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Tuesday, May 29, 2012

क्या सोनिया गाँधी पूर्वोत्तर क्षेत्र में आतंक का ख़ात्मा चाहती हैं ?




शेष नारायण  सिंह 

 कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने अपने असम के दौरे के दौरान दावा किया है कि केंद्र की यू पी ए और असम की कांग्रेसी सरकार की कोशिश से उस  इलाके में आतंकवाद कमज़ोर पड़ा  है . बातचीत के ज़रिये समस्या को हल करने की नीति की उन्होंने तारीफ़ की और कहा कि यू पी ए और कांग्रेस की इसी नीति के कारण  कई आतंकवादी सगठनों ने आतंकवाद को तिलांजलि देने का फैसला किया है . उन्होंने भरोसा जताया कि आतंकवादी संगठनों के लोगों को विश्वास हो जाएगा कि आतंक का रास्ता सही नहीं है .वे  आगे  आयेगें और  शान्ति की प्रक्रिया में शामिल हो जायेगें.सोनिया गाँधी असम की कांग्रेसी सरकार के एक साल पूरा होने की खुशी में आयोजित एक सभा में भाषण कर रही थीं. दिल्ली में भी कांग्रेसी  मीडिया विभाग अपनी  अध्यक्ष की सफल असम यात्रा की तारीफ़ करते नहीं अघा रहा है . उनके साहस को ख़ास तौर से बताया जा रहा है कि बम विस्फोट के बाद भी उन्होंने अपने कार्यक्रम  में कोई परिवर्तन नहीं किया .
सोनिया गांधी का यह दावा सही नहीं है कि यू पी ए की केंद्र सरकार भी उत्तर पूर्वी भारत में आतंकवाद को ख़त्म करने की कोशिश कर रही है . जब से पूर्वोत्तर भारत में आतंकवादी गतिविधियाँ शुरू हुई हैं , हर मंच पर सरकार और  राजनीतिक पार्टियों ने दावा किया है कि अगर  उस इलाके का सही विकास किया गया होता तो आतंकवादियों को मौक़ा ही न मिलता कि वे उस इलाके के नाराज़ लोगों को साथ ले सकें .  पूर्वोतर भारत  के  विकास के लिए बहुत सारी योजनायें चलायी गयीं लेकिन केंद्र सरकार की गैरजिम्मेदारी का नतीजा है कि कोई भी योजना सही तरीके से लागू नहीं की गयी.  यह भी तर्क बार बार दिया गया है कि  आतंकवाद को ख़त्म करने के लिए विकास की योजनाओं  को  समयबद्ध तरीके से लागू किया जाना चाहिए .
 सच्चाई यह है कि केंद्र सरकार पूर्वोत्तर क्षेत्र के विकास के लिए गंभीर ही नहीं है. संसद के बजट सत्र में पूर्वोत्तर क्षेत्र के विकास मंत्रालय के काम काज के बारे में संसदीय स्थायी समिति की रिपोर्ट आई है जिसमें साफ़ लिखा है कि   क्षेत्र के  विकास के लिए प्रकृति ने बहुत सारी सम्पदा उपलब्ध कराई है लेकिन सरकार उनका सही इस्तेमाल नहीं कर पा रही है .पूर्वोत्तर भारत के इलाकों  पानी से पैदा होने वाली बिजली के सबसे बड़े  स्रोत हैं. उसके  लिए केंद्र सरकार ने बहुत सारी योजनायें भी बनायी हैं लेकिन  केंद्र सरकार के अधिकारी इस इलाके की योजनाओं के  सन्दर्भ में पूरी तरह से लापरवाह हैं. और क्षमता  का सही विकास नहीं किया जा रहा है . जिन योजनाओं को पूरा किया जाना  है ,मार्च २०१२ तक उनकी क्षमता का ९३ प्रतिशत पूरी  तरह से अनछुआ था. यह रिपोर्ट मई में संसद में रखी गयी थी. 
अपने देश में संसद की स्थायी समितियां संसदीय लोकतंत्र की बहुत ही  ताक़तवर संस्थाएं हैं . लेकिन केंद्र सरकार के अफसर गृह मंत्रालय के काम काज के लिए बनी हुई संसद की स्थायी समिति केंद्र सरकार के अफसर गंभीरता से नहीं ले रहे हैं . इसी कमेटी के एक सदस्य ने कहा कि अगर  यू पी ए की अध्यक्ष  पूर्वोत्तर भारत की समस्याओं  को  वास्तव में हल  करने का माहौल  बनाना  चाहती हैं तो उन्हें चाहिए कि अपनी सरकार के मंत्रियों से कहें कि वे केंद्र सरकार के अफसरों को संसदीय समितियों को सम्मान देने का का तरीका सिखाएं . 
कमेटी की  रिपोर्ट में लिखा है कि पूर्वोत्तर क्षेत्र के विकास के लिए २०१२-१३ के लिए अनुदान की मांग को लेकर जब चर्चा हो रही थी केंद्र सरकार के अफसरों ने  सरकार की बात रखने के लिए  उपयुक्त और ज़िम्मेदार अफसर तक नहीं भेजा. ११  अप्रैल  २०१२ की  बैठक को रद्द करना पड़ा क्योंकि कुछ मंत्रालयों और विभागों ने अपने अफसर ही नहीं भेजे जबकि कुछ अन्य विभागों ने बहुत ही जूनियर अफसरों को भेज दिया जो सही जवाब नहीं दे सके.बैठक  में जो अफसर हाज़िर भी हुए वे बिना किसी तैयारी  के आये थे . कमेटी ने इस बात का बहुत बुरा माना और जब रिपोर्ट संसद के दोनों सदनों के पटल पर रखी गयी तो इस बात को रिपोर्ट की प्रस्तावना में ही लिख दिया .कमेटी के अध्यक्ष ने कैबिनेट सेक्रेटरी को  चिट्ठी लख कर उनसे कहा कि केंद्र सरकार के इस गैरजिम्मेदार रवैये को ठीक करने के लिए उपाय करें.कमेटी  ने चेतावनी  दी है कि इस तरह की स्थिति दुबारा नहीं पैदा होनी चाहिए .
इस कमेटी के अध्यक्ष  राज्य सभा के सदस्य वेंकैया नायडू हैं जबकि इसके सदस्यों में लाल  कृष्ण आडवानी,बाबू लाल मरांडी,नीरज शेखर ,जनार्दन रेड्डी ,डी राजा और तारिक अनवर  आदि महत्वपूर्ण नेता शामिल हैं . ज़ाहिर है कि पूर्वोत्तर के विकास को अपनी प्राथमिकता बताने वाली यू पी ए को केंद्र सरकार के अफसरों पर भी ध्यान देना चाहिए .

Friday, June 24, 2011

क्योंकि तालीम के बिना कोई भी समाज तरक्की नहीं कर सकता.

