Sunday, July 14, 2013

मेरे गाँव की सबसे बड़ी देवी ,काली माई , का निवास नीम के पेड़ में था




शेष नारायण सिंह

मेरे बचपन  में जब भी कोई ऐसी समस्या आती थी जिसका हल किसी इंसान के पास नहीं होता था तो मेरी माँ काली माई की पूजा करके उसका समाधान निकालती थीं. जब भी कोई बीमारी हुई और एक दिन से ज़्यादा तबियत खराब रह गयी तो मेरी माँ काली माई का आह्वान करती थीं और सब कुछ ठीक हो जाता था. वे हर सोमवार और शुक्रवार को काली माई के स्थान पर जल चढाने  जाती थींवैसे भी अगर कभी कोई परेशानी आती थी तो काली माई से गुहार लगाई जाती थी. मेरे गाँव में पचास के दशक में ईश्वर के जो स्वरूप थे उनमें काली माई सबसे प्रमुख थीं . काली माई की जो छवि मैंने बचपन में देखी थी वह सभी  संकटों का हरण करने वाली तो थीं लेकिन वे किसी मूर्ति में नहीं गाँव के पूरब तरफ एक नीम के पेड़ में विराजती थीं . पेड़ के चारों तरफ पास के तालाब से मिट्टी लाकर चबूतरा बना दिया गया था.  हर खुशी के मौके पर काली माई का दर्शन ज़रूर किया जाता था, लड़के की शादी के लिए जब बारात तैयार होती थी  तो सबसे पहले काली माई का दर्शन होता था. लड़कियों की शादी में गाँव की इज्ज़त की रक्षा वही कालीमाई करती थीं . शादी व्याह के अनिवार्य कार्यक्रमों में  काली माई के स्थान पर जाना प्रमुख  था .यह परम्परा अब तक चली आ  रही है .नीम का यह पेड़ मेरे गाँव के लोगों के लिए एक दैवीय शक्ति है और वही मेरे गांव की सामूहिक आस्था का केन्द्र है . 

