Showing posts with label पाकिस्तान. Show all posts
Showing posts with label पाकिस्तान. Show all posts

Thursday, August 8, 2013

पाकिस्तानी फौज, दाऊद इब्राहीम और हाफ़िज़ सईद नहीं चाहते कि भारत और पाकिस्तान के बीच शान्ति कायम हो

 शेष नारायण सिंह
१९८९ में जब मुफ्ती मुहम्मद सईद की बेटी और महबूबा मुफ्ती की बहन रुबैय्या सईद का अपहरण हुआ तो पाकिस्तानी आतंकवादी निजाम को लगा था कि भारत की सरकार को मजबूर किया जा सकता है .  तत्कालीन गृहमंत्री मुफ्ती मुहम्मद सईद की बेटी को छुडाने के लिए सरकार ने बहुत सारे समझौते किये जिसके बाद  पाकिस्तानी आतंकवादियों  के हौसले बढ़ गए थे . नियंत्रण रेखा के रास्ते और अन्य रास्तों से आतंकवादी आते रहे , वारदात को अंजाम  देते रहे और सीमा के दोनों तरफ शान्ति को झटका लगता रहा .  उसके बाद सीमावर्ती इलाकों में रहने वालों की जिन्दगी बहुत ही मुश्किल हो गयी.  छिटपुट आतंक की घटनाओं का सिलसिला जारी रहा और आखिर में २००३ के नवम्बर महीने में भारत और पाकिस्तान के बीच सीजफायर का समझौता हुआ . इलाके के किसानों से कोई पूछकर देखे तो पता लग जाएगा कि सीजफायर समझौते के पहले बार्डर के गावों में जिंदा रहना कितना मुश्किल हुआ करता था. सीजफायर लाइन के दोनों तरफ के गाँव वालों की ज़िंदगी बारूद के ढेर पर ही मानी जाती थी . दोनों तरफ के गाँव वालों को पता है कि लगातार होने वाली गोलीबारी में कभी किसी का घर तबाह हो जाता था ,तो कभी कोई किसान मौत का शिकार हो जाता था. लेकिन नवंबर २००३ के बाद सीमावर्ती इलाकों के सैकड़ों गांवों में शान्ति है .सीमा पर कंटीले तार लगे हुए हैं और इन रास्तों से अब कोई आतंकवादी भारत में प्रवेश नहीं करता . सीजफायर समझौते के बाद यहाँ के गांवों में जो शान्ति का माहौल बना है उसे जारी रखने की दुआ इस इलाके के हर घर में होती ,हर गाँव में लोग यही प्रार्थना करते हैं कि सीमावर्ती इलाकों में फिर से झगडा न शुरू हो जाये जाए .