शेष नारायण सिंह

कांग्रेस पार्टी पूरी मेहनत से मुसलमानों के वोट हासिल करने के लिए जुट गयी है .जब से डॉ मनमोहन सिंह की सत्ता स्थापित हुई है, मुसलमानों के हित के बारे में गंभीरता से चर्चा हो रही है . सच्चर कमेटी का गठन इस दिशा में एक महत्वपूर्ण क़दम माना जाता है . अब कांग्रेस के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने साम्प्रदायिक हिंसा पर काबू पाने की कोशिश करने की दिशा में एक बड़ा क़दम उठा दिया है. राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् ने साम्प्रदायिक हिंसा कानून को पास कराने की दिशा में पहल कर दिया है . उम्मीद है कि यह कानून बन भी जाएगा. इसके पहले अल्पसंख्यकों के लिए वजीफों की व्यवस्था करके सरकार ने मुसलमानों को अपनी तरफ आकर्षित करने की पूरी कोशिश की थी. जिसके नतीजे भी सामने आने लगे हैं . देश में एक ऐसा माहौल बन रहा है कि संजय गाँधी के दौर में जो मुसलमान कांग्रेस से दूर चले गए था अब वही मुसलमान फिर कांग्रेस की तरफ देखने लगा है . यह भी सच है कि बिहार और शायद उत्तर प्रदेश में भी अभी मुसलमानों के वोट कांग्रेस को नहीं मिलने वाले हैं क्योंकि इन राज्यों में कांग्रेस एक बहुत की कमज़ोर जमात है . इसके बावजूद भी कांग्रेस और यू पी ए की सरकारें मुसलमानों के हित बात सोच रही हैं . इस सारी सोच में एक पहलू बहुत ही निराशाजनक है . कांग्रेस के नेता मुसलमानों का ध्यान वहीं रखते हैं जहां उन्हने मुसलमानों के वोट की ज़रुरत है . बाकी इलाकों में सब कुछ खाली खाली ही रहता है . ऐसी हालत में मुसलमानों की सर्वांगीण तरक्की की बात अभी बहुत दूर की कौड़ी नज़र आती है . सरकारी और राजनीतिक उपेक्षा का एक बड़ा उदाहरण दिल्ली के बिलकुल करीब मेवात का इलाका है . गुडगाँव की मेट्रोपोलिटन आबादी से लगा हुआ यह इलाका अभी अठारहवीं सदी की ज़िन्दगी जीने के लिए मजबूर है . लड़कियों की तालीम का बंदोबस्त अभी संतोष जनक नहीं है . अभी भी सामाजिक न्याय यहाँ के लोगों के लिए एक सपने से ज्यादा नहीं है . लेकिन पिछले दिनों कुछ हाई प्रोफाइल राजनेता यहाँ पधारे . खुद सोनिया गाँधी वहां गयीं. और जो हालात देखीं उन्हें भी विश्वास नहीं हुआ. कांग्रेस ने अपने कुछ ऐसे नेताओं को भी भेजा जिनका मुसलमानों की तालीम के क्षेत्र में ख़ासा योगदान है . अब पता चला है कि वहां वक्फ की ज़मीन पर एक इंजीनियरिंग कालेज शुरू किया जा रहा है जिसमें दस फीसदी सीटें मेवात के लोगों के लिए रिज़र्व होंगीं.यह बड़ी शुरुआत है . पता चला है कि मेवात में ही एक मेडिकल कालेज शुरू करने की योजना बन चुकी है और उसमें भी मेवाती बच्चों को दस फीसदी सीटें देने का मन बना लिया गया है. लेकिन इस से कुछ नहीं होने वाला . यह इलाका आर्थिक रूप से बहुत पिछड़ा है . यहाँ जो हाई स्कूल हैं उनमें किसी में भी साइंस का टीचर नहीं है . सवाल पैदा होता है कि अगर इस इलाके के बच्चे साइंस की तालीम में बिलकुल जीरो रहेगें तो इंजीनियरिंग या मेडिकल की पढाई कैसे करेगें .
हालांकि यह संतोष की बात है कि सरकारी पहल के चलते इस इलाके में शिक्षा की तरक्की के कुछ ज़रूरी क़दम उठाये जा रहे हैं लेकिन जब तक इलाके के लोग खुशहाल नहीं होंगें तब तक कुछ नहीं होने वाला है .इस इलाके में रहने वाले लगभग सभी लोग खेती पर निर्भर हैं . लेकिन बाकी देश में किसानों को जो सरकारी सुविधाएं उपलब्ध हैं वे यहाँ के किसानों के लिए नहीं हैं . पता नहीं सरकारी बैंकों ने क्या नियम बना रखा है कि मेवात के लोगों को खेती के लिए ज़रूरी क़र्ज़ नहीं मिलता . अजीब बात यह है कि इस हालत को किसान और सरकारी अफसर बदलने के बारे में सोचते ही नहीं हैं . इस पूरे इलाके में कहीं भी बीज उपलब्ध कराने का लिए कोई केंद्र नहीं हैं . पानी बहुत ही खारा है . ३-४ सौ फीट की गहराई तक का पानी ऐसा नहीं है जिसे पीने या किसी अन्य काम के लिए इस्तेमाल किया जा सके. इसलिए किसान खेती के लिए बारिश के पानी पर पूरी तरह से निर्भर हैं . सरकार को चाहिए कि इस इलाके में बहुत गहरे जाकर पानी की तलाश करे और फिर उसी पानी को पीने और अन्य कार्यों के लिए इस्तेमाल करने की व्यवस्था करे. लेकिन ऐसा कहीं कुछ नहीं हो रहा है .
अपने मेवात यात्रा के दौरान यू पी ए की अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने सामाजिक तरक्की के सबसे अहम पहलू पर सरकारी और गैर सरकारी क्षेत्र में काम करने वालों का ध्यान खींचा था. दरअसल उनकी यात्रा के दौरान कांग्रेस सरकार ने 'जननी शिशु सुरक्षा कार्यक्रम' को फोकस में लिया था. यह राष्ट्रीय ग्रामीण हेल्थ मिशन का गर्भवती महिलाओं के लिए शुरू किया गया एक कार्यक्रम है . मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुडा वहां मौजूद थे . उनके साथ हरियाणा की पूरी सरकार वहां हाज़िर थी . १ जून के अपने कार्यक्रम में सोनिया गाँधी ने मेवात के एक सौ दस गाँवों के लिए पीने के पानी की एक परियोजना की भी शुरुआत की. किसी भी समाज के विकास में वहां की महिलाओं की तरक्की की सबसे प्रमुख भूमिका होती है . ज़ाहिर है कि कांग्रेस ने मेवात जैसे पिछड़े इलाके में यह पहल करके एक अहम राजनीतिक चाल चल दी है जिसके उसे पक्के तौर पर राजनीति लाभ होगा. मुस्लिम राजनीतिक के जानकार जानते हैं कि उत्तर भारत के बहुत सारे इलाकों में इस्लाम के प्रचार के लिए जो जमातें जाती हैं उनमें भी बड़ी संख्या में इस इलाके के लोग शामिल होते हैं . ज़ाहिर है उनके पाने गाँव में जो भी विकास की कहानी देखने को मिल रही है वे उसका भी ज़िक्र अपनी तकरीरों में ज़रूर करेगें . ऐसा लगता है कि कांग्रेसी राजनीति के मैनेजरों की नज़र इन बातों पर भी होगी.
इस बात को मानने के बहुत सारे अवसर हैं कि कांग्रेसी नेता चुनावी राजनीति के लाभ को ध्यान में रख कर इस तरह की पहल कर रहे हैं लेकिन इस बात में दो राय नहीं है इस पहल से एक बहुत ही पिछड़े इलाके के पिछड़े मुसलमानों का फायदा होगा .ज़रुरत इस बात की है कि इस पहल को बाकी देश में भी नक़ल किया जाए.और लागू किया जाए. ख़ासकर शिक्षा के हलके में होने वाली तरक्की को हर इलाके में दोहराया जाए क्योंकि तालीम के बिना कभी भी कोई भी समाज तरक्की नहीं कर सकता.

Thursday, April 21, 2011

भ्रष्टाचार के खिलाफ सबसे बड़ा लठैत कौन ?