जब मारवाड़ी महासभा के महामंत्री महेश राठी ने मुझसे अपने संगठन के एक कार्यक्रम में शामिल होने के लिए कहा और बताया कि नीम का प्रचार प्रसार उनेक संगठन के प्रमुख लक्ष्यों में से एक है तो मैं वापस अपने गांव में पंहुचकर खो गया . नीम का स्वरूप मेरे मन में किसी पेड़ का नहीं है ,वह तो मेरी माँ की शक्ति का प्रतिनिधि है जिसने बड़ी से बड़ी समस्याओं को उसी नीम के पास हाजिरी लगाकर हल करवाया है .मारवाड़ी महासभा ने जो बड़े पैमाने पर नीम के वृक्षारोपण का कार्यक्रम चलाया है वह कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण है . उनका यह कार्यक्रम वर्षों से चल रहा है .इस संगठन में उन्हीं मारवाड़ियों को शामिल करते हैं जिन्होंने नीम के कम से काम पांच पेड़ लगाए हों .महेश राठी मुंबई में रहते हैं और उनका यह कार्यक्रम मुंबई में आयोजित किया जा रहा है . वे मुंबई और ठाणे महानगर के सभी इलाकों में आवासीय सोसाइटियों मे नीम का पौधा लगाने का अभियान चला रहे हैं .
नीम के प्रचार प्रसार के लिए जो भी अभियान चलाए, उसका सम्मान किया जाना चाहिए क्योंकि नीम को गरीब आदमी के वैद्य के रूप में भारत के ग्रामीण इलाकों में सम्मान मिला हुआ है . यह भारत, पाकिस्तान और बंगलादेश में तो यह बहुत ही अहम वृक्ष है ही , बाकी दुनिया में भी इसे बहुत बुलंद मुकाम हासिल है .इसकी खासियत यह है कि यह कम पानी वाले इलाके में भी हरा भरा रह सकता है . सूखे की हालत में भी नीम का अस्तित्व बचा रहता है . राजस्थान के रेगिस्तानी इलाकों के लिए तो यह वरदान  स्वरूप ही है .नीम का पेड़  यूकेलिप्टस की तरह ज़मीन का पानी खींचकर रेगिस्तान नहीं बनाता है . रेगिस्तान को नीम हराभरा करने के काम आता है क्योंकि  यह ज़मीन का सारा पानी नहीं सोखता . नीम एक जीवनदायी  वनस्पति है . कीड़ों को दूर रखने के लिए इसका खूब इस्तेमाल होता है .यह एंटीसेप्टिक के रूप में भी इस्तेमाल होता है .कुछ इलाकों में तो नीम की पत्तों की सब्जी भी बनायी जाती है. पिछले दो हज़ार वर्षों से नीम का भारतीय जन जीवन में बहुत ही प्रमुख स्थान है .इसका इस्तेमाल डायबिटीज़ , वाइरल बुखार , और  फुंसी आदि के इलाज़ के लिए हमेशा से ही होता रहा है . शायद इसीलिये इसे पवित्र वृक्ष के अलावा ग्रामीण दवाखाना और  प्रकृति की फार्मेसी के रूप में भी जाना जाता है . बहुत सारे चर्म रोगों के इलाज़ के लिए नीम के तेल और पत्तों का इस्तेमाल होता रहा  है . बहुत सारी आयुर्वेदिक , यूनानी और सिद्ध दवाओं में  नीम के तेल का इस्तेमाल किया जाता है .  सौंदर्य प्रसाधन और साबुन में भी नीम का इस्तेमाल होता है
१९९५ में यूरोप के पेटेंट आफिस ने अमरीकी कंपनी डब्लू आर ग्रेस और अमरीका सरकार के कृषि विभाग को नीम के  के किसी प्रासेस का पेटेंट दे दिया था . भारत सरकार ने इस आदेश को चुनौती दी और यह साबित कर दिया कि भारत में बहुत सारी चिकित्सा नीम के उत्पादों के सहयोग से  होती है . इसलिए २००५ एन हमेशा के लिए भारत के पक्ष में नीम के उत्पादों का पेटेंट सुरक्षित हो गया .

मैं महेश राठी का आभारी हूँ जिन्होंने नीम के बारे में ज़िक्र करके मुझे मेरे गाँव में पंहुचा दिया और मेरे उस बचपन को जिंदा कर दिया जिसमें मेरी माँ , मेरी बड़ी बहन और कालीमाई के अलावा मेरा कोई भी रक्षक नहीं था 

जाति के आधार पर राजनीतिक मोबिलाइजेशन और जाति के विनाश का बुनियादी सवाल



शेष नारायण सिंह

इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच का एक फैसला आया है जिसमें जातियों की राजनीतिक सभाएं करने पर रोक लगा दी गयी है . जाति के आधार पर पहचान और उससे चुनावी फायदों की राजनीति करने वालों को इस फैसले से झटका  लगना शुरू ही हुआ था कि सुप्रीम कोर्ट का एक फैसला आया  गया कि जिसमें लिखा है कि वे नेता चुनाव नहीं लड़ सकते जिनको कानूनी तौर पर गिरफ्तार किया गया हो . इसके एक दिन पहले एक फैसला आया था कि जिस नेता को किसी भी कोर्ट से दो साल या उस से ज़्यादा की सज़ा हो जाए वह भी चुनाव नहीं लड़ सकता . इन फैसलों को नेता बिरादरी स्वीकार नहीं करेगी . इन फैसलों की मंशा  को नाकाम करने के लिए अगर ज़रूरी हुआ तो वे लोग संसद के अधिकार का प्रयोग करके नियम क़ानून  भी बना सकते हैं . ज़ाहिर है कि अपनी राजनीतिक सुविधा को अमली जामा पहनाने के लिए  राजनीतिक समुदाय के लोग न्यायिक हस्तक्षेप के खिलाफ माहौल बनायेगें . आशंका है कि उसी माहौलगीरी में कहीं इलाहाबाद हाई कोर्ट का जाति आधारित चुनावी रैलियों के बारे में आया महत्वपूर्ण फैसला भी  बेअसर न हो जाए. फैसला आने के बाद शासक वर्गों की सभी राजनीतिक पार्टियां  जाति की राजनीति से बाहर निकलने के लिए तैयार नज़र नहीं आ रहीं हैं . यह देखना दिलचस्प होगा कि आगे क्या होता है .

उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने पिछले दिनों लखनऊ में  ब्राह्मणों की एक चुनावी सभा की थी . उस सभा में आये ब्राह्मणों को देख कर उन राजनीतिक पार्टियों के सामने मुसीबत का पहाड खड़ा नज़र आने लगा  था जो  आगामी चुनावों में उत्तर प्रदेश के ब्राहमणों को अपने साथ लेने की फ़िराक में हैं . ठीक इसी वक़्त हाई कोर्ट में एक जनहित याचिका आ गयी और माननीय अदालत ने जाति के आधार पर राजनीतिक मोबिलाइजेशन के खिलाफ हुक्म सुना दिया . अगर यह हुक्म असर दिखाता है तो यह भारतीय समाज के लिए बहुत ही उपयोगी होगा . राजनीतिक बिरादरी को जाति के आधार पर लोगों को लामबंद करके वोट लेने की रिवायत से बाज़ आना चाहिए क्योंकि उत्तर प्रदेश में सक्रिय  तीन बड़ी पार्टियों के आदर्श महापुरुषों ने जाति आधारित राजनीति का विरोध किया है . कांग्रेसियों के आराध्य महात्मा गांधी , समाजवादी पार्टी के महापुरुष डॉ राम  मनोहर लोहिया और बहुजन समाज पार्टी के नेताओं के देवता , डॉ बी आर अम्बेडकर ने जाति के विनाश को अपनी राजनीति का बुनियादी आधार बनाया है. महात्मा गांधी ने जाति आधारित छुआछूत के खिलाफ आज़ादी की लड़ाई के साथ साथ आंदोलन चलाया और उसे आज़ादी की लड़ाई का इथास बताया . डॉ राम मनोहर लोहिया की किताब जाति प्रथा में उनके भाषणों, पत्रों  और कुछ लेखों का संकलन है .उन्होंने जाति के विनाश की बातें बार बार कहीं थीं. उन्होंने कहा कि ,” जातियों ने हिन्दुस्तान को भयंकर नुक्सान पंहुचाया है “ एक नया जगह पर लिखा है कि ,”हिन्दुस्तान बार बार विदेशी फौजों के सामने  घुटने क्यों टेक देता है . इतिहास साक्षी है कि जिस काल में जाति के बंधन ढीले थे ,उसने लगभग हमेशा उसी काल में घुटने नहीं टेके हैं .” डॉ लोहिया कहते हैं कि  जाति का बंधन ऐसा था कि जब भारत पर हमला होता था  तो ९० प्रतिशत लोग युद्ध से बाहर रहते थे और युद्ध का काम केवल १० प्रतिशत लोगों के जिम्मे होता था.  ऐसा जाति प्रथा के कारण होता था क्योंकि युद्धका काम केवल क्षत्रियों के नाम लिख दिया गया था .उन्होंने  सवाल उठाया है कि जब ९० प्रतिशत लोगों को  राष्ट्र की रक्षा के काम से बाहर रखा जाएगा तो राष्ट्र की रक्षा किस तरह से होगी. डॉ लोहिया के पूरे  लेखन में जाति प्रथा को खत्म करने की बात बार बार की गयी है . उन्होंने कहा है कि जब तक जातियों में शादी व्याह के सम्बन्ध नहीं बनते  तब तक जाति प्रथा का विनाश नहीं किया जा सकता .और जब तक जाति का विनाश नहीं होगा तब तक सामाजिक एकता की स्थापना असंभव है .


