Saturday, February 16, 2013

सावरकरवादी हिंदुत्व की राजनीति के पैरोकारों के सामने अस्तित्व का संकट



शेष नारायण सिंह


बीजेपी और आर एस एस के बीच २०१४ के लोकसभा चुनावों के मुद्दों के बारे में भारी विवाद है . आर एस एस की कोशिश है कि इस बार का चुनाव शुद्ध रूप से धार्मिक ध्रुवीकरण  को मुद्दा बनाकर लड़ा जाए .शायद इसीलिये सबसे ज़्यादा लोकसभा सीटों  वाले राज्य उत्तर प्रदेश में किसी सीट से नरेंद्र मोदी को उम्मीदवार बनाने की बात शुरू कर दी गयी है . उत्तर प्रदेश में मौजूदा सरकार में मुसलमानों के समर्थन के माहौल के चलते मुस्लिम बिरादरी में उत्साह है . उम्मीद की जा रही है कि राज्य सरकार के ऊपर  बीजेपी वाले बहुत आसानी से मुस्लिम तुष्टीकरण का आरोप चस्पा कर देगें. और मुसलमानों के खिलाफ नरेंद्र मोदी की इमेज का फायदा उठाकर हिंदुओं को एकजुट कर लेगें  . राज्य में कुछ इलाकों में समाजविरोधी तत्वों ने कानून व्यवस्था के सामने खासी चुनातियाँ पेश कर रखी हैं .इन समाज विरोधी तत्वों में अगर कोई मुसलमान हुआ तो आर एस एस के सहयोग वाले मुकामी अखबार उसको भारी मुद्दा बना देते हैं  और  मुसलमानों को राष्ट्र के दुश्मन की तरह पेश करके यह सन्देश देने की कोशिश करते हैं कि अगर मोदी की तरह की राजनीति उत्तरप्रदेश में भी चल गयी तो मुसलमान बहुत कमज़ोर हो जायेगें और  उनका वही हाल होगा जो २००२ में गुजरात के मुसलमानों का हुआ था.इस तर्कपद्धति में केवल एक दोष यह है कि आर एस एस और  उसके सहयोगी मीडिया की पूरी कोशिश के बावजूद मुसलमानों से साफ़ बता दिया  है कि अब चुनाव  वास्तविक मुद्दों पर ही लड़ा जाएगा ,धार्मिक ध्रुवीकरण की कोशिश करने से कोई लाभ नहीं होने वाला है .
२०१४ के लोकसभा चुनाव के लिए मुद्दों की तलाश में भटक रही सावरकरवादी हिन्दुत्ववादी  संगठनों में रास्ते की तलाश की कोशिशें जारी हैं .इसी सिलसिले में  १२ फरवरी के दिन दिल्ली में एक बार फिर आर एस एस के बड़े नेता और बीजेपी अध्यक्ष समेत कई लोग इकठ्ठा हुए और और करीब चार घंटे तक चर्चा की. आर एस एस और बीजेपी से सहानुभूति रखने वाले टी वी चैनलों ने मीटिंग की खबर को दिन  भर इस तर्ज़ में पेश किया कि जैसे उस मीटिंग के बाद देश का इतिहास बदल जायेगा.लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. मीटिंग में शामिल लोगों ने बताया कि बीजेपी के नेता आर एस एस–बीजेपी के सावरकरवादी हिंदुत्व के एजेंडे को २०१४ के चुनावी उद्घोष के रूप में पेश करने से बच रहे हैं . इस बैठक में शामिल बीजेपी नेताओं ने कहा कि जब कांग्रेस शुद्ध रूप से राजनीतिक मुद्दों पर चुनाव के मैदान में जा आ रही है और बीजेपी को ऐलानियाँ एक साम्प्रदायिक पार्टी की छवि में  लपेट रही है तो सावरकरवादी हिंदुत्व को राजनीतिक आधार बनाकर चुनाव में जाने की गलती नहीं की जानी चाहिए . १२ फरवरी की बैठक में आर एस एस वालों ने बीजेपी नेताओं को साफ़ हिदायत दी कि उनको हिंदुओं की पक्षधर पार्टी के रूप में चुनाव मैदान में जाने की ज़रूरत है .