शेष नारायण सिंह
पाकिस्तानी अखबार डान के पहले पेज पर खबर छपी है कि पाकिस्तानी फौज के मुखिया, जनरल अशफाक परवेज़ कयानी और आई एस आई के महानिदेशक लेफ्टिनेंट जनरल शुजा पाशा ने मंगलवार को प्रधान मंत्री युसूफ रजा गीलानी के दफ्तर जाकर उनसे मुलाक़ात की . इस बैठक में राजकाज के बहुत सारी बातों के अलावा यह भी तय किया गया कि अफगानिस्तान में सरकार की नीतियों को लागू करने की दिशा में क्या क़दम उठाये जाने हैं . प्रधानमंत्री ने विदेशमंत्री, हिना रब्बानी खार को अफगानिस्तान की यात्रा करने का निर्देश दिया .इस यात्रा का उद्देश्य अमरीका-पाकिस्तान-अफगानिस्तान की शीर्ष बैठक के पहले माहौल ठीक करना भी बताया गया है .
इस खबर का ज़िक्र करने का मतलब यह है कि जहाँ पाकिस्तानी फौज और आई एस आई देश की सबसे ताक़तवर संस्थाएं मानी जाती थीं और अगर किसी नवाज़ शरीफ या किसी ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने उसका हुक्म नहीं माना तो उसे सत्ता से बेदखल कर दिया जाता था, उसी पाकिस्तान में प्रधानमंत्री युसूफ रज़ा गीलानी के सख्त तेवर के बाद आई एस आई और फौज का मुखिया राजकाज के मामलों की चर्चा में शामिल होने के लिए प्रधान मंत्री के यहाँ हाजिरी लगा रहा है . पाकिस्तान के पिछले साठ साल के इतिहास को जानने वाले जानते हैं कि फौज का मुखिया डांट खाने के बाद कभी किसी भी सिविलियन सरकार को सत्ता से बेदखल करने के लिए ही उसके दफतर जाता है .लेकिन पाकिस्तान में भी हालात बदल रहे हैं . चारों तरफ से लोकतंत्र की मजबूती की खबरें आ रही हैं जो पाकिस्तान के लिए तो बहुत अच्छा है ही, भारत और अफगानिस्तान के लिए बहुत अच्छा है, बाकी दुनिया के लिए बहुत अच्छा है .
पाकिस्तान के बारे में पिछले कुछ महीनों से अजीब खबरें आ रही थीं . पाकिस्तानी मामलों के भारत में मौजूद लाल बुझक्कड़ अक्सर बताते रहते हैं कि बहुत जल्द पाकिस्तान में फौजी हुकूमत कायम होने वाली है. लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है . जब से सिविलियन हुकूमत ने फौज को अपनी हद में रहने की हिदायत दी है,उसी वक़्त से बार बार यह चर्चा जोर पकड़ लेती है कि फौज अब फ़ौरन राष्ट्रपति और प्रधान मंत्री की छुट्टी कर देगी और खुद सरकार बन जायेगी. सारी दुनिया में पाकिस्तानी मामलों के जानकार अपनी इस तर्ज़ पर की गयी भविष्यवाणियों के पूरा होने का इंतज़ार करते रहे लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ.पाकिस्तानी मीडिया में भी इस तरह की खबरें रोज़ ही आ रही थीं कि पता नहीं कब क्या हो जाए लेकिन लगता है कि वहां लोकशाही की जड़ें मज़बूत होना शुरू हो गयी हैं .पाकिस्तानी बुद्धिजीवियों को विश्वास होने लगा है कि अब उनके देश में लोकतंत्र के लिए अब पहले से ज़्यादा अवसर मौजूद हैं . हालांकि यह भी हो सकता है कि आने वाले कुछ हफ़्तों में मौजूदा सरकार हटा दी जाए लेकिन सिविलियन हुकूमत के पिछले कुछ हफ़्तों के तेवर ऐसे हैं जो पक्की तरह से लोक शाही की ताकत का सन्देश देते हैं . अगर मौजूदा सरकार चुनाव के पहले नहीं हटाई जायेगी गयी तो पाकिस्तान के इतिहास में पहली सिविलियन सरकार बन जायेगी जिसने अपने पूरा कार्यकाल पूरा किया हो .
