Monday, March 1, 2010

मेरा गाँव , जो होली के दिन ज़रूर याद आता है

शेष नारायण सिंह

होली के दिन मुझे अपने गाँव की बहुत याद आती है .सुलतान पुर जिले में मेरा बहुत छोटा सा गाँव है . उसका नाम कहीं भी सरकारी रिकॉर्ड में नहीं है . सरकारी रिकॉर्ड में पड़ोस के गाँव का नाम है . मेरा गाँव उसी का अटैचमेंट है.. मेरे बचपन में होली एक ऐसा त्यौहार था जब सारा गाँव साथ साथ हो जाता था. बाकी तो कोई त्यौहार इस रुतबे का नहीं होता था. हाँ अपनी बेटियों की शादी में पूरा गाँव एक साथ खड़ा रहता था..जब मैंने अपने गाँव के बाहर की दुनिया देखनी शुरू की तब मुझे लगने लगा था कि हमारा गाँव गरीब आदमियों का गाँव था. सन ६१ की जनगणना में मैं लेखपाल के साथ गेरू लेकर जुटा था. तब कुल २६ परिवार थे मेरे गाँव में .मैंने हर घर के सामने, जो भी लेखपाल जी ने बताया था,उसे गेरू से लिखा था.. . अब तो शायद ८० परिवार होंगें. खेत उतना ही . आबादी की ज़मीन उतनी ही . लेकिन जनसँख्या चार गुनी हो गयी है .. उन्ही २६ परिवारों के लोग होली के दिन ऐसे हो जाते थे जैसे एक ही घर के हों...मेरे गाँव में कई जातियों के लोग रहते थे. ब्राह्मणों की दो उप जातियां थीं,पाण्डेय और मिश्र ..ठाकुरों की पांच उपजातियां थीं, चौहान , गौतम ,बैस, परिहार और राजकुमार . नाऊ, कहार और दलितों के भी परिवार थे . .पूरे गाँव के लोग एक दूसरे के भाई, बहन , काकी, काका, बाबा, आजी, भौजी जैसे रिश्तों में बंधे थे . कई साल बाद मेरी समझ में यह बात आई कि यह सारे रिश्ते माने मनाये के थे . कहीं भी रिश्तेदारी का कोई आ़धार नहीं था.. गाँव में मेरे सबसे प्रिय थे हमारे फूफा. वे दलित थे, ससुराल में रहते थे, दूलम नाम था उनका. उनकी पत्नी गाँव के ज्यादातर लोगों की फुआ थीं. बूढ़े लोग उनका नाम लेते थे .. होली के दिन मिलने वाले कटहल की सब्जी और दाल की पूरी की याद आज भी मुझे होली के दिन अपने गाँव में जाने के लिए बेचैन कर देती है . मेरे गाँव में पढ़े लिखे लोग नहीं थे . केवल एक ग्रेजुएट थे पूरे गाँव में . बाद में उन्होंने पी एच डी तक की पढाई की . स्कूल जाने वाले सभी बच्चे उन्हीं डॉ श्रीराज सिंह को ही आदर्श मानते थे.

