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Friday, October 5, 2012

किस्सा सब्ज़ बाग़ और अरविंद केजरीवाल की नई पार्टी




शेष नारायण सिंह 

अन्ना हजारे के पूर्व शिष्य अरविंद केजरीवाल ने अपनी राजनीतिक पार्टी की शुरुआत कर दी . नई दिल्ली के वी पी हाउस में अपने समर्थकों के साथ आये और राजनीतिक पार्टी लांच करने की घोषणा कर दी. उन्होंने बताया कि २६ नवम्बर को पार्टी का नाम और उसका घोषणापत्र जारी कर दिया जाएगा.अरविंद केजरीवाल के साथ कुछ ऐसे लोग भी आये जिनके बारे में माना जाता है कि वे गंभीर लोग हैं . इसलिए उम्मीद की जा रही है कि २६ नवम्बर को जब उनकी पार्टी का ऐलान होगा तो कुछ नया ज़रूर होगा.
इस वी पी हाउस में बार बार राजनीतिक इतिहास लिखा गया है .यहाँ कई बार राजनीतिक परिवर्तन की इबारत लिखी गयी है . हो सकता है कि गांधी जयन्ती के दिन अरविंद केजरीवाल के जिन मित्रों का जमावड़ा हुआ था वे किसी नई राजनीतिक शक्ति की शुरुआत के कारण बनें.इस सम्मलेन में कुछ कागज़ पत्र भी जारी किये गए जिनके आधार पर करीब डेढ़ महीने तक बहस  होगी और उसके बाद राजनीतिक पार्टी के गठन की विधिवत घोषणा की जायेगी.  किसी भी पार्टी की घोषणा के पहले उसके बारे में कुछ कहना बहुत ही मुश्किल काम होता है . इसलिए आज अरविंद केजरीवाल और  वी पी हाउस में इकठ्ठा हुए उनके साथियों के सपनों के बारे में बात की जायेगी. देश भर के बड़े अखबारों ने केजरीवाल की पार्टी की शुरुआत को बहुत महत्व दिया है और देश के  सबसे बड़े अखबार दैनिक जागरण ने अरविंद केजरीवाल की पार्टी की खबर को प्राथमिकता दी है . ज़ाहिर है  आज से ही हिन्दी क्षेत्रों में इस पार्टी के बारे में बहस शुरू हो चुकी है अखबार ने लिखा है कि अन्ना की जगह महात्मा गांधी और लालबहादुर शास्त्री के पोस्टर लगे मंच से केजरीवाल ने कहा, 'सभी दलों ने मिलकर जन लोकपाल आंदोलन को बार-बार धोखा दिया। हमें चुनौती दी गई कि खुद चुनाव लड़कर बनवा लो। आज हम इस मंच से एलान करते हैं कि हम चुनावी राजनीति में कूद रहे हैं। जनता राजनीति में कूद रही है'. उनके साथ मंच पर राजनीतिक चिन्तक  योगेंद्र यादव भी मौजूद थे .उन्होंने कहा कि आज के ज़माने में राजनीति ज़रूरी है , इससे अलग नहीं रहा जा सकता .

