Wednesday, February 29, 2012

पुलिस का काम अब कानून व्यवस्था ही होगा, जाँच और मुक़दमे कोई और चलाएगा

शेष नारायण सिंह

नई दिल्ली,२८ फरवरी. अपराध की जांच और अभियुक्तों पर मुक़दमा चलाने की प्रक्रिया में बहुत बड़े परिवर्तन की संभावना है . केंद्र सरकार ने तय किया है कि अब अपराध की जांच करने वाले लोग जांच करके मामले को मुक़दमा चलाने वाले विभाग को सौंप देगें. अब पुलिस वाले केवल कानून वयवस्था देखेगें और अपराध की जांच और अभियोजन के लिए अलग विभाग बनाया जायेगा . राज्य सकारों से केंद्र सरकार इस सम्बन्ध में लगातार संपर्क में है .गृह मंत्रालय ने कहा है कि इस सुधार के लिए विधि आयोग से अनुरोध किया किया गया है क वह जल्द से जल्द प्रक्रिया को दुरुस्त करने के लिए अपने सुझाव दे. सरकार का दावा है कि ऐसा होने के बाद इंसाफ़ मिलने में होने वाली देरी को बहुत ही कम किया जा सकेगा.

केंद्र सरकार क्रिनिनल प्रोसीजर कोड में परिवर्तन की बात बहुत दिनों से कर रही है . इस सन्दर्भ में २०१० में एक बिल भी संसद में लाया गया था जिसे गृह मंत्रालय का काम देखने वाली संसद की स्थायी समिति को विचार करने के लिए भेज दिया गया था, स्थायी समिति ने अपनी रिपोर्ट दे दी है .रिपोर्ट में कहा गया है कि अपराधिक न्याय की प्रक्रिया की बड़े पैमाने पर समीक्षा की जानी चाहिए और उस बात को ध्यान में रखते हुए संसद में एक नया बिल लाना चाहिए .केंद्र सरकार की मंशा है कि आपराधिक न्याय से सम्बंधित सभी कानूनों की समीक्षा की जानी चाहिए . भारतीय दंड संहिता, साक्ष्य अधिनियम , क्रिमिनल प्रोसीजर कोड सहित सभी कानूनों में बदलाव की ज़रूरत है . अपराध और न्याय के प्रशासन के बारे में विधि आयोग की सिफारिशें अभी नहीं मिली हैं

अपने मंत्रालय से सम्बद्ध संसद सदस्यों की सलाहकार समिति के बैठक के बाद गृहमंत्री पी चिदंबरम ने बताया कि केंद्र सरकार की इच्छा है कि समय के साथ साथ तकनीक की प्रगति के सन्दर्भ में भी साक्ष्य अधिनियम में बद्लाव की ज़रुरत है . इस ज़रुरत को ध्यान में रख कर ही अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधान मंत्रित्व काल में सन २००० में गृह मंत्रालय ने आपराधिक न्याय व्यवस्था में सुधार के लिए कर्नाटक हाई कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया . इस कमेटी से केंद्र सरकार ने सुझाव मांगे थे. कमेटी ने मार्च २००३ में रिपोर्ट दे दिया था . अपराध की जांच और उस से समबन्धित विषय राज्य सरकारों के अधीन होते हैं इसलिए इन सिफारिशों पर राज्य सरकारों की मर्जी के बिना कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता था . इसीलिए कमेटी की रिपोर्ट को राज्य सरकारों के पास भेज दिया गया था.विधि आयोग की १९७वी रिपोर्ट भी मिल चुकी है . केंद्र सरकार ने इस रिपर्ट पर भी राज्यों से उनकी राय माँगी है . .