१९६७ में आई हरित क्रान्ति के साथ मेरे गाँव में लोगों के सन्दर्भ बदलना शुरू हुए. कुछ लोगों ने किसी तरह से कुछ पैसा कौड़ी इकठ्ठा करके औरों की ज़मीन खरीदना शुरू कर दिया . गरीबी का मजाक उड़ना शुरू हो गया और इंसानी रिश्ते हैसियत से जोड़ कर देखे जाने लगे. . मेरे गाँव के लोग कहा करते थे कि हमारे गाँव में कभी पुलिस नहीं आई थी. लेकिन ज़मीन की खरीद के साथ शुरू हुई बे-ईमानी के चलते फौजदारी हुई , सर फूटे, मुक़दमे बाज़ी शुरू हुई. और मेरा गाँव तरह तरह के टुकड़ों में विभाजित हो गया. . कुछ साल बाद गाँव के ही एक बुज़ुर्ग का क़त्ल हुआ . फिर गाँव के लोग कई खेमों में दुश्मन बन कर बँट गए . कुछ साल पहले जब मैं अपने गाँव गया था तो लगा कि कहीं और आ गया हूँ. मेरे आस्था के सारे केंद्र ढह गए हैं . लोग होली मिलने की रस्म अदायगी करते हैं . ज़्यादातर परिवारों के नौजवान किसी बड़े शहर में चले गए हैं . कुछ लड़कों ने पढ़ाई कर ली है लेकिन खेती में काम करना नहीं चाहते और बेरोजगार हैं . मेरे गाँव की तहसील पहले कादीपुर हुआ करती थी , नदी पार कर के जाना होता था . लेकिन अब तहसील ३ किलोमीटर दूर लम्भुआ बाज़ार में है. . मेरे गाँव के कुछ हों हरा लडके अब तहसील में दलाली कारते हैं . कुछ नौजवानों का थाने की दलाली का अच्छा कारोबार चल रहा है .. मेरा गाँव अब मेरे बचपन का गाँव नहीं है .लेकिन यहान दूर देश में बैठे मैं अपने उसी गाँव की याद करता रहता हूँ जो मेरे बचपन की हर याद से जुडा हुआ है .. जिसमें मेरी माँ का रोल सबसे ज्यादा स्थायी है . मेरी माँ जौनपुर शहर से लगे हुए एक गाँव के बहुत ही संपन्न किसान kee बेटी थीं, . मेरे नाना के खेत में तम्बाकू और चमेली की कैश क्रॉप उगाई जाती थी. और इस सदी की शुरुआत में वे मालदार किसान थे. १९३७ में उन्होंने अपनी बेटी की शादी अवध के एक मामूली ज़मींदार परिवार में कर दिया था . मेरे पिता के परिवार में शिक्षा को कायथ कारिन्दा का काम माना जाता था और जब मेरे माता- पिता की शादी के १४ साल बाद ज़मींदारी का उन्मूलन हो गया तब लगा कि सब कुछ लुट गया . सारा अपराध उसी गंधिया का माना जाता था , बाद में वही गंधिया मेरा देवता बना और आज मैं मानता हूँ कि अगर महात्मा गाँधी न पैदा हुए होते तो भारत ही एक न होता . मेरी माँ ने महात्मा गांधी को कभी गाली नहीं दी.लेकिन उसी वक़्त मेरी माँ को एहसास हो गया किशिक्षा होती तो गरीबी का वह खूंखार रूप न देखना पड़ता जो उसने जीवन भर झेला. बहरहाल अब मेरे गाँव में पहले जैसा कुछ नहीं है लेकिन हर होली के दिन मुझे अपने गाँव की याद बहुत आती है . क्या करूँ मैं ? ज़ाहिर है उस अपनेपन को याद करके पछताने के सिवा मेरे पास कोई रास्ता नहीं है .

मन न रंगाए, रंगाए जोगी कपड़ा!

कवि ,लेखक और चिन्तक अरविन्द चतुर्वेद का यह शाहकार मुझे इतना अच्छा लगा कि मन ने कहा , हाय हसन ,हम न हुए. बिना उनको बताये, इसे अपने ब्लॉग पर पोस्ट कर रहा हूँ. देखें क्या होता है .
http://yaarkahani.blogspot.com/2010/02/blog-post_28.html