केजरीवाल ने पार्टी के विज़न डाकुमेंट , एजेंडा और उम्मीदवारों के चयन की प्रक्रिया का मसौदा पेश किया. अभी कल तक अन्ना हजारे की जयजयकार कर  रहे अरविंद केजरीवाल ने उनके एक अहम सवाल का जवाब  भी दिया और अपने भाषण में ऐलान किया कि  , 'बार-बार सवाल पूछा जा रहा है कि पैसा कहां से आएगा? लेकिन, ईमानदारी से चुनाव लड़ने के लिए पैसे की जरूरत नहीं होती। मौजूदा नेताओं ने ऐसा माहौल बना दिया है कि राजनीति सिर्फ गुंडों का काम बनकर रह गई है। हमें साबित करना है कि यह देशभक्तों का काम है।'
जानकार बताते हैं कि उनकी नई पार्टी में केजरीवाल के अलावा  प्रशांत भूषण ,योगेंद्र यादव ,गोपाल राय, मनीष सिसोदिया और संजय सिंह को आलाकमान का रुतबा हासिल होगा . जो कागजपत्र पेश किये गए उनपर नज़र डालने से साफ़ समझ में आ जाता है कि अगर यह राजनीतिक पार्टी सत्ता में आ गयी तो बहुत जल्द एक ऐसी व्यवस्था कायम हो जायेगी जो हर तरह से आदर्श होगी.चुनाव में टिकट देने के मामले में इस पार्टी का बहुत ही साफ़ रुख होगा . एक परिवार के एक ही सदस्य चुनाव लड़ने दिया जाएगा.  पार्टी का कोई भी सांसद,विधायक लाल बत्ती का इस्तेमाल नहीं करेगा .सांसद और विधायक  सुरक्षा और सरकारी बंगला नहीं लेंगे . हाई कोर्ट के सेवानिवृत्त जज पार्टी पदाधिकारियों पर लगने वाले आरोप की जांच किया करेगें .पार्टी को मिलने वाले सभी चन्दों का हिसाब पार्टी की वेबसाइट पर डाला जाएगा. दिल्ली की मुख्य मंत्री से नाराज़ और बिजली के बिल में हो रही अनाप शनाप वृद्धि के खिलाफ दिल्ली में आन्दोलन छेड़ा जाएगा.
अरविंद केजरीवाल की पार्टी के बारे में जो कुछ भी अब तक पता चला है  उसके आधार पर उनकी प्रस्तावित पार्टी से बहुत उम्मीदें नहीं बनतीं. आम आदमी का नाम लेकर शुरू की जा रही पार्टी के शुरुआती कार्यक्रम में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसके बल पर बहुत उम्मीद बन सके . लेकिन पार्टी के शुरू करने वालों को बहुत उम्मीदें हैं . केजरीवाल के साथी और गंभीर राजनीतिक कार्यकर्ता गोपाल राय से बात चीत करने का मौक़ा मिला.उनका कहना है कि इस देश में जब तक गाँवसभा में बैठे हुए आम आदमी को अपने आस पास का विकास करने का अधिकार नहीं मिलेगा, तब तक इस देश में सही मायने में लोकशाही की स्थापना नहीं की जा सकती. . उन्होंने कहा कि  अंग्रेजों की नौकरशाही को जवाहरलाल नेहरू ने अपना लिया था. वहीं बहुत बड़ी गलती हो गयी थी. नौकरशाही के  बारे में उनकी पार्टी नए सिरे से विचार करेगी. लेकिन अभी यह साफ़ नहीं   है कि नई नौकरशाही का स्वरुप क्या होगा. इस पर विचार चल रहा है . गोपाल राय से बात करके ऐसा लगता है कि केजरीवाल की पार्टी वही सब करना चाहती है जो महात्मा गाँधी के हिंद स्वराज और ग्राम स्वराज में राजनीतिक कार्य का मकसद बताया गया  है . यह अलग बात है  कि पूरी बातचीत में उन्होंने महात्मा गांधी का नाम एक बार भी नहीं लिया . .
टीम केजरीवाल का आरोप  है  कि अभी जो व्यवस्था है उसमें सरकारें शुद्ध रूप से वी आई पी का काम करती हैं . लेकिन यह ज़रूरी है  कि उनको इस तरह से ढाला जाए कि वे आम आदमी का काम के लिए अपने आपको तैयार करें .पार्टी की तैयारी के  बारे में भी अरविंद की टीम में काफी हद तक सहमति बन चुकी है . हरावल दस्ता तो वही होगा जो जनलोकपाल  के लिए अन्ना हजारे के  आन्दोलन में उनके साथ था. लेकिन इसमें उन लोगों को नहीं लिया जाएगा जो अब अलग हो चुके हैं . इस वर्ग में किरण बेदी जैसे लोगों का नाम है . रामदेव से भी अब इन लोगों का कोई लेना देना नहीं है . यह बात तो तीन दिन पहले ही साफ़ हो चुकी है जब टाइम्स नाउ चैनल  पर रामदेव के ख़ास साथी वेद प्रताप वैदिक ने अरविंद  और उनके  साथियों का मजाक उड़ाया था. दूसरा  वर्ग उन लोगों का होगा अ किसी भी तरह के जनांदोलनों  में काम कर रहे हैं वे भी पार्टी में कार्यकर्ता के रूप में शामिल किये जायेगें . तीसरा वर्ग उन लोगों का होगा जो भ्रष्टाचार से ऊब चुके हैं और जो  नई पार्टी एके साथ रहेगें लेकिन बहुत सक्रिय नहीं रहेगें. वास्तव में यही वर्ग पार्टी का जनाधार होगा.
अभी तक के अरविंद केजरीवाल की जो सोच  है उसके लागू होने पर देश में एक बहुत बड़ा आन्दोलन शुरू हो सकता है . लेकिन यह देखना दिलचस्प होगा कि  भारत का मध्यवर्ग इस पार्टी को कितनी गंभीरता से लेता है . भ्रष्टाचार के खिलाफ जो आन्दोलन चला था  उसमें तो यह लोग सफल नहीं रहे थे. इनके ऊपर आरोप लगते रहे हैं कि इन्होने जनता के भ्रष्टाचार विरोधी  गुस्से को शासक वर्गों के हित के लिए तबाह कर दिया था .और  आम आदमी  में निराशा भर दी थी. अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन से देश के मध्य वर्ग में बहुत ही ज्यादा उत्साह जगा था और लगने लगा था कि भ्रष्टाचार पर आम आदमी की नज़र है , वह ऊब चुका है और अब निर्णायक प्रहार की मुद्रा में है . आम आदमी जब तक मैदान नहीं लेता , न तो उसका भविष्य बदलता है और न ही उसके देश या राष्ट्र का कल्याण होता है .शायद इसीलिए जब भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे ने आवाज़ बुलंद की तो पूरे देश में लोग उनकी हाँ में हां मिला बैठे. लगभग पूरा मध्यवर्ग अन्ना और अरविंद केजरीवाल के साथ था . भ्रष्टाचार के प्रतीक के रूप में केंद्र की कांग्रेस की सरकार को घेर कर जनमत की ताक़त हमले बोल रही थी . लेकिन इसी बीच अन्ना हजारे के आन्दोलन की परतें खुलना शुरू हो गईं
यह भी शक़ हुआ था कि कहीं भ्रष्टाचार के खिलाफ उबल रहे जन आक्रोश को दिशा भ्रमित करने के लिए धन्नासेठों ने अन्ना हजारे और उनकी टीम के ज़रिये हस्तक्षेप किया हो . यह डर बेबुनियाद नहीं है क्योंकि ऐसा बार बार हुआ है . आम आदमी को अरविंद केजरीवाल की टीम से बहुत उम्मीदें हैं . भविष्य ही बताएगा कि उनकी उम्मीदों का क्या नतीजा निकलता है .

