Wednesday, August 19, 2009
जंतर-मंतर मरने पहुंचे हैं गोपाल राय
गोपाल राय पिछले 9 दिन से बिना खाये-पिये जंतर-मंतर पर लेटे हैं। आमरण अनशन कर रहे हैं वे। मित्र हैं। इलाहाबाद में बीए के दिन से। छात्र राजनीति में साथ-साथ सक्रिय हुए थे हम दोनों। बाद में मैं बीएचयू चला गया था और वो लखनऊ विवि। संगठन के होलटाइमर भी साथ-साथ ही बने थे। करीब-करीब साथ-साथ ही संगठन से मोह भी टूटा था। किसी भी तरह का गलत होते न देख पाने वाले गोपाल राय लखनऊ विश्वविद्यालय में गुंडों से हर वक्त टकराया करते थे। उनके व्यक्तित्व में अदम्य साहस और आत्मविश्वास है। भय से तो भाई को तनिक भी भय नहीं लगता। चट्टान की तरह अड़ जाता है।
अब गोपाल राय को कौन समझाए कि दिल्ली में रहने वाले 99 फीसदी लोग सिर्फ पेट के लिए जीते-मरते हैं। इनका किसी से कोई लेना-देना नहीं रह गया है। संवेदना शब्द अब गरीबों व गांववालों के लिए आरक्षित कर दिया गया है। बाजार का नशा महानगरों पर इस कदर चढ़ा है कि अगर कोई थोड़ा भी सिद्धांत की बात करता मिल जाए तो लोग उसे फालतू मानकर दाएं-बाएं निकल लेते हैं। ऐसे में गोपाल का किसी राष्ट्रीय मुद्दे पर आमरण अनशन करना, थोड़ा चौंकाता है, लेकिन यह भरोसा भी दिलाता है कि कुछ पगले किस्म के लोग अब भी विचारों को जीते हैं और देश-समाज की चिंता करते हुए जान न्योछावर करने के लिए तैयार रहते हैं।
गोपाल राय से मिलने इसलिए नहीं गया था कि वे किसी महान काम में लगे हैं, इसलिए भी नहीं गया था कि आमरण अनशन के 9वें दिन में प्रवेश करने से उनके स्वास्थ्य को लेकर मुझे विशेष चिंता हो रही थी। सही कहूं तो मैं भी धीरे-धीरे दिल्ली वाला हो रहा हूं, इसलिए बहुत देर तक इमोशन में न फंस पाने की प्रवृत्ति डेवलप हो रही है। गोपाल राय के यहां सिर्फ इसलिए गया था कि इस दिल्ली में जिन दो-चार बहादुर लोगों को देखा है, उसमें पुराने मित्र गोपाल राय भी हैं। गोली लगने के कारण अस्वस्थ रहने वाले शरीर की वजह से ठीक से चल भी नहीं पाते लेकिन गोपाल राय न तो पहले और न अब, कभी छिछले नहीं हुए, कभी औसत नहीं बने, कभी बेचारे बनकर पेश नहीं हुए, कभी किसी तरह की याचना नहीं की। कितने भी दर्द-दुख में रहें, कभी मुस्कराहट नहीं खत्म की।
दोस्ती की वजह से उनसे मिलने जंतर-मंतर गया।
जंतर-मंतर पहुंचा तो टीवी न्यूज चैनलों की ओवी वैन देख माथा ठनका, माजरा क्या है? पता चला कि महंगाई पर भाजपा का कोई कार्यक्रम है जिसमें राजनाथ सिंह आने वाले हैं। संतोष हुआ। चैनल वाले कोई गलत काम नहीं कर रहे हैं, सही रास्ते पर हैं। वरना जंतर-मंतर को अब पूछता कौन है। गोपाल राय सरीखे दर्जनों आंदोलनकारी जंतर-मंतर पर अपने जिनुइन मुद्दों को लेकर बैठे रहते हैं हैं, उधर किसी को देखने की फुर्सत नहीं है। लेकिन अगर राजनाथ सिंह जंतर-मंतर टहलने भी पहुंच जाएं तो उन्हें कवर करने मीडिया का मेला पहुंच जाएगा।
इतिहास का जो चारण-भाट दौर था, उसमें भी लेखक-बुद्धिजीवी सिर्फ बड़े राजाओं-महाराजाओं-राजकुमारों-महारानियों-राजकुमारियों-मंत्रियों मतलब कुलीन लोगों के बारे में ही लिखते-पढ़ाते थे। आम जन की स्थिति के बारे में कलम चलाने वाला कोई नहीं था। पूंजीवाद और विज्ञान के विकास ने इतिहास को जड़ों से जोड़ा लेकिन अबका जो चरम पूंजीवाद, बोले तो, बाजारवाद है, वह फिर से इतिहास को पलट रहा है।
देश में अकाल पड़ा हुआ है, लोग भूखों मर रहे हैं, इस पर टीवी वालों को प्राइम टाइम में स्पेशल स्टोरीज चलानी चाहिए, अपनी विशेष टीमें अकालग्रस्त इलाकों की ओर रवाना करनी चाहिए पर ऐसा कुछ नहीं हो रहा है। डाउन मार्केट कहकर आंदोलन, सूखा, अकाल, मंहगाई सबको खारिज किया जा रहा है। अगर इन्हें पकड़ा भी जा रहा है तो सिर्फ बड़े नेताओं के बयानों के जरिए। पीएम ने बयान दे दिया। उसे छाप दिया। दिखा दिया। बस हो गया। राजनाथ ने विरोध कर दिया। उसे छाप दिया। दिखा दिया। बस हो गया।
यही है मीडिया?
