Saturday, December 14, 2013

आम आदमी पार्टी स्थापित सत्ता की पार्टियों का विकल्प बन सकती है





शेष नारायण सिंह

दिल्ली में नरेंद्र मोदी ने एडी चोटी का जोर लगा दिया था लेकिन उनकी पार्टी को बहुमत नहीं मिल पाया .दिल्ली विधान सभा का चुनाव वास्तव में शुद्ध रूप से नरेन्द्र मोदी का चुनाव था क्योंकि यहाँ उन्होंने अपने मनमाफिक मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार तैनात करवाया था और खुद ही कई कई सभाएं की थीं लेकिन सरकार बनाने भर को बहुमत नहीं जुटा सके. आम आदमी पार्टी के रूप में एक नई राजनीतिक ताक़त आ गयी .ताज़ा खबर यह  है कि दिल्ली के उप राज्यपाल नजीब जंग ने बीजेपी के नेता डॉ हर्षवर्धन को सरकार बनाने के लिए बुलाया था लेकिन उन्होने मना कर दिया और कहा कि ज़रूरी बहुमत नहीं है इसलिए सरकार नहीं बनायेगें .दिल्ली में सरकार बनाने से भाग रही बीजेपी से आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल ने एक सवाल पूछा है कि अगर २०१४ के चुनावों में लोकसभा में स्पष्ट बहुमत नहीं मिला तो क्या बीजेपी सरकार बनाने की कोशिश नहीं करेगी. यह सवाल बहुत ही दिलचस्प है और अब इसी तरह के सवाल पूछे जायेगें क्योंकि सूचना क्रान्ति और आम आदमी पार्टी के प्रादुर्भाव ने ऐसा माहौल बना दिया है कि अब मुश्किल सवाल पूछने में कोई भी संकोच नहीं रह गया है .हालांकि आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल से भी पूछा जा सकता है दिल्ली की जनता ने आपको महत्व दिया है और जब  आपकी पार्टी के बाहर के विधायक भी आपका समर्थन देने की बात करते पाए जा रहे हैं तो आप क्यों सरकार  नहीं बनाते .लेकिन उनका घोषित तिकडम की राजनीति  का विरोध करने का है इसलिए उनको अगले अवसर की प्रतीक्षा है और वक़्त ही बताएगा कि वे विरोध की राजनीति विरोध के लिए करते हैं कि उनके मन में राजनीति को सही दिशा देने का कोई सकारात्मक कार्यक्रम है .   
भ्रष्टाचार के आचरण को अपनी नियति मान चुकी राजनीतिक पार्टियों के बीच से आम आदमी पार्टी का उदय एक ऐसी घटना है जिसके बाद लोगों को लगने लगा है कि इस देश के दरवाज़े पर दस्तक दे रही फासिस्ट ताकतों को रोका जा सकता है . यहाँ यह स्पष्ट कर देना ज़रूरी है कि बीजेपी के सभी नेताओं को फासिस्ट कह देना अति सरलीकरण होगा .अभी चार राज्यों के विधानसभा चुनावों में जो देखा गया है वह यह है कि सभी राजनीतिक पार्टियों ने एक दूसरे की ताक़त को सामने से चुनौती दी और सही लोकत्रांत्रिक तरीके से चुनाव प्रचार किया . किसी भी पार्टी ने सत्ता को हथियाने के लिए गठबंधन सरकार के उन तिकडमों का सहारा नहीं लिया जिनके सहारे १९३३ में हिटलर ने जर्मनी की सत्ता पर कब्जा किया था . और जहां खुले आम चुनावी राजनीति का पारदर्शी प्रचार और कार्यक्रम होता है वहाँ फासिस्ट ताक़तें सत्ता नहीं हासिल कर सकतीं . यह भी भरोसा किया जाना चाहिए कि मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह और छत्तीसगढ़ में रमन सिंह ने आम आदमी की राजनीतिक भावनाओं को राजनीतिक शक्ल दी है .उम्मीद की जानी चाहिए कि वे भविष्य में भी उसकी भावनाओं के खिलाफ जाने की हिम्मत नहीं जुटा पायेगें. इन चुनावों के बाद कांग्रेस में हिम्मत हार चुके नेताओं का जमावडा भी साफ़ नज़र आ  रहा है .इसलिए उनसे किसी राजनीतिक लड़ाई की उम्मीद करने का कोई मतलब नहीं है लेकिंन दिल्ली में कांग्रेस और बीजेपी को चुनौती देने वाली आम आदमी पार्टी से उम्मीद की जानी चाहिए. अभी आम आदमी पार्टी के एक वक्तव्यप्रिय नेता  ने घोषणा की है कि वे राहुल गांधी के खिलाफ अमेठी से चुनाव लड़ेगें . उन्होंने कहा है कि उनकी पार्टी देश के किसी भी क्षेत्र में किसी भी पार्टी के बड़े से बड़े नेता को वाक् ओवर देने के पक्ष में नहीं है . यह देश की राजनीति के लिए बहुत ही अच्छा संकेत है . संसद के चुनाव के हर क्षेत्र में सभी नेताओं को बड़ी से बड़ी चुनौती देकर ही लोकतांत्रिक भारत की  रक्षा की जा सकती है . दिल्ली विधान सभा के चुनावों में जिस तरह से आम आदमी पार्टी के उम्मीदवारों ने अपने राजनीतिक  दायित्व का  निर्वाह  किया है वह महत्वपूर्ण है . पिछले एक हफ्ते में ऐसे बहुत सारे राजनीतिक विश्लेषकों से बातचीत हुई है जो कहते हैं कि यह पार्टी चल नहीं पायेगी या कि इसमें ऐसे नेता नहीं है जो साफ़ समझ के साथ राजनीति को दिशा दे  सकें ,आदि आदि . इन बातों का कोई मतलब नहीं है .एक तो यह बात ही बेमतलब है कि आम आदमी पार्टी में सही राजनीतिक सोच के लोग नहीं है . हम जानते हैं कि वहाँ काम करने वाले , आनंद कुमार , योगेन्द्र यादव, गोपाल राय और संजय सिंह ऐसे लोग हैं जिन्होने इसके पहले कई बार स्थापित सत्ता के खिलाफ लोकतांत्रिक सत्ता की बहाली के लिए संघर्ष  किया  है और उनकी  राजनीतिक समझ किसी भी राहुल गांधी या नरेंद्र मोदी से ज़्यादा है .इसलिए इन शंकाओं को गंभीरता से नहीं लिया जाना चाहिए . लेकिन इस से भी महत्वपूर्ण बात यह  है कि इस पार्टी का जो मुख्य रोल है उसमें इसने अपने आपको खरा साबित कर दिया है . स्थापित सत्ता के दावेदारों को चुनौती देकर अगर आम आदमी पार्टी  इस बात को पूरे देश में साबित करने में कामयाब हो जाती है कि राजनीति में जनता की इच्छा से बड़ा कुछ नहीं होता तो यह बहुत बड़ी बात होगी .
आज की सच्च्चाई यह  है कि देश के  बड़े भूभाग में जनता दो पार्टियों की साम्राज्यवादी पूंजीवादी राजनीति के बीच पिस रही है . आम आदमी पार्टी ने एक ऐसी खिड़की दे दी है जिसके  रास्ते देश का आम आदमी स्थापित सत्ता की दोनों की पार्टियों को चुनौती दे सकता है . और यह कोई मामूली भूमिका नहीं  है . १९७७ में  जिस तरह से जनता ने चुनाव लड़कर उन लोगों को जिता दिया था जो स्थापित तानाशाही सत्ता के खिलाफ चुनाव लड़ रहे थे ,उसी तरह इस बार दिल्ली विधानसभा में जनता ने आम आदमी पार्टी के उम्म्मीद्वारों को जिता कर यह सन्देश दे दिया है कि अगर राजनीतिक समूह की नीयत साफ़ हो तो जनता के पास ताकत है और वह अपेन बदलाव के  सन्देश को देने के लिए किसी भी ईमानदार समूह का साथ दे देती है .और बदलाव की आंधी को गति दे देती है . १९७७ में तानाशाही ताकतों के खिलाफ हुई लड़ाई में जो नतीजे निकले उनके ऊपर उस दौर की उन पार्टियों के पस्तहिम्मत नेताओं ने कब्जा कर लिया जो इंदिरा गांधी की ताकत का लोहा मान कर हथियार डाल चुके थे . जनता पार्टी का गठन १९७७ के उस चुनाव के बाद हुआ जिसमें इंदिरा गांधी और संजय गांधी की तानाशाही हुकूमत को जनता पराजित कर चुकी थी . लेकिन जनता के उस अभियान का  वह नतीजा नहीं निकला जिसकी उम्मीद की गयी  थी. जेल से छूटकर आये नेताओं को लगने लगा कि उनकी पार्टी की लोकप्रियता और उनकी अपनी राजनीतिक योग्यता के कारण १९७७ की चुनावी सफलता मिली थी . वे लोग भी सत्ता से मिलने वाले कोटा परमिट के लाभ को संभालने में उसी तरह से  जुट गए जैसे उस पार्टी के लोग करते थे जिसको हराकर वे आये थे . नतीजा यह हुआ  कि दो साल के अंदर ही जनता पार्टी टूट गयी और सब कुछ फिर से यथास्थितिवादी राजनीति के हवाले  हो गया और संजय गांधी-इंदिरा गांधी की कांग्रेस फिर से सत्ता पर वापस आ गयी. आम आदमी पार्टी का विरोध कर रहे बहुत सारे लोग यही बात  याद दिलाने की कोशिश करते हैं .
जनता पार्टी के प्रयोग को  असफलता के रूप में पेश करने की तर्कपद्धति में दोष है .१९७७ में जनता पार्टी की चुनावी सफलता किसी राजनीतिक पार्टी की सफलता नहीं थी.  वह तो देश की जनता का आक्रोश था जिसने तनाशाही के खिलाफ एक आन्दोलन चलाया था. जनता के पास अपनी कोई राजनीतिक पार्टी नहीं थी ,उसने जनसंघ ,संसोपा ,मुस्लिम मजलिस, भारतीय लोकदल ,स्वतन्त्र पार्टी आदि राजनीतिक पार्टियों के नेताओं को मजबूर कर दिया था कि इंदिरा गांधी की सत्ता के खिलाफ राजनीतिक लड़ाई कि उसकी मुहिम में सामने आयें . जनता के पास राजनीतिक पार्टी नहीं थी लिहाज़ा जनता पार्टी नाम का एक नया नाम राजनीति के मैदान में डाल दिया गया . और इस तरह से  बिना किसी तैयारी के जनता पार्टी का ऐलान हो गया . चुनाव आयोग के पास जाकर चुनाव  निशान लेने तक का समय नहीं था लिहाजा चौधरी चरण सिंह की पार्टी भारतीय लोकदल के चुनाव निशान हलधर किसान को जनता पार्टी के उम्मीदवारों का चुनाव निशान बना दिया गया . यह जानना  दिलचस्प होगा कि १९७७ का चुनाव जीतने वाले जनता पार्टी के सभी उम्मीदवार वास्तव में भारतीय लोक दल के  संसद सदस्य के रूप में चुनकर आये थे और उसी पार्टी के सदस्य के रूप में उन्होने लोकसभा में सदस्यता की शपथ ली थी . मोरारजी देसाई जिस सरकार के प्रधानमंत्री बने थे वह भारतीय लोकदल की सरकार थी . सरकार बनाने के बाद इन लोगों ने १ मई १९७७ के दिन सम्मलेन करके जनता पार्टी का गठन किया और फिर हलधर किसान जनता पार्टी का चुनाव निशान बना . सब को मालूम है कि जनता पार्टी जैसी पार्टी उसमें शामिल राजनीतिक नेताओं के स्वार्थ के कारण तहस नहस हो गयी और बाद के कई वर्षों तक कांग्रेस के लोग यह भरोसा दिलाते रहे कि कांग्रेस विरोध की राजनीति का कोई मतलब नहीं होता लेकिन यह सच्चाई है कि  जनता पार्टी के प्रयोग ने संजय गांधी ब्रांड तानाशाही को रोक दिया था और दोबारा १९८० में जब कांग्रेस की सत्ता में वापसी हुई तो एक लोकतांत्रिक पार्टी के रूप में  ही उसकी वापसी हुई थी ,१९७५ की तानशाही की राजनीति को  वह तिलांजलि दे चुकी थी.
१९७५ के जनता के आन्दोलन को उस समय की मौजूदा पार्टियों  ने हडपने में सफलता ग हासिल कर ली थी क्योंकि उन दिनों जनता की तरफ से कोई राजनीतिक  फार्मेशन नहीं था . आम आदमी पार्टी ने उस कमी को पूरा कर दिया है. आज जनता के पास उसका अपना विकल्प है और उसपर यथास्थितिवाद की पार्टियों का प्रभाव बिलकुल नहीं है .३६ साल पुराने जनता पार्टी के सन्दर्भ का ज़िक्र करने का केवल यह मतलब है कि जब जनता तय करती है तो परिवर्तन असंभव नहीं रह जाता .आम आदमी पार्टी के गठन के समय भी देश की जनता आम तौर पर दिशाहीनता का शिकार हो चुकी थी. देश में दो बड़ी राजनीतिक पार्टियां हैं , कुछ राज्यों में बड़ी राष्ट्रीय पार्टियां तो नहीं हैं लेकिन वहाँ की मुकामी पार्टियों के बीच सारी राजनीति सिमट कर रह गयी है . जनता के सामने कोई विकल्प नहीं है . उसे नागनाथ और सांपनाथ के बीच किसी का चुनाव करना  है लेकिन दिल्ली विधानसभा के चुनाव में जिस तरह से आम आदमी पार्टी ने विकल्प दिया है उसके बाद पूरे देश में राजनीतिक पार्टियों के बीच सक्रियता साफ़ नज़र आ रही है . उम्मीद की जानी चाहिए कि इसके बाद जनता की उन इच्छाओं को सम्मान मिलेगा जिसके तहत वे बदलाव कर देना चाहती हैं .