Monday, August 20, 2012

भ्रष्टाचार की आग में जल रही जनता का गुस्सा जिन्न की तरह बोतल में बंद किया जा चुका है




शेष नारायण सिंह 

अन्ना हजारे के आन्दोलन को तहस नहस कर दिया गया. शासक वर्गों को इसमें मज़ा आ गया. पूरे देश में भ्रष्टाचार से त्राहि त्राहि कर रही जनता के लिए अन्ना हजारे एक ऐसे मसीहा के रूप में उभरे थे जो उसे रोज़मर्रा की ज़िंदगी में आने वाली भ्रष्टाचार की परेशानी से मुक्ति दिला सकता था. अन्ना हजारे के साथ गोपाल राय जैसा क्रांतिकारी भी था जो साम्राज्यवादी सत्ता प्रतिष्टानों के खिलाफ संघर्ष करता रहा है . गोपाल और उनके जैसे बहुत सारे सही क्रांतिकारियों को उम्मीद हो गयी थी कि  अन्ना हजारे के साथ भारत की जनता को एकजुट किया जा सकेगा और सत्ता प्रतिष्टान के खिलाफ लामबंद किया जा सकेगा . लेकिन ऐसा न  हो सका.  अपने ब्लॉग पर 4 नवम्बर २०११ को प्रकाशित एक लेख से कुछ अंश आज याद आते हैं . उस दिन  भी मेरे मन में   यह डर था कि कहीं सत्ता प्रतिष्ठानों के मालिक अन्ना के साथ मिलकर आम आदमी के गुस्से को बोतल में न बंद कर दें . आखिर में वही हुआ और  अन्ना हजारे के आन्दोलन से पैदा हुआ जागरण योग गुरु रामदेव के ज़रिये शासक वर्गों की गोद में जा बैठा. अन्ना हजारे के आन्दोलन की विफलता के कारणों की बाद में जांच होती रहेगी लेकिन फिलहाल आम आदमी पस्त है और उसे मालूम है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठाने की उसके क्षमता पर सवाल उठने लगे हैं .

अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन से देश के मध्य वर्ग में बहुत ही ज्यादा उत्साह जगा था और लगने लगा था कि भ्रष्टाचार पर आम आदमी की नज़र है , वह ऊब चुका है और अब निर्णायक प्रहार की मुद्रा में है . आम आदमी जब तक मैदान नहीं लेता , न तो उसका भविष्य बदलता है और न ही उसके देश या राष्ट्र का कल्याण होता है .१८५७ में इस देश के आम आदमी ने अंग्रेजों की हुकूमत के खिलाफ लड़ने के मन बनाया था. उस लड़ाई में सभी तो नहीं शामिल हुए थे लेकिन मानसिक रूप से देश की अवाम अंग्रेजों को उखाड़ फेंकने के लिए तैयार थी. सही लीडरशिप नहीं थी इसलिए उस दौर के आम आदमी का आज़ाद होने का सपना बिखर गया. दोबारा यह मौक़ा तुरंत नहीं आया. साठ साल के इंतज़ार के बाद यह मौक़ा फिर मिला जब अंग्रेजों का अत्याचार सभी सीमाएं लांघ चुका था .जलियाँवाला बाग़ में हुए अंग्रेज़ी सत्ता के बेशर्म प्रदर्शन के बाद पूरे देश में सत्ता के खिलाफ गुस्सा था. ठीक इसी वक़्त महात्मा गाँधी ने आम आदमी के गुस्से को एक दिशा दे दी.आम आदमी का वही गुस्सा बाद में आज़ादी की लड़ाई की शक्ल अख्तियार करने में कामयाब हुआ . महात्मा गाँधी के नेतृत्व में चले २५ साल के संघर्ष के बार अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद ने हार मान ली और देश आज़ाद हो गया . उस राजनीतिक घटना के साठ साल बाद आज फिर इस देश का आम आदमी आर्थिक भ्रष्टाचार के आतंक के नीचे दब गया है . वह आर्थिक भ्रष्टाचार के निरंकुश तंत्र से आज़ादी चाहता है . आज देश में भ्रष्टाचार का आतंक ऐसा है कि चारों तरफ त्राहि त्राहि मची हुई है , देश के गाँवों में और शहरों के गली कूचों में लोग भ्रष्टाचार की गर्मी में झुलस रहे हैं . शायद इसीलिए जब भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे ने आवाज़ बुलंद की तो पूरे देश में लोग उनकी हाँ में हां मिला बैठे. सूचना क्रान्ति के चलते पूरे देश में अन्ना की मुहिम का सन्देश पंहुच गया. भ्रष्टाचार के खिलाफ एक मसीहा मिल गया था . लगभग पूरा मध्यवर्ग अन्ना के साथ था . भ्रष्टाचार के प्रतीक के रूप में केंद्र की कांग्रेस की सरकार को घेर कर जनमत की ताक़त हमले बोल रही थी . लेकिन इसी बीच अन्ना हजारे के आन्दोलन की परतें खुलना शुरू हो गईं .अब यह शंका पैदा होने लगी है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ निर्णायक लड़ाई शायद अब आगे नहीं चल पायेगी. 