विधि आयोग ने अपराध के प्रशासन की दिशा में बड़े बदलाव की बात की है . सुझाव दिया है कि अपराध की जांच के काम को पुलिस के मौजूदा ढाँचे से बिकुल अलग कर दिया जाना चाहिए . कानून व्यवस्था संभालने में ही पुलिस का सारा समय लग जाता है इसलिए अपराध की जांच का काम एक अलग विभाग को दे दिया जाना चाहिए . यह भी पुलिस की तरह का विभाग होगा लेकिन इस विभाग के काम का दायरा तब शुरू होगा जब अपराध हो चुका होगा.अपराध को होने से रोकना और चौकसी रखना शुद्ध रूप से पुलिस के हाथ में होना चाहिए . जांच के काम में सुधार के लिए भी बहुत सारे तरीके सुझाए गए हैं .इन सुझावों में यह भी बताया गया है कि फर्जी मुक़दमे दर्ज करवाने वालों के खिलाफ भी सख्त कार्रवाई होनी चाहिए

जनता की सेवा में बहुत मेवा है . उर्फ़ कैसे कमाए जाते हैं करोड़ों रूपये

शेष नारायण सिंह


नई दिल्ली,२७ फरवरी. उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के सातवें दौर के उम्मीदवारों में भी हर दौर ही तरह अपराधी भी खूब हैं और करोडपति भी खूब. नैशनल इलेक्शन वाच और लोकतांत्रिक सुधार के काम में लगी संस्थाओं के परिश्रम से ऐसे आंकडे लगातार सामने आ रहे हैं जो आम आदमी को अपने उम्मीदवारों के बारे में बेहतर जानकारी देते रहेगें. इस दौर के भी आंकड़े आ गए हैं . पिछले दौर में जिन लोगों ने चुनाव लड़ा था उनकी संपत्ति में खूब इजाफा हुआ है . सातवें दौर के उन ४७ उम्मीदवारों की संपत्ति का विश्लेषण किया गया है जो इस बार भी चुनाव लड़ रहे हैं . इन ४७ उम्मीदवारों की औसत संपत्ति पिछली बार १ कारोड़ १३ लाख रूपये की थी जबकि इन्हीं उम्मीदवारों की संपत्ति इस दौर में ४ करोड़ ७४ लाख रूपये हो गयी है . इस का मतलब यह हुआ कि पिछले ५ वर्षों में इनकी संपत्ति की विकास की दर ३२० प्रतिशत रही है .

सबसे संपन्न उम्मीदवार रामपुर की स्वार सीट से कांग्रेस के उम्मीदवार नवाब काजिम अली खां हैं जिनकी संपत्ति इस बार ५६ करोड़ ८९ लाख रूपये हैं जबकि पिछली बार इनकी संपत्ति ९ करोड़ १८ लाख रूपये थी. यानी पिछले ५ वर्षों में इनकी संपत्ति में ४७ करोड़ ७० लाख रूपये का इजाफा हुआ है . पिछली बार यह बी एस पी से लड़े थे.दूसरे नंबर पर सहसवान क्षेत्र के धर्म पाल यादव हैं जिनकी संपत्ति में भी भारी वृद्धि हुई है . २००७ में इनके पास १४ करोड़ ४२ लाख रूपये थे जबकि इस बार इन्होने अपने हलफनामे में ४७ करोड़ ७२ लाख रूपये की संपत्ति का ऐलान किया है . अजित सिंह की पार्टी के उम्मीदवार शाहनवाज़ राना भी खूब फले फूले हैं . २००७ में इनके पास २ करोड़ २ लाख रूपये थे जबकि इस बार यह १७ करोड़ ९९ लाख के मालिक हैं .

सबसे दिलचस्प केस बी एस पी के दातागंज के उम्मीदवार सिनोद कुमार शाक्य का है . २००७ में इनके पास केवल ९ लाख ६० हज़ार रूपये थे जबकि इस बार इन्होने हलफनामा दिया है कि इनके पास ३ करोड़ १ लाख रूपये की संपति है . पिछले पांच वर्षों में इनकी दौलत में ३०४६ प्रतिशत की वृद्धि हुई जबकि निघासन क्षेत्र के उम्मीदवार, समाजवादी पार्टी के आर ए उस्मानी की संपत्ति में १५०० प्रतिशत की वृद्धि हुई .इनके पास २००७ में ९ लाख २० हज़ार रूपये थे जबकि इस बार इनके कब्जे में १ करोड़ ४७ लाख रूपये की दौलत है. समाजवादी पार्टी के ही महबूब अली खां भी खूब कमाई करने में सफल रहे हैं .इनकी दौलत भी १३९१ प्रतिशत की वृद्धि हुई है .

