Thursday, October 31, 2013

मधु लिमये ने सरदार पटेल को धर्मनिरपेक्षता का महान प्रणेता बताया था

ek puraana lekha






शेष  नारायण सिंह 

मधु लिमये होते तो ९० साल के हो गए होते . मुझे मधु  जी के करीब आने का मौक़ा १९७७ में मिला था जब वे लोक सभा के लिए चुनकर दिल्ली  आये थे. लेकिन उसके बाद दुआ सलाम तो होती रही लेकिन अपनी रोजी रोटी की लड़ाई में मैं बहुत व्यस्त हो गया. . जब आर एस एस ने  बाबरी मस्जिद के मामले को गरमाया तो पता नहीं कब मधु जी से मिलना जुलना लगभग रोज़ ही का सिलसिला बन गया .  इन दिनों वे सक्रिय राजनीति से संन्यास ले चुके थे और लगभग पूरा समय लिखने में लगा रहे थे. बाबरी मस्जिद के बारे में आर एस एस और बीजेपी वाले उन दिनों सरदार पटेल के हवाले से अपनी बात कहते पाए जाते थे. हुम लोग भी दबे रहते थे क्योंकि सरदार पटेल को कांग्रेसियों का एक वर्ग भी साम्प्रदायिक बताने की कोशिश करता रहता था. उन्हीं दिनों मधु लिमये ने मुझे बताया था कि सरदार पटेल किसी भी तरह से हिन्दू साम्प्रदायिक नहीं थे. 
 दिसंबर १९४९ में  फैजाबाद के तत्कालीन कलेक्टर के के नायर की साज़िश के बाद बाबरी मस्जिद में भगवान् राम की मूर्तियाँ रख दी गयी थीं . केंद्र सरकार बहुत चिंतित थी . ९ जनवरी १९५० के दिन  देश के गृह मंत्री ने रूप में सरदार पटेल ने उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री गोविन्द वल्लभ पन्त को लिखा था. पत्र में साफ़ लिखा है कि " मैं समझता हूँ कि इस मामले दोनों सम्प्रदायों के बीच आपसी समझदारी से हल किया जाना चाहिए . इस तरह के मामलों में शक्ति के प्रयोग का कोई सवाल नहीं पैदा होता... मुझे यकीन है कि इस मामले को इतना गंभीर मामला नहीं बनने देना चाहिए और वर्तमान अनुचित विवादों को शान्ति पूर्ण तरीकों से सुलझाया जाना चाहिए ." 

मधु जी ने बताया कि सरदार पटेल इतने व्यावहारिक थे किउन्होने मामले के भावनात्मक आयामों  को समझा और इसमें मुसलमानों की सहमति प्राप्त करने की आवश्यकता पर जोर दिया . उसी दौर में मधु लिमये ने बताया था कि बीजेपी किसी भी हालत में सरदार पटेल को जवाहर लाल नेहरू का विरोधी नहीं साबित कर सकती क्योंकि महात्मा जी से सरदार की जो अंतिम बात हुई थी उसमें उन्होंने साफ़ कह दिया था कि जवाहर ;लाल से मिल जुल कर काम कारण है . सरदार पटेल एन महात्मा जी की अंतिम इच्छा को हमेशा ही सम्मान दिया ..

मधु लिमये हर बार कहा करते थे कि भारत की आज़ादी की लड़ाई जिन मूल्यों पर लड़ी गयी थी, उनमें धर्म निरपेक्षता एक अहम मूल्य था . धर्मनिरपेक्षता  भारत के संविधान का स्थायी भाव है, उसकी मुख्यधारा है। धर्मनिरपेक्ष राजनीति किसी के खिलाफ कोई नकारात्मक प्रक्रिया नहीं है। वह एक सकारात्मक गतिविधि है। मौजूदा राजनेताओं को इस बात पर विचार करना पड़ेगा और धर्मनिरपेक्षता को सत्ता में बने रहने की रणनीति के तौर पर नहीं राष्ट्र निर्माण और संविधान की सर्वोच्चता के जरूरी हथियार के रूप में संचालित करना पड़ेगा। क्योंकि आज भी धर्मनिरपेक्षता का मूल तत्व वही है जो 1909 में महात्मा गांधी ने हिंद स्वराज में लिख दिया था..