अन्ना हजारे की टीम के सदस्यों की व्यक्तिगत ईमानदारी पर सवाल उठने के बाद भी अन्ना का कुछ बिगड़ने वाला नहीं है. अन्ना हजारे ने महाराष्ट्र में जिस पारदर्शिता के साथ भ्रष्टाचार के किलों को ढहाया है उसके चलते उनकी ख्याति ऐसी है कि उनको कोई भी बेईमान नहीं कह सकता . उनके ऊपर उनके विरोधी भी धन की उगाही का आरोप नहीं लगा सकते . उनके साथियों के तथाकथित भ्रष्ट आचरण से भी आम आदमी का कोई लेना देना नहीं है . आम आदमी की चिंता यह है कि क्या अन्ना हजारे ने भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ फेंकने की जो लड़ाई शुरू की थी वह भ्रष्टाचार को वास्तव में मिटा पायेगी ? अन्ना के आन्दोलन से भ्रष्टाचार से पीड़ित जनता को बहुत उम्मीदें हैं . लेकिन अब तक टकटकी लगाए बैठे लोगों की उम्मीदें अब टूटने लगी हैं .पिछले दिनों  ऐसा बहुत कुछ हुआ है जिसके बाद भरोसा टूटना जायज़ है. भ्रष्टाचार के खिलाफ चल रहे इस आन्दोलन में कारपोरेट सेक्टर के भ्रष्टाचार के बारे में कुछ नहीं कहा गया है . जबकि सच्चाई यह है कि अब सरकारी अफसर के साथ साथ निजी कम्पनियां भी ऐसे भ्रष्टाचार में लिप्त पायी जा रही हैं जिसकी वजह से आम आदमी परेशान होता है .एक उदाहरण से बात को साफ़ करने की कोशिश की जा सकती है . दिल्ली में घरेलू बिजली सप्लाई का ज़िम्मा निजी कंपनियों के पास है . अगर यह कम्पनियां या इनके अधिकारी भ्रष्टाचार में शामिल होते हैं तो उसका सीधा नुकसान आम आदमी को होगा. ऐसी ही और भी बहुत सी सेवाएं हैं . बैंकिंग और इंश्योरेंस भी उसी श्रेणी में आता है . इसलिए वह सवाल जो अब बहुत लोगों के दिमाग में घूम फिर कर चक्कर काट रहा है, उसका जवाब भी तलाशा जाना चाहिए . कहीं ऐसा तो नहीं कि भ्रष्टाचार के खिलाफ उबल रहे जन आक्रोश को दिशा भ्रमित करने के लिए धन्नासेठों ने अन्ना हजारे के ज़रिये हस्तक्षेप किया हो . यह डर बेबुनियाद नहीं है क्योंकि आज से करीब सवा सौ वर्ष पहले ऐसा हो चुका है . १८५७ में जब पूरे देश में अंग्रेजों के प्रति गुस्सा फूटा था तो अंग्रेजों ने ईस्ट इण्डिया कंपनी की हुकूमत को हटाकर ब्रिटिश सामाज्य की हुकूमत कायम कर दी थी. उस से भी लोग नाराज़ हो रहे थे . साम्राज्यवादी ब्रिटिश हुकूमत ने इसे भांप लिया और ब्रिटिश इम्पायर के चाकर एक अधिकारी को आगे करके १८८५ में कांग्रेस बनवा दी . इतिहास के कई विद्वानों का कहना है कि १८८५ में कांग्रेस की स्थापना आज़ादी की लड़ाई में इम्पीरियल हस्तक्षेप था , भारतीय जनता के गुस्से को अंग्रेजों के हित की दिशा में ले जाने की एक कोशिश था. उसके बाद कांग्रेस के अधिवेशनो में जागरूक मध्य वर्ग के लोग बिटिश सम्राट की जय जय कार करते रहे . कांग्रेस के स्थापना के ३५ साल बाद वह संगठन आम आदमी का संगठन बन सका जब गाँधी ने देश की जनता का नेतृत्व संभाला. तब जाकर कहीं ब्रिटिश साम्राज्यवाद को प्रभावी चुनौती दी जा सकी. आज भी समकालीन इतिहास के जानकार पूछना शुरू कर चुके हैं कि कहीं अन्ना हजारे का आन्दोलन वर्तमान शासक वर्गों और धन्नासेठों के आशीर्वाद से अवाम के गुस्से को भोथरा करने के लिए तो नहीं चलाया गया था. क्योंकि अगर भ्रष्टाचार ख़त्म होगा तो नेताओं, अफसरों और पूंजीपतियों की आमदनी निश्चित रूप से घटेगी. इस सवाल का जवाब इतिहास की कोख में है लेकिन फिलहाल ऐसा लगता है कि भ्रष्टाचार की आग में जल रही जनता का गुस्सा जिन्न की तरह बोतल में बंद किया जा चुका है

