत्ताधारी पार्टी की मुख्य चैलेंजर ,अर्ना सोलबर्ग की कंज़रवेटिव पार्टी को २९.४ प्रतिशत समर्थन मिल रहा था जो कि इस बार घटकर २६.८ प्रतिशत रह गया है . लेकिन लेबर पार्टी के अन्य सहयोगी दल पिछड़ गए हैं .टी वी २ के सर्वे के अनुसार अगर नतीजे आये तो प्रधानमंत्री येंस स्तूलतेंबर्ग के गठबंधन को केवल ७४ सीटें मिलेगीं जबकि सरकार बनाने लायक बहुमत के लिए ८५ सीट ज़रूरी होता है . मौजूदा सर्वे एक अनुसार अर्ना सोलबर्ग की अगुवाई वाले गठबंधन को ९३ सीट मिल सकती है .ऐसी हालत में आठ साल के अंतराल के बाद नार्वे में दक्षिणपंथी सरकार बनेगी . लेकिन अभी बहुत जल्दी है . अभी  वास्तविक मतदान होने में दो हफ्ते बाकी हैं और राजनीतिक हालात के बदलाव के लिए दो हफ्ते बहुत होते हैं .
इस बीच यहाँ ओस्लो में आज एक चुनावी सभा में शामिल होने का मौक़ा मिला. इस चुनावी सभा की तुलना अपने देश की चुनाव सभाओं से  करना बहुत ही दिलचस्प हो सकता है .पुराने ओस्लो के फ्रागनर प्लास की एक चर्च में नार्वेजियन-रूसी सांस्कृतिक केन्द्र ने एक चुनावी सभा का आयोजन किया था . सभा बड़ी थी क्योंकि करीब ४० गंभीर श्रोता नौजूद थे . नार्वे के लिहाज़ से अगर किसी चुनावी सभा में २५ लोग शामिल हो जाएँ तो उसे सफल माना जाता है . नार्वेजियन-रूसी सांस्कृतिक केन्द्र की नेता रईसा सिरुकोवा ने हमें बताया कि उन्होंने अपने इलाके के लोगों के सवालों और शंकाओं के बारे में राजनीतिक नेताओं की राय जानने के लिए इस सभा का आयोजन किया है . नार्वेजियन-रूसी सांस्कृतिक केन्द्र रूसी मूल के उन लोगों की सभा है जो अब बाकायदा नार्वे के नागरिक हैं और कई लोग तो ऐसे थे जिनके पूर्वज यहाँ आकर सदियों पहले बस गए थे .यहाँ संसद का चुनाव जितना  महत्वपूर्ण  राजनीतिक पार्टियों के लिए होता है उससे कम महत्वपूर्ण मतदाताओं के लिए नहीं होता . फ्रागनर प्लास की सभा में अपनी बात रखने के लिए चार प्रमुख पार्टियों के नेताओं को बुलाया गया था .नार्वे के चुनाव में  कोई किसी इलाके का  उम्मीदवार तो होता नहीं क्योंकि नार्वे में निर्वाचन का आनुपातिक प्रतिनिधित्व का तरीका  अपनाया जाता है ,इसलिए सभी राजनीतिक पार्टियां इस तरह की कम्युनिटी आधारित चुनावी सभाओं में अपने  बहुत काबिल लोगों को भेजती हैं . सभी पार्टियों के प्रतिनिधि अपनी बात कहते हैं उसके बाद सवाल जावाब का सिलसिला शुरू होता है . फ्रागनर प्लास की सभा ६ बजे शाम को शुरू  हुई थी और रात के साढ़े आठ बजे तक सवाल जवाब का सिलसिला चलता रहा . इस सभा में लेबर पार्टी की तरफ से उसकी सांसद मारित नीबाक आयी थीं जो स्तूर्तिंग यानी नार्वेजियन संसद की डिप्टी स्पीकर हैं . लेबर पार्टी को यहाँ पर आम तौर पर ए पी नाम से जाना जाता है . मारित नीबाक ,नॉर्डिक कौंसिल की  सलाहकार समिति की अध्यक्ष भी हैं  . नार्डिक काउन्सिल वास्तव में स्कैंडेनेविया के देशों के साथ कुछ अन्य देशों का संगठन भी  है . फ्रागनर प्लास की सभा में सत्ताधारी दल की प्रतिनिधि के रूप में उन्होंने बहुत ही गंभीरता पूर्वक बात की और कहा कि आठ साल पहले २००५ के चुनावों के बाद प्रधानमंत्री येंस स्तूलतेंबर्ग  की सरकार सत्ता में आयी थी . तब से अब तक ३ लाख ४० हज़ार लोगों को रोज़गार मिला है . उन्होंने कहा कि  उनकी पार्टी नार्वेजी मूल्यों की संरक्षण के प्रति पूरी तरह से प्रतिबद्ध है .स्त्री पुरुष की बराबरी की सबसे बड़ी समर्थक राजनीतिक जमात के रूप में अपनी पार्टी के इतिहास को उन्होंने रेखांकित किया और कहा कि लेबर पार्टी आगे भी इसी तरह का काम करती रहेगी . उनकी पार्टी जब भी सत्ता में रही है , प्रवासियों का नार्वे के समाज में सबसे ज़्यादा इंटेग्रेशन हुआ है .लेबर पार्टी बराबरी ,शिक्षा,स्वतंत्रता ,सामूहिक सुरक्षा, सबके लिए सामान स्कूल जैसी लोकतांत्रिक बुनियादी मूल्यों को हमेशा महत्व देती रहेगी.
