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Saturday, November 16, 2013

नरेंद्र मोदी का इतिहासबोध भी सरदार पटेल को आर एस एस का हमदर्द नहीं बना सकता



शेष नारायण सिंह 

आजकल आर एस एस / बीजेपी की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी अपनी पार्टी की राजनीति को इतिहाससम्मत बनाने के काम में जुटे हुए है . इस चक्कर में वे बहुत ऊलजलूल काम कर रहे हैं . अभी गुजरात में किसी भाषण में उन्होंने कह दिया कि उनकी पार्टी के संस्थापक डॉ श्यामा  प्रसाद मुखर्जी १९३० में स्विट्ज़रलैंड में मर गए थे जबकि इतिहास का कोई भी विद्यार्थी बता देगा कि डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मृत्यु १९५३ में कश्मीर में हुई थी. पटना के भाषण में उन्होंने कह दिया कि सिकंदर गंगा नदी तक आया  था. या कि तक्षशिला बिहार में था . मोदी जी की इन गलतियों का कारण यह है कि वे या इतिहास की सही जानकारी नहीं रखते और उनका दिमाग इस बात की कोशिश करता रहता है कि अपनी पार्टी को भी इतिहास की महान परंपरा से जोड़ने में सफलता हासिल करें .उनके ऊपर इस बात का दबाव है कि वे आज़ादी की लड़ाई के कुछ महानायकों के साथ अपनी पार्टी को भी जोड़ें . इस चक्कर में कभी वह मौलाना आज़ाद का नाम लेते हैं, कभी बाल गंगाधर तिलक का नाम लेते हैं लेकिन उनका दुर्भाग्य है कि यह सभी महान लोग आर एस एस में कभी नहीं रहे जबकि आज़ादी की लड़ाई के सारे महान नायक कांग्रेस में रह चुके हैं . मोदी  केवल एक प्वाइंट पर भारी पड़ते हैं कि कांग्रेस का मौजूदा नेतृत्व इंदिरा गांधी के परिवार के अलावा किसी का नाम नहीं लेता जबकि १९२० से १९५०  तक का कांग्रेस का इतिहास ऐसा है कि उस पर कोई भी गर्व कर सकता है और उसी  कालखंड का आर एस एस का इतिहास ऐसा है जिसे कोई भी गौरवशाली व्यक्ति अपना कहने में संकोच करेगा क्योंकि उसी दौर में भी महात्मा गांधी की हत्या हुई थी.

आज़ादी की लड़ाई के  नायकों को अपनाने की कोशिश आर एस एस और उसके मातहत संगठन अक्सर करते रहते हैं .२००९ में जब महात्मा गांधी की किताब हिंद स्वराज की रचना के सौ साल पूरे हुए तो आर.एस.एस. वालों ने एक बार फिर योग्य पूर्वजों की तलाश का काम शुरू कर दिया था. उस किताब के सौ साल पूरे होने के उपलक्ष्य में सेमीनार आदि आयोजित किये गए . करीब ३३ साल पहले महात्मा गांधी को अपनाने की कोशिश के नाकाम रहने के बाद उस प्रोजेक्ट को दफन कर दिया गया था लेकिन पता नहीं क्यों एक बार फिर महात्मा गांधी को अपनाने की जुगत चालू कर दी गयी थी. आर एस एस ने इस बार महात्मा गांधी के व्यक्तित्व पर नहीं उनके सिद्धांतों का अनुयायी होने की योजना शुरू किया है . हिंद स्वराज को अपनाने की स्कीम उसी रणनीति का हिस्सा है .।

आर एस एस की समस्या यह है कि उनके पास ऐसा कोई हीरो नहीं है जिसने भारत की आजादी में संघर्ष किया हो। एक वी.डी.सावरकर को आजादी की लड़ाई का हीरो बनाने की कोशिश की गई . जब संघ परिवार की केंद्र में सरकार बनी तो सावरकर की तस्वीर संसद के सेंट्रल हाल में लगाने में सफलता भी मिल गई लेकिन बात बनी नहीं क्योंकि 1910 तक के सावरकर और ब्रिटिश साम्राज्य से माफी मांगकर आजाद हुए सावरकर में बहुत फर्क है और पब्लिक तो सब जानती है। सावरकर को राष्ट्रीय हीरो बनाने की बीजेपी की कोशिश मुंह के बल गिरी। इस अभियान का नुकसान  हुआ क्योंकि जो लोग नहीं भी जानते थेउन्हें भी पता लग गया कि वी.डी. सावरकर ने अंग्रेजों से माफी मांगी थी और ब्रिटिश साम्राज्य की सेवा करने की शपथ ली थी।1980 में अटल बिहारी वाजपेयी ने गांधी को अपनाने की कोशिश शुरू की थी लेकिन गांधी के हत्यारों और संघ परिवार के संबंधों को लेकर मुश्किल सवाल पूछे जाने लगे तो योजना को छोड़ दिया  गया और कई साल तक महात्मा गांधी का नाम नहीं लिया। क्योंकि हिंद स्वराज में उन्होंने लिखा है - ''अगर हिंदू माने कि सारा हिंदुस्तान सिर्फ हिंदुओं से भरा होना चाहिएतो यह एक निरा सपना है। मुसलमान अगर ऐसा मानें कि उसमें सिर्फ मुसलमान ही रहेंतो उसे भी सपना ही समझिए। फिर भी हिंदूमुसलमानपारसीईसाई जो इस देश को अपना वतन मानकर बस चुके हैंएक देशीएक-मुल्की हैंवे देशी-भाई हैं और उन्हें एक -दूसरे के स्वार्थ के लिए भी एक होकर रहना पड़ेगा।" ज़ाहिर है यह आर एस एस बीजेपी की राजनीति के लिए कोई फायदे की बात नहीं है .
महात्मा जी ने अपनी बात कह दी और इसी सोच की बुनियाद पर उन्होंने 1920 के आंदोलन में हिंदू-मुस्लिम एकता की जो मिसाल प्रस्तुत कीउससे अंग्रेजी राज्य की चूलें हिल गईं। आज़ादी की पूरी लड़ाई में महात्मा गांधी ने धर्मनिरपेक्षता की इसी धारा को आगे बढ़ाया। शौकत अलीसरदार पटेलमौलाना अबुल कलाम आजाद और जवाहरलाल नेहरू ने इस सोच को आजादी की लड़ाई का स्थाई भाव बनाया। लेकिन अंग्रेज़ी सरकार हिंदू मुस्लिम एकता को किसी कीमत पर कायम नहीं होने देना चाहती थी। उसने जिन्ना जैसे लोगों की मदद से आजादी की लड़ाई में अड़ंगे डालने की कोशिश की और सफल भी हुए। महात्मा गांधी के १९२० के आंदोलन के बाद ही वी डी सावरकर की किताब “ हिंदुत्व “ को आधार बनाकर आर एस एस की स्थापना भी हुई.

