Thursday, December 6, 2012

अम्बेडकर जाति संस्था को खत्म करना चाहते थे,मायावती उसे जिंदा रखना चाहती हैं .



 शेष नारायण सिंह

डा.अंबेडकर के  निर्वाण दिवस के मौके पर उनको याद किया जाएगा. इस अवसर पर ज़रूरी है कि उनकी सोच और दर्शन के सबसे अहम पहलू पर गौर किया जाए. सब को मालूम है कि डा. अंबेडकर के दर्शन ने २० वीं सदी के भारत के राजनीतिक आचरण को बहुत ज्यादा प्रभावित किया था . लेकिन उनके दर्शन की सबसे ख़ास बात पर जानकारी की भारी कमी है. यह बात कई बार कही जा चुकी है कि उनके नाम पर राजनीति करने वालों को इतना तो मालूम है कि बाबा साहेब जाति व्यवस्था के खिलाफ थे लेकिन बाकी चीजों पर ज़्यादातर लोग अन्धकार में हैं. उन्हीं कुछ बातों का ज़िक्र करना आज के दिन सही रहेगा. डा. अंबेडकर को इतिहास एक ऐसे राजनीतिक चिन्तक के रूप में याद रखेगा जिन्होंने जाति के विनाश को सामाजिक ,आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तन की बुनियाद माना था. यह बात किसी से छुपी नहीं है कि उनकी राजनीतिक विरासत का सबसे ज्यादा फायदा उठाने वाली पार्टी की नेता, आज जाति की संस्था को संभाल कर रखना चाहती हैं ,उसके विनाश में उनकी कोई रूचि नहीं है . वोट बैंक राजनीति के चक्कर में पड़ गयी अंबेडकरवादी पार्टियों को अब वास्तव में इस बात की चिंता सताने लगी है कि अगर जाति का विनाश हो जाएगा तो उनकी वोट बैंक की राजनीति का क्या होगा. डा अंबेडकर की राजनीतिक सोच को लेकर कुछ और भ्रांतियां भी हैं . कांशीराम और मायावती ने इस क़दर प्रचार कर रखा है कि जाति की पूरी व्यवस्था का ज़हर मनु ने ही फैलाया था, वही इसके संस्थापक थे और मनु की सोच को ख़त्म कर देने मात्र से सब ठीक हो जाएगा. लेकिन बाबा साहेब ऐसा नहीं मानते थे . उनके एक बहुचर्चित, और अकादमिक भाषण के हवाले से कहा जा सकता है कि जाति व्यवस्था की सारी बुराइयों को लिए मनु को ही ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता .मनु के बारे में उन्होंने कहा कि अगर कभी मनु रहे भी होंगें तो बहुत ही हिम्मती रहे होंगें . डा. अंबेडकर का कहना है कि ऐसा कभी नहीं होता कि जाति जैसा शिकंजा कोई एक व्यक्ति बना दे और बाकी पूरा समाज उसको स्वीकार कर ले. उनके अनुसार इस बात की कल्पना करना भी बेमतलब है कि कोई एक आदमी कानून बना देगा और पीढियां दर पीढियां उसको मानती रहेंगीं. . हाँ इस बात की कल्पना की जा सकती है कि मनु नाम के कोई तानाशाह रहे होंगें जिनकी ताक़त के नीचे पूरी आबादी दबी रही होगी और वे जो कह देंगे ,उसे सब मान लेंगें और उन लोगों की आने वाली नस्लें भी उसे मानती रहेंगी.उन्होंने कहा कि , मैं इस बात को जोर दे कर कहना चाहता हूँ कि मनु ने जाति की व्यवस्था की स्थापना नहीं की क्योंकि यह उनके बस की बात नहीं था. . मनु के जन्म के पहले भी जाति की व्यवस्था कायम थी. . मनु का योगदान बस इतना है कि उन्होंने इसे एक दार्शनिक आधार दिया. . जहां तक हिन्दू समाज के स्वरुप और उसमें जाति के मह्त्व की बात है, वह मनु की हैसियत के बाहर था और उन्होंने वर्तमान हिन्दू समाज की दिशा तय करने में कोई भूमिका नहीं निभाई. उनका योगदान बस इतना ही है उन्होंने जाति को एक धर्म के रूप में स्थापित करने की कोशिश की . जाति का दायरा इतना बड़ा है कि उसे एक आदमी, चाहे वह जितना ही बड़ा ज्ञाता या शातिर हो, संभाल ही नहीं सकता. . इसी तरह से यह कहना भी ठीक नहीं होगा कि ब्राह्मणों ने जाति की संस्था की स्थापना की. मेरा मानना है कि ब्राह्मणों ने बहुत सारे गलत काम किये हैं लेकिन उनकी औक़ात यह कभी नहीं थी कि वे पूरे समाज पर जाति व्यवस्था को थोप सकते. . हिन्दू समाज में यह धारणा आम है कि के जाति की संस्था का आविष्कार शास्त्रों ने किया और शास्त्र तो कभी गलत हो नहीं सकते. बाबा साहेब ने अपने इसी भाषण में एक चेतावनी और दी थी कि उपदेश देने से जाति की स्थापना नहीं हुई थी और इसको ख़त्म भी उपदेश के ज़रिये नहीं किया जा सकता.. यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना ज़रूरी है अपने इन विचारों के बावजूद भी , डा अंबेडकर ने समाज सुधारकों के खिलाफ कोई बात नहीं कही. ज्योतिबा फुले का वे हमेशा सम्मान करते रहे. . हाँ उन्हें यह पूरा विश्वास था कि जाति प्रथा को किसी महापुरुष से जोड़ कर उसकी तार्किक परिणति तक नहीं ले जाया जा सकता.

