Friday, June 4, 2010

बेगुनाह कश्मीरियों के हत्यारे फौजियों को सज़ा देना हुकूमत का फ़र्ज़ है

शेष नारायण सिंह


पिछले महीने संपन्न हुए प्रधान मंत्री के राष्ट्रीय पत्रकार सम्मलेन में जो सवाल पूछे गए उनमें से ज़्यादातर बहुत आसान सवाल थे . उसके लिए उनकी आलोचना भी हुई थी लेकिन कुछ कठिन सवाल भी पूछे गए थे .यह अलग बात है कि उन्होंने जो कुछ भी जवाब दे दिया , वह हर्फे-आखिर हो गया क्योंकि किसी को भी दूसरा सवाल पूछने की अनुमति नहीं थी. प्रधानमंत्री बार बार यह कहते रहते हैं कि कि मानवाधिकारों का हनन करने वालों के लिए उनकी सरकार में कोई नरमी नहीं है , उनसे सख्ती से पेश आया जाएगा लेकिन जब सन २००० में पथरीबल में मारे गए निर्दोष नौजवानों के बारे में पूछा गया तो उनके पास कोई जवाब नहीं था . हो सकता है कि वे इस सवाल की उम्मीद न कर रहे हों लेकिन यह देखना दिलचस्प होगा कि बाद में वे क्या कार्रवाई करते हैं . उनसे पूछा गया था कि सन २०० में पथरीबल में मारे गए पांच निर्दोष नौजवानों को मारने वाले जिन फौजियों के ऊपर सी बी आई ने चार्जशीट दाखिल किया है उनके खिलाफ मुक़दमा चलाये जाने की अनुमति क्यों नहीं दी जा रही है . आगे की कार्रवाई के बारे में सिविल सोसाइटी को इंतज़ार रहेगा.
हुआ यह था कि २० मार्च ,२००० के दिन अनंतनाग जिले के छतीसिंहपुरा में लश्कर-ए-तय्यबा के कुछ आतंकियों ने गाँव के सभी सिख मर्दों को इकठ्ठा किया और उन्हें मौत के घाट उतार दिया . . उस वक़्त लाल कृष्ण आडवानी देश के गृह मंत्री थे . इस क़त्ले-आम के पांच दिन बाद उन्होंने देश को बताया कि हत्यारों का पता लगा लिया गया है . वे विदेशी आतंकवादी थे . उन्होंने दावा किया कि ५ विदेशी आतंकवादियों को मार गिराया गया है . . राष्ट्रीय राइफल्स और राज्य पुलिस की ओर से एक एफ आई आर लिखाया गया जिसमें सूचना दी गयी कि पथरीबल के पास एक मुठभेड़ हुई जिसमें आतंकवादियों को घेर लिया गया और उन्हें मार डाला गया. . वहां मिले शव इतने जल गए थे कि उनको पहचानना मुश्किल था और उन्हें दफन कर दिया गया . लेकिन बाद में पता चला कि लाल कृष्ण आडवानी ने देश को गुमराह करने की कोशिश की थी. पता यह भी चला कि जो पांच लोग मारे गए तह वे विदेशी नहीं थे और आतंकवादी नहीं थे. वे निर्दोष थे. उन पाँचों को अनंतनाग के आस पास से २४ मार्च को उठाया गया था . उनके नाम थे, ज़हूर दलाल ,बशीर अहमद भट, मुहम्मद मलिक , जुमा खान . एक और नौजवान भी था जिसका नाम भी शायद जुमा खान ही था. . जब २५ मार्च को पास के जंगलों में पांच लोगों के मारे जाने की खबर प्रचारित हुई तो गाँव वालों को शक़ हुआ कि कहीं यह पाँचों उनके अपने ही लोग तो नहीं हैं . भारी हल्ले गुल्ले के बाद उन पाँचों तथाकथित विदेशी आतंकवादियों के शवों को ज़मीन से बाहर निकाला गया . परिवार वालों के खून के नमूने लिए गए और डी एन ए जांच के लिए भेज दिया गया लेकिन यहाँ भी डाक्टरों की मदद से सेना और पुलिस ने हेराफेरी की और खून के नमूने बदल दिए . ज़ाहिर है कि जांच में यह आ गया कि मारे और दफन किये गए लोग गाँव वालों के रिश्तेदार नहीं थे . लेकिन मार्च २००२ में पता चला कि हेराफेरी हुई थी . फिर खून के नमूने लिए गए और पक्के तौर पर साबित हो गया कि जिन लोगों को सेना और पुलिस ने मारा था वे विदेशी नहीं थे . वे वास्तव में वही लड़के थे जिन्हें सुरक्षा बालों ने २४ मार्च २००० के दिन अनंत नाग के आस पास के गावों से उठाया था .

