Tuesday, May 11, 2010

सूचना क्रान्ति के इन माध्यमों को प्रणाम

शेष नारायण सिंह

जब मेरी बेटी अमरीका जा रही थी पढ़ाई करने तो मेरा कलेजा मुंह को आ रहा था कि पता नहीं कब अब दुबारा भेंट होगी . लेकिन सूचना क्रान्ति ने सब कुछ बदल दिया .. एक दिन दुखी मन से बैठा दफ्तर में अपनी बेटी को याद कर रहा था कि अजय भैया( वरिष्ठ पत्रकार श्री अजय उपाध्याय ) ने बताया कि स्काईप पर जाइए और बेटी को देखिये भी ,बात भी करिए . विश्वास ही नहीं हुआ. लेकिन जब स्काईप पर अपनी बेटी का पूरा घर देखा तो बहुत खुशी हुई. फिर फेसबुक का पता चला. और जब फेसबुक पर मेरी बेटी ने मुझे दोस्त बनने की दावत दी तो मुझे बहुत खुशी हुई., उसकी क्लास में पढने वाली एक और लड़की ने मुझसे दोस्ती की, मज़ा आ गया. फिर मेरी बड़ी बेटी की दोस्ती हुई मुझसे. उसके बाद मेरे पुत्र का प्रस्ताव आया . और जब उनकी शादी पिछले साल एक दोस्त की बेटी से हो गयी तो उसने भी दोस्ती कर ली. मेरे दोस्त सुहेल की बेटी भी मेरी मित्र है . फेसबुक पर मेरी दोस्ती ज़्यादातर उन लोगों से हैं जो या तो मेरे बच्चे हैं या मेरे दोस्तों के बच्चे .बीच बीच में मेरा नाम पढ़ कर कुछ पुराने दोस्तों ने दोस्ती की. . लेकिन आज जब किन्ही मोहतरमा का फ्रांस से दोस्ती का प्रस्ताव आया तो मैंने सोचा पता नहीं कौन है . चलो स्वीकार कर लेते हैं , बाद में डिलीट कर देंगें . लेकिन जब स्वीकार कर लिया तो लगा कि मैं खुशियों के नंदन कानन में पंहुच गया हूँ . वह मोहतरमा तो बीना है , शादी के बाद नाम बदल लिया है . बीना मेरे आदरणीय ,शुभ चिन्तक और विद्वान् मित्र की बेटी है . बीना दिव्याल से मिलकर मुझे बहुत खुशी हुई है जैसी मेरी बेटी शबाना सिंह के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रवेश पर हुई थी. मैंने बीना को आज से करीब १७ साल पहले देखा था. उसके प्रोफाइल में जाकर तस्वीर देखी. बिटिया बड़ी हो गयी है . और अपनी है .

सूचना क्रान्ति के इन माध्यमों ने हम जैसे लोगों की ज़िंदगी कितनी आसान कर दी है . अभी १० साल पहले अपनी माँ से बात करने के लिए मैं उन्हें गाव के फोन बूथ पर बुलाता था , पहले से ही तय रहता था कि फलां दिन, फलां तारीख को फलां बूथ पर आ जाना .मैं दिल्ली से फोन करूंगा. उनकी पोतियों के लिए अब वह समस्या नहीं है . यह छोटा सा नोट इसलिए लिख रहा हूँ कि मैं एक नास्तिक होते हुए भी सूचना क्रान्ति के इन आलों को उसी तरह से प्रणाम करता हूँ जैसी मेरी माँ काली माई वाले नीम के पेड़ को किया करती थीं . इन आलों की वजह से ही आज मैं अपनी बात कह पा रहा हूँ .

यह महारथी हार मानने वाले नहीं हैं

शेष नारायण सिंह

वेब मीडिया ने वर्तमान समाज में क्रान्ति की दस्तक दे दी है .और उसका नेतृत्व कर रहे हैं आधुनिक युग के कुछ अभिमन्यु .मीडिया के महाभारत में वेब पत्रकारिता के यह अभिमन्यु शहीद नहीं होंगें .हालांकि मूल महाभारत युद्ध में शासक वर्गों ने अभिमन्यु को घेर कर मारा था लेकिन मौजूदा समय में सूचना की क्रान्ति के युग का महाभारत चल रहा है .. जनपक्षधरता के इस यज्ञ में आज के यह वेब पत्रकार अभिमन्यु अपने काम के माहिर हैं और यह शासक वर्गों की १८ अक्षौहिणी सेनाओं का मुकाबला पूरे होशो हवास में कर रहे हैं . कल्पना कीजिये कि अगर भड़ास जैसे कुछ पोर्टल न होते तो निरुपमा पाठक के प्रेमी को परंपरागत मीडिया कातिल साबित कर देता और राडिया के दलाली कथा के सभी खलनायक मस्ती में रहते और सरकारी समारोहों में मुख्य अतिथि बनते रहते और पद्मश्री आदि से सम्मानित होते रहते..लेकिन इन बहादुर वेब पत्रकारों ने टी वी, प्रिंट और रेडियो की पत्रकारिता के संस्थानों को मजबूर कर दिया कि वे सच्चाई को जनता के सामने लाने के इनके प्रयास में इनके पीछे चलें और लीपापोती की पत्रकारिता से बचने की कोशिश करें .. महाभारत के काल का अभिमन्यु तो गर्भ में था और सत्ता के चक्रव्यूह को भेदने की कला सीख गया था लेकिन हमारे वाले अभिमन्यु वैसे सादा दिल नहीं है . आज का हर अभिमन्यु, शासक वर्गों के खेल को अच्छी तरह समझता है क्योंकि इसने उनके ही चैनलों या अखबारों में घुस कर उनके तमाशे को देखा भी है और सीखा भी है . शायद यही कारण है कि पत्रकारिता की किताबों में लिखी गयी आम आदमी की पक्ष धरता की पत्रकारिता अपने वातविक रूप में जनता के सामने है .

