Thursday, September 16, 2010

कश्मीर समस्या का हल सोनिया गाँधी के रास्ते ही संभव है

शेष नारायण सिंह

जम्मू-कश्मीर के संकट में सभी राजनीतिक दलों को शामिल करने की गरज से प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह की पहल का स्वागत किया जाना चाहिए . कश्मीर की समस्या पिछले ६३ वर्षों से भारत के लिए मुसीबत बनी हुई है . उसका हल निकालना इसलिए बहुत मुश्किल है कि उसमें शुरू से ही पाकिस्तानी पेंच फंसी हुई है बल्कि यह कहना ठीक होगा कि कश्मीर समस्या है ही पाकिस्तान की वजह से . मुल्क के बँटवारे के बाद पता नहीं किस पिनक में पाकिस्तान के पहले गवर्नर जनरल , मुहम्मद अली जिन्ना कश्मीर को अपना मान बैठे थे. उसी चक्कर में वे कश्मीर के उस वक़्त के राजा को पट्टी पढ़ाते रहे . लेकिन धीरज नाम की चीज़ तो जिन्ना को छू नहीं गयी थी इसलिए राजा की प्रतिक्रिया का इंतज़ार किये बिना उन्होंने कुछ कबायलियों के साथ पाकिस्तानी सेना को भेज दिया . राजा घबडा गया और उसने सरदार पटेल के सामने आकर भारत के साथ विलय के प्रस्ताव पर दस्तखत कर दिया. बाद में भारत ने पाकिस्तानी सेना को मय कबायलियों के खदेड़ा लेकिन जिन हिस्सों पर यह कबायली क़ब्ज़ा कर चुके थे , वह विवादित हो गया . आज भी कश्मीर के मुज़फराबाद सहित कुछ इलाकों पर पाकिस्तानी क़ब्ज़ा है . कश्मीर समस्या में दिनोंदिन पेंच फंसती गयी और अब हालत यह है कि कश्मीर में पाकिस्तानी घुसपैठ जिस मुकाम पर है, वह भारत की एकता के लिए चुनौती बन चुका है . सच्चाई यह है कि पाकिस्तान में जो हालात हैं , उसे अब न तो पाकिस्तान काबू कर सकता है और न ही वहां पाकिस्तानी पैसे से काम कर रहे अलगाववादी . अब लड़ाई में वह आबादी शामिल हो चुकी है जो पैदा ही आतंकवाद के माहौल में हुई और बचपन से उसने वही देखा है . अब इन नौजवानों के नेताओं को तलाश कर उनसे बात करने की ज़रुरत है .
प्रधानमंत्री के दफ्तर से बुलाई गयी सर्वदलीय बैठक में भी यही बात उभर कर सामने आई है . तय किया गया कि सभी दलों का एक प्रतिनिधिमंडल कश्मीर भेजा जाएगा जो वहां के सभी पक्षों से बात करेगा और लौटकर केंद्र सरकार को रिपोर्ट देगा . उसी के आधार पर अगली कार्रवाई का रास्ता तय किया जाएगा. कश्मीर की हालात पर विचार करते समय राजनीतिक दल अपने स्वार्थ की सीमा से बाहर नहीं आ पाते . सच्ची बात यह है कि कश्मीर की समस्या की जड़ में ही राजनीतिक लोगों का राजनीतिक स्वार्थ रहा है . १९४७ में कश्मीर की राजा की जेब में एक राजनीतिक पार्टी हुआ करती थी . नाम था प्रजा परिषद् . राजा इस पार्टी का इस्तेमाल , रियासत के लोकप्रिय नेता , शेख मुहम्मद अब्दुल्ला के खिलाफ किया करते थे. यह पार्टी राजा के हुक्म की इतनी बड़ी गुलाम थी कि जब राजा ने पाकिस्तान में अपने राज्य का विलय करने का मंसूबा बनाया तो यह पार्टी उसके लिए भी राजी हो गयी थी. बाद में प्रजा परिषद का आर एस एस के मातहत काम करने वाली पार्टी, भारतीय जनसंघ के साथ हो विलय गया था . इन्हीं प्रजा परिषद् वालों के कहने पर ही जन संघ के उस वक़्त के नेता, डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने शेख के खिलाफ अभियान चलाया था . ऐसे ही एक अभियान के दौरान जब वे कश्मीर गए तो उनकी मौत हो गयी. बाद में शेख के बडबोलेपन की वजह से जवाहरलाल नेहरू ने उनकी सरकार को बर्खास्त किया और उन्हें जेल में डाला . डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी की पार्टी वाले आज भी अपने स्वर्गीय नेता के गैरजिम्मेदार आचरण से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं . प्रधानमंत्री की बैठक में भी बी जे पी के अध्यक्ष के साथ आडवानी गुट के जो नेता शामिल हुए उनकी राय यही थी कि कश्मीर की हालात का फायदा उठा कर बाकी देश में वोट जीते जाएँ . बहरहाल इस बैठक में सोनिया गांधी ने जो कुछ भी कहा , उसके बाद सभी पार्टियों से ज़िम्मेदार राजनीतिक आचरण की उम्मीद की जानी चाहिये.

कश्मीर के बारे में विचार करते वक़्त जो सबसे ज़रूरी बात ध्यान में रखने की है, वह कश्मीर की विशेष राजनीतिक परिस्थितियाँ हैं. जवाहर लाल नेहरू की मृत्यु के बाद दिल्ली के अदूरदर्शी नेताओं ने कश्मीर की जनता - कश्मीरी पंडित और मुसलमान - दोनों की भावनाओं के साथ खूब खिलवाड़ किया है . उस से बाहर आने की ज़रुरत है . इसलिए ज़रूरी है कि सर्वदलीय बैठक में कही गयी सोनिया गांधी की बातों को गंभीरता से लें और उन्हीं बातों को आदर्श मान कर कश्मीर समस्या के हल के लिए आगे बढे. सोनिया गांधी ने बैठक में कहा कि राजनीतिक और वैचारिक मतभेदों को भुलाकर हिंसा और तकलीफ के ज़हरीले घुमावदार रास्ते को दरकिनार करके कश्मीर में जो इंसानियत रहती है उसके घावों पर बातचीत का मलहम लगाएं. उन्होंने कहा कि ऐसे संवाद को कायम करने के लिए कश्मीरी अवाम की जायज़ महत्वाकांक्षाओं को ध्यान में रखना ज़रूरी होगा. यहाँ यह भी साफ़ कर देने की ज़रुरत है कि आर एस एस और उसके अधीन काम करने वाले लोगों को यह ध्यान रखना पड़ेगा कि सोनिया गांधी आज की तारीख में इस देश की सबसे बड़ी नेता हैं और उनके प्रति नफरत का ज़हर फैलाने से बाज़ आना चाहिए . अगर बी जे पी की बड़ी नेता, सुषमा स्वराज कह सकती हैं कि उन्हें राजीव गाँधी की समाधि पर पुष्प चढाने में कोई दिक्कत नहीं है तो छुटभैये नेताओं को इस सच्चाई को समझ में लेने में ज्यादा मुश्किल पेश नहीं आनी चाहिए . इस बात में कोई दो राय नहीं है कि बुधवार को हुई सर्वदलीय बैठक के बाद सोनिया गांधी का क़द बहुत बड़ा हो गया है लिहाज़ा बी जे पी के छोटे नेताओं को चाहिए कि उन्हें देश का नेता स्वीकार कर लें . बी जे पी आलाकमान उस रास्ते पर पहले ही चल चुका है .