पूरे देश में सिविल सोसाइटी के लोगों ने मांग की कि मामले की निष्पक्ष जांच की जानी चाहिए .राज्य सरकार ने मामले की सी बी आई जांच का आदेश दे दिया . जिसने पांच साल की गहरी जांच के बाद पता लगाया कि जो लोग मरे थे वे वास्तव में विदेशी नहीं थे , वे यही पांच नौजवान थे जिन्हें गावों से उठाया गया था ..सी बी आई ने श्रीनगर के चीफ जुडिसियल मजिस्ट्रेट की अदालत में जुलाई २००६ में चार्ज शीट दाखिल कर दिया जिसमें ब्रिगेडियर अजय सक्सेना, ले. कर्नल ब्रिजेन्द्र प्रताप सिंह , मेजर सौरभ शर्मा ,मेजर अमित सक्सेना और सूबेदार आई खान के खिलाफ रणबीर पेनल कोड की दफा ३०२ के तहत मुक़दमा चलाया जाना है . अभी तक मुक़दमे की सुनवाई शुरू नहीं हुई है . . मामला अदालती दांव पेंच के घेरे में फंस गया है .और अभी तक कुछ नहीं हुआ . प्रधान मंत्री अगर मानवाधिकारों के हनन वालों के खिलाफ गंभीर हैं और उनके खिलाफ किसी तरह की नरमी को बर्दाश्त करने के मूड में नहीं हैं तो उन्हें इस समाले में सी बी आई की मदद करनी चाहिए और उन फौजियों को सख्त से सख्त सज़ा दिलवानी चाहिए जिन्होंने गरीब और निर्दोष कश्मीरियों को पकड़ कर बेरहमी से मार डाला था