पिछली सदी के सामाजिक और राजनीतिक दर्शन के जानकारों में डा. बी आर अंबेडकर का नाम बहुत ही सम्मान के साथ लिया जाता है। महात्मा गांधी के समकालीन रहे अंबेडकर ने अपने दर्शन की बुनियादी सोच का आधार जाति प्रथा के विनाश को माना था उनको विश्वास था कि जब तक जाति का विनाश नहीं होगा तब तक न तो राजनीतिक सुधार लाया जा सकता है और न ही आर्थिक सुधार लाया जा सकता है। अपनी किताब The Annihilation of caste में डा.अंबेडकर ने बहुत ही साफ शब्दों में कह दिया है कि जब तक जाति प्रथा का विनाश नहीं हो जाता समतान्याय और भाईचारे की शासन व्यवस्था नहीं कायम हो सकती। जाहिर है कि जाति व्यवस्था का विनाश हर उस आदमी का लक्ष्य होना चाहिए जो अंबेडकर के दर्शन में विश्वास रखता हो। अंबेडकर के जीवन काल में किसी ने नहीं सोचा होगा कि उनके दर्शन को आधार बनाकर राजनीतिक सत्ता हासिल की जा सकती है। लेकिन आज कई पार्टियां डॉ अम्बेडकर के दर्शन शास्त्र को आधार बनाकर राजनीतिक लक्ष्य हासिल कर रही  हैं .उत्तर प्रदेश की नेता मायावती और उनके राजनीतिक गुरू कांशीराम ने अपनी राजनीति के विकास के लिए अंबेडकर का सहारा लिया और आज बहुजन समाज पार्टी एक राजनीतिक ताक़त है . इस बात की पड़ताल करना दिलचस्प होगा कि अंबेडकर के नाम पर सत्ता का सुख भोगने वाली पार्टी और उसकी सरकार ने उनके सबसे प्रिय सिद्धांत को आगे बढ़ाने के लिया क्या कदम उठाए है।
मायावती की पिछले पचीस वर्षों की राजनीति पर नज़र डालने से प्रथम दृष्टया ही समझ में आ जाता है कि उन्होंने जाति प्रथा के विनाश के लिए कोई काम नहीं किया है। बल्कि इसके उलट वे जातियों के आधार पर पहचान बनाए रखने की पक्षधर है। दलित जाति को अपने हर सांचे में फिट रखने के लिए तो उन्होंने छोड़ ही दिया है अन्य जातियों को भी उनकी जाति सीमाओं में बांधे रखने के लिए बड़े पैमाने पर अभियान चला रही हैं। हर जाति की भाईचारा कमेटियाँ बना दी गई हैं और उन कमेटियों को  मायावती की पार्टी का कोई बड़ा नेता संभाल रहा है। डाक्टर साहब ने साफ कहा था कि जब तक जातियों के बाहर शादी ब्याह की स्थितियां नहीं पैदा होती तब तक जाति का इस्पाती सांचा तोड़ा नहीं जा सकता। चार बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजने वाली मायावती जी ने एक बार भी सरकारी स्तर पर ऐसी कोई पहल नहीं की जिसकी वजह से जाति प्रथा पर कोई मामूली सी भी चोट लग सके। जाहिर है जब तक समाज जाति के बंधन के बाहर नहीं निकलता आर्थिक विकास का लक्ष्य भी नहीं हासिल किया जा सकता।