बीच में कोशिश की गई कि आर.एस.एस. के संस्थापक डॉ के बी हेडगेवार के बारे में प्रचार किया जाय कि वे भी आजादी की लड़ाई में जेल गए थे लेकिन मामला चला नहीं। उल्टेजनता को पता लग गया कि वे जंगलात महकमे के किसी विवाद में जेल गए थे जिसे आर एस एस वाले अब वन सत्याग्रह नाम देते हैं . वन सत्याग्रह शब्द को सच भी मान लें तो आर.एस.एस. भी यह दावा कभी नहीं करता कि उसके संस्थापक १९२५ के बाद आजादी के किसी कार्यक्रम में संघर्ष का हिस्सा बने थे. हाँ कलकत्ता में कांग्रेस के सदस्य के रूप में वे शायद आज़ादी के संघर्ष में शामिल हुए रहे हों .। वन सत्याग्रह वाली बात को साबित करने के लिए आर एस एस की ओर से दिल्ली के किसी कालेज में काम करने वाले एक मास्टर साहेब की किताब का ज़िक्र किया जाता है . वे लोग बहुत जोर देकर बताते हैं कि कि वह किताब केन्द्र सरकार के प्रकाशन विभाग ने छापी है . हो सकता है कि सरकार ने किताब छापी हो लेकिन उस किताब का सोर्स क्या है इसपर कोई बात नहीं करता . 1940 में संघ के मुखिया बनने के बाद एम एस गोलवलकर भी घूमघाम तो करते रहे लेकिन एक दिन के लिए भी जेल नहीं गए। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौर में जब पूरा देश गांधी के नेतृत्व में आजादी की लड़ाई में शामिल था तो न तो आर.एस.एस. के प्रमुख एम एस गोलवलकर को कोई तकलीफ हुई और न ही मुस्लिम लीग के नेता मुहम्मद अली जिनाह को। दोनों जेल से बाहर की आजादी का सुख भोगते रहे।

जब संसद में सावरकर की तस्वीर लगाने के मामले पर एन.डी.ए. सरकार की पूरी तरह से दुर्दशा हो गई तो सरदार पटेल को अपनाने की कोशिश शुरू की गई ,जो आज तक चल रही है .  सरदार पटेल को अपनाने की आर.एस.एस. की हिम्मत की दाद देनी पडे़गी क्योंकि आर.एस.एस. को अपमानित करने वालों की अगर कोई लिस्ट बने तो उसमें सरदार पटेल का नाम सबसे ऊपर आएगा। सरदार पटेल ने ही महात्मा गांधी की हत्या वाले केस में आर.एस.एस. पर पाबंदी लगाई थी और उसके मुखिया गोलवलकर को गिरफ्तार करवाया था। जब हत्या में गोलवलकर का रोल सिद्ध नहीं हो सका तो उन्हें छोड़ दिया जाना चाहिए था लेकिन सरदार पटेल ने कहा कि तब तक नहीं छोड़ेंगे जब तक वह अंडरटेकिंग न दें। सरदार पटेल ने लिखित अंडरटेकिंग लेकर गोलवलकर को जेल से रिहा होने दिया था . सरदार पटेल  की एक दूसरी शर्त थी कि रिहाई के पहले आर एस एस का  एक लिखित संविधान भी बनाया जाए.संविधान बन भी गया लेकिन उसका इस्तेमाल केवाल अपने प्रमुख  की रिहाई मात्र था.वह कभी लागू नहीं हुआ. उस संविधान में लिखा गया है कि संघ वाले किसी तरह ही राजनीति में शामिल नहीं हो सकेंगे। उसके बाद राजनीति करने के लिए 1951 में जनसंघ की स्थापना हुई। १९७७ में भारतीय जनसंघ का  जनता पार्टी में विलय हुआ और उसी जनता पार्टी को तोड़कर बाद में भारतीय जनता पार्टी बनी जिसको आज लोग बीजेपी के नाम से जानते हैं ..

अपने को आज़ादी की लड़ाई से जोड़ने की कोशिश करने का काम पिछले दिनों बीजेपी और  आर एस एस की तरफ से प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी को सौंपा गया .नरेंद्र मोदी ने सबसे पहले तो सरदार पटेल को अपना साबित करने का अभियान चालू किया और उन्हें गुजराती तक कह डाला जबकि सरदार पटेल को किसी एक भौगोलिक सीमा में बांधना असंभव है . वे तो सारे देश के नेता थे.  सरदार पटेल को अपना सकना नरेंद्र मोदी के लिए बहुत मुश्किल साबित होने वाला है क्योंकि नरेंद्र मोदी की छवि एक ऐसे व्यक्ति की  है जिसके राज में २००२ में हज़ारों मुसलमानों को निर्दयता पूर्वक क़त्ल कर दिया गया था  और सरकार ने राजधर्म नहीं निभाया था. जबकि सरदार पटेल ने देश के विभाजन के बाद के हुए खून खराबे में लोगों को मुसलमानों की जान बचाने के लिए प्रेरित किया था . सरदार धर्मनिरपेक्षता के पक्षधर थे .केन्द्र सरकार के गृहमंत्री के रूप में सरदार पटेल ने 16 दिसंबर 1948 को घोषित किया कि सरकार भारत को ''सही अर्थों में धर्मनिरपेक्ष सरकार बनाने के लिए कृत संकल्प है।" (हिंदुस्तान टाइम्स - 17-12-1948)

सरदार पटेल को इतिहास मुसलमानों के एक रक्षक के रूप में भी याद रखेगा। सितंबर 1947 में सरदार को पता लगा कि अमृतसर से गुजरने वाले मुसलमानों के काफिले पर वहां के सिख हमला करने वाले हैं।सरदार पटेल अमृतसर गए और वहां करीब दो लाख लोगों की भीड़ जमा हो गई जिनके रिश्तेदारों को पश्चिमी पंजाब में मार डाला गया था। भारत के गृहमंत्री के साथ पूरा सरकारी अमला था और उनकी बेटी भी थीं। भीड़ बदले के लिए तड़प रही थी और कांग्रेस से नाराज थी। सरदार ने इस भीड़ को संबोधित किया और कहा, ''इसी शहर के जलियांवाला बाग की माटी में आज़ादी हासिल करने के लिए हिंदुओंसिखों और मुसलमानों का खून एक दूसरे से मिला था। ............... मैं आपके पास एक ख़ास अपील लेकर आया हूं। इस शहर से गुजर रहे मुस्लिम शरणार्थियों की सुरक्षा का जिम्मा लीजिए ............ एक हफ्ते तक अपने हाथ बांधे रहिए और देखिए क्या होता है।मुस्लिम शरणार्थियों को सुरक्षा दीजिए और अपने लोगों की डयूटी लगाइए कि वे उन्हें सीमा तक पहुंचा कर आएं।" सरदार पटेल की इस अपील के बाद पंजाब में हिंसा नहीं हुई। कहीं किसी शरणार्थी पर हमला नहीं हुआ. ज़ाहिर है कि इस राजनीतिक सोच के मालिक सरदार पटेल के जीवन में ऐसे सैकड़ों काम होंगें जो नरेंद्र मोदी या उनकी राजनीति के हित के साधन के लिए किसी काम के नहीं होगें . इसलिए आर एस एस की सरदार पटेल को अपनाने की कोशिश भी सफल  नहीं होने वाली है .ऐसी हालत में बेहतर यही होगा कि नरेंद्र मोदी समेत आर एस एस के बाकी लोग इतिहास को स्वीकार कर लें और उसे बदलने की कोशिश न करें .

