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Monday, April 1, 2013

श्रीलंका में तमिलों की हालत हिटलर कालीन जर्मनी के यहूदियों जैसी है



शेष नारायण सिंह

संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में श्रीलंका की सेना की तरफ से श्रीलंकाई तमिलों पर हुई ज्यादतियों के बारे में एक और प्रस्ताव पास हो गया  है . २०११ में भी एक प्रस्ताव पास हुआ था. उस वक़्त श्रीलंका की सरकार ने अपने  राजनयिकों को दुनिया भर में भेजा था और कोशिश की थी कि उसके ऊपर मानवाधिकारों के बारे में संयुक्त राष्ट्र की किसी संस्था में कोई प्रस्ताव न पास हो लेकिन प्रस्ताव पास हो गया था. प्रस्ताव पास करके रिकार्ड की फ़ाइल में रख दिया गया था श्रीलंका की सरकार के ऊपर कोई फर्क नहीं पड़ा. उसके बाद श्रीलंका ने संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार संबंधी चिंताओं को टालना शुरू कर दिया . इस साल जब प्रस्ताव पास होने वाला था तो श्रीलंका ने  जूनियर अफसरों  का एक प्रतिनिधिमंडल जिनेवा भेज दिया था .  प्रस्ताव पास हो गया . मानवाधिकार परिषद  ने बहुत ही चिंता के साथ यह नोट किया है कि मानवाधिकारों की तबाही  के जो आरोप श्रीलंका की सेना पर लगाये  गए हैं उन पर वहाँ की सरकार गौर नहीं कर रही है . तमिल विद्रोहियों के साथ चले २६ साल के युद्ध में तमिल सेना ने बहुत अत्याचार किया था और एक अनुमान के अनुसार करीब ४०  हज़ार तमिल मूल के गैर सैनिक नागरिकों को मार डाला था . लड़ाई २००९ में खत्म हो गयी थी और  बहुत सारे तमिल विद्रोहियों ने समर्पण कर दिया था. यह अलग बात  है कि बाद में वे सभी सरकारी रिकार्ड में 'लापता दिखा दिए गए थे. श्रीलंका में इस ‘लापता ‘ का मतलब ठिकाने लगा दिया जाना माना जाता है .
जब जिनेवा में मानवाधिकार परिषद में वोट पड़ने वाला था तो बहुत सारे श्रीलंकाई मानवाधिकार कार्यकर्ता वहाँ गए थे और कोशिश कर रहे थे कि ऐसा प्रस्ताव पास किया जाए जिससे श्रीलंका की सरकार पर कुछ दबाव पड़ सके . ज़ाहिर है प्रस्ताव तो बहुत ही हल्का है लेकिन जो लोग इस प्रस्ताव के पक्ष में थे उनको श्रीलंका में  देशद्रोही के रूप में पेश किया जा रहा है और उनको डर है कि अगर वे वापस  गए तो उनको भी 'लापता बता दिया जाएगा.  श्रीलंका में उन लोगों की खैर नहीं है जो राजपक्षे सरकार के  खिलाफ कोई भी राय रखते हों . और अगर वे अपनी राय को कहीं व्यक्त कर दें तो खतरा बहुत बढ़  जाता है . शायद इसीलिये उन पत्रकारों को'लापता होना पड़ रहा है जिन्होंने कभी भी राजपक्षे  सरकार के खिलाफ कुछ भी लिखा है. 
संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार परिषद का ताज़ा प्रस्ताव भी श्रीलंका की सरकार पर कोई असर नहीं डाल पायेगा . प्रस्ताव की भाषा बहुत हल्की है उसमें लिखा  है कि श्रीलंका की सरकार को " मानवाधिकारों के कथित उन्लंघन " की जांच करनी चाहिए .यानी सारी दुनिया को मालूम है कि किस तरह से श्रीलंका की सेना ने तमिलों के खून से होली खेली थी लेकिन मानवाधिकार  परिषद उसे कथित के मुलम्मे के साथ प्रस्ताव में पेश करती है . इस तरह के प्रस्ताव से  मानवाधिकारों की रक्षा  की कोई बात तो नहीं ही होने वाली है क्योंकि श्रीलंका को मालूम है कि दुनिया की सरकारें श्रीलंका से किसी गंभीर कार्रवाई की उम्मीद  नहीं करतीं. अगर ऐसा होता तो मानवाधिकारों के बड़े अलम्बरदार बने हुए ब्रिटेन ने कम से कम नाराज़गी जताने की गरज से ही सही , कोलम्बो में प्रस्तावित कामनवेल्थ देशों के सम्मेलन को  ही कहीं और टालने की घोषणा कर दी होती .लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ.