गोपाल भाई से अनुरोध किया- अंधों की नगरी में हरियाली लाने के लिए काहे जान दे रहे हैं, ये अनशन-वनशन खत्म करिए। जान है तो जहान है। आजकल यही फंडा है।
इतना सुनकर गोपाल सिर्फ मुस्कराए और बोले- आप बस इतना करा दीजिए कि यह मसला सौ-पचास नए लोगों तक पहुंच जाए, तो समझिए आपकी सफलता है, बाकी मेरी जान की चिंता छोड़िए। मेरे रहने न रहने से क्या फरक पड़ता है।
मैं चुप रह गया।
सोचा, आज जितना भी बिजी रहूं, लेकिन गोपाल भाई पर जरूर कुछ न कुछ लिखूंगा। सो, लिख रहा हूं।
लेकिन मन में कष्ट भी है। गोपाल भाई टाइप लोग कितने हैं इस देश में। ज्यादातर तो मुखौटाधारी हैं, हिप्पोक्रेट हैं, पाखंडी हैं, जो आंदोलन व विचारधारा को पैसा कमाने और बेहतर जीवन जीने का जरिया बनाए हुए हैं या बनाने की फिराक में हैं। कई आंदोलनों को करीब से देख चुका हूं। किस तरह अपने निजी इगो की भेंट आंदोलनों को चढ़ा दिया जाता है, इसका गवाह रहा हूं। किस तरह उन्हीं जोड़-तोड़ व समीकरणों को आंदोलनों में आजमाया जाने लगता है जिनके खिलाफ आंदोलन शुरू किया जाता है, इसे सुन-समझ चुका हूं।
लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं हुआ कि संगठन व आंदोलन गैर-जरूरी हैं। दरअसल, सही कहूं तो मुझे भी लगता है कि इस देश व दुनिया को अगर बचा पाएंगे तो ये जनांदोलन ही। ये जनांदोलन कब, किससे व किसलिए शुरू होंगे या हो रहे हैं, कहा नहीं जा सकता। वरना देश-दुनिया का कबाड़ा करने की पूरी तैयारी इस देश-दुनिया के कुलीन व अभिजात्य लोग कर चुके हैं।
अगर आपको भी लगे कि गोपाल भाई के आंदोलन को सपोर्ट करना है तो आप जंतर-मंतर पर जाकर
उनसे मिल सकते हैं, गोपाल के आंदोलन को अपने अखबार या टीवी में जगह दे सकते हैं, गोपाल भाई को फोन या मेल कर अपना नैतिक समर्थन व्यक्त कर सकते हैं। शायद, संभव है, हम कुछ लोगों के ऐसा करने से ही गोपाल जैसे जिद्दी और धुन के धनी लोग इस बुरे समय में भी अपने जन की बेहतरी के लिए लड़ने का हौसला कायम रख सकें।
एक बार फिर, गोपाल भाई के हौसले को सलाम।
Wednesday, August 5, 2009
जनता की संपत्ति की पूंजीवादी बंदर बांट
कृष्णा गोदावरी बेसिन से निकलने वाली गैस राष्ट्रीय और प्राकृतिक संपदा है। वैश्वीकरण और उदारीकरण के चक्कर में इस क्षेत्र की गैस की तलाश का काम अस्सी के दशक में रिलायंस ग्रुप की किसी कंपनी को दे दिया गया था। दिल्ली की राजनीति में रिलायंस और उसके सेठ धीरूभाई अंबानी का पिछले तीस साल से बहुत प्रभाव है। धीरूभाई ने उद्योग और व्यापार की दुनिया में बहुत तेजी से ऊंचाइयां तय की हैं। उनके निधन के बाद उनके दोनों बेटों ने कारोबार संभाल लिया था लेकिन कुछ दिन बाद ही मतभेद शुरू हो गए।
आज दोनों भाई अलग हैं और खूब लड़ रहे हैं। जैसा कि पूंजीवादी समाजों में होता है, एक-एक पैसे के लिए लड़ाई चल रही है। धीरूभाई अंबानी के जीवनकाल में ही इस परिवार का देश की राजनीति पर भारी प्रभाव था। उनके जाने के बाद उनके दोनों बेटों की राजनीतिक ताकत बिलकुल कम नहीं हुई है। आजकल कृष्णा गोदावरी गैस का मामला उद्योग व्यापार के साथ-साथ राजनीति के दायरे में भी आ चुका है।
