शेष नारायण सिंह
अब तक बजट पर जितनी प्रतिक्रियाएं आई हैं उनमें मायावती की टिप्पणी सबसे सही है . उन्होंने साफ़ साफ़ कह दिया कि "बजट में विदेशी पूंजीपतियों को खुले बाजार में अनाप-शनाप मुनाफा कमाने का मौका दिया गया है। यह बजट पूंजीपति समर्थक तथा धन्नासेठों को माला-माल करने वाला है." एक अन्य प्रतिक्रिया में मायावती ने कहा है "कि बजट में सोशल सेक्टर, ग्रामीण और शहरी क्षेत्र के निर्धन लोगों के उत्थान के लिए कुछ नहीं किया गया है ,बल्कि आंकड़ों की बाजीगरी से देश के लोगों को गुमराह करने की कोशिश की गयी है."
हो सकता है कि यह टिप्पणी अर्थशास्त्र के सिद्धांतों की लफ्फाजी के हिसाब से बहुत उपयुक्त न हो , अर्थशास्त्र की सांचाबद्ध सोच से हट कर हो लेकिन यह पक्का है कि देश के अवाम की भाषा यही है . यह भी हो सकता है कि यह दिल्ली और मुंबई के काकटेल सर्किट वालों की समझ में भी न आये और दिल्ली में अड्डा जमाये पूंजीपतियों के संगठनों के नौकर अर्थशास्त्री इस तर्क को टालने की कोशिश करें लेकिन आम आदमी का सच यही है यह सच है कि जब से कांग्रेस ने विकास का समाजवादी रास्ता छोड़ने की राजनीति पर काम करना शुरू किया उसी वक़्त से वह शोषित-पीड़ित वर्ग जो महात्मा गाँधी, सरदार पटेल और जवाहरलाल नेहरू की कांग्रेस में अपना भविष्य देख रहा था ,उसने उस से कन्नी काटना शुरू कर दिया . राजनीतिक प्रक्रिया का यह विकास उत्तर प्रदेश में सबसे प्रमुखता से देखा जा रहा था.. इस क्षेत्र में दलितों के पक्षधरता की राजनीति के आधुनिक युग के विद्वान्, कांशीराम भी अपना प्रयोग कर रहे थे . उन्होंने कांग्रेस के पूंजीपति परस्त झुकाव को भांप लिया था और तय कर लिया था कि देश के गरीब आदमी को कांग्रेसी स्टाइल के विकास से बचा लेंगें जिसमें शोषित पीड़ित जनता को पूंजीवादी साम्राज्यवाद के विकास का साधन बनाना था. आम आदमी कहीं सस्ते मजदूर के रूप में तो कहीं पूंजीपतियों के कारखानों में बनाए गए फालतू सामान के खरीदार के रूप में इस्तेमाल हो रहा था. .कांशीराम को तो यह भी मालूम था कि पूंजीपति वर्ग के क़ब्ज़े वाला प्रेस भी उनकी बात को नहीं छापेगा ,शायद इसी लिए उन्होंने बहुत ही सस्ते कागज़ पर छपे हुए पम्फलेटों के ज़रिये अपनी बात दलितों और शोषितों तह पंहुचायी थी.. संवाद कायम करने की दिशा में उनका यह प्रयोग लगभग क्रांतिकारी था..उन्होंने गावों में अनुसूचित जातियों के कुछ शिक्षित नौजवानों की पहचान कर ली थी . संगठन का काम देखने वाले डी एस फोर( बहुजन समाज पार्टी का पूर्व अवतार) के लोग इन नौजवानों से संपर्क में रहते थे. कांशीराम के पम्फलेट दिल्ली में करोलबाग़ और शाहदरा के कुछ प्रेसों में छापे जाते थे और लगभग पूरे उत्तर प्रदेश के इन कार्यकर्ताओं तक पंहुच जाते थे . . उन्होंने अखबारों का इस्तेमाल अपनी बात पंहुचाने के लिए कभी नहीं किया. डाइरेक्ट संवाद की इस विधा का कांशीराम ने बहुत ही बेहतरीन तरीके से इस्तेमाल किया . उनका कहना था कि प्रेस और मीडिया पर मनुवादियों का क़ब्ज़ा है . वे अगर दलितों की कोई बात छापेंगें तो उसे तोड़-मरोड़ कर अपनी बात साबित करने के लिए ही छापेंगें . इस लिए कई बार