२००९ में श्रीलंका ने तमिल विद्रोहियों के आंदोलन को कुचल दिया था . उसके बाद से अब तक सरकार ने स्वीकार भी नहीं किया है कि तमिलों के साथ कोई अत्याचार हुआ था. आज भी श्रीलंका के उत्तर और पूर्व में रहने वाले  तमिलों को सेना की बन्दूक की दहशत के नीचे जीवन बिताना पड़ रहा है .लोगों को बिला वजह पकड़ लिया जाता है और बाद में खबर आती है कि वे'लापता हो गए  हैं . जब उनके रिश्तेदार थाने जाकर पुलिस से पूछताछ करते हैं तो पता लगता है कि सम्बंधित व्यक्ति लापता ‘  हो गया है और वह वापस नहीं आएगा. लोगों को मालूम है कि पुलिस के इस बयान का मतलब यह है कि वह व्यक्ति मार दिया गया है . मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और पत्रकारों को हमेशा डराने धमकाने की कोशिश हमेशा होती रहती है. श्रीलंका की सरकार को अब भरोसा हो गया है कि  कहीं भी कोई प्रस्ताव पारित हो जाए उसके ऊपर कोई दबाव नहीं पड़ने वाला है क्योंकि उसको सुरक्षा परिषद में चीन और  रूस का समर्थन हासिल है जिसके सहारे वह अमरीका की कोई परवाह   नहीं करता. श्रीलंका में जापान के व्यापारिक हित हैं इसलिए जापान भी उसके खिलाफ ऐसा कोई काम नहीं करता जिस से राष्ट्रपति राजपक्षे नाराज़ हो जाएँ .जानकार बताते हैं कि अमरीका भी शायद इसीलिये कुछ करता है कि श्रीलंका में उसके कोई  भी राजनीतिक या व्यापारिक हित नहीं हैं .