धर्मनिरपेक्ष होना हमारे गणतंत्र के लिए बहुत ज़रूरी है। इस देश में जो भी संविधान की शपथ लेकर सरकारी पदों पर बैठता है वह स्वीकार करता है कि भारत के संविधान की हर बात उसे मंज़ूर है यानी उसके पास धर्मनिरपेक्षता छोड़ देने का विकल्प नहीं रह जाता। जहां तक आजादी की लड़ाई का सवाल है उसका तो उद्देश्य ही धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय का राज कायम करना था। महात्मा गांधी ने अपनी पुस्तक 'हिंद स्वराज' में पहली बार देश की आजादी के सवाल को हिंदू-मुस्लिम एकता से जोड़ा है। गांधी जी एक महान कम्युनिकेटर थे, जटिल सी जटिल बात को बहुत साधारण तरीके से कह देते थे। हिंद स्वराज में उन्होंने लिखा है - ''अगर हिंदू माने कि सारा हिंदुस्तान सिर्फ हिंदुओं से भरा होना चाहिए, तो यह एक निरा सपना है। मुसलमान अगर ऐसा मानें कि उसमें सिर्फ मुसलमान ही रहें, तो उसे भी सपना ही समझिए। फिर भी हिंदू, मुसलमान, पारसी, ईसाई जो इस देश को अपना वतन मानकर बस चुके हैं, एक देशी, एक-मुल्की हैं, वे देशी-भाई हैं और उन्हें एक -दूसरे के स्वार्थ के लिए भी एक होकर रहना पड़ेगा।"

महात्मा जी ने अपनी बात कह दी और इसी सोच की बुनियाद पर उन्होंने 1920 के आंदोलन में हिंदू-मुस्लिम एकता की जो मिसाल प्रस्तुत की, उससे अंग्रेजी राज्य की चूलें हिल गईं। आज़ादी की पूरी लड़ाई में महात्मा गांधी ने धर्मनिरपेक्षता की इसी धारा को आगे बढ़ाया। शौकत अली, सरदार पटेल, मौलाना अबुल कलाम आजाद और जवाहरलाल नेहरू ने इस सोच को आजादी की लड़ाई का स्थाई भाव बनाया।लेकिन अंग्रेज़ी सरकार हिंदू मुस्लिम एकता को किसी कीमत पर कायम नहीं होने देना चाहती थी . महात्मा गाँधी के दो बहुत बड़े अनुयायी जवाहर लाल नेहरू और  कांग्रेस के दूसरे बड़े नेता, सरदार वल्लभ भाई पटेल ने धर्मनिरपेक्षता को इस देश के मिजाज़ से बिलकुल मिलाकर राष्ट्र की बुनियाद रखी.

मधु जी बताया करते थे कि कांग्रेसियों के ही एक वर्ग ने सरदार को हिंदू संप्रदायवादी साबित करने की कई बार कोशिश की लेकिन उन्हें कोई सफलता नहीं मिली। भारत सरकार के गृहमंत्री सरदार पटेल ने 16 दिसंबर 1948 को घोषित किया कि सरकार भारत को ''सही अर्थों में धर्मनिरपेक्ष सरकार बनाने के लिए कृत संकल्प है।" (हिंदुस्तान टाइम्स - 17-12-1948)। सरदार पटेल को इतिहास मुसलमानों के एक रक्षक के रूप में भी याद रखेगा। सितंबर 1947 में सरदार को पता लगा कि अमृतसर से गुजरने वाले मुसलमानों के काफिले पर वहां के सिख हमला करने वाले हैं। सरदार पटेल अमृतसर गए और वहां करीब दो लाख लोगों की भीड़ जमा हो गई जिनके रिश्तेदारों को पश्चिमी पंजाब में मार डाला गया था। उनके साथ पूरा सरकारी अमला था और उनकी बहन भी थीं। भीड़ बदले के लिए तड़प रही थी और कांग्रेस से नाराज थी। सरदार ने इस भीड़ को संबोधित किया और कहा, ''इसी शहर के जलियांवाला बाग की माटी में आज़ादी हासिल करने के लिए हिंदुओं, सिखों और मुसलमानों का खून एक दूसरे से मिला था। ............... मैं आपके पास एक ख़ास अपील लेकर आया हूं। इस शहर से गुजर रहे मुस्लिम शरणार्थियों की सुरक्षा का जिम्मा लीजिए ............ एक हफ्ते तक अपने हाथ बांधे रहिए और देखिए क्या होता है।मुस्लिम शरणार्थियों को सुरक्षा दीजिए और अपने लोगों की डयूटी लगाइए कि वे उन्हें सीमा तक पहुंचा कर आएं।" 