डा अंबेडकर के अनुसार हर समाज का वर्गीकरण और उप वर्गीकरण होता है लेकिन परेशानी की बात यह है कि इस वर्गीकरण के चलते वह ऐसे सांचों में फिट हो जाता है कि एक दूसरे वर्ग के लोग इसमें न अन्दर जा सकते हैं और न बाहर आ सकते हैं . यही जाति का शिकंजा है और इसे ख़त्म किये बिना कोई तरक्की नहीं हो सकती. सच्ची बात यह है कि शुरू में अन्य समाजों की तरह हिन्दू समाज भी चार वर्गों में बंटा हुआ था . ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र . यह वर्गीकरण मूल रूप से जन्म के आधार पर नहीं था, यह कर्म के आधार पर था .एक वर्ग से दूसरे वर्ग में आवाजाही थी लेकिन हज़ारों वर्षों की निहित स्वार्थों कोशिश के बाद इसे जन्म के आधार पर कर दिया गया और एक दूसरे वर्ग में आने जाने की रीति ख़त्म हो गयी. और यही जाति की संस्था के रूप में बाद के युगों में पहचाना जाने लगा. . अगर आर्थिक विकास की गति को तेज़ किया जाय और उसमें सार्थक हस्तक्षेप करके कामकाज के बेहतर अवसर उपलब्ध कराये जाएँ तो जाति व्यवस्था को जिंदा रख पाना बहुत ही मुश्किल होगा. और जाति के सिद्धांत पर आधारित व्यवस्था का बच पाना बहुत ही मुश्किल होगा.. अगर ऐसा हुआ तो जाति के विनाश के ज्योतिब फुले, डा. राम मनोहर लोहिया और डा. अम्बेडकर की राजनीतिक और सामाजिक सोच और दर्शन का मकसद हासिल किया जा सकेगा.