श्रीलंका के मानवाधिकार के उन्लंघन के मामले में भारत की दुविधा सबसे भारी है .श्रीलंका में जिस तमिल आबादी पर श्रीलंका की फासिस्ट सोच वाली सरकार का आतंक है वह मूल रूप से भारतीय है ,तमिलनाडु से ही श्रीलंकाई तमिलों के पूर्वज वहाँ गए थे. भारत की राजनीति पर तमिलों के साथ होने वाले अत्याचार का सीधा असर पड़ता है. इस बार तो इसी मुद्दे पर केन्द्र सरकार के  गिरने की नौबत आ गयी .शायद इसीलिये भारत सरकार ने जिनेवा में श्रीलंका के खिलाफ वोट के दौरान बहुत ही सख्त बातें कहीं . हालांकि जो बातें वहाँ कही गयीं  उनका पास हुए प्रस्ताव से कोई लेना देना  नहीं है लेकिन भारत सरकार अपने तमिलनाडु वाले समर्थक दल को अपने बयान के हवाले से बता सकती है कि उसने श्रीलंका सरकार के खिलाफ सख्त रुख अपनाया  था .जिनेवा में भारत के स्थायी प्रतिनिधि का बयान तमिलनाडु में २०१४ के चुनावों में बार बार दोहराया जाएगा और सरकार यह दावा करेगी कि कांग्रेस की अगुवाई वाली सरकार को इस बात पर बहुत तकलीफ थी कि बड़ी संख्या में श्रीलंकाई तमिल आतंक के साये में  जीवन बिताने के लिए अभिशप्त हैं और सरकार को उन तमिलों के कल्याण की बहुत चिंता है .भारतीय बयान में कहा गया है कि भारत सरकार मांग करती है कि एल एल आर सी ( लेसंस लर्न्ट एंड रीकांसिलिएशन कमीशन ) की रिपोर्ट को लागू किया जाए. यह कमीशन श्रीलंका की सरकार ने ही बनाया था और उसके राष्ट्रपति इसके संरक्षक थे . भारत सरकार ने कहा है कि उत्तरी प्रांत में  लापता लोगों, बंदियों,और अपहरण का शिकार हुए लोगों के बारे में सरकार  अपनी नीति को स्पष्ट करे,. सिविलियन इलाकों से सेना को हटाया जाये ,तमिलों की वह ज़मीन जिस पर सेना ने कब्जा कर रखा  है उसे तुरंत वापस किया जाए . भारत सरकार ने मांग की है कि मानवाधिकार के हनन के सभी मामलों की निष्पक्ष और  विश्वसनीय जांच की जाए. .श्रीलंका की सरकार को चाहिए कि वह सारे मामलों में लोगों की जिम्मेदारी को सुनिश्चित करने के लिए ज़रूरी क़दम उठाये.
जिनेवा में दिए गए भारत सरकार के बयान में वह सारी बातें लिखी हुई हैं जिनके सहारे सरकार ,कांग्रेस पार्टी और यू पी ए में कांग्रेस की सहयोगी रही डी एम के अपने आपको तमिलों का शुभचिंतक बता सकती है लेकिन यह बात भी तय है कि  श्रीलंका में रहने वाले तमिलों की मुसीबत अभी खत्म होने वाली नहीं है. उनको अभी उसी फासिस्ट तानाशाही को झेलना पड़ेगा जिसे हिटलर के काल में जर्मनी में रहने वाले यहूदियों को झेलना पड़ा था.  

