Wednesday, August 26, 2009

यह पब्लिक है, सब जानती है

समाज के हर वर्ग की तरह मीडिया में भी गैर जिम्मेदार लोगों का बड़े पैमाने पर प्रवेश हो चुका है। एक किताब आई है जिसमें जिक्र है कि किस तरह से हर पेशे से जुड़े लोग अपने आपको किसी मीडिया संगठन के सहयोगी के रूप में पेश करके अपना धंधा चला रहे हैं। काई कार मैकेनिक है तो कोई काल गर्ल का धंधा करता है, कोई प्रापर्टी डीलर है तो कोई शुद्घ दलाली करता है।

गरज़ यह कि मीडिया पर बेईमानों और चोर बाजारियों की नजर लग गई है। इस किताब के मुताबिक ऐसी हजारों पत्र पत्रिकाओं का नाम है जो कभी छपती नहीं लेकिन उनकी टाइटिल के मालिक गाड़ी पर प्रेस लिखकर घूम रहे हैं। इस वर्ग से पत्रकारिता के पेशे को बहुत नुकसान हो रहा है लेकिन एक दूसरा वर्ग है जो इससे भी ज्यादा नुकसान कर रहा है। यह वर्ग ब्लैकमेलरों के मीडिया में घुस आने से पैदा हुआ है।

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से खबर है कि एक न्यूज चैनल ने कुछ ठेकेदारों के साथ मिलकर एक सरकारी अफसर और उसकी पत्नी के अंतरंग संबंधों की एक फिल्म बना ली और उसे अपने न्यूज चैनल पर दिखा दिया। अफसर का आरोप है कि चैनल वालों ने उससे बात की थी और मोटी रकम मांगी थी। पैसा न देने की सूरत में फिल्म को दिखा देने की धमकी दी थी। चैनल वाले कहते हैं कि वह अफसर का वर्जन लेने गए थे, पैसे की मांग नहीं की थी।

चैनल वालों के इस बयान से लगता है कि अगर पति-पत्नी के अंतरंग संबंधों की फिल्म हाथ लग जाय तो उनके पास उसे चैनल पर दिखाने का अधिकार मिल जाता है। यह बिलकुल गलत बात है और इसकी निंदा की जानी चाहिए। चैनल की यह कारस्तानी रायपुर से छपने वाले प्रतिष्ठित अखबारों में छपी है और देश के कई महत्वपूर्ण वेबसाइट भी इस चैनल की गैर जि़म्मेदार कोशिश को सामने ला रहे हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि मीडिया संस्थान के नाम पर ब्लैकमेलर बिरादरी पर लगाम लगाने की कोशिश इसी मामले से शुरू हो जायेगी।

मौजूदा मामले में संबंधित अफसर प्रधानमंत्री ग्राम सड़क परिजयोजना के नए मुख्य अधिकारी के रूप में तैनात हुआ था। अफसर का आरोप है कि वे ठेकेदारों की आपसी राजनीति का शिकार बने हैं और उनको फंसाने के लिए साजिश रची गई थी। आरोप यह भी है कि तथाकथित न्यूज चैनल वाले भी अफसर को सबक सिखाने के लिए साजिश में शामिल हो गए थे। इस मामले से अफसर की पत्नी भी बहुत दुखी है कि उसके अपने पति के साथ बिताए गए अंतरंग क्षणों को सार्वजनिक करके चैनल ने उसका और उसके नारीत्व के गौरव का अपमान किया है।

सूचना क्रांति के आने के बाद मीडिया की पहुंच का दायरा बहुत बढ़ गया है। अगर कहीं भी कोई गैर जिम्मेदार और नासमझ व्यक्ति बैठ जाता है तो पूरी पत्रकारिता के पेशे की बदनामी होती है। इसलिए जरूरत इस बात की है कि मीडिया संगठनों से जुड़े लोग अपनी आचार संहिता बनाए और उसका सख्ती से पालन किया जाए। यह जरूरत बहुत वक्त से महसूस की जा रही है लेकिन अब यह मामला बहुत ही अर्जेंट हो गया है । इस पर फौरन काम किए जाने की जरूरत है और अगर ऐसा न हुआ तो सरकार इस मामले में दखल देगी और वह बहुत ही बुरा होगा क्योंकि सरकारी बाबू हमेशा इस चक्कर में रहता है कि अपने से सुपीरियर काम करने वालों को नीचा दिखाए।

इसमें दो राय नहीं है कि पत्रकारिता का पेशा सरकारी बाबू के पेशे से ऊंचा है। सरकारी बाबू के पास पत्रकारों को अपमानित करने की अकूत क्षमता होती है। 1975 में इमरजेंसी लगने पर इस बिरादरी ने करीब 19 महीने तक इसका इस्तेमाल किया था और लगने लगा था कि प्रेस की स्वतंत्रता नाम की चीज अब इस देश में बचने वाली नहीं है। बहरहाल इमरजेंसी की अंधेरी रात के खत्म होने के बाद गाड़ी फिर से चल पढ़ी। लेकिन जहां भी सरकारी बाबू वर्ग की दखल है उन मीडिया संस्थानों की दुर्दशा दुनिया को मालूम है।