Friday, December 6, 2013

एक मनु की औकात नहीं कि वह जाति व्यवस्था की स्थापना कर दे


शेष नारायण सिंह

डा.अंबेडकर के निर्वाण दिवस के मौके पर ज़रूरी है कि उनकी सोच और दर्शन के सबसे अहम पहलू पर गौर किया जाए. सब को मालूम है कि डा. अंबेडकर के दर्शन ने २० वीं सदी के भारत के राजनीतिक आचरण को बहुत ज्यादा प्रभावित किया था . लेकिन उनके दर्शन की सबसे ख़ास बात पर जानकारी की भारी कमी है. यह बात कई बार कही जा चुकी है कि उनके नाम पर राजनीति करने वालों को इतना तो मालूम है कि बाबा साहेब जाति व्यवस्था के खिलाफ थे लेकिन बाकी चीजों पर ज़्यादातर लोग अन्धकार में हैं. उन्हीं कुछ बातों का ज़िक्र करना आज के दिन सही रहेगा. डा. अंबेडकर को इतिहास एक ऐसे राजनीतिक चिन्तक के रूप में याद रखेगा जिन्होंने जाति के विनाश को सामाजिक ,आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तन की बुनियाद माना था. यह बात किसी से छुपी नहीं है कि उनकी राजनीतिक विरासत का सबसे ज्यादा फायदा उठाने वाली पार्टी की नेता, आज जाति की संस्था को संभाल कर रखना चाहती हैं ,उसके विनाश में उनकी कोई रूचि नहीं है . वोट बैंक राजनीति के चक्कर में पड़ गयी अंबेडकरवादी पार्टियों को अब वास्तव में इस बात की चिंता सताने लगी है कि अगर जाति का विनाश हो जाएगा तो उनकी वोट बैंक की राजनीति का क्या होगा. डा अंबेडकर की राजनीतिक सोच को लेकर कुछ और भ्रांतियां भी हैं . कांशीराम और मायावती ने इस क़दर प्रचार कर रखा है कि जाति की पूरी व्यवस्था का ज़हर मनु ने ही फैलाया था, वही इसके संस्थापक थे और मनु की सोच को ख़त्म कर देने मात्र से सब ठीक हो जाएगा. लेकिन बाबा साहेब ऐसा नहीं मानते थे . उनके एक बहुचर्चित, और अकादमिक भाषण के हवाले से कहा जा सकता है कि जाति व्यवस्था की सारी बुराइयों को लिए मनु को ही ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता .मनु के बारे में उन्होंने कहा कि अगर कभी मनु रहे भी होंगें तो बहुत ही हिम्मती रहे होंगें . डा. अंबेडकर का कहना है कि ऐसा कभी नहीं होता कि जाति जैसा शिकंजा कोई एक व्यक्ति बना दे और बाकी पूरा समाज उसको स्वीकार कर ले. उनके अनुसार इस बात की कल्पना करना भी बेमतलब है कि कोई एक आदमी कानून बना देगा और पीढियां दर पीढियां उसको मानती रहेंगीं. . हाँ इस बात की कल्पना की जा सकती है कि मनु नाम के कोई तानाशाह रहे होंगें जिनकी ताक़त के नीचे पूरी आबादी दबी रही होगी और वे जो कह देंगे ,उसे सब मान लेंगें और उन लोगों की आने वाली नस्लें भी उसे मानती रहेंगी.उन्होंने कहा कि , मैं इस बात को जोर दे कर कहना चाहता हूँ कि मनु ने जाति की व्यवस्था की स्थापना नहीं की क्योंकि यह उनके बस की बात नहीं था. . मनु के जन्म के पहले भी जाति की व्यवस्था कायम थी. . मनु का योगदान बस इतना है कि उन्होंने इसे एक दार्शनिक आधार दिया. . जहां तक हिन्दू समाज के स्वरुप और उसमें जाति के मह्त्व की बात है, वह मनु की हैसियत के बाहर था और उन्होंने वर्तमान हिन्दू समाज की दिशा तय करने में कोई भूमिका नहीं निभाई. उनका योगदान बस इतना ही है उन्होंने जाति को एक धर्म के रूप में स्थापित करने की कोशिश की . जाति का दायरा इतना बड़ा है कि उसे एक आदमी, चाहे वह जितना ही बड़ा ज्ञाता या शातिर हो, संभाल ही नहीं सकता. . इसी तरह से यह कहना भी ठीक नहीं होगा कि ब्राह्मणों ने जाति की संस्था की स्थापना की. मेरा मानना है कि ब्राह्मणों ने बहुत सारे गलत काम किये हैं लेकिन उनकी औक़ात यह कभी नहीं थी कि वे पूरे समाज पर जाति व्यवस्था को थोप सकते. . हिन्दू समाज में यह धारणा आम है कि के जाति की संस्था का आविष्कार शास्त्रों ने किया और शास्त्र तो कभी गलत हो नहीं सकते. बाबा साहेब ने अपने इसी भाषण में एक चेतावनी और दी थी कि उपदेश देने से जाति की स्थापना नहीं हुई थी और इसको ख़त्म भी उपदेश के ज़रिये नहीं किया जा सकता.. यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना ज़रूरी है अपने इन विचारों के बावजूद भी , डा अंबेडकर ने समाज सुधारकों के खिलाफ कोई बात नहीं कही. ज्योतिबा फुले का वे हमेशा सम्मान करते रहे. . हाँ उन्हें यह पूरा विश्वास था कि जाति प्रथा को किसी महापुरुष से जोड़ कर उसकी तार्किक परिणति तक नहीं ले जाया जा सकता.

डा अंबेडकर के अनुसार हर समाज का वर्गीकरण और उप वर्गीकरण होता है लेकिन परेशानी की बात यह है कि इस वर्गीकरण के चलते वह ऐसे सांचों में फिट हो जाता है कि एक दूसरे वर्ग के लोग इसमें न अन्दर जा सकते हैं और न बाहर आ सकते हैं . यही जाति का शिकंजा है और इसे ख़त्म किये बिना कोई तरक्की नहीं हो सकती. सच्ची बात यह है कि शुरू में अन्य समाजों की तरह हिन्दू समाज भी चार वर्गों में बंटा हुआ था . ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र . यह वर्गीकरण मूल रूप से जन्म के आधार पर नहीं था, यह कर्म के आधार पर था .एक वर्ग से दूसरे वर्ग में आवाजाही थी लेकिन हज़ारों वर्षों की निहित स्वार्थों कोशिश के बाद इसे जन्म के आधार पर कर दिया गया और एक दूसरे वर्ग में आने जाने की रीति ख़त्म हो गयी. और यही जाति की संस्था के रूप में बाद के युगों में पहचाना जाने लगा. . अगर आर्थिक विकास की गति को तेज़ किया जाय और उसमें सार्थक हस्तक्षेप करके कामकाज के बेहतर अवसर उपलब्ध कराये जाएँ तो जाति व्यवस्था को जिंदा रख पाना बहुत ही मुश्किल होगा. और जाति के सिद्धांत पर आधारित व्यवस्था का बच पाना बहुत ही मुश्किल होगा.. अगर ऐसा हुआ तो जाति के विनाश के ज्योतिबा फुले, डा. राम मनोहर लोहिया और डा. अम्बेडकर की राजनीतिक और सामाजिक सोच और दर्शन का मकसद हासिल किया जा सकेगा..

Sunday, December 1, 2013

अमरीका की नज़र में इरान की बढ़ती अहमियत से सउदी अरब बहुत परेशान है

  
शेष नारायण सिंह

कभी इरान के शाह पहलवी अमरीका के बहुत प्रिय  हुआ करते थे लेकिन जब उनकी ज्यादतियां सारी हदें पार कर गयीं तो इरान की अवाम ने पेरिस में रह रहे एक धार्मिक नेता अयातोल्ला खुमैनी के नेतृत्व में उनका तख़्त बदल दिया ताज बदल दिया और इस्लामी सरकार कायम कर दी. इरान में अपनी तरह की लोकशाही शुरू हो गयी और अमरीका और इरान में दूरियां बढ़ गयीं . एक मुकाम तो ऐसा भी आया जब अमरीका ने इरान पर सद्दाम हुसैन से हमला करवाया . यह पुरानी बात है .उसके बाद से दजला और फरात  नदियों में  बहुत पानी बह गया . सद्दाम हुसैन जो कभी अमरीका के सबसे करीबी भक्त हुआ करते थे , अमरीका की कृपा से मारे जा चुके हैं इराक में अब शिया मतावलंबी प्रधानमंत्री पदस्थ किया जा चुका है और अमरीका की समझ में पूरी तरह से आ गया है कि इरान से  पंगा लेना उसको बहुत महँगा पड़ सकता है . ऐसे महौल में अमरीका ने एडी चोटी  का जोर लगाकर इरान से दोस्ती की कोशिश शुरू कर दी है . परमाणु  हथियारों की अपनी दादागीरी की आदत से अमरीका को बहुत नुक्सान हुआ  है लेकिन  वह दुनिया के किसी मुल्क की परमाणु ताकत को वह अभी भी दबा देना चाहता है .अमरीका समेत सुरक्षा परिषद के सभी पाँचों स्थायी सदस्यों की इच्छा यही रहती है कि उनके अलावा और कोई भी परमाणु ताक़त न बने लेकिन उनकी चल नहीं रही है . इरान के मामले में भी एक बार यही हो रहा है लेकिन दुनिया की राजनीति के बदल रहे नए समीकारणों के चलते अब खेल बदल गया है . अब इरान को एक परमाणु शक्ति के रूप में स्वीकार करने के अलावा अमरीका के सामने और कोई रास्ता नहीं है .
इरान के साथ अमरीका और अन्य देशों के समझौते का जश्न पश्चिमी दुनिया में मनाया जा रहा है लेकिन इस समझौते से एक तरह से परमाणु हथियारों की दुनिया में अपना दबदबा बनाए रखने की सुरक्षा परिषद के स्थायी देशों की मंशा ही सबसे स्थाई कारण नज़र आती है .इजरायल के दबाव में पिछले कई वर्षों से इरान पर पश्चिमी देशों की तरफ से लगाई गयी पाबंदियां भी  देश के हौसले को नहीं रोक पाईं . बहर हाल आखीर में उनकी समझ में आ गया कि इरान से बातचीत करने का सही तरीका यह है कि उसको रियाया न समझा जाए ,उसके साथ बराबरी के स्तर पर बातचीत की जाए .
मौजूदा समझौते के बाद इरान का परमाणु संवर्धन का कार्यक्रम जारी रहेगा .दस्तावेज़ में लिखा  है कि शान्तिपूर्ण उद्देश्यों के लिए आपसी परिभाषा के आधार पर परमाणु संवर्धन का कार्यक्रम चलाया जाएगा . इरान ने वचन दिया है कि वह समझौते के छः महीनों में यूरेनियम का पांच प्रतिशत से ज्यादा का संवर्धन नहीं करेगा  या ३.५ प्रतिशत संवर्धन वाला जो उसका भण्डार है उसमें कोई वृद्धि नहीं करेगा . ३.५ प्रतिशत के संवर्धन पर ही बिजली पैदा की जा सकती है जबकि हथियार बनाने के लिए ९० प्रतिशत संवर्धन की ज़रूरत पड़ती है .इरान ने समझौते में पूरा सहयोग किया है . उसने अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी को अपने परमाणु ठिकानों की जाँच करने का पूरा अधिकार देने का वचन दिया है .इसके बदले में  अमरीका ,फ्रांस ,चीनरूसजर्मनी और ब्रिटेन ने इरान को वादा किया है कि वह उसके तेल पर लगाई गयी पाबंदियों ढील देगें . इरान से पेट्रोल के निर्यात पर जो पाबंदी लगी हुई है वह भी दुरुस्त की जायेगी . सुरक्षा परिषद में भी इरान के खिलाफ कोई पाबंदी  का प्रस्ताव नहीं लाया जाएगा . ओबामा की सरकार भी  इरान पर पाबंदियां लगाने या उसकी धमकी देने से बाज़ आयेगी. यह पाबंदियां इरान के परमाणु कार्यक्रम को रोकने के लिए लगाई  गयी थीं. वह तो कहीं रुका नहीं अलबत्ता इरान की जनता ने सारी तकलीफें झेलीं .