पाकिस्तान में सारा विवाद तब शुरू हुआ जब उनकी फौज की नाक के नीचे ओसामा बिन लादेन की मौजूदगी साबित हो गयी जबकि जनरल परवेश मुशर्रफ से लेकर जनरल कयानी तक सभी फौजी कहते रहे थे कि उन्हें नहीं मालूम कि ओसामा कहाँ है. उसके बाद जब सरकार ने फौज को आइना दिखाने की कोशिश की तो सेना मुख्यालय से तख्तापलट के संकेत आने लगे थे . बाद में उसी चक्कर में मेमो काण्ड वाला लफडा भी हुआ . लगने लगा कि सिविलियन हुकूमत के आदेश न मानने के लिए बदनाम पाकिस्तानी फौज अब सरकार की छुट्टी कर देगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ .पाकिस्तान में फौज ने चार बार सिविलियन सत्ता को हटाकर खुद गद्दी पर क़ब्ज़ा किया है . चारों बार सडकों पर टैंक उतार दिए जाते थे, रेडियो और टेलीविज़न पर क़ब्ज़ा कर लिया जाता था और सिविलियन शासक को पकड़ लिया जाता था . इस बार ऐसा संभव नहीं है . आज न्यायपालिका एक मज़बूत सत्ता केंद्र के रूपमें विकसित हो चुकी है , पाकिस्तानी मीडिया भी अपनी भूमिका बहुत ही खूबी से निभा रहा है और आज मीडिया ब्लैक और का सपना देखना किसी ही शासक के लिए संभव नहीं है . पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी को पूरा भरोसा है कि आज फौज की हिम्मत नहीं है कि वह सीधे हस्तक्षेप कर सके.
ओसामा बिन लादेन के मारे जाने के बाद फौज की जो बदनामी हुई उसके बाद से ही ज़रदारी-गीलानी सरकार ने अपनी अथारिटी को स्थापित करना शुरू कर दिया था . उसी जद्दो-जहद में देश में प्रगतिशीलता की दिशा में जितने बदलाव हुए हैं ,उतने पाकिस्तान के इतिहास में कभी नहीं हुए . पाकिस्तान की संसद में पिछले चार महीनों में कुछ ऐसे कानून पास किये गए हैं जिनको देख कर लगता है कि पाकिस्तान में बदलाव ही हवा बह रही है. पाकिस्तान में मानवाधिकारों के संघर्ष के एक महत्वपूर्ण व्यक्ति ,बी एम कुट्टी दिसंबर में मुंबई आये थे .उन्होंने बहुत सारे उदाहरणों के साथ यह बात समझाया कि बहुत दिन बाद पाकिस्तान में लोकशाही की जड़ें जमती दिख रही है . बी एम कुट्टी ने कहा कि यह बहुत संतोष की बात है कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री युसूफ रजा गीलानी आम पाकिस्तानी की उस भावना को आवाज़ दे रहे हैं जिसमें वह चाहता है कि पाकिस्तानी फौज़ को काबू में रखा जाए .
