Friday, November 27, 2009

राजनीति की सर्वोच्चता के बिना लोकशाही संभव नहीं

शेष नारायण सिंह

केंद्र सरकार ने एक ऐसी स्कीम बनायी है जिसके हिसाब से अब मंत्रियों के काम काज की समीक्षा की जायेगी.. कैबिनेट सचिवालय की ओर से एक कागज़ तैयार किया गया है जिसके अनुसार अब सभी मंत्रियों के काम की ग्रेडिंग की जायगी और उसके आधार पर उन्हें नंबर दिए जायेंगें. रिजल्ट फ्रेमवर्क डाक्यूमेंट नाम की इस योजना का उद्देश्य मंत्रियों को अनुशासन में रखना और उन्हें अच्छे काम के लिए उत्साहित करना बताया गया है. आजकल राजनेताओं के बारे में जनता की राय बहुत अच्छी नहीं होती इसलिए उनको सज़ा देने की इच्छा लगभग हर आदमी में रहती है. इस तरह की नकेल लगेगी तो जनता को खुशी होगी . इस योजना के सफल या असफल होने के बारे में बहस करने को कोई मतलब नहीं है .लेकिन इतना तय है कि अगर यह योजना लागू हो गयी तो अपने देश की सत्ता को चला रही नौकरशाही के हाथ एक ऐसा हथियार लग जाएगा जिसे इस्तेमाल करने की धमकी दे कर अफसर लोग नेताओं को हड्काने का काम करेंगे . अगर ऐसा हुआ तो यह लोकशाही के सपने के मुंह पर एक ज़ोरदार थप्पड़ होगा. यह एक फैसला आज़ादी की लड़ाई की मूल भावना को पलट देने की ताक़त रखता है...

इस बात में दो राय नहीं है कि आज के हमारे नेता अपनी विश्वसनीयता गँवा चुके हैं लेकिन उनके ऊपर नौकरशाही की सलीब लादना ठीक नहीं होगा... सच्ची बात यह है कि कैबिनेट सचिवालय की ओर आया हुआ प्रस्ताव बहुत ही साधारण सी भाषा में है . अगर हल्ला गुल्ला शुरू हो गया तो नौकरशाही के शीर्ष पर बैठे लोग साफ़ कह देंगें कि शासन व्यवस्था के सुधार के लिए एक कोशिश की जा रही थी . अगर जनमत इसके खिलाफ है तो प्रताव पर आगे काम नहीं किया जाएगा. लेकिन अगर यह प्रस्ताव आगे बढ़ गया तो हमेशा के लिए कार्यपालिका के ऊपर नौकरशाही के दबदबे का इंतज़ाम हो जाएगा. इसलिए इस देश के राजनीतिक नेता वर्ग को चाहिए कि इस तरह से लगाम लगाने की कोशिश को फ़ौरन रोकें और अपने आप को दुरुस्त करने के लिए कोशिश शुरू कर लें वरना एक बार अगर अफसरशाही का शिकंजा कस गया तो बचने की सारी संभावनाएं हमेशा के लिए ख़त्म हो जायेंगी... अभी शायद नेताओं को यह खेल समझ में नहीं आ रहा है लेकिन अगर ऐसा हो गया तो उसकी भयानकता का अंदाज़ लगा पाना मुश्किल होगा. ट्रेलर के तौर पर उत्तर प्रदेश सरकार के काम काज के बारे में जानकारी लेना ठीक होगा . वहां एक दौर ऐसा आया जब राजनीतिक प्रबंधन के कारण अपराधियों को मंत्री बनाने का सिलसिला शुरू हो गया . आज आलम यह है कि वहां अफसर जो चाहता है, वही होता है और सम्बंधित मंत्री को अपने ही विभाग के बारे में जानकारी हासिल करने के लिए या तो अपने विभाग के प्रमुख सच्चिव से पूछना पड़ता है और या मुख्य मंत्री के दफ्तर में उसके विभाग के इंचार्ज सचिव से पूछना पड़ता है. जहां तक फैसले लेने की बात है, वह तो पूरी तरह से अफसरों के हाथ में ही है . वे सीधे मुख्य मंत्री को रिपोर्ट करते हैं . राजनीतिक शक्ति के इस क्षरण के लिए राजनीतिक नेता ही ज़िम्मेदार हैं क्योंकि उन्होंने अपनी उस शक्ति का सही इस्तेमाल नहीं किया जो उनको लोकतंत्र की वजह से मिली हुई थी. यह वही उत्तर प्रदेश है जहां साठ के दशक मे बहुत बड़े एक अफसर को कैबिनेट के एक मंत्री ने इस लिए सज़ा दे दी थी कि उसने एक ब्लाक प्रमुख के लिये अपशब्दों का प्रयोग कर दिया था. उस वक़्त के मुख्य मंत्री स्वर्गीय चन्द्रभानु गुप्त ने कार्रवाई की सख्ती को कम करने की कोशिश की थी लेकिन आज़ादीकी लड़ाई में शामिल रह चुके राजनेताओं का जलवा ऐसा था कि बात राजनीतिक बॉस की ही चली ..