इजरायल इस नए कूटनीतिक विकास से सबसे ज़्यादा परेशान है .उसके ज़ाहिर से कारण है . अभी तक वह अमरीका के लठैत के रूप में पश्चिम एशिया में मनमानी करता रहा  है लेकिन सउदी अरब की परेशानी भी कम नहीं है . इरान के साथ अमरीका के रिश्ते ठीक होने का नतीजा यह होगा कि पश्चिम एशिया में अमरीका के सबसे भरोसेमंद अरब देश के रूप में पहचाने जाने वाले देश के रूप में साउदी हनक कम हो जायेगी . इरान की कोशिश यह भी चल रही है कि पश्चिम एशिया में शिया शासकों की संख्या बढ़ाई जाए . जबकि यह  रियाद को यह बिलकुल पसंद नहीं है . साउदी अरब  ने देखा है कि  किस तरह से २०१० के चुनाव के बाद भी इरान की मदद से इराक में शिया राष्ट्रपति बना रहा  गया . रियाद की परेशानी यह है कि अमरीकी सत्ता में उनके कोई लाबी ग्रुप नहीं हैं . इसलिए वह अमरीका की नीतियों को उ सत्रह से नहीं प्रभावित कर पाता जिस तरह से इजरायल कर लेता है .इसलिए इरान के साथ हुए अमरीका और अन्य ताक़तवर देशों के समझौते को समर्थन देने के अलावा साउदी अरब के पास कोई रास्ता नहीं था. साउदी अरब को डर है कि पश्चिम एशिया की राजनीति में उनकी घट रही ताक़त को और गति मिल जायेगी . उनके घोषित शत्रु इरान अब उनके आका अमरीका के करीब आ  जाएगा.  इरान ने अपनी ताक़त इराक और लेबनान में बढ़ा  ही  लिया है .सीरिया में भी बशर अल असद के साथ इरान के सम्बन्ध हैं और सुन्नियों के हमलों को रूस और इरान के बल पर लगातार नाकाम किया जा रहा है . साउदी अरब को उम्मीद थी कि वह सीरिया के खिलाफ भी फौजी ताक़त का इस्तेमाल करेगा .खासतौर से जब पिछले अगस्त में दमिश्क के पास एक आबादी पर सीरिया की सेना की तरफ से कथित रासायनिक हथियारों के इस्तेमाल की खबर आई थी . अगर ऐसा हुआ होता तो  बशर अल असद की सत्ता को हटाकर साउदी पसंद  का कोई शासक वहाँ बैठाया जा सकता था लेकिन अमरीकी राष्ट्रपति ओबामा  ने दूसरा रास्ता चुन लिया. उन्होने रूस से समझौता कर लिया कि सीरिया अपने रासायनिक हथियारों को खत्म कर देगा . हालांकि इस समझौते को ओबामा की भारी कूटनीतिक सफलता माना गया लेकिन साउदी अरब को इस से बहुत निराशा हुई .

अमरीका की कथित शह से पश्चिम एशिया और इत्तर अफ्रीका में लोकतंत्र की आवाजें जब जोर पकड़ने लगीं तो साउदी हुक्मरान बहुत चिंतित हुए .इसी प्रक्रिया में उनका सबसे करीबी अरब दोस्त होस्नी मुबारक हटा दिया गया और बहरीन में भी सुन्नी शासक के खिलाफ जब लोकतंत्र वाले जुलूस निकलने लगे तो साउदी अरब वालों को लगा कि उस आभियान को भी इरान का सहयोग हासिल है . बहरीन का शासक सुन्नी है लेकिन वहाँ भी आबादी का बहुमत वाला हिस्सा शिया समुदाय वालों का है .
कुल मिलाकर साउदी अरब को इस बात से नाराज़गी तो है कि अमरीका इरान की तरफ खिंच रहा  है लेकिन जानकारों को मालूम है कि अमरीका अभी साउदी अरब से रिश्ते खराब नहीं कर सकता . खादी के देशों में अमरीकी हितों के सबसे बड़े संरक्षक के रूप में रियाद की हैसियत अभी कायम है और आने वाले बहुत दिनों तक उसके कमज़ोर होने की कोई संभावना नहीं है .लेकिन अमरीका भी खाड़ी के देशों में साउदी अरब के विकल्प की तलाश कर रहा  है . इराक में सत्ता परिवरतन के साथ उनको उम्मीद थे एकी वहाँ एक ऐसा साथी मिल जाएगा जो पुराने सद्दाम हुसैन की तरह काम करेगा लेकिन वाहन बहुमत की सत्ता आ गयी और बहुमत वहाँ शियाओं का है . नतीजा यह  हुआ कि  वहाँ का शासक इरान के ज़्यादा  करीब चला गया . अमरीका को खाड़ी के धार्मिक संप्रदायों की उठा पटक में कोई रूचि नहीं है .उसे तो वहाँ ऐसे राजनीतिक हालात चाहिए जिससे उसकी मौजूदगी औउर ताकत मजबूती के साथ जमी रहे . सबको मालूम है कि किसी भी कूटनीतिक चाल का उद्देश्य अपने राष्ट्रीय हित को मुक़म्मल तौर पर पक्का करना होता है .इसलिए अमरीका इस इलाके में साउदी अरब के ऊपर निर्भरता कम करने के लिए इरान को साथ लेने की नीति पर काम कर रहा  है . यह शुरुआत है . साउदी अरब को मालूम है कि  ओबामा अब खाड़ी के देशों की राजनीति पर उतना ध्यान नहीं देगें क्योंकि अब चीन के आस पास के देश उनकी प्राथमिकता सूची में ज़्यादा ऊपर आ गए हैं .
इस सबके बावजूद भी साउदी अरब और अमरीका के बीच बहुत कुछ साझा  है .दोनों ही देश पश्चिम एशिया में अल कायदा और इरान की बढती ताकत से परेशान हैं . अमरीका को लाभ यह है  कि वह इरान से दोस्ती करके  अपनी कूटनीतिक चमक को मज़बूत कर सकता है लेकिन यह रियाद वालों को बिलकुल सही नहीं लगता . उनके पास अमरीका के अलावा क्सिई उअर से मदद की उम्मीद भी नहीं है और संभावना भी नहीं है . बीच में साउदी शासकों ने यूरोपियन  यूनियन से दोस्ती बढाने की कोशिश की थी लेकिन वे बेचारे तो अमरीका की ही मदद के याचक  हैं . रूस और चीन भी अमरीका का विकल्प नहीं बन सकते इसलिए न चाहते हुए भी साउदी अरब को अमरीका का साथी बने रहने में भलाई नज़र आती है . लेकिन एक बात साफ़ है कि इरान से जिनेवा में हुए इस समझौते के बाद  खाड़ी की राजनीति में मौलिक बदलाव आने वाला है . यह भी तय है कि पिछले कई दशकों से अमरीकी राजनीति की गलतियों के चलते पश्चिम एशिया में जो संघर्ष के हालत पैदा हो गए थे अब उनमें भी बदलाव होना तय है . हो सकता है कि इसका श्रेय  बराक ओबामा के खाते में जाय और उनकी वह वाही हो लेकिन मध्यपूर्व में अमरीका के सबसे बड़े सहयोगी के रूप में साउदी अरब की हैसियत कम होने के दिन बहुत करीब आ गए हैं .

Friday, November 29, 2013

US-Iran deal: Why the Saudis are upset


  

After years of efforts US diplomacy has got an opening with Iran. Barack Obama’s team has succeeded in persuading Iran to sign an agreement with the permanent members of the U.N. Security Council and Germany to consider halting its nuclear weapons programme.
Israel is the the most vocal critic of this agreement for obvious reasons. Israeli leadership does not want its enemy number one and the friend of Hezbollah, the government of Iran to come any closer to the US. Rather, they would like Iran to be declared a pariah and be condemned. The Israeli Prime Minister, Benjamin Netanyahu, has termed the agreement “a historic mistake.”. But Saudi Arab is more uncomfortable with the Iran getting any recognition. Although, Saudi Arabia welcomed the deal but their unhappiness can be seen on all the signals coming out of Riyadh.
But first one must understand the contours of the Iran nuclear deal. The agreement requires Iran to halt or scale back parts of its nuclear infrastructure. In exchange the US and allies will ease the sanctions which the Iranian people are facing for decades. Iranian Foreign Minister Mohammad Javad Zarif was visibly happy after the deal was signed between US, France, Britain, China, Russia and Germany and Iran on the other. He said “It is important that we all of us see the opportunity to end an unnecessary crisis and open new horizons based on respect, based on the rights of the Iranian people and removing any doubts about the exclusively peaceful nature of Iran’s nuclear programme.”
The deal is a first step towards a more comprehensive nuclear pact to be completed in six months. Both sides have been able to get some concessions. If this deal is followed up, Iran might use nuclear power for power generation but they will not be able to build a nuclear weapon without being detected. Iran will receive some relief in trade sanctions and access to some of its frozen currency accounts overseas.
It seems Iran was very keen to get this agreement in place. The president of Iran was a very satisfied man when he got the news. He said “Let anyone make his own reading, but this right is clearly stated in the text of the agreement that Iran can continue its enrichment, and I announce to our people that our enrichment activities will continue as before.” America was not happy with this enthusiasm of the Iranian president. John Kerry said “There is no inherent right to enrich.” US president Obama was positive about the outcome of the negotiations. He said “diplomacy opened up a new path toward a world that is more secure — a future in which we can verify that Iran’s nuclear program is peaceful and that it cannot build a nuclear weapon.”
There is some good news for India though. The Iran-Pakistan-India pipeline project may now fructify. It will save a lot of Indian money that is spent on import and transportation of petroleum products from Iran. Day after the deal was signed in Geneva the Pakistan prime minister’s advisor, Sartaj Aziz happened to be in Tehran for a meeting. He met with the Iranian foreign minister. After the meeting it was said that both the countries have agreed that the Iran-Pakistan gas pipeline would be discussed in Tehran between Inter-State Gas System Ltd of Pakistan and the Iranian nominated company – Tadbir Energy Gaspar Iranian Co. in the first week of December. Now even the US will not have any problems with the project and once this pipeline project is completed. It will be very useful for all the three countries.
So this agreement is going to be an important milestone in the efforts of the international community for lasting peace in this region. But there are many countries who are not happy with this development . The anger of Israel is understandable but the attitude of Saudi Arabia is avoidable. It seems they want to be the most important ally of US and do not want anybody else to come close to America . But the scenario is changing very fast and Iran seems to be heading towards becoming a significant diplomatic resource for America.
There is no doubt that America has stopped taking Saudi Arabia as seriously as it used to during the presidency of George Bush.
There are many reasons for Saudi Arabia to get upset with the US but the most immediate before this agreement is the American attitude towards Bashar Al-Assad of Syria . They expected an American air strike on Sriya after reports of use of chemical weapons by the Syrian regime but the Americans did a deal with the help of Russia. The deal negotiated between the U.S. and Russia to remove Syria’s chemical weapons was seen as diplomatic victory for the Obama Administration. But the Saudis did not like it. They wanted the US to use this opportunity and bomb the Assad regime .
Saudi Arabia has been trying to check the growth of Iranian power in the middle east. They could not stop the influence of Hezbollah in Lebanese politics. They could not do anything to stop Iran’s growing influence in Iraq. Despite Saudi opposition Iran has kept the Shia Prime Minister Nouri al-Maliki in office. Saudi Arabia tried to create a wedge between Iran and Hamas but failed and today the Hamas is very powerful and very close to Iran. In whole of West Asia and North Africa Saudi Arabia was fast losing influence and Iran was winning. F. Gregory Gause, an expert in West Asian politics and oil monarchies says that increased Iranian power will lead to political mobilization by Shias inside the Sunni-ruled Gulf states. Saudis and their allies in the Gulf remain certain that Iran meddles directly in their domestic affairs, but they are also convinced that Iran’s heightened regional role will inevitably inspire Shia discontent, which makes Iran’s ascendance an indirect threat to the stability of the Gulf monarchies.
In the wave of democratic movements, Saudi Arab has lost very important allies in the region. The Arab Spring brought down Hosni Mubarak’s regime in Egypt. He was a very trusted friend of the regime. The age of domination by Saudi Arabia in the area is coming to an end. May be they remain the leaders of the Sunni rulers of middle east but Shia regimes will be close to America and the concern of Riyadh is that Obama Administration will be supporting Iran. Obama believes that better relations with Iran will bring stability to the region, and sees an Iranian commitment to forswear nuclear weapons as a benefit to allies like Saudi Arabia. But the Saudis, without a seat at the negotiating table, fear that Washington will ratify Iranian hegemony in Iraq, Syria, Lebanon, and the Persian Gulf in exchange for a nuclear deal.
That is the reason this deal that was signed by the five permanent members of the security council and Germany on one side and Iran on the other is going to play a very important role in the geopolitical scene of West Asia. It might also be the beginning of the end of the Saudi hegemony over the relations with America.

