Thursday, August 19, 2010

फिल्म शोले का जश्न और सरकारी आतंक को जनता का जवाब

शेष नारायण सिंह

35 साल पहले १९७५ के स्वतंत्रता दिवस पर फिल्म शोले रिलीज़ हुई थी. इस शुरुआत तो बहुत मामूली थी लेकिन कुछ ही दिनों में यह फिल्म पूरे देश में चर्चा का विषय बन गयी. उस फिल्म में आनंद और ज़ंजीर जैसी फिल्मों से थोडा नाम कमा चुके अमिताभ बच्चन थे तो उस वक़्त के ही-मैन धर्मेन्द्र भी थे .लेकिन फिल्म सबसे ज्यादा चर्चा में अमजद खां की वजह से आई . व्यापारिक लिहाज़ से फिल्म बहुत ही सफल रही. बहुत सारी व्याख्याएं हैं यह बताने के लिए कि क्यों यह फिल्म इतनी सफल रही लेकिन जो सबसे बड़ी बात है वह उसकी कहानी और उसकी भाषा है. आज के सबसे बेहतरीन फिल्म लेखक जावेद अख्तर के इम्तिहान की फिल्म थी यह. यक़ीन जैसी फ्लॉप फिल्मों से शुरू करके उन्होंने सलीम खां के साथ जोड़ी बनायी थी. जी पी सिप्पी के बैनर के मुकामी लेखक थे. अंदाज़, सीता और गीता जैसी फिल्मों के लिए यह जोड़ी कहानी लिख चुकी थी . और जब शोले बनी तो कम दाम देकर इन्हीं लेखकों से कहानी और संवाद लिखवा लिए गए. और उसके बाद तो जिधर जाओ वहीं इस फिल्म के डायलाग सुनने को मिल जाते थे. वीडियो का चलन तो नहीं था लेकिन शोले के डायलाग बोलते हुए लोग कहीं भी मिल जाते थे. किसी बेवक़ूफ़ अफसर को अंग्रेजों के ज़माने का जेलर कह दिया जाता था . क्योंकि अपने इस डायलाग की वजह से असरानी सरकारी नाकारापन के सिम्बल बन गए थे. अमजद खां के डायलाग पूरी तरह से हिट हुए . इतने खूंखार डाकू का रोल किया था अमजद खां ने लेकिन वह सबका प्यारा हो गया. मीडिया का इतना विस्तार नहीं था ,कुछ फ़िल्मी पत्रिकाएं थीं, लेकिन धर्मयुग और साप्ताहिक हिन्दुस्तान के ज़रिये आबादी की मुख्यधारा में ल्मों का ज़िक्र पंहुचता था . ऐसे माहौल में शोले का एक कल्ट फिल्म बनना एक पहेली थी जो शुरूमें समझ में नहीं आती थी. ऐसा लगता है कि इस फिल्म की सफलता में इसकी रिलीज़ के करीब दो महीन पहले लगी इमरजेंसी का सबसे ज्यादा योगदान था . सरकारी दमनतंत्र पूरे उफान पर था. हर पुलिस वाला किसी भी राह चलते को हड़का लेता था . बड़े शहरों में तो नेता लोग ही पकडे जा रहे थे लेकिन कस्बों में पुलिस ने हर उस आदमी को दुरुस्त करने का फैसला कर रखा था जो उसकी बात नहीं मानता था. दरोगा लोग उन व्यापारियों को बंद कर दे रहे थे जिन्होंने कभी उनका हुक्म नहीं माना था. हर कस्बे से जो व्यापारी पकडे गए, उन्हें डी आई आर में बंद किया गया. बहाने भी अजीब थे . मसलन अगर किसी ने अपनी दुकान पर रेट सही नहीं लिखा या बोर्ड पर स्टोर की सही जानकारी नहीं दी, उसे बंद कर दिया जाता. चार छेह दिन बंद रहने के बाद घूस-पात देकर लोग छूट जाते लेकिन नौकरशाही के आतंक का लोहा मान कर आते . आस पास भी ऐसा ही माहौल था. अखबार अब जैसे तो नहीं थे लेकिन जो भी अखबार थे उनमें यह खबरें बिलकुल नहीं छप सकती थीं क्योंकि सेंसर लागू था. बड़े नेताओं या राजनीति की वे खबरें जो कांग्रेस के खिलाफ होतीं वे भी नहीं छप सकती थी. आम तौर पर अखबारों में विकास की खबरें रहती थीं या कांग्रेसियों के वे भाषण जिसमें कहा गया रहता था कि इमरजेंसी की १०० नयी उपलब्धियां हैं , आइये इन्हें स्थायी बनाएं. या संजय गाँधी के वचन ,बातें कम ,काम ज्यादा को अखबारों में तरह तरह से प्रमुखता दी जाती थी . हर वह आदमी जो किसी रूप में सरकार का प्रतिनिधित्व करता था ,उसे देख कर लोग चिढ़ते थे लेकिन इमरजेंसी का आतंक था और कोई भी सरकारी अफसर के विरोध में एक शब्द नहीं बोल सकता था .

इस माहौल में शोले रिलीज़ हुई . इस फिल्म के पहले बहुत सारी फ़िल्में डाकुओं पर आधारित बनी थीं और बहुत सारे डाकू पसंद भी किये गए थे लेकिन उन डाकुओं में राबिनहुड का व्यक्तित्व मिलाया जाता था जिस से लोग उन्हें पसंद करें. मसलन कहीं डाकू किसी गरीब की मदद कर रहा होता था तो कहीं किसी लड़की को बचा रहा होता था और हीरो साहेब वह रोल कर रहे होते थे . डाकू का मानवीय चेहरा सामने आता था और वह सहानुभूति का पात्र बन जाता था लेकिन शोले का डाकू ऐसे किसी काम में नहीं शामिल था. वह खतरनाक था, खूंखार था और गरीब आदमियों के खिलाफ था. किसी के हाथ काट लेता था, तो किसी गरीब आदमी के बच्चे की लाश उसके घर वालों के पास भेज देता था या किसी लडकी को मजबूर करता था . इसके बावजूद उसको १९७५-७६ की जनता ने कल्ट फिगर बनाया .किसी को पता भी नहीं था कि ऐसा क्यों हो रहा है लेकिन बाद में समझ में आया कि वह फिल्म इसलिए सफल हुई थी कि उसमें सरकार के दो प्रमुख संस्थान , पुलिस और जेल के खिलाफ माहौल बनाया गया था . बगावत करने वाले खूंखार डाकू को जनता अपनाने को तैयार थी लेकिन दोनों हाथ गंवा चुके पुलिस वाले से उसकी हमदर्दी नहीं थी. वास्तव में आम आदमी को राज्य के खिलाफ कुछ होता देखकर मज़ा आने लगा था. इसके अलावा अमजद खां, जावेद अख्तर और अमिताभ बच्चन की बुलंदी का दौर इसी फिल्म से शुरू होता है .अखबारों में विकास की ख़बरों के खिलाफ इस फिल्म को एक स्टेटमेंट के रूप में भी देखा गया था और शोले ने व्यापारिक सफलता के सारे रिकार्ड कायम किये . इसलिए आज ३५ साल बाद जब पीछे मुड़ कर देखते हैं तो लगता है कि किस तरह से सरकारी आतंक से दबी हुई जनता एक फिल्म को ही उत्सव का साधन बना लेती है.