Sunday, November 10, 2013

जवाहर लाल नेहरू के शिष्य थे डॉ राम मनोहर लोहिया

 
शेष नारायण सिंह 

आजकल देश के दो सबसे बड़े राज्यों में डॉ राम मनोहर लोहिया के अनुयायियों की सरकार है . उत्तर प्रदेश और बिहार के समाजवादी मुख्यमंत्रियों की सरकारें दावा करती पायी जाती हैं कि वे ही समाजवादी राजनीति के झंडाबरदार हैं . समाजवादी राजनीति ने इस देश को बहुत सारे चिन्तक दिए हैं . १९३६ में जब कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना हुई थी तो उसके सदस्यों में  ई एम एस नम्बूदिरीपाद , डॉ राम मनोहर लोहिया, आचार्य नरेंद्र देव , जयप्रकाश नारायण जैसे चिन्तक शामिल थे. कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी वास्तव में कांग्रेस का ही हिस्सा थी .इस वर्ग को कांग्रेस की राष्ट्रीय राजनीति में जवाहर लाल का ग्रुप माना जाता था . यह अलग बात है कि इस में शामिल सभी नेता जवाहर लाल नेहरू से किसी मायने में कम नहीं थे.अपने देश में  समाजवादी राजनीति को स्थापित करने का श्रेय कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के नेताओं को ही जाता है .
समाजवादी नेताओं में डॉ राम मनोहर लोहिया का मुकाम सबसे ऊंचा था. आज़ादी के  बाद कांग्रेस की सत्ता जब आम आदमी की हित साधक संस्था के रूप में अपनी पहचान गँवा बैठी तो डॉ लोहिया ने कांग्रेस की हर उस नीति का विरोध  किया जो  जनविरोधी थी . दो आम चुनावों के बाद जब उनको लगा कि कांग्रेस की सत्ता जड़ पकडती जा  रही है तो उन्होंने गैर कांग्रेस वाद का राजनीतिक सिद्धांत दिया और आर एस एस से सम्बद्ध राजनीतिक पार्टी ,भारतीय जनसंघ तक को साथ लेने में संकोच नहीं किया. इस रणनीति का असर भी हुआ और १९६७ के आम चुनाव के बाद उत्तर और पूर्वी भारत के  कई राज्यों से कांग्रेस की सत्ता बेदखल कर दी गयी. १९६७ की संविद सरकारें डॉ लोहिया की राजनीति की सफलता और उनकी राजनीतिक समझ की वैज्ञानिकता   का सबूत हैं .डॉ लोहिया की छवि आमतौर पर कांग्रेस विरोधी राजनेता की है. उन्होंने आज़ादी के बाद से कांग्रेस की पूंजीवादी नीतियों को ज़बरदस्त विरोध भी किया और जीवन के अंत तक कांग्रेस विरोध की राजनीति ही किया .
डॉ राम मनोहर लोहिया हमेशा से ही कांग्रेस विरोधी नहीं थे. डॉ लोहिया कभी महात्मा गांधी के बाद की पीढी के सबसे बड़े नेता के  शिष्य भी थे. डॉ लोहिया के सबसे बड़े अनुयायी और आज के समाजवादियों के शलाकापुरुष स्व मधु लिमये ने अपनी एक किताब में साफ़ लिखा है कि डॉ राम  मनोहर लोहिया  शुरू से लेकर आज़ादी मिलने  तक जवाहर लाल नेहरू के बहुत करीबी व्यक्ति थे. भारत की विदेश नीति को मूल रूप से जवाहर लाल नेहरू ने डिजाइन किया था .  भारत के समकालीन इतिहास का हर विद्यार्थी जनता है कि  विदेश नीति की जवाहर लाल की जो भी सोच थी उसमें डॉ राम मनोहर लोहिया का बहुत बड़ा योगदान था. जवाहर लाल नेहरू ने हर मंच पर लोहिया की तारीफ़ की और उनकी राय को महत्व दिया