अरविंद चतुर्वेद


सृष्टि की सर्वोत्तम रचना होकर भी पुरूष रंगों के मामले में प्रकृति से कई हाथ पीछे है। प्रकृति हमसे कहीं ज्यादा रंगीन है। उसके खजाने में रंग ही रंग हैं। आदमी ने रंगों के आचरण का पहला पाठ भी प्रकृति से ही पढ़ा होगा। यानी रंगों की पाठशाला में प्रकृति की भूमिका शिक्षक की है और पुरूष की महज एक छात्र की। भांति-भांति के पशु-पक्षी हमसे ज्यादा रंग-बिरंगे हैं और तितलियां तो खैर उड़ते-थिरकते रंग ही हैं। हालांकि ये सब न फैशन शो लगाते हैं और न कैटवाक करते हैं। इसकी जरूरत हमें पड़ती है, क्योंकि जैसे-जैसे आदमी के भीतर के रंग गायब होते जाते हैं, वैसे-वैसे वह बाहर ही बाहर रंग तलाशने लगता है। मन न रंगायो, रंगायो जोगी कपड़ा! लेकिन यह जरा दार्शनिक किस्म की बात हो गई, इसलिए इसे यहीं छोड़ते हैं।
फिर भी होली का त्यौहार है- रंगों का उत्सव, तो भीतरी रंग के लिए कबीर को याद करना ही पड़ेगा- लाली मेरे लाल की, जित देखूं तित लाल/ लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल। ऐसी सम्पूर्ण रंगीनी क्यों नहीं है हमारे मिजाज में? पहले थी लेकिन आज क्यों नहीं है। एक तरफ तो आदमी के भीतर के रंग सूखते जा रहे हैं और दूसरी ओर वे राजनीति और साम्प्रदायिकता के शिकार होते गए हैं। एक सम्प्रदाय हरे रंग का दीवाना है तो दूसरा केशरिया रंग ले उड़ा है। जिसे दोनों सम्प्रदायों की राजनीति करते हुए अपनी रोटी सेंकनी है, वह दुरंगा हो गया है। एक मोहतरमा तो नीले रंग पर कब्जा जमाकर नीलिमा ही बन बैठी हैं। इस बदरंग परिदृश्य में भीतर के रंग सूखगें नहीं तो क्या होगा?
हाय, कहां हो नीलांजना! होली का त्यौहार है और तुम उदास खोई-खोई-सी बैठी हो? वेलेंटाइल डे जैसे प्रेम दिवस को पानी पी-पीकर कोसने वाले संस्कृति के वीर बांकुड़े होली के हास-उल्लास, रंग-उमंग और रस रंग को बनाए रखने के लिए क्या कर रहे हैं? राग फाग गाते हुए, अबीर गुलाल उड़ाते हाथों में रंग पिचकारी लिए सबको रंगों में सराबोर कर देने के लिए क्या उनकी टोलियां सड़कों पर निकलेंगी? उनके मन में वेलेंटाइन के प्रति केवल घृणा भरी है, विद्वेष और उन्माद ही भरा है या होलिकोत्सव के लिए वह राग-अनुराग भी है, जो सबको प्रेम के रंग में सराबोर कर दे! कहीं उनकी होली की तैयारी क्यों नहीं है, जो ढोल-मंजीरा बजाते हुए फाग गा सकते हैं। अधिक से अधिक यही होगा कि होली पर फिल्मों के गाने बजेंगे-होली आई रे कन्हाई या फिर रंग बरसे, भीजे चुनर वाली..., थोड़ा हुल्लड़ होगा, कुछ लोग रंग में भंग करेंगे और होली की जैसे-तैसे रस्म अदा कर दी जाएगी। सच्चाई तो यह है कि दूसरे लोकोत्सवों और तीज-त्यौहारों की तरह होली पर भी हमारी पकड़ ढीली पड़ती जा रही है।
दरअसल, रंगों का त्यौहार होली हो या दूसरे लोकोत्सव हों, सभी प्रकृति के सहचार में उपजी संस्कृति के ही अंग हैं। चूंकि आज हम प्रकृति विरोधी हो गए हैं इसलिए तीज-त्यौहारों की संस्कृति भी हमसे गाहे बगाहे छूटती जा रही है। गांवों के विनाश की कीमत पर जिस शहरी संस्कृति का हमने विकास किया है, उसमें प्रकृति का तो कोई स्थान है नहीं, लिहाजा हमारे तीज-त्यौहार या तो उसमें अनफिट हो जाते हैं या फिर उनका स्वरूप विकृत हो जाता है। हम जितने बड़े शहर में रहते हैं, तीज-त्यौहारों से हमारी दूरी भी उतनी ही बढ़ जाती है। उसकी आत्मा, उसका मन, जीवन के राग, उमंग, उल्लास सभी उससे विदा ले लेते हैं। आदमी महज एक कामकाजी मशीन बनकर रह जाता है और त्यौहार प्रकृति की