शेष नारायण सिंह
( मूल लेख दैनिक जागरण ( १५-८-२०१०) में छप चुका है .)
कश्मीर का आन्दोलन पाकिस्तान के समर्थन से चलने वाले अलगाववादी आन्दोलन के नेताओं के काबू से बाहर हो गया है . कश्मीर मामलों के जानकार बलराज पुरी ने अपने ताज़ा आलेख में लिखा है कि घाटी में जो नौजवान पत्थर फेंक रहे हैं , वे पाकिस्तान की शह पर चल रहे अलगाववाद के नेताओं पर अब विश्वास नहीं करते. सही बात यह है कि उन कम उम्र बच्चों का हर तरह के नेताओं से विश्वास उठ गया है . वे आज़ादी की बात करते हैं लेकिन उनकी आज़ादी भारत से अलग होने की आज़ादी नहीं है . सच्चाई यह है जब वहां के राजा ने १९४७ में भारत में विलय के कागजों पर दस्तखत कर दिया था तो १९४७ में कश्मीरी अवाम ने अपने आप को आज़ाद माना था . यह आज़ादी उन्हें ३६१ साल बाद हासिल हुई थी. कश्मीरी अवाम , मुसलमान और हिन्दू सभी अपने को तब से गुलाम मानते चले आ रहे थे जब १५८६ में मुग़ल सम्राट अकबर ने कश्मीर को अपने राज में मिला लिया था. उसके बाद वहां बहुत सारे हिन्दू और मुसलमान राजा हुए लेकिन कश्मीरियों ने अपने आपको तब तक गुलाम माना जब १९४७ में भारत के साथ विलय नहीं हो गया. इसलिए कश्मीर के सन्दर्भ में आज़ादी का मतलब बिलकुल अलग है और उसको पब्लिक ओपीनियन के नेताओं को समझना चाहिए. इसी आज़ादी की भावना को केंद्र में रख कर पाकिस्तान ने नौजवानों को भटकाया और घाटी के ही कुछ तथाकथित नेताओं का इस्तेमाल करता रहा. यह गीलानी , यह मीरवाइज़ सब पाकिस्तान के हाथों में खेलते रहे और पैसा लेते रहे . लेकिन अब जब यह साफ़ हो चुका है कि इन नेताओं की घाटी के नौजवानों को दिशा देने की औकात नहीं है तो भारत सरकार को फ़ौरन हस्तक्षेप करना चाहिए और इन नौजवानों के नेताओं को तलाश कर बात करनी चाहिए . कश्मीर के तथाकथित नेताओं या अलगाववादियों से बात करने का कोई मतलब नहीं है .इन नेताओं से समझौता हो भी गया तो कम उम्र के पत्थर फेंक रहे बच्चे इनकी बात नहीं मानेगें . पिछले २० वर्षों में यह पहली बार हुआ है कि पाकिस्तान से खर्चा पानी ले रहे नेताओं को कश्मीरी अवाम टालने के चक्कर में है .
ऐसा लगता है कि केंद्र सरकार को अंदाज़ है कि अगर सही तरीके से कश्मीरी नौजवानों को संभाला जाए तो पहल को सार्थक नाम दिया जा सकता है और पाकिस्तानी तिकड़म को फेल किया जा सकता है . शायद इसी लिए सी रंगराजन की अध्यक्षता में जो कमेटी बनायी गयी है उसका फोकस केवल कश्मीरी नौजवानों को रोजगार के अवसर मुहैया करवाना है . पत्थर फेंकने वाले लड़कों के आन्दोलन को पाकिस्तानी शह पर घोषित करने में पता नहीं क्यों सरकारी बाबू वर्ग ज़रुरत से ज्यादा उतावली दिखा रहा है . . कश्मीर मामलों के जानकार बलराज पुरी कहते हैं कि कश्मीरी लड़कों के मौजूदा पत्थर फेंक आन्दोलन को पाकिस्तानी या आलगाव वादी लोगों की बात कह कर भारत अपनी सबसे महत्वपूर्ण पहल से हाथ धो बैठेगा. बताया गया है कि पत्थर फेंक आन्दोलन आधुनिक टेक्नालोजी की उपज है . बच्चे ट्विटर और फेसबुक का इस्तेमाल करके संवाद कायम कर रहे हैं और स्वतः स्फूर्त तरीके से सडकों पर आ रहे हैं . सही बात यह है कि पाकिस्तानी हुक्मरान भी नए हालात से परेशान हैं और घाटी में सक्रिय अपने गुमाश्तों को डांट फटकार रहे हैं .अगर भारत ने इस वक़्त सही पहल कर दी तो हालात बदलने में देर नहीं लगेगी. कश्मीर में जो सबसे ज़रूरी बात है ,वह यह कि १९४७ में जो कश्मीर के राजा की सोच थी उसे फ़ौरन खारिज किया जाना चाहिए . वह तो जिन्नाह के साथ जाने के चक्कर में थे. और उनकी पिछलग्गू राजनीतिक जमात उन्हें समर्थन दे रही थी. कश्मीर में भारत का इकबाल बुलंद करने के लिए सबसे ज़रूरी दस्तावेज़ है १९५२ का नेहरू-अब्दुल्ला समझौता . उसी के आधार पर कश्मीर को उसकी नौजवान आबादी को साथ लेकर भारत का अभिन्न अंग बनाने की कोशिश की जानी चाहिए . ध्यान रहे , पत्थर फेंक रहे नौजवान वे हैं जिनका पाकिस्तानी और भारतीय नेताओं से मोहभंग हो चुका है . उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती कोई भी पहल नहीं कर सकते . यह सत्ताभोगी हैं . जो सडकों पर पत्थर फेंक रहे २० साल से भी कम उम्र के लडके हैं उन्हें मुख्यधारा में लाया जाना चाहिये . १९५२ का समझौता पाकिस्तान को भी धता बताता है और राजा की मानसिकता को भी . . इसके अलावा कश्मीर में कुछ काम फ़ौरन किये जाने चाहिए . जैसे अभी वहां पंचायती राज एक्ट नहीं लगा है ., उसे लगाया जाना चाहिए . आर टी आई ने पूरे भारत में राजकाज के तरीके में भारी बदलाव ला दिया है . लेकिन अभी कश्मीर में वह ठीक से चल ही नही रहा है . उसे भी कारगर तरीके से लागू किया जाना चाहिये . मानवाधिकार आयोग का अधिकार क्षेत्र भी कश्मीर तक बढ़ा देना चाहिये .कश्मीर में मौजूद राजनीतिक पार्टियां भी अगर अपना घर तुरंत ठीक नहीं करतीं तो मुश्किल बढ़ जायेगी.. इस लिए केंद्र सरकार में मौजूद समझदार लोगों को चाहिए कि फ़ौरन पहल करें और कश्मीर में सामान्य हालात लाने में मदद करें
Monday, August 16, 2010
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