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Sunday, June 2, 2013

म्यांमार में मुसलमानों पर जारी है बौद्ध और सरकारी आतंक का कहर




शेष नारायण सिंह

नई दिल्ली, ३१ मई .म्यांमार में मुसलमानों के ऊपर कहर जारी है . देश में पांच फीसदी आबादी मुसलमानों की है .दुनिया भर के अखबारों में म्यांमार में मुसलमानों के ऊपर हो रहा अत्याचार बड़ी खबर बन रहा है . न्यूयार्क टाइम्स ने तो सम्पादकीय लिखकर इस समस्या पर अमरीका सहित पश्चिमी देशों का ध्यान खींचने की कोशिश की है .मुसलमानों के ऊपर हो रहे इस अत्याचार का नतीजा यह है कि पिछले कई वर्षों से तानाशाही और फौजी हुकूमत झेल रहे म्यांमार के ऊपर मुसीबतों का एक पहाड टूट  पड़ा है . देश की राजनीति को समझने वाले जानते हैं कि अब वहाँ स्थिरता ला पाना बहुत मुश्किल होगा ,देश में लोकतंत्र को स्थिर बनाने की उम्मीदें और दूर चली जायेगीं.
म्यांमार में जातीय और धार्मिक हिंसा का सबसे खतरनाक पहलू यह है कि वहाँ मुसलमानों को मारने वाले बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं और हिंसा को राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं जबकि बौद्ध धर्म की बुनियाद में अहिंसा सबसे अहम शर्त है .जानकार बताते हैं कि अगर देश के पांच फीसदी मुसलमानों के ऊपर अत्याचार जारी रहा तो वहाँ लोकतंत्र की स्थापना असंभव हो जायेगी ,पहले की तरह तानाशाही निजाम ही चलता रहेगा. म्यांमार में बौद्ध धर्म के अनुयायी बहुमत में हैं.
उत्तरी शहर लाशियो से ख़बरें आ रही हैं कि वहाँ मुसलमानों की दुकानें ,घर और स्कूल जला दिए गए हैं .एक बौद्ध महिला डीज़ल बेच रही थी और उसकी किसी मुस्लिम खरीदार से कहा सूनी हो गयी . बहुमत वाली बौद्ध आबादी के कुछ गुंडे आये और एक मसजिद में आग लगा दी . मुसलमानों ने भी अपनी जान बचाने की कोशिश की . झगड़े में एक मुसलमान की मौत हो गयी जबकि चार बौद्धों को चोटें आयीं . मामूली सी बात पर आगजनी की नौबत आने का मतलब यह है कि म्यांमार में बहुमत वाले बौद्धों में जो लोग धर्म को राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल करना चाहते है उनकी संख्या बढ़ रही है . ऐसा लगता है कि लोकतंत्र विरोधियों का एक खेमा भी पूरी तरह से सक्रिय है क्योंकि अगर धार्मिक हिंसा का यह सिलसिला जारी रहा तो पिछले पचास साल से जारी तानाशाही की सत्ता को हटाकर कर लोकतंत्र की स्थापना असंभव है .तानाशाही फौजी सरकार ने मुसलमानों के रोहिंग्या जाति को म्यांमार की नागरिकता ही नहीं दी है .उनकी आबादी पश्चिमी राज्य राखिने में हैं और वहाँ उनको हर तरह का भेदभाव झेलना पड़ता है , अपमानित होना पड़ता है .वहाँ की सरकार ने रोहिंग्या आबादी पर यह पाबंदी लगा रखी है कि एक परिवार में दो बच्चों से ज्यादा नहीं  पैदा किये जायेगें .अगर ज्यादा बच्चे हो गए तो सरकारी प्रताडना का शिकार होना पड़ता है .और देश छोडना पड़ता है . म्यांमार में इस चक्कर में  लाखों मुसलमानों को सज़ा दी जा चुकी है .अल्पसंख्यकों पर होने वाले हमलों को रोकने में पुलिस और अन्य सुरक्षाबल पूरी तरह से नाकाम हैं . आरोप हैं कि वे बौद्ध सम्प्रदाय वाले हैं इसलिए मुसलमानों की रक्षा करना ही नहीं चाहते .इस बीच खबर है कि लाशियो के एक बौद्ध मठ में सैकड़ों मुस्लिम परिवारों ने पनाह ली है क्योंकि उनके घरों में बौद्ध गुंडों ने उन्हें घेर लिया था और कुछ घरों में आग भी लगा दी थी .मामला जब बहुत बिगड गया तो सुरक्षा बलों ने हस्तक्षेप किया और  उन लोगों को मठ में पंहुचाया . मयांमार में सुरक्षा बल पिछले पचास साल से लोगों धमकाने के काम में ही ज्यादातर इस्तेमाल होते रहे हैं इसलिए उनसे शान्ति स्थापित करने के काम सफलता की उम्मीद  नहीं की जानी चाहिए .उनको सही ट्रेनिंग देने की ज़रूरत है .

Sunday, April 7, 2013

मुलायम सिंह यादव के खिलाफ सख्त बयान देकर बेनी बाबू कांग्रेस का वोटबैंक बना रहे हैं



शेष नारायण सिंह

शुरू में कई दिन तक यह बात समझ में नहीं आई कि जब लोकसभा में मुलायम सिंह यादव के पास जाकर सोनिया गांधी ने बेनी प्रसाद वर्मा के बयान से उपजी  खटास को कम करने के लिए बात कर ली थी ,उसके बाद भी बेनी बाबू मुलायम सिंह के खिलाफ क्यों बयान पर बयान दिए जा रहे हैं .लेकिन जब बात को थोडा अंदर से समझने की कोशिश की गयी तो तस्वीर खुलती चली गयी. पता यह लगा कि कांग्रेस पार्टी यह कोशिश कर रही है कि एक ऐसी जाति की तलाश की जाये जिसका वोट उसे समर्पित भाव से मिल जाए . कांग्रेस के जीत के दौर में उसको दलितों और मुसलमानों के वोट पक्के तौर पर मिलते थे . उम्मीदवार की जाति या कोई और समीकरण बनकर कांग्रेस पार्टी की सीटें हमेशा बहुत बड़ी संख्या में होती थीं . लेकिन अब ज़माना बदल गया है . अब उत्तर प्रदेश में दलित मायावती के पक्ष में वोट करने लगे हैं और मुसलमान किसी ऐसे उम्मीदवार को वोट देने लगे हैं जो बीजेपी को बहुमत हासिल करने से रोक सके. विधान सभा में तो यह काम समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी कर लेती है . जहां तक बहुजन समाज पार्टी का सवाल है उसकी नेता कई बार बीजेपी को रोकने के नाम पर सीटें बटोरकर बीजेपी की मदद से उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं लेकिन मुलायम सिंह यादव ने कभी बीजेपी के सहयोग से सत्ता नहीं ली . इसलिए मुसलमान उनके साथ वोट करते हैं . यह अलग बात है कि केन्द्र में सरकार बनवाने के लिए मुसलमानों ने बड़ी संख्या में कांग्रेस को उन सीटों पर वोट दिया था जहां कांग्रेस के उम्मीदवार के जीतने की संभावना थी. इसी चक्कर में कांग्रेस को बाकी पार्टियों के बराबर सीटें मिल गयी थीं . कहा यह जाता है कि बेनी प्रसाद वर्मा के सुझाव पर कुर्मी बहुल क्षेत्रों में कांग्रेस के जीतने की चर्चा शुरू हो गयी थी . उन क्षेत्रों  में मुसलमानों ने कांग्रेस को वोट दिया और कांग्रेस की सीटें भी सम्मानजनक हो गयीं . यह बात राहुल गांधी की समझ में आ गयी थी और उन्होंने बेनी प्रसाद वर्मा को कुर्मियों के सर्वस्वीकार्य नेता के रूप में स्थापित करने के प्रोजेक्ट पर काम करना शुरू कर दिया था . हालांकि विधानसभा चुनाव में बेनी  प्रसाद वर्मा कोई  असर नहीं दिखा सके लेकिन राहुल गांधी ने उनके ऊपर भरोसा किया और कुर्मी वोटबैंक को अपनी पार्टी की बेसिक जाति बनाने की जिम्मेदारी बेनी प्रसाद वर्मा को सौंप दी . मुलायम सिंह के खिलाफ कुर्मियों को लामबंद करने की कोशिश में ही बेनी प्रसाद वर्मा सारा काम कर रहे  हैं . और अगर कुर्मी जाति के नेता के रूप  में बेनी प्रसाद वर्मा को कांग्रेस सम्मान देती है तो कांग्रेस के पास भी एक जाति का पक्का समर्थन हो जाएगा. यहाँ यह भी समझ लेने की ज़रूरत है कि अगर बेनी बाबू की बिरादरी वालों को पता लग गया कि कांग्रेस हर हाल में बेनी प्रसाद वर्मा को समर्थन देगी तो कुर्मियों के नेता के रूप में बेनी बाबू  कांग्रेस को एक जाति का एकमुश्त समर्थन थमा देगें .
उत्तर प्रदेश की राजनीति में चुनावी नतीजे अब सिद्धांतों के आधार पर नहीं तय होते. वहाँ जातियों का योगदान सबसे ज्यादा है . जातियों की भूल भुलैया में फंसी उत्तर प्रदेश की राजनीति में केवल तीन जातियों के वोट पक्के माने जाते हैं . समाजवादी पार्टी के साथ राज्य भर के यादव पूरी तरह से लगे गए हैं . उसके अलावा पिछड़ी जातियों के लोग भी समाजवादी पार्टी के साथ जुड़ते हैं लेकिन बेनी प्रसाद वर्मा के अलग होने के बाद अब कुर्मी कांग्रेस की तरफ बढ़ रहे हैं .दलित वर्ग की एक जाति के लोग पूरी तरह से मायावती के साथ रहते हैं . मायावती की लोकप्रियता अपनी जाति के मतदाताओं में बहुत ज्यादा है और वे अपने उम्मीदवारों के पक्ष में तो वोट  दिलवा सकती हैं , वे वोट ट्रांसफर भी करवा सकती हैं. यानी अगर मायावती ने अपने समर्थकों को आदेश दे दिया कि उनकी पार्टी के अलावा भी किसी को वोट देना है तो वह संभव हो सकता है .इसके अलावा मुसलमानों का वोट भी  लगभग एकमुश्त पड़ता है.  राज्य में मुस्लिम वोट अब केवल बीजेपी को सत्ता से दूर रखने के उद्देश्य से पड़ता है . उत्तर प्रदेश विधान सभा के लिए ही चुनाव में २०१२ में मुसलमानों ने मुलायम सिंह यादव को एकमुश्त वोट किया था   लेकिन राज्य में जनाधार पूरी तरह से खो चुकी कांग्रेस को समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बराबर  सीटें २००९ में मिल गयी थीं. कांग्रेस की उन सीटों में मुसलमानों के वोट का सबसे  ज्यादा योगदान था क्योंकि उन्हें मालूम था कि केन्द्र की राजनीति में बीजेपी को सत्ता से बाहर रखने का काम केवल कांग्रेस कर सकती है . लेकिन यह भी दिलचस्प है कि मुसलमानों ने कांग्रेस को उन्हीं सीटों पर वोट दिया जहां उनके उम्मीदवार की जीत  की संभावना बन सकती थी .अपने वोट को खराब नहीं किया . जहां समाजवादी पार्टी मज़बूत थी, वहाँ समाजवादी पार्टी को वोट दिया और जहां बहुजन समाज पार्टी का उम्मीदवार जीतने की स्थिति में था , वहाँ मुसलमान बीजेपी के साथ चला गया . नतीजा यह हुआ कि बीजेपी के अलावा सभी पार्टियां २० के आस पास सीटें पाकर खुश हो गयीं.
जातियों की वफादारी सुनिश्चित करके मुलायम सिंह यादव और मायावती राज्य के हरेक जिले में अपनी पार्टी की मौजूदगी सुनिश्चित करते हैं . अन्य किसी पार्टी के पास कोई भी समर्पित जाति नहीं है .शायद इसीलिये उत्तर प्रदेश की राजनीति में लड़ाई बसपा और सपा के बीच ही नज़र आती है .लेकिन इस बार कुछ बदलाव के संकेत मिल रहे हैं .बीजेपी की तरफ से नरेंद्र मोदी के आ जाने के बाद माहौल बदल रहा है .इस बात में तो राय नहीं है कि समाजवादी पार्टी के शासन के एक साल पूरा होने के बाद लोगों ने समाजवादी पार्टी के साल भर के काम का आकलन किया है . २०१२ में समाजवादी पार्टी की जीत में यादवों और मुसलमानों के अलावा उन लोगों की भी बड़ी संख्या थी जो मायावती के पांच साल के राज से परेशान थे और कोई भी परिवर्तन चाहते थे. लेकिन जिन जिलों में कुर्मी प्रभावशाली भूमिका में थे वहाँ कांग्रेस को जीतेने की उम्मीद थी और मुसलमान उनके साथ जुड गए  और कांग्रेस जीत गयी .इसी काम के लिए बेनी प्रसाद वर्मा को खुली छूट दे दी गयी है कि वे मुलायम सिंह यादव के खिलाफ जो चाहें बयान दें , कांग्रेस  उनको महत्व देती रहेगी .
बेनी प्रसाद वर्मा इस कला के पुराने ज्ञाता हैं .जब १९८६ में अजित सिंह राजनीति में शामिल हुए तो उन्होंने अपने आपको स्व चौधरी चरण सिंह  का उत्तारधिकारी घोषित कर दिया . लेकिन यह सच्चाई नहीं थी . वास्तव में उत्तर प्रदेश की सभी पिछड़ी जातियां चरण सिंह को अपना नेता मानती थीं. पश्चिम में जाट उनके साथ थे . मध्य और पूर्वी  उत्तर प्रदेश में यादव और कुर्मी प्रभावशाली  जातियां थीं . यह सभी चरण सिंह के साथ थीं. अपने जीवनकाल में चरण सिंह मुलायम सिंह के ऊपर बहुत भरोसा भी करते थे और आमतौर पर माना जाता था कि उनकी विरासत  मुलायम सिंह ही संभालेगें . मुलायम सिंह को चरण सिंह का मानसपुत्र भी कहा जाता था लेकिन अजीत सिंह ने मुलायम सिंह को हाशिए पर डालने की कोशिश शुरू कर दी . बेनी प्रसाद वर्मा के बारे में मशहूर था कि वे मुलायम सिंह यादव को अपना बड़ा भाई मानते थे.  मुलायम सिंह उनसे करीब डेढ़ साल बड़े हैं . दोनों ही समाजवादी थे और राम सेवक यादव के समर्थक रह चुके थे . बताते हैं कि बेनी प्रसाद वर्मा ने  मुलायम सिंह यादव को समझाया कि चौधरी चरण सिंह पूरे उत्तर प्रदेश के पिछडों के नेता इसलिए बने थे कि इन दोनों ने कुर्मी और यादव जातियों को उनके साथ जोड़ दिया था . अगर कुर्मी और यादव उनसे अलग हो जाएँ तो अजित सिंह केवल पश्चिमी उत्तर प्रदेश के नेता बन कर रहे जायेगें . यही हुआ . मुलायम सिंह यादव रथ लेकर निकल पड़े और हर जिले में जाकर प्रचार किया और अजीत सिंह का प्रभाव सिमट गया .  पिछड़े वर्ग की दो ताक़तवर जातियां मुलायम सिंह यादव के साथ जुड गयीं  और वे पिछड़े वर्ग के बड़े नेता हो गए. इस काम में हर क़दम पर उनको बेनी प्रसाद वर्मा का सहयोग मिला.
अब बेनी प्रसाद वर्मा यही काम कर रहे हैं . अगर उन्होने समाजवादी पार्टी से कुर्मियों को दूर कर दिया तो और भी जातियां उनके साथ आ सकती हैं . एक जाति का बुनियादी सहारा लेकर कांग्रेस के पास एक ऐसी पूंजी बन सकती है जिसके बाद वह चुनाव में मुसलमानों को भरोसे के साथ समझा सकती है कि अगर उनका समर्थन मिला तो नतीजे बीजेपी के खिलाफ जायेगें. बेनी प्रसाद वर्मा और राहुल गांधी के इस प्रोजेक्ट में समाजवादी पार्टी के कुछ नेता भी मदद कर रहे हैं . जब शिवपाल यादव बेनी बाबू को नशेड़ी और अफीम का तस्कर कहते  हैं तो कुर्मियों को लगता है कि उनके नेता को अपमानित किया जा रहा है . और वे और  मजबूती से उनके साथ जुड़ते हैं . अगर चुनाव तक कांग्रेस ने बेनी बाबू को वही  इज्ज़त दी जो अब तक दे रही है तो इस बात की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि कांग्रेस के पास  कम से कम एक जाति की पूंजी होगी और नरेंद्र मोदी को रोकने के प्रयास में मुसलमानो के वोट कांग्रेस की झोली में जा सकते हैं.