छांह से अनाथ होकर आदमी के लिए आनंदोत्सव के बजाय पीड़ादायक अनुभूति बन जाते हैं। लाखों की भीड़ में जहां आदमी इतना अकेला हो गया है कि एक पड़ोसी दूसरे पड़ोसी को पहचानता तक नहीं, जहां लोक ही नहीं बसता, वहां लोकोत्सव कैसे जीवित रह सकते हैं? आज हम यह कल्पना भी नहीं कर सकते कि दिल्ली, मुंबई और कोलकाता जैसे महानगरों की सभ्य सड़कों पर होली मनाने वाले अलमस्तों की टोली ढोलक-मंजीरे की ताल पर रंग-गुलाल उड़ाते, फाग गाते, नाचते-झूमते निकले और सबको रंग-उमंग से सराबोर कर दे! हां, यह जरूर है कि महानगरों की उन बस्तियों में जहां आज भी गांवों का बचा-खुचा हस्तक्षेप है, तीज-त्यौहार के मौके पर एक चहल-पहल हो जाया करती है। दिल्ली-मुंबई और कोलकाता जैसे महानगरों में ये इलाके शहर सीमांत पर या पुरानी बस्तियों के रूप में हैं। वरना शहरीकरण की प्रक्रिया में पनपी अपदूषण की संस्कृति में लोक उत्सव और लोकगीतों की जगह ही कहां है। भौतिकता में ऊभचूभ करती शहरी संस्कृति में हर चीज उत्पादन और खरीद-फरोख्त के दायरे में है, सो इस उत्पादक और बाजार मनोवृत्ति की छाया में तीज-त्यौहारों का रूप भी बदला और विकृत हुआ है। होली में प्राकृतिक रंगों की जगह वार्निश, रासायनिक रंग, पिचकारियों के स्थान पर रंग भरे गुब्बारे फें क कर दूसरे को रंग देना और लोकरंग में सराबोर फाग के रसिया की जगह शोर भरे फिल्मी गानों के कैसेट पर फूहड़ ढंग से कूल्हे लचकाकर उछल-कूद करते युवक - आम शहरी होली की यही तस्वीर है। असल में प्रकृति की सहचारिता को छोड़कर भौतिकता का बीमार आदमी जो इकतरफा खेल खेल रहा है, उसमें लोकजीवन की उष्मा और आत्मा को बचाया ही नहीं जा सकता। महानगरों की बात छोड़ भी दें तो लखनऊ, बनारस, इलाहाबाद, कानपुर, पटना, रांची, जबलपुर जैसे मंझोले दर्जे के शहरों में भी गांवों के लोक जीवन का हस्तक्षेप दिन-प्रतिदिन तेजी से घटता गया है। इन शहरों का स्वभाव भी ग्रामोन्मुखी न होकर महानगरोन्मुखी होता गया है। इसीलिए इन शहरों में भी दस बरस पहले होली के राग-रंग में जो स्वाभाविता और अंतरंगता दिखाई पड़ती थी, उसकी जगह अब फूहड़ कृत्रिमता और प्रदर्शनप्रियता की झलक मिलती है। चूंकि त्यौहार सामाजिकता की अभिव्यक्ति होते हैं और शहर में आदमी का सामाजिक होना आधुनिकता के लिहाज से पिछड़ापन है, इसलिए होली जैसे उन्मुक्तता और उमंग के उत्सव में असामाजिकता का शहरों में भयानक ढंग से प्रवेश हुआ है। शायद होली ही हमारा एक ऐसा पर्व है जिसमें स्त्रियों की भागीदारी सबसे कम होती है। विश्वविद्यालयों और शिक्षा संस्थाओं में होली के चार-पांच दिन पहले से ही लड़कियों का आना बंद हो जाता है। यह त्यौहार उनके लिए आक्रामक होता है। होली के अवसर पर स्त्रियों के अंगों का बखान करने वाले जिस तरह के द्विअर्थी गीत-संगीत के कैसेट नंगी भाषा में सार्वजनिक तौर पर पेश किए जाते हैं, वे इस हद तक स्त्री विरोधी होते हैं कि उन्हें सुनने और झेलने का साहस कोई स्त्री जुटा ही नहीं सकती। क्या हम होलिकात्सव में आई विकृतियों को दूसरे प्रदूषणों की तरह ही दूर करने की चिंता के साथ एक स्वस्थ सुंदर जीवन-पर्यावरण रचने का सांस्कृतिक पराक्रम नहीं दिखा सकते? तनी हुई रस्सी पर नट-खेल की अभ्यासी हमारी कसी हुई दिनचर्या के तनाव को ढीला कर हमें उन्मुक्त और अनौपचारिक बनाकर राग-अनुराग और उमंग-उल्लास से भर देने वाला रंगोत्सव दस्तक दे रहा है। आइए, सारी कुंठाएं मिटाकर हम इसका स्वागत करें और अपने को इसके योग्य बनाएं।