जबकि बीजेपी का कहना है कि अब सरस्वती शिशु मंदिर से पढकर आये कुछ पत्रकारों के अलावा कोई भी सावरकरवादी हिंदुत्व को गंभीरता से नहीं लेता. बीजेपी वालों का आग्रह है कि ऐसे मुद्दे आने चाहिए जिसमें उनकी पार्टी देश के नौजवानों की समस्याओं को संबोधित कर सके.इस बैठक से जब बीजेपी के अध्यक्ष राजनाथ सिंह बाहर आये तो उन्होंने बताया कि अपनी पार्टी की भावी रणनीति के बारे में विस्तार से चर्चा हुई .उन्होंने साफ़ कहा कि प्रधानमंत्री पद की दावेदारी के मामले पर  कोई चर्चा नहीं हुई .हालांकि राजनाथ सिंह ने तो इस मुद्दे पर कुछ नहीं कहा लेकिन अन्य सूत्रों से पता चला है कि आतंकवादी घटनाओं में शामिल आर एस एस वालों के भविष्य के बारे में चर्चा विस्तार से हुई. आर एस एस को डर है कि अगर एन आई ए ने प्रज्ञा ठाकुर, असीमानंद आदि को आतंकवाद के आरोपों में सज़ा करवा दिया तो मुसलमानों को आतंकवादी साबित करने की उनकी सारी मंशा रसातल में चली जायेगी. जब तक आर एस एस से सम्बंधित लोगों को कई आतंकवादी घटनाओं के सिलसिले में पकड़ा नहीं गया था तब तक बीजेपी वाले कहते पाए जाते थे  कि हर मुसलमान आतंकवादी नहीं  होता लेकिन हर आतंकवादी मुसलमान होता है . जब आर एस एस के बड़े नेता इन्द्रेश कुमार सहित बहुत सारे अन्य लोगों एक खिलाफ भी आतंकवाद में शामिल होने की जांच शुरू हो गयी तो बीजेपी वालों के सामने मुश्किल आ गयी . कांग्रेस में साम्प्रदायिकता विरोधी राजनीति के मुख्य रणनीतिकार दिग्विजय सिंह ने भी बीजेपी की मुश्किले  बढ़ा दीं जब उन्होने संघी आतंकवाद को बाकी हर तरह के आतंकवाद की तरह का ही साबित कर दिया. हालांकि जयपुर में संघी आतंकवाद को भगवा आतंकवाद कहकर गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे ने बीजेपी वालों को कुछ उम्मीद दिखा दी थी और बीजेपी वाले कहते फिर रहे थे कि सुशील कुमार शिंदे ने हिंदू आतंकवाद कहा था. यह सच नहीं है . मैं उस वक़्त हाल में मौजूद था और शिंदे के भाषण को सुना था. उन्होंने  हिन्दू आतंकवाद शब्द का प्रयोग नहीं किया था.  लेकिन बीजपी उन्हें हिंदू विरोधी साबित करने पर आमादा थी और ऐलान कर दिया था कि वह संसद के बजट सत्र के दौरान शिंदे का बहिष्कार करेगी .लेकिन इस बीच शिंदे ने बीजेपी से सबसे प्रिय विषय को उनके हाथ से छीन लिया है . पिछले कई वर्षों से बीजेपी वाले “ अफजल गुरू को फांसी  दो “ के नारे लगाते रहे हैं लेकिन शिंदे  के  विभाग की तत्परता के कारण अफजल गुरू को फांसी दी जा चुकी है . यहाँ अफजल गुरू को दी गयी फांसी के गुणदोष पर विचार करने का इरादा नहीं है लेकिन यह साफ़ है कि बीजेपी के लिए अब अफजल गुरू के नाम के मुद्दे की जगह कोई और नाम लाना पडेगा .इसके साथ ही सुशील कुमार शिंदे का बहिष्कार कर पाना बहुत मुश्किल होगा. लेकिन बीजेपी को एक डर और भी है कि अगर  २०१४ के लोकसभा के चुनाव के पहले समझौता एक्सप्रेस, मक्का मसजिद, अजमेर धमाके आदि के अभियुक्त आर एस एस वालों को सज़ा हो गयी तो मुसलमानों को आतंकवाद का समानार्थी साबित करने की आर एस एस की कोशिश हमेशा के लिए दफन हो जायेगी.


