शेष नारायण सिंह
मेरे बचपन में जब भी कोई ऐसी समस्या आती थी जिसका हल किसी इंसान के पास नहीं होता था
तो मेरी माँ काली माई की पूजा करके उसका समाधान निकालती थीं. जब भी कोई बीमारी हुई और एक दिन से ज़्यादा तबियत खराब रह गयी तो मेरी माँ
काली माई का आह्वान करती थीं और सब कुछ ठीक हो जाता था.
वे हर सोमवार और शुक्रवार को काली माई के स्थान पर जल चढाने जाती थीं, वैसे भी अगर कभी कोई परेशानी आती थी
तो काली माई से गुहार लगाई जाती थी. मेरे गाँव में पचास के दशक में ईश्वर के जो
स्वरूप थे उनमें काली माई सबसे प्रमुख थीं . काली माई की जो छवि मैंने बचपन में
देखी थी वह सभी संकटों का हरण करने वाली तो थीं लेकिन वे
किसी मूर्ति में नहीं गाँव के पूरब तरफ एक नीम के पेड़ में विराजती थीं . पेड़ के चारों
तरफ पास के तालाब से मिट्टी लाकर चबूतरा बना दिया गया था. हर खुशी के मौके पर काली माई का दर्शन ज़रूर
किया जाता था, लड़के की शादी के लिए जब बारात तैयार होती थी
तो सबसे पहले काली माई का दर्शन होता था. लड़कियों की शादी में गाँव की
इज्ज़त की रक्षा वही कालीमाई करती थीं . शादी व्याह के अनिवार्य कार्यक्रमों में काली माई के स्थान पर जाना प्रमुख था .यह परम्परा अब तक चली आ रही है .नीम का यह पेड़ मेरे गाँव के लोगों के लिए एक दैवीय शक्ति है और
वही मेरे गांव की सामूहिक आस्था का केन्द्र है .
जब मारवाड़ी महासभा के महामंत्री महेश राठी ने मुझसे अपने संगठन के एक
कार्यक्रम में शामिल होने के लिए कहा और बताया कि नीम का प्रचार प्रसार उनेक संगठन
के प्रमुख लक्ष्यों में से एक है तो मैं वापस अपने गांव में पंहुचकर खो गया . नीम
का स्वरूप मेरे मन में किसी पेड़ का नहीं है ,वह तो मेरी माँ की शक्ति का प्रतिनिधि
है जिसने बड़ी से बड़ी समस्याओं को उसी नीम के पास हाजिरी लगाकर हल करवाया है
.मारवाड़ी महासभा ने जो बड़े पैमाने पर नीम के वृक्षारोपण का कार्यक्रम चलाया है वह
कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण है . उनका यह कार्यक्रम वर्षों से चल रहा है .इस संगठन
में उन्हीं मारवाड़ियों को शामिल करते हैं जिन्होंने नीम के कम से काम पांच पेड़ लगाए
हों .महेश राठी मुंबई में रहते हैं और उनका यह कार्यक्रम मुंबई में आयोजित किया जा
रहा है . वे मुंबई और ठाणे महानगर के सभी इलाकों में आवासीय सोसाइटियों मे नीम का पौधा लगाने का
अभियान चला रहे हैं .
नीम के प्रचार प्रसार के लिए जो भी अभियान चलाए, उसका सम्मान किया जाना
चाहिए क्योंकि नीम को गरीब आदमी के वैद्य के रूप में भारत के ग्रामीण इलाकों में
सम्मान मिला हुआ है . यह भारत, पाकिस्तान और बंगलादेश में तो यह बहुत ही अहम वृक्ष
है ही , बाकी दुनिया में भी इसे बहुत बुलंद मुकाम हासिल है .इसकी खासियत यह है कि
यह कम पानी वाले इलाके में भी हरा भरा रह सकता है . सूखे की हालत में भी नीम का
अस्तित्व बचा रहता है . राजस्थान के रेगिस्तानी इलाकों के लिए तो यह वरदान स्वरूप ही है .नीम का पेड़ यूकेलिप्टस की तरह ज़मीन का पानी खींचकर
रेगिस्तान नहीं बनाता है . रेगिस्तान को नीम हराभरा करने के काम आता है क्योंकि यह ज़मीन का सारा पानी नहीं सोखता . नीम एक
जीवनदायी वनस्पति है . कीड़ों को दूर रखने
के लिए इसका खूब इस्तेमाल होता है .यह एंटीसेप्टिक के रूप में भी इस्तेमाल होता है
.कुछ इलाकों में तो नीम की पत्तों की सब्जी भी बनायी जाती है. पिछले दो हज़ार
वर्षों से नीम का भारतीय जन जीवन में बहुत ही प्रमुख स्थान है .इसका इस्तेमाल
डायबिटीज़ , वाइरल बुखार , और फुंसी आदि के
इलाज़ के लिए हमेशा से ही होता रहा है . शायद इसीलिये इसे पवित्र वृक्ष के अलावा
ग्रामीण दवाखाना और प्रकृति की फार्मेसी
के रूप में भी जाना जाता है . बहुत सारे चर्म रोगों के इलाज़ के लिए नीम के तेल और
पत्तों का इस्तेमाल होता रहा है . बहुत
सारी आयुर्वेदिक , यूनानी और सिद्ध दवाओं में
नीम के तेल का इस्तेमाल किया जाता है . सौंदर्य प्रसाधन और साबुन में भी नीम का
इस्तेमाल होता है
१९९५ में यूरोप के पेटेंट आफिस ने अमरीकी कंपनी डब्लू आर ग्रेस और
अमरीका सरकार के कृषि विभाग को नीम के के
किसी प्रासेस का पेटेंट दे दिया था . भारत सरकार ने इस आदेश को चुनौती दी और यह
साबित कर दिया कि भारत में बहुत सारी चिकित्सा नीम के उत्पादों के सहयोग से होती है . इसलिए २००५ एन हमेशा के लिए भारत के
पक्ष में नीम के उत्पादों का पेटेंट सुरक्षित हो गया .
मैं महेश राठी का आभारी हूँ जिन्होंने नीम के बारे में ज़िक्र करके
मुझे मेरे गाँव में पंहुचा दिया और मेरे उस बचपन को जिंदा कर दिया जिसमें मेरी माँ
, मेरी बड़ी बहन और कालीमाई के अलावा मेरा कोई भी रक्षक नहीं था