शेष नारायण सिंह

इस बात में दो राय नहीं है कि अन्ना हजारे सर्वोच्च स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार से बहुत चिंतित हैं . उन्होंने अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष में बिताया है . फौज की नौकरी ख़त्म करने के बाद उन्होंने सही गांधीवादी तरीके से अभियान चलाया और अपने गाँव को बाकी गावों से बेहतर बनाया . उनके गाँव में कुछ ऐसे परिवार भी हैं जो ऊब कर बड़े शहरों में चले गए थे लेकिन फिर वापस आ गए हैं. अन्ना को उनके समाज में बहुत ही सम्मान से देखा जाता है . ज़ाहिर है धीरे धीरे ईमानदारी से काम करते हुए वे आज देश में एक आन्दोलन खड़ा करने में सफल रहे हैं .डॉ सुब्रमण्यम स्वामी ने उन्हें सुझाव दिया था जब राष्ट्रीय स्तर पर आन्दोलन चलायें तो कुछ साफ़ छवि वाले राजनेताओं को भी साथ लें लें क्योंकि अंत में तय सब कुछ राजनीति के मैदान में ही होता है और वहां एक से एक घाघ बैठे हैं .उनको संभाल पाना अन्ना हजारे जैसे सीधे आदमी के लिए बहुत मुश्किल होगा. डॉ स्वामी की बात बिलकुल सच निकली. सत्ता पक्ष और विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टियों ने अन्ना हजारे के अभियान को अपना बनाने की कोशिश की . शुरुआती सफलता तो मुख्य विपक्षी पार्टी को मिली लेकिन जब मामला राजनीतिक लाभ लेने का आया तो कांग्रेस की अध्यक्ष ने हस्तक्षेप किया और अन्ना हजारे को विपक्ष के खेल से बाहर करके अपने साथ ले लिया . मुख्य विपक्षी पार्टी को निराशा हुई और उन्होंने अन्ना हजारे के खिलाफ तरह तरह की बातें करना शुरू कर दिया . अब पता चला है कि अपने ख़ास बन्दे बाबा रामदेव का इस्तेमाल करके एक नया अभियान शुरू करने की योजना बन रही है . बाबा का बयान आया है कि अब इंडिया अगेंस्ट करप्शन नाम के संगठन के बैनर तले एक नया आन्दोलन चलाया जाएगा. यानी अन्ना हजारे का अपनी राजनीति में इस्तेमाल करने में नाकाम रहने के बाद मुख्य विपक्षी पार्टी के लोग हताश नहीं हैं . वे कांग्रेस को भ्रष्टाचार का समानार्थक शब्द बनाने की अपनी मुहिम को अन्ना हजारे के बिना भी चलाने की कोशिश करेगें . लेकिन लगता है कि कांग्रेस ने भी अन्ना हजारे को भ्रष्टाचार के खिलाफ हीरो न बनने देने का फैसला कर लिया है .कांग्रेस का लगभग हर महत्वपूर्ण नेता , अन्ना हजारे पर छींटाकशी कर चुका है . जब अन्ना हजारे ने इस पर एतराज़ किया तो कांग्रेसियों ने कहना शुरू कर दिया कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लगाम नहीं लगाई जा सकती.यह भी कहा गया कि जब तक हर पक्ष के बारे में सारी बातें सामने न आ जाएँ तब तक सही बहस नहीं हो सकेगी .अन्ना की टीम के दो महत्वपूर्ण सदस्यों के बारे में कांग्रेस के संकटमोचक अमर सिंह भी सक्रिय हो गए.उन्होंने ऐसा अभियान चलाया कि शान्ति भूषण और प्रशांत भूषण की ईमानदारी की छवि ही सवालों के घेरे में आ गयी .अब अन्ना के आन्दोलन को कांग्रेसी लोग बिलकुल बेचारा बना देने की कोशिश में पूरी ताक़त से जुट गए हैं . बात बहुत अजीब लगती थी लेकिन सोनिया गाँधी ने जब अन्ना हजारे की शिकायती चिट्ठी का जवाब भेजा तो बात समझ में आ गयी . सच्चाई यह है कि सोनिया गाँधी अपने आपको सार्वजनिक जीवन में शुचिता की बहुत बड़ी अलंबरदार मानती हैं और जब अन्ना हजारे ने उनके उस रोल को कमज़ोर करने की कोशिश की तो सोनिया गाँधी को अच्छा नहीं लगा .उन्होंने अन्ना की चिट्ठी का जो जवाब दिया है उस से उनका यह दर्द साफ़ नज़र आता है . उन्होंने अन्ना को भरोसा दिलाया है कि सार्वजनिक जीवन में शुचिता लाने के लिए उनकी प्रतिबद्धता पर अन्ना को विश्वास करना चाहिए .यानी जब मैं भ्रष्टाचार के खिलाफ खुद काम कर रही हूँ तो आप क्यों बीच में कूद पड़े . ज़ाहिर है सोनिया गाँधी ने अन्ना के आन्दोलन से हो रहे नुकसान को तो काबू में कर लिया लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ चल रहे आन्दोलन की नेता वे खुद ही बनी रहना चाहती हैं . सूचना का अधिकार कानून बनवाकर और अपनी सरकारों के कई मंत्रियों के भ्रष्टाचार उजागर होने के बाद उनको दंडित करके उन्होंने अपनी यह छवि निखारने की पूरी कोशिश की है. अन्ना हजारे को लिखा गया उनका जवाब भी इसी कोशिश की एक कड़ी के रूप में देखा जाना चाहिए . उस चिट्ठी में उन्होंने लगभग कह दिया है कि सर्वोच्च स्तर के भ्रष्टाचार के खिलाफ प्रस्तावित लोकपाल बिल पर वे पूरी तल्लीनता से काम कर रही थीं लेकिन अन्ना के अनिश्चित कालीन अनशन से सब गड़बड़ कर दिया . सोनिया गाँधी लिखती हैं कि उनकी अध्यक्षता वाली नेशनल एडवाइज़री काउन्सिल अन्ना हजारे के साथ लोकपाल बिल के ड्राफ्ट पर सलाह मशविरा कर रही थी लेकिन इस बीच अन्ना के समर्थकों ने अनशन शुरू करवा दिया जिस से कि माहौल बदल गया और बात बिगड़ गयी . उसी चिट्ठी में सोनिया गाँधी ने लिखा है कि अरुणा राय की अध्यक्षता में बनायी गयी एन ए सी की एक उप समिति इस मामले पर गौर कर रही थी और उसने सिविल सोसाइटी के बहुत सारे प्रतिनिधियों से बातचीत की थी . जिन लोगों से बात चीत हुई थी उसमें अन्ना हजारे के बहुत करीबी लोगों , शांति भूषण , संतोष हेगड़े , प्रशांत भूषण , स्वामी अग्निवेश और अरविन्द केजरीवाल शामिल हैं . यानी सोनिया गाँधी यह कहना चाहती हैं कि आप और हम तो एक ही रास्ते पर चल रहे थे लेकिन बीच में कुछ लोगों ने कूद कर सब गड़बड़ कर दिया . सोनिया गाँधी ने साफ़ कहा कि कांग्रेस के बुराड़ी अधिवेशन में उनकी पार्टी ने लोकपाल बिल को पास करने का फैसला कर लिया था और एन ए सी की कार्यसूची में भी था और २८ अप्रैल की बैठक में अहम फैसले लिए जाने थे लेकिन आपके अनशन ने सब गड़बड़ कर दिया .

ज़ाहिर है सोनिया गाँधी नाराज़ हैं . उन्हें यह बात नागवार गुज़री है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ सबसे बड़ी नेता बनने की उनकी कोशिश को किसी ने ब्रेक लगाने की कोशिश की . शायद इसीलिये उनकी पार्टी के लोग अन्ना हजारे या उनके बाकी साथियों को घेरने में जुट गए हैं . हालांकि यह भी सच है कि अगर अन्ना हजारे ने देशव्यापी हस्तक्षेप न किया होता तो कांग्रेस के बुराड़ी अधिवेशन वाला लोकपाल बिल सब्जी का टोकरा ही साबित होता . जो भी हो उम्मीद की जानी चाहिए निहित स्वार्थों के चौतरफा हमलों से बचकर एक मज़बूत लोकपाल बिल बनाया जाएगा . उसमें अगर शान्ति भूषण ,प्रशांत भूषण या किसी और की पोल खुलती है तो खुले, जनता को इस से कोई मतलाब नहीं है .लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ एक कारगर कानून की जितनी आज ज़रूरत है उतनी कभी नहीं थी.