मीडिया को रिटायर्ड फौजी अफसरों को महिमा मंडित नहीं करना चाहिए

शेष नारायण सिंह

जब से टेलिविज़न पर चौबीसों घंटे ख़बरों का सिलसिला शुरू हुआ है , एक अजीब प्रवृत्ति नज़र आने लगी है . शुरू तो यह एक बहुत ही मामूली तरीके से हुई थी लेकिन अब प्रवृत्ति यह खतरनाक मुकाम तक पंहुंच चुकी है. देखा गया है कि हर मसले पर पूर्व और वर्तमान फौजी अफसर अपनी राय देने लगे हैं और टेलिविज़न चैनलों पर उसे प्रमुखता से दिखाया जाने लगा है . समाचार संकलन अपने आप में एक गंभीर काम है , ज़रा सी चूक से क्या से क्या हो सकता है .टेलिविज़न के समाचार तो और भी गंभीर माने जाने चाहिए क्योंकि देखी गयी खबर का असर सुनी या पढी गयी खबर से ज्यादा होता है . इसलिए टेलिविज़न की ज़िम्मेदारी है कि वह मामले को हल्का फुल्का करके पेश करने की लालच में न पड़े. लेकिन ऐसा धड़ल्ले से हो रहा है . यह लोकतंत्र और समाज के लिए ठीक नहीं है . आजकल कारगिल के युद्ध के बारे में तरह तरह की खबरें दिखाई जा रही हैं . किसी ब्रिगेडियर के साथ हुए अन्याय को केंद्र में रख कर कई टी वी चैनलों पर सेना और इतिहास से जुड़े तरह तरह के विषयों पर चर्चा की जा रही है . यह ठीक नहीं है . लोकतंत्र में बहस का महत्व है या यह कह सकते हैं कि बिना बहस के लोकतंत्र में जान ही नहीं आती लेकिन यह बहस उन मुद्दों के बारे में होनी चाहिए जो सरकारी नीति के बनाने में सहयोग कर सकें या उन पर निगरानी करने में काम आ सकें . राज काज और राजनीतिक विषयों पर बहस बहुत ज़रूरी है और उसे उत्साहित किया जाना चाहिए लेकिन सेना और राष्ट्रीय सुरक्षा के नीतियों और योजनाओं को पब्लिक डोमेन में लाना राष्ट्रीय सुरक्षा से खेलना है और इसे किसी कीमत पर बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए.
खबर आई है कि कारगिल युद्ध में हेरा फेरी के आरोपी एक जनरल ने कहा है कि उस लड़ाई में भारत की जीत ही नहीं हुई थी. इस जनरल का आचरण संदेह के घेरे में आ चुका है और उसके बारे में अदालती हस्तक्षेप के बाद यह पता लग चुका है कि यह भाई हेरा फेरी का उस्ताद है . उसके दृष्टिकोण को पब्लिक डोमेन में लाने का कोई मतलब नहीं है . जहां तक कारगिल की लड़ाई की बात है , वह हमारी विदेश नीति की नाकामी का एक बड़ा उदाहरण है . भला बताइये , हमारा प्रधानमंत्री पाकिस्तान से दोस्ती बढाने के लिए सकारात्मक पहल कर रहा है और बस से लाहौर की यात्रा पर गया हुआ है और पाकिस्तानी फौज हमारे महत्वपूर्ण सैनिक ठिकानों पर क़ब्ज़ा कर रही है . और हमारी खुफिया एजेंसियों को भनक तक नहीं है . ज़ाहिर है कि उस वक़्त के कूटनीति के प्रबंधकों को दण्डित किया जाना चाहिए लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि कोई भी पुराना फौजी मुंह उठाकर चला आये और कह दे कि जिस लड़ाई में हमारे इतने नौजवान शहीद हुए हों , वह बेकार की लड़ाई थी ., उसमें हमारी जीत ही नहीं हुई थी. यह बहुत ही गैरज़िम्मेदार बयान है और अगर कोई ऐसा आदमी कह रहा हो, जो उस लड़ाई के संचालन में बहुत ही महत्वपूर्ण पद पर रहा हो , तो और भी गंभीर बात है . हालांकि कि फौजियों को इतने गंभीर मामलों के राजनीतिक और कूटनीतिक पक्ष में शामिल नहीं किया जाना चाहिए लेकिन अब बात बहस में घसीट ली गयी है तो बात को साफ़ कर देना ज़रूरी है . जहां तक कारगिल में हार जीत की बात है , निश्चित रूप से भारत ने वहां सैनिक सफलता पायी है . यह भी सही है कि उस लड़ाई में अपने बहुत से बहादुर अफसर और जवान शहीद भी हुए . लेकिन अगर उस वक़्त हमारी सेना सफल न हुई होती तो कारगिल और आसपास के इलाकों में सामरिक रूप से जिन ऊंचाइयों पर पाकिस्तानी सेना ने अपने अड्डे बना लिये थे , वह हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए बहुत ही खतरनाक साबित हो सकता है . वहां से पाकिस्तान को बेदखल कर के सैनिक सुरक्षा की अपनी व्यवस्था को दुरुस्त करना अगर जीत नहीं है तो फिर क्या है . इस गैर ज़िम्मेदार,हेराफेरी मास्टर और कुंठित पूर्व जनरल के प्रलाप को पूरे देश में प्रचारित करके जिस न्यूज़ चैनल ने राष्ट्रीय सुरक्षा को सवालों के घेरे में खड़ा करने की कोशिश की है , उसे ऐसा नहीं करना चाहिए था. सवाल पैदा होता है कि वह फौजी जिसकी बे-ईमानी की कथा अब जगज़ाहिर है , उसके अध् कचरे ख्यालात को राष्ट्रहित के खिलाफ इतनी अहमियत क्यों दी जा रही है . जिस चैनल पर यह श्रीमान जी अपने आप को महिमामंडित कर रहे थे उसकी एक बहुत ही वरिष्ठ कार्यकर्ता पर पिछले दिनों पावर ब्रोकर होने के आरोप भी लग चुके हैं . कारगिल युद्ध के दौरान भी इस चैनल की एक रिपोर्टर पर आरोप लग चुका है कि उसकी एक खबर की वजह से हमारे कुछ सैनिक शहीद हुए थे . हालांकि इन खबरों में सच्चाई नहीं है लेकिन उस युद्ध के दौरान जो बंदा इंचार्ज था, उसको बहुत हाईलाईट करके कहीं एहसान का बदला तो नहीं चुकाया जा रहा है .

