Monday, August 26, 2013

सुरेशचंद्र शुक्ल के साथ नार्वे में घूमना हज़रतगंज जैसा लगता है




शेष नारायण सिंह


नार्वे में पंहुचने के साथ ही काम में जुट गया इसलिए एक मिनट के लिए नहीं लगा कि कुछ बदला है. हालांकि यहाँ भी घर से बाहर निकलने पर तो सब कुछ बिलकुल अलग लगता है ,अजनबी शहर बेगाना लगता है लेकिन जो तीन चार रिपोर्टें अब तक लिखी हैं उनको अपने वतन में लोग पसंद कर रहे हैं . खासकर जब आप नार्वेजियन  भाषा न जानते हों .यहाँ का जुगराफिया न जानते  हों और नार्वे के बारे में कुछ भी न जानते हों . लेकिन रिपोर्ट पढकर शक होता है कि किसी जानकार की रिपोर्ट है . यह इसलिए संभव हुआ कि यहाँ रहने वाले मेरे एक मित्र ने बहुत मदद की .उनके कारण ही यह संभव हुआ . मुझ पर लाजिम है कि मैं ओस्लो के अपने दोस्त सुरेश चन्द्र शुक्ल के व्यक्तित्व के बारे में  कुछ बताऊँ .

२० अगस्त को मैं ओस्लो  पंहुचा था और २१ अगस्त को सुरेश चन्द्र शुक्ल ने मुझे काम पर लगा दिया . मेरे घर के पास के मेट्रो स्टेशन पर मिल गए और मुझे साथ लेकर एक चुनावी सभा में चले गए . उसके पहले अपने घर ले गए थे . वाइतवेत के उनके घर में एक मिनट के लिए भी नहीं लगा कि किसी पराये देश में हैं . हालांकि मैं खाना खाकर गया था लेकिन जब उन्होंने  बिना मुझसे पूछे और बिना किसी पूर्व सूचना के भोजन पर आमंत्रित कर दिया तो मुझे लगा कि अपनी अवधी तहजीब के किसी धाकड़ नमूने के घर आ गया हूँ और किसी भराधी बैठकबाज़ से मुलाक़ात हो गयी है .उनकी पत्नी , माया जी ने सामने लाकर खाना रख दिया ,लगाकि सुल्तानपुर के अपने घर में बैठा हूँ .अपनैती की हद देखने को मिली. पेट में जगह नहीं थी लेकिन आग्रह ऐसा कि मना नहीं कर सका. गले तक भोजन के बाद सुरेश जी के साथ निकल पड़े, ओस्लो के किसी उपनगर में एक चुनावी प्रचार  का जायज़ा लेने . वहाँ  बोली गयी कोई बात समझ में नहीं आई लेकिन  सुरेश शुक्ल के बताने के आधार पर रिपोर्ट लिखी ,साथ घूमते रहे और शाम तक वापस आया गए . आजकल ओस्लो  का मौसम ऐसा है जिसमें करीब आठ बजे सूर्यास्त हो रहा है , रात नौ बजे तक गोधूलि वेला जैसा उजाला रहता है.
सुरेश चन्द्र शुक्ल का एक और नाम शरद आलोक है लेकिन ओस्लो की सडकों पर जो भी उन्हें जानता है वह उन्हें शुक्ला जी ही कहता है . हिंदी और नार्वेजी भाषा के पत्रकार और साहित्यकार होने के अलावा सुरेश शुक्ल नार्वे की राजनीति में भी दखल रखते हैं .ओस्लो की नगर पार्लियामेंट में सोशलिस्ट लेफ्ट पार्टी ( एस वी ) की ओर से सदस्य रह चुके हैं . २००७ में ओस्लो टैक्स समिति के सदस्य थे  और २००५ में हुए पार्लियामेंट के चुनाव में  सोशलिस्ट लेफ्ट पार्टी के उम्मीदवार के रूप में राष्ट्रीय चुनाव में शामिल हो चुके हैं . नार्वेजियन जर्नलिस्ट यूनियन और इंटरनैशनल  फेडरेशन और जर्नलिस्ट्स के सदस्य हैं . इसके  अलावा बहुत सारे भारतीय और नार्वेजी संगठनों के भी सदस्य हैं . डेनमार्क और कनाडा के कई साहित्यिक संगठनों से जुड़े हुए हैं.अपनी ही कहानियों पर आधारित टेलीफिल्म ,तलाश , नार्वे और कनाडा की संयुक्त  फिल्म ‘कनाडा की सैर’ ,आतंकवाद पर आधारित हिंदी लघुफिल्म ‘ गुमराह ‘ बना चुके  हैं . एक शिक्षाविद के रूप में भी उनकी पहचान है . ओस्लो विश्वविद्यालय  ,कोपेनहेगन विश्वविद्यालय,अमरीका का कोलंबिया विश्वविद्यालय और महात्मा गांधी संस्थान, मारीशस में विजिटिंग प्रोफ़ेसर के रूप में आमंत्रित किये जा चुके हैं . नार्वे की कई साहित्यिक और सांस्कृतिक संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर हैं.
