शेष नारायण सिंह
नई दिल्ली, २१ जनवरी .लगता है कि कांग्रेस ने ममता बनर्जी को औकात बनाने का मन बना लिया है . पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री के काम करने के तरीके से कांग्रेस में सर्वोच्च स्तर पर बहुत ही असुविधा होती बतायी जा रही है. वैसे भी जिस तरह से लगभग हर हफ्ते पश्चिम बंगाल सरकार की नकारात्मक पब्लिसिटी हो रही है उसके चलते कांग्रेस ममता बनर्जी के खराब काम में अपने आप को शामिल नहीं दिखाना चाहती . अस्पतालों के खस्ता प्रबंध की जो खबरें आजकल मीडिया में छाई हुई हैं उसके चलते कांग्रेस आलाकमान में ममता से राजनीतिक दोस्ती रखने के खिलाफ माहौल बन रहा है .
सोमवार को ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश कोलकाता जा रहे हैं और वहां जाकर वे २४ परगना, बांकुरा और पुरुलिया जिलों में अपने मंत्रालय के सौजन्य से चल रही स्कीमों की समीक्षा करेगें .इसके पहले ममता बनर्जी ने कई बार कांग्रेस के नेताओं को अहसास करवाया है केंद्र की कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार अपने अस्तित्व के लिए ममता बनर्जी की कृपा पर बहुत ज्यादा निर्भर है .पिछले दिनों उन्होंने कांग्रेस के पश्चिम बंगाल के कार्यकर्ताओं और राज्य स्तर के नेताओं को भी धमकाने की योजना पर काम शुरू कर दिया . पश्चिम बंगाल में उन्होंने कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनाया है लेकिन अपनी ही सरकार में काम कर रहे कांग्रेसी मंत्रियों को बिलकुल जीरो पर बैठा दिया है . एक मंत्री को तो इतना परेशान कर दिया कि उसने इस्तीफ़ा देने में ही भलाई समझी. . नई दिल्ली में राजनीतिक मौसम के जानकारों का कहना है कि उत्तर प्रदेश में चुनावों के बाद यू पी ए में मुलायम सिंह यादव की पार्टी के शामिल होने की बिसात बिछ चुकी है. जिसके बाद सोनिया गाँधी ममता बनर्जी को यू पी ए छोड़ने का विकल्प दे देगीं. इसका मतलब यह हुआ कि वे ममता को साफ़ बता देगीं कि अगर सरकार में रहना है तो कांग्रेस के साथ शिष्टाचार की सीमा में ही रहना पडेगा. उत्तर प्रदेश की मायावती सरकार को घेरने के पहले भी वहां जयराम रमेश ने जांच का काम शुरू किया था और कई जिलों में मनरेगा में हो रही घूसखोरी को राजनीतिक बहस के दायरे में ला दिया था . इस बात की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि पश्चिम बंगाल में भी कांग्रेस जयराम रमेश के निरीक्षण के ज़रिये ममता से दूरी बनाने के अपने प्रोजेक्ट पर काम शुरू कर चुकी है .
जयराम रमेश का पश्चिम बंगाल का दौरा बिलकुल सरकारी है. २३ जनवरी को वे कोलकाता में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की जयन्ती पर आयोजित एक कार्यक्रम में शामिल होंगें.उसके बाद वे २४ परगना जिले के डोंगरिया कस्बे के लिए रवाना हो जायेगें जहां अफसरों से वे बातचीत करेगें और ग्रामीण विकास की केंद्रीय स्कीमों की समीक्षा करेगें .२४ जनवरी को जयराम रमेश बांकुरा जायेगें जहां वे पुरंदरपुर ब्लाक में पानी की जांच की प्रयोगशाला, सैनिटरी मार्ट और वाटर हार्वेस्टिंग स्कीमों के बारे में जानकारी लेगें .अगले दिन बुधवार को वे पुरुलिया जिले के रघुनाथपुर ब्लाक में प्रधान मंत्री ग्रामीण सड़क परियोजना और वाटर ट्रीटमेंट प्लान का निरीक्षण करेगें . बुधवार को वे नई दिल्ली के लिए रवाना होने से पहले कोलकाता में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से मुलाक़ात करेगें . जयराम रमेश के सरकारी कार्यक्रम से बिलकुल साफ़ नज़र आ रहा है कि ममता बनर्जी को भी कांग्रेस वही सम्मान और रुतबा देने वाली है जो विधान सभा चुनावों की प्रक्रिया शुरू होने के पहले उसने उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री, मायावती को दिया था .