पिछले हफ्ते लोकसभा में समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने कृष्णा गोदावरी बेसिन की गैस उत्तर प्रदेश के दादरी पावर प्लांट को दिए जाने में सरकारी गैर जिम्मेदारी का मामला जोर शोर से उठाया था और लोकसभा की कार्यवाही तक स्थगित हो गई थी। मामले के राजनीतिक महत्व के मद्देनजर सरकार ने सोमवार को बयान देने का वायदा किया था। वह बयान आ चुका है। लोकसभा में सरकारी बयानों की सधी हुई भाषा का इस्तेमाल करते हुए पेट्रोलियम मंत्री ने जो बयान दिया है, उससे हर तरह के अर्थ निकाले जा सकते हैं।
उन्होंने कहा कि रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड के कृष्णा गोदावरी बेसिन से मिलने वाली गैस का बंटवारा करने के लिए एक नीति बनाई गई है, उसी नीति के हिसाब से बंटवारा होगा। यह नीति क्या है इसके बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है। ज़ाहिर है कि नीति है तो सरकारी कागजों में कहीं न कहीं दर्ज ज़रूर होगी। हां उनके बयान का अगला हिस्सा अनिल अंबानी खेमे को मायूस करने वाला है। उसमें मंत्री जी ने कहा कि कृष्णा गोदावरी बेसिन के डी ब्लाक की गैस ऐसे किसी प्लांट को एलाट नहीं की गई है जो उत्पादन की स्टेज तक नहीं पहुंचा है। यानी अनिल अंबानी ग्रुप के दादरी पावर प्लांट का कहीं कोई जिक्र नहीं है।
उत्तर प्रदेश के पूर्व मुंख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने लोकसभा में उत्तर प्रदेश के हितों की अनदेखी करने का आरोप लगाया था। पेट्रोलियम मंत्री ने कहा कि दादरी प्लांट जब चल ही नहीं रहा है तो उसे गैस देने का सवाल ही नहीं उठता। उन्होंने साफ किया जब प्लांट चलने लगेगा तो गैस की उपलब्धता की रौशनी में उसे गैस एलाट करने की बात पर विचार किया जाएगा। अपने इस बयान से पेट्रोलियम मेंत्री ने अंबानी बंधुओं के झगड़े और उससे संबद्घ राजनीति को एकदम नई दिशा दे दी है और निश्चित रूप से यह राउंड बड़े भाई मुकेश अंबानी की झोली में डाल दिया है। अनिल अंबानी की शिकायत यह नहीं है कि दादरी प्लांट चालू होने पर उन्हें गैस मिलेगी कि नहीं।
उनका आरोप है कि भाइयों के बीच कारोबार के बंटवारे के वक्त तय हुआ था कि अनिल अंबानी की कंपनियों के लिए कृष्णा गोदावरी बेसिन की गैस सस्ते दाम पर मिलेगी। हालांकि यह बात सार्वजनिक स्तर पर तो किसी को नहीं मालूम है लेकिन अंदर की बात को बुनियाद बनाकर गैस के बारे में समझौता हुआ था। आमतौर पर माना जाता है कि सरकार और रिलायंस के बीच हुए गैस के बंटवारे के समझौते में रिलायंस को बहुत ही रियायतें दी गई थीं। भाइयों के झगड़े के वक्त इन रियायतों को रिकॉर्ड पर तो नहीं लाया जा सकता था लेकिन अनिल अंबानी को अपनी कंपनियों के लिए मिलने वाली गैस की रियायती कीमत के जरिए बात दुरुस्त कर ली गई थी।