लेकिन दिल्ली और इसलामाबाद में रहकर सत्ता का सुख भोगने वाले एक वर्ग को इन गावं वालों से कोई मतलब नहीं है . उनको तो हर हाल में झगडे की स्थिति चाहिए क्योंकि संघस्ढ़ की स्थिति में मीडिया की दुकानें भी चलती हैं और सियासत का कारोबार भी  परवाना चढता है  . पाकिस्तान में जब भी नवाज़  शरीफ की सरकार बनती है तो पाकिस्तानी फौज में मौजूद उनके पुराने साथियों को लगता है कि अब मनमानी की जा सकेगी लेकिन नवाज शरीफ दोनों देशों के बीच तनाव कम करने के सपने देखने लगते हैं. नवाज शरीफ की इस कोशिश को आई एस आई और फौज में मौजूद उनके साथी धोखा मानते हैं .पाकिस्तान की राजनीति में नवाज़ शरीफ को स्थापित करने के श्रेय पाकिस्तान के पूर्व फौजी तानाशाह, जनरल जिया उल हक को जाता है . नवाजशरीफ अपने शुरुआती राजनीतिक जीवन में जनरल जिया के बहुत बड़े  चेले हुआ करते थे .पाकिस्तानी फौज में भी आजकल टाप पर वही लोग बैठे हैं जो जनरल जिया के वक़्त में नौजवान अफसर होते थे. पाकिस्तानी सेना और समाज का इस्लामीकरण करने की अपनी मुहिम में इन अफसरों का जिया ने पूरी तरह से इस्तेमाल किया था . आज के पाकिस्तानी  सेना के अध्यक्ष जनरल अशफाक कयानी और उनके जूनियर जनरलों ने भारत के हाथों पाकितान को १९७१ में बुरी तरह से हारते देखा है . जब १९७१ में भारत की सैनिक क्षमता के सामने पाकिस्तानी फौज ने घुटने टेके थे ,उसी साल जनरल अशफाक परवेज़ कयानी ने लेफ्टीनेंट के रूप में नौकरी शुरू की थी. उन्होंने बार बार यह स्वीकार किया है कि वे १९७१ का बदला लेना चाहते हैं लेकिन उनकी इस जिद का नतीजा दुनिया के लिए जो भी होउनके अपने देश को भी तबाह कर सकता है . यह बात जनरल अशफाक कयानी को मालूम है कि अगर उन्होंने परमाणु हथियार इस्तेमाल करने की गलती कर दी तो अगले कुछ घंटों में भारत उनकी सारी सैनिक क्षमता को तबाह कर सकता है . अगर ऐसा हुआ तो वह विश्वशान्ति के लिए बहुत ही खतरनाक संकेत होगा . शायद इसीलिये वे कोशिश करते रहते हैं कि भारत और पाकिस्तान के बीच किसी सूरत में रिश्ते सुधरने न पायें और उनको भारत को तबाह करने  के अपने सपने को जिंदा रखने में मदद मिलती रहे .पाकिस्तानी फौजी लीडरशिप की इसी ज़हनियत की वजह से १९९० के बाद से जब भी कोई सिविलियन सरकार दोनों देशों के बीच रिश्ते सुधारने की बात करती है तो पाकिस्तानी फौज या तो आतंकवादियों के ज़रिये और या आई एस आई के ज़रिये कोई ऐसा काम कर देती है जिस से सामान्य होने की दिशा में चल पड़े रिश्ते तबाह हो जाएँ या उस प्रक्रिया में पक्के तौर पर अड़चन ज़रूर आ जाए .जब  तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी बस में बैठकर लाहौर गए थे तो पाकिस्तानी फौज ने कारगिल शुरू कर दिया था . अब तो सबको मालूम है कि कारगिल में जो भी हुआ उसके लिए शुद्ध रूप से उस वक़्त के सेना प्रमुख जनरल परवेज़ मुशर्रफ ज़िम्मेदार थे , प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ को तो पता  भी नहीं था. लेकिन उस घटना के बहुत सारी राजनीतिक नतीजे  निकले थे . नवाज़ शरीफ की  गद्दी चली गयी थी, मुशर्रफ ने सत्ता  हथिया ली थी, कारगिल की लड़ाई हुई थी, भारत ने कारगिल के इलाके से पाकिस्तानी फौज को खदेड़ दिया था और अटल बिहारी वाजपेयी १९९९ के चुनावों विजेता के रूप में  प्रचार  करते हुए पांच साल तक राज करने का जनादेश लाये थे.
जम्मू-कश्मीर के पुंछ इलाके में पांच भारतीय सैनिकों के मारे जाने की घटना को भी जल्दबाजी में पाकिस्तानी हमला मान लेना ठीक नहीं होगा . इस बात की पूरी संभावना है कि पाकिस्तानी फौज ने नई नवाज़ शरीफ सरकार को भारत की तरफ दोस्ती का हाथ बढाने से रोकने के लिए यह काम किया हो . इस  बात में तो शक नहीं हो सकता पाकिस्तानी फौज ने ही भारतीय सैनिकों की जघन्य ह्त्या करवाई है लेकिन यह ज़रूरी नहीं है कि पाकिस्तान की सिविलियन सरकार भी इसमें शामिल हो .इसे मुशर्रफ के उस एडवेंचर से मिलाकर देखना चाहिए जब लाहौर बस यात्रा से पैदा हुए माहौल को खराब करने के लिए मुशर्रफ की पाकिस्तानी फौज ने कारगिल कर दिया था.
पुंछ सेक्टर की ताज़ा घटना  भारत और पाकिस्तान के आपसी संबंधों की परीक्षा लेने के लिए तैयार है . पाकिस्तानी आई एस आई और हाफ़िज़ सईद के अधीन काम करनेवाले आतंकवादी संगठन कभी इस बात को स्वीकार नहीं करेगें कि भारत और पाकिस्तान के बीच किसी तरह के सामान्य सम्बन्ध  कायम हों .  इसका एक नतीजा यह भी  होगा कि मुंबई हमलों के गुनाहगार  हाफ़िज़ सईद को पाकिस्तान भारत के हवाले भी कर सकता है .अगर दोनों देशों में दोस्ती  हो गयी तो भारत दाऊद इब्राहीम के प्रत्यर्पण की मांग भी कर सकता है. सबको मालूम है कि दाऊद इब्राहीम और हाफ़िज़ सईद पाकिस्तानी हुक्मरान की नज़र में कितने ताक़तवर हैं . इसलिए यह दोनों अपराधी किसी भी सूरत में दोनों देशों के बीच  दोस्ती नहीं कायम होने देगें .अजीब बात यह है कि भारत में पब्लिक ओपिनियन के करता धरता भी पाकिस्तानी  आतंकवाद के सूत्रधारों के जाल में फंसते जा रहे हैं .भारत के टेलिविज़न चैनलों की चले तो वे आज ही पाकिस्तान पर भारतीय फौजों से हमला करवा दें . विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी का रवैया भी पुंछ में  हुई भारतीय सैनिकों की निर्मम हत्या के बाद ऐसा है कि वे पाकिस्तानी आतंकवादियों की मंशा  को पूरी करते नज़र आ रहे हैं . बीजेपी के एक नेता ने लोकसभा में कह दिया कि कि भारत के पास ताक़त है ,भारतीय सेना के पास ताक़त है ,भारतीय संसद के पास ताक़त है  कि पाकिस्तान को उसी भाषा में जवाब दिया जाए जो उसकी समझ में आती है .इस तरह की बयानबाजी से दोनों देशों के बीच के रिश्ते और खराब होंगें ,पाकिस्तानी सेना में मौजूद वे लोग मज़बूत होंगें जो भारत से हर हाल में दुश्मनी रखना चाहते हैं और पाकिस्तान में रहकर भारत के खिलाफ काम करने वाला आतंक का तंत्र बहुत मज़बूत होगा. इसलिए ज़रूरत इस बात की है कि भारत का मीडिया और राजनीतिक बिरादरी पाकिस्तानी आतंकवादियों के जाल में न फंसे और उनके मंसूबों  को नाकाम करने की कोशिश करे . इस मिशन में पाकिस्तानी सिविलियन  सरकार की विश्वसनीयता बढाने की कोशिश भी की जानी चाहिए .
भारत के रक्षा मंत्री ए के एंटोनी ने संसद में बताया कि भारी हथियारों से लैस करीब बीस आतंकवादियों और पाकिस्तानी सेना की वर्दी पहने कुछ लोगों ने पुंछ के इलाके में हमला किया  और पांच भारतीय सैनिकों की जानें गयीं . यू पी ए की अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कहा कि भारत को इस तरह के धोखेबाजी के तरीकों से परेशान नहीं किया जा सकता. पाकिस्तान की सरकार ने कहा है कि भारतीय मीडिया ने आरोप लगाया है कि पुंछ की घटना में पाकिस्तान की सेना का हाथ है जिसे पाकिस्तानी सरकार खारिज करती है . पाकिस्तान सरकार की तरफ से जो बयान आया है उसके मुताबिक सीमा पर ऐसा कोई भी काम नहीं हुआ जिसके कारण दोनों देशों के बीच में तनाव  आये.  यह बयान सच्चाई को छुपाता है लेकिन फिर भी यह युद्ध की तरफ बढ़ने वाली कूटनीति को लगाम देने में इस्तेमाल किया जा सकता है . भारत के विदेशमंत्री सलमान खुर्शीद ने कहा है कि इस घटना से दोनों देशों के बीच सामान्य हो रहे रिश्तों में बाधा ज़रूर पड़ेगी  .पाकिस्तान में नवाज़ शरीफ की सरकार आने के बाद उम्मीद बढ़ी थी कि रिश्ते सामान्य होंगें . इसी साल जनवरी में एक भारतीय सैनिक का सिर काटे जाने के बाद रिश्तों में बहुत तल्खी आ गयी थी लेकिन पाकिस्तान में आम चुनाव के बाद आयी नवाज़ शरीफ की नई सरकार आने के बाद उम्मीदें थोडा बढ़ी थीं . सितम्बर में संयुक्त राष्ट्र के सम्मलेन के बहाने दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों की मुलाक़ात की संभावना है लेकिन लगता है कि आई एस आई , पाकिस्तानी फौज और पाकिस्तानी आतंकवादियों की साज़िश के बाद मामला बिगड सकता है . अगर ऐसा हुआ तो इसे पाकिस्तानी ज़मीन पर रहकर ,पाकिस्तानी सरकार की परवाह किये बिना  भारत से रिश्ते खराब करने वालों के मंसूबों की जीत माना जायेगा . ज़ाहिर है इससे  सीमा के दोनों तरफ रहने वाले शान्तिप्रेमी लोगों इच्छाओं को ज़बरदस्त धक्का लगेगा