Monday, January 23, 2012
अब मुसलमान जज़्बात नहीं, विकास के मुद्दों पर वोट डालेगा
शेष नारायण सिंह
उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनाव के पहले सभी राजनीतिक पार्टियों में वोटर को अपनी तरफ खींच लेने की होड़ मची हुई है .इस बार के चुनाव में सभी दलों को पता है कि सत्ता की चाभी मुसलमानों के हाथ में है. शायद इसीलिये सभी गैर बीजेपी पार्टियां अपने को मुसलमानों सबसे बड़ा शुभचिन्तक साबित करने के चक्कर हैं . जब टेलिविज़न की खबरों का ज़माना नहीं था तो एक ख़ास विचारधारा के लोग अफवाहों के सहारे चुनावों के ठीक पहले राज्य के कुछ मुसलिम बहुल इलाकों में साम्प्रदायिक दंगा करवा लेते थे और उनकी अपनी सीट साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के नाम पर निकल जाती थी . लेकिन टी वी न्यूज़ की बहुत बड़े पैमाने पर मौजूदगी के चलते अब अफवाहों की बिना पर दंगा करवा पाना बहुत मुश्किल हो गया है . इसलिए बाबरी मस्जिद के विध्वंस के लिए ज़िम्मेदार विचारधारा वाले तो अब मुसलमानों के ध्रुवीकरण की उम्मीद छोड़ चुके हैं . लेकिन बाकी तीन मुख्य राजनीतिक पार्टियां मुसलमानों के समर्थन के बल पर लखनऊ की सत्ता पर काबिज़ होने के सपने देख रही हैं . इसके लिए जहां पुराने तरीकों को भी अपनाया जा रहा है तो नए से नए तरीके भी अपनाए जा रहे हैं .राज्य की सत्ताधारी पार्टी की मुखिया ने बहुत बड़ी संख्या में मुसलमानों को टिकट देकर यह माहौल बनाने की कोशिश की है कि वह मुसलमानों की असली शुभचिन्तक हैं . समाजवादी पार्टी को १९९१ से ही उत्तर प्रदेश के मुसलमानों की प्रिय पार्टी के रूप में पेश किया जाता रहा है .इसमें सच्च्चाई भी थी. जब भी समाजवादी पार्टी को मौक़ा मिला उसने मुसलमानों के समाजिक और आर्थिक स्तर को सुधारने की कोशिश की . कभी राज्य में उर्दू को बढ़ावा दिया तो कभी पुलिस जैसी सरकारी नकारियों में मुसलमानों को बड़ी संख्या में भर्ती किया . लेकिन पिछले लोक सभा चुनावों के ठीक पहले बाबरी मस्जिद के विध्वंस के मामले में सुप्रीम कोर्ट से सज़ा पा चुके नेता कल्याण सिंह को सम्मान सहित पार्टी में भर्ती करके समाजवादी पार्टी ने मुसलमानों को बहुत निराश किया था . उसका नतीजा भी लोकसभा चुनावों में सामने आ गया था . समाजवादी पार्टी २००४ में करीब ४० सीटें जीतकर लोक सभा पंहुची थी वहीं २००९ में बीस के आस पास रह गयी . हालांकि मुसलमानों ने पूरी तरह तो साथ नहीं छोड़ा था लेकिन कल्याण सिंह के प्रेम के कारण समाजवादी पार्टी मुसलमानों की प्रिय पार्टी नहीं रह गयी थी. कल्याण सिंह के भर्ती होने के बाद पैदा हुई समाजवादी पार्टी से मुसलमानों की नाराज़गी को कांग्रेस ने अपने फायदे में इस्तेमाल करने की कोशिश की थी . कांग्रेस पार्टी को भी मुसलमानों के बीच ६ दिसंबर १९९२ के बाद पसंद नहीं किया जाता था . उसके कई कारण थे. सबसे बड़ा तो यही कि १९९२ में बाबरी मस्जिद के विनाश के लिए कांग्रेस पार्टी भी कम ज़िम्मेदार नहीं थी. ६ दिसंबर १९९२ के दिन दिल्ली की सत्ता पर कांग्रेस का क़ब्ज़ा था ,पी वी नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री थे और उन्होंने उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्य मंत्री कल्याण सिंह पर भरोसा किया था कि वे बाबरी मस्जिद की सुरक्षा करेगें . अजीब बात है कि कांग्रेस ने कल्याण सिंह पर भरोसा किया जबकि हर सरकारी अफसर को मालूम था कि बाबरी मस्जिद को ज़मींदोज़ करने की योजना बन चुकी थी और उस साज़िश में कल्याण सिंह बाकायदा शामिल थे . . कांग्रेस की इस मिलीभगत के कारण मुसलमानों और सेकुलर जमातों ने कांग्रेस से किनारा कर लिया था . लेकिन जब से राहुल गांधी ने मैदान लिया है उन्होंने मुसलमानों का भरोसा हासिल करने में थोड़ी बहुत सफलता हासिल की है .