सरदार पटेल की इस अपील के बाद पंजाब में हिंसा नहीं हुई। कहीं किसी शरणार्थी पर हमला नहीं हुआ। कांग्रेस के दूसरे नेता जवाहरलाल नेहरू थे। उनकी धर्मनिरपेक्षता की कहानियां चारों तरफ सुनी जा सकती हैं। उन्होंने लोकतंत्र की जो संस्थाएं विकसित कीं, सभी में सामाजिक बराबरी और सामाजिक सद्भाव की बातें विद्यमान रहती थीं। प्रेस से उनके रिश्ते हमेशा अच्छे रहे इसलिए उनके धर्मनिरपेक्ष चिंतन को सभी जानते हैं और उस पर कभी कोई सवाल नहीं उठता।
बाद में  इन चर्चाओं के दौरान हुई  बहुत  सारी बातों को मधु लिमये ने अपनी किताब ," सरदार पटेल: सुव्यवस्थित राज्य के प्रणेता " में विस्तार से लिखी भी हैं . १९९४ में जब मैंने इस किताब की समीक्षा लिखी तो मधु जी बहुत खुश हुए थे और उन्होंने संसद के पुस्तकालय से मेरे लेख की फोटोकापी लाकर मुझे दी और कहा कि सरदार पटेल के बारे के जो लेख तुमने लिखा है वह बहुत  अच्छा है . मैं अपने लेखन के बारे में उनके उस बयान को अपनी यादों की सबसे बड़ी धरोहर मानता हूँ जो उस महान व्यक्ति ने मुझे उत्साहित करने के लिए दिया था 

जिस दिन इंदिरा गांधी की हत्या हुई थी.



शेष नारायण सिंह

३१ अक्टूबर १९८४ ,नई दिल्ली. सुबह साढ़े नौ बजे के आस पास मेरे मित्र राम चन्द्र सिंह का फोन आया कि इंदिरा गांधी को उनके घर में ही किसी ने गोली मार दी है . इलाज के लिए आल इंडिया इंस्टीट्यूट आफ मेडिकल साइंसेज में ले जाई गयी हैं . हम सफदरजंग इन्क्लेव में रहते थे. बाहर निकल कर उसी पैजामे कुर्ते में सामने खड़े एक आटोरिक्शा पर बैठ  गए . किराया दो रूपया होना चाहिए था लेकिन उसने पांच रूपये मांगे .हाँ कर दी और मेडिकल इंस्टीट्यूट पंहुच गए. कोई भीड़ नहीं थी इंदिरा गांधी के घर पर रहने वाले लोग ही रहे होंगें . कुछ पुलिस वाले , कुछ डाक्टर और कोई नहीं . पता चला कि आपरेशन थियेटर में  ले जाई गयी  हैं . कर्मचारी संगठन के मिश्र जी नज़र आये .मैंने पूछा कि  इंदिरा जी की कैसी हाल चाल है . उन्होंने बताया कि हाल चाल कैसी होगी . सैकड़ों  गोलियाँ लगी हैं . शरीर छलनी है . मैंने पूछा बच तो जायेगीं ? उन्होंने कहा कि यह सवाल मूर्खता भरा है . इंदिरा जी की बाडी ही अस्पताल लाई गयी थी. मैं इंदिरा गांधी का बहुत प्रशंसक कभी नहीं रहा लेकिन मुझे याद है किमैं बहुत तकलीफ से घिर गया .लगा कि अब तूफ़ान आ सकता है . वहीं बैठ गया . बहुत देर बैठा रहा . नेताओं का आना जाना शुरू हो चुका था .अरुण नेहरू पूरे कंट्रोल में थे ,कुछ देर बाद ऊपर जाकर देखा. अंदर कमरे में इंदिरा गांधी का मृत शरीर और बाहर उनकी सरकार के मंत्री खड़े बातचीत कर रहे थे. कुछ देर बाद पुलिस वालों ने फालतू लोगों को हटा दिया. लेकिन अभी किसी को बताया नहीं गया था कि इंदिरा गांधी की मृत्यु हो चुकी थी.
मैं बाहर आ गया .सड़क पर भीड़ इकट्ठा होने लगी थी. लेकिन चारों तरफ सन्नाटा था . लगता है कि सब को मालूम था कि अंदर क्या हो गया था. पुलिस अधिकारी गौतम कौल नज़र आये . उनके चेहरे पर बहुत तकलीफ थी जो आम तौर पर पुलिस वालों के चेहरे पर नहीं होती ,वीय तो ड्यूटी कर रहे होते हैं . लेकिन गौतम की आँखे बहुत भारी थीं. वे इंदिरा जी के रिश्तेदार भी हैं .मुझे याद है उन्होंने किसी थानेदार को बुलाया और कहा  कि एम्स और सफदरजंग अस्पताल के बीच वाली सड़क को खाली करवा लो. जो कारें खड़ी हैं , उनको क्रेन वगैरह से हटवा दो . अब तक भीड़ आना शुरू हो चुकी थी. पास में ही अर्जुन दास का दफ्तर था .उसके लोग बड़ी संख्या में मौजूद थे और धीरे धीरे शोरगुल का माहौल बन रहा था . मैं अपने घर चला आया और तैयार होकर काम पर चला गया .
शाम को बस में बैठे हुए मैंने आकाशवाणी की छ बजे की बुलेटिन सुनी कि राजीव गांधी को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिला दी गयी है. मैं सन्न रह गया . मुझे लगा कि राजीव गांधी को सरकार में रहने का एक दिन का भी अनुभव नहीं है ,अभी दो साल पहले राजनीति में सक्रिय हुए हैं,यह क्या हो गया .  सरकार के अंदर  मौजूद स्वार्थतंत्र तो उनसे बहुत सारे उलटे सीधे  काम करवा लेगा. बाद की घटनाएं बताती हैं को मेरा डर सही था.  बहरहाल अब तो हो चुका था . अपने दोस्त जनार्दन सिंह के यहाँ पंहुचा . वहाँ से घर आते हुए मैंने आर के पुरम और सफदरजंग इन्केल्व के बीच में कई जगह देखा  कि अर्जुन दास के लोग सिखों को मार रहे हैं . मेरे मोहल्ले के कोने में एक  घर था जिसपर बख्शी लिखा था , वह आग के हवाले हो गया था. किसी तरह घर पंहुचा . लेकिन मोहल्ले में ही सिखों के घरों की पहचान करके आग लगाई जा रही थी. मेरे मित्र आशुतोष वार्ष्णेय वहीं पड़ोस में अमिता और सतीश के घर पर रहते थे . उन्होएँ भी दिनमें शहर में तनाव देखा था. शहर से लौटकर उन्होंने जो वर्णन किया हो दिल दहला देने वाला था.