Thursday, October 4, 2012

दक्षिण एशिया का सबसे परेशान राजनेता----आसिफ अली ज़रदारी



शेष नारायण सिंह 

दक्षिण एशिया में सबसे ज्यादा परेशान राजनेताओं की अगर लिस्ट बनायी जाए तो उसमें सबसे ऊपर पाकिस्तान के राष्ट्रपति ,आसिफ अली ज़रदारी का नाम आयेगा. पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट ने उनके जीवन के पुराने किस्सों की पोल खोलने का  फैसला कर लिया है . यह वह किस्से  हैं जिसमें सदर-ए-पाकिस्तान एक अलग तरह की शख्सियत के मालिक के रूप में पहचाने जाते हैं . उस दौर में वे खुद हुकूमत में नहीं थे और देश की सबसे ताक़तवर राजनेता के पति के रूप में रहते थे. उनके ऊपर सत्ता का गैर वाजिब इस्तेमाल के आरोप लगते रहे हैं .पाकिस्तान की सुप्रीम कोर्ट को भरोसा है कि उन्होंने बहुत बड़ी रक़म स्विस बैंकों में जमा कर रखी है और सरकार को चाहिए कि स्विटज़रलैंड की सरकार से बात करके वह सारी रक़म वापस लायें . सुप्रीम कोर्ट ने इस तरह का एक आदेश भी जारी कर रखा है . पूर्व प्रधान मंत्री यूसुफ़ रज़ा गीलानी को सुप्रीम कोर्ट ने हुक्म दिया था कि  एक चिट्ठी स्विटज़रलैंड की सरकार के पास लिख भेजें जिसके बाद सारा पैसा वापस आ जाएगा. लेकिन प्रधान मंत्री गीलानी ने चिट्ठी वैसी नहीं  लिखी जैसी सुप्रीम कोर्ट चाहता था . इसी चक्कर में उनको गद्दी गंवानी पड़ी. अब नए प्रधान मंत्री आये हैं उन्होंने भी शुरू में तो बहुत जोर शोर से चिट्ठी लिखने की बात की थी लेकिन लगता है कि अब ढीले पड़ गए हैं . क्योंकि २६ सितम्बर  को जिस चिट्ठी का ड्राफ्ट लेकर उनकी सरकार सुप्रीम कोर्ट गयी थी वह नाकाफी पाया गया और सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस आसिफ सईद खोसा ने सरकार की तरफ से पेश हुए कानून मंत्री फारूक नायक को चेताया कि आप इस चिट्ठी में ज़रूरी बदलाव करके ५ अक्टूबर तक लेकर आइये वरना सरकार के खिलाफ अदालत की अवमानना का मुक़दमा चलाया जाएगा .सरकार का तर्क है कि आसिफ अली ज़रदारी पाकिस्तान के राष्ट्रपति हैं इसलिए उन्हें इस तरह के मुक़दमों में नहीं घसीटा कजा सकता . इसी तर्क के चलते पूर्व  प्रधान मंत्री यूसुफ़ रज़ा  गीलानी पर तौहीने अदालत का मुक़दमा चला था और उन्हें हटना पडा था. मौजूदा सरकार भी यही  तर्क दे रही थी लेकिन पिछले हफ्ते नए प्रधान मंत्री की समझ में मामले की गंभीरता आ गयी . लेकिन जो चिट्ठी लेकर उनके मंत्री महोदय पंहुचे थे  सुप्रीम कोट ने उसे बेकार की चिट्ठी बताया और कहा  कि अगर  यही रवैया रहा तो मौजूदा प्रधान मंत्री पर भी तौहीने अदालत का मुक़दमा चलेगा . जिस केस में  आसिफ अली ज़रदारी को घेरा गया है वह नब्बे के दशक का है जब उनकी  पत्नी स्व बेनजीर भुट्टो प्रधान मंत्री थीं और ज़रदारी साहब मिस्टर टेन परसेंट के रूप में जाने जाते थे. . उनके ऊपर आरोप है कि उन्होंने कस्टम ड्यूटी के निरीक्षण का ठेका किसी कारोबारी को दिलवाने के लिए सवा करोड़ डालर की रिश्वत ली थी. पाकिस्तान की सरकार के लिए ज़रदारी को बचाने का प्रोजेक्ट बहुत भारी पड़ रहा है . सुप्रीम कोर्ट की तरफ से किसी मुरव्वत की उम्मीद किसी भी हालत में  नहीं है . २६ सितम्बर की सुनवाई में भी मौजूदा प्रधान मंत्री राजा परवेज़ अशरफ की ओर से पेश हुए कानून मंत्री ने जब गुजारिश की कि सुनवाई बंद कमरे में की जाय तो अदालत ने  कानून मंत्री की अर्जी को मंज़ूर तो कर लिया लेकिन उन्हें सख्त हिदायत दी कि ५ अक्टूबर  को जब वे तशरीफ़ लाईं तो टालने की गरज से नहीं अदालत की इच्छा का सम्मान करने के लिए आयें.
उधर अंतर राष्ट्रीय दुनिया का दबाव भी पाकिस्तान पर लगातार बढ़  रहा है . पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था बहुत ही खस्ता हालत में है .. उसे अमरीकी और सउदी अरब की मदद की ज़रुरत हर दम ही रहती है . लेकिन अमरीकी मदद  के बंद होने के खतरे हमेशा ही सर पर मंडराते रहते हैं . अमरीका सहित बाकी  दुनिया को लगता है कि पाकिस्तान की हुकूमत फौज और आई एस आई के दबाव में आकर काम करती है और आतंकवाद को बढ़ावा देती है . इस बात में सच्चाई भी हो सकती है  लेकिन पाकिस्तान की सिविलियन हुकूमत की यह औकात नहीं है कि वह फौज  या आई एस आई के काम में दखल दे सके. पाकिस्तान में आतंक के निजाम को नकारने का ज़िम्मा भी  ज़रदारी के काम में शामिल कर दिया गया है . २५ सितम्बर को उन्हें संयुक्त राष्ट्र महासभा में भाषण देने का मौक़ा मिला जहां वे पाकिस्तान की समस्याओं का ज़िक्र तक नहीं कर पाए. लगभग पूरे  वक़्त उन्होंने अंतर राष्ट्रीय बिरादरी से  यही अपील की कि उनके देश को आतंकवाद का स्पांसर न माना जाए . उन्होंने कहा कि हकीकत यह है  कि पाकिस्तान आतंकवाद का सबसे बड़ा शिकार है .अब वहां सवाल जवाब तो होता नहीं वरना कोई पत्रकार पूछ सकता था कि आतंकवाद के ज़रिये अपने पड़ोसी देशों , भारत और अफगानिस्तान में अपनी ताक़त बढाने का फैसला करते वक़्त इस बारे में विचार कर लेना चाहिए था .  आसिफ ज़रदारी ने संयुक्त राष्ट्र महासभा के सामने लगभग गिडगिडाते हुए कहा कि उनके देश ने आतंकवाद को ख़त्म करने के लिए बहुत काम कर लिया है और अब उनकी हिम्मत  नहीं है कि वे एक देश के रूप में और भी कुछ कर सकें . उन्होंने कहा कि उनका देश आतंकवाद से परेशान है और बाकी दुनिया उनके ऊपर ही दबाव  बना रही है कि  आतंकवाद  ख़त्म करो.उन्होंने  अपने भाषण में कहा कि जितना पाकिस्तान ने झेला है उतना दुनिया के किसी देश ने आतंकवाद के मार को नहीं झेला है . उन्होंने  अपील किया कि  उनके देश के उन लोगों की याद को अपमानित न किया जाए इन्होने आतंकवाद के खिलाफ  लड़ते हुए अपनी जिंदगियां तबाह की हैं . उन्होंने अपने आपको भी आतंकवाद का पीड़ित बताया और कहा कि उनकी पत्नी जो  पाकिस्तान की  बहुत बड़ी नेता थीं, आतंकवादियों के कायराना हमले का शिकार हो गयी थीं . उन्होंने कहा कि उनके देश पर लगातार अमरीकी ड्रोन हमले होते रहते हैं इसलिए उन्हें अमरीकी नेतृत्व में भरोसा करने के लिए पाकिस्तानी अवाम को तैयार करने में बहुत परेशानी  का सामना करना पड़ता है . वे पाकिस्तान के बारे में किसी भी सवाल का जवाब नहीं देगें . उन्होंने बुलंद आवाज़ में कहा कि उनके देश के ७ हज़ार सैनिक और ३७ हज़ार लोग आतंकवाद के  शिकार हो चुके हैं . उन्होंने अपने आपको भी बेनजीर भुट्टो का शौहर होने के नाते आतंकवाद का शिकार बताया . . अब कोई इन ज़रदारी साहेब से पूछे के भाई आपके देश से आने वाले आतंक के चलते  पिछले ३० वर्षों में भारत के पंजाब , कश्मीर और पूर्वोत्तर राज्यों में  जो तबाही हुई है उसको भी जोड़ लीजिये तो तस्वीर बिलकुल अलग नज़र आयेगी.संयुक्त राष्ट्र की अपनी तक़रीर में आसिफ ज़रदारी अपने देश के उन तानाशाहों पर भी खासे नाराज़ नज़र आये जिनके लिए संयुक्त राष्ट्र में पलकें  बिछा दी जाती थीं . उन्हीं तानाशाहों ओर फौजी हुक्मरानों की वजह से उनके देश में आतंक भी बढ़ा है और आर्थिक हालात भी बिगड़े हैं . उन्होंने अन्तर राष्ट्रीय बिरादरी से अपील की कि पाकिस्तान की सिविलियन हुकूमत को इज्ज़त देगें  तो पाकिस्तानी अवाम का भला होगा.. उन्होंने शिकायत की  जिन फौजी तानाशाहों के कारण उनके देश का सब कुछ तबाह  हो गया है आप लोगों ने उन्हें तो सम्मान दिया और एक सिविलियन राष्ट्रपति से तरह तरह के सवाल पूछ रहे  हैं 
घरेलू मोर्चे पर भी  आसिफ अली ज़रदारी परेशान हैं . उनके बेटे बिलावल ज़रदारी भुट्टो के बारे में खबर है कि वे पाकिस्तान की मौजूदा विदेश मंत्री हिना रब्बानी खार  से प्रेम करते हैं और उनसे शादी करना चाहते हैं . राष्ट्रपति ज़रदारी की परेशानी यह है कि वे अपने बेटे को उसकी उम्र से  ग्यारह साल बड़ी किसी महिला से शादी  नहीं करने देना चाहते ,खासकर अगर वह महिला शादीशुदा हो और दो बच्चियों की माँ हो. इसके अलावा वह महिला पाकिस्तान में बहुत ही प्रभावशाली परिवार की हैं और आसिफ  अली ज़रदारी को  डर है कि कहीं उनके बेटे के इस मुहब्बत भरे फैसले से उसका राजनीतिक भविष्य न चौपट हो जाए. बहर हाल जो भी हो , हालात ऐसे हैं कि आसिफ ज़रदारी को चैन से रहने के सारे रास्ते बंद कर दिए गए हैं .