Saturday, March 23, 2013

उत्तर प्रदेश में लोकसभा के चुनाव की तैयारियां और मुसलमानों की भूमिका




शेष नारायण सिंह 

उत्तर प्रदेश में एक बार फिर मुसलमानों में अपने आपको लोकप्रिय बनाने के लिए राजनीतिक पार्टियों में होड़ शुरू हो गयी है . सब को मालूम है कि उत्तर प्रदेश में राजनीतिक सफलता के लिए मुसलमानों के समर्थन की ज़रूरत होती है . पिछले विधान सभा चुनाव के दौरान एक बार फिर यह साबित हो गया है कि मुसलमान जिस तरफ जाता है उसकी सीटें बढ़ जाती हैं .जहां तक बीजेपी का सवाल है वह पिछले चुनाव में मुसलमानों का विरोध करके ध्रुवीकरण करवाने की कोशिश कर चुकी है .सबको मालूम है की उसको कोई राजनीतिक सफलता नहीं मिली . शायद अगले लोकसभा चुनाव की तैयारी में आम तौर पर मुसलमानों के  दुश्मन के रूप में माने जाने वाले नरेन्द्र मोदी भी अपनी ऐसी कुछ तस्वीरें अखबारों में छपवा रहे हैं जिसमें वे मुसलमानों की हुलिया वाले कपडे पहने कुछ लोगों के साथ देखे जा सकते हैं . हालांकि मोदी को भी मालूम है की मुसलमान उनको हराने के लिए ही वोट देगा लेकिन   बीजेपी वाले अपनी तरफ से पूरी कोशिश कर रहे हैं कि   मोदी के ऊपर मुस्लिम द्रोह का जो मुलम्मा लगा है उसको मिटाया जा सके. सभी दलों को पता है कि उत्तर प्रदेश में अधिक से अधिक सीटें जीतने के लिए मुसलमानों की मदद बहुत ज़रूरी है  शायद इसीलिये सभी गैर बीजेपी पार्टियां अपने को मुसलमानों सबसे बड़ा शुभचिन्तक बता रही है . 

उत्तर प्रदेश एक ऐसा राज्य है जहां मुसलमान किसी भी सीट पर पक्की जीत तो नहीं दिलवा सकते हैं लेकिन एकाध सीट को छोड़कर उनकी संख्या हर सीट पर चुनावी नतीजों को प्रभावित करती है .आबादी के हिसाब से करीब १९ जिले ऐसे हैं जहां मुसलमानों की आबादी बहुत घनी है.रामपुर ,मुरादाबाद,बिजनौर मुज़फ्फर नगर,सहारनपुर, बरेली,बलरामपुर,अमरोहा,मेरठ ,बहराइच और श्रावस्ती में मुसलमान तीस प्रतिशत से ज्यादा हैं . गाज़ियाबाद,लखनऊ , बदायूं, बुलंदशहर, खलीलाबाद पीलीभीत,आदि कुछ ऐसे जिले जहां  कुल वोटरों का एक चौथाई संख्या मुसलमानों की है . जहां तक बीजेपी का सवाल है उन्हें मालूम है कि  उन्हने मुसलामानों के वोट नहीं मिलने वाले हैं  इसलिए उनकी तरफ से केवल सांकेतिक कोशिश ही की जा रही है . उत्तर प्रदेश से आने वाले इकलौते राष्ट्रीय  मुस्लिम नेता तक रामपुर जैसी मुस्लिम बहुल सीट से चुनाव  हार गए थे. लेकिन बाकी तीनों पार्टियां मुसलमानों के वोट  की चाहत रखती हैं . कांग्रेस ने पिछले विधान सभा चुनावों के दौरान ओबीसी कोटे से काटकर  साढ़े चार प्रतिशत अल्पसंख्यक  आरक्षण की बात करके  मुसलमानों को अपनी तरफ खींचने की कोशिश की थी . वह सफल नहीं रहा  .कांग्रेस के खाते में मुसलमानों का पक्षधर बनाने के बहुत सारे अवसर नहीं हैं . बड़े ताम झाम के साथ  यू  पी ए  सरकार ने अल्पसंख्यक मंत्रालय बनाया था .उस वक़्त कहा गया था कि  सच्चर कमेटी की रिपोर्ट को लागू करवाने का ज़िम्मा इस मंत्रालय के पास था. लेकिन शुरू में यह मंत्रालय ऐसे  मंत्रियों के हवाले किया गया था जो इस काम को पार्ट टाइम मानकर चल रहे थे. अब जो नए मंत्री आये हैं वे काम को गंभीरता से ले रहे हैं लेकिन अब समय बहुत कम बचा है . ज़ाहिर है मुसलमानों का पक्षधर बनाने की कांग्रेस की कोशिश हमेशा की तरह डावांडोल  है .पिछले मंत्रियों के कार्यकाल के काम काज की जांच करने वाली संसद की एक कमेटी ने सरकार के कामकाज की सख्त नुक्ताचीनी की  थी .
 सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय से सम्बंधित कमेटी ने अल्पसंख्यकों के लिए किये जा रहे काम में सम्बंधित मंत्रालय को गाफिल पाया था . इस समिति की बीसवीं रिपोर्ट में बताया गया है कि सरकार ने  मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यकों के लिए बजट में मिली हुई रक़म का सही इस्तेमाल नहीं किया और पैसे वापस भी करने पड़े.  कमेटी की रिपोर्ट में लिखा गया है कि कमेटी इस  बात से बहुत नाराज़ है कि २०१०-११ के साल में अल्पसंख्यक मंत्रालय ने ५८७ करोड़ सत्तर लाख की वह रक़म लौटा दी  जो घनी अल्पसंख्यक आबादी के विकास के लिए मिले थे. हद तो तब हो गयी जब मुस्लिम बच्चों के वजीफे के लिए मिली हुई रक़म  वापस कर दी गयी.  यह रक़म संसद ने दी थी और सरकार ने इसे इसलिए वापस कर दिया कि वह इन स्कीमों में ज़रूरी काम नहीं तलाश पायी. यह सरकारी बाबूतंत्र के नाकारापन का नतीजा है .,  प्री मैट्रिक वजीफों के मद   में  मिले हुए धन में से ३३ करोड़ रूपये वापस कर दिए गए , मेरिट वजीफों के लिए मिली हुई रक़म में से २४ करोड़ रूपये वापस कर दिए गए और पोस्ट मैट्रिक वजीफों के लिए मिली हुयी रक़म में से २४ करोड़ रूपये वापस कर दिए गए . इसका मतलब  यह हुआ कि सभी पार्टियों के प्रतिनिधित्व वाली  संसद ने तो सरकार को मुसलमानों के विकास के लिए पैसा दिया था लेकिन सरकार ने उसका सही इस्तेमाल नहीं किया . इस के बारे में सरकार का कहना  है कि उनके पास  अल्पसंख्यक आबादी वाले जिलों से प्रस्ताव नहीं आये इसलिए उन्होंने संसद से मिली रक़म का सही इस्तेमाल नहीं किया . संसद की स्थायी समिति ने इस बात पर सख्त नाराज़गी जताई है और कहा है कि वजीफों वाली गलती बहुत बड़ी है और उसको दुरुस्त करने के लिए सरकार को काम करना चाहिए . बजट में वजीफों की घोषणा हो जाने  के बाद सरकार को चाहिए कि उसके लिए ज़रूरी प्रचार प्रसार आदि करे जिससे जनता भी अपने जिले या राज्य के अधिकारियों पर दबाव बना सके और अल्पसंख्यकों के विकास के लिए मिली हुई रक़म  सही तरीके से इस्तेमाल हो सके. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के पास मुसलमानों का नेतृत्व  करने वालों की भी भारी कमी है . अपने एक राष्ट्रीय नेता को उन्होंने प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बनाकर देख लिया  कि  बड़े नेता को चार्ज देने से भी उनका कोई लाभ नहीं हुआ. 
बहुजन समाज पार्टी  भी मुस्लिम बी वोटों की दावेदार के रूप में जानी जाती है . यह अलग बात है कि  मायावती ने राज्य और केंद्र में कई बार बीजेपी की सरकारों का समर्थन किया है लेकिन वे अपने को मुसलमानों का शुभचिंतक बताती हैं . उनकी तरकीब यह है कि वे बहुत बड़ी संख्या में मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट देती हैं . उनके साथ कुछ मुसलमान मंत्री भी रहते हैं लेकिन  किसी को भी नेता के रूप में उभरने का मौक़ा नहीं  मिलता,सभी मायावती जी की छत्रछाया में ही नेता बने रहते हैं .


उत्तर प्रदेश की राजनीति में मुसलमानों की खैरख्वाह के रूप में समाजवादी पार्टी को १९९१ से ही एक पहचान मिली हुयी है . बीच में कुछ महीनों के लिए पार्टी के अध्यक्ष के कल्याण प्रेम के कारण समाजवादी पार्टी को मुसलमानों  ने शक की नज़र से देखा लेकिन बाद में जब कल्याण सिंह को पार्टी से हटा दिया गया  तो मुसलमान बड़ी संख्या में उनके साथ आये और  सत्ता अखिलेश यादव को सौंप दी .लेकिन जब सत्ता आयी तो दिल्ली  और पश्चिमी  उत्तर प्रदेश के बहुत सारे मुसलमानों  ने दावा करना शुरू कर दिया की उनके कारण ही सारा मुसलमान समाजवादी पार्टी के साथ जुडा था. मुलायम सिंह की पार्टी को सत्ता दिलवाने का दावा करने वालों में ऐसे मुसलमान भी शामिल थे जो अपने मुहल्ले का चुनाव नहीं जीत सकते . ऐसे बहुत सारे मुसलमान  भी  मुलायम सिंह की तकदीर बनाने का  दावा करने लगे जिनकी रोटी पानी भी समाजवादी पार्टी की वजह से चलती  थी . मुलायम सिंह यादव ने इस जमात के लोगों को खूब लाभ पंहुचाया और  जनता में ऐसा माहौल बनना शुरू  हो गया कि वे लोग वास्तव में समाजवादी पार्टी के सही खैरख्वाह हैं . आजकल पूरे राज्य में यही माहौल है . हालांकि सच्चाई  यह  है  उत्तर प्रदेश का आम मुसलमान इन लोगों में से किसी को नेता नहीं  मानता . वह केवल मुलायम सिंह यादव को अपना  शुभचिन्तक और नेता मानता है. समाजवादी पार्टी के अन्दर  की खबर रखने वाले पार्टी के एक नेता ने बताया  कि  उनकी पार्टी का आलाकमान अब पार्टी में ऐसे मुसलमानों को महत्व देना  चाहता है जो वक़्त के साथ आर्थिक लाभ के लिए हर सत्ताधारी पार्टी के चक्कर नहीं काटने  लगते .अब ऐसे नेताओं को आगे बढाने की योजना पर काम चल रहा है जो नौजवान हों और समाजवादी पार्टी के साथ ही शुरू से जुड़े रहे हों . जिनको विकसित किया जाए और जो बाद में पार्टी का मुस्लिम फेस बन सकें . पार्टी की स्थापना के बाद मुलायम सिंह यादव ने यह प्रयास किया था  जब उन्होंने एक आन्दोलन से आये आज़म खान को समाजवादी पार्टी का प्रमुख मुस्लिम चेहरा बनाया था लेकिन बाद में जब अमर सिंह का प्रादुर्भाव हुआ तो आज़म खान का महत्व कम हो गया . पता चला है की इस बार भी सत्ता के दलालों के  मकड़जाल से निकल कर समाजवादी पार्टी का आलाकमान किसी मुसलमान को गंभीर नेता के रूप में आगे बढाने की सोच रहा है . पता चला है की अमरोहा के विधायक और मंत्री, कमाल अख्तर को समाजवादी पार्टी आगे बढाने की सोच रही है . कमाल अख्तर छात्र नेता रहे हैं , जामिया मिलिया के छात्र संघ के अध्यक्ष रहे, समाजवादी पार्टी के युवा  संगठन के अखिल भारतीय अध्यक्ष रहे और  राज्य सभा के सदस्य रहे . समाजवादी पार्टी के नेताओं के आस पास घूमने वाले अन्य नेताओं से अलग उनकी छवि भी है. पार्टी के शीर्ष नेता उन्हें पसंद करते हैं और वे चुनाव भी जीत जाते हैं . आजकल मंत्री हैं और लखनऊ के सत्ता के गलियारों के जानकारों  का कहना है की बहुत खुशमिजाज़ भी है।यह देखना दिलचस्प होगा कि समाजवादी पार्टी की यह कोशिश कितना  प्रभावकारी साबित होते है .  बहरहाल आने वाला चुनाव राज्य की सबसे बड़ी पार्टी के लिए एक अवसर है . वक़्त ही बताएगा कि  वह इस अवसर का कैसा इस्तेमाल करती है .