अगले दिन आशुतोष के स्कूटर पर बैठकर शहर में निकले .  लेडी श्रीराम कालेज के पीछे लाजपत भवन में रोमेश थापर ,कुलदीप नैयर और धर्मा कुमार की अगुवाई में लोग  जमा हो रहे थे . पता लगा कि अर्जुन दास ,एच के एल भगत, ललित माकन और सज्जन कुमार के इलाकों में खूब क़त्ल-ओ-गारद हुआ है . हम लोग त्रिलोकपुरी  की तरफ एक टेम्पो में बैठकर गए. वहाँ की तबाही दिल दहला देने वाली थी. बहुत सारे लोगों के घर जला दिए गए थे , लोगों के परिवार वालों को मार डाला गया था. सब कुछ बिलकुल संगठित रूप से हो रहा था.. कनिष्क होटल में हमारे दोस्त आर सी सिंह मैनेजर थे . उनके पास  गए और उन्होने  पूरी दिल्ली में हुई तबाही का हाल बताया . शाम को घर आया तो मेरे मोहल्ले में भारी तबाही नज़र आयी. अर्जुन दास का इलाका है ,सिखों के घरों को चुन चुन कर तबाह किया गया था .  आई आई टी के प्रोफ़ेसर दिनेश मोहन के साथ उनकी फिएट कार में मैं और आशू कई जगह गए और आजतक मैं यह मानने को तैयार नहीं हूँ कि इंदिरा जी की हत्या के बाद सिखों के खिलाफ लोगों का गुस्सा फूट पड़ा था . दिल्ली में तो सारा खून खराबा प्रायोजित था . राजीव गांधी प्रधानमंत्री बन चुके थे और दिल्ली के रिवाज़ के हिसाब से अपने आपको उनका वफादार साबित करने के लिए मुकामी कांग्रेसी नेताओं ने खूनखराबा करवाया था.         