Wednesday, August 19, 2009

जंतर-मंतर मरने पहुंचे हैं गोपाल राय

यशवंत सिंह
गोपाल राय पिछले 9 दिन से बिना खाये-पिये जंतर-मंतर पर लेटे हैं। आमरण अनशन कर रहे हैं वे। मित्र हैं। इलाहाबाद में बीए के दिन से। छात्र राजनीति में साथ-साथ सक्रिय हुए थे हम दोनों। बाद में मैं बीएचयू चला गया था और वो लखनऊ विवि। संगठन के होलटाइमर भी साथ-साथ ही बने थे। करीब-करीब साथ-साथ ही संगठन से मोह भी टूटा था। किसी भी तरह का गलत होते न देख पाने वाले गोपाल राय लखनऊ विश्वविद्यालय में गुंडों से हर वक्त टकराया करते थे। उनके व्यक्तित्व में अदम्य साहस और आत्मविश्वास है। भय से तो भाई को तनिक भी भय नहीं लगता। चट्टान की तरह अड़ जाता है।

अब गोपाल राय को कौन समझाए कि दिल्ली में रहने वाले 99 फीसदी लोग सिर्फ पेट के लिए जीते-मरते हैं। इनका किसी से कोई लेना-देना नहीं रह गया है। संवेदना शब्द अब गरीबों व गांववालों के लिए आरक्षित कर दिया गया है। बाजार का नशा महानगरों पर इस कदर चढ़ा है कि अगर कोई थोड़ा भी सिद्धांत की बात करता मिल जाए तो लोग उसे फालतू मानकर दाएं-बाएं निकल लेते हैं। ऐसे में गोपाल का किसी राष्ट्रीय मुद्दे पर आमरण अनशन करना, थोड़ा चौंकाता है, लेकिन यह भरोसा भी दिलाता है कि कुछ पगले किस्म के लोग अब भी विचारों को जीते हैं और देश-समाज की चिंता करते हुए जान न्योछावर करने के लिए तैयार रहते हैं।

गोपाल राय से मिलने इसलिए नहीं गया था कि वे किसी महान काम में लगे हैं, इसलिए भी नहीं गया था कि आमरण अनशन के 9वें दिन में प्रवेश करने से उनके स्वास्थ्य को लेकर मुझे विशेष चिंता हो रही थी। सही कहूं तो मैं भी धीरे-धीरे दिल्ली वाला हो रहा हूं, इसलिए बहुत देर तक इमोशन में न फंस पाने की प्रवृत्ति डेवलप हो रही है। गोपाल राय के यहां सिर्फ इसलिए गया था कि इस दिल्ली में जिन दो-चार बहादुर लोगों को देखा है, उसमें पुराने मित्र गोपाल राय भी हैं। गोली लगने के कारण अस्वस्थ रहने वाले शरीर की वजह से ठीक से चल भी नहीं पाते लेकिन गोपाल राय न तो पहले और न अब, कभी छिछले नहीं हुए, कभी औसत नहीं बने, कभी बेचारे बनकर पेश नहीं हुए, कभी किसी तरह की याचना नहीं की। कितने भी दर्द-दुख में रहें, कभी मुस्कराहट नहीं खत्म की।

दोस्ती की वजह से उनसे मिलने जंतर-मंतर गया।
जंतर-मंतर पहुंचा तो टीवी न्यूज चैनलों की ओवी वैन देख माथा ठनका, माजरा क्या है? पता चला कि महंगाई पर भाजपा का कोई कार्यक्रम है जिसमें राजनाथ सिंह आने वाले हैं। संतोष हुआ। चैनल वाले कोई गलत काम नहीं कर रहे हैं, सही रास्ते पर हैं। वरना जंतर-मंतर को अब पूछता कौन है। गोपाल राय सरीखे दर्जनों आंदोलनकारी जंतर-मंतर पर अपने जिनुइन मुद्दों को लेकर बैठे रहते हैं हैं, उधर किसी को देखने की फुर्सत नहीं है। लेकिन अगर राजनाथ सिंह जंतर-मंतर टहलने भी पहुंच जाएं तो उन्हें कवर करने मीडिया का मेला पहुंच जाएगा।