जानकार बाते हैं कि उनकी कोशिश का ही नतीजा था कि लोक सभा २००९ में कांग्रेस को बीस से ज्यादा सीटों पर सफलता मिली. उसके बाद तो कांग्रेस ने बहुत सारे ऐसे काम किये हैं जिससे लगता है कि कांग्रेस ६ दिसंबर १९९२ के अपने काम के लिए शर्मिंदा है और बात को ठीक करना चाहती है . कांग्रेस की सरकार ने जो सच्चर कमेटी बनायी है वह मुसलमानों की हालत सुधारने की दिशा में उठाया गया एक निर्णायक क़दम है . सच्चर कमेटी की रिपोर्ट आ जाने के बाद अब तक प्रचलित बहुत सारी भ्रांतियों से पर्दा उठ गया है . मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति का प्रचार करके संघ परिवार और उसके मातहत संगठन हर सरकार पर आरोप लगाते रहते थे कि मुसलमानों का अपीजमेंट किया जाता है.लेकिन सच्चर कमेटी की रिपोर्ट आने के बाद उस तर्क की हवा निकल चुकी है .इतना ही नहीं ,कांग्रेस की सरकार ने रंगनाथ मिश्रा कमीशन बनाकर मुसलमानों को सरकारी नौकरियों में रिज़र्वेशन देने की भी सरकारी पहल को एक शक्ल दे दी. अब सभी गैर बीजेपी पार्टियां रंगनाथ मिश्रा कमीशन की बात करने लगी हैं और उस तरफ कुछ काम भी हो रहा है . मसलन जब यू पी ए सरकार ने सरकारी नौकरियों में ओ बी सी कोटे से काटकर साढ़े चार प्रतिशत अल्पसंख्यक आरक्षण की बात की, तो बात कुछ आगे बढ़ी. कांग्रेस ने इसका खूब प्रचार प्रसार भी किया और इस साढ़े चार प्रतिशत को मुसलमानों का आरक्षण बताने की राजनीतिक मुहिम चलाई . जबकि सच्चाई यह है कि इस साढ़े चार प्रतिशत वाली बात से मुसलमानों का कोई भला नहीं होने वाला है . क्योंकि उनको इस साढ़े चार प्रतिशत के लिए सिख, ईसाई , जैन और बौध समाज से कम्पटीशन करना पडेगा. ज़ाहिर है यह सारा का सारा साढ़े चार प्रतिशत इन्हीं अल्पसंख्यक समुदायों के हिस्से में जाएगा जो शैक्षिक रूप से आगे हैं . लेकिन कांग्रेस के नेताओं के भाषणों के हवाले से बाद में सामाजिक न्याय की पक्षधर जमातें कांग्रेस को मजबूर कर सकती हैं कि वह शुद्ध रूप से मुसलमानों के लिए सरकारी नौकरियों का कुछ प्रतिशत अलग से रिज़र्व कर दे .
बहरहाल अब एक बात साफ़ है कि पुराने तरीकों को इस्तेमाल करके अब मुसलमानों को बेवक़ूफ़ बनाना थोडा मुश्किल होगा. मसलन उत्तर प्रदेश की मौजूदा सत्ताधारी पार्टी की मुखिया ने अधिक संख्या में मुसलमानों को टिकट देकर अपने मुस्लिम प्रेम को ज़ाहिर करने की कोशिश की है .कांग्रेस और समाजवादी पार्टी ने भी मुसलमानों को टिकट देकर अपने मुस्लिम प्रेम को दिखाने की कोशिश की है . लेकिन मुसलिम नौजवानों का मौजूदा वर्ग इस बात से प्रभावित नहीं हो रहा है . वह सवाल पूछ रहा है कि कुछ संपन्न और ताक़तवर मुसलमानों को एम पी ,एम एल ए बनाकर कोई भी पार्टी आम मुसलमान को कैसे संतुष्ट कर सकती है . अब मुसलामान कुछ सत्ता प्रेमी मुसलमानों को मिली हुई इज़्ज़त से खुश होने को तैयार नहीं है . वह इंसाफ़ की मांग करने लगा है . उसे शिक्षा चाहिए , उसे सरकारी नौकरियों और निजी औद्योगिक क्षेत्र में अपना हक चाहिए . कुछ मुसलमानों के सामने टिकट की खैरात फेंक कर आम मुसलमान को संतुष्ट कर पाना अब नामुमकिन है . इसीलिये देखा यह जा रहा है कि सच्चर और रंगनाथ मिश्रा को जिस सम्मान की नज़र से मुस्लिम समाज में देखा जाता है ,वह इज्ज़त किसी भी मुस्लिम राजनेता को मयस्सर नहीं है .वैसे भी मुसलमान हर उस आदमी की इज़्ज़त करता है जो उसके लिए न्याय की बात करता अहै . लेकिन दुर्भाग्य यह है कि जो भी मुसलमान राजनीतिक सत्ता हासिल कर लेता है वह मुसलमानों से दूर रहने में ही अपनी भलाई समझता है .
उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव २०१२ के पहले जो माहौल बन रहा है वह इस देश के आम मुसलमान के लिए निश्चित रूप से लाभकारी होगा. मसलन कांग्रेस अपने साढ़े चार प्रतिशत के अल्पसंख्यक आरक्षण को मुस्लिम आरक्षण बताने की कोशिश में जब नाकाम हो गयी तो अपने एक मुस्लिम मंत्री से बयान दिलवा दिया कि अब मुसलमानों को ९ प्रतिशत आरक्षण दिया जाएगा. इस बात को मीडिया का इस्तेमाल करके गरमाने की कोशिश भी की जा रही है .. कांग्रेस की इस कोशिश को आम मुसलमान गंभीरता से ले रहा है . उधर समाजवादी पार्टी ने मुसलमानों के लिए १८ प्रतिशत रिज़र्वेशन की बात करना शुरू कर दिया है . समाजवादी पार्टी की इस बात को चुनावी स्टंट ही माना जा रहा है . यह अलग बात है कि मुसलमानों के बीच मुलायम सिंह यादव की विश्वसनीयता इतनी ज्यादा है कि उनकी बात को लोग हल्का नहीं मानते,लेकिन लोगों को यह भी मालूम है कि फिलहाल मुसलमानों को १८ प्रतिशत रिज़र्वेशन देना राजनीतिक रूप से किसी भी पार्टी के लिए संभव नहीं है .
इस चुनाव की एक और दिलचस्प बात यह है कि भावनात्मक मुद्दों को उठाने की कोई कोशिश काम नहीं आ रही है . कल्याण सिंह का हिन्दू हृदय सम्राट वाला चोला बिलकुल बेकार साबित हो रहा है . अपने इलाके में अपनी बिरादरी के कुछ लोगों के अलावा वह किसी के हृदय सम्राट नहीं बन पा रहे हैं .ज़ाहिर है वे चुनावों में कोई ख़ास भूमिका नहीं निभा पायेगें .. बाबरी मस्जिद केस में उनकी सह अभियुक्त उमा भारती को भी बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने यू पी में अहम भूमिका देने की कोशिश की है लेकिन उनकी मौजूदगी भी कट्टर हिन्दूवादी वोटरों पर वह असर नहीं डाल पा रही है जो १९९२ के बाद के चुनावों में थी. यही हाल बाबरी मस्जिद के नाम पर राजनीति करने वाले मुसलमानों का भी है . उस वक़्त के ज़्यादातर नेता तो पता नहीं कहाँ चले गए हैं .. जो एकाध कहीं नज़र भी रहे हैं उनकी मुसलमानों की बीच कोई ख़ास औकात नहीं है ..दरअसल इस चुनाव में यह बात बिकुल साफ़ हो गयी है कि अब मुसलमान ज़ज़बाती मुद्दों को अपनाने को तैयार नहीं है. उसे तो इंसाफ़ चाहिए और अपना हक चाहिए . उसे विकास चाहिए और सामान अवसर चाहिए . अगर उत्तर प्रदेश का मुसलमान इस बार इन मुद्दों को चुनाव की मुख्य धारा बनाने में कामयाब हो गया तो देश का और मुसलमान का मुस्तकबिल अच्छा होगा अब सभी मानने लगे हैं कि मुसलमान जज्बाती होकर फैसला नहीं करने वाला है . वह किसी भी दंगाई की बात में नहीं आने वाला है . यह संकेत २००७ में ही मिलना शुरू हो गया था. जब २००७ के विधान सभा चुनाव के ठीक पहले पूर्वी उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों में मुसलमानों के खिलाफ ज़हर उगल रहे कुछ होर्डिंग लगा दिए गए थे, सी डी बांटी गयी थी और मुसलमानों को और तरीकों से भड़काने की कोशिश की गयी थी तो मुसलमानों ने आम तौर पर उस कोशिश को नज़र अंदाज़ किया था. उसके बाद के किसी भी चुनाव में भड़काऊ बयान या चुनाव सामग्री का बाज़ार नहीं चल पाया .शायद इसीलिये मौजूदा चुनाव भी विकास के मुद्दों के इर्द गिर्द घूमता नज़र आ रहा है . और सभी पार्टियों के मालूम है कि इस बार मुसलमानों की निर्णायक मदद के बिना सरकार नहीं बनने वाली है .