इरान के साथ परमाणु समझौता पश्चिम एशिया की शांति की तरफ एक अहम क़दम है



शेष नारायण सिंह

पश्चिम एशिया के कुछ देशों की तरह इरान को भी काबू में करने की अमरीकी विदेशनीति की योजना को अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अलविदा कह दिया है और इरान के साथ परमाणु मसले पर जिनेवा में सुरक्षा परिषद के सभी स्थायी सदस्यों और जर्मनी के विदेश मंत्रियों के बीच एक समझौता हो गया है .रविवार आधी रात के बात सभी संबद्ध पक्षों ने समझौते पर हस्ताक्षर कर दिया .अमरीका ,फ्रांस,चीन रूस,ब्रिटेन और जर्मनी के साथ इरान के  इस समझौते ने पश्चिम एशिया की राजनीति को एक नई राह पर डाल दिया है . अमरीका की सरकार और समाज में मौजूद इजरायल के एजेंट और तेल अवीव की इजरायली सरकार इस डील से बहुत नाराज़ हैं .जबकि इरान की सरकार ने इस सौदे का स्वागत किया है .इरान की ओर से बातचीत में शामिल उनके विदेशमंत्री , मुहम्मद जवाद ज़रीफ़ ने कहा कि इस समझौते के बाद एक ऐसी समस्या से जान छुड़ाने का मौक़ा मिलेगा जिसमें पड़ना ही नहीं चाहिए था. समझौते  के बारे में तरह तरह की व्याख्याएं की जा रही हैं लेकिन सच्ची बात यह है कि जहां इरान की नीयत पर अमरीका सहित उसके समर्थक देश वर्षों से शक करते रहे हैं ,आज उनके बीच एक समझौता हो गया है . समझौते के बाद इरान के राष्ट्रपति हसन रूहानी ने कहा कि इस समझौते में इरान के परमाणु संवर्धन कार्यक्रम जारी रखने के अधिकार को मान्यता  दी गयी है .उन्होंने कहा कि जिसको जो जी चाहे मतलब निकालने दीजिए लेकिन समझौते में साफ़ लिखा  है कि इरान का परमाणु संवर्धन कार्यक्रम चलता रहेगा लेकिन अमरीकी विदेशमंत्री जान एफ केरी ने कहा कि कि ऐसा नहीं हैं .इरान के परमाणु कार्यक्रम को बतौर अधिकार मान्यता नहीं दी गयी है .उनको आपसी बातचीत के बाद ही परमाणु कार्यक्रम जारी रखने का अधिकार है . जिनेवा में जिस समझौते पर दस्तखत हुए हैं वह अंतरिम समझौता  है जो जून तक के लिए मान्य है . इस बीच अमरीका और उसके साथियों को इरान के साथ एक स्थायी इंतजाम करना पडेगा .अगर ज़रूरी हुआ तो मौजूदा समझौते  को कुछ और समय दिया जा सकता है .बहरहाल अमरीका और इरान दोनों ही देशों को अपने लोगों के बीच समझौते तो स्वीकार्य बनाना है इसलिए उसकी अपने हिसाब से राजनीतिक व्याख्या की जाएगी. बाकी दुनिया को इसमें केवल यह रूचि है कि अमरीकी जिद के चलते जो तनाव की स्थिति बनी हुई थी फिलहाल उस पर एक विराम लग गया है .और शान्ति की संभावना बढ़ गयी है .अमरीकी राष्ट्रपति  बराक ओबामा का दावा है कि इस समझौते के बाद दुनिया अधिक सुरक्षित हो जायेगी .अब इस बात की जांच की जा सकती है कि इरान का परमाणु कार्यक्रम  शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए ही जारी रख सकेगा ,उससे हथियार नहीं बनाए जा सकेगें .
इस समझौते से भारत को भी कुछ उम्मीदें हैं . सरकारी तौर पर बताया  गया है कि पाकिस्तानी प्रधानमंत्री के राष्ट्रीय सुरक्षा और विदेशी मामलों के सलाहकार सरताज अज़ीज़ और इरान के विदेश मंत्री मुहम्मद जवाद ज़रीफ़ के बीच तेहरान में हुई बात चीत से पता चला है कि इरान से पाकिस्तान के रास्ते भारत आने वाले पाइपलाइन के प्रोजेक्ट पर फ़ौरन काम शुरू हो जाएगा . अमरीकी अड़चन के कारण इसपर काम नहीं हो रहा था. इस पाइपलाइन से इरान के पेट्रोलियम उत्पाद  भारत पंहुचने में सुविधा होगी और भारत को बहुत बड़ी बचत होगी. पाकिस्तान की चरमराती अर्थव्यवस्था को भी बहुत मदद मिलेगी .हालांकि पाकिस्तान के पास पाइपलाइन बनाने के लिए धन की कमी है और उसने इरान से दो अरब अमरीकी डालर का कर्ज माँगा है लेकिन एक बार राजनीतिक परेशानियों के हट जाने के बाद यह समस्या भी आसान हो जायेगी .
इरान के साथ अमरीका और अन्य देशों के समझौते का जश्न पश्चिमी दुनिया में मनाया जा रहा है लेकिन इस समझौते से एक तरह से परमाणु हथियारों की दुनिया में अपना दबदबा बनाए रखने की सुरक्षा परिषद के स्थायी देशों की मंशा ही सबसे स्थाई कारण नज़र आती है .अब अमरीका और उसके साथी देशों की समझ में आ गया है  कि इरान को दौन्दियाया नहीं जा सकता और शान्ति की तरफ केवल कूटनीतिक बातचीत के सहारे ही  चला जा सकता  है . इजरायल के दबाव में पिछले कई वर्षों से इरान पर पश्चिमी देशों की तरफ से लगाई गयी पाबंदियां भी के देश के हौसले को नहीं रोक पाईं . बहर हाल आखीर में उनकी समझ में आ  गया कि इरान से बातचीत करने का सही तरीका यह है कि उसको रियाया न समझा जाए ,उसके साथ बराबरी के स्तर पर बातचीत की जाए . अब अमरीका और उसके साथी देशों की कोशिश यही होनी चाहिए कि इस अंतरिम समझौते को स्थायी रूप देने के उपाय करें . हालांकि यह बहुत आसान नहीं होगा . सभी देश इस  चक्कर में हैं कि इरान से रास्ता खुलने के बाद ज्यादा से ज्यादा लाभ लिया जाये होगा लेकिन फिलहाल तो अमरीका को उस धन को इरान को वापस देना है जो उसने पाबंदियों के बहाने दुनिया के कई देशों की बैंकों में ज़ब्त करवा रखा है .
मौजूदा समझौते के बाद इरान का परमाणु संवर्धन का कार्यक्रम जारी रहेगा .दस्तावेज़ में लिखा  है कि शान्तिपूर्ण उद्देश्यों के लिए आपसी परिभाषा के आधार पर परमाणु संवर्धन का कार्यक्रम चलाया जाएगा . इरान की इस बात को संपन्न देश नज़रंदाज़ नहीं कर सके कि संपन्न दुनिया में बिजली की बड़ी ज़रूरत परमाणु संयत्रों से ही पूरी की जाती है और  समझौते में शामिल सभी देशो के अलावा अर्जेंटीना,ब्राजील, भारत,जापान ,नीदरलैंड्स ,उत्तरी कोरिया ,इजरायल और पाकिस्तान के पास भी पार्माणु संवर्धन के कार्यक्रम चल रहे  हैं . इरान ने वचन दिया है कि वह समझौते के छः महीनों में यूरेनियम का पांच प्रतिशत से ज्यादा का संवर्धन नहीं करेगा  या ३.५ प्रतिशत संवर्धन वाला जो उसका भण्डार है उसमें कोई वृद्धि नहीं करेगा . ३.५ प्रतिशत के संवर्धन पर ही बिजली पैदा की जा सकती है जबकि हथियार बनाने के लिए ९० प्रतिशत संवर्धन की ज़रूरत पड़ती है .इरान ने समझौते में पूरा सहयोग किया है . उसने अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी को अपने परमाणु ठिकानों की जाँच करने का पूरा अधिकार देने का वचन दिया है .इसके बदले में  अमरीका ,फ्रांस ,चीन, रूस, जर्मनी और ब्रिटेन ने इरान को वादा किया है कि वह उसके तेल पर लगाई गयी पाबंदियों ढील देगें . इरान से पेट्रोल के निर्यात पर जो पाबंदी लगी हुई है वह भी दुरुस्त की जायेगी . सुरक्षा परिषद में भी इरान के खिलाफ कोई पाबंदी  का प्रस्ताव नहीं लाया जाएगा . ओबामा की सरकार भी  इरान पर पाबंदियां लगाने या उसकी धमकी देने से बाज़ आयेगी. यह पाबंदियां इरान के परमाणु कार्यक्रम को रोकने के लिए लगाई  गयी थीं. वह तो कहीं रुका नहीं अलबत्ता इरान की जनता ने सारी तकलीफें झेलीं .अमरीका में कुछ लोग यह दावा कर रहे हैं कि पाबंदियों के चलते ही इरान की हुकूमत बातचीत करने पर राजी हुई है लेकिन उनकी बात बिलकुल गलत है . इरान ने अपनी शर्तों पर बातचीत का रुख अपनाया है . जिस परमाणु कार्यक्रम को रोकने के लिए सारी पाबंदियां लगाई जा  रही थीं वह अब पूरा सफल  कार्यक्रम  है और नए समझौते में उसको बाकायदा मान्यता दी गयी है .