उम्मीदवारों के हलफनामों को देखने से लगता है कि नए उम्मीद्वार तो कुछ ऐसे हैं जिनके पास बहुत कम धन है लेकिन जो एक बार लड़ चुका है या विधायक रह चुका है वह करोड़पति ज़रूर हो गया है .नैशनल इलेक्शन वाच की कोशिश है कि यह जानकारी जो उम्मीदवारों ने अपना परचा दाखिल करते समय चुनाव अधिकारी के पास जमा किया है उसे मीडिया के ज़रिये आम आदमी तक पंहुचाया जाय जिस से सबको मालूम हो सके कि जनता की सेवा में कितना मेवा है .

उत्तर प्रदेश चुनाव के आख़िरी दौर में तय होगी सांप्रदायिक राजनीतिक की दशा दिशा

शेष नारायण सिंह

उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव के पांच चरण पूरे हो जाने के बाद चुनावी मुकाबला निर्णायक दौर में पंहुच गया है . शुरू के चार दौर में आम तौर पर मुकाबला समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच ही रहा, कहीं कहीं कांग्रेस या बीजेपी की मौजूदगी भी देखी गयी. दिलचस्प बात यह है कि नेहरू गांधी परिवार के मज़बूत किले रायबरेली और अमेठी में भी कांग्रेस अस्तित्व की लड़ाई जैसी हालत में नज़र आई .लेकिन पांचवें दौर में कांग्रेस और बीजेपी की मौजूदगी मुख्य मुकाबले में पंहुच गयी . छठे और सातवें दौर में भी मुख्य रूप से लड़ाई समाजवादी और बहुजन समाज पार्टी के बीच बतायी जा रही है लेकिन बीजेपी और कांग्रेस यहाँ कुछ चुनिन्दा सीटों पर जीत की स्थिति में हैं .ज़ाहिर है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश और रूहेलखंड में मुकाबले त्रिकोण नहीं रह जायेगें . यहाँ सभी मुकाबला चारों पार्टियों के बीच होने जा रहा है .यही वह इलाका है जहां मुसलमानों का वोट सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है क्योंकि पूर्वी उत्तर प्रदेश की तुलना में यहाँ मुसलमान ज्यादा संपन्न है . मुस्लिम प्रभाव का इलाका होने की वजह से राजनीतिक पार्टियां इसी इलाके में मुसलमानों को टिकट देने में भी प्रथमिकता दिखाती हैं .सपा, बसपा और कांग्रेस के बीच इसी इलाके में मुसलमानों का हमदर्द बनकर वोट मांगने की कोशिश साफ़ नज़र आती है . इसी इलाके में बसपा ने बहुत सारी सीटों पर मुसलिम उम्मीदवारों को टिकट दिया है . उसकी योजना है कि बसपा के बुनियादी दलित वोट के साथ अगर मुस्लिम वोट मिल जाएगा तो पार्टी की जीत सुनिश्चित हो जायेगी. लेकिन ऐसा होना इसलिए संभव नहीं नज़र आ रहा है कि कांग्रेस और समाजवादी पार्टी ने भी बड़ी संख्या में मुसलमानों को टिकट दिया है . उनको भी उम्मीद है कि उम्मीदवार की जाति के वोट उनकी तरफ खिंच जायेगें तो चुनाव जीतना आसान हो जाएगा. इस चक्कर में इस इलाके में बहुत सारी ऐसी सीटें हैं जहां बीजेपी के अलावा तीनों ही पार्टियों ने मुस्लिम उम्मीदवारों को उतार दिया है . पिछला इतिहास यह रहा है कि जहां सभी गैर बीजेपी पार्टियों ने मुसलमानों को टिकट दिया वहां बीजेपी का उम्मीदवार विजयी रहा . लेकिन इस बार के चुनाव में कुछ ख़ास बातें स्पष्ट लग रही हैं .इस बार जो सबसे अहम बात समझ में आ रही है वह यह कि बाहुबलियों का असर इस चुनाव पर उतना नहीं रहा जितना अब तक हुआ करता था. पूर्वी उत्तर प्रदेश में गुंडों की भूमिका राजनीति में वही होने वाली है जो १९८० के पहले हुआ करती थी, उन दिनों गुंडे चुनाव में खुद उम्मीदवार नहीं बनते थे बल्कि इलाके के राजनीतिक नेताओं को चुपचाप समर्थन किया करते थे. जब १९८० में संजय गांधी ने बाहुबलियों को बड़ी संख्या में टिकट दिया और वे जीत गए तो उनकी काट के लिए सभी पार्टियों ने गुंडों को टिकट देना शुरू कर दिया था ,नतीजा यह हुआ कि आज विधान सभा और लोक सभा में बहुत सारे ऐसे सदस्य मिल जायेगें जिनके ऊपर आपराधिक मामले चल रहे हैं .दूसरी अहम बात यह है कि इस बार जाति और धर्म की भूमिका भी काफी हद तक सीमित हो गयी है .चुनावी अभियान पर नज़र रख रहे लोगों को मालूम है कि उम्मीदवार की जाति का कोई खास असर इस बार नहीं रहेगा . इस बार लोग अपने हित का ध्यान रख रहे हैं . मसलन पूर्वी उत्तर प्रदेश में पिछले दो तीन वर्षों में एक नई पार्टी अस्तित्व में आई है . कुछ उपचुनावों में उसने वोट भी खूब बटोरे हैं .उसके बारे में कहा जाता है कि उसको शुरू करवाने में एक ऐसे व्यक्ति का हाथ था जो मुसलमानों के वोट में विभाजन चाहता था. . इस पार्टी ने कुछ रिटायर्ड आई ए एस अफसरों , पत्रकारों और बहुत सारे बाहुबलियों को अपने साथ शामिल भी कर लिया लेकिन चुनाव आभियान के दौरान इसके अपील मुसलमानों के बीच में वह नहीं लगी जिसकी उम्मीद इसके संस्थापकों ने की थी. मुसलमानों ने अब तक के दौर में आम तौर पर सेकुलर छवि के उमीदवारों को ही समर्थन दिया है .