पाकिस्तान में अब आम तौर पर माना जाने लगा है कि फौज की मनमानी पर लगाम लगाई जा सकेगी. पाकिस्तान के चर्चित मेमोगेट काण्ड के बाद जिस तरह से फौज ने सिविलियन सरकार को अर्दब में लेने की कोशिश की थी उसके बाद पाकिस्तान में एक बार फिर फौजी हुकूमत की आशंका बन गयी थी . उसी दौर में राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी को इलाज़ के लिए दुबई जाना पड़ गया था. जिसके बाद यह अफवाहें बहुत ही गर्म हो गयी थीं कि पाकिस्तान एक बार फिर फौज के हवाले होने वाला है . लेकिन प्रधान मंत्री युसफ रज़ा गीलानी ने कमान संभाली और सिविलियन सरकार की हैसियत को स्थापित करने की कोशिश की. अब फौज रक्षात्मक मुद्रा में है. . जब मेमोगेट वाले कांड में फौज के जनरलों की मिली भगत की बात सामने आई तो प्रधान मंत्री ने फ़ौरन जांच का आदेश दिया .. पाकिस्तानी जनरलों की मर्जी के खिलाफ यह जांच चल रही है और इमकान है कि सिविलियन सरकार का इक़बाल भारी पडेगा और पाकिस्तान में एक बार लोकशाही की जड़ें जम सकेगीं .
Saturday, January 28, 2012
नितिन गडकरी चाहते क्या हैं ?
शेष नारायण सिंह
मुंबई,२७ जनवरी . बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ,नितिन गडकरी आजकल खूब मज़े ले रहे हैं . अपनी पार्टी के उन नेताओं का मजाक उड़ा रहे हैं जो अपने को २०१४ में प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं . अभी दो दिन पहले उन्होंने नरेंद्र मोदी को प्रधान मंत्री पद के लिए सबसे उपयुक्त बताकर लाल कृष्ण आडवाणी को सन्देश देने की कोशिश की थी. आज किसी अखबार में खबर है कि उन्होंने अरुण जेटली और सुषमा स्वराज को भी प्रधान मंत्री बनाने की पेशकश की है. उनके इस बयान से भी लाल कृष्ण आडवाणी और उनके क़रीबी लोगों को बहुत खुशी नहीं होगी क्योंकि नरेंद्र मोदी ,अरुण जेटली और सुषमा स्वराज का नाम उछाल कर नितिन गडकरी जी, लाल कृष्ण आडवाणी के दावे को कमज़ोर करने के अलावा और कुछ नहीं कर रहे हैं. वैसे बीजेपी के मौजूदा राष्ट्रीय अध्यक्ष का नाम पार्टी के उन अध्यक्षों की पंक्ति में लिख दिया गया है जिन्होंने जाने अनजाने बीजेपी को पिछले तीस वर्षों में एक अगंभीर पार्टी के रूप में पेश करने की कोशिश की है. वैसे भी लाल कृष्ण आडवानी को हल्का करने की कोशिश करके बीजेपी अध्यक्ष ने पार्टी के उन वफादार सदस्यों को तकलीफ पंहुचायी है जो नितिन गडकरी के राजनीति में आने से पहले से ही जनसंघ और बीजेपी में लाल कृष्ण आडवानी को एक बड़े नेता के रूप में देखते रहे हैं .
बीजेपी की राजनीति की अंतर्कथाओं के जानकार जानते हैं कि इन चार नेताओं को प्रधान मंत्री पद का दावेदार बताकर नितिन गडकरी ने पार्टी के अंदर चल रही लड़ाई को एक नया आयाम दिया है . सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष होने के नाते नितिन गडकरी अब राष्ट्रीय स्तर के नेता हैं . यह अलग बात है कि जिन नेताओं का नाम वे प्रधान मंत्री के दावेदार के रूप में पेश कर रहे हैं,उनमें से सभी नितिन गडकरी से बहुत बड़े क़द के नेता हैं . दिल्ली में बीजेपी बीट को कवर करने वाले पत्रकारों को मालूम है कि पार्टी का अध्यक्ष बनने के पहले ,जब भी नितिन गडकरी दिल्ली आते थे, वे लाल कृष्ण आडवाणी,अरुण जेटली और सुषमा स्वराज से मिलने की कोशिश ज़रूर करते थे और अक्सर उन्हें समय मिल भी जाता था . आज भी आम धारणा यह है कि वे बीजेपी के सी ई ओ भले हो गए हों लेकिन वे इन बड़े नेताओं के नेता नहीं हैं . लेकिन नितिन गडकरी अपनी अध्यक्ष की कुर्सी के सहारे अपने को सर्वोच्च साबित करने के लिए ऐसे काम कर रहे हैं जो बीजेपी का कोई भी शुभचिन्तक कभी न करता . मसलन उत्तर प्रदेश में उनकी राजनीतिक प्रबंधन की कृपा से बीजेपी कांग्रेस से भी पीछे चली गयी है. अभी कल एक टी वी चैनल पर चुनाव पूर्व सर्वेक्षण देखने का मौक़ा मिला. वह चैनल ऐसे लोगों का है जिन्हें बीजेपी का करीबी माना जाता है. उनके सर्वे में भी उत्तर प्रदेश में बीजेपी को कांग्रेस से पीछे दिखाया गया था.