इंसाफ़ की इस लड़ाई में इस बार उत्तर प्रदेश के मुसलमानों की संख्या अहम भूमिका निभाने वाली है .मुसलमानों की संख्या के हिसाब से करीब १९ जिले ऐसे हैं जहां उनकी मर्जी के लोग ही चुने जायेगें . इन जिलों में करीब सवा सौत सीटें पड़ती हैं . रामपुर ,मुरादाबाद,बिजनौर ,मुज़फ्फरनगर,सहारनपुर, बरेली,बलरामपुर,अमरोहा,मेरठ ,बहराइच और श्रावस्ती में मुसलमान तीस प्रतिशत से ज्यादा हैं . गाज़ियाबाद,लखनऊ , बदायूं, बुलंदशहर, खलीलाबाद पीलीभीत,आदि कुछ ऐसे जिले जहां कुल वोटरों का एक चौथाई संख्या मुसलमानों की है . ज़ाहिर है जहां मुसलमानों के वोट के लिए तीन अहम पार्टियां जीतोड़ कोशिश कर रही हैं वहां यह वोटर इंसाफ़ की जद्दो जहद में एक ज़बरदस्त भूमिका निभा सकते हैं . ऐसा लगता है अब उत्तर प्रदेश की राजनीति में मुसलमानों के जज़्बात को भड़का कार राजनीति करना मुश्किल होगा. अब राजनीतिक पार्टियों को असली मुद्दों को संबोधित करना पडेगा.
उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनाव के पहले सभी राजनीतिक पार्टियों में वोटर को अपनी तरफ खींच लेने की होड़ मची हुई है .इस बार के चुनाव में सभी दलों को पता है कि सत्ता की चाभी मुसलमानों के हाथ में है. शायद इसीलिये सभी गैर बीजेपी पार्टियां अपने को मुसलमानों सबसे बड़ा शुभचिन्तक साबित करने के चक्कर हैं . जब टेलिविज़न की खबरों का ज़माना नहीं था तो एक ख़ास विचारधारा के लोग अफवाहों के सहारे चुनावों के ठीक पहले राज्य के कुछ मुसलिम बहुल इलाकों में साम्प्रदायिक दंगा करवा लेते थे और उनकी अपनी सीट साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के नाम पर निकल जाती थी . लेकिन टी वी न्यूज़ की बहुत बड़े पैमाने पर मौजूदगी के चलते अब अफवाहों की बिना पर दंगा करवा पाना बहुत मुश्किल हो गया है . इसलिए बाबरी मस्जिद के विध्वंस के लिए ज़िम्मेदार विचारधारा वाले तो अब मुसलमानों के ध्रुवीकरण की उम्मीद छोड़ चुके हैं . लेकिन बाकी तीन मुख्य राजनीतिक पार्टियां मुसलमानों के समर्थन के बल पर लखनऊ की सत्ता पर काबिज़ होने के सपने देख रही हैं . इसके लिए जहां पुराने तरीकों को भी अपनाया जा रहा है तो नए से नए तरीके भी अपनाए जा रहे हैं .राज्य की सत्ताधारी पार्टी की मुखिया ने बहुत बड़ी संख्या में मुसलमानों को टिकट देकर यह माहौल बनाने की कोशिश की है कि वह मुसलमानों की असली शुभचिन्तक हैं . समाजवादी पार्टी को १९९१ से ही उत्तर प्रदेश के मुसलमानों की प्रिय पार्टी के रूप में पेश किया जाता रहा है .इसमें सच्च्चाई भी थी. जब भी समाजवादी पार्टी को मौक़ा मिला उसने मुसलमानों के समाजिक और आर्थिक स्तर को सुधारने की कोशिश की . कभी राज्य में उर्दू को बढ़ावा दिया तो कभी पुलिस जैसी सरकारी नकारियों में मुसलमानों को बड़ी संख्या में भर्ती किया . लेकिन पिछले लोक सभा चुनावों के ठीक पहले बाबरी मस्जिद के विध्वंस के मामले में सुप्रीम कोर्ट से सज़ा पा चुके नेता कल्याण सिंह को सम्मान सहित पार्टी में भर्ती करके समाजवादी पार्टी ने मुसलमानों को बहुत निराश किया था . उसका नतीजा भी लोकसभा चुनावों में सामने आ गया था . समाजवादी पार्टी २००४ में करीब ४० सीटें जीतकर लोक सभा पंहुची थी वहीं २००९ में बीस के आस पास रह गयी . हालांकि मुसलमानों ने पूरी तरह तो साथ नहीं छोड़ा था लेकिन कल्याण सिंह के प्रेम के कारण समाजवादी