अब बाजार के रेट से गैस देने की बात करके मुकेश अंबानी खेमा अनौपचारिक समझौते से मुकर रहा है। सारी परेशानी की जड़ यही है। जहां तक राजनीतिक बिरादरी का सवाल है, वह इस मुद्दे पर पूरी तरह से विभाजित है। मुलायम सिंह यादव ने कांग्रेसी नेता और पेट्रोलियम मंत्री पर आरोप लगाया है कि वह मुकेश अंबानी का पक्ष ले रहे हैं जबकि पेट्रोलियम मंत्री के करीबी लोगों का कहना है कि मुलायम सिंह यादव दूसरे अंबानी का पक्ष ले रहे हैं। इस सारी मारामारी में जनता की पक्षधरता वाली राजनीति बहुत कमजोर पड़ रही है।
सवाल पूछा जा रहा है कि कृष्णा गोदावरी बेसिन की गैस वास्तव में जनता से क्यों छीनी जा रही है जबकि जमीन की नीचे की हर संपदा राष्ट्र की संपत्ति होती है और राष्ट्र जनता का है। जब अस्सी के दशक में रिलायंस इंडस्ट्रीज को कृष्णा गोदावरी बेसिन में गैस ढूंढने का काम दिया गया था तो वह एक ठेकेदार की हैसियत से वहां गए थे। पिछले बीस वर्षों में ऐसा क्या हो गया कि अंबानी परिवार जनता की उस संपत्ति का मालिक बन बैठा। यह सवाल बहुत ही गंभीर है और इसकी पूरी गंभीरता से जांच की जानी चाहिए। नेताओं को भी चाहिए कि पूंजीपतियों के हित के साथ-साथ थोड़ा बहुत जनता का भी ध्यान दें।
Wednesday, July 29, 2009
लालू की घेराबंदी और ममता का श्वेतपत्र
रेल सुरक्षा और यात्री सुविधा जैसे जरूरी काम रेल मंत्रालय की मुख्य सूची से हट गए हैं। उन्होंने रेलमंत्री का मजाक उड़ाते हुए कहा कि वासुमती मंदिर ट्रस्ट को अधिग्रहीत कर के उसके अखब़ार निकालने की योजना का रेल मंत्रालय से कोई लेना देना नहीं होना चाहिए। रेल बजट के दिन दिए जाने वाले रेलमंत्री के भाषण पर समाजवादी पार्टी के प्रोफेसर राम गोपाल यादव ने बहुत ही गंभीर टिप्पणी की। उन्होंने कहा कि रेलमंत्री के रूप में लालू प्रसाद यादव ने कुछ घोषणाएं की थीं जो अब रिकार्ड में नहीं हैं।
उपसभापति ने कहा कि यह मामला दूसरे सदन का है लिहाजा वे उस पर कोई टिप्पणी नहीं कर सकते लेकिन इस बात की गंभीरता के मद्देनजर इसकी जांच की प्रक्रिया शुरू कराई जाएगी। रामगोपाल यादव ने सरकार पर और भी गंभीर आरोप लगाए। उन्होंने कहा कि लालू प्रसाद यादव ने अपने बजट भाषण में मैनपुरी होते हुए एक रेलवे लाइन की बात की थी। उनके भाषण का वह हिस्सा रिकॉर्ड में नहीं है। उन्होंने कहा कि भाषण की सी.डी. उपलब्ध है। उसको दिखाकर वे अपनी बात को सिद्घ करेंगे और सरकार से जवाब मांगेगे।
प्रो. यादव ने आरोप लगाया कि रेलमंत्री के भाषण को सरकार गंभीरता से नहीं लेती। उनका आरोप है कि रेलमंत्री के रूप में माधवराव सिंधिया ने बजट भाषण के दौरान जो वायदे किए थे, उनको भी ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है। बाद के भाषणों का भी वही हश्र हुआ कुछ ऐसी योजनाओं पर भी अभी काम शुरू नहीं हुआ है जिनका उदघाटन तत्कालीन राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने किया था। प्रो. यादव ने सुझाव दिया कि रेल मंत्रालय को चाहिए कि वह बजट भाषणों के दौरान पहले के मंत्रियों के वायदों को पूरा करने की एक योजना बनाए।