दुनिया जानती है कि किसी भी पार्टी को अपने किसी कार्यकर्ता को भारत का प्रधान मंत्री बनाने के लिए उत्तर प्रदेश से बहुत बड़ी संख्या में संसद सदस्य जितवाने ज़रूरी हैं . जब उत्तर प्रदेश में किसी पार्टी की रणनीति सबसे कमज़ोर पार्टी के रूप में अपने आपको स्थापित करने की लग रही हो तो कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वे केंद्र में सरकार बनाने के बारे में सोच भी रही है.प्रधान मंत्री बनाने के नौबत तो तब आयेगी जब केंद्र में सरकार बनने के संभावना नज़र आयेगी, उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनावों में जिस तरह से नितिन गडकरी ने चुनाव संचालन का तंत्र बनाया है,उससे तो यही lagtaa है कि २०१४ में वे किसी भी हालत में केंद्र में बीजेपी की अगुवाई वाली सरकार नहीं बनने देगें. उन्होंने राज्य के बड़े नेताओं राजनाथ सिंह , कलराज मिश्र, मुरली मनोहर जोशी, केशरी नाथ त्रिपाठी ,विनय कटियार , सूर्य प्रताप शाही, आदि को दरकिनार किया है उससे तो यही लगता है कि वे बीजेपी को उसी मुकाम पर पंहुचा देने के चक्कर में हैं जहां अभी पिछले चुनावों तक कांग्रेस विराजती थी. वरना उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनाव में राज्य के सभी बड़े नेताओं को पैदल करने का और कोई मतलब समझ में नहीं आता
मुंबई,२७ जनवरी . बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ,नितिन गडकरी आजकल खूब मज़े ले रहे हैं . अपनी पार्टी के उन नेताओं का मजाक उड़ा रहे हैं जो अपने को २०१४ में प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं . अभी दो दिन पहले उन्होंने नरेंद्र मोदी को प्रधान मंत्री पद के लिए सबसे उपयुक्त बताकर लाल कृष्ण आडवाणी को सन्देश देने की कोशिश की थी. आज किसी अखबार में खबर है कि उन्होंने अरुण जेटली और सुषमा स्वराज को भी प्रधान मंत्री बनाने की पेशकश की है. उनके इस बयान से भी लाल कृष्ण आडवाणी और उनके क़रीबी लोगों को बहुत खुशी नहीं होगी क्योंकि नरेंद्र मोदी ,अरुण जेटली और सुषमा स्वराज का नाम उछाल कर नितिन गडकरी जी, लाल कृष्ण आडवाणी के दावे को कमज़ोर करने के अलावा और कुछ नहीं कर रहे हैं. वैसे बीजेपी के मौजूदा राष्ट्रीय अध्यक्ष का नाम पार्टी के उन अध्यक्षों की पंक्ति में लिख दिया गया है जिन्होंने जाने अनजाने बीजेपी को पिछले तीस वर्षों में एक अगंभीर पार्टी के रूप में पेश करने की कोशिश की है. वैसे भी लाल कृष्ण आडवानी को हल्का करने की कोशिश करके बीजेपी अध्यक्ष ने पार्टी के उन वफादार सदस्यों को तकलीफ पंहुचायी है जो नितिन गडकरी के राजनीति में आने से पहले से ही जनसंघ और बीजेपी में लाल कृष्ण आडवानी को एक बड़े नेता के रूप में देखते रहे हैं .