डॉ बी आर अम्बेडकर ने जाति के विनाश के मुद्दे पर कभी कोई समझौता नहीं किया .उनकी सबसे महत्वपूर्ण किताब The Annihilation of caste के बारे में यह जानना दिलचस्प होगा कि वह एक ऐसा भाषण है जिसको पढ़ने का मौका उन्हें नहीं मिला . लाहौर के जात पात तोड़क मंडल की और से उनको मुख्य भाषण करने के लिए न्यौता मिला। जब डाक्टर साहब ने अपने प्रस्तावित भाषण को लिखकर भेजा तो ब्राहमणों के प्रभुत्व वाले जात-पात तोड़क मंडल के कर्ताधर्ताकाफी बहस मुबाहसे के बाद भी इतना क्रांतिकारी भाषण सुनने कौ तैयार नहीं हुए। शर्त लगा दी कि अगर भाषण में आयोजकों की मर्जी के हिसाब से बदलाव न किया गया तो भाषण हो नहीं पायेगा। अंबेडकर ने भाषण बदलने से मना कर दिया। और उस सामग्री को पुस्तक 
के रूप में छपवा दिया जो आज हमारी ऐतिहासिक धरोहर का हिस्सा है। इस पुस्तक में जाति के विनाश की राजनीति और दर्शन के बारे में गंभीर चिंतन है . और इस देश का दुर्भाग्य है कि आर्थिकसामाजिक और राजनीतिक विकास का इतना नायाब तरीका हमारे पास हैलेकिन उसका इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है। डा- अंबेडकर के समर्थन का दम ठोंकने वाले लोग ही जाति प्रथा को बनाए रखने में रूचि रखते है हैं और उसको बनाए रखने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं। जाति के विनाश के लिए डाक्टर अंबेडकर ने सबसे कारगर तरीका जो बताया था वह अंर्तजातीय विवाह का थालेकिन उसके लिए राजनीतिक स्तर पर कोई कोशिश नहीं की जा रही हैलोग स्वयं ही जाति के बाहर निकल कर शादी ब्याह कर रहे हैयह अलग बात है।

इस पुस्तक में अंबेडकर ने अपने आदर्शों का जिक्र किया है। उन्होंने कहा कि जातिवाद के विनाश के बाद जो स्थिति पैदा होगी उसमें स्वतंत्रताबराबरी और भाईचारा होगा। एक आदर्श समाज के लिए अंबेडकर का यही सपना था। एक आदर्श समाज को गतिशील रहना चाहिए और बेहतरी के लिए होने वाले किसी भी परिवर्तन का हमेशा स्वागत करना चाहिए। एक आदर्श समाज में विचारों का आदान-प्रदान होता रहना चाहिए। अंबेडकर का कहना था कि स्वतंत्रता की अवधारणा भी जाति प्रथा को नकारती है। उनका कहना है कि जाति प्रथा को जारी रखने के पक्षधर लोग राजनीतिक आजादी की बात तो करते हैं लेकिन वे लोगों को अपना पेशा चुनने की आजादी नहीं देना चाहते इस अधिकार को अंबेडकर की कृपा से ही संविधान के मौलिक अधिकारों में शुमार कर लिया गया है और आज इसकी मांग करना उतना अजीब नहीं लगेगा लेकिन जब उन्होंने उनके दशक में में यह बात कही थी तो उसका महत्व बहुत अधिक था। अंबेडकर के आदर्श समाज में सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा हैबराबरी . ब्राहमणों के अधियत्य वाले समाज ने उनके इस विचार के कारण उन्हें बार-बार अपमानित किया। सच्चाई यह है कि सामाजिक बराबरी के इस मसीहा को जात पात तोड़क मंडल ने भाषण नहीं देने दिया लेकिन अंबेडकर ने अपने विचारों में कहीं भी ढील नहीं होने दी।
अब जाति को एक मामूली ही सही ,लेकिन सार्थक धक्का देने वाला जो  फैसला इलाहबाद हाई कोर्ट ने  किया है ,उसके आधार पर समाज के जागरूक लोगों को सक्रिय हो जाना चाहिए . जाति के विनाश के सबसे बड़े समर्थकों , डॉ राममनोहर  लोहिया  और डॉ बी आर अम्बेडकर के अनुयायियों से यह उम्मीद करना ठीक नहीं होगा क्योंकि उनकी सत्ता की बुनियाद ही जाति की पहचान के आधार पर बनी हुई है .इन पार्टियों में  उन महान चिंतकों की बुनियादी विचारधारा को नजर अंदाज किया जा रहा है। समाजशास्त्री मानते हैं कि जाति प्रथा भारत के आर्थिकसामाजिक और राजनीतिक  विकास में सबसें बड़ा रोड़ा है हैऔर उनके विनाश के लिए अंबेडकर द्वारा सुझाया गया तरीका ही सबसे उपयोगी है लेकिन जाति के आधार पर सत्ता हासिल करने वालों से यह उम्मीद नहीं की जानी चाहिए कि वे जाति के शिकंजे को कमज़ोर पड़ने देगें .