तालाबों के मरम्मत की केन्द्र सरकार की योजना को नज़रअंदाज़ कर रहे हैं अफसर




शेष नारायण सिंह 

नयी दिल्ली, ३० नवम्बर। पंद्रहवीं लोकसभा की जल  संसाधन मंत्रालय से संबद्ध स्थाई समिति की सोलहवीं रिपोर्ट संसद के दोनों सदनों में २७ नवंबर को पेश कर दी गयी.रिपोर्ट को देखने से साफ़ पता चलता  है कि जल संकट की तरफ बढ़ रहे देश में इतनी महत्वपूर्ण योजना नौकरशाही की मनमानी का शिकार हो रही है . देश भर में फैले तालाबों की मरम्मत, नवीनीकरण और  जीर्णोद्धार के लिए केन्द्र सरकार की एक बहुत   ही महत्वपूर्ण योजना को सरकारी अफसरों के गैर ज़िम्मेदार रवैय्ये के कारण सफल नहीं हो रही है .अपनी कालजयी किताब ," आज भी खरे हैं तालाब " में अनुपम मिश्र ने लिखा है कि 'पानी का प्रबंध उसकी चिंता हमारे समाज के कर्तव्य बोद्ध के विशाल सागर की एक  बूँद थी. सागर और बूँद एक दूसरे से जुड़े थे .' लेकिन आज हमें यह देखने को मिल  रहा  है कि सरकार के स्तर पर तो कोशिश  हो रही है लेकिन अफसर उसे गडबड कर रहे हैं .

देश भर में फैले तालाबों , बावलियों और पोखरों की 2000-2001 में गिनती की गयी थी। सरकारी आंकड़ों के हिसाब से देश में इस तरह के जलाशयों की संख्या  साढ़े पांच लाख से ज्यादा है . इसमें से करीब 4 लाख 70 हज़ार जलाशय किसी न किसी रूप में इस्तेमाल हो रहे हैं .जबकि करीब 15 प्रतिशत बेकार पड़े हैं . दसवीं पञ्च वर्षीय योजना के दौरान 2005  में केंद्र सरकार ने एक स्कीम शुरू करने की योजना बनायी  जिसके तहत इन जलाशयों  की मरम्मत , नवीकरण और जीर्णोद्धार ( आर आर आर ) का काम शुरू किया जान था . ग्यारहवीं योजना में काम शुरू भी हो गया .इसके अधीन केंद्र सरकार ने राज्य सरकारों के  ज़रिये इस योजना को लागू करने की योजना बनायी . कुछ धन केंद्र सरकार की तरफ  से जाना था जबकि विश्व बैंक जैसी संस्थाओं से भी कुछ धन आना था। इस योजना का लक्ष्य इन जलाशयों की क्षमता बढ़ाना और सामुदायिक  स्तर  पर  बुनियादी ढाँचे का विकास करना था . गाँव  ,ब्लाक, जिला और राज्य स्तर पर योजना को लागू किया  गया है । हर स्तर  पर टेक्नीकल एडवाइज़री कमेटी का   गठन किया जाना था . सेन्ट्रल वाटर कमीशन और  सेन्ट्रल ग्राउंड वाटर बोर्ड को इस योजना को तकनीकी सहयोग देने के   ज़िम्मा दिया गया .  जल संसाधन मंत्रालय इस योजना को केंद्र सरकार के स्तर पर मानिटर करता है .