Wednesday, April 20, 2011

भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम का पहला राउंड सोनिया गाँधी ने जीता

शेष नारायण सिंह


अन्ना हजारे के अनिश्चितकालीन अनशन के दौरान मैं अस्पताल में पड़ा था. मुझे तो पीड़ा थी लेकिन डाक्टरों ने कहा कि बहुत ही मामूली बीमारी है . जो भी हो उस दौर में कुछ लिख नहीं पाया . कई मित्रों ने कहा कि इतनी बड़ी घटना घट रही है और आप कुछ लिख नहीं रहे हैं . लगा कि अवसर चूक रहा था लेकिन आज करीब दो हफ्ते बाद जब फिर लिखने बैठा हूँ तो लगता है कि अच्छा हुआ कुछ नहीं लिखा. क्योंकि चीज़ें इतनी तेज़ी से बदल रही थीं कि अगर कुछ लिख मारता तो ख़तरा पूरा था कि बेवकूफी भरा ज्ञान ही बघारता. अब ठीक है . अन्ना हजारे के मौजूं पर रवीश कुमार का बेहतरीन आलेख पढ़ चुका हूँ. अंग्रेज़ी अख़बारों में सर्वज्ञ विश्लेषकों की शेखी पढ़ चुका हूँ और अब अन्ना हजारे के आन्दोलन को रास्ते से धकेल देने की कोशिशों के बारे में शुरुआती कोशिशों का जायजा ले चुका हूँ .लगता है आज जो कुछ लिखा जाएगा वह थोडा बहुत सन्दर्भ में होगा. सबसे बड़ी बात अब यह समझ में आ रही है कि जिन राजनेताओं ने लोकपाल बिल को ४२ वर्षों से लटकाए रखा वे आसानी से हार मानने वाले नहीं हैं . वे इस बिल को लगभग उसी क्वालिटी की सब्जी बनाने की कोशिश करेगें जैसी प्रसार भारती के साथ इन लोगों ने किया था . करीब बीस साल पहले जब प्रसार भारती की बात होती थी तो लगता था कि ऐसी संस्था बन जायेगी जो नेताओं की खूब जमकर पोल खोलेगी लेकिन प्रसार भारती का जो स्वरुप बन कर आया वह ऐसा है जैसे लाखों वर्षों से पाली गयी किसी बिल्ली ने म्याऊँ की आवाज़ निकाली हो . जैसा कि ज़्यादातर फालतू किस्म की संस्थाओं के साथ होता है ,प्रसार भारती भी सत्ता पक्ष के मित्रों को नौकरी देने का मंच बन कर रह गयी है . नेता लोग कोशिश करेगें कि लोकपाल बिल भी कुछ उसी डिजाइन का एक मंच बन जाए. लेकिन सूचना के अधिकार कानून और वेब पत्रकारिता की पूंजी से लैस इस देश का शिक्षित समाज नेताओं की मनमानी को शायद अब कारगर नहीं होने देगा.आजकल कांग्रेस की तरफ से कुछ नेता अन्ना हजारे को बेचारा साबित करने के चक्कर में जुटे हैं. उनकी टीम के खिलाफ सड़क छाप टिप्पणियाँ कर रहे हैं . उनकी कोशिश है कि लोकपाल बिल को या तो ठंडे बस्ते के हवाले कर दिया जाए और अगर नहीं तो इतना बवाल खड़ा कर दिया जाए कि मामला विवादित हो जाए . लेकिन सूचना की क्रान्ति, और विकीलीक्स की परंपरा से वाकिफ लोगों को उन तरीकों से बेवक़ूफ़ नहीं बनाया जा सकता जिस से पहले बनाया जाता था . आगे क्या होगा वह तो अभी अंदाज़ लगाना भी ठीक नहीं है लेकिन ३० जनवरी और आज के बीच जो कुछ भी हुआ है उस पर अब अपनी बात कहने का अवसर आ गया है . इतनी सूचना पब्लिक डोमेन में उपलब्ध है कि विश्लेषण करने में रिस्क बिलकुल नहीं है .
इस बात में दो राय नहीं है कि अन्ना हजारे का आन्दोलन उच्चकोटि की राजनीति का उदाहरण है . अन्ना के कैम्प में अपने लोगों को अहम रोल दिलवाकर आर एस एस/बीजेपी ने कोशिश की थी कि इस आन्दोलन को कांग्रेस के खिलाफ तूफ़ान के रूप में खड़ा कर दिया जाए. यह बिलकुल सही राजनीति थी और हर राजनीतिक पार्टी को अपने लाभ के लिए काम करना चाहिए . आर एस एस/बीजेपी की कोशिश थी कि कांग्रेस को भ्रष्टाचार का पर्यायवाची बनाकर पेश कर दिया जाए और अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को कांग्रेस के खिलाफ तूफ़ान के रूप में खड़ा कर दिया जाए. यह बहुत ही सही राजनीतिक रणनीति थी. लेकिन सच्ची बात यह है कि अन्ना हजारे का आन्दोलन भ्रष्टाचार के खिलाफ था . वह भ्रष्टाचार मूल रूप से तो कांग्रेस में ही है लेकिन आर एस एस/बीजेपी की सरकारें भी कम भ्रष्ट नहीं है . ज़ाहिर है अन्ना का आन्दोलन आर एस एस/बीजेपी की सरकारों के खिलाफ भी है . उन्होंने इस बात को बार बार कहा भी है .आर एस एस/बीजेपी ने किसी बहुत ही पाक साफ़ आदमी के आन्दोलन को अपने हित में इस्तेमाल करने की पहली कोशिश जेपी आन्दोलन के साथ की थी. जब लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने १९७४ में इंदिरा गाँधी की कांग्रेस के खिलाफ आन्दोलन की शुरुआत की तो उनके साथ कुछ आदर्शवादी समाजवादी लोग ही थे. लेकिन देश में इंदिरा गाँधी और उनके बेटे संजय के खिलाफ माहौल बन रहा था .आर एस एस ने राजनीति के इस रुख को पहचान लिया . इस बीच बी एच यू से अपनी पढाई पूरी करके के एन गोविन्दाचार्य पटना में आर एस एस के प्रचारक के रूप में गये. उन्होंने ही जेपी से बात की और उनके आन्दोलन को आर एस एस के समर्थन की पेशकश की. जेपी को बताया गया कि आपके साथ जो समाजवादी लोग लगे हैं वे सब नेता है और नेताओं के बल पर कोई भी आन्दोलन नहीं चलता . आर एस एस में सभी कार्यकर्ता होते हैं और वे आन्दोलन को ताक़त देगें . उसके बाद तो जेपी की बड़ी सभाएं होने लगीं . शुरू में जेपी का आन्दोलन भी इंदिरा गाँधी के खिलाफ नहीं था. वे कहते थे कि राजनीति में जो गड़बड़ियां आ गयीं है उन्हें ठीक करने की ज़रूरत है और उसमें इंदिरा गांधी को भी योगदान करना चाहिए . वे कई बार जवाहरलाल नेहरू से अपने संबंधों का हवाला भी देते थे लेकिन इंदिरा गाँधी की मानसिकता दूसरी थी . उन्होंने सोचा कि सत्ता का दमन चक्र चला कर उस आन्दोलन को निपटाया जा सकता था . वैसे महात्मा गाँधी के बाद इस देश में यह पहला आन्दोलन भी था जिसमें आम आदमी शामिल हुआ था .उन्होंने जेपी के कांग्रेस में मौजूद समर्थकों को कसना शुरू कर दिया . हेमवती नंदन बहुगुणा और चन्द्र शेखर उनकी इस नीति के शिकार हो गए . और आर एस एस ने अपने समर्थकों को पूरी तरह से आन्दोलन को ताक़त देने में लगा दिया . इंदिरा गाँधी ने जेपी को नज़रंदाज़ करना शुरू कर दिया और उनको 'कुछ लोग ' कहने लगीं . इस बीच इलाहाबाद हाई कोर्ट का फैसला आया और इंदिरा गाँधी के अंदर का तानाशाह भड़क उठा . नतीजा यह हुआ कि जो आन्दोलन राजनीति से भ्रष्टाचार मिटाने के लिए शुरू हुआ था वह कांग्रेस के खिलाफ एक तूफ़ान की शक्ल में खड़ा हो गया . बाद में १९७७ आया और आर एस एस को एक बार केंद्र की सरकार में शामिल होने का मौक़ा मिला.
अन्ना हजारे का आन्दोलन भी उसी तर्ज़ पर चल निकला था . ३० जनवरी २०११ के दिन जो देश भर में लोग उठ खड़े हुए थे ,उसमें बड़ी संख्या आर एस एस के कार्यकर्ताओं की थी. इस आन्दोलन में बहुत बड़े पैमाने पर सक्रिय बाबा रामदेव के ठिकाने पर जाकर बीजेपी के अध्यक्ष ने मुलाक़ात कर ली थी . अगर तीन चार दिन और यही हाल रहता तो आर एस एस/बीजेपी की कांग्रेस को भ्रष्टाचार का पर्याय बना देने में सफलता मिल जाती . और फिर १९७४ के आन्दोलन से भी ताक़त वर आन्दोलन तैयार हो जाता . कांग्रेसी नेताओं ने भी ऐसा माहौल बनाना शुरू कर दिया था कि अन्ना हजारे न चाहते हुए भी आर एस एस/बीजेपी के हित में काम करते नज़र आने लगते . लेकिन ठीक इसी वक़्त पर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने हस्तक्षेप किया और अन्ना हजारे के आन्दोलन से आर एस एस/बीजेपी को अलग कर दिया . उनकी पार्टी और सरकार के खिलाफ जो तूफ़ान चल पड़ा था उसे रास्ते में ही रोक कर अपनी राजनीतिक दक्षता का परिचय दिया . ज़ाहिर है कि आर एस एस/बीजेपी को इस खेल ने निराशा हुई और एक बड़ा राजनीतिक मौक़ा हाथ से निकल गया . बीजेपी के प्रवक्ताओं और उनकी तरफ से मीडिया में काम करने वालों का जो अन्ना के प्रति गुस्सा है वह इसी राजनीतिक घटना क्रम का नतीजा है .जिस सोनिया गाँधी को आर एस एस/बीजेपी वाले राजनेता ही मानने को तैयार नहीं थे ,उसने एक बार उन्हें फिर परेशानी में डाल दिया है . अब तो आर एस एस/बीजेपी वाले यह कहते पाए जा रहे हैं कि अन्ना हजारे वास्तव में कांग्रेस के बन्दे हैं . जो भी हो देश का राजनीतिक घटना क्रम एक बहुत ही दिलचस्प दौर से गुज़र रहा है और इस युद्ध का पहला राउंड सोनिया गाँधी ने जीत लिया है . आने वाला वक़्त दिलचस्प होगा और दुनिया भर के राजनीतिक विशेषकों की उस पर नज़र रहेगी.