वास्तव में हम जिस दौर में रह रहे हैं वह पत्रकारिता के जनवादीकरण का युग है . इस जनवादीकरण को मूर्त रूप देने में सबसे बड़ा योगदान तो सूचना क्रान्ति का है क्योंकि अगर सूचना की क्रान्ति न हुई होती तो चाह कर भी कम खर्च में सच्चाई को आम आदमी तक न पंहुचाया जा सकता. और जो दूसरी बात हुई है वह यह कि अखबारों और टी वी चैनलों में मौजूद सेठ के कंट्रोल से आज़ाद हो कर काम करने वाले इन नौजवानों की राजनीतिक और सामाजिक समझदारी बिकुल खरी है . इन्हें किसी कर डर नहीं है , यह सच को डंके की चोट पर सच कहने की तमीज रखते हैं और इनमें हिम्मत भी है ..कहने का मतलब यह नहीं है कि अखबारों में और टी वी चैनलों में ऐसे लोग नहीं है जो सच्चाई को समझते नहीं हैं लेकिन उनमें बहुत सारे ऐसे हैं जो मोटी तनखाह के लालच में उसी गाव में रहने को मजबूर हैं . ज़ाहिर है इस मजबूरी की कीमत वे बेचारे हाँजी हाँजी कह कर दे रहे हैं . हमें उसने सहानुभूति है . हम उनके खिलाफ कुछ नहीं कहना चाहते हम जानते हैं कि हर इंसान की अपनी अलग अलग मजबूरियाँ होती हैं . लेकिन हम उन्हें सलाम भी नहीं करेंगें क्योंकि हमारे सलाम के हक़दार वेब के वे बहादुर पत्रकार हैं जो सच हर कीमत पर कह रहे हैं .इस देश में बूढों का एक वर्ग भी है जो अपनी पूरी जवानी में लतियाए गए हैं लेकिन उन्होंने उस लतियाए जाने को कभी अपनी नियति नहीं माना . वे खुद तो कुछ नहीं कर सके लेकिन जब किसी ने सच्चाई कहने की हिम्मत दिखाई तो उसके सामने सिर ज़रूर झुकाया . इन पंक्तियों का लेखक उसी श्रेणी का मजबूर इंसान है .
हालांकि उम्मीद नहीं थी कि अपने जीवन में सच को इस बुलंदी के साथ कह सकने वालों के दर्शन हो पायेगा जो कबीर साहेब की तरह अपनी बात को कहते हैं और किसी की परवाह नहीं करते लेकिन खुशी है कि इन लोगों को देखा जा रहा है .. आज सूचना किसी साहूकार की मुहताज नहीं है . मीडिया के यह जनपक्षधर उसे आज वेब पत्रकारिता के ज़रिये सार्वजनिक डोमेन में डाल दे रहे हैं और बात दूर तलक जा रही है . राडिया ने जिस तरह का जाल फैला रखा है वह हमारे राजनीतिक सामाजिक जीवन में घुन की तरह घुस चुका है . और अभी तो यह एक मामला है . ऐसे पता नहीं कितने मामले हैं जो दिल्ली के गलियारों में घूम रहे होंगें . जिस तरह से राडिया ने पूरी राजनीतिक बिरादरी को अपने लपेट में ले लिया वह कोई मामूली बात नहीं है . इस से बहुत ही कमज़ोर एक घोटाला हुआ था जिसे जैन हवाला काण्ड के नाम से जाना जाता है . उसमें सभी पार्टियों के नेता बे-ईमानी करते पकडे गए थे लेकिन कम्युनिस्ट उसमें नहीं थे . इस बार कम्युनिस्ट भी नहीं बचे हैं . . यानी जनता के हक को छीनने की जो पूंजीवादी कोशिशें चल रही हैं उसमें पूंजीवादी राजनीतिक दल तो शामिल हैं ही, कम्युनिस्ट भी रंगे हाथों पकडे गए हैं . सवाल यह उठता है कि आगे क्या होगा. जिस तरह से जैन हवाला काण्ड दफन हो गया था क्या उसी तरह सब कुछ इस बार भी दफ़न कर दिया जाएगा. अगर वेब पत्रकारिता का युग न होता और मीडिया का जनवादीकरण न हो रहा होता तो ऐसा संभव हो सकता था. .. आज दुनिया राडिया के खेल की एक एक चाल को इस लिए जानती है कि वेब ने हर वह चीज़ सार्वजनिक डोमेन में डाल दिया है जो खबर की परिभाषा में आता है . और अजीब बात यह है कि मामूली सी बात पर लड़ाई पर आमादा हो जाने वाली, बरखा दत्त और वीर सांघवी जैसे लोग सन्न पड़े हैं . इंदौर से निकल कर पत्रकारिता के मानदंड स्थापित करने वाले अखबार के मालिक दलाली की फाँस में ऐसे पड़े हैं कि कहीं कुछ सूझ नहीं रहा है . इसलिए सभ्य समाज को चाहिए कि वर्तमान मीडिया के सबसे क्रांतिकारी स्वरुप, वेब को ही सही सूचना का वाहक मानें और दलाली को प्रश्रय देने वाले समाचार चैनलों को उनके औकात बताने के सामाजिक और राष्ट्रीय दायित्व का निर्वाह करें ..