Friday, April 29, 2016

फिल्म " निल बटे सन्नाटा " देखने के बाद

गरीब की माँ का सपना सबसे ताक़तवर होता है

शेष नारायण सिंह

फिल्म ' निल बटे सन्नाटा ' देख कर आया हूँ. स्वरा भास्कर, रिया शुक्ला और अश्विनी तिवारी का फैन हो गया हूँ. अब इनकी हर फिल्म देखूँगा. रत्ना पाठक के अभिनय का पहले से ही कायल हूँ. यह फिल्म  इस कायनात के सबसे बेहतरीन रिश्ते को समर्पित है .यह फिल्म माँ के लिए है .

असंभव सपनों को ज़मीन पर उतार लाने वाले जज्बे की फिल्म है यह . अभिनय वभिनय की परख मुझे नहीं है , फिल्म बनाने की कला का पारखी मैं बिलकुल नहीं हूँ. लेकिन इतना जानता हूँ कि स्वरा और रिया , इन दो लड़कियों ने फिल्म में जिस तरह से अपने अभिनय को प्रस्तुत किया है , वह कम से कम मैं कभी नहीं भूल पाऊंगा . राजनीति और विचारधारा के धरातल पर सब कुछ बाजारू कर देने  पर आमादा शासक वर्गों के लिए इस फिल्म में एक ज़बरदस्त सन्देश है . गरीबों की मेहनत को चुराकर ऐश करने वाले और सम्पन्नता के आंकड़े पेश कर जनता को बेवकूफ बनाने वाले वर्गों और सपनों के सब्जबाग दिखा कर गरीब को और मजबूर बना देने वालों की साजिश का सही पर्दाफ़ाश है लेकिन यह भी तय है कि शासक वर्ग लामबंद हो चुके हैं , पूंजीवादी साम्राज्यवादी ताकतें उनको पूरी तरह से काबू  में कर चुकी हैं ,उनको हर तरह का समर्थन दे रही है .इसलिए जब एक पंद्रह साल की  दसवीं में पढने वाली लड़की सपनों के मकडजाल को समझती है और उससे बाहर निकलती है तो लगता है कि वह सारी दुनिया को बताकर मानेगी कि गरीब माँ का कोई सपना नहीं होता. सम्पन्न लोगों का सपना होता है और वह हासिल किया जाता है लेकिन गरीब के बेटी का कोई सपना नहीं होता. यह अलग बात है कि इस डायलाग की डिलीवरी के वक़्त भी सन्देश यही है कि गरीब माँ भी सपने देखेगी और उसको साकार भी करेगी .
विश्व बैंक और आई एम एफ के सामने गरीबी की तिजारत करने वालों की इसी मान्यता को चुनौती देने की कोशिश है यह फिल्म. यह सन्देश है कि अगर भाग्य को भूलकर मेहनत करने की ठान ले तो गरीब इंसान के बच्चे भी  सबसे अच्छे विकल्प  तलाश लेते हैं . कामवाली बाई की बेटी  इसलिए आई ए एस बनने को मजबूर हो जाती है क्योंकि वह कामवाली बाई नहीं बनना चाहती . हालांकि यह फिल्म भी एक सपना ही है लेकिन यह संकल्प भी है कि सपने देखना चाहिए क्योंकि सपने से ही गरीब का मुस्तकबिल भी बदल सकता है .
स्वरा भास्कर को हम जानते हैं , एक प्रबुद्ध इंसान है वह . लेकिन मुझसे ३५-४० साल छोटी लड़की इस पूरी फिल्म में  मुझे अपनी माँ की याद दिलाती रही. जिसने मेरे ज़मींदार बाप की जिद को ऐलानियाँ ललकारा और संकल्प लिया कि वह अपने बेटे को शिक्षा का हथियार देगी . हालांकि दसवीं तक तो बाबू भी पढ़ाना चाहते थे लेकिन माँ को मालूम था कि दसवीं के बाद तो बहुत मामूली नौकरी ही मिलेगी. उसने अपने बेटे को ऊंची तालीम देने का फैसला किया . तालीम तो बाद में मिली लेकिन इस फैसले  का नतीजा यह हुआ कि बाबू साहेब से स्थाई दुश्मनी मोल ले ली. हालांकि उनका तर्क भी उनके हिसाब से समझ में आता था कि इतनी खेती बारी छोड़कर दूर शहर में जाने  का क्या मतलब है लेकिन उस माँ ने पंगा लिया और १९६७ से १९७३ तक हर तरह के ताने और अपमान सहे . अपने बेटे के लिए पड़ोसियों से दो चार  रूपये तक उधार लिए लेकिन अपने बेटे को उसके सपनों से हिलने नहीं दिया . इस माँ की बेटियों ने उससे भी कहीं  ज्यादा मुश्किल हालात में अपने बच्चों के सपनों को संभाल कर रखा .