Monday, January 10, 2011

बीजेपी ने सोनिया गाँधी को मुद्दा बनाया

शेष नारायण सिंह

उत्तर प्रदेश में १९६७ के चुनाव में बीजेपी के पूर्व अवतार,जनसंघ ने मजबूती से चुनाव लड़ा था.इसका मतलब यह नहीं कि पार्टी जीत गयी थी लेकिन थोड़ी सम्मानजनक सीटें मिल गयी थी. मेरे गाँव में भी १९६७ के चुनाव में जनसंघ का जोर था. पूरे गाँव ने जनसंघ को वोट दिया था लेकिन जब नतीजे आये तो उम्मीदवार हार गया ,कांग्रेस वाला जीत गया था . मेरे गाँव में हर आदमी हतप्रभ था कि जब पूरी आबादी जनसंघ को वोट दे रही है तो हारने का क्या मतलब है .जनसंघ की हनक भी इतनी थी कि आसपास के गाँवों के लोग डर के मारे यही कहते थे कि उनके गाँव में भी जनसंघ के चुनाव निशान दीपक पर ही वोट पड़ा था. लेकिन सच्चाई यह थी कि हमारे गाँव के बाहर के गाँवों के लोगों ने कांग्रेस को वोट दिया था. पूरे जिले में कांग्रेस को ही वोट मिला था और कांग्रेस लगभग सभी सीटों पर जीत गयी थी . मैं बहुत परेशान था और मेरे गाँव के भगेलू सिंह ने जब जनसंघ के उम्मीदवार के घर से लौट कर बताया कि कांग्रेसियों ने बक्सा बदल दिया तो हमारे गाँव में सबने विश्वास कर लिया था . १९७१ में जब इंदिरा गाँधी की पार्टी को भारी बहुमत मिला तो मेरे गाँव में भगेलू सिंह के समर्थकों ने साफ़ ऐलान कर दिया कि बक्सा बदल गया है .हालांकि तब तक कुछ और पढ़े लिखे लोग गाँव में पैदा हो चुके थे और उन्होंने कहा कि बक्सा नहीं बदला गया बल्कि अखबार में छपा था कि उस वक़्त के जनसंघ के बड़े नेता , बलराज मधोक ने कहा है कि कांग्रेस ने बैलट पेपर के ऊपर ऐसा केमिकल लगवा दिया था कि मोहर कहीं भी लगाओ निशान गाय बछड़े पर ही बन रहा था जो इस चुनाव में कांग्रेस का चुनाव निशान था.बहरहाल जो भी हो कांग्रेस की जीत में बेईमानी का योगदान मुकम्मल तौर पर माना जाता था . हमारे गाँव में कोई यह मानने को तैयार ही नहीं था कि जनसंघ जैसी अच्छी पार्टी को छोड़कर कोई किसी अन्य पार्टी को वोट दे सकता था..धीरे धीरे लोगों की समझ में आया कि एक गाँव के वोट से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता बाकी गाँवों में भी लोग रहते हैं और वोट देते हैं. हमारे गाँव वालों की समझ में यह बात तो बहुत पहले आ गयी लेकिन जनसंघ/बीजेपी के नेताओं की समझ में यह बात अभी तक नहीं आई है कि लोग उनके अलावा किसी और को वोट कैसे दे सकते हैं . शायद इसी मानसिकता से पीड़ित होकर गुवाहाटी में जमा हुये बीजेपी नेताओं ने बोफोर्स तोप के सौदे को एक बार फिर चुनावी मुद्दा बनाने की कोशिश की है . उन्हें लगता है कि जब बोफोर्स जैसा मुद्दा मौजूद है तो और किसी बात पर क्यों ध्यान दिया जाय . अब जब आम आदमी के दिमाग में बैठ गया है कि कामनवेल्थ और २ जी के घोटाले में कांग्रेस और बीजेपी ,दोनों ही शामिल हैं,तो बीजेपी उससे बचने की कोशिश कर रही है . प्याज की बढ़ी हुई कीमतें भी अच्छा मुद्दा थीं लेकिन अब ज़खीरेबाज़ों की धर पकड़ में तो बीजेपी वाले ही फंस रहे हैं .इसलिए कुल मिला कर बीजेपी को भ्रष्टाचार का एक मुद्ददा मिल रहा है जिसमें उसके लोग बिलकुल शामिल नहीं हैं और वह है , बोफोर्स वाला . लेकिन सवाल यह उठता है कि आज २५ साल बाद तक बोफोर्स मुद्दा चल पायेगा क्या? ख़ास तौर पर जब बोफोर्स के ६५ करोड़ रूपये के घूस के बदले जब बीजेपी के नेताओं ने अपनी सरकार के दौरान सैकड़ों करोड़ की हेराफेरी की हो . वैसे भी जानकार बताते हैं कि १९८९ के चुनाव में बीजेपी की सीटें बोफोर्स के चक्कर में नहीं बढीं थीं . हिंदुत्व के नारे ने काम किया था, बोफोर्स तो मरीचिका ही था . वैसे भी बाद के वर्षों में बोफोर्स केवल बीजेपी के नेताओं के दरबारों में मुद्दा रहा देश ने कभी उसे गंभीरता से नहीं लिया .लेकिन गुवाहाटी में तो बीजेपी के नागपुरी अध्यक्ष ने न केवल बोफोर्स को मुद्दा बनाने का ऐलान किया बल्कि सोनिया गाँधी के परिवार को मीडिया के फोकस में रखने का भी फैसला कर दिया . यह क़दम उतना ही अजीब है जितना जनता पार्टी के राज में चौधरी चरण सिंह का इंदिरा गाँधी को गिरफतार करने का फैसला था . इंदिरा गाँधी को देश ने १९७७ में दुत्कार दिया था लेकिन केंद्र सरकार की उस मूर्खतापूर्ण कारवाई के बाद जब इंदिरा गाँधी अखबारों के पहले पन्ने पर आयीं तो कभी हटी ही नहीं .इस तरह १९७७ में जनता ने जो बाज़ी जीती थी उसे उस दौर के गैर कांग्रेसी नेताओं ने हार में बदल दिया . बीजेपी के गुवाहाटी के फैसले से भी लगता है कि अब रोज़ ही इनकी प्रेस कानफरेंस में सोनिया गाँधी छायी रहेगीं और उन्हें ही सारा मीडिया कवर करने को मजबूर होगा. बीजेपी देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी है उसे इस तरह के गैरजिम्मेदार राजनीतिक आचरण से बच कर रहना चाहिए और ऐसी कोशिश करनी चाहिये कि भ्रष्टाचार ही मुद्दा बना रहे , कोई परिवार मुद्दा न बन बान जाए . बीजेपी के इस काम से आम आदमी की सत्ता को बदल देने की इच्छा प्रभावित होती है.