Monday, January 23, 2012

अब मुसलमान जज़्बात नहीं, विकास के मुद्दों पर वोट डालेगा

शेष नारायण सिंह

उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनाव के पहले सभी राजनीतिक पार्टियों में वोटर को अपनी तरफ खींच लेने की होड़ मची हुई है .इस बार के चुनाव में सभी दलों को पता है कि सत्ता की चाभी मुसलमानों के हाथ में है. शायद इसीलिये सभी गैर बीजेपी पार्टियां अपने को मुसलमानों सबसे बड़ा शुभचिन्तक साबित करने के चक्कर हैं . जब टेलिविज़न की खबरों का ज़माना नहीं था तो एक ख़ास विचारधारा के लोग अफवाहों के सहारे चुनावों के ठीक पहले राज्य के कुछ मुसलिम बहुल इलाकों में साम्प्रदायिक दंगा करवा लेते थे और उनकी अपनी सीट साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के नाम पर निकल जाती थी . लेकिन टी वी न्यूज़ की बहुत बड़े पैमाने पर मौजूदगी के चलते अब अफवाहों की बिना पर दंगा करवा पाना बहुत मुश्किल हो गया है . इसलिए बाबरी मस्जिद के विध्वंस के लिए ज़िम्मेदार विचारधारा वाले तो अब मुसलमानों के ध्रुवीकरण की उम्मीद छोड़ चुके हैं . लेकिन बाकी तीन मुख्य राजनीतिक पार्टियां मुसलमानों के समर्थन के बल पर लखनऊ की सत्ता पर काबिज़ होने के सपने देख रही हैं . इसके लिए जहां पुराने तरीकों को भी अपनाया जा रहा है तो नए से नए तरीके भी अपनाए जा रहे हैं .राज्य की सत्ताधारी पार्टी की मुखिया ने बहुत बड़ी संख्या में मुसलमानों को टिकट देकर यह माहौल बनाने की कोशिश की है कि वह मुसलमानों की असली शुभचिन्तक हैं . समाजवादी पार्टी को १९९१ से ही उत्तर प्रदेश के मुसलमानों की प्रिय पार्टी के रूप में पेश किया जाता रहा है .इसमें सच्च्चाई भी थी. जब भी समाजवादी पार्टी को मौक़ा मिला उसने मुसलमानों के समाजिक और आर्थिक स्तर को सुधारने की कोशिश की . कभी राज्य में उर्दू को बढ़ावा दिया तो कभी पुलिस जैसी सरकारी नकारियों में मुसलमानों को बड़ी संख्या में भर्ती किया . लेकिन पिछले लोक सभा चुनावों के ठीक पहले बाबरी मस्जिद के विध्वंस के मामले में सुप्रीम कोर्ट से सज़ा पा चुके नेता कल्याण सिंह को सम्मान सहित पार्टी में भर्ती करके समाजवादी पार्टी ने मुसलमानों को बहुत निराश किया था . उसका नतीजा भी लोकसभा चुनावों में सामने आ गया था . समाजवादी पार्टी २००४ में करीब ४० सीटें जीतकर लोक सभा पंहुची थी वहीं २००९ में बीस के आस पास रह गयी . हालांकि मुसलमानों ने पूरी तरह तो साथ नहीं छोड़ा था लेकिन कल्याण सिंह के प्रेम के कारण समाजवादी पार्टी मुसलमानों की प्रिय पार्टी नहीं रह गयी थी. कल्याण सिंह के भर्ती होने के बाद पैदा हुई समाजवादी पार्टी से मुसलमानों की नाराज़गी को कांग्रेस ने अपने फायदे में इस्तेमाल करने की कोशिश की थी . कांग्रेस पार्टी को भी मुसलमानों के बीच ६ दिसंबर १९९२ के बाद पसंद नहीं किया जाता था . उसके कई कारण थे. सबसे बड़ा तो यही कि १९९२ में बाबरी मस्जिद के विनाश के लिए कांग्रेस पार्टी भी कम ज़िम्मेदार नहीं थी. ६ दिसंबर १९९२ के दिन दिल्ली की सत्ता पर कांग्रेस का क़ब्ज़ा था ,पी वी नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री थे और उन्होंने उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्य मंत्री कल्याण सिंह पर भरोसा किया था कि वे बाबरी मस्जिद की सुरक्षा करेगें . अजीब बात है कि कांग्रेस ने कल्याण सिंह पर भरोसा किया जबकि हर सरकारी अफसर को मालूम था कि बाबरी मस्जिद को ज़मींदोज़ करने की योजना बन चुकी थी और उस साज़िश में कल्याण सिंह बाकायदा शामिल थे . . कांग्रेस की इस मिलीभगत के कारण मुसलमानों और सेकुलर जमातों ने कांग्रेस से किनारा कर लिया था . लेकिन जब से राहुल गांधी ने मैदान लिया है उन्होंने मुसलमानों का भरोसा हासिल करने में थोड़ी बहुत सफलता हासिल की है .जानकार बाते हैं कि उनकी कोशिश का ही नतीजा था कि लोक सभा २००९ में कांग्रेस को बीस से ज्यादा सीटों पर सफलता मिली. उसके बाद तो कांग्रेस ने बहुत सारे ऐसे काम किये हैं जिससे लगता है कि कांग्रेस ६ दिसंबर १९९२ के अपने काम के लिए शर्मिंदा है और बात को ठीक करना चाहती है . कांग्रेस की सरकार ने जो सच्चर कमेटी बनायी है वह मुसलमानों की हालत सुधारने की दिशा में उठाया गया एक निर्णायक क़दम है . सच्चर कमेटी की रिपोर्ट आ जाने के बाद अब तक प्रचलित बहुत सारी भ्रांतियों से पर्दा उठ गया है . मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति का प्रचार करके संघ परिवार और उसके मातहत संगठन हर सरकार पर आरोप लगाते रहते थे कि मुसलमानों का अपीजमेंट किया जाता है.लेकिन सच्चर कमेटी की रिपोर्ट आने के बाद उस तर्क की हवा निकल चुकी है .इतना ही नहीं ,कांग्रेस की सरकार ने रंगनाथ मिश्रा कमीशन बनाकर मुसलमानों को सरकारी नौकरियों में रिज़र्वेशन देने की भी सरकारी पहल को एक शक्ल दे दी. अब सभी गैर बीजेपी पार्टियां रंगनाथ मिश्रा कमीशन की बात करने लगी हैं और उस तरफ कुछ काम भी हो रहा है . मसलन जब यू पी ए सरकार ने सरकारी नौकरियों में ओ बी सी कोटे से काटकर साढ़े चार प्रतिशत अल्पसंख्यक आरक्षण की बात की, तो बात कुछ आगे बढ़ी. कांग्रेस ने इसका खूब प्रचार प्रसार भी किया और इस साढ़े चार प्रतिशत को मुसलमानों का आरक्षण बताने की राजनीतिक मुहिम चलाई . जबकि सच्चाई यह है कि इस साढ़े चार प्रतिशत वाली बात से मुसलमानों का कोई भला नहीं होने वाला है . क्योंकि उनको इस साढ़े चार प्रतिशत के लिए सिख, ईसाई , जैन और बौध समाज से कम्पटीशन करना पडेगा. ज़ाहिर है यह सारा का सारा साढ़े चार प्रतिशत इन्हीं अल्पसंख्यक समुदायों के हिस्से में जाएगा जो शैक्षिक रूप से आगे हैं . लेकिन कांग्रेस के नेताओं के भाषणों के हवाले से बाद में सामाजिक न्याय की पक्षधर जमातें कांग्रेस को मजबूर कर सकती हैं कि वह शुद्ध रूप से मुसलमानों के लिए सरकारी नौकरियों का कुछ प्रतिशत अलग से रिज़र्व कर दे .
बहरहाल अब एक बात साफ़ है कि पुराने तरीकों को इस्तेमाल करके अब मुसलमानों को बेवक़ूफ़ बनाना थोडा मुश्किल होगा. मसलन उत्तर प्रदेश की मौजूदा सत्ताधारी पार्टी की मुखिया ने अधिक संख्या में मुसलमानों को टिकट देकर अपने मुस्लिम प्रेम को ज़ाहिर करने की कोशिश की है .कांग्रेस और समाजवादी पार्टी ने भी मुसलमानों को टिकट देकर अपने मुस्लिम प्रेम को दिखाने की कोशिश की है . लेकिन मुसलिम नौजवानों का मौजूदा वर्ग इस बात से प्रभावित नहीं हो रहा है . वह सवाल पूछ रहा है कि कुछ संपन्न और ताक़तवर मुसलमानों को एम पी ,एम एल ए बनाकर कोई भी पार्टी आम मुसलमान को कैसे संतुष्ट कर सकती है . अब मुसलामान कुछ सत्ता प्रेमी मुसलमानों को मिली हुई इज़्ज़त से खुश होने को तैयार नहीं है . वह इंसाफ़ की मांग करने लगा है . उसे शिक्षा चाहिए , उसे सरकारी नौकरियों और निजी औद्योगिक क्षेत्र में अपना हक चाहिए . कुछ मुसलमानों के सामने टिकट की खैरात फेंक कर आम मुसलमान को संतुष्ट कर पाना अब नामुमकिन है . इसीलिये देखा यह जा रहा है कि सच्चर और रंगनाथ मिश्रा को जिस सम्मान की नज़र से मुस्लिम समाज में देखा जाता है ,वह इज्ज़त किसी भी मुस्लिम राजनेता को मयस्सर नहीं है .वैसे भी मुसलमान हर उस आदमी की इज़्ज़त करता है जो उसके लिए न्याय की बात करता अहै . लेकिन दुर्भाग्य यह है कि जो भी मुसलमान राजनीतिक सत्ता हासिल कर लेता है वह मुसलमानों से दूर रहने में ही अपनी भलाई समझता है .
उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव २०१२ के पहले जो माहौल बन रहा है वह इस देश के आम मुसलमान के लिए निश्चित रूप से लाभकारी होगा. मसलन कांग्रेस अपने साढ़े चार प्रतिशत के अल्पसंख्यक आरक्षण को मुस्लिम आरक्षण बताने की कोशिश में जब नाकाम हो गयी तो अपने एक मुस्लिम मंत्री से बयान दिलवा दिया कि अब मुसलमानों को ९ प्रतिशत आरक्षण दिया जाएगा. इस बात को मीडिया का इस्तेमाल करके गरमाने की कोशिश भी की जा रही है .. कांग्रेस की इस कोशिश को आम मुसलमान गंभीरता से ले रहा है . उधर समाजवादी पार्टी ने मुसलमानों के लिए १८ प्रतिशत रिज़र्वेशन की बात करना शुरू कर दिया है . समाजवादी पार्टी की इस बात को चुनावी स्टंट ही माना जा रहा है . यह अलग बात है कि मुसलमानों के बीच मुलायम सिंह यादव की विश्वसनीयता इतनी ज्यादा है कि उनकी बात को लोग हल्का नहीं मानते,लेकिन लोगों को यह भी मालूम है कि फिलहाल मुसलमानों को १८ प्रतिशत रिज़र्वेशन देना राजनीतिक रूप से किसी भी पार्टी के लिए संभव नहीं है .

इस चुनाव की एक और दिलचस्प बात यह है कि भावनात्मक मुद्दों को उठाने की कोई कोशिश काम नहीं आ रही है . कल्याण सिंह का हिन्दू हृदय सम्राट वाला चोला बिलकुल बेकार साबित हो रहा है . अपने इलाके में अपनी बिरादरी के कुछ लोगों के अलावा वह किसी के हृदय सम्राट नहीं बन पा रहे हैं .ज़ाहिर है वे चुनावों में कोई ख़ास भूमिका नहीं निभा पायेगें .. बाबरी मस्जिद केस में उनकी सह अभियुक्त उमा भारती को भी बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने यू पी में अहम भूमिका देने की कोशिश की है लेकिन उनकी मौजूदगी भी कट्टर हिन्दूवादी वोटरों पर वह असर नहीं डाल पा रही है जो १९९२ के बाद के चुनावों में थी. यही हाल बाबरी मस्जिद के नाम पर राजनीति करने वाले मुसलमानों का भी है . उस वक़्त के ज़्यादातर नेता तो पता नहीं कहाँ चले गए हैं .. जो एकाध कहीं नज़र भी रहे हैं उनकी मुसलमानों की बीच कोई ख़ास औकात नहीं है ..दरअसल इस चुनाव में यह बात बिकुल साफ़ हो गयी है कि अब मुसलमान ज़ज़बाती मुद्दों को अपनाने को तैयार नहीं है. उसे तो इंसाफ़ चाहिए और अपना हक चाहिए . उसे विकास चाहिए और सामान अवसर चाहिए . अगर उत्तर प्रदेश का मुसलमान इस बार इन मुद्दों को चुनाव की मुख्य धारा बनाने में कामयाब हो गया तो देश का और मुसलमान का मुस्तकबिल अच्छा होगा अब सभी मानने लगे हैं कि मुसलमान जज्बाती होकर फैसला नहीं करने वाला है . वह किसी भी दंगाई की बात में नहीं आने वाला है . यह संकेत २००७ में ही मिलना शुरू हो गया था. जब २००७ के विधान सभा चुनाव के ठीक पहले पूर्वी उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों में मुसलमानों के खिलाफ ज़हर उगल रहे कुछ होर्डिंग लगा दिए गए थे, सी डी बांटी गयी थी और मुसलमानों को और तरीकों से भड़काने की कोशिश की गयी थी तो मुसलमानों ने आम तौर पर उस कोशिश को नज़र अंदाज़ किया था. उसके बाद के किसी भी चुनाव में भड़काऊ बयान या चुनाव सामग्री का बाज़ार नहीं चल पाया .शायद इसीलिये मौजूदा चुनाव भी विकास के मुद्दों के इर्द गिर्द घूमता नज़र आ रहा है . और सभी पार्टियों के मालूम है कि इस बार मुसलमानों की निर्णायक मदद के बिना सरकार नहीं बनने वाली है .