इसलिए राजनीतिक नेताओं पर नौकरशाही की लगाम लगाने की कोशिश की मुखालिफत की जानी चाहिए.. राजनीति में शामिल होने वाला व्यक्ति सब कुछ छोड़कर वहां जाता था लेकिन आजकल तो यह धंधा हो गया है इसके लिए भी राजनीतिक कमिसार के रूप में विकसित हो रहे कुछ अफसर ही ज़िम्मेदार हैं जो राजनीतिक ताक़त के शीर्ष पर बैठे व्यक्ति को साध लेते हैं और फिर सत्ता को अपने इशारों पर घुमाते हैं .. आज़ादी की लड़ाई का इथोस ऐसा था कि मान लिया गया था कि जो व्यक्ति कैबिनेट दर्जे का मंत्री बनाया जाएगा वह अप्रमेय होगा, उसे किसी की सर्टिफिकेट की ज़रुरत नहीं होगी. वह लोकशक्ति का प्रतिनधि होगा और लोकराज की व्यवस्था में सबसे ऊपर विराजमान होगा. उसकी ख्याति कस्तूरी जैसी होगी जसके बारे में किसी को बताने की ज़रुरत नहीं होगी. उसका यश स्वयमेव विख्यात होगा. लोकनीति के निर्धारण की उसकी क्षमता अद्वितीय होगी .और वह लोकशक्ति का सच्चा प्रतिनिधि होगा. सरकारी नौकर उसकी नीतियों को निर्धारित करने में कोई भूमिका नहीं निभाएगा . वह केवल मंत्री का आदेश पाकर उसे लागू करने का काम करेगा. यह इस देश का दुर्भाग्य है कि हम एक देश के रूप में इस तरह की अप्रमेय योग्यता वाले सौ पचास लोगभी राजनीति के क्षेत्र तक नहीं पंहुचा सकते. इसीलिए संविधान में व्यवस्था थी कि प्रधान मंत्री जब तक संतुष्ट रहेगा तभी तक कोई मंत्री अपने पद पर बना रह सकता है .लेकिन यहाँ तो हालात बिलकुल अलग हैं. केंद्रीय मंत्रिमंडल में कुछ ऐसे मंत्री भी हैं जिनको प्रधान मंत्री किसी भी सूरत में अपने साथ नहीं रखना चाहते लेकिन राजनीतिक मजबूरियों के चलते उन्हें झेल रहे हैं . इसी का फायदा उठाकर नौकरशाही ने अपनी चाल चल दी है . देखना यह है कि क्या इस देश में पीछे रास्ते से एक बार फिर से नौकरशाही की हुकूमत कायम हो जायेगी .. अगर राजनीतिक नेता संभले नहीं तो यह खतरा जितना आज है उतना कभी नहीं था. .हमें हमेशा याद रखना चाहिए कि राजनेता को जनता चुनती है और वहीं जनता पर राज करने क अधिकारी होता है . उसके अधिकार को कुचलने की हर कोशिश का विरोध किया जाना चाहिए.