उत्तर प्रदेश में मुसलमानो के वोट के दो दावेदार बहुत ही गंभीरता से लगे हुए हैं . कांग्रेस ने तो बाबरी मस्जिद के लगे दाग़ को पोंछकर अपने को मुस्लिम दोस्त के रूप में पेश करने की कोशिश की और काफी हद तक सफल भी हुई. ख़ास तौर से कांग्रेस के नेता दिग्विजय सिंह और राहुल गांधी की कोशिशों का नतीजा है कि मुसलमान अब कांग्रेस को अछूत नहीं मानता .इस बार मुस्लिम वोटों के दावेदार मूल रूप से कांग्रेस और समाजवादी पार्टी ही हैं . जहां तक बी एस पी का सवाल है मुसलमानों की नज़र में वह तीसरी प्राथमिकता की ही पार्टी रहती है . इसका करण यह है कि उत्तर प्रदेश में बी एस पी की नेता मायावती कई बार मुख्य मंत्री बनीं और २००७ के अलावा हर बार उनको गद्दी बीजेपी के समर्थन से ही मिली . इस बार भी आम धारणा यह बन चुकी है कि अगर मायावती को सरकार बनाने के लिए कुछ सीटें कम पडीं तो बीजेपी उनका समर्थन कर देगी .इसलिए मुसलमानों के बीच चर्चा करने पर जो तस्वीर सामने आ रही है वह यह है कि कौम इस बार कांग्रेस और समाजवादी पार्टी की ओर झुक रही है . यह बात पश्चिमी उत्तर प्रदेश और रूहेलखंड में इसलिए और भी अहम हो जाती है कि यहाँ गैर बीजेपी पार्टियों के बीच मुस्लिम वोटों के बंटवारे का मतलब यह है कि बीजेपी उम्मीदवार विजयी रहेगा . जब अजीत सिंह का बीजेपी से समझौता था तो उनकी बिरादरी लगभग पूरी तरह से बीजेपी को वोट देती थी लेकिन इस बार कांग्रेस के साथ अजीत सिंह के समझौते के कारण बड़ी संख्या में जाटों के वोट कांग्रेस को मिल रहे हैं. अजीत सिंह और उनके उम्मीदवारों के परम्परागत विरोधी गूजर समुदाय के वोट इस बार कहीं कहीं बीजेपी को मिल रहे हैं लेकिन आम तौर पर समाजवादी पार्टी की तरफ झुक रहे हैं . इस बार पश्चिमी उत्तर प्रदेश में एक नया ट्रेंड नज़र आ रहा है . पश्चिमी उत्तर प्रदेश के हर जिले में कुछ इलाकों में त्यागी बिरादरी की बहुत बड़ी संख्या है . त्यागी बिरादारी के वोट अब तक बीजेपी को ही मिलते रहे हैं लेकिन इस बार एक अजीब बात देखने में आई . देवबंद, बिजनौर और मुरादाबाद के कुछ त्यागी नेताओं से बात करके पता लगा कि इस बार त्यागी वोट समाजवादी पार्टी के हिस्से में जा रहे हैं . यह बात अजीब लगी क्योंकि अब तक ऐसा कभी नहीं हुआ था. देवबंद के पास के एक गाँव ,जडोदा पांडा के प्रधान श्याम सिंह त्यागी से बात करने पर पता चला कि इस बार कई जिलों में त्यागी बिरादरी समाजवादी पार्टी की तरफ चली गयी है . उन्होंने बताया कि समाजवादी पार्टी के महासचिव प्रो. राम गोपाल यादव के कुछ प्रतिनिधि बिरादरी के बीच घूम रहे हैं . और वे बिरादरी को भरोसा दिला रहे हैं कि समाजवादी पार्टी के साथ जाने में उनकी भलाई है .पेशे से डाक्टर इन लोगों ने त्यागियों को समाजवादी पार्टी की तरफ मोड़ दिया है . श्याम सिंह ने बताया कि उनके गाँव में करीब ग्यारह हज़ार वोट हैं जिनमें दलितों के वोटों के अलावा लगभग सभी वोट समाजवादी पार्टी के पास जा रहे हैं .इस इलाके में किसानों के बीच मौजूदा सरकार से भी बहुत नाराज़गी है . खेती चौपट हो रही है क्योंकि बिजली बहुत कम मिलती है और खाद तो बहुत बड़े पैमाने पर ब्लैक हो रही है . ज़ाहिर है कि मौजूदा सरकार को हराने के लिए वोट देने वाले हर बिरादरी में हैं . समाजवादी पार्टी की कोशिश है कि वह आपने आपको सरकार विरोधी वोटों की इकलौती दावेदार के रूप में पेश कर दे. उस हालत में उसको बड़े पैमाने पार समर्थन मिलेगा . उसके लिए उसने कांग्रेस के खिलाफ भी प्रत्यक्ष और गुप्त अभियान चला रखा है . दिग्विजय सिंह और राहुल गांधी के खिलाफ भी अभियान चलाया जा रहा है . दिग्विजय सिंह को आर एस एस का समर्थक बताने की कोशिश भी समाजवादी पार्टी के कुछ समर्थक कर रहे हैं . लेकिन लगता है कि दिल्ली और लखनऊ में बैठ कर राजनीति करने वालों को इस बार ग्रामीण इलाकों का मतदाता गम्भीरता से नहीं ले रहा है .

उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनाव के अंतिम दो चरणों में निश्चित रूप से मुस्लिम मतदाताओं का रुझान नतीजे तय करेगा. अगर मुसलमान ने जाति और धर्म के नाम पर वोट दिया तो इस इलाके में बीजेपी को भी अच्छी सफलता मिल सकती है . लेकिन अब तक के संकेतों से साफ़ है कि मुस्लिम मतदाता इस बार भी बीजेपी को हराने के लिए मतदान करेगा. हालांकि बीजेपी ने मुसलमानों के घोषित विरोधियों नरेंद्र मोदी और वरुण गांधी को इस बार चुनाव से दूर रखा है लेकिन मीडिया की जागरूकता और हर जगह टी वी और अखबारों की मौजूदगी के कारण सब को मालूम है कि किस पार्टी की क्या रणनीति है . लेकिन यह तय है कि आख़री चरणों में मुसलमानों के वोट ही तय करेगें कि देश की भावी राजनीति की क्या दिशा होगी. अगर उत्तर प्रदेश में बीजेपी कमज़ोर हुई तो राजनीति से साम्प्रदायिक शक्तियों को बाहर करना आसान हो जाएगा लेकिन अगर अगर उत्तर प्रदेश की अगली सरकार में बीजेपी को कोई मुकाम मिल गया तो राज्य ही नहीं देश की साम्प्रदायिक शक्तियां मज़बूत होंगीं.