अमरीका में इस समझौते के खिलाफ इजरायली लाबी की तरफ से किलेबंदी  शुरू हो गयी है . लेकिन  राष्ट्रपति बराक ओबामा भी उनको सस्ते नहीं छोड़ रहे हैं . उन्होंने कहा कि बड़ी बड़ी बातें करना राजनीतिक लिहाज़ से तो ठीक लग सकता है लेकिन राष्ट्र की सुरक्षा के मुद्दे पर अमरीकी कांग्रेस और सेनेट के नेताओं को ऐसी बातें नहीं करनी चाहिए .उन्होने कहा कि कूटनीतिक तरीकों से दुनिया की  सुरक्षा का बंदोबस्त करने की कोशिश को खत्म नहीं किया जाना चाहिए . अमरीका में हथियारों और इजरायली लाबी के लोगों की कोशिश है कि पश्चिम एशिया में शान्ति न पैदा हो लेकिन ओबामा की सरकार भी इस बात पर आमादा है कि शान्ति हर कीमत पर लानी है . अमरीकी विदेशमंत्री जान एफ केरी  भी समझौते के लिए जिनेवा में मौजूद थे और अब वे वाशिंगटन में हैं और अमरीकी संसद के सदस्यों से बातचीत का सिलसिला शुरू कर चुके हैं . छुट्टियों के बाद ९ दिसंबर को कांग्रेस का सत्र फिर से शुरू होगा और उसी दिन से ओबामा सरकार के अधिकारी काम पर लग जायेगें .इस समझौते के रास्ते में सबसे बड़ा अडंगा अमेरिकन इजरायल पब्लिक अफेयर्स कमेटी  नाम की इजरायली लाबी, की तरफ से आने वाला है . यह अमरीका में इजरायली हितों की सबसे ताक़तवर लाबी है . अब इनको यह तो मालूम ही है कि बराक ओबामा जब समझौता कर आये हैं तो उसको पलटा तो नहीं  जा सकता लेकिन यह ज़रूर निश्चित किया जा सकता है कि उसमें भारी अडचने पैदा की जाएँ . इस काम पर  यह लाबी लग चुकी है और कोशिश की जा रही है कि संसद की तरफ से ऐसी शर्तें लगवा  दें कि बात गड़बड़ा जाये. लेकिन अमरीकी सरकार इस लाबी को भी औकात  बताने के मूड में है .बराक ओबामा भी कुछ ऐसा कर गुजरना चाहते हैं जिस से  उनको आने वाली सदियों में याद किया जाए . वे अमरीकी लाबी समूहों को बहुत गंभीरता से नहीं ले रहे हैं क्योंकि उनको अब फिर से राष्ट्रपति पद के चुनाव का मैदान में नहीं उतरना है. इसलिए वे इस लाबी की उन कोशिशों को धता बता रहे हैं जिसमें मांग की जा रही है कि अगर इरान की तरफ से समझौते की शर्तों को लागू करने में कोई ढील बरती गयी तो और भी सख्त पाबंदियां लगा दी जाएँ .लेकिन ओबामा की सरकार का मानना है कि अब तक पाबंदियां लगाकर देख लिया है .आने वाले वक़्त में भी पाबंदियों के नतीजे शान्ति और सुरक्षा के हित में  नहीं होंगें .
अब समझौता हो गया है और सब को अपने हिसाब से अपनी जनता को समझाना है . इरान के नेता कह रहे हैं कि इस से तेल के निर्यात का मौक़ा मिलेगा और ज़ब्त धन वापस मिलेगा .जबकि साउदी अरब की सरकार ने उम्मीद जताई है कि अभी तो यह शुरुआत है , बाद में इरान के परमाणु कार्यक्रम को काबू में किया जा  सकेगा .बहरहाल एक अहम समझौता हो गया है और अब सुरक्षा और शान्ति का व्याकरण में एक नई इबारत लिख दी गयी  है .
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Wednesday, November 27, 2013

Airport privatisation: another scam in the making?

Shesh Narain Singh
The government of India has decided to hand over some airports built from public funds to the corporate sector. The government is going ahead with the plan although the department related Parliamentary Standing Committee on Transport, Tourism and Culture has put certain objections and they have been assured that the government will not do so.
A very senior officer in the Government of India informs that despite having given a solemn assurance to the parliamentary committee, the Ministry of Civil Aviation is going ahead and is in the process of inviting tenders to hand over the airports. For this purpose the government had set up a task force under the planning commission and three inter ministerial groups. These committees had recommended the development and operation of several metro, non-metro, greenfield and non-operational airports by private persons as the AAI finances are limited and there is need to tap revenue potential from ‘non-aeronautical services’ which Airports Authority of India will not be able to do due to its own constraints.
Sitaram Yechury is the chairman of the Standing Committee and all the important political parties including Congress and the BJP are represented on it. In its report, the committee does not agree with the government and has taken strong objection to the government’s decision. It has asked the government to take appropriate action to ensure that the loot of public funds is stopped herewith. The committee has cautioned the government to ensure that the Airports Authority of India ( AAI ) is not made a scapegoat and is allowed to function to perform its duty for the public good and is not compelled to work for the benefit of any private organization. The committee was unanimous in this.
The recommendations are direct and have put the government in a spot. The Committee does not agree with the Task Force and the Ministry that AAI will not be able to harness the potential for ‘non-aeronautical revenues’ from car parking, cargo facilities, hotels, passenger amenities, shopping etc. “due to its inherent constraints”. The report says that the Committee was neither informed specifically about those constraints, nor about the efforts made by the Government to enable AAI to overcome them. The Government has invested several thousand crores in modernizing these airports and now it is proposed to hand them over to private corporations. The Committee has recommend that instead of privatizing services at these airports, their management should be retained by AAI and a subsidiary of AAI or a Special Purpose Vehicle (SPV) can be formed for managing these airports. At the first instance AAI be allowed to operate the airports at Chennai and Kolkata and other non-metro airports for a few years.
The Committee was dismayed that instead of strengthening the AAI by giving it much needed financial and administrative autonomy to enable it to take its own decisions without being influenced by either the Ministry or the Planning Commission, a decision was taken to give the countries airports on platter to private parties. The report of the Committee says there is no logic behind privatizing all these airports after spending tax payers’ money for modernizing these airports. Public utilities created using public funds cannot be given to private parties for commercial considerations.
Officers of the Civil Aviation ministry submitted during the hearings that commercial space in the terminal buildings of both Chennai and Kolkata airports could not be utilized to generate revenue from the available huge space in terminal buildings. Entire blame for this has been laid on the Airports Authority of India and the Ministry had nothing to show for the efforts made by it to help AAI achieve this target. The Committee has noted the argument that large number of sub-optimal service contracts being awarded by AAI could also be eliminated if the operation and maintenance of the entire airport is granted to a single PPP concessionaire. The Committee does not agree with the government that AAI itself cannot be allowed to adopt a ‘single-agency model’ which the Ministry/Planning Commission is visualizing under the PPP mode.
The Committee is of the view that construction, operation and maintenance of airports should remain with Airports Authority of India. It should be empowered to take decisions to generate resources rather than handing over the core activities of the airports newly constructed with public money to the private players. The Committee has expressed its surprise on the unusual haste being shown in the process of privatization right from the constitution of Task Force, constitution of three Inter-Ministerial Groups (IMGs) one after another, placing the matter before Cabinet and obtaining its clearance, process of pre-bidding, etc.
The Standing Committee has recommended that AAI may be permitted to manage and operate all its airports, including the loss-making ones, with a rider that there should be time bound delivery of world class passenger services in a more efficient and transparent manner, matching with those being rendered by private airport operators.
The standing committee of the parliament is a powerful body but their recommendations are not binding. They have power only to recommend. When the committee system was introduced for the functioning of parliament it was assumed that the deliberations in the committee shall be deemed as good as the deliberations in the main chamber of the parliament but over the many years the shine of the standing committee is not the same as it used to be . The chairman of the committee Sitaram Yechury has expressed the hope that after his report the government will take appropriate action in the public and national interest.

Saturday, November 16, 2013

नरेंद्र मोदी का इतिहासबोध भी सरदार पटेल को आर एस एस का हमदर्द नहीं बना सकता



शेष नारायण सिंह 

आजकल आर एस एस / बीजेपी की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी अपनी पार्टी की राजनीति को इतिहाससम्मत बनाने के काम में जुटे हुए है . इस चक्कर में वे बहुत ऊलजलूल काम कर रहे हैं . अभी गुजरात में किसी भाषण में उन्होंने कह दिया कि उनकी पार्टी के संस्थापक डॉ श्यामा  प्रसाद मुखर्जी १९३० में स्विट्ज़रलैंड में मर गए थे जबकि इतिहास का कोई भी विद्यार्थी बता देगा कि डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मृत्यु १९५३ में कश्मीर में हुई थी. पटना के भाषण में उन्होंने कह दिया कि सिकंदर गंगा नदी तक आया  था. या कि तक्षशिला बिहार में था . मोदी जी की इन गलतियों का कारण यह है कि वे या इतिहास की सही जानकारी नहीं रखते और उनका दिमाग इस बात की कोशिश करता रहता है कि अपनी पार्टी को भी इतिहास की महान परंपरा से जोड़ने में सफलता हासिल करें .उनके ऊपर इस बात का दबाव है कि वे आज़ादी की लड़ाई के कुछ महानायकों के साथ अपनी पार्टी को भी जोड़ें . इस चक्कर में कभी वह मौलाना आज़ाद का नाम लेते हैं, कभी बाल गंगाधर तिलक का नाम लेते हैं लेकिन उनका दुर्भाग्य है कि यह सभी महान लोग आर एस एस में कभी नहीं रहे जबकि आज़ादी की लड़ाई के सारे महान नायक कांग्रेस में रह चुके हैं . मोदी  केवल एक प्वाइंट पर भारी पड़ते हैं कि कांग्रेस का मौजूदा नेतृत्व इंदिरा गांधी के परिवार के अलावा किसी का नाम नहीं लेता जबकि १९२० से १९५०  तक का कांग्रेस का इतिहास ऐसा है कि उस पर कोई भी गर्व कर सकता है और उसी  कालखंड का आर एस एस का इतिहास ऐसा है जिसे कोई भी गौरवशाली व्यक्ति अपना कहने में संकोच करेगा क्योंकि उसी दौर में भी महात्मा गांधी की हत्या हुई थी.

आज़ादी की लड़ाई के  नायकों को अपनाने की कोशिश आर एस एस और उसके मातहत संगठन अक्सर करते रहते हैं .२००९ में जब महात्मा गांधी की किताब हिंद स्वराज की रचना के सौ साल पूरे हुए तो आर.एस.एस. वालों ने एक बार फिर योग्य पूर्वजों की तलाश का काम शुरू कर दिया था. उस किताब के सौ साल पूरे होने के उपलक्ष्य में सेमीनार आदि आयोजित किये गए . करीब ३३ साल पहले महात्मा गांधी को अपनाने की कोशिश के नाकाम रहने के बाद उस प्रोजेक्ट को दफन कर दिया गया था लेकिन पता नहीं क्यों एक बार फिर महात्मा गांधी को अपनाने की जुगत चालू कर दी गयी थी. आर एस एस ने इस बार महात्मा गांधी के व्यक्तित्व पर नहीं उनके सिद्धांतों का अनुयायी होने की योजना शुरू किया है . हिंद स्वराज को अपनाने की स्कीम उसी रणनीति का हिस्सा है .।

आर एस एस की समस्या यह है कि उनके पास ऐसा कोई हीरो नहीं है जिसने भारत की आजादी में संघर्ष किया हो। एक वी.डी.सावरकर को आजादी की लड़ाई का हीरो बनाने की कोशिश की गई . जब संघ परिवार की केंद्र में सरकार बनी तो सावरकर की तस्वीर संसद के सेंट्रल हाल में लगाने में सफलता भी मिल गई लेकिन बात बनी नहीं क्योंकि 1910 तक के सावरकर और ब्रिटिश साम्राज्य से माफी मांगकर आजाद हुए सावरकर में बहुत फर्क है और पब्लिक तो सब जानती है। सावरकर को राष्ट्रीय हीरो बनाने की बीजेपी की कोशिश मुंह के बल गिरी। इस अभियान का नुकसान  हुआ क्योंकि जो लोग नहीं भी जानते थेउन्हें भी पता लग गया कि वी.डी. सावरकर ने अंग्रेजों से माफी मांगी थी और ब्रिटिश साम्राज्य की सेवा करने की शपथ ली थी।1980 में अटल बिहारी वाजपेयी ने गांधी को अपनाने की कोशिश शुरू की थी लेकिन गांधी के हत्यारों और संघ परिवार के संबंधों को लेकर मुश्किल सवाल पूछे जाने लगे तो योजना को छोड़ दिया  गया और कई साल तक महात्मा गांधी का नाम नहीं लिया। क्योंकि हिंद स्वराज में उन्होंने लिखा है - ''अगर हिंदू माने कि सारा हिंदुस्तान सिर्फ हिंदुओं से भरा होना चाहिएतो यह एक निरा सपना है। मुसलमान अगर ऐसा मानें कि उसमें सिर्फ मुसलमान ही रहेंतो उसे भी सपना ही समझिए। फिर भी हिंदूमुसलमानपारसीईसाई जो इस देश को अपना वतन मानकर बस चुके हैंएक देशीएक-मुल्की हैंवे देशी-भाई हैं और उन्हें एक -दूसरे के स्वार्थ के लिए भी एक होकर रहना पड़ेगा।" ज़ाहिर है यह आर एस एस बीजेपी की राजनीति के लिए कोई फायदे की बात नहीं है .
महात्मा जी ने अपनी बात कह दी और इसी सोच की बुनियाद पर उन्होंने 1920 के आंदोलन में हिंदू-मुस्लिम एकता की जो मिसाल प्रस्तुत कीउससे अंग्रेजी राज्य की चूलें हिल गईं। आज़ादी की पूरी लड़ाई में महात्मा गांधी ने धर्मनिरपेक्षता की इसी धारा को आगे बढ़ाया। शौकत अलीसरदार पटेलमौलाना अबुल कलाम आजाद और जवाहरलाल नेहरू ने इस सोच को आजादी की लड़ाई का स्थाई भाव बनाया। लेकिन अंग्रेज़ी सरकार हिंदू मुस्लिम एकता को किसी कीमत पर कायम नहीं होने देना चाहती थी। उसने जिन्ना जैसे लोगों की मदद से आजादी की लड़ाई में अड़ंगे डालने की कोशिश की और सफल भी हुए। महात्मा गांधी के १९२० के आंदोलन के बाद ही वी डी सावरकर की किताब “ हिंदुत्व “ को आधार बनाकर आर एस एस की स्थापना भी हुई.