इंसाफ़ की इस लड़ाई में इस बार उत्तर प्रदेश के मुसलमानों की संख्या अहम भूमिका निभाने वाली है .मुसलमानों की संख्या के हिसाब से करीब १९ जिले ऐसे हैं जहां उनकी मर्जी के लोग ही चुने जायेगें . इन जिलों में करीब सवा सौत सीटें पड़ती हैं . रामपुर ,मुरादाबाद,बिजनौर ,मुज़फ्फरनगर,सहारनपुर, बरेली,बलरामपुर,अमरोहा,मेरठ ,बहराइच और श्रावस्ती में मुसलमान तीस प्रतिशत से ज्यादा हैं . गाज़ियाबाद,लखनऊ , बदायूं, बुलंदशहर, खलीलाबाद पीलीभीत,आदि कुछ ऐसे जिले जहां कुल वोटरों का एक चौथाई संख्या मुसलमानों की है . ज़ाहिर है जहां मुसलमानों के वोट के लिए तीन अहम पार्टियां जीतोड़ कोशिश कर रही हैं वहां यह वोटर इंसाफ़ की जद्दो जहद में एक ज़बरदस्त भूमिका निभा सकते हैं . ऐसा लगता है अब उत्तर प्रदेश की राजनीति में मुसलमानों के जज़्बात को भड़का कार राजनीति करना मुश्किल होगा. अब राजनीतिक पार्टियों को असली मुद्दों को संबोधित करना पडेगा.

Sunday, November 27, 2011

इस बार उत्तर प्रदेश की सत्ता की चाभी मुसलमानों के हाथ में है

शेष नारायण सिंह

उत्तरप्रदेश विधान सभा के चुनाव के लिए प्रचार शुरू हो गया है .राहुल गांधी अपने विवादास्पद बयानों के चलते सुर्ख़ियों में बने हुए हैं . कभी मुलायम सिंह यादव के सबसे वफादार साथी रहे बेनी प्रसाद वर्मा के जिले,बाराबंकी में उन्होंने कई धमाकेदार बयान दिये और एक बार फिर साबित करने की कोशिश की कि उत्तर प्रदेश के लोग दिल्ली और मुंबई में भीख मांगने के काम को कोई अछूत काम नहीं मानते हैं . राहुल गांधी के इस बयान को बीजेपी वाले उनके खिलाफ इस्तेमाल करेगें . उस बयान की धमक यू पी विधान सभा चुनाव पर तो पड़ेगी ही, राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि उसका असर मुंबई में यू पी विधान सभा चुनाव के आस पास ही हो रहे नगरपालिका चुनावों पर भी पड़ सकता है . यह बयान निश्चित रूप से लोगों को शाक करने के लिए दिया गया है , लोगों को सोचने के लिए मजबूर करने के लिए दिया गया है . अगर कांग्रेस के पास ज़मीनी स्तर के कार्यकर्ता होते तो इसे राहुल गांधी की यू पी वालों के घर छोड़ कर भागने की प्रवृत्ति को रोकने की कोशिश के रूप में पेश किया जा सकता था . लेकिन कांग्रेस के पास यू पी में नेता बहुत हैं, कार्यकर्ता बिलकुल नहीं हैं . मीडिया में भी राज्य के कांग्रेसी नेताओं की ऐसी छवि नहीं है कि राहुल गांधी की बात को आम जनता तक पंहुचाने में वे सहयोग कर सकें . जबकि विपक्षी दलों की कोशिश होगी कि वे राहुल गांधी के इस बयान को एक गैर ज़िम्मेदार बयान के दायरे से बाहर ही न आने दें .कांग्रेस ने पिछले कुछ वर्षों में यू पी में बहुत काम किया है . ख़ास तौर पर मुसलमानों में अपनी छवि को सुधारने में सफलता पायी है . इसका नतीजा लोकसभा २००९ में नज़र भी आया जब कांग्रेस पार्टी राज्य की दोनों बड़ी पार्टियों के बराबर सांसद चुनवाने में सफल रही. इस बार भी कांग्रेस को उम्मीद है कि मुसलमान उसको उसी तरह से समर्थन देगें जिस तरह से लोक सभा चुनाव २००९ के वक़्त दिया था. यह उम्मीद बिकुल जायज़ है .लेकिन अब हालात बदल गए है . सबसे बड़ी बात तो यही है कि इस बार एक ऐसी सरकार चुनी जानी है जो यू पी में राज काज संभालेगी . उसके पास कानून व्यवस्था का प्रबंधन होगा . मुसलमान की पूरी कोशिश होगी कि वह उत्तर प्रदेश में किसी ऐसी सरकार के गठन में सहयोग न कर दे जो गुजरात की मोदी सरकार की तरह काम करे. गुजरात की मोदी सरकार के बारे में जो तथ्य सामने आ रहे हैं उन से कोई भी मुसलमान डर सकता है . सबसे ताज़ा मामला मुंबई की लडकी इशरत जहां को फर्जी इनकाउंटर के ज़रिये क़त्ल करने का है .गुजरात के पुलिस अधिकारी संजीव भट्ट ने सुप्रीम कोर्ट तक में हलफनामा दाखिल कर दिया है कि मुख्य मंत्री,नरेंद्र मोदी ने गोधरा में ट्रेन में आग लगने के बाद पुलिस को हुक्म दिया था कि हिन्दुओं के गुस्से को प्रकट होने दें . दुनिया जानती है कि उस गुस्से के बाद गुजरात के कुछ शहरों में मुसलमानों का क्या हाल हुआ था. पूरे देश में मुसलामन उस हालत में नहीं पंहुचना चाहता जिस हालत में २००२ में गुजरात के मुसलमान पंहुच गए थे . बहुत सारे लोग यह कहते पाए जाते हैं कि नरेंद्र मोदी निजी तौर पर बहुत ही शांत प्रवृत्ति के इंसान हैं . उनकी बात को अगर मान भी लिया जाये तो गुजरात २००२ के नरसंहार को भुलाया नहीं जा सकता . इससे यह साबित होता है कि बीजेपी का मुख्यमंत्री अगर बहुत भला आदमी भी होगा तो वह गोधरा के बाद मुसलमानों के क़त्ले आम जैसी हालत पैदा होने से रोकने में बहुत दिलचस्पी नहीं लेगा. ज़ाहिर है कि कहीं भी कोई भी मुसलमान ऐसी किसी सरकार के बनने के हालात नहीं पैदा होने देगा जिससे उत्तर प्रदेश में बीजेपी की स्पष्ट बहुमत वाली सरकार बन जाए.पूरी तरह से टुकड़ों टुकड़ों में बँट चुकी उत्तर प्रदेश की आबादी में अब बहुत कम वोट बैंक रह गए हैं . इसलिए यह उम्मीद करना कि कोई एक ख़ास वर्ग किसी एक पार्टी के पक्ष में टूट पडेगा, बेमतलब है . अब तक माना जाता था कि उत्तर प्रदेश में दलित वर्गों का वोटर मौजूदा मुख्य मंत्री , मायावती के साथ रहता है लेकिन इस बार वह तस्वीर भी बदल रही है . गाँवों के स्तर तक जिस तरह से भ्रष्टाचार करने वालों का सरकारी आशीर्वाद से आतंक मचा हुआ है उसका शिकार सभी लोग हो रहे हैं . उसमें दलित भी शामिल हैं . इसलिए इस बात की पूरी संभावना है कि विधान सभा २०१२ में यू पी की जनता कुछ इस तरह से वोट करेगी जिस से राज्य में ग्रामीण स्तर पर मची लूट को रोका जा सके. ऐसी हालत में वोट उसी को मिल सकता है जो अपने आप को मायावाती के विकल्प के रूप में पेश करने में सफल होगा .समाजवादी पार्टी और उसके नेता मुलायम सिंह मायावती को सबसे मज़बूत चुनौती देने वाले नेता के रूप में पहचाने जाते हैं. पारंपरिक रूप से मुसलमान उनको वोट देते भी रहे हैं . यहाँ तक कि २००७ में भी मुसलमानों ने उनको वोट दिया था लेकिन उनकी पिछली सरकार में उनके कुछ साथियों की कारस्तानी ऐसी थी कि उनको बाकी कहीं से वोट नहीं मिले . नतीजा यह हुआ कि उनसे नाराज़ जनता ने मायावाती को मुख्यमंत्री बना दिया . स्पष्ट बहुमत के साथ मायावती पहली बार मुख्य मंत्री बनी थीं . इसके पहले हर बार वे बीजेपी के समर्थन से ही सरकार चलाती रही थीं . पूर्ण बहुमत के साथ चली मायावती की सरकार ऐसी सरकार नहीं है जिसको कोई बहुत गरीबपरवर सरकार कह सके . उसमें आर्थिक शुचिता निश्चित रूप से बहुत कम रही है . ऐसा लगता है कि मायावती को मालूम है कि पुराने फार्मूलों से इस बार चुनाव जीत सकना मुश्किल होगा.शायद इसीलिए चुनाव के ऐन पहले या यूं कहें कि चुनावी रणनीति को धार देने की गरज से मायावती ने उत्तर प्रदेश के बँटवारे का ऐलान कर दिया है . उत्तर प्रदेश के बँटवारे का राजनीतिक फैसला लेकर मायावती ने राज्य में सारे चुनावी समीकरण बदल दिया है . सबको मालूम है कि विधानसभा में पास किये गए मुख्यमंत्री मायावती के प्रस्ताव का कोई मतलब नहीं है लेकिन वह एक धमाकेदार राजनीतिक स्टेटमेंट तो हैं ही. उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव २०१२ में अब यह मुद्दा निश्चित रूप से अहम भूमिका निभायेगा. राज्य के बँटवारे पर गोलमोल बयान दे रही कांग्रेस और बीजेपी के सामने अब उत्तर प्रदेश की राजनीति में खासी मुश्किल पेश आने वाली है . उत्तर प्रदेश के बँटवारे की बात कर रहे अजीत सिंह को इस राजनीतिक घटनाक्रम ने निश्चित रूप से कमज़ोर किया है . पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुसलमानों के बीच कांग्रेस की मज़बूत होती साख के चक्कर में वे कांग्रेस से समझौता करने की कोशिश कर रहे हैं . उनके स्वर्गीय पिता ने अपनी बिरादरी के वोट और मुसलमानों के वोट के बल पर उतर प्रदेश में वर्षों राज किया था लेकिन अब मुसलमानों के बीच अजीत सिंह की स्वीकार्यता घटी है .लोकसभा २००९ के दौरान उनकी ख़ास सहयोगी और पार्टी की बड़ी नेता, अनुराधा चौधरी को जिताने के लिए गुजरात के मुख्य मंत्री नरेंद्र मोदी का सहयोग लिया गया था. अजीत सिंह और अनुराधा चौधरी के साथ नरेंद्र मोदी की तस्वीर वाले पोस्टर पूरे इलाके में पाट दिए गए थे. मुसलमानों ने एकमुश्त अनुराधा के खिलाफ वोट दिया और वे हार गयीं . वे पोस्टर इलाके के लोगों को अभी भी याद है . इसलिए लगता है कि राज्य के बँटवारे के मुद्दे के छिन जाने के बाद अजीत सिंह खासे कमज़ोर हुए हैं . पश्चिमी उत्तरप्रदेश के प्रभावशाली मुसलमानों के बीच उनकी नरेंद्र मोदी परस्त नेता की छवि भी उनको नुकसान पंहुचा सकती है . जानकार तो यहाँ तक कहते हैं कि अगर कांग्रेस ने अजीत सिंह के साथ समझौता किया तो उसके अपने वोट पश्चिम में ही नहीं पूरे राज्य में घट जायेगें .ऐसी हालत में कांग्रेस के समझौते के बाद भी अजीत सिंह एक ताक़त के रूप में नहीं उभरने वाले हैं . वैसे भी उनके बारे में यह शक़ बना रहता है कि पता नहीं कब वे बीजेपी से जा मिलेगें .

कुल मिलाकर उत्तर प्रदेश के मुसलमानों के सामने विकल्प बहुत कम हैं . हालांकि खासी बड़ी संख्या में मुसलमान कांग्रेस की तरफ खिंचे हैं लेकिन कांग्रेस जब तक सरकार बनाने लायक स्थिति में नहीं आती तब तक मुसलमानों के वोट सारी सहानुभूति के बावजूद उसे नहीं मिलेगें . मायवाती के खिलाफ बन रहे माहौल के बाद लगता है कि मुसलमानों की प्राथमिकता सूची में समाजवादी पार्टी सबसे ऊपर रहेगी. कहा जा रहा है कि राज्य के बँटवारे का विरोध करके मुलायम सिंह यादव ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लोगों को नाराज़ कर लिया है और उनको इसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है .मुलायम सिंह यादव ने इस बार अपने चुनाव अभियान की शुरुआत एटा जिले के उस इलाके से की जहां यादवों का ख़ासा प्रभाव है . लगता है कि राज्य के बँटवारे की राजनीतिक चाल से होने वाले नुकसान की भरपाई वे पिछड़ों के वोट को अपने साथ बड़े पैमाने पर जोड़कर करना चाहते हैं . लेकिन उनकी हालत पूर्वी उत्तरप्रदेश में उतनी मजबूत नहीं है जितनी पहले हुआ करती थी .वहां पीस पार्टी नाम की एक पार्टी बना दी गयी है जो निश्चित रूप से मुलायम सिंह के मतदाताओं को तोड़ेगी उनके प्रभाव के जिलों, आज़मगढ़ , जौनपुर आदि में उनकी बिरादरी के जो नेता उनके सारथी हैं वे बहुत ही अलोकप्रिय लोग हैं . वहां मायावती का प्रभाव भी बहुत ज्यादा है . बीजेपी के तीनों बड़े नेता उसी इलाके के हैं . अध्यक्ष सूर्य प्रताप शाही और राजनाथ सिंह की कोशिश है कि ठाकुरों को साथ जोड़ा जाए. जब कि उसी इलाके से आने वाले कलराज मिश्र ने भी अपने को अभी से मुख्यमंत्री के रूप में देखना शुरू कर दिया है. उनकी रथ यात्रा के कारण भी उनके कार्यकर्ताओं में कुछ जागरूकता देखी गयी है . राहुल गांधी भी पूर्वी उत्तर प्रदेश को बहुत महत्व दे रहे हैं .पीस पार्टी के कारण मुसलमानों में दुविधा की स्थिति है . लेकिन कांग्रेस और बीजेपी की लगभग बराबर हो रही ताक़त के बाद लगता है वहां भी मुसलमानों को मायावती और मुलायम सिंह यादव के बीच ही चुनाव करना पडेगा . इस बात की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि बहुत हाई प्रोफाइल प्रचार के बावजूद भी पीस पार्टी के पहचान एक वोट काटने वाली पार्टी वाली ही बन जाय. ऐसी हालत में मुलायम सिंह और मायावती के बीच टाई होगी. दलित वोट तो मायावती के साथ जाएगा ही , अगर मुलायम सिंह ऐसा माहौल बनाने में सफल हो गए कि वे मायावती को हरा सकते हैं तो मुसलमान , बैकवर्ड और मायवती के नाराज़ वोटर के कंधे पर बैठ कर वे इस बार भी यू पी की सत्ता पर काबिज़ हो सकते हैं . लेकिन अभी बहुत जल्दी है . कुछ भी फाइनल कहना ठीक नहीं होगा लेकिन यह बात बहुत ही भरोसे के साथ कही जा सकती है कि इस बार उत्तर प्रदेश की सत्ता की चाभी मुसलमानों के हाथ में है .