इसलिए मीडिया क्षेत्र के मानिंद लोगों को चाहिए कि पत्रकारिता के नाम पर अन्य धंधा करने वालों पर लगाम लगाने के लिए फौरन से पेशतर कोशिश शुरू कर दें। वरना बहुत देर हो जायेगी।
यहां इस बात को ध्यान में रखना होगा कि मीडिया में दलालों का प्रवेश बहुत बड़े पैमाने पर हो चुका है। इसलिए यह काम बहुत ही मुश्किल है, निहित स्वार्थ के लोग अडंग़ा लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। इसलिए इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए क्रांतिनुमा कोई कोशिश की जानी चाहिए और मीडिया के काम से प्रभावित होने वाले हर वर्ग की भागीदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए।

मीडिया के काम से सबसे ज्यादा प्रभावित तो आम जनता ही होती है जनता को मालूम रहता है कि कौन पत्रकार कहां हेराफेरी कर रहा है, और मीडिया संगठन कहां बेईमानी कर रहा है लेकिन जनता बोलती नहीं। इस स्थिति को समाप्त किए जाने की जरूरत है। और अगर जनता की भागीदारी हो गई तो मामूली तनख्वाह पाने वाले पत्रकारों के महलनुमा मकानों, बैंकों में जमा करोड़ों रुपयों और बच्चों की शिक्षा पर खर्च किए जा रहे लाखों रुपयों पर भी नजर जायेगी जिसके बाद चोरी और हेराफेरी करने वाले पत्रकार और मीडिया संगठन अलग-थलग पडऩे लगेंगे। इसलिए जरूरी है कि ज्यादा से ज्यादा लोग इस मुहिम में शामिल हों।

अगर जनता शामिल होगी तो मुकामी पत्रकार और मीडिया संगठन मजबूरन सच्ची रिपोर्ट देंगे। वैसे भी पत्रकार की आत्मरक्षा का सबसे बड़ा हथियार सच ही है। जब तक वह सच के सहारे रहेगा कोई भी उसका बाल बांका नहीं कर सकता लेकिन जहां उसने गलतबयानी की, मीडिया को दुरुस्त करने के आंदोलन में शामिल पब्लिक उसके लिए मुश्किल कर देगी क्योंकि उसे तो सच्चाई मालूम ही रहेगी।

रायपुर के मुकामी लोगों को आज भी मालूम होगा कि अफसर और उसकी पत्नी के निजी क्षणों को सार्वजनिक करने का अपराधी कौन है लेकिन वह रूचि नहीं लेते। लेकिन अगर उनको भी मीडिया की सफाई के मिशन में शामिल कर लिया जाय तो वे रूचि लेंगे और इससे पत्रकारों और प्रेस की प्रतिष्ठा में वृद्घि होगी।

न्यायपालिका की पवित्रता में इज़ाफा

जजों की संपत्ति का मामला बहस के दायरे में आ गया है। न्यायपालिका को एक पवित्र संस्था माना जाता है। आजादी के बाद संविधान सभा की बहसों में उस वक्त के महान नेताओं को भरोसा था कि न्यायपालिका के रखवाले अपना काम ईमानदारी से करेंगे और उनकी आर्थिक स्थिति कभी भी विवाद का विषय नहीं बनेगी। इसलिए यह परंपरा बनी कि जजों की संपत्ति को मुकदमे बाजी का विषय नहीं बनने दिया जायेगा।

जब राजनीतिक नेताओं और बेईमान अफसरों ने घूस के जरिए अकूत संपत्ति बनाना शुरू किया तो जनमत के दबाव के चलते ऐसे कानून बने कि उनको ईमानदार बनाए रखने के लिए कानून का डंडा चलाया गया। नेताओं को तो हलफ नामा देकर अपनी संपत्ति घेषित करने का कानून बन गया और वह सूचना सार्वजनिक भी कर दी जाती है। लेकिन ऐसी जरूरत नहीं पड़ी थी कि जजों के बारे में ऐसा कानून बनाया जाय। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में जजों के भ्रष्टïाचार के बहुत सारे मामले अखबार में छपे हैं। पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के एक जज साहब के ऊपर तो महाभियोग की तैयारी भी हो गई थी, उसी हाईकोर्ट की एक जज पिछले साल नकद रिश्वत लेने के मामले में भी चर्चा में आ गई थीं।

कलकत्ता हाईकोर्ट के जज साहब भी विवादों के घेरे में हैं लेकिन कानून ऐसे हैं कि बहुत कुछ किया नहीं जा सकता बहुत सारे फैसले भी विवाद का विषय बन गए हैं। कुल मिलाकर माहौल ऐसा बना कि हाईकोर्ट और सुप्रीमकोर्ट के जजों पर भी मीडिया या अन्य मंचो पर भ्रष्टाचार से संबंधित बहसों का सिलसिला शुरू हो गया। मांग उठने लगी कि जजों की संपत्ति सार्वजनिक की जाय और उसे सार्वजनिक डोमेन में डाला जाय। इस बात के लागू होने में सबसे बड़ा खतरा यह है कि ईमानदार जजों के सामने परेशानी खड़ी हो सकती है लेकिन उससे भी बड़ा खतरा न्यायपालिका के भ्रष्टाचार का है। पिछले कुछ वर्षों से तो कुछ लोग सुप्रीम कोर्ट के जजों पर भी उंगली उठाने लगे हैं।