साहित्यकार के रूप में भी सुरेश चन्द्र शुक्ल ‘ शरद आलोक ‘ जाने माने नाम हैं. भारत में भी बहुत सारी पत्रिकाओं और अखबारों  में इनके साहित्यिक काम को छापा और सराहा  गया है .इनका पहला काव्य संग्रह १९७६ में ही भारत में छप गया था तब शायद इंटर में पढते थे . उसके बाद हिंदी और नार्वेजी भाषाओं में उनके दस और काव्य प्रकाशित  हुए. १९९६ में उनका पहला कहानी संग्रह छपा था ,अब तक कहानियों के  कई संकलन वे संपादित कर चुके हैं ., नार्वे के सबसे नामवर साहित्यकार हेनरिक इब्सेन के १९४५ के बाद के साहित्य का उन्होंने गहराई से अध्ययन किया है . ओस्लो विश्वविद्यालय के छात्र के रूप में उन्होंने इसी विषय पर विशेष अध्ययन किया था . नार्वे के साहित्य खासकर इब्सेन के  लेखन का सुरेश शुक्ल ने अनुवाद भी खूब किया है .उन्हें बहुत सारे पुरस्कार भी मिल चुके हैं ,भारत में भी और नार्वे में भी .
एक साहित्यकार और राजनीतिक नेता के रूप में ऐसे बहुत से लोग मिल जायेगें जो सुरेश चन्द्र शुक्ल से बड़े होंगें और केवल इस विशेषता के कारण मैं उनसे प्रभावित  नहीं हुआ. यह सारी बातें तो बहुत सारे लोगों में हो सकती हैं , मैं दिल्ली में रहता हूँ और इस तरह के बहुत लोग मिलते हैं जो साहित्यकार भी हैं और राजनेता भी .  लेकिन सुरेश चन्द्र शुक्ल में जो खास बात है वह बिलकुल अलग है और वह है उनका बेबाकपन, अदम्य साहस और किसी भी हाल में मस्त  रहने की क्षमता . मैंने इस बारीकी को समझने  के लिए उनको कुरदने का फैसला किया और सारा रहस्य परत दर परत खुलता चला गया और साफ़ हो गया कि यह आदमी जो मुझे लेकर ओस्लो की सड़कों और ऐतिहासिक स्थलों पर घूमता हुआ गप्प मार रहा है वह कोई मामूली आदमी नहीं है और उसके गैरमामूलीपन की शुरुआत बचपन में ही हो चुकी थी . आपने १९७२ में लखनऊ से हाई स्कूल की परीक्षा पास की थी. दसवीं का तीन साल का कोर्स शुरू तो १९६९ में  ही हो गया था जब आप कक्षा ९ पास करके दसवीं में भरती हुए थे . लेकिन १९७० में फेल हो गए . इनके साथ दो साथी और थे जो इनकी  तरह की बाकायदा फेल हुए थे . बहरहाल तीनों मित्रों ने १९७१ में पास होने के लिए खूब मेह्नत से पढाई शुरू की लेकिन भाग्य  को कुछ और ही मंज़ूर था , सुरेश शुक्ल बीमार हो गए . उनके घनिष्ठ मित्रों ने कहा कि जब हमेशा का साथ  है तो एक साथी को छोड़कर अगली क्लास में  नहीं जायेगें . लिहाजा उन दोनों ने भी इम्तिहान छोड़ दिया और साथ साथ फेल हुए . जब दोस्ती की यह कथा परवान चढ़ रही थी तो इन दोस्तों के माता पिता बहुत दुखी हो रहे थे . सुरेश के पिता ने चेतावनी दे दी कि अब पढाई खत्म करो और नौकरी शुरू करो. सुरेश शुक्ल ने लखनऊ के सवारी डिब्बे के कारखाने में काम शुरू कर दिया और खलासी हो गए. जब १९७२ में दसवीं की परीक्षा हुई तो तीनों ही मित्र पास हो गए थे . तीनों को नौकरी मिल चुकी थी . तो इन लोगों ने तय किया कि अब जो बच्चे तीन साल फेल होने