Friday, May 7, 2010

लोहिया और आम्बेडकर ने जातिप्रथा को शोषण का हथियार माना था

शेष नारायण सिंह


संसद में जनगणना २०११ बहस का मुद्दा बन गयी है . कुछ राजनीतिक पार्टियों के कुछ नेता जाति पर आधारित जनगणना की वकालत कर रहे हैं . अजीब बात यह है कि जाति के आधार पर जनगणना करने वाले जिस राजनीतिक दार्शनिक की बातों को कार्यरूप देने की बात करते हैं , उसने जाति प्रथा के विनाश की बात की थी.. लोक सभा में जाति आधारित जनगणना के सबसे प्रबल समर्थक , मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद और शरद यादव हैं . यह तीनों ही नेता डॉ राम मनोहर लोहिया के समाजवाद के नाम पर राजनीति करते हैं और उनकी विरासत के वारिस बनने का दम भरते हैं . लेकिन सच्चाई यह है कि यह लोग डॉ लोहिया की राजनीतिक सोच के सबसे बड़े विरोधी हैं .लोहिया की सोच का बुनियादी आधार था कि समाज से गैर बराबरी ख़त्म हो . इसके लिए उन्होंने सकारात्मक हस्तक्षेप की बात की थी . उनका कहना था कि जाति की संस्था का आधुनिक, सामाजिक और राजनीतिक विकास में कोई योगदान नहीं है , वास्तव में पिछले हज़ारों वर्षों का इतिहास बताता है कि ब्राह्मणों और शासक वर्गों ने जाति की संस्था का इस्तेमाल करके ही पिछड़े वर्गों और महिलाओं का शोषण किया था . इसलिए लोहिया ने जाति के विनाश को अपनी राजनीतिक और सामाजिक सोच की बुनियाद में रखा था . वे दलित, किसान और मुसलमान जातियों को पिछड़ा मानते थे . उन्होंने यह भी बहुत जोर दे कर कहा था कि महिला किसी भी जाति की हो, वह भी पिछड़े वर्गों की श्रेणी में ही आयेगी क्योंकि समाज के सभी वर्गों में महिलाओं को अपमानित किया जाता था और उन्हें दोयम दर्जे का इंसान समझा जाता था . इस लिए उन्होंने इन लोगों के प्रति सकारात्मक दखल की बात की थी लेकिन वे इन वर्गों को अनंत काल तक पिछड़ा नहीं न्रखना चाहते थे . उनकी कोशिश थी कि यह वर्ग समाज के शोषक वर्गों के बराबर हो जाएँ. अपने इसी सोच को अमली जामा पहनाने के लिए उन्होंने कांग्रेस से अलग हो कर सोशलिस्ट पार्टी के गठन की प्रक्रिया में शामिल होने का फैसला किया था. . वे जाति के आधार पर शोषण का हर स्तर पर विरोध करते थे . लेकिन उनके नाम पर सियासत करने वालों का हाल देखिये . उनकी विरासत का दावा करने वाली सभी पार्टियां जाति व्यवस्था को जारी रखने में ही अपनी भलाई देख रही हैं क्योंकि जाति के गणित के आधार पर ही आजकल चुनाव लड़े और जीते जा रहे हैं . इन पार्टियों के सभी नेताओं ने महिलाओं के आरक्षण के बिल का भी विरोध किया है . उनका बहाना यह है कि जब तक पिछड़ी जाति की महिलाओं को अलग से आरक्षण नहीं दे दिया जाता , वे महिला आरक्षण बिल को पास नहीं होने देंगें .. इस मामले में यह सभी लोग डॉ लोहिया के खिलाफ खड़े पाए जा रहे हैं क्योंकि लोहिया ने तो साफ़ कहा था कि सभी जातियों की महिलायें पिछड़ी हुई हैं और उन्हें आरक्षण का लाभ मिलना चाहिए .

जाति को जिंदा रखने की कोशिश करने वाली एक दूसरी पार्टी है बहुजन समाज पार्टी . इस पार्टी की स्थापना घोषित रूप से डॉ. भीम राव आम्बेडकर की राजनीतिक सोच को लागू करने के लिए की गयी है . डॉ आम्बेडकर की राजनीति का स्थायी भाव जाति प्रथा का विनाश था. उनकी कालजयी किताब "; जाति का विनाश " भारतीय राजनीति का एक बहुत ही ज़रूरी दस्तावेज़ है . जिसमें उन्होंने समाज में गैरबराबरी के लिए जाति की संस्था को ही ज़िम्मेदार ठहराया है. जाति की स्थापना से लेकर बीसवीं सदी तक जाति व्यवस्था ने जो नुकसान किया है , उस सबका पूरा लेखा जोखा, डॉ आम्बेडकर की किताबों में मिल जाता है . उन्होंने जाति के विनाश के लिए बिलकुल वैज्ञानिक तरीके सुझाए थे और उनका कहना था कि जब तक जाति की संस्था को जड़ से उखाड़ नहीं फेंका जाएगा तब तक देश का राजनीतिक विकास नहें हो सकता . उनके नाम पर सियासत करने वाली बहुजन समाज पार्टी से उम्मीद की जा रही था कि वह अपने आदर्श राजनेता और दार्शनिक ,डॉ आम्बेडकर की बातों को लागूकरेगी . लेकिन ऐसा नहीं हुआ. बहुजन समाज पार्टी की नेता , मायावती ने जिस तरह की योजनायें बनायी हैं उस से जाति व्यवस्था कभी ख़त्म ही नहीं होगी. उन्होंने न केवल दलितों को अलग थलग रखने की कोशिश शुरू कर दी है बल्कि अन्य जातियों को भी बनाए रखना चाहती हैं .उन्होंने अलग अलग जातियों के संगठन बना रखे हैं और सबको जातीय आधार पर संबोधित करके राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश कर रही हैं .. ज़ाहिर है कि उनकी रूचि भी जातियों को बनाए रखने में ही है .

जाति के आधार पर जनगणना करवाने वालों को समय की गति को उल्टा करने का हक नहीं है . समाज के अपने गतिविज्ञान की वजह से ही जाति के विनाश की प्रक्रिया की शुरुआत हो चुकी है . पिछले ५० वर्षों में ऐसे बहुत सारे लोगों ने आपस में विवाह कर लिया है जो अलग अलग जातियों के हैं और समाज में इज्ज़त के ज़िंदगी जी रहे हैं . उनके बच्चों को किस जाति में रखा जायेगा. आम तौर पर मर्दवादी सोच के लोग कह देते हैं कि अपने बाप की जाति को ही बच्चों को स्वीकार कर लेना चाहिए लेकिन इसे स्वीकार करने में बहुत बड़ी दिक्क़त है . जिन बच्चों के माँ बाप ने अलग जाति में शादी करने का फैसला किया था उन्होंने जाति प्रथा के शिकंजे को चुनौती दी थी . अब उन बहादुर नौजवानों की अगली पीढी को जाति के ज़ंजीर में कस देने की कोशिश का हर तरह से विरोध किया जाना चाहिए . इसलिए समय की गति की धार में चलते हुए जाति वादी सोच की मौत बहुत करीब है और जाति को आधार बना कर राजनीति करने वालों को अब किसी और सोच को विकसित करने की कोशिश करनी चाहिए . जाति के आधार पर सियासत की रोटी सेंकने वालों को अब भूखों मरने के लिए तैयार रहना चाहिए . क्योंकि जातिप्रथा को अब कोई भी जिंदा नहीं रख सकेगा . उसका अंत बहुत करीब है .