कंज़रवेटिव पार्टी के प्रतिनिधि मिकायल थेच्नेर ने अर्थव्यस्था में निजी पूंजी को मुक्तिदाता के रूप में पेश किया . कंज़रवेटिव पार्टी को यहाँ होयरे  पार्टी कहते हैं , यही उसका मान्यताप्राप्त नाम है. उनके भाषण को सुनकर लगा कि उन्होंने या उनकी पार्टी के नेताओं ने उसी स्कूल से अर्थशास्त्र की पढाई की है जहां डॉ मनमोहन सिंह और मांटेक अहलूवालिया गए थे .उन्होंने कहा कि सार्वजनिक  निवेश को कम किया जाना चाहिए और निजी पूंजी को बढ़ावा दिया जाना चाहिए . पूंजीवादी,दक्षिणपंथी राजनीतिक अर्थशास्त्र में जो कुछ भी बताया गया है, वह सब इस पार्टी के कार्यक्रम में है . कम से कम सरकारी हस्तक्षेप और अधिक से अधिक बाज़ार की ताक़तों के समर्थन के बाद श्रोताओं में बैठे हुए लोगों में बहुत लोग ऐसे थे जो मिकायल थेच्नेर की बात से असहज महसूस कर रहे थे लेकिन उन्होंने अपनी बात को मजबूती से रखा और टस से मस होने को तैयार नहीं थे. अजीब बात यह है कि उनके इस दृष्टिकोण के बाद भी उनकी पार्टी के गठबंधन को सफलता के शुरुआती संकेत मिल रहे हैं .
कंजर्वेटिव पार्टी के साथ चुनाव पूर्व समझौते में शामिल एफ आर पी ने अपने प्रतिनिधि क्रिस्तियान थीब्रिंग येद्दे को भेजा था . एफ आर पी का दूसरा नाम लिबरल पार्टी भी है लेकिन उस पार्टी के सिद्धांतों में कुछ भी लिबरल नहीं है . शुद्ध रूप से पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की समर्थक एफ आर पी में ऐसा बहुत कुछ है जो उसे कट्टर राष्ट्रवादी पार्टी के रूप में पेश कर देता है लेकिन अपनी बातों के अलोकप्रिय होने के बावजूद भी  लिबरल पार्टी के प्रतिनिधि ने अपनी बात प्रभावी तरीके से रखी. उन्होंने कहा कि यूरोप के बाहर के देशों के लोगों को नार्वे में बसने की अनुमति नहीं दी जायेगी. यह ध्यान रखा जाएगा कि नार्वे में अश्वेत लोगों की भरमार न हो जाए . एफ आर पी के हिसाब से जो अश्वेत यहाँ आकर बस गए हैं और नागरिक बन गए हैं उनको तो नहीं भगाया जाएगा लेकिन अब और लोगों को यहाँ नहीं आने दिया जाएगा . उन्होंने साफ़ कहा कि अब लोगों के वेतन वृद्धि पर पक्का रोक लगाना पडेगा वरना  व्यक्तियों के हाथ में खर्च करने लायक इतनी ज्यादा रकम जमा हो जाती  है कि कम इनकम वालों के लिए मुसीबत पैदा हो जाती है . एफ आर पी का सुझाव है कि जिन की आमदनी कम हो उनसे टैक्स कम लिया जाना चाहिए लेकिन तनखाह बढाने की राजनीति का हर स्तर पर विरोध किया जाना चाहिए .