के बाद दसवीं  की परीक्षा  पास करने की कोशिश करेगें उसको यह आर्थिक मदद करेगें . इस काम के लिए इन लोगों ने अपने वेतन से पैसा जोड़कर एक फंड बनाया जिस से तीन बार फेल होने वाले धुरंधरों की मदद की जायेगी . दो एक लोगों को वायदा भी किया . मदद भी की . इस बीच इनके किसी दोस्त की बहन भी तीन बार फेल  हो गयी . फंड के संचालक तीनों मित्र उसके घर पंहुच गए और मित्र की माँ के पास पंहुच गए . और चाची को प्रणाम करके बैठ गए. चाची ने चाय पिलाने के लिए जैसे ही रसोई में प्रवेश किया हमारे शुक्ल की ने उनसे बच्ची के फेल होने पर सहानुभूति जताई और कहा कि आप चिंता मत कीजियेगा . हमने एक फंड बनाया है जिसका उद्देश्य उन बच्चों की पढाई का खर्च उठाना है जो दसवीं में तीन साल फेल हो चुके हों. चाची आगबबूला हो गयीं और चाय भूलकर झाडू हाथ में लेकर  इन तीनों धर्मात्माओं को दौड़ा लिया और जब बाकी लोगों ने इनको समझाया कि महराज आपके इस फंड की कृपा से बच्चों में फेल होने के लिए उत्साह बढ़ेगा तो इनकी समझ में आया कि कहीं कोई गलती हो रही थी और वह फंड अकाल मृत्यु को प्राप्त हुआ . कहने का मतलब  यह है कि लीक से हटकर काम करने की प्रवृत्ति सुरेश चन्द्र शुक्ल के अंदर शुरू से ही थी.
रेलवे में नौकरी करते हुए सुरेश चन्द्र शुक्ल ने लखनऊ के कान्यकुब्ज वोकेशनल कालेज से बी ए पास किया , १९७८ में रेलवे ने इनको कानपुर भेजकर वर्कर-टीचर की ट्रेनिंग करवाया .हालांकि रेलवे में यह तरक्की कर रहे थे ,खलासी से शुरू करके छः साल में फिटर हो गए थे  लेकिन मन नहीं लग रहा था , कोल्हू के बैल की तरह की ज़िंदगी शुक्ल जी को कभी पसंद नहीं थी.और फिर इनकी ज़िंदगी में एक नया अध्याय शुरू होने वाला था . शुक्ल जी ने नौकरी पर अचानक जाना बंद कर दिया और २६ जनवरी १९८० के दिन हवाई जहाज़ से उड़कर ओस्लो पंहुच गए . हवाई जहाज़ इसलिए लिख रहा हूँ कि इनके बड़े भाई साहेब कुछ वर्ष पहले साइकिल से ओस्लो की यात्रा कर चुके थे और यहीं रह रहे थे. नार्वे जाने का इनका कारण केवल यह था उन दिनों भारत से नार्वे आकर कोई भी बिना वीजा के तीन महीने के लिए रह सकता था . इनको कुछ नहीं मालूम था कि यहाँ की ज़िंदगी की शर्तें क्या हैं , भाई से मदद की कोई खास उम्मीद नहीं थी.लेकिन ओस्लो पंहुच कर बिना कोई वक़्त गंवाए आप भारतीय दूतावास पंहुच गए और वहाँ आयोजित गणतंत्र दिवस के कार्यक्रम में दर्शक के रूप में शामिल हो गए. यहाँ आकर सुरेश शुक्ल फ़ौरन काम से लग गए . सबसे पहले नार्वेजी भाषा सीखने के लिए नाम लिखा लिया , दो साल के अंदर यहाँ की भाषा सीख गए. भाषा के सभी पहलू सीखे ,ग्रामर , टाइपोग्राफी,फोनेटिक्स सब सीखा . उसके बाद नार्वेजी साहित्य की पढाई के  लिए ओस्लो विश्वविद्यालय में नाम लिखा लिया . सुरेश चन्द्र शुक्ल १९४५ के बाद के नार्वेजी साहित्य के मास्टरपीस रचनाओं के विशेषज्ञ हैं और नार्वे में उनकी पहचान इसी रूप में है .