बीच में कोशिश की गई कि आर.एस.एस. के संस्थापक डॉ के बी हेडगेवार के बारे में प्रचार किया जाय कि वे भी आजादी की लड़ाई में जेल गए थे लेकिन मामला चला नहीं। उल्टेजनता को पता लग गया कि वे जंगलात महकमे के किसी विवाद में जेल गए थे जिसे आर एस एस वाले अब वन सत्याग्रह नाम देते हैं . वन सत्याग्रह शब्द को सच भी मान लें तो आर.एस.एस. भी यह दावा कभी नहीं करता कि उसके संस्थापक १९२५ के बाद आजादी के किसी कार्यक्रम में संघर्ष का हिस्सा बने थे. हाँ कलकत्ता में कांग्रेस के सदस्य के रूप में वे शायद आज़ादी के संघर्ष में शामिल हुए रहे हों .। वन सत्याग्रह वाली बात को साबित करने के लिए आर एस एस की ओर से दिल्ली के किसी कालेज में काम करने वाले एक मास्टर साहेब की किताब का ज़िक्र किया जाता है . वे लोग बहुत जोर देकर बताते हैं कि कि वह किताब केन्द्र सरकार के प्रकाशन विभाग ने छापी है . हो सकता है कि सरकार ने किताब छापी हो लेकिन उस किताब का सोर्स क्या है इसपर कोई बात नहीं करता . 1940 में संघ के मुखिया बनने के बाद एम एस गोलवलकर भी घूमघाम तो करते रहे लेकिन एक दिन के लिए भी जेल नहीं गए। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौर में जब पूरा देश गांधी के नेतृत्व में आजादी की लड़ाई में शामिल था तो न तो आर.एस.एस. के प्रमुख एम एस गोलवलकर को कोई तकलीफ हुई और न ही मुस्लिम लीग के नेता मुहम्मद अली जिनाह को। दोनों जेल से बाहर की आजादी का सुख भोगते रहे।

जब संसद में सावरकर की तस्वीर लगाने के मामले पर एन.डी.ए. सरकार की पूरी तरह से दुर्दशा हो गई तो सरदार पटेल को अपनाने की कोशिश शुरू की गई ,जो आज तक चल रही है .  सरदार पटेल को अपनाने की आर.एस.एस. की हिम्मत की दाद देनी पडे़गी क्योंकि आर.एस.एस. को अपमानित करने वालों की अगर कोई लिस्ट बने तो उसमें सरदार पटेल का नाम सबसे ऊपर आएगा। सरदार पटेल ने ही महात्मा गांधी की हत्या वाले केस में आर.एस.एस. पर पाबंदी लगाई थी और उसके मुखिया गोलवलकर को गिरफ्तार करवाया था। जब हत्या में गोलवलकर का रोल सिद्ध नहीं हो सका तो उन्हें छोड़ दिया जाना चाहिए था लेकिन सरदार पटेल ने कहा कि तब तक नहीं छोड़ेंगे जब तक वह अंडरटेकिंग न दें। सरदार पटेल ने लिखित अंडरटेकिंग लेकर गोलवलकर को जेल से रिहा होने दिया था . सरदार पटेल  की एक दूसरी शर्त थी कि रिहाई के पहले आर एस एस का  एक लिखित संविधान भी बनाया जाए.संविधान बन भी गया लेकिन उसका इस्तेमाल केवाल अपने प्रमुख  की रिहाई मात्र था.वह कभी लागू नहीं हुआ. उस संविधान में लिखा गया है कि संघ वाले किसी तरह ही राजनीति में शामिल नहीं हो सकेंगे। उसके बाद राजनीति करने के लिए 1951 में जनसंघ की स्थापना हुई। १९७७ में भारतीय जनसंघ का  जनता पार्टी में विलय हुआ और उसी जनता पार्टी को तोड़कर बाद में भारतीय जनता पार्टी बनी जिसको आज लोग बीजेपी के नाम से जानते हैं ..

अपने को आज़ादी की लड़ाई से जोड़ने की कोशिश करने का काम पिछले दिनों बीजेपी और  आर एस एस की तरफ से प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी को सौंपा गया .नरेंद्र मोदी ने सबसे पहले तो सरदार पटेल को अपना साबित करने का अभियान चालू किया और उन्हें गुजराती तक कह डाला जबकि सरदार पटेल को किसी एक भौगोलिक सीमा में बांधना असंभव है . वे तो सारे देश के नेता थे.  सरदार पटेल को अपना सकना नरेंद्र मोदी के लिए बहुत मुश्किल साबित होने वाला है क्योंकि नरेंद्र मोदी की छवि एक ऐसे व्यक्ति की  है जिसके राज में २००२ में हज़ारों मुसलमानों को निर्दयता पूर्वक क़त्ल कर दिया गया था  और सरकार ने राजधर्म नहीं निभाया था. जबकि सरदार पटेल ने देश के विभाजन के बाद के हुए खून खराबे में लोगों को मुसलमानों की जान बचाने के लिए प्रेरित किया था . सरदार धर्मनिरपेक्षता के पक्षधर थे .केन्द्र सरकार के गृहमंत्री के रूप में सरदार पटेल ने 16 दिसंबर 1948 को घोषित किया कि सरकार भारत को ''सही अर्थों में धर्मनिरपेक्ष सरकार बनाने के लिए कृत संकल्प है।" (हिंदुस्तान टाइम्स - 17-12-1948)

सरदार पटेल को इतिहास मुसलमानों के एक रक्षक के रूप में भी याद रखेगा। सितंबर 1947 में सरदार को पता लगा कि अमृतसर से गुजरने वाले मुसलमानों के काफिले पर वहां के सिख हमला करने वाले हैं।सरदार पटेल अमृतसर गए और वहां करीब दो लाख लोगों की भीड़ जमा हो गई जिनके रिश्तेदारों को पश्चिमी पंजाब में मार डाला गया था। भारत के गृहमंत्री के साथ पूरा सरकारी अमला था और उनकी बेटी भी थीं। भीड़ बदले के लिए तड़प रही थी और कांग्रेस से नाराज थी। सरदार ने इस भीड़ को संबोधित किया और कहा, ''इसी शहर के जलियांवाला बाग की माटी में आज़ादी हासिल करने के लिए हिंदुओंसिखों और मुसलमानों का खून एक दूसरे से मिला था। ............... मैं आपके पास एक ख़ास अपील लेकर आया हूं। इस शहर से गुजर रहे मुस्लिम शरणार्थियों की सुरक्षा का जिम्मा लीजिए ............ एक हफ्ते तक अपने हाथ बांधे रहिए और देखिए क्या होता है।मुस्लिम शरणार्थियों को सुरक्षा दीजिए और अपने लोगों की डयूटी लगाइए कि वे उन्हें सीमा तक पहुंचा कर आएं।" सरदार पटेल की इस अपील के बाद पंजाब में हिंसा नहीं हुई। कहीं किसी शरणार्थी पर हमला नहीं हुआ. ज़ाहिर है कि इस राजनीतिक सोच के मालिक सरदार पटेल के जीवन में ऐसे सैकड़ों काम होंगें जो नरेंद्र मोदी या उनकी राजनीति के हित के साधन के लिए किसी काम के नहीं होगें . इसलिए आर एस एस की सरदार पटेल को अपनाने की कोशिश भी सफल  नहीं होने वाली है .ऐसी हालत में बेहतर यही होगा कि नरेंद्र मोदी समेत आर एस एस के बाकी लोग इतिहास को स्वीकार कर लें और उसे बदलने की कोशिश न करें .

Sunday, November 10, 2013

जवाहर लाल नेहरू के शिष्य थे डॉ राम मनोहर लोहिया

 
शेष नारायण सिंह 

आजकल देश के दो सबसे बड़े राज्यों में डॉ राम मनोहर लोहिया के अनुयायियों की सरकार है . उत्तर प्रदेश और बिहार के समाजवादी मुख्यमंत्रियों की सरकारें दावा करती पायी जाती हैं कि वे ही समाजवादी राजनीति के झंडाबरदार हैं . समाजवादी राजनीति ने इस देश को बहुत सारे चिन्तक दिए हैं . १९३६ में जब कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना हुई थी तो उसके सदस्यों में  ई एम एस नम्बूदिरीपाद , डॉ राम मनोहर लोहिया, आचार्य नरेंद्र देव , जयप्रकाश नारायण जैसे चिन्तक शामिल थे. कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी वास्तव में कांग्रेस का ही हिस्सा थी .इस वर्ग को कांग्रेस की राष्ट्रीय राजनीति में जवाहर लाल का ग्रुप माना जाता था . यह अलग बात है कि इस में शामिल सभी नेता जवाहर लाल नेहरू से किसी मायने में कम नहीं थे.अपने देश में  समाजवादी राजनीति को स्थापित करने का श्रेय कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के नेताओं को ही जाता है .
समाजवादी नेताओं में डॉ राम मनोहर लोहिया का मुकाम सबसे ऊंचा था. आज़ादी के  बाद कांग्रेस की सत्ता जब आम आदमी की हित साधक संस्था के रूप में अपनी पहचान गँवा बैठी तो डॉ लोहिया ने कांग्रेस की हर उस नीति का विरोध  किया जो  जनविरोधी थी . दो आम चुनावों के बाद जब उनको लगा कि कांग्रेस की सत्ता जड़ पकडती जा  रही है तो उन्होंने गैर कांग्रेस वाद का राजनीतिक सिद्धांत दिया और आर एस एस से सम्बद्ध राजनीतिक पार्टी ,भारतीय जनसंघ तक को साथ लेने में संकोच नहीं किया. इस रणनीति का असर भी हुआ और १९६७ के आम चुनाव के बाद उत्तर और पूर्वी भारत के  कई राज्यों से कांग्रेस की सत्ता बेदखल कर दी गयी. १९६७ की संविद सरकारें डॉ लोहिया की राजनीति की सफलता और उनकी राजनीतिक समझ की वैज्ञानिकता   का सबूत हैं .डॉ लोहिया की छवि आमतौर पर कांग्रेस विरोधी राजनेता की है. उन्होंने आज़ादी के बाद से कांग्रेस की पूंजीवादी नीतियों को ज़बरदस्त विरोध भी किया और जीवन के अंत तक कांग्रेस विरोध की राजनीति ही किया .
डॉ राम मनोहर लोहिया हमेशा से ही कांग्रेस विरोधी नहीं थे. डॉ लोहिया कभी महात्मा गांधी के बाद की पीढी के सबसे बड़े नेता के  शिष्य भी थे. डॉ लोहिया के सबसे बड़े अनुयायी और आज के समाजवादियों के शलाकापुरुष स्व मधु लिमये ने अपनी एक किताब में साफ़ लिखा है कि डॉ राम  मनोहर लोहिया  शुरू से लेकर आज़ादी मिलने  तक जवाहर लाल नेहरू के बहुत करीबी व्यक्ति थे. भारत की विदेश नीति को मूल रूप से जवाहर लाल नेहरू ने डिजाइन किया था .  भारत के समकालीन इतिहास का हर विद्यार्थी जनता है कि  विदेश नीति की जवाहर लाल की जो भी सोच थी उसमें डॉ राम मनोहर लोहिया का बहुत बड़ा योगदान था. जवाहर लाल नेहरू ने हर मंच पर लोहिया की तारीफ़ की और उनकी राय को महत्व दिया

हमारी पीढी के  लोगों के लिए यह सोच पाना बहुत मुश्किल है कि डॉ राम मनोहर लोहिया जैसा स्वतंत्रचेता व्यक्ति किसी का शिष्य हो सकता है .लेकिन जब डॉ लोहिया के सबसे प्रभावशाली अनुयायी ने अपनी एक अहम  किताब में लिखा है तो उसे मान लेने में कोई संकोच नहीं किया जाना चाहिए . जिस लेख का हवाला यहाँ लिया जा  रहा है कि वह मधु लिमये की किताब ," म्यूज़िंग्स ऑन करेंट प्राब्लम्स एंड पास्ट इवेंट्स ( १९८८) " में छपा हुआ है .  