Friday, April 6, 2012

अमरीका के भारी दबाव के बाद भी पाकिस्तान हाफ़िज़ सईद को नहीं पकड़ेगा

शेष नारायण सिंह

मुंबई हमलों की साज़िश के सरगना हाफ़िज़ मुहम्मद सईद को अब अमरीका भी आतंकवादी मानने लगा है . इसके पहले जब भारत की तरफ से कहा जाता था कि हाफ़िज़ सईद को काबू में किये बिना आतंक के खिलाफ किसी तरह की लड़ाई, कम से कम पाकिस्तान में तो नहीं लड़ी जा सकती, तो अमरीका के नेता हीला हवाला करते थे. अब अमरीका की समझ में भी आ गया है कि हाफ़िज़ सईद को पकड़ना ज़रूरी है क्योंकि उसने पाकिस्तान के रास्ते अफगानिस्तान जाने वाली फौजी सप्लाई में अडंगा डालने की कोशिश शुरू कर दिया है .अब अमरीका को लगता है कि हाफ़िज़ सईद को काबू में कर लेना चाहिए . लेकिन उसे पकड़ने के लिए अमरीकी हुकूमत ने जो तरीका अपनाया है वह बहुत ही अजीब है . अमरीका ने ऐलान कर दिया है कि जो भी हाफ़िज़ सईद को अमरीका के हवाले कर देगा उसे पचास करोड़ से ज्यादा रूपये इनाम के रूप में दिए जायेगें. लगता है कि अमरीका की पाकिस्तान नीति के संचालकों को मालूम नहीं है कि हाफ़िज़ सईद की पाकिस्तान की फौज में क्या हैसियत है . आज ही पाकिस्तानी फौज के रिटायर्ड लेफ्टिनेंट जनरल हमीद गुल का बयान आ गया है कि अमरीका को कोई अख्तियार नहीं है कि वह हाफ़िज़ सईद की गिरफ्तारी की बात करे. यह वही हमीद गुल हैं जो कभी आई एस आई के डाइरेक्टर हुआ करते थे और पाकिस्तान में जितने भी बड़े आतंकवादी हैं यह उन सभी के संरक्षक रह चुके हैं . लेकिन हाफ़िज़ सईद इनका भी संरक्षक रह चुका है . हाफ़िज़ सईद के अहसानों का बदला चुकाने के लिए हमीद गुल ने तो भारत के खिलाफ भी बयान देना शुरू कर दिया है . कहते हैं कि भारत को अमरीका के उस बयान का स्वागत नहीं करना चाहिए था जिसमें कहा गया है कि हाफिज़ सईद को पकड़ने वाले को भारी रक़म बतौर इनाम दी जायेगी. वे तो यहाँ तक धमकी दे रहे हैं कि अगर पाकिस्तान के राष्ट्रपति ८ अप्रैल को ख्वाजा गरीब नवाज़ की दरगाह पर हाजिरी लगाने अजमेर जाते हैं तो पाकिस्तान की सडकों और बाज़ारों में जुलूस निकाल कर उनका विरोध किया जायेगा.

यह देखना दिलचस्प होगा कि एक आतंकवादी के लिए पाकिस्तानी फौज़ और उसकी आई एस आई का निर्माता इस तरह की बात क्यों कर रहा है . यह हाफ़िज़ सईद आखिर है कौन. पाकिस्तान की सरकार में किसी की भी औकात नहीं है कि वह हाफिज़ सईद के खिलाफ कोई कार्रवाई करे... .हाफ़िज़ मुहम्मद सईद के खिलाफ कार्रवाई करना इसलिए भी मुश्किल होगा क्योंकि आज पकिस्तान में आतंक का जो भी तंत्र है , वह सब उसी सईद का बनाया हुआ है . उसकी ताक़त को समझने के लिए पिछले ३३ वर्षों के पाकिस्तानी इतिहास पर एक नज़र डालना ठीक रहेगा. पाकिस्तान के पूर्व तानाशाह , जिया उल हक ने हाफिज़ सईद को महत्व देना शुरू किया था . उसका इस्तेमाल अफगानिस्तान में पूरी तरह से किया गया लेकिन बेनजीर भुट्टो और नवाज़ शरीफ ने उसे कश्मीर में आतंकवाद फैलाने के लिए इस्तेमाल किया . वह पाकिस्तानी प्रशासन का बहुत ही महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया . सब को मालूम है कि पाकिस्तान में हुकूमत ज़रदारी या गीलानी की नहीं है . सारी हुकूमत फौज की है और हाफिज़ सईद फौज का अपना बंदा है. हाफिज़ सईद की हैसियत का अंदाज़ इस बात से भी लगाया जा सकता है कि जनरल जिया के वक़्त से ही वह फौज में तैनाती वगैरह के लिए सिफारिश करता रहा है और पाकिस्तान के बारे में जो लोग जानते हैं उनमें सब को मालूम है कि पकिस्तान में किसी भी सरकारी काम की सिफारिश अगर हाफिज़ सईद कर दे तो वह काम हो जाता है . यह आज भी उतना ही सच है . इसका मतलब यह हुआ कि जिन लोगों पर हाफिज़ सईद ने अगर १९८० में फौज के छोटे अफसरों के रूप में एहसान किया था, वे आज फौज और आई एस आई के करता धरता बन चुके हैं उसके अहसान के नीचे दबे हुए अफसर हाफिज़ सईद पर कोई कार्रवाई नहीं होने देंगें.