पार्टी मुसलमानों की प्रिय पार्टी नहीं रह गयी थी. कल्याण सिंह के भर्ती होने के बाद पैदा हुई समाजवादी पार्टी से मुसलमानों की नाराज़गी को कांग्रेस ने अपने फायदे में इस्तेमाल करने की कोशिश की थी . कांग्रेस पार्टी को भी मुसलमानों के बीच ६ दिसंबर १९९२ के बाद पसंद नहीं किया जाता था . उसके कई कारण थे. सबसे बड़ा तो यही कि १९९२ में बाबरी मस्जिद के विनाश के लिए कांग्रेस पार्टी भी कम ज़िम्मेदार नहीं थी. ६ दिसंबर १९९२ के दिन दिल्ली की सत्ता पर कांग्रेस का क़ब्ज़ा था ,पी वी नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री थे और उन्होंने उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्य मंत्री कल्याण सिंह पर भरोसा किया था कि वे बाबरी मस्जिद की सुरक्षा करेगें . अजीब बात है कि कांग्रेस ने कल्याण सिंह पर भरोसा किया जबकि हर सरकारी अफसर को मालूम था कि बाबरी मस्जिद को ज़मींदोज़ करने की योजना बन चुकी थी और उस साज़िश में कल्याण सिंह बाकायदा शामिल थे . . कांग्रेस की इस मिलीभगत के कारण मुसलमानों और सेकुलर जमातों ने कांग्रेस से किनारा कर लिया था . लेकिन जब से राहुल गांधी ने मैदान लिया है उन्होंने मुसलमानों का भरोसा हासिल करने में थोड़ी बहुत सफलता हासिल की है .जानकार बाते हैं कि उनकी कोशिश का ही नतीजा था कि लोक सभा २००९ में कांग्रेस को बीस से ज्यादा सीटों पर सफलता मिली. उसके बाद तो कांग्रेस ने बहुत सारे ऐसे काम किये हैं जिससे लगता है कि कांग्रेस ६ दिसंबर १९९२ के अपने काम के लिए शर्मिंदा है और बात को ठीक करना चाहती है . कांग्रेस की सरकार ने जो सच्चर कमेटी बनायी है वह मुसलमानों की हालत सुधारने की दिशा में उठाया गया एक निर्णायक क़दम है . सच्चर कमेटी की रिपोर्ट आ जाने के बाद अब तक प्रचलित बहुत सारी भ्रांतियों से पर्दा उठ गया है . मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति का प्रचार करके संघ परिवार और उसके मातहत संगठन हर सरकार पर आरोप लगाते रहते थे कि मुसलमानों का अपीजमेंट किया जाता है.लेकिन सच्चर कमेटी की रिपोर्ट आने के बाद उस तर्क की हवा निकल चुकी है .इतना ही नहीं ,कांग्रेस की सरकार ने रंगनाथ मिश्रा कमीशन बनाकर मुसलमानों को सरकारी नौकरियों में रिज़र्वेशन देने की भी सरकारी पहल को एक शक्ल दे दी. अब सभी गैर बीजेपी पार्टियां रंगनाथ मिश्रा कमीशन की बात करने लगी हैं और उस तरफ कुछ काम भी हो रहा है . मसलन जब यू पी ए सरकार ने सरकारी नौकरियों में ओ बी सी कोटे से काटकर साढ़े चार प्रतिशत अल्पसंख्यक आरक्षण की बात की, तो बात कुछ आगे बढ़ी. कांग्रेस ने इसका खूब प्रचार प्रसार भी किया और इस साढ़े चार प्रतिशत को मुसलमानों का आरक्षण बताने की राजनीतिक मुहिम चलाई . जबकि सच्चाई यह है कि इस साढ़े चार प्रतिशत वाली बात से मुसलमानों का कोई भला नहीं होने वाला है . क्योंकि उनको इस साढ़े चार प्रतिशत के लिए सिख, ईसाई , जैन और बौध समाज से कम्पटीशन करना पडेगा. ज़ाहिर है यह सारा का सारा साढ़े चार प्रतिशत इन्हीं अल्पसंख्यक समुदायों के हिस्से में जाएगा जो शैक्षिक रूप से आगे हैं . लेकिन कांग्रेस के नेताओं के भाषणों के हवाले से बाद में सामाजिक न्याय की पक्षधर जमातें कांग्रेस को मजबूर कर सकती हैं कि वह शुद्ध रूप से मुसलमानों के लिए सरकारी नौकरियों का कुछ प्रतिशत अलग से रिज़र्व कर दे .