Sunday, May 13, 2012

तानाशाही राजनीति वालों को डॉ अंबेडकर और नेहरू के लिबरल राजनीतिक विचारों को रौंदने नहीं दिया जाएगा



शेष नारायण सिंह 
२८ अगस्त १९४९ को शंकर्स वीकली में छपे एक  कार्टून को लेकर डॉ अंबेडकर के नाम पर वोट की भीख मांगने वालों ने हल्ला मचाया और  डॉ  अंबेडकर की राजनीति और दर्शन शास्त्र के जानकारों ने  चुप्पी साध ली. उस कार्टून का सन्दर्भ नहीं जाना और नेताओं की हाँ में हाँ मिलाते नज़र  आये. यह इस देश का दुर्भाग्य है . मैं यह मानने को बिलकुल तैयार नहीं हूँ कि इस देश में डॉ अंबेडकर की राजनीति को समझने वालों की कमी है . हालांकि मैं यह भी अब मुकम्मल तौर पर मानने लगा हूँ कि  डॉ अंबेडकर के नाम पर वोट की भीख माँगने वालों को उनके राजनीतिक दर्शन के बारे में बिलकुल  सही  जानकारी नहीं है .  जिस कार्टून के हवाले से संसद में हंगामा हुआ वह हमारे नेताओं की  बौद्धिक क्षमता का एक अहम नमूना है. सबको मालूम है कि संसद में हमेशा ऐसे लोगों का बहुमत होता है जो इस देश के इतिहास और राजनीति को अच्छी तरह से समझते हैं . हाँ इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि संसद में कुछ ऐसे लोग भी  पंहुच गए हैं जिनको भारत के  समकालीन इतिहास की कोई जानकारी नहीं है .  यहाँ यह जान लेना बहुत ज़रूरी है कि डॉ अंबेडकर उदारवादी राजनीतिक दार्शनिक थे. अपनी आलोचना करने वालों को हमेशा ही अपने  मिशन को पूरा करने वालों में शामिल मानते थे . अपने विरोधियों के प्रति कभी भी हिंसा का समर्थन नहीं किया .  जिन लोगों ने संविधान सभा की बहस के दौरान हुए भाषणों को पढ़ा है उन्हें मालूम है कि उसी सभा में मौजूद तरह तरह की मान्यता वाले लोगों को आनरेबल डाक्टर बी आर अंबेडकर ( बाम्बे) किस तरह से  निरुत्तर  कर दिया करते थे. हम जानते हैं कि संविधान सभा में एक बहुत बड़ी संख्या में राजाओं के प्रतिनिधि  थे. बहुत सारे धार्मिक पुरातनपंथी थे, बहुत सारे ऐसे लोग थे जो मानते थे कि शूद्रों को इस देश में बराबरी  का हक नहीं है . यह सारे लोग बहुत सारी कमेटियों के सदस्य भी थे . उन्हीं कमेटियों से  वह सुझाव आये   थे  जो बाद में ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष आनरेबल डॉ बी आर अंबेडकर ( बाम्बे) के  विचार के लिए प्रस्तुत किये गए थे . उन सुझावों को अगर कोई ध्यान से  देखे तो समझ में आ जाएगा कि संविधान सभा में किस तरह  के दकियानूसी विचारों के लोग मौजूद थे . उन सुझावों पर बहुत लम्बी बहस चली . हर बहस के दौरान   ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष डॉ बी आर अंबेडकर वहां मौजूद रहते थे और हर उल्टी सीधी बात  का तार्किक जवाब देते थे. 
 १५ अगस्त १९४७ की आज़ादी के  बाद यह उम्मीद की गयी थी कि संविधान दो साल में तैयार हो जाएगा . महात्मा गाँधी की मृत्यु हो चुकी थी . डॉ अंबेडकर को राजनीतिक समर्थन देने  वालों में केवल जवाहर लाल नेहरू और सरदार पटेल बचे थे .  बाकी लोग डॉ अंबेडकर को मिल रहे महत्व से बहुत दुखी थी इसलिए वे उनके काम में मीन मेख निकालते रहते थे. इन्हीं महानुभावों की प्रेरणा से संविधान सभा में बेमतलब की बहसें चलती रहती थीं. जब दो साल पूरे होने के बाद भी संविधान तैयार नहीं हो सका तो अगस्त १९४९ में बहुत सारे अखबारों में खबरें छप रही थीं कि संविधान में हो रही बहसों के चलते  संविधान तैयार नहीं हो पा रहा है . सरदार पटेल दिन रात देशी रियासतों को भारतीय गणराज्य में विलय कारवाने की कोशिश  कर रहे थे. संविधान को सही तरीके से  पेश करने का काम शुद्ध रूप से जवाहर लाल नेहरू और डॉ अंबेडकर के जिम्मे आ पड़ा था . दोनों ही नेता  संविधान सभा के ज़रिये संविधान निर्माण की प्रक्रिया में अडंगा डालने वालों से नाराज़ थे .यह कार्टून उसी नाराज़गी की अभिव्यक्ति है . इसमें उन लोगों को आइना दिखाया गया है जो संविधान के निर्माण की प्रक्रिया को कछुआ चाल चलने के  लिए मजबूर कर रहे थे . इसमें न तो डॉ अंबेडकर का कहीं अपमान है और न कहीं नेहरू का . लेकिन दुर्भाग्य यह है कि डॉ अंबेडकर और जवाहर लाल नेहरू जैसे लिबरल नेताओं के समर्थक  इन दोनों ही नेताओं के नाम पर वोट की याचना करने वालों के सामने बौने साबित हो रहे हैं . अगर इस देश में तानाशाही राजनीति की ताकतें डॉ अंबेडकर और जवाहर लाल नेहरू के उदारवादी राजनीतिक विचारों को रौंदने में कामयाब हो गयीं तो देश की आज़ादी की रक्षा कर पाना बहुत मुश्किल होगा . यह कार्टून इस बात का भी संकेत है कि संविधान के निर्माण में सबसे बड़ी भूमिका डॉ अंबेडकर और जवाहर लाल  नेहरू की  ही  थी.  

Monday, April 30, 2012

मधु लिमये ने सरदार पटेल को धर्मनिरपेक्षता का महान प्रणेता बताया था


( १-०५-१९२२ को मधु लिमये का जन्म हुआ था )  



शेष  नारायण सिंह 

मधु लिमये होते तो ९० साल के हो गए होते . मुझे मधु  जी के करीब आने का मौक़ा १९७७ में मिला था जब वे लोक सभा के लिए चुनकर दिल्ली  आये थे. लेकिन उसके बाद दुआ सलाम तो होती रही लेकिन अपनी रोजी रोटी की लड़ाई में मैं बहुत व्यस्त हो गया. . जब आर एस एस ने  बाबरी मस्जिद के मामले को गरमाया तो पता नहीं कब मधु जी से मिलना जुलना लगभग रोज़ ही का सिलसिला बन गया .  इन दिनों वे सक्रिय राजनीति से संन्यास ले चुके थे और लगभग पूरा समय लिखने में लगा रहे थे. बाबरी मस्जिद के बारे में आर एस एस और बीजेपी वाले उन दिनों सरदार पटेल के हवाले से अपनी बात कहते पाए जाते थे. हुम लोग भी दबे रहते थे क्योंकि सरदार पटेल को कांग्रेसियों का एक वर्ग भी साम्प्रदायिक बताने की कोशिश करता रहता था. उन्हीं दिनों मधु लिमये ने मुझे बताया था कि सरदार पटेल किसी भी तरह से हिन्दू साम्प्रदायिक नहीं थे. 
 दिसंबर १९४९ में  फैजाबाद के तत्कालीन कलेक्टर के के नायर की साज़िश के बाद बाबरी मस्जिद में भगवान् राम की मूर्तियाँ रख दी गयी थीं . केंद्र सरकार बहुत चिंतित थी . ९ जनवरी १९५० के दिन  देश के गृह मंत्री ने रूप में सरदार पटेल ने उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री गोविन्द वल्लभ पन्त को लिखा था. पत्र में साफ़ लिखा है कि " मैं समझता हूँ कि इस मामले दोनों सम्प्रदायों के बीच आपसी समझदारी से हल किया जाना चाहिए . इस तरह के मामलों में शक्ति के प्रयोग का कोई सवाल नहीं पैदा होता... मुझे यकीन है कि इस मामले को इतना गंभीर मामला नहीं बनने देना चाहिए और वर्तमान अनुचित विवादों को शान्ति पूर्ण तरीकों से सुलझाया जाना चाहिए ." 