अगर पाकिस्तान पर सही अर्थों में दबाव बनाना है तो सबसे ज़रूरी यह है कि फौज में जो हाफ़िज़ सईद के चेले हैं उन्हें अर्दब में लिया जाए. इसका एक तरीका तो यह है फौज के ताम झाम को कमज़ोर किया जाए. इस मकसद को हासिल करने के लिए ज़रूरी है फौज को अमरीका से मिलने वाली मदद पर फ़ौरन रोक लगाई जाए. यह काम अमरीका कर सकता है . ऐसी हालत में अगर अमरीका की सहायता पर पल रहे पकिस्तान को अमरीकी सहायता बंद कर दी जाए तो पाकिस्तान पर दबाव बन सकता है लेकिन इस सुझाव में भी कई पेंच हैं . .पाकिस्तान के गरीब लोगों को बिना विदेशी सहायता के रोटी नहीं दी जा सकती है क्योंकि वहां पहले प्रधान मंत्री लियाकत अली के क़त्ल के बाद से विकास का काम बिलकुल नहीं हुआ है .पहली बार जनरल अयूब ने फौजी हुकूमत कायम की थी, उसके बाद से फौज ने पाकिस्तान का पीछा नहीं छोडा. आज वहां अपना कुछ नहीं है सब कुछ खैरात में मिलता है .इस सारे चक्कर में पकिस्तान का आम आदमी सबसे ज्यादा पिस रहा है. इसलिए विदेशी सहायता बंद होने की सूरत में पाकिस्तानी अवाम सबसे ज्यादा परेशानी में पड़ेगा क्योंकि ऊपर के लोग तो जो भी थोडा बहुत होगा उसे हड़प कर ही लेगें ..इस लिए यह ज़रूरी है कि पाकिस्तान को मदद करने वाले दान दाता देश साफ़ बता दें कि जो भी मदद मिलेगी, जिस काम के लिए मिलेगी उसे वहीं इस्तेमाल करना पड़ेगा. आम पाकिस्तानी के लिए मिलने वाली राशि का इस्तेमाल आतंकवाद और फौजी हुकूमत का पेट भरने के लिए नहीं किया जा सकता. अमरीका और अन्य दान दाता देशों के लिए इस तरह का फैसला लेना बहुत मुश्किल पड़ सकता है लेकिन असाधारण परिस्थतियों में असाधारण फैसले लेने पड़ते हैं . ज़ाहिर है कि इतनी बड़ी रक़म को इनाम के रूप में घोषित करके अमरीका ने एक असाधारण फैसला लिया है . लेकिन यह उम्मीद करना बेकार है कि पाकिस्तान हाफ़िज़ सईद को पकड़ कर अमरीका के हवाले कर देगा . जब तक फौज को घेरे में न लिया जाएगा , हाफ़िज़ सईद का कुछ नहीं बिगड़ेगा.

Monday, January 16, 2012

पाकिस्तान में लोकतंत्र और राजनीतिक पार्टियों का इम्तिहान हो रहा है

शेष नारायण सिंह

पाकिस्तान में आजकल वह हो रहा है जो अब तक कभी नहीं हुआ.देश की संसद में यह तय हो रहा है कि देश में लोकतंत्र का निजाम रहना है कि एक बार फिर तानाशाही कायम होनी है . अब तक तो होता यह था कि कोई फौजी जनरल आकर सिविलियन सरकारों को बता देता था कि भाई बहुत हुआ अब चलो ,हम राजकाज संभालेगें . सिविलियन हुकूमत वाले जब ज्यादा लोकशाही की बात करते थे तो उन्हें दुरुस्त कर दिया जाता था. चाहे ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो रहे हों या लियाकत अली खां और या नवाज़ शरीफ रहे हों सब को फौज ने अपमानित ही किया लेकिन ऐसा पहली बार हो रहा है कि पूरे देश में आजकल लोकतंत्र बनाम तानाशाही की बहस चल रही है . हालांकि मौजूदा सरकार की लोकप्रियता और भ्रष्टाचार के हवाले से उसे हटाने का राग चारों तरफ से सुनायी पड़ने लगा है लकिन लगता है कि अब पुरानी बातें नहीं चलने वाली हैं . संसद का विशेष सत्र चल रहा है और सोमवार को संसद तय करेगी कि आगे का रास्ता क्या हो . प्रधान मंत्री युसूफ रजा गीलानी ने संसद में कहा कि तय यह होना है कि पाकिस्तान में लोकतंत्र रहेगा या तानाशाही .उन्होंने कहा कि अगर उनकी सरकार ने गलातियाँ की हैं तो ठीक है उन्हें सज़ा दी जाए लेकिन संसद या लोकतंत्र को सज़ा नहीं दी जानी चाहिए .पाकिस्तानी जनमत का दबाव ऐसा है कि अब तक फौज के बूटों पर ताल दे रहे पंजाबी राजनेता , नवाज़ शरीफ भी कहने लगे हैं कि सरकार को चाहिए कि वक़्त से पहले चुनाव करवाकर लोकतंत्र की बहाली को सुनिश्चित करें.

शुक्रवार को अवामी नेशनल पार्टी के नेता, अफसंदर वली खां ने कौमी असेम्बली में संसद,सरकार और लोकतंत्र के पक्ष में एक प्रस्ताव रखा. इसी प्रस्ताव पर सोमवार को वोट पडेगा. प्रस्ताव में राजनीतिक नेतृत्व की उस कोशिश का भी समर्थन किया गया है जिसमें वह लोकतंत्र को बचाने की कोशिश कर रही है .पाकिस्तान में आजकल सरकार ही सवालों के घेरे में नहीं है .सही बात यह है कि पाकिस्तान के अस्तित्व पर एक बार फिर सवालिया निशान लग गया है .पाकिस्तान के लोकतंत्र को एक बार फिर अपनी जान बचाने के लिए मजबूर कर दिया गया है .लेकिन यह एक दिन में नहीं हुआ. बहुत शुरू से ही पाकिस्तान की हर मुसीबत के लिए नेताओं को ज़िम्मेदार ठहराकर पाकिस्तानी फौज़ सत्ता हथियाती रही है . नेता भी आम तौर पर इतने बेईमान और भ्रष्ट हो जाते थे कि जनता दुआ करने लगती थी कि किसी तरह से फौज ही आ जाए . आम तौर पर फौज के सत्ता में आने पर लोग राहत की सांस लेते थे .लेकिन अब पहली बार ऐसा हो रहा है कि जनता इस बात पर बहस कर रही है कि देश में किस तरह का निजाम स्थापित किया जाए . हुकूमत के फैसलों में मनमानी करने की आदी पाकिस्तानी फौज़ के सामने भी विकल्प कम होते जा रहे हैं . हर बार होता यह था कि जब भी पाकिस्तान की सरकार पर फौज का क़ब्ज़ा होता था तो अमरीका फौजी तानाशाह को मदद करने लगता था . आर्थिक रूप से अमरीकी सरकार के शामिल हो जाने के बाद फौजी जनरल को कोई रोक नहीं सकता था . इस इलाके में रूस के प्रभाव को कम करने के उद्देश्य से अमरीका ने शुरुआती दो जनरलों, अयूब और याहया खां को समर्थन दिया था. जिया उल हक को अफगानिस्तान में सोवियत दखल को कम करने के लिए समर्थन दिया गया था और परवेज़ मुशर्रफ को तालिबानी आतंकियों को काबू में करने के लिए धन दिया गया था . लेकिन इस बार यह बिलकुल तय है कि अमरीका किसी भी फौजी हुकूमत को समर्थन देने को तैयार नहीं है . उसके अपने हित में है कि पाकिस्तान में जैसी भी हो लोकतंत्र वाली सरकार ही रहे. ऐसे माहौल में लगता है कि पाकिस्तान की जनता को आज़ादी के साठ साल बाद ही सही अपने हक को हासिल करने का मौक़ा मिल रहा है .