मधु जी ने लिखा  है कि डॉ  लोहिया को कांग्रेस में शामिल करने का श्रेय सेठ जमनालाल बजाज को जाता है जो डॉ लोहिया के पिता जी के परिचित थे. जमनालाल बजाज उन दिनों कांग्रेस के  कोषाध्यक्ष भी थे. उन्होंने ही डॉ लोहिया को महात्मा गांधी से मिलवाया था और महात्मा जी ने जवाहर लाल नेहरू से राम मनोहर लोहिया को लखनऊ कांग्रेस के समय १९३६ में मिलवाया. . महात्मा गांधी के सुझाव पर उस साल जवाहर लाल नेहरू को कांग्रेस का अध्यक्ष चुन लिया गया था. वे ताज़ा ताज़ा जेल से छूट कर आये थे. लोहिया से उनकी मुलाक़ात कांग्रेस अध्यक्ष के टेंट में ही हुई. . उन्होंने डॉ लोहिया को समाजवादी  चिंतन धारा का उभरता हुआ सितारा कह कर संबोधित किया . . उन्होंने पूछा कि कि क्या लोहिया ने उनके अध्यक्षीय भाषण को पढ़ा है . डॉ लोहिया ने जवाब दिया कि वह एक नोबुल स्पीच है . इस तरह के विशेषण के प्रयोग से नेहरू चौंक  गए और बहुत खुश हुए . डॉ लोहिया ने कहा कि  कांग्रेस अध्यक्ष के रूप  में आपके सपने बहुत ही अच्छे हैं और लगता है कि आप कांग्रेस आन्दोलन में एक नया जीवन फूंकने के लिए तैयार हैं.इस समय डॉ लोहिया की उम्र केवल २६ साल की थी. कहते हैं कि इस मुलाक़ात के बाद जवाहर लाल नेहरू ने डॉ राम मनोहर लोहिया को अपना बहुत ही करीबी मानना शुरू कर दिया था. . लोहिया वास्तव में  जवाहर लाल नेहरू के बहुत बड़े प्रशंसक थे. लोहिया महात्मा गांधी के बहुत बड़े भक्त थे लेकिन गांधी के बाद उनके सम्मान के  हक़दार जवाहर लाल नेहरू ही थे. 
जवाहर लाल नेहरू  भी उन  नौजवानों से बहुत प्रभावित रहते थे जो विदेशी विश्वविद्यालाओं से शिक्षा ले कर आये थे . शायद इसीलिए उन्होंने डॉ लोहिया  को सम्मान देना शुरू किया था लेकिन बाद में वे  उनकी कुशाग्रबुद्धि से बहुत प्रभावित हुए थे. उन्होंने कहा कि राम मनोहर में वह शक्ति  है कि वे किसी भी विषय पर घंटों बात कर सकते थे  और तुर्रा यह कि बातचीत लगातार दिलचस्प बनी रहेगी. . नेहरू ने डॉ लोहिया को आल इण्डिया कांग्रेस कमेटी के विदेश विभाग का इंचार्ज बनाने का प्रस्ताव किया,जिसको वे  कांग्रेस के मुख्यालय में ही स्थापित करना चाहते थे. और लोहिया ने उस काम को तुरंत स्वीकार कर लिया . उन दिनों कांग्रेस का मुख्यालय इलाहाबाद में होता था .आल इण्डिया कांग्रेस कमेटी के विदेशी मामलों के सेक्रेटरी के रूप में डॉ लोहिया ने पूरी दुनिया के प्रगतिशील आन्दोलनों से संपर्क कायम किया . एक बुलेटिन भी निकालना शुरू किया और भारत की भावी विदेशनीति के बारे में कई पम्फलेट निकाले.. डॉ लोहिया के एक कम्युनिस्ट साथी ने कहा था कि जवाहर लाल के नए संगठन में डॉ लोहिया का काम आउटस्टैंडिंग था और डॉ लोहिया भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन के पहले विदेशमंत्री थे. लोहिया ने जवाहर लाल नेहरू  की आत्म कथा का  एक रिव्यू लिखा था जिसमें उन्होंने बताया कि  नेहरू ने दो दशकों में भारत की लड़ाई के हर मुकाम पर अपनी छाप छोडी है. जवाहर लाल ने समय की आत्मा को पहचान लिया है और उसको विकसित किया . दूसरे विश्व युद्ध  के पहले लिखी गयी इस पुस्तकसमीक्षा में हमारे समकालीन इतिहास की दो महान विभूतियों की सोच के बारे समझ को विकसित करने में सहयोग मिलता है .डॉ  लोहिया ने लिखा कि कि उनकी नज़र में जवाहर लाल का जीवन एक आदर्श  जीवन था. उन्होंने तय किया कि वे देश के लिए तकलीफ उठायेगें और उसे खुशी खुशी उठाया. . जवाहर लाल  ने एक ऐसा जीवन जीने का फैसला किया जिसका प्रगति पर हमेशा विश्वास  बना रहा.. वे उन्हें एक ऐसा आदमी मानते थे जो उनकी गिरफ्तारी के लिए आई हुई पुलिस की गाडी देख कर भी मुस्कुरा देते थे और पुलिस लाठीचार्ज के दौरान दोनों तरफ की क्रूरता को भी देखने की  क्षमता  रखते थे.. लोहिया के अनुसार जवाहर लाल के  जीवन को दो शब्दों में व्यक्त किया जा सकता  है ------ प्रयास और सौंदर्य 
कांग्रेस मुख्यालय में अपने काम से लोहिया बहुत जल्दी ऊब गए . वे एक सोशलिस्ट और एक कांग्रेस नेता के रूप में  देश के अलग अलग हिस्सों में जाकर काम करना चाहते थे . उन्होंने छोड़ने की पेशकश की लेकिन आचार्य जे बी कृपलानी ने कहा कि जब तक नेहरू यूरोप से नहीं वापस आते तब तक छोड़ना ठीक नहीं होगा. . जवाहर लाल की निजी ज़िन्दगी में उन दिनों बहुत परेशानी थी. उनकी पत्नी कमला नेहरू बहुत बीमार थीं और उनका विदेश में इलाज़ चला था. बाद में उनकी मृत्यु भी हो गयी थी.  यूरोप से आने के बाद जवाहर लाल ने  लोहिया  को कांग्रेस मुख्यालय के काम से छुट्टी तो दे दी लेकिन वे हमेशा डॉ राम मनोहर लोहिया को एक महान व्यक्ति और कुशाग्रबुद्धि नौजवान मानते  रहे. १९४० में अमेरिकन इंस्टीटयूट आफ पैसिफिक रिलेशंस ने जवाहर लाल से कहा कि वे कृपया किसी ऐसे भारतीय विद्वान का चुनाव कर दें जिसका स्तर बहुत ऊंचा हो ,जो पूर्वी एशिया के आर्थिक और राजनीतिक संबंधों के बारे में बहुत ही भरोसे के साथ लिख सकता हो तो जवाहर लाल नेहरू के दिमाग में केवल एक नाम  आया और वह नाम डॉ लोहिया का था. लेकिन उन्होंने चिट्ठी में लिखा है  कि अगर डॉ राम मनोहर लिखने के लिए तैयार हो जाएँ  तो उनसे अच्छा कोई नहीं है .

लखनऊ कांग्रेस के बाद डॉ लोहिया और जवाहर लाल नेहरू में सम्बन्ध बहुत अच्छे हो गए थे. . लखनऊ कांग्रेस के बाद कांग्रेस में पुरातनपंथी सोच वालों से नेहरू का भारी विवाद हुआ. नेहरू विरोधी कांग्रेस के हर मंच पर  बहुमत में थे.  अति वामपंथी रुझान के कांग्रेस सदस्य नेहरू की खूब आलोचना करते थे . इनमें कुछ लोग महात्मा गांधी की आलोचना भी करते रहते थे .सुभाष चन्द्र बोस , एम एन रॉय और अन्य कम्युनिस्टों के अनुयायियों की नज़र में महात्मा गांधी की सोच बिलकुल बेकार की थी . . इस दौर में जब महात्मा गांधी का विरोध करना वामपंथियों के लिए फैशन था, डॉ लोहिया ने महात्मा गांधी के नेतृत्व के बारे में जवाहरलाल नेहरू के मूल्यांकन को सही माना . १९३९ में जब कांग्रेस अध्यक्ष पद  के चुनाव के वक़्त कांग्रेस की टूट  का ख़तरा पैदा हो  गया तो डॉ राम मनोहर लोहिया ने कई लेख लिखे और आग्रह किया कि कांग्रेस को टूट से बचाना राष्ट्रहित में था. . उन्होंने कहा कि आज़ादी की लड़ाई की सफलता के लिए महात्मा गांधी  नेतृत्व एक ज़रूरी शर्त है .  उन दिनों गांधी के विरोधी वैकल्पिक नेतृत्व की बात करते थे . जवाहर लाल और लोहिया ने इस सोच को गलत बताया और इसे नाकाम करने के लिए काम किया  .

नेहरू और लोहिया में मतभेद के लक्षण पहली बार दूसरे विश्वयुद्ध के समय नज़र आने शुरू हुए .लोहिया की अगुवाई में  कांग्रेस के विदेश विभाग ने एक परचा तैयार किया था जिसमें लोहिया ने कहा कि दुनिया को चार वर्गों में  बांटा जा सकता है .पहले में पूंजीपति, फासिस्ट और साम्राज्यवादी ताकतें. दूसरे में वे देश जो साम्राज्य वादियों की प्रजा देश हैं और उनसे  छुटकारा चाहते हैं ,तीसरा वर्ग रूस के साथियों का है  जिसके साथ जो आम तौर पर समाजवादी हैं और चौथा वर्ग वह है जो साम्राज्यवादियों , पूंजीवादियों और फासिस्टों के शोषण का शिकार होने के लिए अभिशप्त हैं .बस इसी सोच में नेहरू और लोहिया के विवाद की बुनियाद है . यूरोप के पूंजीवादी देशों के वामपंथी  अरब देशों और पूर्वी एशिया के संघर्षों को भी फासिस्टों का  समर्थक मानते थे . जवाहर लाल की रुझान इन यूरोपियन वामपंथियों के साथ थी .  बहर हाल यहाँ से विवाद शुरू हुआ तो वह आखिर तक गया और दुनिया जानती  है कि बाद के वर्षों में डॉ राम मनोहर लोहिया ने नेहरू की आर्थिक नीतियों की धज्जियां बार बार उड़ाईं और आखिर में उनकी पार्टी के खिलाफ जो आन्दोलन सफल हुए उन सब की बुनियाद में डॉ लोहिया की राजनीतिक आर्थिक सोच वाला दर्शनशास्त्र ही स्थायी भाव  के रूप में मौजूद रहा. लेकिन इसके बाद भी मधु लिमये की उस बात में बहुत दम है कि डॉ राम मनोहर लोहिया और जवाहर लाल नेहरू ने इस देश में गरीब आदमी की पक्षधरता की  राजनीति की बुनियाद डाली थी. 

Monday, November 4, 2013

नार्वे में हिटलर का एजेंट क्विजलिन दुनिया भर में देशद्रोह का समानार्थी माना जाता है .



शेष नारायण सिंह

नार्वे के  चुनाव कवरेज के दौरान वहाँ के इतिहास के बहुत सारे पक्ष समझ में आये . बहुत लोगों से दोस्ती हुई , नेताओं को करें से देखने का मौक़ा मिला और ऐसे लोगों से मुलाक़ात हुई जो जिंदादिली को प्रेरित करते हैं .ऐसी ही एक मित्र हैं इल्जा मेरी ढल . पेशे से आर्किटेक्ट हैं  . वे जब पैदा  हुईं तो जर्मन कब्जा खतम हो चुका था . जर्मन कब्जा शुरू होने पर उनके पिता अमरीका में आराम की ज़िंदगी बिता रहे थे लेकिन जब उन्होंने सुना कि उनके मुल्क नार्वे पर जर्मन सेना ने कब्जा कर रखा है   तो वे अपने  देश आ गए . सिविल इंजीनियर के रूप में अमरीका में  काम करते थे  लेकिन ओस्लो वापस आकर जर्मन कब्जे के खिलाफ आंदोलन में शामिल हो गए . बहुत यातनाएं झेलीं और उसी संघर्ष एक दौरान एक बहादुर साथी से शादी की . वह उम्र में उनसे बहुत छोटी थीं लेकिन लड़ाई में साथ साथ थीं . जब जर्मन सेना चली गयी तो हिटलर को तबाह करने के लिए जुटे हुए नार्वेजियन लोगों को किले के पास समुद्र के किनारे अस्थायी बैरक बना कर बसाया गया. नार्वे के मौसम को जो लोग जानते हैं उनको मालूम है कि कि बिना सही हीटिंग वाले घर में रहना कितना मुश्किल होता है लेकिन अपने देश को तानाशाही से आज़ाद कराने वालों का  हौसला इतना ज़बरदस्त था कि इन्होने कभी परवाह नहीं की. कुछ  वर्षों के अंदर ही तहस नहस कर दिए गए ओस्लो शहर में फिर से ज़िंदगी आ गयी और शहर बस गया . इल्जा बताती हैं कि शुरू में जिस घर में यह लोग रहते थे उसमें ज़रा सा भी पानी तुरंत बर्फ बन जाता था .नार्वे पर यह मुसीबात हिटलर ने डाली थी लेकिन उसका एजेंट विद्कुन क्विजलिन था . इस अधम को नार्वे क्या पूरी दुनिया का सभ्य समाज कभी भी माफ नहीं करेगा .