Monday, December 20, 2010

कांग्रेस ने बीजेपी को भ्रष्ट और साम्प्रदायिक साबित करने का मंसूबा बनाया

शेष नारायण सिंह

भारतीय राजनीति बहुत बड़े पैमाने पर करवट लेने वाली है. कांग्रेस के बुराड़ी अधिवेशन में सोनिया गाँधी ने जिस तरह से भ्रष्टाचार और साम्प्रदायिकता पर हमला बोला है वह अगले कुछ दिनों में राजनीतिक विमर्श की दिशा बदल देगा. भ्रष्टाचार के खिलाफ उनका पांच सूत्रीय कार्यक्रम कांग्रेसियों को ईमानदार तो नहीं बना देगा लेकिन आलोचना का डर ज़रूर पैदा कर देगा. सोनिया गाँधी के भ्रष्टाचार विरोधी भाषण के केंद्र में बीजेपी की कर्नाटक इकाई है . बीजेपी के बड़े नेताओं को मालूम है कि अगर वे भ्रष्टाचार के आरोपों में बुरी तरह से घिरे हुए बी एस येदुरप्पा को पैदल करेगें तो उनकी कर्नाटक इकाई भंग हो जायेगी क्योंकि येदुरप्पा बगावत कर देगें और अपनी नयी पार्टी बना लेगें . पिछली बार जब दिल्ली वालों ने उन्हें हटाने की कोशिश की थी तो यदुरप्पा ने साफ़ बता दिया था कि वे बीजेपी को ख़त्म कर देगें. बीजेपी के एक बहुत बड़े नेता ने उन दिनों बयान दिया था कि कर्नाटक में कथित रूप से भ्रष्ट येदुरप्पा के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जायेगी क्योंकि उसके बाद उनकी पार्टी की औकात वहां शून्य हो जायेगी. यह बात बाकी लोगों के साथ साथ सोनिया गाँधी को भी मालूम है . इसीलिये उनका भ्रष्टाचार वाला भाषण पूरी तरह से कर्नाटक केन्द्रित था. अगर कर्नाटक में बीजेपी ख़त्म होती है तो उसका सीधा फायदा वहां कांग्रेस को होगा . वैसे भी सोनिया गाँधी का भ्रष्टाचार के खिलाफ रुख हमेशा डायरेक्ट रहता है . उन्हें मालूम है कि वे खुद ,मनमोहन सिंह और राहुल गाँधी को किसी भी भ्रष्टाचार के मामले में कोई नहीं पकड़ सकता .बाकी कांग्रेस में ऐसा कोई नेता नहीं है जिसको हटा देने से कांग्रेस का कुछ बिगड़ने वाला है . इसलिए जिसके खिलाफ भी भ्रष्टाचार की चर्चा हो रही है उसको वे बाहर कर दे रही हैं . यह सुख बीजेपी वालों के पास नहीं है . उनके कई ऐसे नेता भ्रष्टाचार के जाल में हैं जिनको अगर निकाल दिया जाय तो पार्टी ही ख़त्म हो जायेगी. बड़ी मुश्किल से बीजेपी के हाथ २जी स्पेक्ट्रम वाला मामला आया था लेकिन हालात ऐसे बने कि अब उसकी जांच २००१ से शुरू हो रही है . इसका भावार्थ यह हुआ कि अगले दो वर्षों तक बीजेपी के राज में संचार मंत्री रहे पार्टी के नेताओं अरुण शोरी और स्व प्रमोद महाजन के कार्यकाल के भ्रष्टाचार मीडिया को लीक किये जायेगें और बीजेपी के प्रवक्ता लोग कोई जवाब नहीं दे पायेगें. तब तक तो बीजेपी को कांग्रेस और मीडिया में उसके साथी महाभ्रष्ट के रूप में पेश कर चुके होंगें. लुब्बो लुबाब यह है कि राजनीति के मैदान में सोनिया गाँधी का बुराड़ी भाषण जो धमक पैदा करने जा रहा है, उसका असर दूर तलक महसूस किया जाएगा.

लेकिन बुराड़ी का असल सन्देश यह नहीं है . भ्रष्टाचार के खेल में बीजे पी ने कांग्रेस को घेरने की रणनीति के सहारे विपक्षी एकता को पुख्ता करने की कोशिश की थी, बुराड़ी लाइन ने उसे तहस नहस कर दिया है . अब अगर बीजेपी येदुरप्पा को नहीं हटाती तो शरद यादव जैसे वफादार के लिए भी बीजेपी के साथ खड़े रह पाना बहुत मुश्किल होगा . इस भाषण ने भ्रष्टाचार को राजनीतिक मुद्दा बना सकने की बीजेपी की ताक़त को ख़त्म कर दिया है क्योंकि जिस तरह से राजनीतिक शतरंज की गोटें बिछ रही हैं ,उसके बाद बीजेपी को दुनिया कांग्रेस से ज्यादा भ्रष्ट मानना शुरू कर देगी.बुराड़ी का असल सन्देश यह है कि सोनिया गाँधी ने साम्प्रदायिकता के मैदान में बीजेपी को चुनौती दी है . राहुल गाँधी के विकीलीक्स रहस्योद्घाटन के बाद जिस तरह से बीजेपी वाले टूट पड़े थे , उस खेल को बुराड़ी ने बिलकुल नाकाम कर दिया है . सोनिया गाँधी ने बिना नाम लिए आर एस एस की साम्प्रदायिकता और उस से जुड़े आतंकवाद को बेनकाब करने के अभियान की शुरुआत कर दी है . इस राजनीतिक सन्देश की बात दूर तलक जायेगी. जो बात सोनिया गाँधी ने नहीं कही उसे दिग्विजय सिंह ने पूरा कर दिया . उन्होंने साफ़ कह दिया कि आर एस एस की विचारधारा हिटलर वाली है . जैसे हिटलर ने यहूदियों को ख़त्म करने की राजनीति की थी ,ठीक उसी तरह आर एस एस भी मुसलमानों को ख़त्म करने की योजना पर काम कर रहा है . बुराड़ी का यह सन्देश बीजेपी के लिए भारी मुश्किल पैदा कर देगा . इसमें दो राय नहीं है कि आर एस एस की विचारधारा पूरी तरह से हिटलर की लाइन पर आधारित है . १९३७ में आर एस एस के दूसरे सर संघचालक , गोलवलकर ने एक किताब लिखकर हिटलर की तारीफ़ की थी .गोलवलकर की किताब ,वी ऑर आवर नेशनहुड डिफाइंड , में हिटलर और उसकी राजनीति को महान बताया गया है . बीजेपी और आर एस एस के मौजूदा नेता कहते हैं कि बीजेपी ने वह किताब वापस ले ली है लेकिन इस बात का कोई अर्थ नहीं रह जाता . वैसे भी जिस हिंदुत्व की बात आर एस एस करता है ,वह हिन्दू धर्म नहीं है . हिंदुत्व वास्तव में सावरकर की राजनीतिक विचारधारा है जिसके आधार पर नागपुर में १९२५ में आर एस एस की स्थापना की गयी थी . यह विचारधारा इटली के चिन्तक माज़िनी की सोच पर आधारित है जिसके आधार पर इटली में मुसोलिनी और जर्मनी में हिटलर ने राजनीतिक अभियान चलाया था . उसी विचारधारा को संघी विचारधारा बताकर दिग्विजय सिंह ने बीजेपी और संघी राजनीति के अन्य समर्थकों को आइना दिखाया है . बुराड़ी में सोनिया गाँधी के भाषण का नतीजा यह होगा कि अब साम्प्रदायिकता के मसले पर दिग्विजय सिंह की लाइन को कांग्रेस की आफिशियल लाइन बना दिया गया जाएगा .