हमारी पीढी के  लोगों के लिए यह सोच पाना बहुत मुश्किल है कि डॉ राम मनोहर लोहिया जैसा स्वतंत्रचेता व्यक्ति किसी का शिष्य हो सकता है .लेकिन जब डॉ लोहिया के सबसे प्रभावशाली अनुयायी ने अपनी एक अहम  किताब में लिखा है तो उसे मान लेने में कोई संकोच नहीं किया जाना चाहिए . जिस लेख का हवाला यहाँ लिया जा  रहा है कि वह मधु लिमये की किताब ," म्यूज़िंग्स ऑन करेंट प्राब्लम्स एंड पास्ट इवेंट्स ( १९८८) " में छपा हुआ है .  

मधु जी ने लिखा  है कि डॉ  लोहिया को कांग्रेस में शामिल करने का श्रेय सेठ जमनालाल बजाज को जाता है जो डॉ लोहिया के पिता जी के परिचित थे. जमनालाल बजाज उन दिनों कांग्रेस के  कोषाध्यक्ष भी थे. उन्होंने ही डॉ लोहिया को महात्मा गांधी से मिलवाया था और महात्मा जी ने जवाहर लाल नेहरू से राम मनोहर लोहिया को लखनऊ कांग्रेस के समय १९३६ में मिलवाया. . महात्मा गांधी के सुझाव पर उस साल जवाहर लाल नेहरू को कांग्रेस का अध्यक्ष चुन लिया गया था. वे ताज़ा ताज़ा जेल से छूट कर आये थे. लोहिया से उनकी मुलाक़ात कांग्रेस अध्यक्ष के टेंट में ही हुई. . उन्होंने डॉ लोहिया को समाजवादी  चिंतन धारा का उभरता हुआ सितारा कह कर संबोधित किया . . उन्होंने पूछा कि कि क्या लोहिया ने उनके अध्यक्षीय भाषण को पढ़ा है . डॉ लोहिया ने जवाब दिया कि वह एक नोबुल स्पीच है . इस तरह के विशेषण के प्रयोग से नेहरू चौंक  गए और बहुत खुश हुए . डॉ लोहिया ने कहा कि  कांग्रेस अध्यक्ष के रूप  में आपके सपने बहुत ही अच्छे हैं और लगता है कि आप कांग्रेस आन्दोलन में एक नया जीवन फूंकने के लिए तैयार हैं.इस समय डॉ लोहिया की उम्र केवल २६ साल की थी. कहते हैं कि इस मुलाक़ात के बाद जवाहर लाल नेहरू ने डॉ राम मनोहर लोहिया को अपना बहुत ही करीबी मानना शुरू कर दिया था. . लोहिया वास्तव में  जवाहर लाल नेहरू के बहुत बड़े प्रशंसक थे. लोहिया महात्मा गांधी के बहुत बड़े भक्त थे लेकिन गांधी के बाद उनके सम्मान के  हक़दार जवाहर लाल नेहरू ही थे. 
जवाहर लाल नेहरू  भी उन  नौजवानों से बहुत प्रभावित रहते थे जो विदेशी विश्वविद्यालाओं से शिक्षा ले कर आये थे . शायद इसीलिए उन्होंने डॉ लोहिया  को सम्मान देना शुरू किया था लेकिन बाद में वे  उनकी कुशाग्रबुद्धि से बहुत प्रभावित हुए थे. उन्होंने कहा कि राम मनोहर में वह शक्ति  है कि वे किसी भी विषय पर घंटों बात कर सकते थे  और तुर्रा यह कि बातचीत लगातार दिलचस्प बनी रहेगी. . नेहरू ने डॉ लोहिया को आल इण्डिया कांग्रेस कमेटी के विदेश विभाग का इंचार्ज बनाने का प्रस्ताव किया,जिसको वे  कांग्रेस के मुख्यालय में ही स्थापित करना चाहते थे. और लोहिया ने उस काम को तुरंत स्वीकार कर लिया . उन दिनों कांग्रेस का मुख्यालय इलाहाबाद में होता था .