जहां तक कारगिल की लड़ाई को बेकार साबित करने की कोशिश है , वह भी बिलकुल बेकार की बात है .. उस लड़ाई में भारतीय फौज विजयी रही थी क्योंकि उसने महत्वपूर्ण सैनिक ठिकानों को पाकिस्तानी फौज से वापस लेकर वहां तिरंगा लहरा दिया था .. लेकिन असली जीत तो अंतरराष्ट्रीय मैदान में हुई थी. पाकिस्तानी प्रधानमंत्री ने अमरीका जाकर उसके राष्ट्रपति से मदद की गुहार की थी लेकिन उन्होंने साफ़ मना कर दिया था और चेतावनी दी थी कि अगर पाकिस्तानी फौजें फ़ौरन न हटीं तो मुश्किल हो जायेगी. परंपरागत रूप से आँख मूँद कर पाकिस्तान की मदद करने वाले अमरीका की नज़र में पाकिस्तान का यह पतन भारत के लिए एक बड़ी कूटनीतिक जीत थी . लेकिन इन बातों से फौजी जनरलों को कोई मतलब नहीं होना चाहिए और समाचार माध्यमों को भी सावधान रहना चाहिए कि कहीं उनकी अधकचरी समझ की वजह से राष्ट्रीय सुरक्षा को ख़तरा न पैदा हो जाय