विद्कुन क्विजलिन नाजी इतिहास का एक ऐसा सितारा है जिसका नाम किसी को गाली देने के लिए इस्तेमाल किया जाता है .नाजी तानाशाह हिटलर ने उसको पाल रखा था और नार्वे के लोगों को उसकी मार्फ़त ही नाजी आतंकवाद का सबक सिखाया था . जब हिटलर ने नार्वे पर कब्जा किया तो उसने इसी विद्कुन क्विजलिन को वहाँ का शासक बना दिया था . विद्कुन क्विजलिन  नार्वे की राजनीति में सक्रिय बहुत ही महत्वाकांक्षी राजनेता था लेकिन हिटलर के एजेंट के रूप में उसने अपने लोगों पर तरह तरह के अत्याचार किये और हिटलर की मनमानी का वाहक बना . यह भी सच है कि नाजियों की मनमानी को नार्वे की अवाम ने कभी स्वीकार नहीं किया लेकिन नार्वे की जनता के संघर्ष और विद्कुन क्विजलिन की तबाही एक ऐसा उदाहरण है जिसको बाद की दुनिया में इस बात का संकेत देने के लिए इस्तेमाल किया जायेगा कि अपने देश की तबाही के लिए किसी फासिस्ट तानाशाह का साथ नहीं देना चाहिए . विद्कुन क्विजलिन की कमीनगी ओस्लो शहर के हर कोने में नज़र आती है लेकिन आम तौर पर उसका ज़िक्र नहीं किया जाता . उसका घर आज होलोकास्ट म्यूज़ियम है और लोग उसके नाम पार थूकते हैं


इसी सितम्बर २०१३ में ओस्लो की यात्रा के दौरान  नार्वे के लोगों की जिंदादिली और उनकी इंसानियत के बहुत सारे किस्से मैं बयान करता रहा हूँ लेकिन जब किसी कौम पर हिटलर नाजिल होता है ,और उसी कौम के किसी महत्वाकांक्षी नेता को पकड़कर गद्दार बनाता है और  इंसानी ज़िंदगी को अँधेरे से भर देने की कोशिश करता है तो सभ्य लोगों की नार्वेजी कौम किस तरह से मुकाबला करती है ,  उसको समझने के लिए विद्कुन क्विजलिन  के कैरेक्टर को समझना ज़रूरी है . विद्कुन क्विजलिन  को तबाह करने और  हिटलर का मुकाबला करने के लिए  नार्वेजियन अवाम ने अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया था . उस संघर्ष ने  इतिहास में नार्वेजी अवाम की बहादुरी को एक संगमील के रूप में स्थापित कर दिया है .जब नाजी जर्मन सेना ने नार्वे पर हमला किया तो यह क्विजलिन हिटलर से जा मिला और तख्ता पलट करके नार्वे की सत्ता हथिया ली. क्विजलिन वहाँ हिटलर के एजेंट के रूप में ही काम करता रहा .उसने सत्ता तो जर्मन सेना के आगमन के साथ ही १९४० में हथिया लिया था लेकिन हिटलर ने उसे बाकायदा मिनिस्टर प्रेसीडेंट बनाकार १९४२ में स्थापित किया . विद्कुन क्विजलिन  ने हिटलर के कुख्यात फाइनल सालुशन को लागू किया . हिटलर की तबाही के बाद विद्कुन क्विजलिन  पर मुकादमा चला और वह देशद्रोह का दोषी पाया गया . ओस्लो के एकरहुस किले में उसको फायरिंग स्क्वाड के सामने खडा करके गोली मारकर सज़ा दी गयी .

विद्कुन क्विजलिन कोई मामूली आदमी नहीं था . वह बहादुर था और नार्वे की सेना का भरोसेमंद अफसर था .अपनी सरकार की ओर से वह रूस भी गया था और नार्वे के हेलसिंकी दूतावास में भी उच्च पद पर काम कर चुका था . नार्वेजी समाज में उसकी इज्ज़त थी . एक बार तो नार्वे के सबसे सम्मानित व्यक्ति फ्रिदोफ़ नानसेन ने ही उसको सम्मान देकर यूक्रेन की राजधानी भेजा था . नानसेन  वह व्यक्ति हैं जो नार्वे के सबसे प्रिय खेल , स्कीइंग के बहुत बड़े नाम हैं और जिनको १९२२ का नोबेल शान्ति पुरस्कार मिल चुका है और जो आधुनिक नार्वे के संस्थापकों में माने जाते हैं . नानसेन की दोस्ती का विद्कुन क्विजलिन  ने बहुत जगहों पर फायदा उठाया . मई १९३० में नानसेन की मृत्यु के बाद उसने अखबारों में नानसेन के बाद की राजनीति की रूपरेखा लिखी और नार्वे के लोगों  को बताने की  कोशिश की कि किस तरह से नानसेन के सपनों का नार्वे बनाया जा सकता है  . लेकिन जब उनको अग्रेरियन  सरकार में रक्षा मंत्री बनने का मौका लगा तो नानसेन की विचारधारा को भूलकर वहाँ जा लगे. हर फासिस्ट तानाशाह की तरह विद्कुन क्विजलिन भी कम्युनिस्टों से नफरत करते थे . उसने कम्युनिस्टों से नफरत के कारण ही १९३३ में एक पार्टी बनायी और उसी राष्ट्रवादी पार्टी के साथियों को हिटलर की नार्वे योजना का हिस्सा बना दिया . उसकी नई पार्टी का नाम नैशनल समलिंग था और इसका नारा राष्ट्रीय एकता था. उसने प्रधानमंत्री पर सीधा हमला किया और नार्वे के सबसे लोकप्रिय नेता के रूप में पहचान बनायी . पूरे नार्वे में जहां भी वह जाता था उसकी जयजयकार होती थी  क्योंकि एक अलोकप्रिय प्रधानमंत्री को हटाने की बात को वह बहुत ही प्रभावशाली तरीके से कह रहा था . क्विजलिन की पार्टी भी जर्मनी की नाजी पार्टी की तरह एक व्यक्ति की अथारिटी को स्थापित करने की बात करती थी. उसने नारा दिया कि राजनीतिक मतभेदों को भुलाकर एक नेता को समर्थन दिया जाए . ओस्लो के संभ्रांत वर्ग का समर्थन क्विजलिन को ज़बरदस्त तरीके से मिल रहा था और यह शक जताया का रहा था कि पूंजीपति वर्ग उसे बड़े पैमाने पर समर्थन दे रहे हैं क्योंकि उसके प्रचार में भारी धन खर्च होता साफ़ नज़र आ रहा था .
चुनाव के बाद साफ़ हो गया कि जितना प्रचार था क्विजलिन की पार्टी उतनी लोकप्रिय नहीं थी और उसके बाद उसने अपने तरीके के राष्ट्रीय समाजवाद की स्थापना के लिए काम शुरू किया .चुनाव में मिली असफलता के बाद क्विजलिन  बहुत गुस्से में रहता था . उसने अपने आपको विदेशी फासिस्ट पार्टियों के दोस्त के रूप में पेश करना शुरू किया . दिसंबर १९३४ में वह  अंतर्राष्ट्रीय फासिस्ट सम्मेलन में भी गया .वहाँ उसकी मुलाक़ात जर्मनी की नाजी पार्टी के नेताओं से हुई. १९३६ के चुनाव में उसको नार्वे के हिटलर के रूप में पहचान मिल चुकी थी . यही वह समय है जब हिटलर को पूरी दुनिया के राष्ट्रवादी लोग सम्मान की दृष्टि से देखते थे . भारत में भी राष्ट्रवादी विचारधारा वाले हिटलर की तारीफ़ में किताबें उसी दौर में लिखते पाए गए थे .
१९३६ के चुनाव में भी क्विजलिन की पार्टी बुरी तरह से हार गयी , खिसियाकर  उसने चुनाव के खिलाफ राजनीतिक बयान देना शुरू कर दिया . इस बीच १९३९ तक यूरोप में युद्ध की दस्तक सुनायी पड़ने लगी थी . उसने नारा दिया कि बोल्शेविज़्म और यहूदी राज से बचने के लिए नार्वे को हिटलर का साथ देना चाहिए .हिटलर ने क्विजलिन की पार्टी को खूब धन दिया और नार्वे में उसको अपने प्रतिनिधि के रूप में स्थापित करने की कोशिश शुरू कर दी .जर्मनी से धन मिलने के बाद क्विजलिन को भरोसा  हो गया कि आने वाले समय में वही देश का नेतृत्व करेगा .जब उसको बताया जाता कि उसकी पार्टी के पास तो कोई एम पी नहीं  है ,वह हंस कर टाल जाता .
१४ दिसंबर १९३९ को क्विजलिन ने जर्मनी जाकर हिटलर से मुलाक़ात की . हिटलर ने क्विजलिन की योजनाओं को गंभीरता से नहीं लिया लिए लेकिन उसको लगा कि आदमी काम का है . १८ दिसंबर को फिर दोनों  मिले और क्विजलिन को हिटलर के सहयोगी के रूप में भर्ती कर लिया गया .उसके बाद पूरे यूरोप में राजनीतिक गतिविधियां हिटलर के पक्ष  या विपक्ष में घूमती रहीं . ९ अप्रैल १९४० के दिन सुबह नार्वे के ऊपर जर्मन हमला हुआ , नार्वे के राजा और प्रधानमंत्री ने शहर छोड़ दिया था . उसी दिन  क्विजलिन ने नार्वे की एक नई सरकार बनायी और ९ अप्रैल को उसी सरकार ने जर्मन सेना का स्वागत भी कर लिया .लेकिन हिटलर ने देखा  कि क्विजलिन के खिलाफ लगभग सारा नार्वे है तो उसने उसे धोखा दे दिया और अपनी फौज के अधिकारियों के हाथ में सत्ता दे दी . क्विजलिन को बेईज्ज़त भी किया गया लेकिन बाद में उसको साथ लेकर जर्मन सेना ने काम शूरू किया . नार्वे के राजा ने हिटलर का कोई सहयोग नहीं किया . और उन्होंने अपनी प्रजा का आवाहन किया कि वह जर्मन कब्जे के खिलाफ  संघर्ष करे .
इस बीच १ फरवरी १९४२ के दिन क्विजलिन को जर्मनी ने मिनिस्टर प्रेसीडेंट बना दिया और  नार्वे की सत्ता उसको सौंप दी. लेकिन नार्वे की जनता ने उसको कभी स्वीकार नहीं किया उसका विरोध होता रहा. जर्मन सेना भी उसे कठपुतली की तरह नचाती रही और जब १९४५ में जर्मन सेना नार्वे छोड़कर भागी तो क्विजलिन तबाह हो चुका था.उसको गिरफ्तार किया गया ,उसके ऊपर मुकादमा चला और सुप्रीम  कोर्ट तक अपील की गयी . उसे दोषी पाया गया और समुद्र के किनारे स्थिति एकरहुस किले में फायरिंग स्क्वाड के सामने खड़े करके भून दिया गया .  उसकी पत्नी मारिया जीवित रहीं, १९८० में  उनकी  मृत्यु प्राकृतिक रूप से हुई . क्विजलिन  को राष्ट्रद्रोह के पर्याय के रूप में उसे इतिहास याद रखेगा . नार्वे के सहनशील समाज ने उसकी सकारात्मक  व्याख्या करने की कोशिश भी की है  लेकिन उसने नार्वे पर जो मुसीबत बरपा की थी और जिस तरह से नार्वे के लोगों ने उससे मुकाबला किया वह संघर्ष के इतिहास में अमर रहेगा