आल इण्डिया कांग्रेस कमेटी के विदेशी मामलों के सेक्रेटरी के रूप में डॉ लोहिया ने पूरी दुनिया के प्रगतिशील आन्दोलनों से संपर्क कायम किया . एक बुलेटिन भी निकालना शुरू किया और भारत की भावी विदेशनीति के बारे में कई पम्फलेट निकाले.. डॉ लोहिया के एक कम्युनिस्ट साथी ने कहा था कि जवाहर लाल के नए संगठन में डॉ लोहिया का काम आउटस्टैंडिंग था और डॉ लोहिया भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन के पहले विदेशमंत्री थे. लोहिया ने जवाहर लाल नेहरू  की आत्म कथा का  एक रिव्यू लिखा था जिसमें उन्होंने बताया कि  नेहरू ने दो दशकों में भारत की लड़ाई के हर मुकाम पर अपनी छाप छोडी है. जवाहर लाल ने समय की आत्मा को पहचान लिया है और उसको विकसित किया . दूसरे विश्व युद्ध  के पहले लिखी गयी इस पुस्तकसमीक्षा में हमारे समकालीन इतिहास की दो महान विभूतियों की सोच के बारे समझ को विकसित करने में सहयोग मिलता है .डॉ  लोहिया ने लिखा कि कि उनकी नज़र में जवाहर लाल का जीवन एक आदर्श  जीवन था. उन्होंने तय किया कि वे देश के लिए तकलीफ उठायेगें और उसे खुशी खुशी उठाया. . जवाहर लाल  ने एक ऐसा जीवन जीने का फैसला किया जिसका प्रगति पर हमेशा विश्वास  बना रहा.. वे उन्हें एक ऐसा आदमी मानते थे जो उनकी गिरफ्तारी के लिए आई हुई पुलिस की गाडी देख कर भी मुस्कुरा देते थे और पुलिस लाठीचार्ज के दौरान दोनों तरफ की क्रूरता को भी देखने की  क्षमता  रखते थे.. लोहिया के अनुसार जवाहर लाल के  जीवन को दो शब्दों में व्यक्त किया जा सकता  है ------ प्रयास और सौंदर्य 
कांग्रेस मुख्यालय में अपने काम से लोहिया बहुत जल्दी ऊब गए . वे एक सोशलिस्ट और एक कांग्रेस नेता के रूप में  देश के अलग अलग हिस्सों में जाकर काम करना चाहते थे . उन्होंने छोड़ने की पेशकश की लेकिन आचार्य जे बी कृपलानी ने कहा कि जब तक नेहरू यूरोप से नहीं वापस आते तब तक छोड़ना ठीक नहीं होगा. . जवाहर लाल की निजी ज़िन्दगी में उन दिनों बहुत परेशानी थी. उनकी पत्नी कमला नेहरू बहुत बीमार थीं और उनका विदेश में इलाज़ चला था. बाद में उनकी मृत्यु भी हो गयी थी.  यूरोप से आने के बाद जवाहर लाल ने  लोहिया  को कांग्रेस मुख्यालय के काम से छुट्टी तो दे दी लेकिन वे हमेशा डॉ राम मनोहर लोहिया को एक महान व्यक्ति और कुशाग्रबुद्धि नौजवान मानते  रहे. १९४० में अमेरिकन इंस्टीटयूट आफ पैसिफिक रिलेशंस ने जवाहर लाल से कहा कि वे कृपया किसी ऐसे भारतीय विद्वान का चुनाव कर दें जिसका स्तर बहुत ऊंचा हो ,जो पूर्वी एशिया के आर्थिक और राजनीतिक संबंधों के बारे में बहुत ही भरोसे के साथ लिख सकता हो तो जवाहर लाल नेहरू के दिमाग में केवल एक नाम  आया और वह नाम डॉ लोहिया का था. लेकिन उन्होंने चिट्ठी में लिखा है  कि अगर डॉ राम मनोहर लिखने के लिए तैयार हो जाएँ  तो उनसे अच्छा कोई नहीं है .