और जाने अनजाने जजों की विश्वसनीयता पर सवाल उठ रहे हैं। यह हमारे देश के जनतंत्र के लिए ठीक नहीं है। इस विवाद पर विराम देने के लिए सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश केजी गोपालकृष्णन ने स्थिति को स्पष्टï करते हुए कहा कि अवांछित विवादों से बचाने के लिए जजों की संपत्ति की घोषणा तो हो सकती है लेकिन उसे सार्वजनिक नहीं किया जाना चाहिए। माना जहा रहा था कि बहस यहीं खत्म हो जायेगी लेकिन कर्नाटक हाईकोर्ट के जज, न्यायमूर्ति डीवी शैलेंद्र कुमार ने एक अखबार में लेख लिखकर मामले को गंभीर बहस के दायरे में ला दिया।

जस्टिस कुमार ने भारत के मुख्य न्यायधीश की अधिकार सीमा पर ही सवाल उठा दिया। उन्होंने कहा कि सुप्रीमकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को यह अधिकार नहीं है कि वे जजों की संपत्ति की घोषणा और उसको सार्वजनिक करने के बारे में बात करें। उन्होंने यह भी कहा कि यह अवधारणा गलत है कि ऊंची अदालतों के जज अपनी संपत्ति को सार्वजनिक नहीं करना चाहते। उन्होंने कहा कि वे तो चाहते हैं कि उनकी सारी संपत्ति का ब्यौरा हाईकोर्ट की वेबसाइट पर डाल दिया जाय। जस्टिस कुमार की बात को न्यायविदों के बीच बहुत गंभीरता से लिया जा रहा है और उसकी तारीफ भी हो रही है। लेकिन भारत के मुख्य न्यायाधीश, न्यायमूर्ति के जी गोपालकृष्णन ने न्यायपालिका के आंतरिक मामलों की इस बहस को सार्वजनिक करने के न्यायमूर्ति कुमार के तरीके को ठीक नहीं माना और कहा कि इस तरह का आचरण एक जज के लिए ठीक नहीं है।

न्यायमूर्ति गोपालकृष्णन ने कहा लगता है कि कर्नाटक हाईकोर्ट के जज जस्टिस डीवी शैलेंद्र कुमार प्रचार के भूखे हैं। उन्होंने अपने बयान के बारे में बताया कि अगर कोई जज अपनी संपत्ति की जानकारी सार्वजनिक करना चाहता है तो उसे मैं नहीं रोकूंगा लेकिन जहां तक सभी जजों के बारे में बोलने के अधिकार की बात है, उसमें बहस की कोई गुंजाइश नहीं है। भारत के मुख्य न्यायाधीश होने के नाते उन्हें यह अधिकार उपलब्ध है।

बाकी दुनिया की लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में भी ऐसे ही होता है। जजों की संपत्ति के बारे में दबी जबान से चर्चा तो बहुत दिनों से चल रही थी लेकिन इस पर बहस नहीं होती थी। भारत के मुख्य न्यायाधीश ने इस मामले पर अपनी बात को मीडिया के माध्यम से बहस के दायरे में लाकर एक बहुत ही प्रशंसनीय काम किया है। कर्नाटक हाईकोर्ट के जज, जस्टिस कुमार ने बहस को अखबारी बहस का विषय बनाया तो कुछ अन्य जज अपनी अंतरात्मा की आवाज़ सुनकर संपत्ति के इस विवाद में शामिल हो रहे हैं।

पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के जज, न्यायमूर्ति के कन्नन ने अपनी संपत्ति की सार्वजनिक घोषणा कर दी है। उन्होंने अपने ब्लॉग पर सारी जानकारी डाल दी है। और सुप्रीम कोर्ट के वकील प्रशांत भूषण को चिट्ठी लिखकर अपनी पत्नी और अपने नाम अर्जित की गई सारी संपत्ति का ब्यौरा दे दिया है। प्रशांत भूषण ही जजों के भ्रष्टाचार के बारे में आंदोलन चला रहे हैं। उधर चेन्नई से खबर है कि मद्रास हाईकोर्ट के एक जज भी अपनी संपत्ति की सार्वजनिक घोषणा कर रहे हैं। इस सारे घटनाक्रम का स्वागत किया जाना चाहिए और देश को भारत के मुख्य न्यायाधीश का आभार व्यक्त करना चाहिए जिन्होंने इतने नाजुक मसले पर बहस का माहौल बनाया। इससे न्यायपालिका की विश्वसनीयता को बहुत ताकत मिलेगी।