मधु जी ने बताया कि सरदार पटेल इतने व्यावहारिक थे किउन्होने मामले के भावनात्मक आयामों  को समझा और इसमें मुसलमानों की सहमति प्राप्त करने की आवश्यकता पर जोर दिया . उसी दौर में मधु लिमये ने बताया था कि बीजेपी किसी भी हालत में सरदार पटेल को जवाहर लाल नेहरू का विरोधी नहीं साबित कर सकती क्योंकि महात्मा जी से सरदार की जो अंतिम बात हुई थी उसमें उन्होंने साफ़ कह दिया था कि जवाहर ;लाल से मिल जुल कर काम कारण है . सरदार पटेल एन महात्मा जी की अंतिम इच्छा को हमेशा ही सम्मान दिया ..

मधु लिमये हर बार कहा करते थे कि भारत की आज़ादी की लड़ाई जिन मूल्यों पर लड़ी गयी थी, उनमें धर्म निरपेक्षता एक अहम मूल्य था . धर्मनिरपेक्षता  भारत के संविधान का स्थायी भाव है, उसकी मुख्यधारा है। धर्मनिरपेक्ष राजनीति किसी के खिलाफ कोई नकारात्मक प्रक्रिया नहीं है। वह एक सकारात्मक गतिविधि है। मौजूदा राजनेताओं को इस बात पर विचार करना पड़ेगा और धर्मनिरपेक्षता को सत्ता में बने रहने की रणनीति के तौर पर नहीं राष्ट्र निर्माण और संविधान की सर्वोच्चता के जरूरी हथियार के रूप में संचालित करना पड़ेगा। क्योंकि आज भी धर्मनिरपेक्षता का मूल तत्व वही है जो 1909 में महात्मा गांधी ने हिंद स्वराज में लिख दिया था..

धर्मनिरपेक्ष होना हमारे गणतंत्र के लिए बहुत ज़रूरी है। इस देश में जो भी संविधान की शपथ लेकर सरकारी पदों पर बैठता है वह स्वीकार करता है कि भारत के संविधान की हर बात उसे मंज़ूर है यानी उसके पास धर्मनिरपेक्षता छोड़ देने का विकल्प नहीं रह जाता। जहां तक आजादी की लड़ाई का सवाल है उसका तो उद्देश्य ही धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय का राज कायम करना था। महात्मा गांधी ने अपनी पुस्तक 'हिंद स्वराज' में पहली बार देश की आजादी के सवाल को हिंदू-मुस्लिम एकता से जोड़ा है। गांधी जी एक महान कम्युनिकेटर थे, जटिल सी जटिल बात को बहुत साधारण तरीके से कह देते थे। हिंद स्वराज में उन्होंने लिखा है - ''अगर हिंदू माने कि सारा हिंदुस्तान सिर्फ हिंदुओं से भरा होना चाहिए, तो यह एक निरा सपना है। मुसलमान अगर ऐसा मानें कि उसमें सिर्फ मुसलमान ही रहें, तो उसे भी सपना ही समझिए। फिर भी हिंदू, मुसलमान, पारसी, ईसाई जो इस देश को अपना वतन मानकर बस चुके हैं, एक देशी, एक-मुल्की हैं, वे देशी-भाई हैं और उन्हें एक -दूसरे के स्वार्थ के लिए भी एक होकर रहना पड़ेगा।"

महात्मा जी ने अपनी बात कह दी और इसी सोच की बुनियाद पर उन्होंने 1920 के आंदोलन में हिंदू-मुस्लिम एकता की जो मिसाल प्रस्तुत की, उससे अंग्रेजी राज्य की चूलें हिल गईं। आज़ादी की पूरी लड़ाई में महात्मा गांधी ने धर्मनिरपेक्षता की इसी धारा को आगे बढ़ाया। शौकत अली, सरदार पटेल, मौलाना अबुल कलाम आजाद और जवाहरलाल नेहरू ने इस सोच को आजादी की लड़ाई का स्थाई भाव बनाया।लेकिन अंग्रेज़ी सरकार हिंदू मुस्लिम एकता को किसी कीमत पर कायम नहीं होने देना चाहती थी . महात्मा गाँधी के दो बहुत बड़े अनुयायी जवाहर लाल नेहरू और  कांग्रेस के दूसरे बड़े नेता, सरदार वल्लभ भाई पटेल ने धर्मनिरपेक्षता को इस देश के मिजाज़ से बिलकुल मिलाकर राष्ट्र की बुनियाद रखी.

मधु जी बताया करते थे कि कांग्रेसियों के ही एक वर्ग ने सरदार को हिंदू संप्रदायवादी साबित करने की कई बार कोशिश की लेकिन उन्हें कोई सफलता नहीं मिली। भारत सरकार के गृहमंत्री सरदार पटेल ने 16 दिसंबर 1948 को घोषित किया कि सरकार भारत को ''सही अर्थों में धर्मनिरपेक्ष सरकार बनाने के लिए कृत संकल्प है।" (हिंदुस्तान टाइम्स - 17-12-1948)। सरदार पटेल को इतिहास मुसलमानों के एक रक्षक के रूप में भी याद रखेगा। सितंबर 1947 में सरदार को पता लगा कि अमृतसर से गुजरने वाले मुसलमानों के काफिले पर वहां के सिख हमला करने वाले हैं। सरदार पटेल अमृतसर गए और वहां करीब दो लाख लोगों की भीड़ जमा हो गई जिनके रिश्तेदारों को पश्चिमी पंजाब में मार डाला गया था। उनके साथ पूरा सरकारी अमला था और उनकी बहन भी थीं। भीड़ बदले के लिए तड़प रही थी और कांग्रेस से नाराज थी। सरदार ने इस भीड़ को संबोधित किया और कहा, ''इसी शहर के जलियांवाला बाग की माटी में आज़ादी हासिल करने के लिए हिंदुओं, सिखों और मुसलमानों का खून एक दूसरे से मिला था। ............... मैं आपके पास एक ख़ास अपील लेकर आया हूं। इस शहर से गुजर रहे मुस्लिम शरणार्थियों की सुरक्षा का जिम्मा लीजिए ............ एक हफ्ते तक अपने हाथ बांधे रहिए और देखिए क्या होता है।मुस्लिम शरणार्थियों को सुरक्षा दीजिए और अपने लोगों की डयूटी लगाइए कि वे उन्हें सीमा तक पहुंचा कर आएं।" 

सरदार पटेल की इस अपील के बाद पंजाब में हिंसा नहीं हुई। कहीं किसी शरणार्थी पर हमला नहीं हुआ। कांग्रेस के दूसरे नेता जवाहरलाल नेहरू थे। उनकी धर्मनिरपेक्षता की कहानियां चारों तरफ सुनी जा सकती हैं। उन्होंने लोकतंत्र की जो संस्थाएं विकसित कीं, सभी में सामाजिक बराबरी और सामाजिक सद्भाव की बातें विद्यमान रहती थीं। प्रेस से उनके रिश्ते हमेशा अच्छे रहे इसलिए उनके धर्मनिरपेक्ष चिंतन को सभी जानते हैं और उस पर कभी कोई सवाल नहीं उठता।
बाद में  इन चर्चाओं के दौरान हुई  बहुत  सारी बातों को मधु लिमये ने अपनी किताब ," सरदार पटेल: सुव्यवस्थित राज्य के प्रणेता " में विस्तार से लिखी भी हैं . १९९४ में जब मैंने इस किताब की समीक्षा लिखी तो मधु जी बहुत खुश हुए थे और उन्होंने संसद के पुस्तकालय से मेरे लेख की फोटोकापी लाकर मुझे दी और कहा कि सरदार पटेल के बारे के जो लेख तुमने लिखा है वह बहुत  अच्छा है . मैं अपने लेखन के बारे में उनके उस बयान को अपनी यादों की सबसे बड़ी धरोहर मानता हूँ जो उस महान व्यक्ति ने मुझे उत्साहित करने के लिए दिया था .