अगर अधूरी पड़ी परियोजनाओं को पूरा करने पर ही ध्यान रखा जाय तो देश का बहुत भला होगा। लालू प्रसाद की मित्र पार्टी के नेता की ओर से की गई इस टिप्पणी का मतलब बहुत ही गंभीर है। यह इस बात का भी संकेत है कि राजद के अध्यक्ष बहुत तेजी से मित्र खो रहे हैं। रेलमंत्री ममता बनर्जी के भाषण के दौरान लालू पर हुए कटाक्ष राजद सुप्रीमो के लिए बहुत शुभ संकेत नहीं थे। उसी भाषण में उन्होंने लालू प्रसाद के ऊपर रेल प्रशासन को ठीक से न चलाने का भी संकेत दिया था।
उनका आरोप था कि अंतरिम बजट के दौरान जो लक्ष्य निर्धारित किए गए थे उनको हासिल कर पाना संभव है नहीं है लिहाजा ममता के बजट में लक्ष्यों में संशोधन किए जा रहे हैं। यह बहुत ही गंभीर बात है क्योंकि यह अंतरिम बजट पेश करने वाले की राजनीतिक क्षमता पर टिप्पणी भी है। लेकिन लालू प्रसाद के लिए इससे भी गंभीर बात यह है कि ममता बनर्जी ने घोषणा कर दी कि रेलमंत्रालय के पिछले पांच साल के कामकाज पर एक श्वेतपत्र लाया जायेगा।
ममता बनर्जी के रेल भाषण में कही गईं बहुत सी बातें पूरी नहीं हो पाएंगी इसमें दो राय नहीं है। अब तक यह बात सभी जानते थे लेकिन मंगलवार के दिन राज्यसभा में प्रो. रामगोपाल यादव की घोषणा, कि रेलमंत्री के भाषण के कुछ अंशों को रिकार्ड से गायब कर दिया गया है, बहुत ही गंभीर है। श्वेत पत्र में इस बात पर भी चर्चा हो सकती है जो लालू के लिए बहुत ही मुश्किल पैदा करेगी। एक बात और महत्वपूर्ण है कि बजट भाषण की बाकी बातें भले भूल जायं लेकिन लालू को नुकसान पहुंचाने की गरज से उनके बारे में प्रस्तावित श्वेत पत्र के मामले में कोई चूक नहीं होगी।
लालू की पोल खोलने के लिए व्याकुल रेल मंत्रालय के कुछ अफसर इस बात को ठंडे बस्ते में कभी नहीं जाने देगे। जब भी कभी श्वेतपत्र आएगा लालू यादव की कार्यशैली पर एक बार चर्चा अवश्य होगी जोकि लगभग निश्चित रूप से राजनीतिक नुकसान पहुंचाएगी। लालू के आजकल के आचरण को देखकर भी लगने लगा है कि वे आजकल झल्लाए हुए हैं। बजट भाषण के दौरान ममता बनर्जी को भी उन्होंने कई बार टोकने की कोशिश की जिसका ममता पर तो कोई खास असर नहीं पड़ा लेकिन लालू प्रसाद की झुंझलाहट बढ़ाने में सहायक रहा।
लोकसभा में फिर लालू प्रसाद की झल्लाहट नजर आई। सदन में प्रश्नकाल के दौरान अध्यक्ष ने नक्सल हिंसा के बारे में लालू प्रसाद को पूरक प्रश्न पूछने की अनुमति दी। उठकर उन्होंने नक्सल समस्या पर भाषण देना शुरू कर दिया। जब अध्यक्ष ने उन्हें चेताया कि वे अपना प्रश्न पूछें तो लालू जी नाराज हो गए और अध्यक्ष पर ही आरोप जड़ दिया कि हम जानते हैं कि आप हमें नहीं बोलने देंगी। झल्लाहट लालू प्रसाद के व्यक्तित्व का हिस्सा कभी नहीं रहा। विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में भी वे संतुलित रहते हैं लेकिन आजकल उनके व्यक्तित्व का यह नया स्वरूप देखकर लगता है कि उनको अंदाज है कि कांग्रेस उनके आगे के राजनीतिक सफर को मुश्किल करने की मंसूबाबंदी कर चुकी है।