Tuesday, June 28, 2011

सच्चर कमेटी की रिपोर्ट को बदनाम करना मुसलमानों के खिलाफ साज़िश है

शेष नारायण सिंह

अल्पसंख्यकों के बारे में कांग्रेस पार्टी की सोच एक बार फिर बहस के दायरे में आ गयी है .एक तरफ तो कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह की लाइन है जो मुसलमानों से सम्बंधित किसी भी मसले पर जो कुछ भी कहते हैं वह आम तौर पर मुसलमानों के हित में होता है और दूसरी तरफ केंद्र सरकार के अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री ,सलमान खुर्शीद हैं जो मुसलमानों के हित की बात करते समय यह ध्यान रखते हैं कि दिल्ली की काकटेल सर्किट के उनके बीजेपी वाले दोस्त नाराज़ न हो जाएँ. दिग्विजय सिंह सरकार में नहीं हैं और उनके विचारों का विरोध कांग्रेस के ज़्यादातर नेता करते पाए जाते हैं . दिग्विजय सिंह के विचारों को वे कांग्रेसी गलत बताते हैं जो कांग्रेस में होते हुए भी हिंदुत्व की राजनीति के पोषक हैं .सलमान खुर्शीद की सोच वाले कांग्रेसी मंत्री भी इसी वर्ग में आते हैं . इन कांग्रेसियों की कोशिश रहती है कि दिग्विजय सिंह के बयान मीडिया में थोड़ी बहुत खलबली फैलाने से ज्यादा काम न आ सकें . लेकिन दिग्विजय सिंह देश के सेकुलर ढाँचे को बनाए रखने में अहम भूमिका निभा रहे हैं और वह देश की राजनीतिक शुचिता के लिए ज़रूरी है . उनके इस काम के लिए उन्हें दक्षिण पंथी हिन्दू और मुसलमानों के संगठन भला बुरा कहते रहते हैं .सलमान खुर्शीद के साथ ऐसा नहीं है. वे दिल्ली के उन अमीर उमरा की तरह हैं जो अपनी गद्दी बचाए रखने के लिए कुछ भी कर सकते हैं .वे केंद्र सरकार के ज़िम्मेदार मंत्री हैं, कांग्रेस आलाकमान के भरोसेमंद सिपाही हैं और मुसलमानों के हित के लिए केंद्र में जो कुछ भी होता है, उसके प्रभारी हैं. उनकी बात वास्तव में भारत सरकार की बात होती है .पिछले दिनों उन्होंने चेन्नई के एक कालेज में भाषण दिया और कहा कि सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के खिलाफ सवाल उठाया जाना चाहिए . आपने फरमाया कि सच्चर कमेटी रिपोर्ट कलामे पाक नहीं है. हम भी मानते हैं कि कोई भी दस्तावेज़ पवित्र कुरान नहीं हो सकता. ज़ाहिर है उन्होंने किसी कमेटी की रिपोर्ट के साथ पवित्र कुरान का नाम लेकर गलती की है और उन्हें उसकी सजा मिलेगी . लेकिन सच्चर कमेटी की रिपोर्ट को हल्का करने की उनकी कोशिश को माफ़ नहीं किया जाना चाहिए . आज़ादी के साठ साल बाद मनमोहन सिंह की सरकार ने जस्टिस राजेन्द्र सच्चर की अध्यक्षता में एक कमेटी बनायी जिस की रिपोर्ट आने के बाद दुनिया को मालूम हुआ कि भारत में मुसलमानों की हालत कितनी खराब है . उसको बुनियादी दस्तावेज़ मान कर कई स्तर पर सरकार ने कुछ काम भी शुरू किया . शिक्षा के क्षेत्र में मुसलमानों के पिछड़ेपन को कम करने के लिए बहुत सारे वजीफों का ऐलान हुआ ,जिसकी ज़िम्मेदारी भी सलमान खुर्शीद के पास ही है . उनके एक ख़ास बन्दे ने एक दिन बताया था कि सलमान खुर्शीद अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री बनकर खुश नहीं हिं ,वे किसी मलाईदार विभाग में जाना चाहते हैं .इसीलिये इस तरह की बात कर रहे हैं जिस से उनको और कोई मंत्रालय मिल जाए.यह खेल उल्टा भी पड़ सकता है क्योंकि अगर उनके आलाकमान की समझ में यह बारीक चाल आ गयी तो सलमान साहब पैदल भी हो सकते हैं . वैसे भी उनकी राजनीतिक हसियत ऐसी नहीं है कि कांग्रेस उनको मह्त्व देने के लिए मजबूर हो सके.

जहां तक सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के बारे में उनके ख्यालात की बात है वह बहुत ही गैर जिम्मेदाराना है . सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के प्रकाशित होने के पहले राजनेताओं का एक बड़ा वर्ग कांग्रेस सरकारों पर मुसलमानों के तुष्टीकरण के आरोप लगता रहता था लेकिन अब ऐसा नहीं है. इस रिपोर्ट ने साफ़ कर दिया था कि केंद्र सरकार ने या राज्य सरकारों ने मुसलमानों को इस देश में दोयम दर्जे का नागरिक बना रखा था. सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के बाद उनके कल्याण की दिशा में कुछ महत्वपूर्ण पहल हुई है जिस से देश में बराबरी का निजाम कायम होने में मदद मिलेगी. बीजेपी और उसेक सहयोगी दलों की कोशिश है कि सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के खिलाफ अभियान चलाकर उसे बदनाम कर दें . उनके इस अभियान में सलमान खुर्शीद का बयान बहुत ही अहम भूमिका निभाएगा. ऐसी हालत में शक़ होता है कि कहीं सलमान साहब दिल्ली में रहने वाले बीजेपी के उन मित्रों की शह पर काम कर रहे हैं जिनसे उनकी मुलाक़ात रात की दावतों में होती है. देश के सभी इंसाफ़पसंद लोगों को चाहिए कि सलमान खुर्शीद की उस कोशिश को बेनकाब करें जिसके तहत वे सच्चर कमेटी की रिपोर्ट को बदनाम करने की साज़िश का हिस्सा बन रहे हैं .

Saturday, August 21, 2010

दिल्ली के रोहिणी इलाके में मुसलमानों को धार्मिक आज़ादी नहीं

शेष नारायण सिंह

आज़ादी की लड़ाई की एक और विरासत को दिल्ली के रोहिणी इलाके में दफ़न किया जा रहा है . जंगे-आज़ादी के दौरान हमारे नेताओं ने कभी यह अहसास नहीं होने दिया कि वे हिन्दुओं की आज़ादी के लिए लड़ रहे हैं क्योंकि वे भारत की आज़ादी के लिए लड़ रहे थे . अंगेजों की पूरी कोशिश थी के भारत को हन्दू और मुसलमान के बीच खाई के ज़रिये अलग कर दिया जाए लेकिन वे कामयाब नहीं हुए. कोशिश पूरी की लेकिन सफलता हाथ नहीं आई. उस काम के लिए उन्होंने दो संगठन खड़े किये . कभी कांगेस का ही हिस्सा रही मुस्लिम लीग को जिन्ना और लियाक़त अली के नेतृत्व में झाड़ पोछ कर भारत की आज़ादी के खिलाफ मैदान में उतारा और अंग्रेजों से माफी मांग चुके वी डी सावरकर का इस्तेमाल करके हिन्दू धर्म से अलग एक नयी विचारधारा को जन्म दिया जिसे हिंदुत्व कहा गया . सावरकर ने खुद बार बार कहा है कि हिंदुत्व वास्तव में एक राजनीतिक विचारधारा है . बहरहाल १९२४ में सावरकर की किताब , हिंदुत्व छप कर आई और १९२५ में अंग्रेजों ने नागपुर के एक डाक्टर को आगे करके आर एस एस की स्थापना करवा दी. . मुस्लिम लीग तो अपने मकसद में कामयाब हो गयी . जब वह भारत की आज़ादी को नहीं रोक पाई तो उसने भारत का बँटवारा ही करवा दिया और पाकिस्तान की स्थपाना हो गयी. आज जब पाकिस्तान की दुर्दशा देखते हैं तो समझ में आता है कि कितनी बड़ी गलती मुहम्मद अली जिन्ना ने की थी. लगता है कि मुसलमानों को नुकसान पंहुचाने वाला यह सबसे बड़ा राजनीतिक फैसला था. आर एस एस वाले कोशिश करते रहे लेकिन अँगरेज़ उन्हें कुछ नहीं दे सका . बाद में उनके साथियों ने की महात्मा गांधी को मारा लेकिन उसके बाद वे पूरी तरह से राजनीतिक हाशिये पर आ गए. आज़ादी के आन्दोलन के नेताओं के उत्तराधिकारी कांग्रेस और सोशलिस्ट पार्टियों में आबाद हो गए लेकिन वे आज़ादी की लड़ाई वाले कांग्रेसियों जैसे मज़बूत नहीं थे लिहाजा बाद के वक़्त में आर एस एस और उस से जुड़े संगठन ताक़तवर होते गए और अब उनकी ताक़त का खामियाजा हर जगह राष्ट्र को ही झेलना पड़ रहा है .कहीं आर एस एस लोग वाले महिलाओं को पीट रहे हैं तो कहीं और कुछ कारस्तानी कर रहे हैं .
आर एस एस की ताज़ा दादागीरी का मामला दिल्ली का है . उत्तरी दिल्ली के छोर पर बसे उप नगर रोहिणी में कोई मस्जिद नहीं थी . वहां रहने वालों ने डी डी ए में दरखास्त देकर करीब ३६० वर्ग मीटर का एक प्लाट ले लिया .जून २००९ में डी डी ए ने दर्सगाहे-इस्लामिया इंतजामिया कमेटी को प्लाट पर क़ब्ज़ा दे दिया . सरकारी चिट्ठी में साफ़ लिखा था कि ज़मीन मस्जिद के निर्माण के लिए दी जा रही है लेकिन जब २६ जून २००९ को मस्जिद के निर्माण का काम शुरू हुआ तो भगवा ब्रिगेड के लोग वहां पंहुच गए और मार पीट शुरू कर दी. वे माइक लेकर आये थे और पूरे जोर शोर से मुसलमानों के खिलाफ ज़हर उगल रहे थे . शुक्रवार का दिन था और वहां नमाज़ पढ़ कर काम शुरू होना था लेकिन हिन्दुत्ववादी गुंडों ने तूफ़ान खड़ा कर दिया. एक मजदूर का गला काट दिया . बाद में उसे अस्पताल ले जाया गया जहां उसकी जान बचा ली गयी . दर्सगाहे-इस्लामिया इंतजामिया कमेटी को आर एस एस के इरादों की भनक लग गयी थी इसलिए उन्होंने पहले ही पुलिस वालों को चौकन्ना कर दिया था लेकिन मामूली संख्या में मौजूद पुलिस वालों को भी भीड़ ने मारा पीटा और काम रुक गया. तुर्रा यह कि पुलिस ने दर्सगाहे-इस्लामिया इंतजामिया कमेटी की ओर से एफ आई आर तक नहीं लिखा . जब इन लोगों ने कहा तो साफ़ मना कर दिया और कहा कि पुलिस ने अपनी तरफ से ही रिपोर्ट लिख ली है . वह रिपोर्ट हल्की थी , उसमें मजदूर के गले पर धारदार हथिआर से वार करने की बात का ज़िक्र तक नहीं किया गया था. लेकिन इसके बाद जो हुआ वह बहुत ही शर्मनाक है. डी डी ए ने दर्सगाहे-इस्लामिया इंतजामिया कमेटी को सूचित किया कि मुकामी रेज़ीडेंट वेलफेयर अशोसिशन के विरोध के कारण मस्जिद निर्माण के लिए किया गया अलाटमेंट रद्द किया जाता है . यह नौकरशाही में भगवा ब्रिगेड की घुसपैठ का एक मामूली उदाहरण है . बहर हाल मामला माइनारिटी कमीशन में ले जाया गया और उनके आदेश पर एक बार फिर प्लाट तो मिल गया है लेकिन आगे क्या होगा कोई नहीं जानता . अब बात अखबारों में छप गयी है तो मुसलमानों के वोट के चक्कर में राजनीतिक पार्टियों के नेता लोग हल्ला गुला तो ज़रूर करेगें लेकिन नतीजा क्या होगा कोई नहीं जानता . आर एस एस के लोगों की कोशिश है कि ऐसे मुद्दे उठाये जाएँ जिस से साम्प्रदायिकता का ज़हर फैले और हिन्दू उनकी तरफ एकजुट हों .
यह देश का दुर्भाग्य है कि आज देश में धर्म निरपेक्षता की लड़ाई लड़ने वाला कोई संगठन नहीं है . आर एस एस की रणनीति है कि इस तरह के मुद्दों को उठाकर वे अपने आपको हिन्दुओं का नेता साबित कर दें . ठीक उसी तरह जैसे जिन्ना ने १९४६ में किया था. हुआ यह था कि जिन्ना ने मांग की कि देश की आज़ादी के बारे में फैसला लेने के लिए जो कमेटी बन रही है ,उसमें मुसलमानों का नामांकन करने का अधिकार केवल जिन्ना को होना चाहिए . महात्मा गाँधी, सरदार पटेल और नेहरू ने साफ़ मना कर दिया . नतीजा यह हुआ कि अपने कोटे के चार मुसलमानों को जिन्ना ने नामांकित किया जबकि कांग्रेस ने अपने कोटे से ३ मुसलमानों को नामांकित कर दिया . और जिन्ना का मुसलमानों का खैरख्वाह बनने का सपना धरा का धरा रह गया. बहरहाल जिस तरह से संघी ताक़तें लामबंद हो रही हैं वह बहुत ही खतरनाक है और देश की एकता को उस से ख़तरा है . कांग्रेस समेत सभी धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक पार्टियों को चाहिए उसे फ़ौरन लगाम देने के लिए जागरूकता अभियान चलायें. भारत के संविधान में भी लिखा है कि इस देश में हर आदमी को अपने धर्म का पालन करने की आज़ादी है. और अगर रोहिणी के मुसलमान अपने धर्म का पालन न कर सके तो संविधान के अनुच्छेद २५ का सीधे तौर पर उन्लंघन होगा . अनुच्छेद २५ में साफ़ लिखा है कि भारत के हर नागरिक को अपने धर्म के पालन की पूरी आज़ादी है . इसलिए देश की आबादी के बीस फीसदी को हम उनके अधिकारों से वंचित नहीं रख सकते.