Monday, December 20, 2010

कांग्रेस ने बीजेपी को भ्रष्ट और साम्प्रदायिक साबित करने का मंसूबा बनाया

शेष नारायण सिंह

भारतीय राजनीति बहुत बड़े पैमाने पर करवट लेने वाली है. कांग्रेस के बुराड़ी अधिवेशन में सोनिया गाँधी ने जिस तरह से भ्रष्टाचार और साम्प्रदायिकता पर हमला बोला है वह अगले कुछ दिनों में राजनीतिक विमर्श की दिशा बदल देगा. भ्रष्टाचार के खिलाफ उनका पांच सूत्रीय कार्यक्रम कांग्रेसियों को ईमानदार तो नहीं बना देगा लेकिन आलोचना का डर ज़रूर पैदा कर देगा. सोनिया गाँधी के भ्रष्टाचार विरोधी भाषण के केंद्र में बीजेपी की कर्नाटक इकाई है . बीजेपी के बड़े नेताओं को मालूम है कि अगर वे भ्रष्टाचार के आरोपों में बुरी तरह से घिरे हुए बी एस येदुरप्पा को पैदल करेगें तो उनकी कर्नाटक इकाई भंग हो जायेगी क्योंकि येदुरप्पा बगावत कर देगें और अपनी नयी पार्टी बना लेगें . पिछली बार जब दिल्ली वालों ने उन्हें हटाने की कोशिश की थी तो यदुरप्पा ने साफ़ बता दिया था कि वे बीजेपी को ख़त्म कर देगें. बीजेपी के एक बहुत बड़े नेता ने उन दिनों बयान दिया था कि कर्नाटक में कथित रूप से भ्रष्ट येदुरप्पा के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जायेगी क्योंकि उसके बाद उनकी पार्टी की औकात वहां शून्य हो जायेगी. यह बात बाकी लोगों के साथ साथ सोनिया गाँधी को भी मालूम है . इसीलिये उनका भ्रष्टाचार वाला भाषण पूरी तरह से कर्नाटक केन्द्रित था. अगर कर्नाटक में बीजेपी ख़त्म होती है तो उसका सीधा फायदा वहां कांग्रेस को होगा . वैसे भी सोनिया गाँधी का भ्रष्टाचार के खिलाफ रुख हमेशा डायरेक्ट रहता है . उन्हें मालूम है कि वे खुद ,मनमोहन सिंह और राहुल गाँधी को किसी भी भ्रष्टाचार के मामले में कोई नहीं पकड़ सकता .बाकी कांग्रेस में ऐसा कोई नेता नहीं है जिसको हटा देने से कांग्रेस का कुछ बिगड़ने वाला है . इसलिए जिसके खिलाफ भी भ्रष्टाचार की चर्चा हो रही है उसको वे बाहर कर दे रही हैं . यह सुख बीजेपी वालों के पास नहीं है . उनके कई ऐसे नेता भ्रष्टाचार के जाल में हैं जिनको अगर निकाल दिया जाय तो पार्टी ही ख़त्म हो जायेगी. बड़ी मुश्किल से बीजेपी के हाथ २जी स्पेक्ट्रम वाला मामला आया था लेकिन हालात ऐसे बने कि अब उसकी जांच २००१ से शुरू हो रही है . इसका भावार्थ यह हुआ कि अगले दो वर्षों तक बीजेपी के राज में संचार मंत्री रहे पार्टी के नेताओं अरुण शोरी और स्व प्रमोद महाजन के कार्यकाल के भ्रष्टाचार मीडिया को लीक किये जायेगें और बीजेपी के प्रवक्ता लोग कोई जवाब नहीं दे पायेगें. तब तक तो बीजेपी को कांग्रेस और मीडिया में उसके साथी महाभ्रष्ट के रूप में पेश कर चुके होंगें. लुब्बो लुबाब यह है कि राजनीति के मैदान में सोनिया गाँधी का बुराड़ी भाषण जो धमक पैदा करने जा रहा है, उसका असर दूर तलक महसूस किया जाएगा.