Monday, October 31, 2011

राजनीतिक फैसलों में पारदर्शिता और मजबूती सरदार पटेल की विरासत है

शेष नारायण सिंह


तेलंगाना के विवाद के चलते हैदराबाद एक बार फिर चर्चा में है. जब भी हैदराबाद का ज़िक्र आता है , समकालीन इतिहास का कोई भी विद्यार्थी सरदार पटेल को याद किये बिना नहीं रह सकता.३१ अक्टूबर और १५ दिसंबर के दिन सरकारी तबकों में सरदार पटेल को याद करना फैशन है . हालांकि ३१ अक्टूबर को इंदिरा गाँधी के मौत के चलते कांग्रेसी लोग उसी में व्यस्त रहते हैं लेकिन आज भी देश का समझदार वर्ग इस अवसर पर कुशल राज्य के उस महान प्रणेता और हैदराबाद के सबंधों को याद करना ज़रूरी समझता है .१५ अगस्त १९४७ को जब आज़ादी मिली तो सरदार को इस बात अनुमान हो गया था कि उनके पास बहुत वक़्त नहीं बचा है ..गृहमंत्री के रूप में उनके सिर पर समस्याओं का अम्बार लगा था .अंग्रेजों ने ऐसे ऐसे खेल रच रखे थे कि भारत के गृहमंत्री को एक मिनट की फुरसत न मिले..लेकिन सरदार पटेल की नज़र में भी लक्ष्य और उसको पूरा करने की पक्की कार्ययोजना थी और अपने सहयोगी वी पी मेनन के साथ मिल कर वे उसको पूरा कर रहे थे..

अंग्रेजों ने आज़ादी के बाद जो देश छोड़ा था उसमें ऐसे बहुत सारे देशी राजा थे जो अपने को भारत से अलग रखना चाहते थे. इन राजाओं को अंग्रेजों का नैतिक समर्थन भी हासिल था. मुल्क का बंटवारा हो चुका था और देश , ख़ास कर पंजाब और बंगाल में बड़े पैमाने पर दंगे भड़के हुए थे .. लेकिन सरदार पटेल ने देश की एकता और अखंडता के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया . जब १५ दिसंबर १९५० को उन्होंने अपना शरीर त्याग किया तो आने वाली नस्लों के लिए एक ऐसा देश छोड़ कर गए थे जो पूरी तरह से एक राजनीतिक यूनिट था ..दुर्भाग्य यह है कि आज के नेता अपनी अदूरदर्शिता के चलते उसी देश को फिर तरह तरह के टुकड़ों में बांटने में लगे हुए हैं . हैदराबाद के लिये एक बार फिर लड़ाई शुरू हो गयी है . तेलंगाना और बाकी आन्ध्र प्रदेश के लोग हैदराबाद के लिए दावेदारी ठोंक रहे हैं . शायद इन में से किसी को पता नहीं होगा कि कैसे सरदार पटेल ने हैदराबाद को तबाही से बचाया था.हैदराबाद को स्वतंत्र भारत का हिस्सा बनाने के लिए सरदार पटेल को बहुत सारे पापड बेलने पड़े थे अंग्रेजों ने हैदराबाद के निजाम,उस्मान अली खां , को पता नहीं क्यों भरोसा दिला दिया था कि वे उसकी मर्जी का पूरा सम्मान करेंगे और निजाम जो चाहेंगें वही होगा... किसी ज़माने में इंग्लैंड के सम्राट ने निजाम को अपना सबसे वफादार सहयोगी कह दिया था और १९४७ के आस पास जो लोग भी ब्रिटिश सत्ता के आसपास थे वे निजाम की भलाई के लिए कुछ भी करने को तैयार थे .स्वतंत्र भारत के पहले गवर्नर जनरल , लार्ड माउंटबेटन भी उसी जमात में शामिल थे . वे निजाम से खुद ही बातचीत करना चाहते थे . भारत के गृहमंत्री, सरदार पटेल ने उनको भारी छूट दे रखी थी . बस एक शर्त थी कि हैदराबाद का मसला सिर्फ और सिर्फ ,भारत का मामला है उसमें किसी बाहरी देश की दखलंदाजी बर्दाश्त नहीं की जायेगी. उनके इस बयान में इंग्लैंड और पाकिस्तान दोनों के लिए चेतावनी निहित है ... उस वक़्त का हैदराबाद का निजाम भी बहुत गुरू चीज़ था. शायद उस वक़्त की दुनिया के सबसे धनी आदमियों में से एक था लेकिन कपडे लत्ते बिलकुल अजीब तरह के पहनता था. उसने एक ब्रिटिश वकील लगा रखा था जिसकी पहुँच लन्दन से लेकर दिल्ली तक थी. . सर वाल्टर मोक्टन नाम के इस वकील ने कई महीनों तक चीज़ों को घालमेल की स्थिति में रखा . इसकी सलाह पर ही निजाम ने भारत में पूर्ण विलय की बात न करके , एक सहयोग के समझौते पर दस्तखत करने की पेशकश की थी. . लार्ड माउंटबेटन भी इस प्रस्ताव के पक्ष में थे लेकन सरदार ने साफ़ मना कर दिया था. . इस बीच निजाम पाकिस्तान में शामिल होने की कोशिश भी कर रहा था .सरदार पटेल ने साफ़ कर दिया था कि अगर निजाम इस बात की गारंटी दे कि वह पाकिस्तान में कभी नहीं मिलेगा तो उसके साथ कुछ रियायत बरती जा सकती है . निजाम के राजी होने पर एक ऐसा समझौता हुआ जिसके तहत भारत और हैदराबाद एक दूसरे की राजधानी में एजेंट जनरल नियुक्त कर सकते थे..इस समझौते को करने के लिए निजाम को अपने प्रधानमंत्री, नवाब छतारी और ब्रिटिश वकील,सर वाल्टर मोक्टन की सलाह का लाभ मिला था लेकिन उन दिनों निजाम के ऊपर एक मुकामी नौजवान का बहुत प्रभाव था.उसका नाम कासिम रिज़वी था और वह इत्तेहादुल मुसलमीन का मुखिया था. कुख्यात रजाकार, इसी संगठन के मातहत काम करते थे . कासिम रिज़वी ने तिकड़म करके नवाब छतारी की छुट्टी करवा दी और उनकी जगह पर मीर लायक अली नाम के एक व्यापारी को तैनात करवा दिया . बस इसी फैसले के बाद निजाम की मुसीबतों का सिलसिला शुरू हुआ जो बहुत बाद तक चला...मीर लायक अली हैदराबाद के थे ,मुहम्मद अली जिन्ना के कृपापात्र थे और पाकिस्तान की तरफ से संयुक्तराष्ट्र जाने वाले प्रतिनिधि मंडल के सदस्य रह चुके थे... इसके बाद हैदराबाद में रिज़वी की तूती बोलने लगी थी .निजाम के प्रतिनिधि के रूप में उसने दिल्ली की यात्रा भी की. जब उसकी मुलाक़ात सरदार पटेल से हुई तो वह बहुत ही ऊंची किस्म की डींग मार रहा था. उसने सरदार पटेल से कहा कि उसके साथी अपना मकसद हासिल करने के लिए अंत तक लड़ेंगें .सरदार पटेल ने कहा कि अगर आप आत्महत्या करना चाहते हैं तो आपको कोई कैसे रोक सकता है ...हैदराबाद वापस जाकर भी, यह रिज़वी गैर ज़िम्मेदार करतूतों में लगा रहा ..इस बीच खबर आई कि हैदराबाद के बाहर के व्यापारियों ने वहां कुछ भी सामान भेजना बंद कर दिया है. निजाम की फ़रियाद लेकर वाल्टर मोक्टन दिल्ली पंहुचे और सरदार ने इस मसले पर गौर करने की बात की लेकिन इस बीच कासिम रिज़वी का एक बयान अखबारों में छपा जिसमें उसने मुसलमानों से अपील की थी कि अगर भारत से लड़ाई हुई तो उन्हें एक हाथ में कुरान और दूसरे हाथ में तलवार लेकर जंग में जाना होगा . उसने यह भी कहा कि भारत के साढ़े चार करोड़ मुसलमान भी उसके पांचवें कालम के रूप में उसके साथ रहेंगें ..बेचारे वाल्टर मोक्टन उस वक़्त दिल्ली में थे और जब सरदार पटेल ने उनको निजाम के सबसे ख़ास चेले की इस गैर जिम्मेदाराना हरकत के बारे में बताया तो वे परेशान हो गए और वादा किया कि हैदराबाद जाकर वे निजाम को सलाह देंगें कि रिज़वी को गिरफ्तार कर लें .लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ . उलटे मीर लायक अली ने कहा कि रिज़वी ने वह भाषण दिया ही नहीं था ..उसके बाद लायक अली भी दिल्ली आये जहां उनकी मुलाक़ात सरदार से भी हुई . अपनी बीमारी के बावजूद सरदार पटेल ने बातचीत की और साफ़ कह दिया कि यह रिज़वी अगर फ़ौरन काबू में न किया गया तो निजाम और हैदराबाद के लिए बहुत ही मुश्किल पेश आ सकती है . मीर लायक अली को इस तरह की साफ़ बात सुनने का अनुभव नहीं था क्योंकि जवाहर लाल नेहरु बातों को बहुत ही कूटनीतिक भाषा में कहते थे .. कुल मिलाकर माहौल ऐसा बन गया था कि बातें ही बातें होती रहती थीं और मामला उलझता जा रहा था . .. सरदार पटेल ने कहा कि अगर निजाम इस जिद पर अड़े रहते हैं कि वे भारत में शामिल नहीं होंगें तो उन्हें कम से कम लोकतांत्रिक व्यवस्था तो कायम कर ही देनी चाहिए..लेकिन हैदराबाद में इस बात को मानने के लिए कोई भी तैयार नहीं था. इसीलिए हैदराबाद को भारत के साथ मिलाना सरदार पटेल के सबसे मुश्किल कामों में एक साबित हुआ. . पता नहीं कहाँ से निजाम उस्मान अली खां को यह उम्मीद हो गयी थी कि भारत की आज़ादी के बाद , हैदराबाद को भी डोमिनियन स्टेटस मिल जाएगा. लेकिन ऐसा नहीं हुआ ..लेकिन इस उम्मीद के चलते निजाम ने थोक में गलतियाँ की .यहाँ तक कि वहां पर बाकायदा शक्तिप्रयोग किया और हैदराबाद की समस्या का हल निकाला गया. आखिर में सरदार को हैदराबाद में पुलिस एक्शन करना पड़ा जिसके बाद ही हैदराबाद पूरी तरह से भारत का हिस्सा बन सका .आज उनको गए साठ साल होने को आये लेकिन आज भी राजनीतिक फैसलों में उतनी ही दृढ़ता होनी चाहिए अगर किसी भी राजनीतिक समस्या का हल निकालना हो. ..राजनीतिक फैसलों में पारदर्शिता और मजबूती वास्तव में सरदार पटेल की विरासत है . वैसे भी आन्ध्र प्रदेश की राजनीति में बहुत सारे दांव पेंच होते हैं..जब सरदार पटेल जैसा गृहमंत्री परेशान हो सकता है तो आज के गृहमंत्री को तो बहुत ही चौकन्ना रहना पड़ेगा वरना एक गलत फैसला भारी राजनीतिक संकट पैदा कर सकता है