हालांकि अभी यह कह पाना बहुत मुश्किल है कि जिस तरह का माहौल है उसमें संसदीय लोकतंत्र सुरक्षित बच पायेगा .फौज ने एक पुराने क्रिकेट खिलाड़ी को आगे कर दिया है और लगता है कि वह उसी को आगे करके लोकतंत्र को कंट्रोल में रखने की कोशिश कर रही है .इस खिलाड़ी ने एक राजनीतिक पार्टी भी बना रखा है और अगर पहले जैसे हालात होते तो अब तक वह सत्ता पर काबिज़ भी हो चुका होता लेकिन पाकिस्तानी मीडिया और जनमत का दबाव ऐसा है कि फौज को चुप बैठने के लिए मजबूर कर दिया गया है .पाकिस्तान की सभी राजनीतिक पार्टियां भी एक इम्तिहान के दौर से गुज़र रही है देखना यह है कि आने वाले वक़्त में पाकिस्तान में लोक तंत्र बचता है कि नहीं और अगर बचता है तो किस रूपमें .

Sunday, January 8, 2012

पाकिस्तान में लोकशाही भारत और पाकिस्तान , दोनों के हित में है .

शेष नारायण सिंह

मुंबई,५ दिसंबर . पाकिस्तान में पिछले ४ हफ़्तों में प्रगतिशीलता की दिशा में जितने बदलाव हुए हैं ,उतने पाकिस्तान के इतिहास में कभी नहीं हुए . पाकिस्तान की संसद में पिछले महीने तीन ऐसे बिल पास किये गए हैं जिनको देख कर लगता है कि पाकिस्तान में जनमत के दबाव के तले परिवर्तन की बयार बह रही है. .पाकिस्तान के बड़े राजनीतिक कार्यकर्ता और पाकिस्तान में मानवाधिकारों के संघर्ष के एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर ,बी एम कुट्टी ने आज मुंबई में कहा कि बहुत दिन बाद पाकिस्तान में लोकशाही की जड़ें जमती दिख रही है . पाकिस्तानी पंजाब के पूर्व गवर्नर , सलमान तासीर की हत्या के एक साल बाद उनकी याद में मुंबई प्रेस क्लब में आयोजित एक गोष्ठी में आज बी एम कुट्टी ने कहा कि यह बहुत संतोष की बात है कि पाकिस्तान के प्रधान मंत्री युसूफ रजा गीलानी आम पाकिस्तानी की उस भावना को आवाज़ दे रहे हैं जिसमें वह चाहता है कि पाकिस्तानी फौज़ को काबू में रखा जाए .

पाकिस्तान की जो तस्वीर आज यहाँ बी एम कुट्टी ने पेश की उस से लगता है कि वहां अब फौज की मनमानी पर लगाम लगाई जा सकेगी. पाकिस्तान के चर्चित मेमोगेट काण्ड के बाद जिस तरह से फौज ने सिविलियन सरकार को अर्दब में लेने की कोशिश की थी उसके बाद पाकिस्तान में एक बार फिर फौजी हुकूमत की आशंका बन गयी थी . उसी दौर में राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी को इलाज़ के लिए दुबई जाना पड़ गया था. जिसके बाद यह अफवाहें बहुत ही गर्म हो गयी थीं कि पाकिस्तान एक बार फिर फौज के हवाले होने वाला है . लेकिन प्रधान मंत्री युसफ रज़ा गीलानी ने कमान संभाली और सिविलियन सरकार की हैसियत को स्थापित करने की कोशिश की. अब फौज रक्षात्मक मुद्रा में है. . जब मेमोगेट वाले कांड में फौज के जनरलों की मिली भगत की बात सामने आई तो प्रधान मंत्री ने फ़ौरन जांच का आदेश दिया .. पाकिस्तानी जनरलों की मर्जी के खिलाफ यह जांच चल रही है और इमकान है कि सिविलियन सरकार का इक़बाल भारी पडेगा और पाकिस्तान में एक बार लोकशाही की जड़ें जम सकेगीं . .
बी एम कुट्टी पाकिस्तान में बहुत ही सम्मान से देखे जाते हैं . उन्होंने बताया कि पिछले ४ हफ़्तों में जो कानून पास हुए हैं उस से इस बात का अंदाज़ लग जाता है कि पाकिस्तान में अब मुल्ला और मिलिटरी की मर्जी से हुकूमत नहीं चलेगी. पाक्सितान में एक कानून था कि लड़कियों की शादी कुरआन से कर दी जाती थी. ऐसा इसलिए किया जाता था कि ज़मींदारी प्रथा के बीच जी रहे पाकिस्तानी समाज को नहीं मंज़ूर था कि पुश्तैनी ज़मीन का बँटवारा हो . पिछले महीने संसद में सर्व सम्मति से बिल पास करके इस अमानवीय कानून को रद्द कर दिया गया..बी एम कुट्टी ने बताया कि पाकिस्तान में इस बात पर भी जनमत बन रहा है कि ईशनिंदा कानून को भी बदल दिया जाए. इसी कानून का विरोध करने के बाद ही सलमान तासीर की ह्त्या की गयी थी. उनके बेटे को पिछली अगस्त में किडनैप कर लिया गया था और उनकी बेटी को धमकियां मिल रही हैं . उसके हत्यारे के ऊपर इस्लामाबाद में कुछ वकीलों ने फूल भे बरसाए थे . लेकिन अब सब कुछ बदल रहा है . पिछले दिनों पाकिस्तानी हैदराबाद में एम क्यू एम नाम के राजनीतिक संगठन की एक सभा में कुछ लोग सलमान तासीर की तस्वीर लेकर आये थे उन्हें शहीद का दर्ज़ा देने की बात कर रहे थे . बी एम कुट्टी ने भारत के लोगों और मीडिया से अपील की कि वे पाकिस्तान की सिविलियन सरकार को समर्थन दें ,मुल्ला और मिलिटरी के भड़काऊ बयानों को नज़र अन्दाज़करें क्योंकि वे वहां अल्पमत में हैं . पाकिस्तान में लोकशाही की मजबूती भारत और पाकिस्तान दोनों के हित में है .