एक बात और ऐतिहासिक रूप से सत्य है . वह यह कि जब भी कांग्रेस आर एस एस के खिलाफ हमलावर होती है उसे राजनीतिक सफलता मिलती है . महात्मा गाँधी की हत्या और उसमें आर एस एस के नेताओं की गिरफ्तारी के बाद नेहरू-पटेल की कांग्रेस ने साम्प्रदायिकता को पूरी तरह से बैकफुट पर ला दिया था .नतीजा यह हुआ कि १९६२ तक कांग्रेस की ताक़त मज़बूत बनी रही. नेहरू की मृत्यु के बाद साम्प्रदायिकता के खिलाफ अभियान कुछ ढीला पड़ गया था .नतीजा यह हुआ कि पूरे उत्तर भारत में कांग्रेस १९६७ का चुनाव हार गयी थी . जब १९६९ में कांग्रेस के तो टुकड़े हुए तो दक्षिण पंथी और साम्प्रदायिक ताक़तों के खिलाफ इंदिरा गांधी ने ज़बरदस्त हमला बोला और १९७१ में भारी बहुमत से सरकार बनाने में कामयाब हुईं . १९७४ में जब उनका बिगडैल बेटा संजय गाँधी राजनीति में आया तो उसने भी साफ्ट हिंदुत्व की लाइन शुरू कर दी और १९७७ में कांग्रेस बुरी तरह से हार गयी. इंदिरा गाँधी ने १९७७ से लेकर १९७९ तक साम्प्रद्यिकता के खिलाफ अभियान चलाया और १९८० में दुबारा सत्ता में आ गयीं . लगता है कि इस बार भी सोनिया गांधी को सही सलाह मिल रही है और वे आर एस एस -बीजेपी को राजनीतिक रूप से ख़त्म करने की रणनीति पर काम कर रही हैं . ज़ाहिर है आने वाला वक़्त राजनीतिक विश्लेषकों के लिए बहुत ही दिलचस्प होने वाला है

Sunday, November 14, 2010

सुदर्शन से पल्ला नहीं झाड़ सकते आर एस एस के नेता

शेष नारायण सिंह

बी जे पी से अलग होकर राजनीतिक लड़ाई लड़ने की आर एस एस की कोशिश को ज़बरदस्त धक्का लगा है . बड़े जोर शोर से जुटने के बाद आर एस एस के धरनों पर इतने आदमी भी नहीं जुट पाए कि पुलिस को कोई अलग से बंदोबस्त करना पड़े. नतीजा साफ़ है . आर एस एस के नेता बौखला गए हैं . इसी बौखलाहट में बेचारे उल जलूल बयान दे रहे हैं . आर एस एस के पूर्व मुखिया सुदर्शन ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी के खिलाफ बहुत ही अमर्यादित टिप्पणी कर डाली. उन्हें सी आई से एजेंट कहा और आरोप लगाया कि इंदिरा गाँधी और राजीव गाँधी की ह्त्या में भी सोनिया गाँधी का हाथ था. ऊपरी तौर पर देखें तो यह किसी पागल का बयान लगता है लेकिन ऐसा है नहीं .जो व्यक्ति देश के सबसे बड़े आतंकवादी संगठन का मुखिया रह चुका हो,तत्कालीन प्रधान मंत्री और गृह मंत्री जिस के हुक्म से काम करते हों, प्रेस के सामने दिए गए उसके बयान को पागल का बयान कहना ठीक नहीं है . यह बयान आर एस एस के धरने पर बैठे लोगों के बीच में दिन भर वक़्त बिताने के बाद ही सुदर्शन ने दिया है . वह पूरे होशो हवास में दिया गया बयान है.ऐसे राज्य की राजधानी के मुख्य धरना स्थल से दिया गया है जहां आर एस एस की सरकार है .ऐसी हालत में इस बयान को सुदर्शन का अपना दृष्टिकोण यह कहकर टालना संभव नहीं है . हालांकि आर एस एस के आला नेतृत्व ने कोशिश शुरू कर दी है कि सुदर्शन से किनारा कर लिया जाय. उनके बयान को नकार कर के जान बचाई जाय. आर एस एस के प्रभाव वाले मीडियाकर्मी सक्रिय हो गए हैं और प्रचार किया जा रहा है कि सुदर्शन वास्तव में थोडा खिसक गए हैं . इसीलिए आर एस एस की परंपरा से हटकर उन्हें पद से बर्खास्त किया गया था. आर एस एस का नेतृत्व उनको एक गैरजिम्मेदार आदमी के रूप में पेश करके सोनिया के बारे में दिए गए उनके बयान से पल्ला झाड़ने की कोशिश में है . लेकिन लगता है कि यह संभव नहीं होगा क्योंकि कांग्रेस वाले भी अपनी सर्वोच्च नेता की शान में की गयी गुस्ताखी को राजनीतिक रंग देकर आर एस एस को उसकी औकात बताने की राजनीति पर उतर आये हैं. तोड़ फोड़ और सडकों पर तूफ़ान मचाने में कांग्रेसी भी आर एस एस वालों से कम नहीं होते. बस उनको मौक़ा मिलना चाहिए . और लगता है कि पार्टी के प्रवक्ता जनार्दन द्विवेदी ने यह मौक़ा दे दिया है . उन्होंने जब सुदर्शन की टिप्पणी पर उसकी थुक्का फजीहत करने के लिए पत्रकारों से बात की तो तर्ज लगभग वहीं था जो इंदिरा जी की हत्या के बाद राजीव गाँधी के बयान में था . जनार्दन द्विवेदी ने कहा कि कांग्रेस कार्यकर्ताओं को आर एस एस के प्रति नाराज़गी ज़ाहिर करते वक़्त शान्ति बनाए रखनी चाहिए . साधारण राजनीतिक आचरण की भाषा में इसका अनुवाद करने पर पता चलेगा कि यह मार पीट करने का संकेत है. इसका भावार्थ यह हुआ कि आने वाले कुछ दिनों में कांग्रेसी नौजवान आर एस एस वालों को अपने हमलों का निशाना बनायेगें. अपने को ज़्यादा वफादार साबित करने की कोशिश में कांग्रेसी नेता सक्रिय हो गए हैं .कोई सुदर्शन के खिलाफ आपराधिक मामला चलाने की बात कर रहा है तो कोई उन्हें पागलखाने भेजने की बात कह रहा है . अजीब बात है कि आर एस एस और बी जे पी वाले भी लगभग यही कह रहे हैं . आर एस एस के मुख्यालय से बयान आया है कि सुदर्शन ने जो कहा है वह उनकी अपनी बात है, संघ का उस बयान से कुछ लेना देना नहीं है. यही बात बी जे पी के नेता भी कह रहे हैं. यानी उनके दिमागी संतुलन को मुद्दा बना कर संघी बिरादरी अपने आपको उनसे अलग करना चाहती है .
आर एस एस को जानने वाले जानते हैं कि सुदर्शन का बयान हवा में नहीं आया है . सच्चाई यह है कि यह आर एस एस की सोची समझी राजनीतिक चाल का हिस्सा है . अगर बी जे पी से अलग होकर किये गए राजनीतिक विरोध प्रदर्शन को सफलता मिल गयी होती तो सुदर्शन का बयान न आता अ. उस स्थिति में तो संघी मीडिया में आर एस एस की महान संगठन क्षमता के ही गीत गाये जा रहे होते लेकिन जब धरना प्रदर्शन बुरी तरह से फ्लाप हो गया ,तो सुदर्शन जैसी बुझी कारतूस को आगे कर दिया गया और निहायत ही बेहूदा बयान दिलवा दिया गया . ज़ाहिर है इस बयान के आर एस एस के आयोजन की असफलता गौड़ हो जायेगी . मुख्य चर्चा सुदर्शन की फजीहत पर केन्द्रित हो जायेगी. इसका एक दूसरा मकसद भी संभव है .हो सकता है कि यह सोचा गया हो कि आम आदमी की नाराज़गी का स्तर टेस्ट करने के लिए एक शिगूफा छोड़ दिया जाय. अगर देशभर में लोग नाराज़ हो जाएँ तो सुदर्शन बेचारे को डंप कर दिया जाय और अगर आम आदमी की प्रतिक्रिया ज्यादा गुस्से वाली न हो तो इस लाइन को धीरे धीरे चला दिया जाये. आर एस एस की नीति है कि वह किसी भी बात में पक्ष विपक्ष दोनों का स्पेस अपने ही पास रखना चाहता है . लेकिन लगता है कि बी जे पी को कमज़ोर करके किसी और पार्टी या विश्व हिन्दू परिषद् को अपनी राजनीति के कारोबार को देखने के ज़िम्मा देने की आर एस एस की चाल बेकार साबित हो गयी है . इसके कुछ नतीजे बहुत ही साफ़ होंगें. एक तो बी जे पी के दिल्ली दरबार वाले नेता आर एस एस की धमकियों को अब उतनी गंभीरता से नहीं लेगें जितनी अब तक लेते थे . दूसरा जिस नितिन गडकरी को मज़बूत करने के लिए मोहन भागवत सारा खेल कर रहे हैं, वह अब और भी कमज़ोर हो जायेगें. कुल मिलाकर संघी आतंकवाद के स्रोत के रूप में स्थापित हो चुके आर एस एस को यह झटका शायद कुछ सद्बुद्धि देने में सफल हो और देश की लोकशाही की परंपरा को कमज़ोर करने की उसकी योजना को लगाम लगे.