Thursday, June 17, 2010

फिर पूछें कि मौत का सौदागर कौन है

शेष नारायण सिंह


(डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट से साभार )

दिसंबर १९८४ में हुए भोपाल गैस हादसे का विवाद एक बार फिर जिंदा हो गया है . राजीव गाँधी का नाम आते ही बी जे पी को लगने लगा है कि शायद बोफर्स टाइप कुछ काम बन जाए और राजनीतिक फसल में मुनाफ़ा हो . उधर दिल्ली में बैठे कांग्रेस के ज़रुरत से ज्यादा वफादार लोग राजीव के नाम को बचाने के चक्कर में उल जलूल बयान दे रहे हैं . जिन्होंने भोपाल की उस खूंखार रात को देखा है उनके लिए भोपाल गैस त्रासदी के किसी अपराधी को माफ़ कर् पाना मुश्किल है . अब भोपाल गैस काण्ड पर विधिवत राजनीति शुरू हो गयी है जिसका स्वागत किया जाना चाहिए. लेकिन राजनीतिक किलेबंदी के चक्कर में मुद्दे से जनमत का ध्यान हटाने की कोशिश को भी बात को को हड़प लेने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए. मुद्दा यह है कि भोपाल के इतने बड़े मामले को जिन लोगों ने मामूली कानून व्यवस्था के मामले की तरह पेश किया , वे ज़िम्मेदार हैं और उन्हें सवालों के घेरे में लिया जाना चाहिए . हादसा जिस दिन हुआ उस दिन मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री ,अर्जुन सिंह थे , उनकी जो भी ज़िम्मेदारी हो उसके लिए उन्हें दण्डित किया जाना चाहिये. उन पर आरोप है कि उन्होंने युनियन कार्बाइड के मुखिया को देश से भाग जाने में मदद की. लेकिन इस मामले में इस से बहुत बड़े बड़े घपले हुए हैं . उन पर भी नज़र डाली जानी चाहिए और सब को कटघरे में लाया जाना चाहिए जिस से भविष्य में कोई भी नेता या अधिकारी इस तरह के काम करने से डरे . भोपाल गैस काण्ड में बहुत सारे आयाम हैं. यह भी पता लगाया जाना चाहिए कि दंड संहिता की धाराओं को हल्का किसने किया , लोगों के पुनर्वास के काम में ढिलाई किसने बरती , एक अभियुक्त को तत्कालीन गृह मंत्री और राष्ट्रपति के पास कौन लेकर गया और क्यों यह मुलाक़ात करवाई गयी. उस वक़्त के ताक़तवर लोगों की क्या भूमिका थी . यह सब ऐसे सवाल हैं जिनकी जांच करने से आगे की बात साफ़ करने में मदद मिलेगी. लेकिन बात यहीं ख़त्म नहीं हो जाती. दिसंबर ८४ से लेकर आजतक इस मामले में बहुत सारे लोग आये हैं. उसमें भोपाल के जिला प्रशासन के वे अधिकारी हैं जिन्होंने मामले को हल्का किया . इसमें पुलिस का रोल है , मुकामी न्यायपालिका का रोल हैं , मुकामी नेताओं का रोल है. सब की पड़ताल की जानी चाहिए . और इस तरह से अर्जुन सिंह के बाद जो लोग भी मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री हुए हों सबसे पूछ ताछ की जानी चाहिए . अगर ऐसा हुआ तो पिछले २५ वर्षों के हर मुख्य मंत्री की जवाबदेही और ज़िम्मेदारी तय की जा सकेगी और आने वाले दौर में मुख्य मंत्री मनमानीकरने से बाज़ आयेगें. हाँ अगर कांग्रेस के उस वक़्त के मुख्यमंत्री और प्रधान मंत्री को सूली पर चढ़ाना है तो मीडिया में जिस तरह का काम चल रहा है , उसे जारी रखा जा सकता है लेकिन अगर सही बात को सामने लाना है तो मीडिया के लिए भी लाजिम है कि वह सारी बातों को बहस के घेरे में लाये और बात को आगे बढाए. भारत के कानून ऐसे हैं कि वह यह सुनिश्चित करने के अवसर देते हैं कि किसी के साथ अन्याय न हो . इसके लिए कभी भी किसी मुक़दमे में दुबारा जांच की जा सकती है . इस बात की भी जांच की जानी चाहिए कि क्या अर्जुन सिंह के बाद से लेकर अब तक किसी मुख्य मंत्री ने जांच के बारे में कोई जानकारी ली क्योंकि जनता के प्रतिनधि के रूप में चुने गए हर मुख्यमंत्री का यह कि वह जनता के हितों के कस्टोडियन के रूप में काम करे.इसलिए यह ज़रूरी है कि कि दिग्विजय सिंह , मोतीलाल वोरा, उमा भारती , कैलाश जोशी. सुन्दर लाल पटवा ,राजीव गाँधी, वी पी सिंह , पी वी नरसिंह राव, एच डी देवेगोड़ा, अटल बिहारी वाजपेयी, और मनमोहन सिंह की भूमिका की भी जांच कर लेनी छाहिये . मीडिया को भी चौकन्ना रहने की ज़रुरत है कि वह बी जे पी की ओर से एजेंडा फिक्स कर रहे लोगों की बात को भी ध्यान में रखें लेकिन बी जे पी वालों को बचाने की कोशिशों का भी पर्दा फाश करें. ताज़ा खबर यह है कि मौत के सौदागर वाली बहस भी शुरू हो गयी है . और गुजरात २००२ के लिए ज़िम्मेदार नेता ने पूछना शुरू कर दिया है कि मौत का सौदागर कौन है . उन नेता जी को भी यह बताने की ज़रुरत है कि मौत का सौदागर वह होता है जो अपनी निगरानी में हज़ारों लोगों को मौत के घाट उतारे . वे खुद तय कर लें कि उस सांचे में कौन फिट बैठता है.

Wednesday, March 10, 2010

मौजूदा बिल महिलाओं के एक बड़े वर्ग को मुख्यधारा से अलग करने का निमित्त

शेष नारायण सिंह

बी जे पी के खेल में सभी फंस गए. महिला आरक्षण की बहस को शुरू ही उलटे तरीके से किया गया. महिला आरक्षण बिल को समझने के लिए मैं अपने गाँव जाना चाहूंगा.. मेरे गाँव में दलित भी हैं, पिछड़े और सवर्ण भी. बगल के गाँव में मुसलमान हैं .बचपन से लेकर अब तक मैंने हर तरह की सामाजिक सोच देखी है . जब मैंने समझना शुरू किया,मेरे गाँव में सब गरीब थे . आज भी कोई बहुत धनी नहीं हैं . मेरे पिता खुद एक ठाकुर ज़मींदार थे लेकिन १९५२ के बाद वे भी बहुत गरीब हो गए थे लेकिन गाँव के सवर्ण अपने को दलितों, मुसलमानों और अन्य पिछड़ी जातियों से ऊंचा मानते थे . दलितों और मुसलमानों के प्रति उन दिनों जो सोच थी, आज तक वही है ,. मेरे गाँव में मेरी उम्र के कुछ लोगों ने मुझे मेरे पिता जी से पिटवाने की कोशिश की थी जब मैंने ९० के दशक की शुरुआत में डॉ अंबेडकर के निर्वाण के दिन जाति के विनाश पर बाबा साहेब के तर्क का समर्थन करने वाला लेख लिख दिया था. .यह वही लोग हैं जो गाँव के दलितों के बच्चों को स्कूल जाने से रोकते थे . मेरे गाँव में मेरे पिता जी से दो एक साल उम्र में छोटे,दलित जाति के रामदास जी थे . मुझसे उन्होंने पूछा कि क्या हमारे बच्चों की भी तरक्की हो सकती है . मैंने कहा कि अगर आप अपने बच्चों को पढ़ा दें तो कोई नहीं रोक सकता . यह बात उन्होंने कुछ लोगों को बता दी. तब से ही मेरे खिलाफ मेरे गाँव में माहौल है .. दलितों के कुछ बच्चे पढ़ लिख गए. कुछ डाक खाने में चिट्ठीरसा हो गए, कुछ और छोटी मोटी सरकारी नौकरियों में चले गए. जबकि ठाकुरों के दसवीं फेल बच्चे खाली घूम रहे हैं . सवर्ण मानसिकता के लोग गाँव के ठाकुरों के पिछड़ेपन के लिए दलितों की शिक्षा को ज़िम्मेदार बताते हैं .. मेरे गाँव को देख कर लगता है की गरीबी अपने आप में एक जाति है. जिस बिल को राज्यसभा में पास करवाया गया है वह निश्चित रूप से एक इलीट कोशिश है . जिसका मकसद गरीब से गरीब लोगों को देश के फैसलों से बाहर रखना है .ज़ाहिर है इस तरह की स्थिति से बी जे पी जैसी पार्टियों का ही फायदा होगा क्योंकि उनके साथ न तो मुसलमान हैं और न ही दबे कुचले लोग .संसद और विधान सभाओं मेंअगर इनकी संख्या कम कर दी जाए तो बी जे पी अपना वह एजेंडा लागू करने में सफल रहेगी जिसमें मुसलमान, दलित और पिछड़ों को १९४७ के पहले की स्थिति में रखने की योजना है . कांग्रेस भी कहे कुछ भी, करती वही है जो सामंती, संपन्न , पूंजीवादी सोच की मांग होती है . इन लोगों को नहीं मालूम की दिल्ली शहर के अन्दर ही मुसलमानों और दलितों की बच्चियों को शिक्षा के अवसर नहीं उपलब्ध हैं . . इन लोगों को यह भी नहीं मालूम नहीं कि असली गावों में रहने वाले लोगों को जब तक शिक्षा के सही अवसर नहीं दिए जाते तब तक उन दबे कुचले परिवारों की महिलाओं से संभ्रांत परिवारों की महिलाओं के मुकाबले खड़े होकर जीतने की उम्मीद करना एक सपना है . इस लिए मुस्लिम, दलित और पिछड़ी जातियों और गरीब सवर्णों के परिवारों की महिलाओं को राजनीति की मुख्यधारा से अलग करने वाले बिल का समर्थन उसी हालत में किया जाना चाहिए जब वह आधी आबादी के पूरे हिस्से के हित में हो. मौजूदा बिल महिलाओं के एक बड़े वर्ग को मुख्य धारा से अलग करने का निमित्त है और इसे इसके इस स्वरुप में समर्थन देना ठीक नहीं है .

Sunday, October 25, 2009

अमरीका का कारिन्दा बन कर रहना ठीक नहीं

अमरीका अब भारत को एशिया में अपना सामरिक सहयोगी बनाने के चक्कर में है .उनकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने कहा है कि भारत के साथ जो परमाणु समझौता हुआ है वह एक सामरिक संधि की दिशा में अहम् क़दम है . जब परमाणु समझौते पर वामपंथियों और केंद्र सरकार के बीच लफडा चल रहा था तो बार बार यह कहा गया था कि अमरीका की मंशा है कि भारत को इस इलाके में अपना सैन्य सहयोगी घोषित कर दे लेकिन सरकार में मौजूद पार्टियां और कांग्रेस के सभी नेता कहते फिर रहे थे कि ऐसी कोई बात नहीं है .लेकिन अब बात खुलने लगी है . अगर ऐसा हो गया तो जवाहरलाल नेहरु का वह सपना हमेशा के लिए दफ़न हो जाएगा जिसमें उन्होंने भारत को एक गुट निरपेक्ष देश के रूप में विश्व मंच पर स्थापित करने की कोशिश की थी. इमकान यह है कि नवम्बर में जब मनमोहन सिंह और बराक ओबामा की मुलाक़ात होगी तो वे बहुत सारी सूचनाएं सार्वजनिक कर दी जाएँगीं जो अब तक परदे के पीछे रखी गयी हैं .
अमरीकी विदेश नीति के एकाधिकारवादी मिजाज की वजह से हमेशा ही अमरीका को दुनिया के हर इलाके में कोई न कोई कारिन्दा चाहिए होता है.अपने इस मकसद को हासिल करने के लिए अमरीकी प्रशासन किसी भी हद तक जा सकता है .शुरू से लेकर अब तक अमरीकी विदेश विभाग की कोशिश रही है कि भारत और पाकिस्तान को एक ही तराजू में तौलें. यह काम भारत को औकात बताने के उद्देश्य से किया जाता था लेकिन पाकिस्तान में पिछले ६० साल से चल रहे पतन के सिलसिले की वजह से अमरीका का वह सपना तो साकार नहीं हो सका लेकिन अब उनकी कोशिश है कि भारत को ही इस इलाके में अपना लठैत बना कर पेश करें.भारत में भी आजकल ऐसी राजनीतिक ताक़तें सत्ता और विपक्ष में शोभायमान हैं जो अमरीका का दोस्त बनने के लिये किसी भी हद तक जा सकती हैं .वामपंथियों को अपनी राजनीतिक ज़रुरत के हिसाब से अमरीका विरोध की मुद्रा धारण करनी पड़ती है लेकिन सी पी एम के वर्तमान आला अफसर की सांचा बद्ध सोच के चलते देश में कम्युनिस्ट ताक़तें हाशिये पर आने के ढर्रे पर चल चुकी हैं .इस लिए अमरीका को एशिया में अपनी हनक कायम करने में भारत का इस्तेमाल करने में कोई दिक्क़त नहीं होगी.