इतिहास का जो चारण-भाट दौर था, उसमें भी लेखक-बुद्धिजीवी सिर्फ बड़े राजाओं-महाराजाओं-राजकुमारों-महारानियों-राजकुमारियों-मंत्रियों मतलब कुलीन लोगों के बारे में ही लिखते-पढ़ाते थे। आम जन की स्थिति के बारे में कलम चलाने वाला कोई नहीं था। पूंजीवाद और विज्ञान के विकास ने इतिहास को जड़ों से जोड़ा लेकिन अबका जो चरम पूंजीवाद, बोले तो, बाजारवाद है, वह फिर से इतिहास को पलट रहा है।

देश में अकाल पड़ा हुआ है, लोग भूखों मर रहे हैं, इस पर टीवी वालों को प्राइम टाइम में स्पेशल स्टोरीज चलानी चाहिए, अपनी विशेष टीमें अकालग्रस्त इलाकों की ओर रवाना करनी चाहिए पर ऐसा कुछ नहीं हो रहा है। डाउन मार्केट कहकर आंदोलन, सूखा, अकाल, मंहगाई सबको खारिज किया जा रहा है। अगर इन्हें पकड़ा भी जा रहा है तो सिर्फ बड़े नेताओं के बयानों के जरिए। पीएम ने बयान दे दिया। उसे छाप दिया। दिखा दिया। बस हो गया। राजनाथ ने विरोध कर दिया। उसे छाप दिया। दिखा दिया। बस हो गया।

यही है मीडिया?
गोपाल भाई से अनुरोध किया- अंधों की नगरी में हरियाली लाने के लिए काहे जान दे रहे हैं, ये अनशन-वनशन खत्म करिए। जान है तो जहान है। आजकल यही फंडा है।
इतना सुनकर गोपाल सिर्फ मुस्कराए और बोले- आप बस इतना करा दीजिए कि यह मसला सौ-पचास नए लोगों तक पहुंच जाए, तो समझिए आपकी सफलता है, बाकी मेरी जान की चिंता छोड़िए। मेरे रहने न रहने से क्या फरक पड़ता है।

मैं चुप रह गया।

सोचा, आज जितना भी बिजी रहूं, लेकिन गोपाल भाई पर जरूर कुछ न कुछ लिखूंगा। सो, लिख रहा हूं।
लेकिन मन में कष्ट भी है। गोपाल भाई टाइप लोग कितने हैं इस देश में। ज्यादातर तो मुखौटाधारी हैं, हिप्पोक्रेट हैं, पाखंडी हैं, जो आंदोलन व विचारधारा को पैसा कमाने और बेहतर जीवन जीने का जरिया बनाए हुए हैं या बनाने की फिराक में हैं। कई आंदोलनों को करीब से देख चुका हूं। किस तरह अपने निजी इगो की भेंट आंदोलनों को चढ़ा दिया जाता है, इसका गवाह रहा हूं। किस तरह उन्हीं जोड़-तोड़ व समीकरणों को आंदोलनों में आजमाया जाने लगता है जिनके खिलाफ आंदोलन शुरू किया जाता है, इसे सुन-समझ चुका हूं।

लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं हुआ कि संगठन व आंदोलन गैर-जरूरी हैं। दरअसल, सही कहूं तो मुझे भी लगता है कि इस देश व दुनिया को अगर बचा पाएंगे तो ये जनांदोलन ही। ये जनांदोलन कब, किससे व किसलिए शुरू होंगे या हो रहे हैं, कहा नहीं जा सकता। वरना देश-दुनिया का कबाड़ा करने की पूरी तैयारी इस देश-दुनिया के कुलीन व अभिजात्य लोग कर चुके हैं।


अगर आपको भी लगे कि गोपाल भाई के आंदोलन को सपोर्ट करना है तो आप जंतर-मंतर पर जाकर
उनसे मिल सकते हैं, गोपाल के आंदोलन को अपने अखबार या टीवी में जगह दे सकते हैं, गोपाल भाई को फोन या मेल कर अपना नैतिक समर्थन व्यक्त कर सकते हैं। शायद, संभव है, हम कुछ लोगों के ऐसा करने से ही गोपाल जैसे जिद्दी और धुन के धनी लोग इस बुरे समय में भी अपने जन की बेहतरी के लिए लड़ने का हौसला कायम रख सकें।

एक बार फिर, गोपाल भाई के हौसले को सलाम।