Wednesday, October 16, 2013

रतनगढ़ हादसे में पुलिस ने दानव रूप अख्तियार किया



शेष नारायण सिंह

नई दिल्ली, १५ अक्टूबर रतनगढ़ से जो ख़बरें आ रही हैं वे तो यह साबित कर दे रही हैं कि हैवानियत ने उस मंदिर के क्षेत्र में अपनी सारी कला का प्रदर्शन किया . देश के सबसे बड़े अंग्रेज़ी अखबार में खबर छपी है कि पुलिस वालों ने घायल बच्चों को नदी में फेंक दिया .जो बात हैरत अंगेज है वह यह कि  यह बच्चे जब  नदी में फेंके गए तो जिंदा थे . जो बच्चे नदी में फेंके गए थे उनमें से छः को तो दतिया की राजुश्री यादव ने बचा लिया और पांच बच्चों को उनके माता पिता के हवाले कर दिया . एक बच्ची अभी भी उनके पास है जो सारी रात  रोती रही .उनकी समझ में नहीं आ रहा है कि इउस बच्ची को कहाँ ले जाएँ . एक अन्य चश्मदीद ने बताया है कि उसने ट्रकों में  भरकर पुलिस वालों को करीब पौने दो से लाशें ले जाते देखा ,उनको पता नहीं कि उन लाशों को कहाँ ले जाकर फेंक दिया गया . जब संवाददाता ने मध्य प्रदेश के पुलिस महानोदेशक ने पूछा कि यह वहशत क्यों की गयी तो उन्होने इन आरोपों को खारिज नहीं किया बल्कि कहा कि इन आरोपों की जांच हो रही है और अगर कुछ गलत पाया गया तो निश्चित रूप से कार्रवाई की जायेगी . नदी में बच्चों को फेंकने की और भी बहुत सारी ख़बरें आ रही हैं और सरकार की तरफ से पूरी कोशिश की जा रही है कि कि मामले को दबा दिया जाए .
यह शर्मनाक है .रतनगढ़ में हुए हादसे को किसी तरफ से देखें सरकार की अक्षमता सामने आती है . दतिया में २००६ में भी बीजेपी के शासन के दौरान रतनगढ़ में ही इसी जगह ५० से ज़्यादा लोग कुचले गये थे .लेकिन सरकार ने ऐसा कोई क़दम नहीं उठाया कि मंदिर की तरफ जाने वाले एक पुल के अलावा और कोई वैकल्पिक रास्ता बना दिया जाए . ज़रूरी यह था  कि धार्मिक लोगों  को सुरक्षित मंदिर तक पंहुचाने के लिए सरकार कोई और उपाय करती. लेकिन कुछ नहीं किया गया  .इस तरह सरकार का बहुत ही गैरजिम्मेदार चेहरा सामने आता  है .

राज्य के लोगों में तीर्थयात्रा की  भावनाओं को भी शिवराज सरकार ने खूब हवा दिया है. ग्रामीण भारत में सबकी इच्छा  होती है कि तीर्थदर्शन करे. मध्यप्रदेश की सरकार ने सरकारी खर्चे पर एक स्कीम चलाई है जिसमें ६० साल से अधिक के लोगों को तीर्थयात्रा के लिए सरकारी खजाने से मदद दी जाती है .मुख्यमंत्री तीर्थदर्शन योजना नाम की यह स्कीम गरीब आदमियों के ऊपर मुख्यमंत्री का एहसान लाद देने के उद्देश्य से चलाई गयी है . जब यह योजना शुरू हुई थी बीजेपी के कई नेताओं ने बताया था कि इस योजना के बाद ग्रामीण मध्यप्रदेश में कोई भी व्यक्ति शिवराज सिंह चौहान को हर बार मुख्यमंत्री के रूप में देखना चाहेगा . मुख्यमंत्री तीर्थदर्शन योजना  के कारण ग्रामीण इलाकों में तीर्थयात्रा के प्रति  जो माहौल बना है उसके बाद किसी भी तीर्थस्थान पर जाने वालों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है .. मध्यप्रदेश सरकार ने लोगों को  तीर्थस्थानों तक जाने के लिए प्रेरित तो कर दिया लेकिन उसके लिए ज़रूरी सुविधाओं का विकास नहीं किया . यह बात बार बार उठायी जाती रही है लेकिन इस बार रतनगढ़ के हादसे के बाद यह और तेज़ी से रेखांकित हो गयी है . मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री को चाहिए कि इन हादसों की जिम्मेदारी लें और  नवंबर में अगर वे दुबारा मुख्यमंत्री बंटे हैं तो उनको चाहिए कि हर तीर्थस्थान पर बुनियादी सुविधाओं की स्थापना भी मुख्यमंत्री तीर्थदर्शन योजना के एक कार्यक्रम के रूप में शुरू करें .