ज़िंदगी के हर मोड पर संघर्ष को गले लगाते हुए सुरेश चन्द्र शुक्ल ‘ शरद आलोक ‘ आगे बढते जा रहे थे लेकिन इस आदमी ने अपने सेन्स आफ ह्यूमर को हमेशा साथ रखा . पढाई के साथ साथ ओस्लो से प्रकाशित होने वाली हिंदी की पत्रिका ‘परिचय’ मे  काम करते हुए उनको कुछ आमदनी भी होने लगी थी . शुक्ल जी ने २००० क्रोनर में एक पुरानी कार खरीदी,. इस कार के कारण उन्होंने  कुछ दोस्तों को हमेशा साथ रखने का फैसला किया क्योंकि कार कहीं भी रुक जाती थी तो उसे धकेलने के लिए कुछ वालिंटियर चाहिए होते थे . उसी ज़रूरत के तहत ओस्लो में शुक्ल जी कुछ साथियों के साथ हमेशा ही  घूमते पाए जाते थे. पत्रकार के रूप में ज़िंदगी शुरू हो चुकी थी. २ हज़ार क्रोनर में कार खरीदने वाले शुक्ल जी को वीडियो देखने का शौक़ था और आप ९ हज़ार क्रोनर का वीडियो प्लेयर खरीद लाये  लेकिन टी वी  नहीं था . इस्तेमालशुदा चीज़ों के बाज़ार में जाकर इन्होने एक टी वी खरीदा लेकिन उसमें पिक्चर तो दिखती थी , आवाज़ नहीं आती थी . पुराना सामान इस शहर में वापस नहीं किया जा सकता उसकी कोई गारंटी भी नहीं होती . इसलिए इन्होने तय किया कि अब एक और टी वी खरीदेगें जिसमें आवाज़ सुनायी पड़े. इस तरह से एक वीडियो प्लेयर , और २ टी वी मिलकर नार्वे के राजधानी में गोमती के किनारे से ओलमा नदी के शहर ओस्लो में पंहुचा  पंहुचा यह नौजवान ज़िंदगी की परेशानियों को मुंह चिढा रहा था. बाद में अपनी पत्रिका भी शुरू कर दी .१९८८ में शुरू की गयी उनकी हिंदी और नार्वेजी भाषाओं में छपने वाली पत्रिका स्पाइल दर्पण में आज भी नए लेखकों को महत्व दिया जाता है . हिंदी में लिखने वाले यूरोप में बहुत से साहित्यकार मिल जायेगें जिनकी कृतियाँ इस पत्रिका में सबसे पहले छपी थीं.
ऐसी बहुत सारी कहानियाँ हैं जो सुरेशचंद्र शुक्ल शरद आलोक को बाकी दुनिया से अलग कर देती हैं .इस सारी लड़ाई में उनकी पत्नी माया जी उनके साथ जमी रहीं और अपने बच्चों को बेहतर ज़िंदगी देने की अपने मकसद में कामयाबी के झंडे फहरते रहे . आज उनके सभी बच्चों में भारत और  नार्वे के संयुक्त संस्कारों के कारण शिष्टाचार की सभी अच्छाइयां हैं . वाइतवेत के उनके घर में हिंदी और उर्दू के बहुत से साहित्यकार आ चुके हैं , कुछ ने तो यहीं पर अपना ओस्लो प्रवास भी  बिताया .हिंदू उर्दू के बड़े साहित्यकारों में शुक्ल जी सबसे ज़्यादा कादम्बिनी के तत्कालीन संपादक राजेन्द्र अवस्थी क एहसान मानते हैं क्योंकि अवस्थी जी ने कादम्बिनी में इनकी रचनाएं छापकर इन्हें प्रोत्साहन दिया था . कमलेश्वर , इन्द्रनाथ चौधरी ,रामलाल ( लखनऊ के उर्दू के अदीब ),कुर्रतुल एन हैदर ,श्याम सिंह शशि,गोपीचंद नारंग ,सत्य नारायण रेड्डी ,भीष्म नारायण सिंह , सरोजिनी प्रीतम बाल्सौरी रेड्डी इनके मेहमान रह चुके हैं . नोबेल शान्ति पुरस्कार का संस्थान ओस्लो में ही है . आपकी मुलाक़ात यहाँ पर नेल्सन मंडेला , दलाई लामा, अमर्त्य सेन, आर्च बिशप डेसमंड टूटू से कई बार हुई है और जब नोबेल शान्ति पुरस्कार के एक सौ साल पूरे होने पर जश्न मनाया गया था तो जिन विभूतोयों को बुलाया गया था उनमें सुरेशचंद्र शुक्ल शरद आलोक भी शामिल थे .
यह है अपना दोस्त जो आज भी जब किसी से मिलता है को उसकी मस्ती और उसका बांकपन लोगों को उसका बना देता है. बातचीत करते हुए लगता ही नहीं कि जिस व्यक्ति से बात कर रहे हैं वह उन्नाव के एक कस्बे अचल गंज से चलकर ओल्मा नदी के तीरे  बसे इस शहर में बहुत लोगों का दोस्त है और यूरोप और अमरीका सहित विश्व हिंदी सम्मलेन में शामिल होने वाले प्रतिष्ठिति लोगों के बीच भी सम्मान से जाना जाता है. लेकिन अपना रिश्ता थोडा अलग है . नार्वे के ऐतिहासिक स्थलों पर उनके साथ गूमकर लगता था  कि जैसे लखनऊ के हजरतगंज में घूम रहे हों .