बहरहाल अब एक बात साफ़ है कि पुराने तरीकों को इस्तेमाल करके अब मुसलमानों को बेवक़ूफ़ बनाना थोडा मुश्किल होगा. मसलन उत्तर प्रदेश की मौजूदा सत्ताधारी पार्टी की मुखिया ने अधिक संख्या में मुसलमानों को टिकट देकर अपने मुस्लिम प्रेम को ज़ाहिर करने की कोशिश की है .कांग्रेस और समाजवादी पार्टी ने भी मुसलमानों को टिकट देकर अपने मुस्लिम प्रेम को दिखाने की कोशिश की है . लेकिन मुसलिम नौजवानों का मौजूदा वर्ग इस बात से प्रभावित नहीं हो रहा है . वह सवाल पूछ रहा है कि कुछ संपन्न और ताक़तवर मुसलमानों को एम पी ,एम एल ए बनाकर कोई भी पार्टी आम मुसलमान को कैसे संतुष्ट कर सकती है . अब मुसलामान कुछ सत्ता प्रेमी मुसलमानों को मिली हुई इज़्ज़त से खुश होने को तैयार नहीं है . वह इंसाफ़ की मांग करने लगा है . उसे शिक्षा चाहिए , उसे सरकारी नौकरियों और निजी औद्योगिक क्षेत्र में अपना हक चाहिए . कुछ मुसलमानों के सामने टिकट की खैरात फेंक कर आम मुसलमान को संतुष्ट कर पाना अब नामुमकिन है . इसीलिये देखा यह जा रहा है कि सच्चर और रंगनाथ मिश्रा को जिस सम्मान की नज़र से मुस्लिम समाज में देखा जाता है ,वह इज्ज़त किसी भी मुस्लिम राजनेता को मयस्सर नहीं है .वैसे भी मुसलमान हर उस आदमी की इज़्ज़त करता है जो उसके लिए न्याय की बात करता अहै . लेकिन दुर्भाग्य यह है कि जो भी मुसलमान राजनीतिक सत्ता हासिल कर लेता है वह मुसलमानों से दूर रहने में ही अपनी भलाई समझता है .
उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव २०१२ के पहले जो माहौल बन रहा है वह इस देश के आम मुसलमान के लिए निश्चित रूप से लाभकारी होगा. मसलन कांग्रेस अपने साढ़े चार प्रतिशत के अल्पसंख्यक आरक्षण को मुस्लिम आरक्षण बताने की कोशिश में जब नाकाम हो गयी तो अपने एक मुस्लिम मंत्री से बयान दिलवा दिया कि अब मुसलमानों को ९ प्रतिशत आरक्षण दिया जाएगा. इस बात को मीडिया का इस्तेमाल करके गरमाने की कोशिश भी की जा रही है .. कांग्रेस की इस कोशिश को आम मुसलमान गंभीरता से ले रहा है . उधर समाजवादी पार्टी ने मुसलमानों के लिए १८ प्रतिशत रिज़र्वेशन की बात करना शुरू कर दिया है . समाजवादी पार्टी की इस बात को चुनावी स्टंट ही माना जा रहा है . यह अलग बात है कि मुसलमानों के बीच मुलायम सिंह यादव की विश्वसनीयता इतनी ज्यादा है कि उनकी बात को लोग हल्का नहीं मानते,लेकिन लोगों को यह भी मालूम है कि फिलहाल मुसलमानों को १८ प्रतिशत रिज़र्वेशन देना राजनीतिक रूप से किसी भी पार्टी के लिए संभव नहीं है .