अजीत जोगी कांग्रेस आलाकमान की अरदब में ,कांग्रेसियों को जिताने के लिए काम करेगें

शेष नारायण सिंह 

नई दिल्ली,१५ अक्टूबर . छत्तीसगढ़ की चुनावी राजनीति में भारी परिवर्तन हुआ है . अब तक कांग्रेस के हर नेता को दरकिनार करके खुद और अपने परिवार को सुर्ख़ियों में रखने की कोशिश कर रहे राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी अब आलाकमान के सुझाव मान गए हैं . खबर है कि कांग्रेस आलाकमान ने उन्हें भरोसा दिला दिया है कि अगर कांग्रेस की जीत हुई तो मुख्यमंत्री पद के लिए उनकी दावेदारी को प्राथमिकता दी जायेगी .  बताया गया है कि अजीत जोगी भी अब इस बात पर राजी हो  गए हैं कि वे राज्य में मुख्यमंत्री रमन सिंह को सत्ता से बाहर करने के लिए पूरा प्रयास करेगें. जोगी को अब कांग्रेस आलाकमान ने काबू में कर लिया है और  उन्होंने भी वचन दिया है कि अब वे कांग्रेस के उम्मीदवारों को हराने के लिए कोई काम नहीं करेगें . भरोसेमंद सूत्रों ने बताया है कि राहुल गांधी के बहुत ही विश्वासपात्र कांग्रेस नेताओं की सलाह पर अजीत जोगी को साथ रख कर चलने की रणनीति बनायी गयी है . अजीत जोगी को कांग्रेस के सर्वोच्च स्तर से बता दिया गया है कि अगर पार्टी जीतेगी तो उनकी संभावना अच्छी रहेगी लेकिन अगर पार्टी की हालत ही खराब हो जायेगी तो उनके सपनों को भी भारी झटका लगेगा.
जब से अजीत जोगी ने सार्वजनिक रूप से छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के इंचार्ज महासचिव बी के हरिप्रसाद को हडकाया था तब से ही यह चर्चा  चल पडी थी कि अजीत जोगी कांग्रेस आलाकमान की उन नीतियों और योजनाओं को नहीं चलने देगें जो उनकी रजामंदी से नहीं चलाई जायेंगीं . उन्होंने कांग्रेस पार्टी के औपचारिक कार्यक्रमों से अलग अपने दफ्तर से तरह तरह के राजनीतिक बयान देना शुरू कर दिया था . उन्होंने दिग्विजय सिंह सहित हर उस कांग्रेसी नेता के खिलाफ खुसुर फुसर अभियान चला दिया था जो उनकी बात नहीं मान रहा था. कांग्रेस के अंदर यह चर्चा  भी चल निकली थी कि अजीत जोगी को पार्टी से अलग कर दिया जायेगा .लेकिन अब उन सब बातों पर विराम लग गया है . राहुल गांधी और सी पी जोशी ने अजीत जोगी को बता दिया है कि अगर पार्टी के साथ रहोगे तो आगे चल कर फायदा होगा लेकिन अगर कांग्रेस के उम्मीदवारों को हराने की कोशिश करेगें तो कहीं के नहीं रह जायेगें . अजीत  जोगी को यह भी साफ़ बता दिया गया है कि टिकट वितरण में उनका कोई दखल नहीं स्वीकार किया जायेगा . हाँ ,उनके बेटे और पत्नी के टिकट के बारे में सकारात्मक तरीके से विचार किया जा सकता है . लेकिन उनके या किसी और के कहने पर किसी को टिकट नहीं दिया जाएगा . हालांकि वे अपने लोगों को यह भरोसा दिलाने की कोशिश कर रहे थे कि टिकट वितरण में उनसे सलाह ली जायेगी लेकिन जब वे छत्तीसगढ़ मामलों के कांग्रेस के सबसे महत्वपूर्ण नेता से  मिले तब उनको अंदाज़  हो गया कि ऐसा कुछ नहीं होने वाला है . टिकट वितरण शुद्ध रूप से कम्प्युटर में  फीड किये गए आंकड़ों के आधार पर किया जा रहा  है . पहली खेप में जो १८ टिकट घोषित किये गए हैं उनमें ९ विधायकों को टिकट देने की बात राज्य के नेताओं और अन्य लोगों की तरफ से की गयी थी लेकिन अंत में केवल तीन मौजूदा विधायकों की टिकट ही बच सकी ,बाकी सबके टिकट काट दिए गए.
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