वे अपनी मीटिंग से तथाकथित मुख्य धारा के पत्रकारों को भगा भी देते थे ... इस तरीके का इस्तेमाल करके उन्होंने बड़ी से बड़ी सभाएं कीं. अखबारों में कहीं ज़िक्र तक नहीं होता था और रैली के दिन अपनी अपनी साइकिलों से या पैदल बहुत बड़ी संख्या में दलित जनता इकट्ठा हो जाती थी. . एक बार सितम्बर १९९४ में मुझे उन्होंने,लखनऊ से दिल्ली के जहाज़ में मुझे पकड़ लिया . उस हफ्ते राष्ट्रीय सहारा अखबार के सम्पादकीय पृष्ठ पर मेरा एक लेख छपा था जिसका शीर्षक था कि "जब जाति टूटेगी,तभी समता होगी". परिचय होने पर उन्होंने कहा कि समता के लिए जाति का टूटना ज़रूरी नहीं है . उत्तर प्रदेश में उन्होंने मुलायम सिंह यादव की सरकार बनवा दी थी . उन्होंने कहा कि जाति के टूटने के पहले ही समता आ जायेगी. सत्ता पर शोषित पीड़ित जनता के कब्जे का फायदा सामाजिक बराबरी कायम करने में होगा मैंने जब कहा कि वह लेख डॉ. अंबेडकर के विचारों के हवाले से लिखा गया है तो उन्होंने साफ़ कहा था कि आप अपनी सोच बदलिए . नयी राजनीतिक सच्चाई यह है कि जाति भी रहेगी और समता भी रहेगी. आज करीब १५ साल बाद उनकी बाद सही होती नज़र आ रही है.हालांकि उस वक़्त मैं उनकी बात से सहमत नहीं हुआ था .लेकिन उनकी सोच की जो मौलिकता थी, वह हमेशा याद आ जाती है समता मूलक समाज की शुरुआत की उनकी बात १५ साल बाद सही साबित होने की डगर पर है..आज जब मायावती का बजट संबंधी बयान अखबारों में देखा तो एक बार लगा कि बहुत ही सीधे और सपाट तरीके से , साधारण भाषा में आम आदमी की तकलीफों का उन्होंने ज़िक्र कर दिया है .कांशी राम के आन्दोलन में अभिजात्य वर्ग की राजनीतिक समझ से लोहा लेना था , सो उन्होंने अपना तरीका अपनाया . आज ज़रुरत इस बात की है कि उसी आभिजात्य और सामंती सोच वाले वर्ग की आर्थिक समझ के खिलाफ शोषित पीड़ित जनता की आवाज़ को उठाया जाए . और मायावती उस काम को बखूबी निभा रही हैं .बजट का विरोध, बी जे पी के नेतृत्व में कुछ अन्य पार्टियों ने भी लिया लेकिन उस विरोध को उनकी अपने हित की लड़ाई कहना ही ठीक होगा क्योंकि उन सभी पार्टियों के लोग कभी नं कभी केंद्र सरकार में मंत्री रह चुके हैं और लगभग सभी पर पूंजीवादी साम्राज्यवादी सत्ता के हित चिन्तक होने के आरोप लग चुके हैं. हो सकता है कि यह आरोप गलत होने लेकिन इस पार्टियों के बड़े नेताओं के बड़े पूंजीपतियों से मधुर सम्बन्ध की सच्चाई को इनकार नहीं किया जा सकता .
पिछले १८ वर्षों से देश में आर्थिक उदारीकरण और भूमंडलीकरण के नाम पर देश की कमाई का एक बड़ा हिस्सा विदेशी कंपनियों के हवाले किया जा रहा है . दुर्भाग्य यह है कि देश में वामपंथी पार्टियों के अलावा कोई इसका विरोध नहीं कर रहा है ..वामपंथी नेता भी अपनी सांचाबद्ध सोच के बाहर जाने को तैयार नहीं हैं. ऐसी हालत में मायावती का दो टूक बयान स्वागत करने की चीज़ है और इसका स्वागत किया जाना चाहिए.. और हो सकता है कि देश के दलितों और गरीब आदमियों की बात को उनकी भाषा में समझने के लिए दिल्ली की रायसीना पहाड़ियों पर रहने वाले शासक वर्गों को भी मजबूर किये जा सकें
Saturday, February 27, 2010
Subscribe to:
Posts (Atom)