लखनऊ कांग्रेस के बाद डॉ लोहिया और जवाहर लाल नेहरू में सम्बन्ध बहुत अच्छे हो गए थे. . लखनऊ कांग्रेस के बाद कांग्रेस में पुरातनपंथी सोच वालों से नेहरू का भारी विवाद हुआ. नेहरू विरोधी कांग्रेस के हर मंच पर  बहुमत में थे.  अति वामपंथी रुझान के कांग्रेस सदस्य नेहरू की खूब आलोचना करते थे . इनमें कुछ लोग महात्मा गांधी की आलोचना भी करते रहते थे .सुभाष चन्द्र बोस , एम एन रॉय और अन्य कम्युनिस्टों के अनुयायियों की नज़र में महात्मा गांधी की सोच बिलकुल बेकार की थी . . इस दौर में जब महात्मा गांधी का विरोध करना वामपंथियों के लिए फैशन था, डॉ लोहिया ने महात्मा गांधी के नेतृत्व के बारे में जवाहरलाल नेहरू के मूल्यांकन को सही माना . १९३९ में जब कांग्रेस अध्यक्ष पद  के चुनाव के वक़्त कांग्रेस की टूट  का ख़तरा पैदा हो  गया तो डॉ राम मनोहर लोहिया ने कई लेख लिखे और आग्रह किया कि कांग्रेस को टूट से बचाना राष्ट्रहित में था. . उन्होंने कहा कि आज़ादी की लड़ाई की सफलता के लिए महात्मा गांधी  नेतृत्व एक ज़रूरी शर्त है .  उन दिनों गांधी के विरोधी वैकल्पिक नेतृत्व की बात करते थे . जवाहर लाल और लोहिया ने इस सोच को गलत बताया और इसे नाकाम करने के लिए काम किया  .

नेहरू और लोहिया में मतभेद के लक्षण पहली बार दूसरे विश्वयुद्ध के समय नज़र आने शुरू हुए .लोहिया की अगुवाई में  कांग्रेस के विदेश विभाग ने एक परचा तैयार किया था जिसमें लोहिया ने कहा कि दुनिया को चार वर्गों में  बांटा जा सकता है .पहले में पूंजीपति, फासिस्ट और साम्राज्यवादी ताकतें. दूसरे में वे देश जो साम्राज्य वादियों की प्रजा देश हैं और उनसे  छुटकारा चाहते हैं ,तीसरा वर्ग रूस के साथियों का है  जिसके साथ जो आम तौर पर समाजवादी हैं और चौथा वर्ग वह है जो साम्राज्यवादियों , पूंजीवादियों और फासिस्टों के शोषण का शिकार होने के लिए अभिशप्त हैं .बस इसी सोच में नेहरू और लोहिया के विवाद की बुनियाद है . यूरोप के पूंजीवादी देशों के वामपंथी  अरब देशों और पूर्वी एशिया के संघर्षों को भी फासिस्टों का  समर्थक मानते थे . जवाहर लाल की रुझान इन यूरोपियन वामपंथियों के साथ थी .  बहर हाल यहाँ से विवाद शुरू हुआ तो वह आखिर तक गया और दुनिया जानती  है कि बाद के वर्षों में डॉ राम मनोहर लोहिया ने नेहरू की आर्थिक नीतियों की धज्जियां बार बार उड़ाईं और आखिर में उनकी पार्टी के खिलाफ जो आन्दोलन सफल हुए उन सब की बुनियाद में डॉ लोहिया की राजनीतिक आर्थिक सोच वाला दर्शनशास्त्र ही स्थायी भाव  के रूप में मौजूद रहा. लेकिन इसके बाद भी मधु लिमये की उस बात में बहुत दम है कि डॉ राम मनोहर लोहिया और जवाहर लाल नेहरू ने इस देश में गरीब आदमी की पक्षधरता की  राजनीति की बुनियाद डाली थी.