लेकिन बुराड़ी का असल सन्देश यह नहीं है . भ्रष्टाचार के खेल में बीजे पी ने कांग्रेस को घेरने की रणनीति के सहारे विपक्षी एकता को पुख्ता करने की कोशिश की थी, बुराड़ी लाइन ने उसे तहस नहस कर दिया है . अब अगर बीजेपी येदुरप्पा को नहीं हटाती तो शरद यादव जैसे वफादार के लिए भी बीजेपी के साथ खड़े रह पाना बहुत मुश्किल होगा . इस भाषण ने भ्रष्टाचार को राजनीतिक मुद्दा बना सकने की बीजेपी की ताक़त को ख़त्म कर दिया है क्योंकि जिस तरह से राजनीतिक शतरंज की गोटें बिछ रही हैं ,उसके बाद बीजेपी को दुनिया कांग्रेस से ज्यादा भ्रष्ट मानना शुरू कर देगी.बुराड़ी का असल सन्देश यह है कि सोनिया गाँधी ने साम्प्रदायिकता के मैदान में बीजेपी को चुनौती दी है . राहुल गाँधी के विकीलीक्स रहस्योद्घाटन के बाद जिस तरह से बीजेपी वाले टूट पड़े थे , उस खेल को बुराड़ी ने बिलकुल नाकाम कर दिया है . सोनिया गाँधी ने बिना नाम लिए आर एस एस की साम्प्रदायिकता और उस से जुड़े आतंकवाद को बेनकाब करने के अभियान की शुरुआत कर दी है . इस राजनीतिक सन्देश की बात दूर तलक जायेगी. जो बात सोनिया गाँधी ने नहीं कही उसे दिग्विजय सिंह ने पूरा कर दिया . उन्होंने साफ़ कह दिया कि आर एस एस की विचारधारा हिटलर वाली है . जैसे हिटलर ने यहूदियों को ख़त्म करने की राजनीति की थी ,ठीक उसी तरह आर एस एस भी मुसलमानों को ख़त्म करने की योजना पर काम कर रहा है . बुराड़ी का यह सन्देश बीजेपी के लिए भारी मुश्किल पैदा कर देगा . इसमें दो राय नहीं है कि आर एस एस की विचारधारा पूरी तरह से हिटलर की लाइन पर आधारित है . १९३७ में आर एस एस के दूसरे सर संघचालक , गोलवलकर ने एक किताब लिखकर हिटलर की तारीफ़ की थी .गोलवलकर की किताब ,वी ऑर आवर नेशनहुड डिफाइंड , में हिटलर और उसकी राजनीति को महान बताया गया है . बीजेपी और आर एस एस के मौजूदा नेता कहते हैं कि बीजेपी ने वह किताब वापस ले ली है लेकिन इस बात का कोई अर्थ नहीं रह जाता . वैसे भी जिस हिंदुत्व की बात आर एस एस करता है ,वह हिन्दू धर्म नहीं है . हिंदुत्व वास्तव में सावरकर की राजनीतिक विचारधारा है जिसके आधार पर नागपुर में १९२५ में आर एस एस की स्थापना की गयी थी . यह विचारधारा इटली के चिन्तक माज़िनी की सोच पर आधारित है जिसके आधार पर इटली में मुसोलिनी और जर्मनी में हिटलर ने राजनीतिक अभियान चलाया था . उसी विचारधारा को संघी विचारधारा बताकर दिग्विजय सिंह ने बीजेपी और संघी राजनीति के अन्य समर्थकों को आइना दिखाया है . बुराड़ी में सोनिया गाँधी के भाषण का नतीजा यह होगा कि अब साम्प्रदायिकता के मसले पर दिग्विजय सिंह की लाइन को कांग्रेस की आफिशियल लाइन बना दिया गया जाएगा .

एक बात और ऐतिहासिक रूप से सत्य है . वह यह कि जब भी कांग्रेस आर एस एस के खिलाफ हमलावर होती है उसे राजनीतिक सफलता मिलती है . महात्मा गाँधी की हत्या और उसमें आर एस एस के नेताओं की गिरफ्तारी के बाद नेहरू-पटेल की कांग्रेस ने साम्प्रदायिकता को पूरी तरह से बैकफुट पर ला दिया था .नतीजा यह हुआ कि १९६२ तक कांग्रेस की ताक़त मज़बूत बनी रही. नेहरू की मृत्यु के बाद साम्प्रदायिकता के खिलाफ अभियान कुछ ढीला पड़ गया था .नतीजा यह हुआ कि पूरे उत्तर भारत में कांग्रेस १९६७ का चुनाव हार गयी थी . जब १९६९ में कांग्रेस के तो टुकड़े हुए तो दक्षिण पंथी और साम्प्रदायिक ताक़तों के खिलाफ इंदिरा गांधी ने ज़बरदस्त हमला बोला और १९७१ में भारी बहुमत से सरकार बनाने में कामयाब हुईं . १९७४ में जब उनका बिगडैल बेटा संजय गाँधी राजनीति में आया तो उसने भी साफ्ट हिंदुत्व की लाइन शुरू कर दी और १९७७ में कांग्रेस बुरी तरह से हार गयी. इंदिरा गाँधी ने १९७७ से लेकर १९७९ तक साम्प्रद्यिकता के खिलाफ अभियान चलाया और १९८० में दुबारा सत्ता में आ गयीं . लगता है कि इस बार भी सोनिया गांधी को सही सलाह मिल रही है और वे आर एस एस -बीजेपी को राजनीतिक रूप से ख़त्म करने की रणनीति पर काम कर रही हैं . ज़ाहिर है आने वाला वक़्त राजनीतिक विश्लेषकों के लिए बहुत ही दिलचस्प होने वाला है