सोशलिस्ट-लेफ्ट पार्टी सरकार में शामिल है और लेबर पार्टी का दावा है कि चुनाव के बाद भी साथ साथ  रहेगें  . सोशलिस्ट-लेफ्ट  को नार्वे में एस वी कहते हैं . इनकी प्रवक्ता संसद सदस्य ,रानवाई किविफ्ते के भाषण में आम आदमी की खैरियत का संदेश निकल रहा था . उन्होंने चिंता ज़ाहिर की कि देश में अमीर की दौलत बढ़ रही है जबकि गरीब और भी गरीब होता जा रहा है .उन्होंने दावा किया कि इस गडबडी को ठीक करना पडेगा . पर्यावरण के प्रति सजग रहने की  सरकार की जिम्मेदारी को भी उन्होंने जोर देकर उठाया किया . उन्होंने कहा कि कुछ इलाकों में अभी रेलवे की सिंगल पटरियों को देखा जा सकता है . रानवाई किविफ्ते ने दावा किया कि अगर इस बार उनके  गठबंधन की सरकार बनी तो यह समस्या नहीं रह जायेगी. उन्होंने कहा कि पबलिक ट्रांसपोर्ट व्यवस्था को और चुस्त दुरुस्त करने की ज़रूरत है . सरकारी और गैर सरकारी नौकरियों में अभी बहुत लोगों को टेम्परेरी नौकरी मिली हुई है. रानवाई किविफ्ते ने कहा कि सबके पास पक्की नौकरी होनी चाहिए . नार्वे में बच्चों को बहुत महत्व दिया जाता है इसकेलिए ज़रूरी है कि किंडरगार्डन की संख्या बढ़ाई जानी चाहिए क्योंकि कामकाजी माता-पिता बच्चों को उतना ध्यान नहीं रख पाते जितना कि रखना चाहिए . उन्होंने कहा कि सरकार को चाहिए कि सबके लिए मकान का इंतज़ाम करे लेकिन साथ साथ यह भी सुनिश्चित किया जाए कि अधिक मकान बनाने के चक्कर में केवल बिल्डरों को ही लाभ न मिले .मकान उन लोगों को ही मिलना चाहिए जिनको असल में उसकी ज़रूरत है .
सभी नेताओं के भाषण के बाद श्रोताओं को सवाल करने का मौक़ा दिया गया और सब ने कठिन सवाल पूछे . उसके बादनार्वेजियन-रूसी सांस्कृतिक केन्द्र की नेता रईसा सिरुकोवा ने सभी नेताओं को गुलदस्ता भेंट किया और सब हंसी खुशी के माहौल में अपने अपने घर चले  गए. ४० लोगों की सभा नार्वे में कोई छोटी सभा नहीं मानी जायेगी . ४५ लाख की आबादी वाले देश में ४०-४५ लोगों का वही महत्व है जो १२० करोड आबादी वाले भारत में करीब १ लाख  लोगों का होता है . भारतीय सन्दर्भ में इस सभा को एक लाख की भीड़ माना जाएगा . इस तुलना के बाद भारत में राजनेताओं के आचरण और चुनावी सभा की संस्कृति के बारे में विचार करना ज़रूरी  जाता है . भारत में सुविधाओं के पीछे भागने वाले नेताओं की जमात को लोकशाही की राजनीति में प्रशिक्षित किये जाने की ज़रूरत है . उल जलूल चुनावी वायदे करने वाले नेताओं के लिए यह देखना भी ज़रूरी है कि अलोकप्रिय राजनीति भी अगर पार्टी ने तय कर लिया है तो उसका पालन किया जाना चाहिए . आजकल भारत की दक्षिणपंथी पार्टी और उसके कुछ समर्थकों में यह बात ज़ोरों से चर्चा का विषय है कि जवाहरलाल नेहरू ने संसदीय लोकतंत्र की व्यवस्था को लागू करके बहुत बड़ी गलती की , जो उनको नहीं करना चाहिए था . इसी बहाने यह लोग दक्षिणपंथी अमरीकी चुनाव प्रणाली की मांग की जड़ें पक्की करना चाहते हैं . भारत में दक्षिणपंथी राजनेताओं की गुपचुप तरीकों से लोकतंत्र को खत्म करने की कोशिश पर रोक लगाई जानी चाहिए . नेहरू के खिलाफ अभियान चलाने वालों को आनुपातिक प्रतिनिधित्व का महत्व को समझाया जाना चाहिए और उसके लिए अगर ज़रूरी हुआ तो नार्वे की चुनाव प्रणाली और चुनाव अभियान के तरीकों के बारे में विस्तार से जानकारी दी जानी चाहिए .