अब जब यह लगभग पक्का हो चुका है कि एशिया में अमरीकी खेल के नायक के रूप में भारत को प्रमुख भूमिका मिलने वाली है तो दूसरे विश्व युद्ध के बाद के अमरीकी एकाधिकारवादी रुख की पड़ताल करना दिलचस्प होगा. शीत युद्ध के दिनों में जब माना जाता था कि सोवियत संघ और अमरीका के बीच दुनिया के हर इलाके में अपना दबदबा बढाने की होड़ चल रही थी तो अमरीका ने एशिया के कई मुल्कों के कन्धों पर रख कर अपनी बंदूकें चलायी थीं. यह समझना दिलचस्प होगा कि इराक से जिस सद्दाम हुसैन को हटाने के के लिए अमरीका ने संयुक्त राष्ट्र तक को ब्लैकमेल किया , वह सद्दाम हुसैन अमरीका की कृपा से ही पश्चिम एशिया में इतने ताक़त वर बने थे . उन दिनों सद्दाम हुसैन का इस्तेमाल इरान पर हमला करने के लिए किया जाता था . सद्दाम हुसैन अमरीकी विदेश नीति के बहुत ही प्रिय कारिंदे हुआ करते थे . बाद में उनका जो हस्र अमरीका की सेना ने किया वह टेलिविज़न स्क्रीन पर दुनिया ने देखा है .और जिस इरान को तबाह करने के लिए सद्दाम हुसैन का इस्तेमाल किया जा रहा था उसी इरान और अमरीका में एक दौर में दांत काटी रोटी का रिश्ता था. शाह इरान, रजा पहलवी , एशिया, खासकर पश्चिम एशिया में अमरीकी लठैतों के सरदार के रूप में काम करते थे .जिस ओसामा बिन लादेन को तबाह करने के लिए अमरीका ने पाकिस्तान को फौजी छावनी में तब्दील कर दिया है और अफगानिस्तान को रौंद डाला , वहीं ओसामा बिन लादेन अम्र्रेका के सबसे बड़े सहयोगी थे और उनका कहीं भी इस्तेमाल होता रहता था. जिस तालिबान को आज अमरीका अपना दुश्मन नंबर एक मानत है उसी के बल पर अमरीकी विदेश नीति ने अफगानिस्तान में कभी विजय का डंका बजाया था . अपने हितों को सर्वोपरि रखने के लिए अमरीका किस्सी का भी कहीं भी इस्तेमाल कर सकता है. जब सोवियत संघ के एक मित्र देश के रूप में भारत आत्मनिर्भर बनने की कोशिश कर रहा था तो , एक के बाद एक अमरीकी राष्ट्रपतियों ने भारत के खिलाफ पाकिस्तान का इस्तेमाल किया था . बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम में उस वक़्त के अमरीकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने भारत के खिलाफ अपने परमाणु सैन्य शक्ति से लैस सातवें बेडे के विमानवाहक पोत , इंटरप्राइज़, से हमला करने की धमकी तक दे डाली थी. उन दिनों यही पाकिस्तान अमरीकी विदेश नीति का ख़ास चहेता हुआ करता था. बाद में भी पाकिस्तान का इस्तेमाल भारत के खिलाफ होता रहा था. पंजाब में दिग्भ्रमित सिखों के ज़रिये पाकिस्तानी खुफिया तंत्र ने जो आतंकवाद चलाया, उसे भी अमरीका का आर्शीवाद प्राप्त था . अमरीकी हठधर्मिता की हद तो उस वक़्त देखी गयी जब चीन के नाम पर ताइवान को सुरक्षा परिषद् में बैठाया गया. . पश्चिम एशिया के सभी देशों को एक दुसरे के खिलाफ इस्तेमाल करने की अमरीकी विदेश नीति का ही जलवा है कि इजरायल आज भी सभी अरब देशों को धमकाता रहता है.

वर्तमान कूटनीतिक हालात ऐसे हैं अमरीका की छवि एक इसलाम विरोधी देश की बन गई है. अमरीका को अब किसी भी इस्लामी देश में इज्ज़त की नज़र से नहीं देखा जाता . यहान तक कि पाकिस्तानी अवाम भी अमरीका को पसंद नाहीं करता जबकि पाकिस्तान की रोटी पानी भी अमरीकी मदद से चलती है. इस पृष्ठभूमि में अमरीकी विदेश नीति के नियंता भारत को अपना बना लेने के खेल में जुट गए हैं .उन्हनें इस स्क्षेत्र में चीन की बढ़ रही ताक़त से दहशत है. जिसे बैलेंस करने के लिए ,अमरीका की नज़र में भारत सही देश है. पाकिस्तान में भी बढ़ रहे अमरीका विरोध के मदद-ए-नज़र , अगर वहां से भागना पड़े तो भारत में शरण मिल सकती हाई. भारत में राजनीतिक महाल भी अमरीकाप्रेमी ही है. सत्ता पक्ष तो है ही मुख्य विपक्षी पार्टी का भी अमरीका प्रेम जग ज़ाहिर है. ऐसे माहौल में भारत से दोस्ती अमरीका के हित में है .लेकिन भारत के लिए माहौल इतना पुर सुकून नहीं है . अमरीका की दोस्ती के अब तक के इतिहास पर नज़र डालें तो समझ में आ जाएगा कि अमरीका किसी से दोस्ती नहीं करता, वह तो बस देशों को अपने राष्ट्र हित में इस्तेमाल करता है.इस लिए भारत के नीति निर्धारकों को चाहिए कि अमरीकी राष्ट्र हित के बजाय अपने राष्ट्र हित को ध्यान में रख कर नित बनाएं और एशिया में अमरीकी हितों के चौकीदार बनने से बचे. दुनिया जानती है कि अमरीका से दोस्ती करने वाले हमेशा अमरीका के हाथों अपमानित होते रहे हैं . इस लिए अमरीकी सामरिक सहयोगी बनना भारत के हित में नहीं हैl

Tuesday, October 20, 2009

अब क्या करेगी बी जे पी

आर एस एस की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में उसके मुखिया मोहनराव भागवत ने कह दिया कि संघ के कैडर अपने हिसाब से इस बात का चुनाव कर सकते हैं कि उन्हें किस पार्टी को वोट देना है . उन्होंने साफ किया कि ज़रूरी नहीं के संघ के सदस्य केवल बी जे पी को ही वोट दें .इस कथित बयान के बाद बी जे पी में हड़कंप मच गया . सच्ची बात यह है कि आर एस एस के कार्यकर्ताओं के अलावा , बी जे पी के पास और कोई जनाधार नहीं है . विश्वविद्यालयों में जो भी छात्र एबीवीपी के नाम पर इकठ्ठा होते हैं , उनमें लगभग सभी आर एस एस के ही सदस्य होते हैं.

मजदूरों में पार्टी की कहीं कोई हैसियत नहीं है. दत्तोपंत ठेंगडी की मौत के बाद ट्रेड यूनियन की राजनीति में संघ की कोई ख़ास उपस्थिति नहीं है. नौजवानों में भी वही आर एस एस वाले सक्रिय हैं . गरज कि बी जे पी के समर्थकों में से अगर आर एस एस वालों को हटा लिया जाए तो वहां कुछ नहीं बचेगा . ज़ाहिर है इस तरह की बात शुरू होने के बाद बी जे पी में चिंता का माहौल बन गया . वैसे भी २००९ में पार्टी की चुनाव में हुई हार के बाद उसकी दुर्दशा की खबरें रोज़ ही अखबारों में छपती ही रहती हैं .. लेकिन आर एस एस के मुखिया के बयान के बाद बी जे पी के प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद ने पटना में मीडिया को बताया कि मोहनराव भागवत ने ऐसा कुछ नहीं कहा है कि संघ के कार्यकर्ता चाहे तो भाजपा को वोट करें या न करें.

राजगीर में चल रही आर एस एस की कार्यकारिणी में शामिल किसी सूत्र के हवाले से आईएएनएस एजंसी ने एक खबर जारी कर दी थी जिसमें कहा गया था कि मोहनराव भागवत ने कहा है कि वे यह स्वयंसेवकों को तय करना है कि वे भाजपा को वोट करें या न करें. यह खबर जब अखबारों में छपी तो बी जे पी में खलबली मच गयी. इसके बाद रविशंकर ने कहा कि संघ हमेशा ही यह कहता रहता है कि संघ के स्वयंसेवक जिसे चाहें वोट कर सकते हैं, लेकिन व्यावहारिक रूप में ऐसा होता नहीं है.. आर एस एस की विश्वसनीयता के बारे में रवि शंकर प्रसाद की इस बात को शायाद उनकी पार्टी के लोग ही गंभीरता से न लें लेकिन इस बात में दो राय नईं है कि आर एस एस के नए प्रमुख मोहन भागवत बी जे पी के मौजूदा नेतृत्व से खुश नहीं हैं . यह बात उन्होंने बार बार कह भी दिया है .कम से कम सिद्धांत रूप से आर एस एस मानता है कि वह हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के लिए किसी भी राजनीतिक दल की मदद कर सकता है.

बी जे पी को अपने पूर्व अवतार में जनसंघ कहा जाता था. उसकी स्थापना के बाद से ही स्वर्गीय दीन दयाल उपाध्याय के ज़रिये आर एस एस ने पार्टी पर पूरा कंट्रोल रखा. और जब जनता पार्टी बनी तो जनसंघ घटक के लोगों को हुक्म नागपुर से ही लेना पड़ता था. बी जे पी बनने के बाद तो इस बात पर कभी चर्चा भी नहीं हुई कि पार्टी में आर एस एस की भूमिका क्या है. सब जानते हैं कि बी जे पी पूरी तरह से आर एस एस का सहयोगी संगठन है . लेकिन आजकल आर एस एस में बी जे पी की उपयोगिता के बारे में बेचैनी है. आर एस एस के कुछ ख़ास लोग कद्दावर आर एस एस नेता , गोविन्दाचार्य के नेतृत्व में बी जे पी के विकल्प की तालाश कर रहे हैं . उसी प्रोजेक्ट के तहत महात्मा गाँधी और सरदार पटेल जैसे कांग्रेस के बड़े नेताओं को अपना बना लेने की कोशिश चल रही है है. गोविन्दाचार्य के दोस्त लोग राष्ट्र निर्माण जैसे लोक लुभावन नारों के ज़रिये जनता तक पंहुचने की कोशिश कर रहे हैं जिस से सही वक़्त पर संघ की नयी पार्टी की घोषणा कर दी जाए. बताया गया है कि गोविन्दाचार्य के व्यक्तित्व के आकर्षण की वजह से वर्तमान बी जे पी के भी कुछ बड़े नेता उनके संपर्क में हैं . इन लोगों ने महात्मा गाँधी के नाम पर चलने वाले कई संगठनों पर कब्जा भी कर लिया है . आज कल आर एस एस वालों का एक बड़ा तबका अपने आप को गांधीवादी भी कहता पाया जा रहा है . इस लिए मोहन राव भागवत की इस बात में दम लगता है कि आर एस एस जल्दी ही बी जे पी से पिंड छुडाने वाला है.

आर एस एस के लिए नयी राजनीतिक पार्टी की तलाश कोई नयी बात नहीं है. १९७५ में जब पूरी दुनिया संजय गाँधी की क्रूर तानाशाही प्रवृत्तियों से दहशत में थी, तो आर एस एस वाले उन्हें अपना बना लेने के चक्कर में थे. अकाल मृत्यु ने संजय गाँधी के जीवन में हस्तक्षेप कर दिया वरना हो सकता है कि बाद में जो उनकी पत्नी और बेटे ने किया वह काम संजय गाँधी के जीवन में ही हो गया होता.

आजकल भी आर एस एस के लोग पुराने कांग्रेसियों, महात्मा गाँधी और सरदार पटेल को अपना पूर्वज बताने की कोशिश तो कर ही रहे हैं , नए वालों पर भी उनकी नज़र है. आर एस एस के प्रमुख ने पिछले दिनों राहुल गाँधी की तारीफ़ की और पी चिदंबरम के काम पर बहुत ही संतोष ज़ाहिर किया. महाराष्ट्र विधानसभा के चुनावों के बीच में आर एस एस के कांग्रेस के नेताओं की तारीफ करना बीजेपी को ठीक बिलकुल नहीं लगा लेकिन बेचारे कर क्या सकते हैं. इस लिए आर एस एस के मुखिया के बयान के बाद बीजेपी में परेशानी शुरू होना स्वाभाविक है और इस बात को भी पूरा बल मिलता है कि आर एस एस ने नयी राजनीतिक पार्टी के विकल्प वाले प्रोजेक्ट पर गंभीरता से काम शुरू कर दिया है. इसके लिए खुद आरएसएस के अंदर ही कई धाराएं हैं जो नये राजनीतिक विकल्प का खाका तैयार करने में लगी हुई हैं. हालांकि आरएसएस 2007 में कह चुका है कि वह इसी भाजपा को ठीक करेगा लेकिन यह भाजपा ठीक होती दिखाई न दी तो नये विकल्पों को आजमाने से आरएसएस हिचकेगा भी नहीं

Tuesday, July 28, 2009

इंसाफ की राजनीति और बजट

1980 में केंद्रीय सरकारों ने सॉफ्ट हिंदुत्व को सरकारी नीतियों के केंद्र में रखना शुरू किया था। इंदिरा गांधी जवाहर लाल नेहरू की बेटी थीं, उनमें धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के संस्कार थे जिसका उन्होंने पालन भी किया लेकिन 1980 के चुनावों के पहले उनके पुत्र स्व. संजय गांधी हिंदुत्व की तरफ खिंचने लगे थे। आर.एस.एस. वालों ने भी कई बार इस तरह की बातें की थीं कि संजय गांधी से देश को उम्मीदें हैं। इसी सॉफ्ट हिंदुत्व के चक्कर में पंजाब में अकालियों को तबाह करने की योजना बनाई गई थी जिसमें जनरैल सिंह भिंडरावाले को आगे बढ़ाया गया था।

बताते हैं कि संजय गांधी ने अपनी मां को भी इसी लाइन पर डालने में सफलता हासिल की थी। बहरहाल 1980 के बाद से केंद्रीय बजट में अल्पसंख्यकों को दरकिनार करने का सिलसिला शुरू हुआ था। संजय गांधी को यह भी नाराजगी थी कि 1977 में मुसलमानों की मुखालिफत के कारण ही उनकी मां की सत्ता खत्म हो गई थी। इसी दौरान संघ की राजनीति के प्रेमी बहुत सारे लोग कांग्रेस में भरती हुए। अरुण नेहरू टाइप लोगों ने कांग्रेस पर कब्जा कर लिया और 1991 में तो बीजेपी के समर्थन वाली सरकार ही आ गई।