ममता बनर्जी का प्रस्तावित श्वेत पत्र लालू को मुश्किल में डाल सकता है। इस बारीकी को समझने के लिए लोकसभा चुनाव 2009 की कुछ झलकियों पर नजर डालना पड़ेगा। चुनाव के पहले लालू प्रसाद अकसर कहा करते थे कि उनके बिना कोई सरकार नहीं बनेगी। बातों बातों में वे कांग्रेस की खिल्ली भी उड़ाया करते थे। उसी दौर में एक बार मीडिया से मुखातिब प्रणब मुखर्जी ने कह दिया था कि केंद्र सरकार में लालू की भूमिका बहुत पक्की नहीं है, यहां तक कि उनकी अपनी कुर्सी की भी बहुत संभावना अधिक नहीं होगी।
लालू प्रसाद ने इस बात का बुरा माना था और सोनिया गांधी से शिकायत की थी। संयेाग की बात कि लालू का वही राजनीतिक भविष्य हुआ जिसकी प्रणब मुखर्जी ने संभावना जताई थी। सभी जानते हैं कि ममता बनर्जी और प्रणब मुखर्जी के राजनीतिक संबंध आजकल बहुत ही ठीक हैं इसलिए इस बात की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि कांग्रेस के बंगाल स्कूल के नेता मिलकर लालू यादव को औकात बोध का ककहरा पढ़ा रहे हो और उनको एहसास करा रहे हों कि सत्ता पाने पर भी अपनी सीमाओं की पहचान रखना भलमन साहत का लक्षण तो है ही, अच्छी राजनीति का बुनियादी सिद्घांत भी है।
Tuesday, July 28, 2009
इंसाफ की राजनीति और बजट
बताते हैं कि संजय गांधी ने अपनी मां को भी इसी लाइन पर डालने में सफलता हासिल की थी। बहरहाल 1980 के बाद से केंद्रीय बजट में अल्पसंख्यकों को दरकिनार करने का सिलसिला शुरू हुआ था। संजय गांधी को यह भी नाराजगी थी कि 1977 में मुसलमानों की मुखालिफत के कारण ही उनकी मां की सत्ता खत्म हो गई थी। इसी दौरान संघ की राजनीति के प्रेमी बहुत सारे लोग कांग्रेस में भरती हुए। अरुण नेहरू टाइप लोगों ने कांग्रेस पर कब्जा कर लिया और 1991 में तो बीजेपी के समर्थन वाली सरकार ही आ गई।
1980 के बाद ही बाबरी मस्जिद की शहादत और दीगर बहुत से मसलों के हवाले से मुसलमानों को सरकारी तौर पर अपमानित करने का सिलसिला चलता रहा। अब 29 साल बाद एक ऐसी सरकार आई है जो पिछली सरकारों की गलतियों को दुरुस्त करने की कोशिश कर रही है। आर.एस.एस. और उसके मातहत काम करने वालों की समझ में बात नहीं आ रही है। बहरहाल प्रणब मुखर्जी के इस बजट में ऐसे कुछ प्रावधान हैं जो अल्पसंख्यकों, खासकर मुसलमानों के साथ हुए पिछले तीस साल के अन्याय को इंसाफ की शक्ल देने की कोशिश करते हैं। एक बात यहां स्पष्ट कर देना जरूरी है कि बजट में जो भी है वह मुसलमानों के प्रति एहसान नहीं है।
यह उस हक का एक मामूली हिस्सा है जो पिछले तीस वर्षों से केंद्रीय सरकारें छीनती रहीं है। प्रणब मुखर्जी ने अल्पसंख्यक मंत्रालय के बजट में 74 प्रतिशत की बढ़ोतरी का ऐलान किया है। पिछले साल बजट में 1000 करोड़ रुपए की व्यवस्था की गई थी जो इस साल बढ़कर 1740 करोड़ कर दी गई है। इसके अलावा अल्पसंख्यक बहुल जिलों में प्राथमिकता के आधार पर बिजली, सड़क पानी आदि के विकास के लिए योजनाएं लाई जाएंगी। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के जरिए यू.पी.ए. सरकार ने अपनी मंशा का ऐलान मनमोहन सिंह के पहले कार्यकाल में ही कर दिया था। इस बजट में उस मंशा को अमली जामा पहनाने की कोशिश की गई है।