अफजल गुरू को फांसी देने की बीजेपी की मांग से माहौल को धार्मिक ध्रुवीकरण के रंग में रंगने की आर एस एस की कोशिश बेकार साबित हो चुकी है . जिस तरह से भारत के मुसलमानों ने अफजल गुरू के फांसी के मुद्दे को बीजेपी की मंशा के हिसाब से  नहीं ढलने दिया वह अपनी लोकशाही की परिपक्वता का परिचायक है . अफजल गुरू की फांसी की राजनीति पर सोशल मीडिया और अन्य मंचों पर जो बहसें चल रही हैं उसमें भी भारतीय हिंदू ही बढ़ चढ़कर हिसा ले रहे हैं . मुसलमानों ने आम तौर पर इस मुद्दे पर बीजेपी की मनपसंद टिप्पणी  कहीं नहीं की . इस सन्दर्भ में उर्दू अखबारों का रुख भी ऐसा रहा जिसको ज़िम्मेदार माना जाएगा. बीजेपी ने जब १९८६ के बाद से सावरकरवादी हिंदुत्व को चुनावी रणनीति का हिस्सा बनाया उसके बाद से ही उनको उम्मीद रहती थी कि जैसे ही किसी ऐसे मुद्दे पर चर्चा की जायेगी जिसमें इतिहास के किसी मुकाम पर हिंदू-मुस्लिम  विवाद रहा हो तो माहौल गरम हो जाएगा .अयोध्या की बाबरी  मसजिद को राम जन्म भूमि बताना इसी रणनीति का हिस्सा था.  बहुत ही भावनात्मक मुद्दे के नाम पर आर एस एस ने काम किया और जो बीजेपी १९८४ के चुनावोंमें २ सीटों वाली पार्टी बन गयी  उसकी संख्या इतनी बढ़ गयी कि वह जोड़ तोड़ कर सरकार बनाने के मुकाम पर पंहुच गयी . आर एस एस वालों की यही सोच  है  कि अगर चुनाव धार्मिक और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को मुद्दा बनाकर लड़ा गया तो बहुत फायदा होगा . अफजल गुरू के मामले में भी बीजेपी को  यह  उम्मीद थी कि देश के मुसलमान तोड़ फोड करना शुरू कर देगें और उसको हाईलाईट किया जाएगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ. आज की राजनीतिक सच्चाई यह है कि उत्तर प्रदेश में तो मुसलमान , समाजवादी पार्टी की सरकार को अपना शुभचिन्तक मनाता है लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर मुसलमानों का भरोसा कांग्रेस में पूरी तरह से हो गया है . प्रधानमंत्री के पन्द्रह सूत्री कार्यक्रम को लागू करने के लिए अल्पसंख्यक मामलों के केन्द्र सरकार के मौजूदा  मंत्री के.रहमान खान दिन-रात एक कर रहे हैं . सच्चर कमेटी और रंगनाथ मिश्रा कमीशन की रिपोर्टों पर केन्द्र सरकार का पूरा ध्यान है . ज़ाहिर है मुसलमानों को केन्द्र सरकार की नीयत पर शक नहीं है . ऐसी हालत में अगर केन्द्र सरकार से पहल होती है और देश  के  धर्मनिरपेक्ष ताने बाने  को सुरक्षित रखने के लिए कोई ऐसा क़दम भी उठाया जाता है जिस से बीजेपी  की चमक कमज़ोर हो तो मुस्लिम समाज के ज़िम्मेदार नेता और उर्दू अखबार  सहयोग करते नज़र आ रहे हैं.