यह योजना बहुत ही महत्वाकांक्षी है . और इस बात को सुनिश्चित करने का एक प्रयास है कि आने वाले दिनों में देश में जल की कमी एक भयावह समस्या का रूप ने ले ले। सरकार की तरफ से कोशिश यह भी  की गयी  कि  मनरेगा  जैसी अन्य स्कीमों से इसको मिलाकर अधिकतम और अच्छे नतीजे हासिल किये जा सकें . लेकिन संसद में रखी गयी इस विषय पर बनी स्थायी समिति की रिपोर्ट  में लिखा  है कि इस दिशा में उम्मीद के मुताबिक कुछ भी नहीं हुआ है।सबसे तकलीफ की बात यह है कि  इस योजना को लागू  करने का जिन सरकारी महकमों को  ज़िम्मा दिया  गया था वे सभी लापरवाह हैं .कमेटी ने अपनी नाराज़गी इस बात पर जताई है  कि  ज़रूरी स्कीमें ही नहीं बनायी जा सकीं।इस स्कीम की  पाइलट प्रोजेक्ट के तहत  शुरू में 3341 जलाशयों को  चुना गया था लेकिन  कमेटी को बताया गया कि सितम्बर 2012 तक केवल 1481 जलाशय की ठीक किये जा सके। इस योजना के लिए जो धन आवंटित किया गया है वह भी इस्तेमाल नहीं हो रहा है .कमेटी ने सुझाव दिया है कि आर आर आर स्कीम की सफलता के लिए पंचायतों को  भी शामिल किया जाए. इस काम में केंद्रीय जन संसाधन मंत्रालय का बहुत भारी योगदान है . मंत्रालय को चाहिए कि धन का आवंटन करके ही अपने काम  की इतिश्री न समझ लें .  अभी व्यवस्था यह है कि  राज्य सरकारों को कम्पलीशन सार्टिफिकेट दाखिल करने पर अगली  किश्त दी जाती है . ज़रूरत इस बात की है कि मंत्रालय राज्य सरकारों से बाकायदा प्रोग्रेस रिपोर्ट मंगवाए और काम पर नज़र रखने के लिए अफसर तैनात करे.

आर आर आर स्कीमों पर तकनीकी नज़र रखने का काम अभी केन्द्र सरकार की कंपनी वाटर एंड पावर कंसल्टेंसी सर्विसेज लिमिटेड ( वाप्कोस) के ज़िम्मे किया गया है .अभी वाप्कोस को फंड तब रिलीज़ किया जाता है जब राज्य सरकारें प्रोजेक्ट का मूल्यांकन कर लेती हैं . कमेटी का सुझाव है कि मंत्रालय को राज्य सरकारों से बात करके ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए जिस से वाप्कोस को फंड समय से दिया जा सके.कमेटी ने पाया है कि एक बार प्रोजेट शुरू हो जाने के बाद अफसर लोग उसको देखने बहुत कम जाते हैं . अफसरों के यात्रा विवरण  कमेटी के पास उपलब्ध हैं  जिनसे पता चलता है कि केन्द्र  सर्कार के अफसर तो राज्यों के दौरे पर जाते हैं लेकिन राज्य सरकार के अफसर मौके  का निरीक्षण करने में कोताही बरत रहे हैं.इसे भी ठीक किये जाने की ज़रूरत है . कुल मिलाकर पंद्रहवीं लोकसभा की जल  संसाधन मंत्रालय से संबद्ध स्थाई समिति की सोलहवीं रिपोर्ट  से पता  चलता है कि केन्द्र सरकार की इतनी  महत्वपूर्ण स्कीम अफसरों की लापरवाही के चलते बिलकुल बेकार साबित हो  रही है.

सब्सिडी की रकम सीधे उपभोक्ता तक पंहुचाकर कांग्रेस ने गेम चेंज कर दिया है .