इस चुनाव की एक और दिलचस्प बात यह है कि भावनात्मक मुद्दों को उठाने की कोई कोशिश काम नहीं आ रही है . कल्याण सिंह का हिन्दू हृदय सम्राट वाला चोला बिलकुल बेकार साबित हो रहा है . अपने इलाके में अपनी बिरादरी के कुछ लोगों के अलावा वह किसी के हृदय सम्राट नहीं बन पा रहे हैं .ज़ाहिर है वे चुनावों में कोई ख़ास भूमिका नहीं निभा पायेगें .. बाबरी मस्जिद केस में उनकी सह अभियुक्त उमा भारती को भी बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने यू पी में अहम भूमिका देने की कोशिश की है लेकिन उनकी मौजूदगी भी कट्टर हिन्दूवादी वोटरों पर वह असर नहीं डाल पा रही है जो १९९२ के बाद के चुनावों में थी. यही हाल बाबरी मस्जिद के नाम पर राजनीति करने वाले मुसलमानों का भी है . उस वक़्त के ज़्यादातर नेता तो पता नहीं कहाँ चले गए हैं .. जो एकाध कहीं नज़र भी रहे हैं उनकी मुसलमानों की बीच कोई ख़ास औकात नहीं है ..दरअसल इस चुनाव में यह बात बिकुल साफ़ हो गयी है कि अब मुसलमान ज़ज़बाती मुद्दों को अपनाने को तैयार नहीं है. उसे तो इंसाफ़ चाहिए और अपना हक चाहिए . उसे विकास चाहिए और सामान अवसर चाहिए . अगर उत्तर प्रदेश का मुसलमान इस बार इन मुद्दों को चुनाव की मुख्य धारा बनाने में कामयाब हो गया तो देश का और मुसलमान का मुस्तकबिल अच्छा होगा अब सभी मानने लगे हैं कि मुसलमान जज्बाती होकर फैसला नहीं करने वाला है . वह किसी भी दंगाई की बात में नहीं आने वाला है . यह संकेत २००७ में ही मिलना शुरू हो गया था. जब २००७ के विधान सभा चुनाव के ठीक पहले पूर्वी उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों में मुसलमानों के खिलाफ ज़हर उगल रहे कुछ होर्डिंग लगा दिए गए थे, सी डी बांटी गयी थी और मुसलमानों को और तरीकों से भड़काने की कोशिश की गयी थी तो मुसलमानों ने आम तौर पर उस कोशिश को नज़र अंदाज़ किया था. उसके बाद के किसी भी चुनाव में भड़काऊ बयान या चुनाव सामग्री का बाज़ार नहीं चल पाया .शायद इसीलिये मौजूदा चुनाव भी विकास के मुद्दों के इर्द गिर्द घूमता नज़र आ रहा है . और सभी पार्टियों के मालूम है कि इस बार मुसलमानों की निर्णायक मदद के बिना सरकार नहीं बनने वाली है .
इंसाफ़ की इस लड़ाई में इस बार उत्तर प्रदेश के मुसलमानों की संख्या अहम भूमिका निभाने वाली है .मुसलमानों की संख्या के हिसाब से करीब १९ जिले ऐसे हैं जहां उनकी मर्जी के लोग ही चुने जायेगें . इन जिलों में करीब सवा सौत सीटें पड़ती हैं . रामपुर ,मुरादाबाद,बिजनौर ,मुज़फ्फरनगर,सहारनपुर, बरेली,बलरामपुर,अमरोहा,मेरठ ,बहराइच और श्रावस्ती में मुसलमान तीस प्रतिशत से ज्यादा हैं . गाज़ियाबाद,लखनऊ , बदायूं, बुलंदशहर, खलीलाबाद पीलीभीत,आदि कुछ ऐसे जिले जहां कुल वोटरों का एक चौथाई संख्या मुसलमानों की है . ज़ाहिर है जहां मुसलमानों के वोट के लिए तीन अहम पार्टियां जीतोड़ कोशिश कर रही हैं वहां यह वोटर इंसाफ़ की जद्दो जहद में एक ज़बरदस्त भूमिका निभा सकते हैं . ऐसा लगता है अब उत्तर प्रदेश की राजनीति में मुसलमानों के जज़्बात को भड़का कार राजनीति करना मुश्किल होगा. अब राजनीतिक पार्टियों को असली मुद्दों को संबोधित करना पडेगा.
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