Thursday, September 16, 2010

कश्मीर समस्या का हल सोनिया गाँधी के रास्ते ही संभव है

शेष नारायण सिंह

जम्मू-कश्मीर के संकट में सभी राजनीतिक दलों को शामिल करने की गरज से प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह की पहल का स्वागत किया जाना चाहिए . कश्मीर की समस्या पिछले ६३ वर्षों से भारत के लिए मुसीबत बनी हुई है . उसका हल निकालना इसलिए बहुत मुश्किल है कि उसमें शुरू से ही पाकिस्तानी पेंच फंसी हुई है बल्कि यह कहना ठीक होगा कि कश्मीर समस्या है ही पाकिस्तान की वजह से . मुल्क के बँटवारे के बाद पता नहीं किस पिनक में पाकिस्तान के पहले गवर्नर जनरल , मुहम्मद अली जिन्ना कश्मीर को अपना मान बैठे थे. उसी चक्कर में वे कश्मीर के उस वक़्त के राजा को पट्टी पढ़ाते रहे . लेकिन धीरज नाम की चीज़ तो जिन्ना को छू नहीं गयी थी इसलिए राजा की प्रतिक्रिया का इंतज़ार किये बिना उन्होंने कुछ कबायलियों के साथ पाकिस्तानी सेना को भेज दिया . राजा घबडा गया और उसने सरदार पटेल के सामने आकर भारत के साथ विलय के प्रस्ताव पर दस्तखत कर दिया. बाद में भारत ने पाकिस्तानी सेना को मय कबायलियों के खदेड़ा लेकिन जिन हिस्सों पर यह कबायली क़ब्ज़ा कर चुके थे , वह विवादित हो गया . आज भी कश्मीर के मुज़फराबाद सहित कुछ इलाकों पर पाकिस्तानी क़ब्ज़ा है . कश्मीर समस्या में दिनोंदिन पेंच फंसती गयी और अब हालत यह है कि कश्मीर में पाकिस्तानी घुसपैठ जिस मुकाम पर है, वह भारत की एकता के लिए चुनौती बन चुका है . सच्चाई यह है कि पाकिस्तान में जो हालात हैं , उसे अब न तो पाकिस्तान काबू कर सकता है और न ही वहां पाकिस्तानी पैसे से काम कर रहे अलगाववादी . अब लड़ाई में वह आबादी शामिल हो चुकी है जो पैदा ही आतंकवाद के माहौल में हुई और बचपन से उसने वही देखा है . अब इन नौजवानों के नेताओं को तलाश कर उनसे बात करने की ज़रुरत है .
प्रधानमंत्री के दफ्तर से बुलाई गयी सर्वदलीय बैठक में भी यही बात उभर कर सामने आई है . तय किया गया कि सभी दलों का एक प्रतिनिधिमंडल कश्मीर भेजा जाएगा जो वहां के सभी पक्षों से बात करेगा और लौटकर केंद्र सरकार को रिपोर्ट देगा . उसी के आधार पर अगली कार्रवाई का रास्ता तय किया जाएगा. कश्मीर की हालात पर विचार करते समय राजनीतिक दल अपने स्वार्थ की सीमा से बाहर नहीं आ पाते . सच्ची बात यह है कि कश्मीर की समस्या की जड़ में ही राजनीतिक लोगों का राजनीतिक स्वार्थ रहा है . १९४७ में कश्मीर की राजा की जेब में एक राजनीतिक पार्टी हुआ करती थी . नाम था प्रजा परिषद् . राजा इस पार्टी का इस्तेमाल , रियासत के लोकप्रिय नेता , शेख मुहम्मद अब्दुल्ला के खिलाफ किया करते थे. यह पार्टी राजा के हुक्म की इतनी बड़ी गुलाम थी कि जब राजा ने पाकिस्तान में अपने राज्य का विलय करने का मंसूबा बनाया तो यह पार्टी उसके लिए भी राजी हो गयी थी. बाद में प्रजा परिषद का आर एस एस के मातहत काम करने वाली पार्टी, भारतीय जनसंघ के साथ हो विलय गया था . इन्हीं प्रजा परिषद् वालों के कहने पर ही जन संघ के उस वक़्त के नेता, डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने शेख के खिलाफ अभियान चलाया था . ऐसे ही एक अभियान के दौरान जब वे कश्मीर गए तो उनकी मौत हो गयी. बाद में शेख के बडबोलेपन की वजह से जवाहरलाल नेहरू ने उनकी सरकार को बर्खास्त किया और उन्हें जेल में डाला . डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी की पार्टी वाले आज भी अपने स्वर्गीय नेता के गैरजिम्मेदार आचरण से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं . प्रधानमंत्री की बैठक में भी बी जे पी के अध्यक्ष के साथ आडवानी गुट के जो नेता शामिल हुए उनकी राय यही थी कि कश्मीर की हालात का फायदा उठा कर बाकी देश में वोट जीते जाएँ . बहरहाल इस बैठक में सोनिया गांधी ने जो कुछ भी कहा , उसके बाद सभी पार्टियों से ज़िम्मेदार राजनीतिक आचरण की उम्मीद की जानी चाहिये.