साम्प्रदायिक राजनीति के पैरोकारों के लिए परेशानी का एक और भी कारण है . एक  तरफ दिग्विजय सिंह  हैं जो आर एस एस और बीजेपी के साम्प्रदायिक रूप को हमले के निशाने में लेने के किसी मौके को हाथ से नहीं जाने देते वहीं दूसरी तरह पी चिदंबरम,  जयराम रमेश आदि नेता हैं जो सब्सिडी के कैश ट्रांसफर जैसी स्कीमों पर काम कर रहे हैं जो देश के हर गाँव और हर  कालेज में रहने वाले लोगों को लाभ पन्हुचायेगी. वजीफों आदि को सीधे लाभार्थी के खाते में जमा कर देने वाली जो स्कीमें हैं वे निश्चित रूप से महात्मा गांधी के भाषणों और लेखों में बताए गए आख़री आदमी को लाभ पंहुचायेगी . काँग्रेस के इस चौतरफा अभियान के बीच बीजेपी वाले भावी प्रधानमंत्री के दावेदार के खेल में अपने आपको घिरा पाते हैं . दिल्ली दरबार में सक्रिय  बीजेपी वाले और उनके समर्थक पत्रकार कुछ इस तरह से बात करते पाए जाते हैं जैसे बीजेपी को बहुतमत मिल चुका है और अब किसी बेजीपी नेता को प्रधानमंत्री पद की शपथ लेनी बाकी है . इसी सिलसिले में  नरेंद्र मोदी का नाम उछाला जा रहा है . उनका नाम ऐसे लोग उछाल रहे हैं जिनका आर एस एस और बीजेपी की सियासत में कोई मज़बूत स्थान नहीं है . बीजेपी के अध्यक्ष और आर एस एस के बड़े नेताओं  सहित सावरकरवादी हिंदुत्व के सभी पैरोकारों में नरेंद्र मोदी का विरोध है लेकिन मीडिया के बल पर राजनीति करने वाले मोदी  के कुछ मित्रों ने माहौल बना रखा  है . बीजेपी नेता लाल कृष्ण आडवानी को प्रधान मंत्री पद के दावेदार के रूप में पूरे देश में घुमते हुए २००९ के चुनावों में जिन लोगों ने देखा  है उनको मालूम है कि बीजेपी नेताओं के प्रधान मंत्री पद के सपनों में कितना प्रहसन हो सकता है .वैसे भी अटल बिहारी वाजपेयी को इस देश का  प्रधान मंत्री बनाने में २० से ज़्यादा पार्टियां शामिल थीं . उन पार्टियों में रामविलास पासवान, फारूक अब्दुल्ला, ममता बनर्जी, चन्द्र बाबू नायडू ,मायावती जैसे लोग भी थे. अब यह सारे लोग किसी ऐसी पार्टी के साथ नहीं जायेगें जो साम्प्रदायिक हो . २००४ के लोकसभा चुनावों में यह सभी पार्टियां तबाह हो गयी थी. आज बीजेपी के साथ केवल दो पार्टियां तहे दिल से हैं . शिवसेना और अकाली दल . नीतीश कुमार की पार्टी को अगर धर्मनिरपेक्ष पार्टियों में रहने का मौक़ा मिला तो वह भी सावरकरवादी हिंदुत्व की पार्टी से नाता तोड़ने में संकोच नहीं करेगी.

ऐसी हालत में देश को साम्प्रदायिकता की आग में झोंक कर सत्ता हासिल करने की कोई कोशिश सफल होती नहीं दिखती . आर एस एस और बीजेपी की कोशिश है कि जिस तरह से १९८६ से लेकर २००२ तक साम्प्रदायिक राजनीति के सहारे देश में ध्रुवीकरण किया गया था अगर वह एक बार फिर संभव हो गया तो सत्ता फिर हाथ आ सकती है . लेकिन अब देश के लोग ,खासकर बहुसंख्यक मुसलमान ज्यादा मेच्योर हो गये हैं . अब न तो बहुसंख्यक हिन्दुओं  को नक़ली मुद्दों में फंसाया  जा सकता है और न ही  बहुसंख्यक मुसलमानों को .ऐसी स्थिति में अगर बाबरी मसजिद के मसले का कोई समाधान अगले दो चार महीनों में हो गया तो सावरकरवादी  हिंदुत्व की समर्थक राजनीतिक ताक़तों के सामने अस्तित्व का संकट भी आ सकता है .