1980 के बाद ही बाबरी मस्जिद की शहादत और दीगर बहुत से मसलों के हवाले से मुसलमानों को सरकारी तौर पर अपमानित करने का सिलसिला चलता रहा। अब 29 साल बाद एक ऐसी सरकार आई है जो पिछली सरकारों की गलतियों को दुरुस्त करने की कोशिश कर रही है। आर.एस.एस. और उसके मातहत काम करने वालों की समझ में बात नहीं आ रही है। बहरहाल प्रणब मुखर्जी के इस बजट में ऐसे कुछ प्रावधान हैं जो अल्पसंख्यकों, खासकर मुसलमानों के साथ हुए पिछले तीस साल के अन्याय को इंसाफ की शक्ल देने की कोशिश करते हैं। एक बात यहां स्पष्ट कर देना जरूरी है कि बजट में जो भी है वह मुसलमानों के प्रति एहसान नहीं है।

यह उस हक का एक मामूली हिस्सा है जो पिछले तीस वर्षों से केंद्रीय सरकारें छीनती रहीं है। प्रणब मुखर्जी ने अल्पसंख्यक मंत्रालय के बजट में 74 प्रतिशत की बढ़ोतरी का ऐलान किया है। पिछले साल बजट में 1000 करोड़ रुपए की व्यवस्था की गई थी जो इस साल बढ़कर 1740 करोड़ कर दी गई है। इसके अलावा अल्पसंख्यक बहुल जिलों में प्राथमिकता के आधार पर बिजली, सड़क पानी आदि के विकास के लिए योजनाएं लाई जाएंगी। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के जरिए यू.पी.ए. सरकार ने अपनी मंशा का ऐलान मनमोहन सिंह के पहले कार्यकाल में ही कर दिया था। इस बजट में उस मंशा को अमली जामा पहनाने की कोशिश की गई है।

मनमोहन सिंह ने बार बार कहा है कि तरक्की के लिए शिक्षा सबसे जरूरी हथियार है। उनका अपना जीवन भी शिक्षा के अच्छे अवसरों की वजह से दुरुस्त हुआ है। इसलिए अल्पसंख्यकों के कल्याण की योजनाओं में शिक्षा को बहुत ज्यादा महत्व देने की बात कही जा रही थी, जो बजट के बाद एक गंभ़ीर प्रयास के रूप में नजर आने लगी है। अल्पसंख्यक बच्चों को इतनी छात्रवृत्तियां दी जाएंगी कि उनकी तालीम इसलिए न रुक जाय कि पैसे की कमी है। अल्पसंख्यकों की कुशलता के विकास के लिए भी बड़ी योजनाओं की बात की जा रही है। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की केरल और बंगाल में कैंपस खोलने की योजनाओं की चर्चा बरसों से होती रही है।

अपने बजट भाषण में इसके लिए धन का इंतजाम करके वित्त मंत्री ने अल्पसंख्यकों के भावनात्मक मुद्दों को भी महत्व दिया है। राष्ट्रीय अल्पसंख्यक वित्त एंव विकास निगम और मौलाना आज़ाद फाउंडेशन को और मजबूत किया जा रहा है। इस बजट की एक खास बात यह है कि यह कांग्रेस पार्टी की राजनीति को सरकार चलाने के लिए गंभीरता से आगे बढ़ाने का काम करता है। बजट के जरिए देश की आबादी के एक बड़े वर्ग को यह बताने की कोशिश की गई है कि यह देश सबका है।

अफसोस की बात यह है कि केंद्र सरकार की इंसाफ की डगर पर चलने की कोशिश को संघी राजनीति के कुछ कारिंदे तुष्टीकरण की नीति के रूप में पेश करने की कोशिश कर रहे हैं। कुछ इलाकों में जुलूस वगैरह भी निकालेे गए हैं और सरकार को मुसलमानों के खिलाफ काम करने की प्रेरणा देने की कोशिश की गई है। लेकिन लगता है कि केंद्र सरकार पर इसका कोई असर नहीं पडऩे वाला है, उसे संघी नेताओं की असुविधा पर मजा आ रहा है।

बजट 2009 कांग्रेस पार्टी की उस राजनीति की एक प्रक्रिया है जिसके तहत उसने मुसलमानों को अन्य पार्टियों से खींचकर अपनी तरफ लाने की कोशिश शुरू की थी। लोकसभा चुनाव 2009 में ही साफ संकेत मिलने लगे थे कि कांग्रेस पार्टी अब मुसलमानों के लिए अछूत नहीं है। बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाने वाली, शिलान्यास करवाने वाली और बाबरी मस्जिद की शहादत में जिम्मेदार पार्टी की अपनी छवि से बाहर निकलने की कोशिश कर रही कांग्रेस के लिए लोकसभा चुनाव में मुसलमानों का वोट मिलना बहुत बड़ी बात थी। कांग्रेस की कोशिश है कि उसे दुबारा अल्पसंख्यकों का विश्वास हासिल हो जैसे 1971 तक था।

इस मायने में मौजूदा बजट वित्त व्यवस्था के प्रबंध को दुरुस्त करने के साथ-साथ राजनीति को भी चाक चौबंद रखने में काम आयेगा। किसी भी राजनीति का उद्देश्य होता है कि वह अपने देश की अधिकतम जनता की महत्वांकाक्षा का वाहक बने। बीजेपी आदि जो पार्टियां हैं वे अल्पसंख्यकों को अपने दायरे से बाहर रखकर काम करना चाहती है। उनकी कोशिश रहती है कि सरकार मुसलमानों को औकातबोध कराने के लक्ष्य को हासिल करने के लिए काम करे।

बीच में कुछ दिनों के लिए कांग्रेस में भी यह बात आ गई थी लेकिन अब लगता है कि माहौल बदल रहा है। सोनिया-मनमोहन की टीम मुसलमानों को साथ लेकर चलने की नीति पर काम कर रही है। कम से कम बजट 2009 से तो यह संदेश बहुत ही साफ तरीके से सामने आ रहा है।

Sunday, July 26, 2009

बटला हाउस चुनावी नहीं इंसानी मुद्दा

जामिया मिल्लिया इसलामिया के करीब बटला हाउस का इलाका पिछले साल चर्चा में आ गया जब दिल्ली पुलिस ने दावा किया कि वहां एक घर में छुपे हुए आतंकवादियों को पुलिस ने घेर लिया, दो लडक़ों को मार गिराया और बाकी भाग निकले। इस कथित मुठभेड़ में पुलिस का एक इंस्पेक्टर भी मारा गया। परिस्थितियां ऐसी थीं कि पुलिस की बात पर सहसा विश्वास नहीं हुआ। मारे गए लडक़े उत्तरप्रदेश के आज़म गढ़ जिले के थे और उनके रिश्तेदारों के अनुसार वे दिल्ली में पढ़ाई करने आए थे।
हर मुसलमान को आतंकवादी करार देने के लिए व्याकुल बीजेपी इस कांड को मुद्दा बनाने में जुट गई और दिल्ली पुलिस के उस इंस्पेक्टर को हिंदुत्व का हीरो बनाने की कोशिश शुरू कर दी जिसे बीजेपी का कोई नेता जानता तक नहीं था। बीजेपी की इस कोशिश को लगाम तब लगी जब इंस्पेक्टर के परिवार वालों ने बी जे पी इन कोशिशों को $गलत बताया लेकिन राजनीति चलती रही। आज़मगढ़ के मूल निवासी और समाजवादी पार्टी के महासचिव, अमर सिंह ने भी रुचि लेना शुरू कर दिया। जब बटला हाउस गए तो लोगों ने उनसे जो बताया उससे वे चिंतित हुए। दूध का दूध और पानी का पानी कर देने की गरज़ से घटना की न्यायिक जांच की मांग कर दी।

उन्होंने यह भी कहा कि यह इसलिए ज़रूरी है कि ओखला, आज़मगढ़ और पूरे देश के अल्प संख्यकों में यह भरोसा पैदा करना ज़रूरी है कि उनके साथ न्याय हो रहा है। सारी दुनिया के संघी, अमर सिंह पर टूट पड़े और उनको बिलकुल घेर लिया। हिन्दुओं के दुश्मन के रूप में पेश करने की कोशिश की और एक पुलिस ज्यादती की घटना को हिंदू बनाम मुसलमान रंग देने की कोशिश की। अमर सिंह ने सफाई दी कि वह बटला हाउस के इनकांउन्टर को अभी फर्जी नहीं बता रहे हैं। लेकिन उस वारदात की वजह से अल्पसंख्यकों में जो असुरक्षा का भाव आया है, उसे कम करने की कोशिश की जानी चाहिए। अमर सिंह ने साफ किया कि बीजेपी के नेताओं के आरोप बेबुनियाद है कि वे वोट बैंक राजनीतिक कर रहे हैं।

उनका कहना था कि आज़मगढ़ के दो नौजवानों और पुलिस के एक अफसर की हत्या के बारे में पुलिस द्वारा दी जा रही कहानी किसी के गले के नीचे नहीं उतर रही है और न्याय का तकाजा है कि इस मामले की न्यायिक जांच की जाय। इसके बाद हुए दिल्ली के विधानसभा चुनाव में अमर सिंह ने अपने इस रुख पर वोट लेने की कोशिश नहीं की ओर साफ कर दिया कि बटला हाउस मामले पर उनका रुख इंसानी फर्ज था, वोट बैंक राजनीति नहीं। संघी राजनीति में किसी भी मुद्दे को तब तक जिंदा रखा जाता है जब तक उसमें जान रहे। दिल्ली के सत्ता के गलियारों और मीडिया के दफ्तरों में आजकल बटला हाउस के हत्याकांड को हलका करने की कोशिश चल रही है। इस मामले में कांग्रेस और भाजपा प्रेमी पत्रकार एकजुट हैं।

एक बड़े अखबार में ख़बर छप गई है कि जामिया नगर और ओखला के इला$के में रहने वाले मुसलमानों के लिए बटला हाउस कोई मुद्दा नहीं है, उन्हें तो बिजली, सडक़ पानी के मुद्दो को ध्यान में रखकर वोट देना है। इस तरह का रुख मानवीय संवेदनाओं के साथ छिछोरापन है और इस पर रोक लगनी चाहिए। निर्दोष मुसलमानों को मारकर बिजली, सडक़ और पानी की रिश्वत देने की कोशिश हर स्तर पर विरोध होना चाहिए।

Friday, June 26, 2009

अब ठोस मुद्दों पर वोट

लोकसभा पहले चरण के चुनाव के बाद चुनाव प्रचार के तरी$के में कुछ बदलाव नज़र आ रहा है। जातियों में बंटे समाज में कुछ परिवरर्तन के संकेत नजर आ रहे हैं। बिहार में नेता और केंद्र में रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव के भाषणों का रूख बदला हुआ है। पिछले 20 वर्षो से मुसलमानों के समर्थन के बल पर राजनीति में सफल रहे लालू प्रसाद यादव की चिंता का रंग बदल गया है।

अब तक लालू यह मान बैठे थे कि मुसलमानों के वोट पर उनका एकाधिकार है लेकिन 16 अप्रैल को जब पहले दौर के वोट पड़े और जो संकेत मिले, उससे लालू यादव यादव परेशान हो गए। केंद्र में अपनी साथी पार्टी, कांग्रेस को बिहार में तीन सीटें देकर लालू प्रसाद यादव ने कांग्रेस को उसकी औक़ात बताने की कोशिश की थी लेकिन कांग्रेस ने सभी सीटों पर अपने उम्मीदवार उतार कर लालू-राम विकास की राजनीति को ज़बरदस्त झटका दिया है। पहले दौर में मुसलमानों ने कई क्षेत्रों में कांग्रेस को वोट दिया, उनका तर्क है कि लालू यादव अब तक केवल भावनत्तमक अपील के सहारे मुसलमानों का समर्थन लेते रहे हैं, मुसलिम समाज के विकास के लिए कुछ नहीं किया।

ज़ाहिर है कि विकास की दिशा में कोई ठोस काम न किया जाए तो बहुत दिन तक किसी को भी साथ नहीं रखा जा सकता। उत्तर प्रदेश में भी मुसलमानों का वोट महत्तवपूर्ण है और अधिकतर सीटों पर निर्णायक भूमिका निभाता है। यहां मुसलमानों का वोट आमतौर पर पिछले बीस वर्षो से मुलायम सिंह यादव को मिलता रहा है। इसके ठोस कारण हैं। भावनातमक स्तर पर भी मुसलमानों के बीच मुलायम सिंह की इज़्ज़त है। आज भी 1990 मेें बाबरी मस्जिद की हिफाज़त की मुलायम सिंह सरकार की कोशिश को न केवल मुसलमान बल्कि पूरी दुनिया के सही सोच वाले लोग सम्मान से याद करते हैं। लेकिन उसके बाद भी जब उन्हें उत्तर प्रदेश में सरकार चलाने का मौ$का मिला तो उन्होंने मुसलमानों के हित में काम दिया।

आर्थिक क्षेत्र में विकास की कोशिश मुसलमानों को सरकारी नौकरियों में बेहतर अवसर की कोशिश कुछ ऐसे काम हैं, जिन की वजह से मुसलमान आज मुलायम सिंह के साथ हैं। वर्तमान लोकसभा चुनाव में जहां कांग्रेस को मदद करने से धर्मनिरपेक्ष ता$कतों को मज़बूती मिलने के आसार हैं मुसलमान वहां कांग्रेस के साथ हैं। मुलायम सिंह यादव ने ऐसी परिस्थितियां भी पैदा कीं हैं जहां उनका उम्मीदवार कमज़ोर है, वहां कांग्रेस को मज़बूत करने का संकेत साफ नज़र आता है। उत्तर प्रदेश की गाजि़याबाद सीट पर तो लगता है कि मुलायम सिंह की कोशिश के नतीजे में बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह चुनाव हार जाएंगे।

मुसलमानों में मुलायम सिंह की लोकप्रियता को कमज़ोर करने की कोशिश चल रही है। मायावती ने राज्य में मुसलमानों को उम्मीदवार बनाकर धर्मनिरपेक्ष ताकतों को अपनी तरफ़ खींचने की कोशिश की है। मुलायम सिंह के पुराने साथी और रामपुर के विधायक आज़म ख़ान भी आजकल रामपुर के कांग्रेस उम्मीदवार की मदद में लगे हैं। मुलायम सिंह इससे बहुत नाराज़ हैं। समाजवादी पार्टी के उत्तर प्रदेश स्तर के एक नेता ने तो यहां तक कह दिया है कि आज़म खान अभी तक कांग्रेस की सेवा में थे अब बीजेपी से भी संपर्क में हैं। बहर हाल सचाई यह है कि मुसलमानों में भावनात्मक अपीलों के अलावा ठोस मुद्दों पर राजनीतिक $फैसले लेने की बात ज़ोर पकड़ चुकी है और बीजेपी के साथियों को हराने के लिए कुछ भी कर सकते हैं।