कश्मीर के बारे में विचार करते वक़्त जो सबसे ज़रूरी बात ध्यान में रखने की है, वह कश्मीर की विशेष राजनीतिक परिस्थितियाँ हैं. जवाहर लाल नेहरू की मृत्यु के बाद दिल्ली के अदूरदर्शी नेताओं ने कश्मीर की जनता - कश्मीरी पंडित और मुसलमान - दोनों की भावनाओं के साथ खूब खिलवाड़ किया है . उस से बाहर आने की ज़रुरत है . इसलिए ज़रूरी है कि सर्वदलीय बैठक में कही गयी सोनिया गांधी की बातों को गंभीरता से लें और उन्हीं बातों को आदर्श मान कर कश्मीर समस्या के हल के लिए आगे बढे. सोनिया गांधी ने बैठक में कहा कि राजनीतिक और वैचारिक मतभेदों को भुलाकर हिंसा और तकलीफ के ज़हरीले घुमावदार रास्ते को दरकिनार करके कश्मीर में जो इंसानियत रहती है उसके घावों पर बातचीत का मलहम लगाएं. उन्होंने कहा कि ऐसे संवाद को कायम करने के लिए कश्मीरी अवाम की जायज़ महत्वाकांक्षाओं को ध्यान में रखना ज़रूरी होगा. यहाँ यह भी साफ़ कर देने की ज़रुरत है कि आर एस एस और उसके अधीन काम करने वाले लोगों को यह ध्यान रखना पड़ेगा कि सोनिया गांधी आज की तारीख में इस देश की सबसे बड़ी नेता हैं और उनके प्रति नफरत का ज़हर फैलाने से बाज़ आना चाहिए . अगर बी जे पी की बड़ी नेता, सुषमा स्वराज कह सकती हैं कि उन्हें राजीव गाँधी की समाधि पर पुष्प चढाने में कोई दिक्कत नहीं है तो छुटभैये नेताओं को इस सच्चाई को समझ में लेने में ज्यादा मुश्किल पेश नहीं आनी चाहिए . इस बात में कोई दो राय नहीं है कि बुधवार को हुई सर्वदलीय बैठक के बाद सोनिया गांधी का क़द बहुत बड़ा हो गया है लिहाज़ा बी जे पी के छोटे नेताओं को चाहिए कि उन्हें देश का नेता स्वीकार कर लें . बी जे पी आलाकमान उस रास्ते पर पहले ही चल चुका है .