मनमोहन सिंह ने बार बार कहा है कि तरक्की के लिए शिक्षा सबसे जरूरी हथियार है। उनका अपना जीवन भी शिक्षा के अच्छे अवसरों की वजह से दुरुस्त हुआ है। इसलिए अल्पसंख्यकों के कल्याण की योजनाओं में शिक्षा को बहुत ज्यादा महत्व देने की बात कही जा रही थी, जो बजट के बाद एक गंभ़ीर प्रयास के रूप में नजर आने लगी है। अल्पसंख्यक बच्चों को इतनी छात्रवृत्तियां दी जाएंगी कि उनकी तालीम इसलिए न रुक जाय कि पैसे की कमी है। अल्पसंख्यकों की कुशलता के विकास के लिए भी बड़ी योजनाओं की बात की जा रही है। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की केरल और बंगाल में कैंपस खोलने की योजनाओं की चर्चा बरसों से होती रही है।
अपने बजट भाषण में इसके लिए धन का इंतजाम करके वित्त मंत्री ने अल्पसंख्यकों के भावनात्मक मुद्दों को भी महत्व दिया है। राष्ट्रीय अल्पसंख्यक वित्त एंव विकास निगम और मौलाना आज़ाद फाउंडेशन को और मजबूत किया जा रहा है। इस बजट की एक खास बात यह है कि यह कांग्रेस पार्टी की राजनीति को सरकार चलाने के लिए गंभीरता से आगे बढ़ाने का काम करता है। बजट के जरिए देश की आबादी के एक बड़े वर्ग को यह बताने की कोशिश की गई है कि यह देश सबका है।
अफसोस की बात यह है कि केंद्र सरकार की इंसाफ की डगर पर चलने की कोशिश को संघी राजनीति के कुछ कारिंदे तुष्टीकरण की नीति के रूप में पेश करने की कोशिश कर रहे हैं। कुछ इलाकों में जुलूस वगैरह भी निकालेे गए हैं और सरकार को मुसलमानों के खिलाफ काम करने की प्रेरणा देने की कोशिश की गई है। लेकिन लगता है कि केंद्र सरकार पर इसका कोई असर नहीं पडऩे वाला है, उसे संघी नेताओं की असुविधा पर मजा आ रहा है।
बजट 2009 कांग्रेस पार्टी की उस राजनीति की एक प्रक्रिया है जिसके तहत उसने मुसलमानों को अन्य पार्टियों से खींचकर अपनी तरफ लाने की कोशिश शुरू की थी। लोकसभा चुनाव 2009 में ही साफ संकेत मिलने लगे थे कि कांग्रेस पार्टी अब मुसलमानों के लिए अछूत नहीं है। बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाने वाली, शिलान्यास करवाने वाली और बाबरी मस्जिद की शहादत में जिम्मेदार पार्टी की अपनी छवि से बाहर निकलने की कोशिश कर रही कांग्रेस के लिए लोकसभा चुनाव में मुसलमानों का वोट मिलना बहुत बड़ी बात थी। कांग्रेस की कोशिश है कि उसे दुबारा अल्पसंख्यकों का विश्वास हासिल हो जैसे 1971 तक था।
इस मायने में मौजूदा बजट वित्त व्यवस्था के प्रबंध को दुरुस्त करने के साथ-साथ राजनीति को भी चाक चौबंद रखने में काम आयेगा। किसी भी राजनीति का उद्देश्य होता है कि वह अपने देश की अधिकतम जनता की महत्वांकाक्षा का वाहक बने। बीजेपी आदि जो पार्टियां हैं वे अल्पसंख्यकों को अपने दायरे से बाहर रखकर काम करना चाहती है। उनकी कोशिश रहती है कि सरकार मुसलमानों को औकातबोध कराने के लक्ष्य को हासिल करने के लिए काम करे।
बीच में कुछ दिनों के लिए कांग्रेस में भी यह बात आ गई थी लेकिन अब लगता है कि माहौल बदल रहा है। सोनिया-मनमोहन की टीम मुसलमानों को साथ लेकर चलने की नीति पर काम कर रही है। कम से कम बजट 2009 से तो यह संदेश बहुत ही साफ तरीके से सामने आ रहा है।