Friday, September 30, 2011

अमरीका से दोस्ती पाकिस्तान के लिए बहुत भारी पड़ सकती है

शेष नारायण सिंह


क्या अमरीका पाकिस्तान पर जल्द ही हमला करने वाला है ? यह सवाल पाकिस्तान के गली- कूचों और टेलिविज़न चैनलों के दफ्तरों में बहुत जोर शोर से पूछा जा रहा है . यही नहीं पाकिस्तानी हुक्मरान भी डरे हुए हैं कि कहीं अमरीका ने और सख्ती कर दी तो पाकिस्तान के लिए बहुत मुश्किल हो जायेगी. हक्कानी ग्रुप नाम के अफगान संगठन के पाकिस्तानी फौज और आई एस आई से रिश्तों के बारे में जब से अमरीकी फौज के आला अफसरों ने खुले आम बात करना शुरू कर दिया है ,तब से ही पाकिस्तान में अफरा तफरी का माहौल है . पूरे देश में जनमत का दबाव इतना ज़्यादा है कि प्रधान मंत्री युसूफ रजा गीलानी ने सर्वदलीय बैठक बुला ली है . इस बैठक में पाकिस्तानी फौज के मुखिया जनरल कयानी और आई एस आई की मुखिया जनरल शुजा पाशा भी शामिल हो रहे हैं . अमरीका ने साफ़ कह दिया है कि हक्कानी ग्रुप ने अफगानिस्तान में अमरीकी हितों को नुकसान पंहुचाने का अभियान चला रखा है , अमरीकी ठिकानों पर लगातार हमले कर रहा है इसलिए उसको ख़त्म करना ज़रूरी है .अमरीका ने इस काम में पाकिस्तान की मदद भी माँगी है . अमरीका का यह भी आरोप है कि पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आई एस आई और हक्कानी ग्रुप में गहरे ताल्लुकात हैं . अमरीका की मांग है कि आई एस आई अब हक्कानी से दोस्ती ख़त्म करे और उसे दुश्मन मानना शुरू कर दे. अमरीका के इस रवैय्ये के बाद पाकिस्तान में बहुत गुस्सा है .देश के ज़्यादातर राजनेता और ताक़तवर फौजी लाबी मानती है कि पाकिस्तान को तिल तिल कर ख़त्म करने की अमरीकी कोशिश के चलते ही हक्कानी ग्रुप से उसके रिश्तों को मुद्दा बनाया जा रहा है . यह सच है कि हक्कानी ग्रुप से पाकिस्तान के बहुत अच्छे रिश्ते हैं लेकिन पाकिस्तानी सरकार का कहना है कि अमरीका ने ही हक्क़ानी ग्रूप को पैदा किया , उसे समर्थन दिया और आर्थिक मदद भी की. अब जब हक्कानी उनके खिलाफ हो गया है तो उसको ख़त्म करने के अभियान में पाकिस्तान को इस्तेमाल करने की कोशिश की जा रही है . पाकिस्तानी विदेश मंत्री ने तो पिछले हफ्ते अमरीका में ही बार बार बयान दिया कि हक्कानी ग्रुप अमरीका का दोस्त संगठन है ,इसलिए उसको पाकिस्तान के मत्थे मढना ठीक नहीं है. पाकिस्तान के इस तर्क में कोई दम नहीं है क्योंकि अब तक का अमरीका का रिकार्ड रहा है कि जब दोस्त की ज़रुरत नहीं रहती तो वह उसे ख़त्म कर देता है .. आखिर तालिबान और अल कायदा भी तो अमरीका की कृपा और उसके पैसे से ही पैदा हुए थे लेकिन बाद में अल कायदा अमरीका का दुश्मन नंबर एक बन गया . अल कायदा के मुखिया ओसामा बिन लादेन को जिंदा या मुर्दा पकड़ना अमरीकी विदेश नीति का मुख्य एजेंडा बन गया और अंत में पाकिस्तान जैसे दोस्त के देश में ख़ुफ़िया तरीके से घुस कर अमरीका ने ओसमा को क़त्ल किया. उसी तरह से हक्कानी ग्रुप भी अमरीका की देन है लेकिन आजकल वह उसके लिए मुसीबत बना हुआ है . अमरीकी फौज का दावा है कि अफगानिस्तान में सक्रिय अमरीका के दुश्मनों में हक्कानी ग्रुप से सबसे ज्यादा ताक़तवर है .

हक्कानी ग्रुप के मौजूदा मुखिया मौलाना जलालुद्दीन हक्कानी को अमरीका ने अफगानिस्तान से सोवियत सेना को भगाने के अभियान में इस्तेमाल किया था. जलालुद्दीन हक्क़ानी का इतना दबदबा था कि अमरीकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रेगन ने उन्हें व्हाईट हाउस में बतौर मेहमान आमंत्रित किया था. हक्कानी को अमरीकी खुफिया संगठन सी आई ए का पूरा और खुला समर्थन रहता था. इसके अलावा हक्कानी ने पाकिस्तानी आई एस आई से भी बिरादराना ताल्लुकात कायम कर लिया . उसे सउदी अरब के बहुत सारे धनवानों से आर्थिक मदद मिलती रही . अब भी मिलती है . आजकल उसे अमरीका से मिलने वाला पैसा बंद हो गया है तो उस कमी को हक्कानी ग्रुप फिरौती वगैरह के गैरकानूनी धंधों के ज़रिये पूरा कर लेता है .जब १९९६ में तालिबान ने अफगानिस्तान की सत्ता पर क़ब्ज़ा किया तो सीनियर हक्कानी को मंत्री भी बनाया गया था .अभी पिछले दिनों अफगानिस्तान के मौजूदा राष्ट्रपति, हामिद करज़ई ने भी हक्कानी ग्रुप के संस्थापक मौलाना जलालुद्दीन के बेटे सिराजुद्दीन हक्कानी को प्रधानमंत्री पद देने की पेश कश की थी. उनको उम्मीद थी कि इस से तालिबान का आतंक कम हो जाएगा. लेकिन सिराजुद्दीन हक्कानी ने मना कर दिया . मौलाना जलालुद्दीन हक्कानी तो अब बूढ़े हो चले हैं लेकिन उनके बेटे सिराजुद्दीन ने काम संभाल लिया है . उन्हीं की अगुवाई में करीब पंद्रह हज़ार लड़ाके काम कर रहे हैं और अफगानिस्तान में सक्रिय अमरीकी सेना के दुश्मन बने हुए हैं . हक्कानी ग्रुप आजकल अफगान और अमरीकी फौज के निशाने पर है . शायद इसीलिये उसने अपना ठिकाना पाकिस्तान सीमा के अंदर ,पाक-अफगान बार्डर पर कहीं बना रखा है .इसी हक्कानी ग्रुप को ख़त्म करने में अमरीका को पाकिस्तानी मदद की ज़रुरत है लेकिन पाकिस्तान के लिए हक्कानी ग्रुप के खिलाफ युद्ध का ऐलान करना बहुत ही मुसीबत का कारण बन सकता है . सच्ची बात यह है कि हक्कानी ग्रुप आजकल पाकिस्तानी फौज और आई एस आई का गहरा दोस्त है . जहां पाकिस्तानी सेना खुले आम कुछ नहीं कर पाती वहां हक्कानी ग्रुप का इस्तेमाल किया जाता है . ऐसी हालत में हक्कानी ग्रुप को ख़त्म करने का मतलब यह भी होगा कि पाकिस्तानी फौज अपनी ही एक शाखा को नेस्तनाबूद करने जा रही होगी.