शेष नारायण सिंह 

एफ डी आई  के मुद्दे को यू पी ए सरकार को घेरने के लिये बीजेपी इस्तेमाल नहीं कर पायी. अब सरकार ने कह दिया है कि बहस चाहे जैसे करवा ली जाए.यानी उसने लोकसभा में इतने वोटों का प्रबंध कर लिया है कि बीजेपी को अब सरकार को मुश्किल में डालना आसान  नहीं होगा .यू पी ए की प्रमुख सहयोगी डी एम के के आला नेता,करूणानिधि ने ऐलान कर दिया है  कि वह सरकार को मुश्किल में नहीं डालेगें . यही रुख तृणमूल कांग्रेस का भी है . वह भी सरकार को परेशानी में नहीं पड़ने देना चाहती . हालांकि तृणमूल वालों को कांग्रेस या उसके नेतृत्व से कोई मुहब्बत नहीं है. वह तो मनमोहन सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लेकर आ  गए थे . तृणमूल कांग्रेस की सुप्रीमो ममता बनर्जी ने उम्मीद की थी कि उनके अविश्वास प्रस्ताव के नोटिस को बीजेपी का समर्थन मिल जाएगा . हालांकि ऐसी कोई जानकारी नहीं है कि बीजेपी ने उनको किसी भी स्तर पर  वादा किया हो कि उनके प्रस्ताव पर समर्थन या कोई सहूलियत दी जायेगी .  लेकिन ममता बनर्जी ने बीजेपी से उम्मीद लगा रखी थी कि बीजेपी वाले यू पी ए सरकार को परेशान करने के लिए उनके साथ आ  जायेगें . लेकिन ऐसा नहीं हुआ.नतीजा यह हुआ कि तृणमूल कांग्रेस का अविश्वास प्रस्ताव मुंह के बल गिर पड़ा.एफ डी आई के खिलाफ होने के बावजूद भी तृणमूल कांग्रेस  आज बीजेपी के साथ दिखने के लिए तैयार नहीं है इसका कारण यह  है कि वह बीजेपी को भी मुश्किल में डालना चाहते हैं.आज का घटनाक्रम ऐसा है कि नियम १८४ के तहत जब लोकसभा में बहस होगी तो बीजेपी को कुछ  खास हासिल नहीं होगा . उसका प्रस्ताव पास नहीं हो सकेगा और सरकार  को कोई फरक नहीं पडेगा .  एक बार फिर राजनीतिक प्रबंधन में  बीजेपी को कांग्रेस ने  पिछाड दिया है . बीजेपी के प्रबंधकों में इस बात पर  चर्चा शुरू हो गयी है कि गलती कहाँ हुई. जबकि  बाकी दुनिया को मालूम है कि गलती कहाँ हुई है . जब अटल बिहारी वाजपेयी  प्रधान मंत्री थे थे तो उनके साथ बहुत सारी पार्टियां हुआ करती  थीं लेकिन आज बात  बिलकुल अलग है. एन डी ए में तृणमूल कांग्रेस, डी एम के , तेलुगु देशम. बीजू जनता दल  , नेशनल कानफरेंस सब थे .