पाकिस्तान को ख़त्म कर सकता है आतंकवाद

शेष नारायण सिंह


पाकिस्तान में अहमदिया समुदाय लोगों की दो मस्जिदों में शुक्रवार की नमाज़ के वक़्त जो हमला हुआ वह पाकिस्तानी समाज में व्याप्त असहिष्णुता को एक बार भी फिर रेखांकित कर देता है .. अहमदिया समुदाय के लोग अपने आप को मुसलमान कहते हैं लेकिन पाकिस्तानी सरकार उन्हें मुसलमान नहीं मानती. वे वहां के सरकारी रिकॉर्ड में गैर-मुस्लिम जमात के रूप में दर्ज हैं . शायद इसीलिए जब शुक्रवार के दिन मस्जिद में हुए हमलों में मारे गए अहमदिया समुदाय के लोगों का अंतिम संस्कार किया गया तो कोई भी सरकारी नेता या अधिकारी वहां नहीं गया . राजनीतिक पार्टियों ने तो दो मस्जिदों में हुए इस नरसंहार के खिलाफ बयान दे दिए लेकिन कोई नेता सार्वजनिक रूप से सहानुभूति व्यक्त करने की हिम्मत नहीं जुटा सका.दरअसल पाकिस्तान में अहमदिया समुदाय के लोगों के खिलाफ बहुत असहिष्णुता है . पाकिस्तानी हुकूमत का दावा है कि अहमदिया सम्प्रदाय के लोगों की आबादी उनके देश में चौथाई प्रतिशत से भी कम है . पाकिस्तान की स्थापना के बाद से ही जब जमाते-इस्लामी के नेता , मौलाना मौदूदी ने नए देश को इस्लामी राज्य के रूप में स्थापित करने की मुहिम शुरू की , तो लोगों को लगने लगा था कि पाकिस्तान के संस्थापक , मुहम्मद अली जिन्ना के सपनों का पाकिस्तान तो कभी नहीं बन पायेगा. इसका कारण यह था कि पाकिस्तान की बुनियादी मांग ही धार्मिक आधार पर की गयी थी. जिन्ना ने अंग्रेजों से पाकिस्तान हासिल ही इसलिए किया था कि उन्हें शक़ था कि आज़ादी के बाद जब अँगरेज़ चले जायेंगे तो हिन्दू बहुमत की सरकारें मुसलमानों को परेशान करेंगीं . जिन्ना की यह सोच गलत थी क्योंकि आज भी मुसलमान भारत में गर्व से रहते हैं और मुस्लिम विरोधी आर एस एस के खिलाफ लगभग पूरे देश के धर्मनिरपेक्ष हिन्दू लामबंद हैं.. जिन्ना की वफादारी और भारत के टुकड़े करने की अपनी नीति के तहत अंग्रेजों ने मुल्क का बँटवारा कर दिया . शायद इसीलिए जमाते इस्लामी की अगुवाई में मुल्लाओं ने इस्लामी राज्य की स्थापना के लिए कोशिश शुरू कर दी लेकिन जिन्ना के दिमाग में कुछ और था . वे धार्मिक मामलों को राजकाज का हिस्सा नहीं बनाना चाहते थे. इसीलिए पाकिस्तान के बँटवारे के बाद उन्होंने जो सबसे चर्चित भाषण दिया था उसमें उन्होंने साफ़ कह दिया था कि नया मुल्क एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र होगा. उनका वह भाषण बार बार उद्धृत किया जाता है . उस पर गौर करने की ज़रुरत है क्योंकि उसकी रोशनी में ही समझ में आयेगा कि पाकिस्तान के संस्थापक के असली सपने कितने नीचे दफन कर दिए गए हैं .
जिन्ना ने अपने उस विख्यात भाषण में कहा था कि ' मेरी समझ से भारत के विकास में धार्मिक मतभेद की समस्या सबसे बड़ी बाधा रही है . इसलिए हमें इस से एक सबक सीखना चाहिए . इस नए पाकिस्तान में आप मंदिर में जाने के लिए स्वतंत्र हैं .आप अपनी मस्जिदों में जा सकते हैं या किसी और पूजा स्थल पर जा सकते हैं . आप किसी भी धर्म, जाति या मत से ताल्लुक रख सकते हैं , उस से राज्य का कोई लेना देना नहीं है .' जिन्ना का यह भाषण साफ़ कर देता है कि पाकिस्तान हथियाने के लिए उन्होंने चाहे जो कुछ भी किया हो लेकिन नए देश को वे भी धर्मनिरपेक्षता की बुनियाद पर चलाना चाहते थे . लेकिन उनकी बात को सुनने वाला कोई नहीं था . उनके मरने के कुछ बाद ही उनके चहेते और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाक़त अली को मार डाला गया , पंजाबी साम्राज्यवाद की शुरुआत हो गयी शुरू में तो जिन्ना की सोच को इज्ज़त देने का ड्रामा होता रहा लेकिन बाद में अपने आप को बहुत सेकुलर और आधुनिक कहलाने के शौकीन , ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने सत्ता पर काबिज़ होने के बाद सरकारी स्तर पर मुल्लाओं की बात को स्वीकार करना शुरू कर दिया . ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने ही अहमदिया सम्प्रदाय के लोगों को गैर-मुस्लिम घोषित किया था . बाद में उनके हत्यारे और पाकिस्तान के फौजी तानाशाह ,जिया उल हक ने उसे बहुत ही मज़बूत कर दिया .