Thursday, September 16, 2010

कश्मीर समस्या का हल सोनिया गाँधी के रास्ते ही संभव है

शेष नारायण सिंह

जम्मू-कश्मीर के संकट में सभी राजनीतिक दलों को शामिल करने की गरज से प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह की पहल का स्वागत किया जाना चाहिए . कश्मीर की समस्या पिछले ६३ वर्षों से भारत के लिए मुसीबत बनी हुई है . उसका हल निकालना इसलिए बहुत मुश्किल है कि उसमें शुरू से ही पाकिस्तानी पेंच फंसी हुई है बल्कि यह कहना ठीक होगा कि कश्मीर समस्या है ही पाकिस्तान की वजह से . मुल्क के बँटवारे के बाद पता नहीं किस पिनक में पाकिस्तान के पहले गवर्नर जनरल , मुहम्मद अली जिन्ना कश्मीर को अपना मान बैठे थे. उसी चक्कर में वे कश्मीर के उस वक़्त के राजा को पट्टी पढ़ाते रहे . लेकिन धीरज नाम की चीज़ तो जिन्ना को छू नहीं गयी थी इसलिए राजा की प्रतिक्रिया का इंतज़ार किये बिना उन्होंने कुछ कबायलियों के साथ पाकिस्तानी सेना को भेज दिया . राजा घबडा गया और उसने सरदार पटेल के सामने आकर भारत के साथ विलय के प्रस्ताव पर दस्तखत कर दिया. बाद में भारत ने पाकिस्तानी सेना को मय कबायलियों के खदेड़ा लेकिन जिन हिस्सों पर यह कबायली क़ब्ज़ा कर चुके थे , वह विवादित हो गया . आज भी कश्मीर के मुज़फराबाद सहित कुछ इलाकों पर पाकिस्तानी क़ब्ज़ा है . कश्मीर समस्या में दिनोंदिन पेंच फंसती गयी और अब हालत यह है कि कश्मीर में पाकिस्तानी घुसपैठ जिस मुकाम पर है, वह भारत की एकता के लिए चुनौती बन चुका है . सच्चाई यह है कि पाकिस्तान में जो हालात हैं , उसे अब न तो पाकिस्तान काबू कर सकता है और न ही वहां पाकिस्तानी पैसे से काम कर रहे अलगाववादी . अब लड़ाई में वह आबादी शामिल हो चुकी है जो पैदा ही आतंकवाद के माहौल में हुई और बचपन से उसने वही देखा है . अब इन नौजवानों के नेताओं को तलाश कर उनसे बात करने की ज़रुरत है .
प्रधानमंत्री के दफ्तर से बुलाई गयी सर्वदलीय बैठक में भी यही बात उभर कर सामने आई है . तय किया गया कि सभी दलों का एक प्रतिनिधिमंडल कश्मीर भेजा जाएगा जो वहां के सभी पक्षों से बात करेगा और लौटकर केंद्र सरकार को रिपोर्ट देगा . उसी के आधार पर अगली कार्रवाई का रास्ता तय किया जाएगा. कश्मीर की हालात पर विचार करते समय राजनीतिक दल अपने स्वार्थ की सीमा से बाहर नहीं आ पाते . सच्ची बात यह है कि कश्मीर की समस्या की जड़ में ही राजनीतिक लोगों का राजनीतिक स्वार्थ रहा है . १९४७ में कश्मीर की राजा की जेब में एक राजनीतिक पार्टी हुआ करती थी . नाम था प्रजा परिषद् . राजा इस पार्टी का इस्तेमाल , रियासत के लोकप्रिय नेता , शेख मुहम्मद अब्दुल्ला के खिलाफ किया करते थे. यह पार्टी राजा के हुक्म की इतनी बड़ी गुलाम थी कि जब राजा ने पाकिस्तान में अपने राज्य का विलय करने का मंसूबा बनाया तो यह पार्टी उसके लिए भी राजी हो गयी थी. बाद में प्रजा परिषद का आर एस एस के मातहत काम करने वाली पार्टी, भारतीय जनसंघ के साथ हो विलय गया था . इन्हीं प्रजा परिषद् वालों के कहने पर ही जन संघ के उस वक़्त के नेता, डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने शेख के खिलाफ अभियान चलाया था . ऐसे ही एक अभियान के दौरान जब वे कश्मीर गए तो उनकी मौत हो गयी. बाद में शेख के बडबोलेपन की वजह से जवाहरलाल नेहरू ने उनकी सरकार को बर्खास्त किया और उन्हें जेल में डाला . डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी की पार्टी वाले आज भी अपने स्वर्गीय नेता के गैरजिम्मेदार आचरण से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं . प्रधानमंत्री की बैठक में भी बी जे पी के अध्यक्ष के साथ आडवानी गुट के जो नेता शामिल हुए उनकी राय यही थी कि कश्मीर की हालात का फायदा उठा कर बाकी देश में वोट जीते जाएँ . बहरहाल इस बैठक में सोनिया गांधी ने जो कुछ भी कहा , उसके बाद सभी पार्टियों से ज़िम्मेदार राजनीतिक आचरण की उम्मीद की जानी चाहिये.

कश्मीर के बारे में विचार करते वक़्त जो सबसे ज़रूरी बात ध्यान में रखने की है, वह कश्मीर की विशेष राजनीतिक परिस्थितियाँ हैं. जवाहर लाल नेहरू की मृत्यु के बाद दिल्ली के अदूरदर्शी नेताओं ने कश्मीर की जनता - कश्मीरी पंडित और मुसलमान - दोनों की भावनाओं के साथ खूब खिलवाड़ किया है . उस से बाहर आने की ज़रुरत है . इसलिए ज़रूरी है कि सर्वदलीय बैठक में कही गयी सोनिया गांधी की बातों को गंभीरता से लें और उन्हीं बातों को आदर्श मान कर कश्मीर समस्या के हल के लिए आगे बढे. सोनिया गांधी ने बैठक में कहा कि राजनीतिक और वैचारिक मतभेदों को भुलाकर हिंसा और तकलीफ के ज़हरीले घुमावदार रास्ते को दरकिनार करके कश्मीर में जो इंसानियत रहती है उसके घावों पर बातचीत का मलहम लगाएं. उन्होंने कहा कि ऐसे संवाद को कायम करने के लिए कश्मीरी अवाम की जायज़ महत्वाकांक्षाओं को ध्यान में रखना ज़रूरी होगा. यहाँ यह भी साफ़ कर देने की ज़रुरत है कि आर एस एस और उसके अधीन काम करने वाले लोगों को यह ध्यान रखना पड़ेगा कि सोनिया गांधी आज की तारीख में इस देश की सबसे बड़ी नेता हैं और उनके प्रति नफरत का ज़हर फैलाने से बाज़ आना चाहिए . अगर बी जे पी की बड़ी नेता, सुषमा स्वराज कह सकती हैं कि उन्हें राजीव गाँधी की समाधि पर पुष्प चढाने में कोई दिक्कत नहीं है तो छुटभैये नेताओं को इस सच्चाई को समझ में लेने में ज्यादा मुश्किल पेश नहीं आनी चाहिए . इस बात में कोई दो राय नहीं है कि बुधवार को हुई सर्वदलीय बैठक के बाद सोनिया गांधी का क़द बहुत बड़ा हो गया है लिहाज़ा बी जे पी के छोटे नेताओं को चाहिए कि उन्हें देश का नेता स्वीकार कर लें . बी जे पी आलाकमान उस रास्ते पर पहले ही चल चुका है .