एक वक़्त तो जयललिता भी अटल बिहारी  वाजपेयी की समर्थक रह चुकी है . लेकिन आज हालात वैसे नहीं है . आज बीजेपी के  साथ पूरी तरह से केवल शिवसेना और अकाली दल ही बचे है . नीतीश कुमार की  जे डी ( यू  ) भी अधिकतर मुद्दों पर  बीजेपी के खिलाफ रहती है . अभी ताज़ा  उदाहरण सी बी आई के निदेशक की नियुक्ति का है जहां  बीजेपी के दोनों बड़े नेताओं ने प्रधान मंत्री के पास चिट्ठी लिखी थी लेकिन नीतीश कुमार ने उस चिट्ठी से सहमति नहीं जताई ,. बीजेपी के बड़े नेता नरेंद्र  मोदी को नीतीश  कुमार अपने  राज्य में चुनाव प्रचार तक नहीं करने देते हैं . ऐसी हालत में बीजेपी के साथ अब ऐसी ताक़त नहीं है कि वह किसी सरकार को हिला  सके. बीजेपी की राजनीतिक रणनीति  की दुर्दशा अभी राष्ट्रपति के चुनाव में भी  हो चुकी है  जबकि उसके  खास साथी शिवसेना ने भी कांग्रेस के उम्मीदवार का साथ दिया . वहाँ भी ममता बनर्जी की राजनीतिक सोच की धज्जियां उड़ी थीं जब  उन्होंने समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर कांग्रेस को शिकस्त देने की कोशिश की थी . उस वक़्त भी ममता बनर्जी को मालूम था कि वे कांग्रेस उम्मीदवार को तो हरा नहीं पायेगीं लेकिन वे यू पी ए की सरकार को कमज़ोर करना चाहती थीं. उस दौर में ममता बनर्जी यू पी ए में शामिल थीं और जो कुछ भी चाहती थीं , सरकार को करना पड़ता था . उनकी गैरवाजिब मांगों से  मनमोहन सरकार और सोनिया गांधी परेशान थे लेकिन ममता सरकार को गिरा नहीं सकती थीं क्योंकि उस सरकार को मुलायम  सिंह यादव के  २२ सदस्यों का बाहर रहकर समर्थन प्राप्त था . राष्ट्रपति चुनाव के दौरान ममता बनर्जी ने कोशिश की थी कि मुलायम सिंह यादव को अपने साथ लेकर वे यू पी ए से अपनी हार बात  मानने को मजबूर कर सकेगीं . लेकिन उनसे गलती हो गयी . उन्होंने सोचा कि मुलायम सिंह यादव  उनकी राजनीति चमकाने में मदद  करेगें. राजनीति का बुनियादी सिद्धांत है कि सभी नेता अपनी राजनीति को चमकाने के  लिए काम करते हैं . मुलायम  सिंह ने भी अपनी राजनीति को मज़बूत किया . उनकी राजनीति यह है कि वे कभी भी किसी साम्प्रदायिक शक्ति के साथ  नहीं देखे जा सकते और उन्होंने राष्ट्रपति चुनाव में बीजेपी के उम्मीद्वार के खिलाफ वोट देकर कांग्रेस के उम्मीदवार को  जिता दिया और प्रणब मुखर्जी राष्ट्रपति हो  गए. उस चुनाव में भी कांग्रेस की राजनीति सफल रही  थी और बीजेपी की राजनीति को झटका लगा था .