बहरहाल यह पक्का है कि मुहम्मद अली जिन्ना वाला पाकिस्तान आज कहीं दूर दूर तक नहीं है . यह हाल शुरू से ही है . पाकिस्तान में सत्तर के दशक में लोग कहते पाए जाते थे कि यहाँ सिन्धी हैं , पंजाबी हैं , पख्तून हैं और बलूच हैं लेकिन पाकिस्तानी कोई नहीं . आज हालात उस से भी बदतर हैं . जिस तरह से पूरे पाकिस्तान में खून खराबा हो रहा है, उसे देखकर कई बार शक़ होने लगता है आज के पाकिस्तान में इंसान की इज्ज़त करने वाली जमातें भी कहीं छुप गयी हैं . मुहम्मद अली जिन्ना मूल रूप से धर्मनिरपेक्षता की राजनीति के पैरोकार थे ..१९१९ के पहले की कांग्रेस में उनकी हैसियत एक बड़े नेता की थी लेकिन अपने चिडचिडे और दूसरों की राय की इज्ज़त न करने के स्वभाव कारण उन्हें कांग्रेस से अलग होना पड़ा . बाद में लियाक़त अली के साथ मिलकर वे मुल्क के बँटवारे के अभियान के नेता बने. लेकिन आज़ादी के बाद वे पाकिस्तान में वैज्ञानिक सोच के आधार पर हुकूमत के पक्षधर थे. जो हो न सका .उनका सपना पूरा नहीं हुआ .. पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिन्ना के सपने अब कहीं नहीं हैं. पूर्व तानाशाह जिया उल हक ने जिस तरह से हर पाकिस्तानी के दिमाग में भारत से दुश्मनी का ज़हर भर दिया था , वह अब रंग दिखाने लगा है . भारत को तबाह करने के लिए जिया ने आतंकवाद को अपनी सरकार की प्राथमिकता में शामिल किया था और आई एस आई का इस्तेमाल करके आतंकवाद का एक बड़ा तामझाम तैयार किया था . भारत ने तो अपने आप को सुरक्षित कर लिया लेकिन वही आतंकवाद आज पाकिस्तान की तबाही का कारण बनता नज़र आ रहा है. और लगता है कि जिया से शुरू होकर बेनजीर ,नवाज़ शरीफ और मुशर्रफ के शासन काल में जिस आतंकवाद को भारत के खिलाफ इस्तेमाल करने की कोशिश की गयी थी ,वह पाकिस्तान को तबाह करके ही दम लेगा.