बीजेपी की राजनीति की अंतर्कथाओं के जानकार जानते हैं कि इन चार नेताओं को प्रधान मंत्री पद का दावेदार बताकर नितिन गडकरी ने पार्टी के अंदर चल रही लड़ाई को एक नया आयाम दिया है . सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष होने के नाते नितिन गडकरी अब राष्ट्रीय स्तर के नेता हैं . यह अलग बात है कि जिन नेताओं का नाम वे प्रधान मंत्री के दावेदार के रूप में पेश कर रहे हैं,उनमें से सभी नितिन गडकरी से बहुत बड़े क़द के नेता हैं . दिल्ली में बीजेपी बीट को कवर करने वाले पत्रकारों को मालूम है कि पार्टी का अध्यक्ष बनने के पहले ,जब भी नितिन गडकरी दिल्ली आते थे, वे लाल कृष्ण आडवाणी,अरुण जेटली और सुषमा स्वराज से मिलने की कोशिश ज़रूर करते थे और अक्सर उन्हें समय मिल भी जाता था . आज भी आम धारणा यह है कि वे बीजेपी के सी ई ओ भले हो गए हों लेकिन वे इन बड़े नेताओं के नेता नहीं हैं . लेकिन नितिन गडकरी अपनी अध्यक्ष की कुर्सी के सहारे अपने को सर्वोच्च साबित करने के लिए ऐसे काम कर रहे हैं जो बीजेपी का कोई भी शुभचिन्तक कभी न करता . मसलन उत्तर प्रदेश में उनकी राजनीतिक प्रबंधन की कृपा से बीजेपी कांग्रेस से भी पीछे चली गयी है. अभी कल एक टी वी चैनल पर चुनाव पूर्व सर्वेक्षण देखने का मौक़ा मिला. वह चैनल ऐसे लोगों का है जिन्हें बीजेपी का करीबी माना जाता है. उनके सर्वे में भी उत्तर प्रदेश में बीजेपी को कांग्रेस से पीछे दिखाया गया था.
दुनिया जानती है कि किसी भी पार्टी को अपने किसी कार्यकर्ता को भारत का प्रधान मंत्री बनाने के लिए उत्तर प्रदेश से बहुत बड़ी संख्या में संसद सदस्य जितवाने ज़रूरी हैं . जब उत्तर प्रदेश में किसी पार्टी की रणनीति सबसे कमज़ोर पार्टी के रूप में अपने आपको स्थापित करने की लग रही हो तो कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वे केंद्र में सरकार बनाने के बारे में सोच भी रही है.प्रधान मंत्री बनाने के नौबत तो तब आयेगी जब केंद्र में सरकार बनने के संभावना नज़र आयेगी, उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनावों में जिस तरह से नितिन गडकरी ने चुनाव संचालन का तंत्र बनाया है,उससे तो यही lagtaa है कि २०१४ में वे किसी भी हालत में केंद्र में बीजेपी की अगुवाई वाली सरकार नहीं बनने देगें. उन्होंने राज्य के बड़े नेताओं राजनाथ सिंह , कलराज मिश्र, मुरली मनोहर जोशी, केशरी नाथ त्रिपाठी ,विनय कटियार , सूर्य प्रताप शाही, आदि को दरकिनार किया है उससे तो यही लगता है कि वे बीजेपी को उसी मुकाम पर पंहुचा देने के चक्कर में हैं जहां अभी पिछले चुनावों तक कांग्रेस विराजती थी. वरना उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनाव में राज्य के सभी बड़े नेताओं को पैदल करने का और कोई मतलब समझ में नहीं आता
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