   १९८९ के बाद से  ही बीजेपी की राजनीति का सभी मकसद हासिल किये जाते रहे हैं .उनकी बात को सबसे ऊपर तक पंहुचाने में उनके विपक्षियों की सबसे बड़ी भूमिका रहती रही है .कांग्रेस का नेतृत्व जबतक लचर था ,बीजेपी को कोई परेशान नहीं कर सकता था . बीजेपी की बात को आगे बढाने में मीडिया की भूमिका भी बहुत ही अहम रही है .  जब बाबरी मसजिद की  हिफाज़त के दौरान उत्तर प्रदेश की तत्कालीन सरकार ने गोलियाँ चलवाई थीं तो वाराणसी से छपने वाले हिंदी के एक अखबार ने तो लिख दिया था कि खून से सरजू नदी लाल हो गयी थी.  जो कि सच नहीं था.बाद में पता लगा कि खबर गलत थी . बाद के दौर में भी मीडिया ने बीजेपी की मदद की.बड़ी संख्या में मीडिया संगठनों में  बीजेपी  से सहानुभूति रखने वाले पत्रकारों की मौजूदगी के कारण ऐसा माहौल बन गया कि अगर कोई बीजेपी के खिलाफ कोई तथ्यपरक खबर भी लिखता  तो उस पर नज़रें तिरछी होने लगी थीं . लेकिन पिछले  कुछ वर्षों से बीजेपी के पक्ष में काम करने वाले पत्रकारों के सामने बड़ी मुश्किल है . जब से कर्नाटक की बीजेपी सरकार के भ्रष्टाचार के कारनामे पब्लिक हुए हैं . मीडिया को उसे हाईलाईट करना पड़ रहा है. ताज़ा मामला तो बीजेपी  के अध्यक्ष का ही  है . एक बार फिर साबित हो गया है कि भ्रष्टाचार में टू जी, कामनवेल्थ खेल,और अन्य घोटाले करने वाली यू पी ए और बीजेपी के नेता भ्रष्टाचार की पिच पर बराबर  हैं . दोनों ही पार्टियों में भ्रष्टाचार है .सवाल केवल भ्रष्टाचार को मैनेज करने का  है . बीजेपी के भ्रष्टाचार को उजागर करने में देश के हिंदी और अंग्रेज़ी , दोनों ही भाषाओं के सबसे बड़े अखबारों ने पूरी निष्पक्षता से काम किया है . नतीजा यह है कि अब भ्रष्टाचार के मामलों में कांग्रेस को बीजेपी घेर नहीं सकती . बीजेपी के मौजूदा अध्यक्ष के राजनीतिक कद को लेकर भी बीजेपी डिफेंसिव है . नितिन गडकरी अपनी ही पार्टी के सभी राष्ट्रीय नेताओं से  छोटे पाए जा  रहे हैं . लोकसभा और राज्य सभा में उनकी पार्टी के दोनों नेता ,उनसे बहुत बड़े हैं . उनके  सभी पूर्व अध्यक्ष उनसे राजनीतिक हैसियत में बहुत ऊंचे हैं और ऊपर से उन्होने महाराष्ट्र सरकार में मंत्री रहने के दौरान कुछ ऐसे काम किये हैं जिसका खामियाजा उनकी पार्टी को आज भुगतना पड़ रहा है . उनकी पार्टी  के निर्माताओं में  अटल  बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवानी का नाम लिया जाता है .. नितिन गडकरी के लिए वे ऊंचाइयां तो असंभव ही मानी जायेगीं . 
बीजेपी की एक और मुश्किल  है . उनका मुकाबला कांग्रेस से माना जाता है जहां राष्ट्रीय अध्यक्ष  का कद पार्टी के हर बड़े नेता से बड़ा  है . सोनिया गांधी  बहुत ही विपरीत परिस्थितियों में राजनीति में आयीं . अध्यक्ष के रूप में सीताराम केसरी ने पार्टी  को कहीं का नहीं छोड़ा था लेकिन सोनिया गांधी ने जीरो से शुरू  करके पार्टी को सरकार तक पंहुचाया . विपक्षी पार्टी की मुखिया के रूप में  काम शुरू  किया और केन्द्र सरकार में अपने कार्यकर्ता को प्रधान मंत्री  पद तक पंहुचाया . डॉ मनमोहन सिंह के बारे में उन दिनों कहा  जाता था  कि वे बहुत ही कमज़ोर प्रधान मंत्री हैं लेकिन अर्थशास्त्र के विद्वान प्रधान  मंत्री को दुबारा जीत दिलाकर उन्होंने साबित कर दिया कि वे देश की सबसे बड़ी राजनीतिक नेता  हैं . बीजेपी के बहुत ही कुशल पार्टी प्रवक्ताओं के आरोपों पर भी चुप रहने की कला में  प्रवीण सोनिया गांधी ने जब भी मौक़ा लगा तो संसद में लाल  कृष्ण आडवानी तक को हडका लिया और आडवानी जी को मजबूर होकर अपना बयान वापस लेना पड़ा. यू पी ए के पहले कार्यकाल में मनरेगा और सूचना के अधिकार जैसे क्रांतिकारी काम  के बल पर उन्होंने अपनी सरकार को दूसरा कार्यकाल दिलवा दिया . इस  हफ्ते सब्सिडी को सीधे उपभोक्ता के बैंक खाते में भेजने की जिस योजना की घोषणा कांग्रेस की नियमित ब्रीफिंग में  जाकर जयराम रमेश और पी चिदंबरम ने की है , वह गेम चेंजर  की भूमिका निभाएगा और आब विपक्ष को और भी मज़बूत रणनीति के साथ आना पड़ेगा वर्ना अगर कहीं सोनिया गाँधी ने लगातार तीन बार अपनी पार्टी के नेता को प्रधानमंत्री बनवा दिया तो वे जवाहरलाल नेहरू के बराबर की राजनेता  हो जायेगीं और बीजेपी  के लिए  बहुत मुश्किल होगी. बीजेपी को चाहिए कि वह फ़ौरन सोनिया गांधी को राजनीतिक चुनौती देने में सक्षम नेता  की  तलाश करे वर्ना बहुत देर हो चुकी होगी .क्योंकि आज की बीजेपी की राजनीति अपने अंदर से आ रही चुनौतियों को  संभालने में परेशान है जबकि  कांग्रेस समेत बाकी पार्टियां २०१४ या २०१३ जब भी लोक सभा चुनाव  होंगें उसकी तैयारी में हैं .