अगर आतंक में पकडे गए तो आर एस एस अपने लोगों से पल्ला झाड़ लेगा

शेष नारायण सिंह

देश में हुई आतंकवादी गतिविधियों में आर एस एस के शामिल होने की पोल खुलने के बाद नागपुर के मठाधीश बहुत परेशान हैं . एक बहुत ही आदरणीय पत्रकार से बात चीत में संगठन के एक ज़िम्मेदार नेता ने बताया कि यह ठीक नहीं है क्योंकि अगर आर एस एस के कार्यक्रताओं के नाम आतंकवादी काम में जुड़ गए तो उनकी उस रणनीति की हवा निकल जायेगी जिसके तहत वे कहते पाए जाते थे कि सभी मुसलमान आतंकवादी नहीं होते लेकिन सभी आतंकवादी मुसलमान होते हैं .. उनकी कोशिश रहती थी कि मुसलमानों को आतंकवाद के साचे में मुकम्मल तरीके से फिक्स रखा जाए . लेकिन महाराष्ट्र के मालेगांव, राजस्थान के अजमेर और आन्ध्र प्रदेश के मक्का मस्जिद धमाकों में आर एस एस के लोगों के पकडे जाने और उनके शामिल होने की बात के साबित हो जाने के बाद यह तो पता चल ही गया है कि सभी आतंकवादी मुसलमान नहीं होते, बल्कि यह भी कि आर एस एस ही इस देश में होने वाले आतंकवाद का एक प्रमुख नियंता है और आतंकवादी का कोई धर्म नहीं होता .. अब आर एस एस की ताज़ा लाइन अलग है. अब तक तो यह था कि अपने लोगों को आतंकवादी घटनाओं में पकडे जाने के बाद भी मदद की जायेगी . इस सोच के तहत ही जब उनकी मध्य प्रदेश की नेता, प्रज्ञा सिंह ठाकुर आतंकवादी होने के आरोप में पकड़ी गयी थीं तो उस वक़्त के आर एस एस की राजनीतिक शाखा के अध्यक्ष राजनाथ सिंह और प्रधान मंत्री पद के प्रतीक्षक, लाल कृष्ण आडवानी ने उनके समर्थन में बयान दिया था लेकिन अब बात बिगड़ रही है. प्रज्ञा ठाकुर वाले मामले में बचत की एक गुंजाइश थी . वे आर एस एस के उन संगठनों के साथ थीं जो चोरी छुपे उनका काम करते हैं और पकडे जाने पर नागपुर उनसे पल्ला झाड लेता है . लेकिन अब बात बदल गयी है . अजमेर में ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर जो धमाका हुआ था , उसका सरगना पकड़ लिया गया है और वह आर एस एस का आधिकारिक रूप से तैनात किया गया प्रचारक था. प्रचारक ,आर एस एस का सबसे महत्वपूर्ण पद्दाधिकारी होता है . सही बात यह है कि वही सारे खेल में केंदीय भूमिका अदा करता है . संगठन के सभी बड़े नेता मूल रूप से स्वयंसेवक होते हैं लेकिन जो प्रचारक होकर बी जे पी में आते हैं ,उनकी ताक़त औरों से ज्यादा होती है . गुजरात के नरेंद्र मोदी भी आर एस एस के प्रचारक रह चुके हैं . ज़ाहिर है प्रचारकों के पकडे जाने के बाद आर एस एस वालों को लगने लगा है कि अगर सारी पोल पट्टी खुल गयी तो उनका एक बार फिर वही हाल होगा जो गाँधी जी की हत्या में पकडे जाने के बाद हुआ था. उस मामले में तो उनके मुखिया ,गोलवलकर तक पकड़ लिए गए थे . बाद में छूट गए लेकिन उनके अपने बन्दे सावरकर , नाथूराम गोडसे वगैरह के ऊपर आरोप साबित हो गए थे. और उन लोगों को माकूल सज़ा भी हुई. गांधी हत्या में पकडे जाने की वजह से इस संगठन पर बहुत दिनों तक किसी को भरोसा नहीं हुआ था. वह तो १९७७ में जयप्रकाश नारायण ने इनको मुख्य धारा में लाने में मदद की. शायद इसीलिए अब आर एस एस के नेता लोग खुले आम बदमाशी करने या अपने लोगों को आतंकवादी कहलवाने का ख़तरा मोल नहीं लेना चाहते . जिस गुमनाम आर एस एस वाले ने एक प्रतिष्ठित अखबार की संवाददाता से बात की उसने साफ़ कहा कि गाँधी जी की ह्त्या वाले मामले के बाद उनका संगठन बहुत पिछड़ गया था .
इस नयी सोच के तहत अजमेर के आतंकवादी धामाके में पकड़ा गया नरेंद्र गुप्ता अपनी जान बचाने के लिए अकेला छोड़ दिया गया है . हालांकि आर एस एस के लिए यह साबित कर पाना मुश्किल है कि नरेंद्र गुप्ता का उनसे कोई लेना देना नहीं है. क्योंकि आर एस एस ने ही उसे प्रचारक के रूप में झारखण्ड में कई वर्षों तक तैनात रखा था . उसका जो सिम कार्ड बरामद हुआ है उस से उसके सम्बन्ध अजमेर धमाके के दौरान भी आर एस एस के टाप नेताओं से बने रहने की बात साबित हो गयी है . यह भी साबित हो गया है कि अपने अन्य साथियों से भी वह उसी सिम कार्ड से संपर्क में था . उसकी मक्का मस्जिद विस्फोट में हिस्सेदारी की पुष्टि हो गयी है और आर एस एस के बाकी आतंकवादी भी उसकी निशान देही पर पकडे जा रहे हैं . इस तरह से आतंकवादी हरकतों में आर एस एस के शामिल होने के पुख्ता सबूत मिल जाने के बाद उसके आला नेता परेशानी में हैं और अब उनकी नीति यह है कि जब तक पकड़ा न जाए तब तक तो आर एस एस अपने आतंकवादियों की मदद करेगा लेकिन पकडे जाने के बाद उसको कुर्बान कर देगा. आर एस एस के इस गुमनाम बड़े नेता ने सम्मानित पत्रकार को बताया कि अगर एक दिन के लिए भी आर एस एस का आतंकवादी गतिविधियों में डाइरेक्ट शामिल होता हुआ पकड़ा गया तो बहुत बुरा होगा . यानी आगे से आर एस एस का जो भी स्वयंसेवक आतंक का काम करते पकड़ा जाएगा उसका वही हश्र होगा जो अजमेर के केस में पकडे गए नरेंद्र गुप्ता का हो रहा है . यानी अब नागपुर वाले अपने उन आतंकवादियों को नहीं बचायेंगें जो पुलिस की पकड़ में आ जायेंगें