Tuesday, December 15, 2009

हैदराबाद और सरदार पटेल की याद

शेष नारायण सिंह


तेलंगाना के विवाद के चलते हैदराबाद एक बार फिर चर्चा में है. जब भी हैदराबाद का ज़िक्र आता है , समकालीन इतिहास का कोई भी विद्यार्थी सरदार पटेल को याद किये बिना नहीं रह सकता. १५ दिसंबर को सरदार पटेल की पुण्यतिथि के अवसर पर कुशल राज्य के उस महान प्रणेता और हैदराबाद के सबंधों को याद करना बहुत ही महत्वपूर्ण है ...१५ अगस्त १९४७ को जब आज़ादी मिली तो सरदार को इस बात अनुमान हो गया था कि उनके पास बहुत वक़्त नहीं बचा है ..गृहमंत्री के रूप में उनके सिर पर समस्याओं का अम्बार लगा था .अंग्रेजों ने ऐसे ऐसे खेल रच रखे थे कि भारत के गृहमंत्री को एक मिनट की फुरसत न मिले..लेकिन सरदार पटेल की नज़र में भी लक्ष्य और उसको पूरा करने की पक्की कार्ययोजना थी और अपने सहयोगी वी पी मेनन के साथ मिल कर वे उसको पूरा कर रहे थे..
अंग्रेजों ने आज़ादी के बाद जो देश छोड़ा था उसमें ऐसे बहुत सारे देशी राजा थे जो अपने को भारत से अलग रखना चाहते थे. इन राजाओं को अंग्रेजों का नैतिक समर्थन भी हासिल था. मुल्क का बंटवारा हो चुका था और देश , ख़ास कर पंजाब और बंगाल में बड़े पैमाने पर दंगे भड़के हुए थे .. लेकिन सरदार पटेल ने देश की एकता और अखंडता के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया . जब १५ दिसंबर १९५० को उन्होंने अपना शरीर त्याग किया तो आने वाली नस्लों के लिए एक ऐसा देश छोड़ कर गए थे जो पूरी तरह से एक राजनीतिक यूनिट था ..दुर्भाग्य यह है कि आज के नेता अपनी अदूरदर्शिता के चलते उसी देश को फिर तरह तरह के टुकड़ों में बांटने में लगे हुए हैं . हैदराबाद के लिये एक बार फिर लड़ाई शुरू हो गयी है . तेलंगाना और बाकी आन्ध्र प्रदेश के लोग हैदराबाद के लिए दावेदारी ठोंक रहे हैं . शायद इन में से किसी को पता नहीं होगा कि कैसे सरदार पटेल ने हैदराबाद को तबाही से बचाया था.हैदराबाद को स्वतंत्र भारत का हिस्सा बनाने के लिए सरदार पटेल को बहुत सारे पापड बेलने पड़े थे अंग्रेजों ने हैदराबाद के निजाम,उस्मान अली खां , को पता नहीं क्यों भरोसा दिला दिया था कि वे उसकी मर्जी का पूरा सम्मान करेंगे और निजाम जो चाहेंगें वही होगा... किसी ज़माने में इंग्लैंड के सम्राट ने निजाम को अपना सबसे वफादार सहयोगी कह दिया था और १९४७ के आस पास जो लोग भी ब्रिटिश सत्ता के आसपास थे वे निजाम की भलाई के लिए कुछ भी करने को तैयार थे .स्वतंत्र भारत के पहले गवर्नर जनरल , लार्ड माउंटबेटन भी उसी जमात में शामिल थे . वे निजाम से खुद ही बातचीत करना चाहते थे . भारत के गृहमंत्री, सरदार पटेल ने उनको भारी छूट दे रखी थी . बस एक शर्त थी कि हैदराबाद का मसला सिर्फ और सिर्फ ,भारत का मामला है उसमें किसी बाहरी देश की दखलंदाजी बर्दाश्त नहीं की जायेगी. उनके इस बयान में इंग्लैंड और पाकिस्तान दोनों के लिए चेतावनी निहित है ... उस वक़्त का हैदराबाद का निजाम भी बहुत गुरू चीज़ था. शायद उस वक़्त की दुनिया के सबसे धनी आदमियों में से एक था लेकिन कपडे लत्ते बिलकुल अजीब तरह के पहनता था. उसने एक ब्रिटिश वकील लगा रखा था जिसकी पहुँच लन्दन से लेकर दिल्ली तक थी. . सर वाल्टर मोक्टन नाम के इस वकील ने कई महीनों तक चीज़ों को घालमेल की स्थिति में रखा . इसकी सलाह पर ही निजाम ने भारत में पूर्ण विलय की बात न करके , एक सहयोग के समझौते पर दस्तखत करने की पेशकश की थी. . लार्ड माउंटबेटन भी इस प्रस्ताव के पक्ष में थे लेकन सरदार ने साफ़ मना कर दिया था. . इस बीच निजाम पाकिस्तान में शामिल होने की कोशिश भी कर रहा था .सरदार पटेल ने साफ़ कर दिया था कि अगर निजाम इस बात की गारंटी दे कि वह पाकिस्तान में कभी नहीं मिलेगा तो उसके साथ कुछ रियायत बरती जा सकती है . निजाम के राजी होने पर एक ऐसा समझौता हुआ जिसके तहत भारत और हैदराबाद एक दूसरे की राजधानी में एजेंट जनरल नियुक्त कर सकते थे..इस समझौते को करने के लिए निजाम को अपने प्रधानमंत्री, नवाब छतारी और ब्रिटिश वकील,सर वाल्टर मोक्टन की सलाह का लाभ मिला था लेकिन उन दिनों निजाम के ऊपर एक मुकामी नौजवान का बहुत प्रभाव था.उसका नाम कासिम रिज़वी था और वह इत्तेहादुल मुसलमीन का मुखिया था. कुख्यात रजाकार, इसी संगठन के मातहत काम करते थे . कासिम रिज़वी ने तिकड़म करके नवाब छतारी की छुट्टी करवा दी और उनकी जगह पर मीर लायक अली नाम के एक व्यापारी को तैनात करवा दिया . बस इसी फैसले के बाद निजाम की मुसीबतों का सिलसिला शुरू हुआ जो बहुत बाद तक चला...मीर लायक अली हैदराबाद के थे ,मुहम्मद अली जिन्ना के कृपापात्र थे और पाकिस्तान की तरफ से संयुक्तराष्ट्र जाने वाले प्रतिनिधि मंडल के सदस्य रह चुके थे... इसके बाद हैदराबाद में रिज़वी की तूती बोलने लगी थी .निजाम के प्रतिनिधि के रूप में उसने दिल्ली की यात्रा भी की. जब उसकी मुलाक़ात सरदार पटेल से हुई तो वह बहुत ही ऊंची किस्म की डींग मार रहा था. उसने सरदार पटेल से कहा कि उसके साथी अपना मकसद हासिल करने के लिए अंत तक लड़ेंगें .सरदार पटेल ने कहा कि अगर आप आत्महत्या करना चाहते हैं तो आपको कोई कैसे रोक सकता है ...हैदराबाद वापस जाकर भी, यह रिज़वी गैर ज़िम्मेदार करतूतों में लगा रहा ..इस बीच खबर आई कि हैदराबाद के बाहर के व्यापारियों ने वहां कुछ भी सामान भेजना बंद कर दिया है. निजाम की फ़रियाद लेकर वाल्टर मोक्टन दिल्ली पंहुचे और सरदार ने इस मसले पर गौर करने की बात की लेकिन इस बीच कासिम रिज़वी का एक बयान अखबारों में छपा जिसमें उसने मुसलमानों से अपील की थी कि अगर भारत से लड़ाई हुई तो उन्हें एक हाथ में कुरान और दूसरे हाथ में तलवार लेकर जंग में जाना होगा . उसने यह भी कहा कि भारत के साढ़े चार करोड़ मुसलमान भी उसके पांचवें कालम के रूप में उसके साथ रहेंगें ..बेचारे वाल्टर मोक्टन उस वक़्त दिल्ली में थे और जब सरदार पटेल ने उनको निजाम के सबसे ख़ास चेले की इस गैर जिम्मेदाराना हरकत के बारे में बताया तो वे परेशान हो गए और वादा किया कि हैदराबाद जाकर वे निजाम को सलाह देंगें कि रिज़वी को गिरफ्तार कर लें .लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ . उलटे मीर लायक अली ने कहा कि रिज़वी ने वह भाषण दिया ही नहीं था ..उसके बाद लायक अली भी दिल्ली आये जहां उनकी मुलाक़ात सरदार से भी हुई . अपनी बीमारी के बावजूद सरदार पटेल ने बातचीत की और साफ़ कह दिया कि यह रिज़वी अगर फ़ौरन काबू में न किया गया तो निजाम और हैदराबाद के लिए बहुत ही मुश्किल पेश आ सकती है . मीर लायक अली को इस तरह की साफ़ बात सुनने का अनुभव नहीं था क्योंकि जवाहर लाल नेहरु बातों को बहुत ही कूटनीतिक भाषा में कहते थे .. कुल मिलाकर माहौल ऐसा बन गया था कि बातें ही बातें होती रहती थीं और मामला उलझता जा रहा था . .. सरदार पटेल ने कहा कि अगर निजाम इस जिद पर अड़े रहते हैं कि वे भारत में शामिल नहीं होंगें तो उन्हें कम से कम लोकतांत्रिक व्यवस्था तो कायम कर ही देनी चाहिए..लेकिन हैदराबाद में इस बात को मानने के लिए कोई भी तैयार नहीं था. इसीलिए हैदराबाद को भारत के साथ मिलाना सरदार पटेल के सबसे मुश्किल कामों में एक साबित हुआ. . पता नहीं कहाँ से निजाम उस्मान अली खां को यह उम्मीद हो गयी थी कि भारत की आज़ादी के बाद , हैदराबाद को भी डोमिनियन स्टेटस मिल जाएगा. लेकिन ऐसा नहीं हुआ ..लेकिन इस उम्मीद के चलते निजाम ने थोक में गलतियाँ की .यहाँ तक कि वहां पर बाकायदा शक्तिप्रयोग किया और हैदराबाद की समस्या का हल निकाला गया. आखिर में सरदार को हैदराबाद में पुलिस एक्शन करना पड़ा जिसके बाद ही हैदराबाद पूरी तरह से भारत का हिस्सा बन सका .आज उनको गए ५९ साल हो गए लेकिन आज भी राजनीतिक फैसलों में उतनी ही दृढ़ता होनी चाहिए अगर किसी भी राजनीतिक समस्या का हल निकालना हो. ..राजनीतिक फैसलों में पारदर्शिता और मजबूती वासत्व में सरदार पटेल की विरासत है . वैसे भी आन्ध्र प्रदेश की राजनीति में बहुत सारे दांव पेंच होते हैं..जब सरदार पटेल जैसा गृहमंत्री परेशान हो सकता है तो आज के गृहमंत्री को तो बहुत ही चौकन्ना रहना पड़ेगा वरना वैसे ही फैसले लेते रहेंगें जैसा इस बार लिया है और राजनीतिक संकट पैदा हो गया है