इन सभी औरतों को मालूम था कि अगर उनको शिक्षा मिली होती तो  वे अपने  घर के पुरुषों पर निर्भर न होतीं.
एक और लड़की को मैं जानता हूँ . जिसकी माँ ने उसे १९७० में अपने पसंद के लड़के से शादी करने की अनुमति दे दी थी लेकिन उस लडकी के पिता ने उस लड़की का परित्याग कर दिया था . यह लड़की भी माँ  बनी और उसके तुरंत बाद उसके प्रेमी पति ने उसको अपमानित किया और दोनों अलग हो गए. अपने बच्चों के के लिए इस माँ के शेरनी  की तरह के स्वरुप को हमने देखा है ,  अपने दोनों ही बेटों के सपनों को  शक्ल देने के लिए ही सब कुछ किया और शान से जिंदा रहीं . आज भी हैं और उनके सामने बहुत सारे लोगों के सर सम्मान से झुकते हैं .
 एक और माँ . जिसने कोई शिक्षा नहीं पाई लेकिन अपने बच्चों को सबसे अच्छी शिक्षा देने का संकल्प  १९७५ में अपनी पहली औलाद के जन्म के साथ साथ ले लिया था. इस माँ को खुद नहीं मालूम था कि अच्छी शिक्षा क्या होती है . अभाव की ज़िंदगी जीते हुए उसने अपने बच्चों को ऐसी शिक्षा दिलवाई कि उसके तीनों बच्चे आज अपने अपने क्षेत्रों में बुलंदी पर हैं . इस माँ का एडवांटेज यह था कि इसका पति उसकी हर बात मानता था . आज जब उस माँ के बच्चे उसके हर सुख का ख्याल रखते हैं तो लगता  है कि उसकी तपस्या का इसी जन्म में नतीजा मिल रहा  है .
सुल्तानपुर जिले के बहुत सारे गाँवों में ठाकुरों के परिवार में भी खेती लायक  बहुत कम ज़मीन होती है .मेरे गाँव में इसी तरह का एक परिवार था .मेरे गाँव की एक माँ ने  १९६० में तय किया कि उसके बेटे को गाँव में रहकर दूसरों के खेतों में मजदूरी नहीं करना है . उसे बम्बई जाना  है. उसे नहीं मालूम था कि बम्बई में क्या करना होगा लेकिन उसे इतना मालूम था कि जब लोग बम्बई से कमाकर लौटते हैं तो गांव में जो भी ज़मीन बिकाऊ होती है उसे खरीद सकते हैं. उसने अपने किसी रिश्तेदार से चिरौरी की और अपने २२ साल के बेटे को बम्बई के लिए तैयार कर दिया . मेरे गांव में उन दिनों  नौजवान लड़के  पटरा  का जांघिया  पहनते थे . लेकिन बंबई जाने के लिए तो बिना गोडंगा ( पायजामा ) के काम नहीं चलने वाला था. चार रूपये का महुआ बेचकर का गोडंगा सिलवाया और बेटे को मुंबई  उसके और अपने सपनों की तलाश में भेज दिया . काम लग गया और आज वह लड़का ७८ साल का बुज़ुर्ग है , उसके सारे  बच्चे आराम से हैं और उसकी वह माँ अपना फ़र्ज़ पूरा करके स्वर्ग में विराजती है .

ऐसी बहुत सारी यादें हैं और इन यादों  के साथ यह भरोसा भी है कि अगर माँ तय कर ले तो उसके बच्चे अपने सपनों को साकार कर  सकते हैं  क्योंकि हर माँ चम्पा होती है और हर बच्चा अप्पू होता है.