इस स्थिति में पाकिस्तान सरकार में हक्कानी के खिलाफ कार्रवाई करने से बचने के उपायों पर चर्चा हो रही है . पाकिस्तानी राजनीति को समझने वालों का कहना है कि अगर आज हक्कानी ग्रुप के खिलाफ काम करने के लिए पाकिस्तानी फौज़ को मजबूर कर दिया गया तो कल अमरीका यह भी कह सकता है कि आई एस आई ने बहुत सारे आतंकी काम किये हैं इसलिए उसे भी ख़त्म कर दिया जाना चाहिए . इतने ज़बरदस्त दबाव के चलते ही प्रधान मंत्री युसूफ रजा गीलानी ने सर्वदलीय बैठक बुलाई है . उधर इस्लामबाद में अमरीका से रिश्ते ख़त्म होने के बाद के रिश्तों पर चर्चा के लिए बैठकें शुरू हो गयी हैं . पाकिस्तानी राजधानी में सउदी अरब और चीन के राजनयिकों से मुलाकातों का सिलसिला जारी है . राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी और विदेश सचिव सलमान बशीर ने अमरीकी राजदूत से मुलाक़ात करके कुछ रास्ता निकालने की बात शुरू कर दिया है . प्रधान मंत्री गीलानी ने चीनी उपप्रधान मंत्री मेंग जियानझू से मुलाक़ात के बाद दावा किया कि चीन ने उन्हें भरोसा दिलाया है कि वह पाकिस्तान की स्वतंत्रता , अखंडता और सार्व भौमिकता का समर्थन करता है . पाकिस्तान की सरकार और फौज को डर है कि अमरीका अफगानिस्तान की तरफ से उत्तरी पाकिस्तान के उन ठिकानों पर हमला कर सकता है जहां हक्क़ानी ग्रुप का मुख्यालय है . हक्कानी ग्रुप ने अपने सारे महत्वपूर्ण ठिकाने पाकिस्तान के उत्तरी वजीरिस्तान इलाके में बना रखे हैं . पाकिस्तान को मालूम है कि अगर उसने हक्कानी के खिलाफ अमरीका की मदद करने में आनकानी की तो अमरीका हमला भी कर सकता है . पाकिस्तान में इस संभावित हमले को पाकिस्तानी ज़मीन पर किया गया हमला माना जायेया. पाकिस्तानी हुक्मरान की घबडाहट इसी संदर्भ में समझी जानी चाहिए . समाचार एजेंसी रायटर्स के साथ बातचीत में पाकिस्तानी प्रधान मंत्री ने साफ़ कहा कि उनका देश एक सार्वभौम देश है उनके ऊपर कोई अन्य मित्र देश हमला कैसे कर सकता है . पाकिस्तान में अब अमरीका के बाद की योजना पर काम होना शुरू हो गया है लेकिन क्या यह संभव है . सोमवार को आई एस आई के मुखिया जनरल शुजा पाशा सउदी अरब गए थे .उनकी कोशिश है सउदी अरब से मदद ली जाए .लेकिन क्या सउदी अरब की हिम्मत है कि वह अमरीका को नाराज़ कर सकता है . जहां तक चीन का सवाल है वह अमरीका के दबाव में नहीं है लेकिन क्या वह पाकिस्तान जैसे गरीब देश के लिए अमरीका से अपने व्यापारिक रिश्तों को तबाह करके उसकी सेना को रोकने की किसी पाकिस्तानी कोशिश में उसकी मदद करेगा. ऐसी हालत में अब पाकिस्तान के लिए सबसे सही और सुरक्षित रास्ता यही लगता है कि वह स्वीकार कर ले कि उसके लिए अमरीका को नाराज़ कर पाना बिलकुल संभव नहीं है और उसे अब अमरीका की प्रभुता स्वीकार कर लेनी चाहिए. पिछले साठ साल की अमरीकापरस्त विदेशनीति की यही तार्किक परिणति है .

Saturday, July 9, 2011

पाक प्रधानमंत्री ने कहा -उनके मुल्क के अस्तित्व को ख़तरा

शेष नारायण सिंह

पाकिस्तान बुरी तरह से आतंकवाद के घेरे में फंस गया है.वहां के प्रधानमंत्री युसूफ रजा गीलानी ने बुधवार को अपने मुल्क की परेशानी का बहुत ही साफ़ शब्दों में उल्लेख किया . बहुत ही दुखी मन से उन्होंने कहा कि आतंकवाद के खिलाफ जो लड़ाई उनका देश लड़ रहा है, उसमें सफल होना बहुत ज़रूरी है . उन्होंने आगाह किया कि अगर पाकिस्तानी राष्ट्र के अस्तित्व को बचाना है तो सरकार और देश की जनता को इस लड़ाई में फतह हासिल करनी पड़ेगी. पाकिस्तानी प्रधान मंत्री क यह दर्द जायज़ है . बहुत तकलीफ होती है जब हम देखते हैं कि पाकिस्तान पूरी तरह से आजकल आतंकवाद की ज़द में है . भारत और पाकिस्तान की अंदरूनी हालात पर जब नज़र डालते हैं तो साफ़ नज़र आता है कि गलत राजनीतिक फैसलों के चलते राष्ट्रों की क्या फजीहत हो सकती है .भारत और पाकिस्तान एक ही दिन ब्रिटिश गुलामी से आज़ाद हुए थे.भारत ने सभी धर्मों को सम्मान देने की राजनीति को अपने संविधान की बुनियाद में डाल दिया . पाकिस्तान के संस्थापक,मुहम्मद अली जिन्नाह भी वही चाहते थे लेकिन वह नहीं हो सका.उनकी मृत्यु के बड़ा पाकिस्तान में ऐसे लोगों की सत्ता कायम हो गयी जो बहुत ही हलके लोग थे .आज आलम यह है कि भारत एक सुपरपावर बनने के रास्ते पर है और पाकिस्तान का प्रधानमंत्री स्वीकार कर रहा है कि जिस आतंकवाद को पाकिस्तानी हुक्मरान ने भारत के खिलाफ इस्तेमाल करने के लिए शुरू किया और पाला पोसा उसी के चलते आज पाकिस्तानी राष्ट्र के सामने अस्तित्व का सवाल पैदा हो गया है . हालांकि जब पाकिस्तान के पूर्व फौजी तानाशाह,जनरल जिया उल हक ने आतंकवाद को जिहाद का नाम देने की कोशिश की थी.हो सकता है ऐसा रहा भी हो लेकिन आज तो यह कुछ लोगों का बाकायदा धंधा बन चुका है.पाकिस्तानी समाज में जिस तरह से रेडिकल तत्व हावी हुए हैं वह किसी भी सरकार के लिए मुसीबत बन सकते हैं . युसूफ रजा गीलानी अपने देश के शहर, मिंगोरा में आयोजित रेडिकल तत्वों को खत्म करने के राष्ट्रीय सेमिनार में भाषण कर रहे थे.उन्होंने दावा किया कि वे अपने देश से आतंकवाद को ख़त्म कर देगें.उनको भरोसा है कि उनके देश की जनता इस मुहिम में पाकिस्तान की सरकार को पूरी मदद करेगी. उनके हिसाब से पाकिस्तान आतंकवाद को ख़त्म करने के लिए पूरी तरह से प्रतिबद्ध है .पाकिस्तान की सरकार की नीयत पर बाकी दुनिया में भरोसा नहीं किया जा रहा है . इस बात का अंदाज़ इस सेमिनार में भी लग गया .पाकिस्तान में आतंकवाद के फलने फूलने में वहां की फौज और आई एस आई का बड़ा हाथ माना जाता है लेकिन इस सेमिनार में पाकिस्तानी फौज़ के मुखिया जनरल परवेज़ अशफाक कयानी ने भी भाषण किया . ज़ाहिर है कि प्रधान मंत्री गीलानी ने जो भी बातें कहीं वे अमरीका और भारत को नज़र में रख कर कहीं गयी थीं क्योंकि यही दो मुल्क पाकिस्तान से बार बार निवेदन कर रहे हैं कि है वह अपने देश से आतंकवाद का खात्मा करे. हालांकि यह भी उतना ही सच है कि न तो अमरीका और न ही भारत को यह विश्वास है कि पाकिस्तानी फौज आतंकवाद के खिलाफ कोई कारगर क़दम उठायेगी. कुछ संवेदन हीन लोग पाकिस्तानी आतंकवाद को इस्लामी आतंकवाद भी कहते हैं . यह बहुत ही गलत बात है क्योंकि आतंकवाद इस्लामी नहीं हो सकता. इस्लाम में आतंकवाद की कोई गुंजाइश नहीं है .वह स्वार्थी लोगों की तरफ से राजनीतिक फायदे के लिए किया जाने वाला काम है . मुलिम नौजवानों के शामिल होने की वजह से उसे 'इस्लामी आतंकवाद' नाम देने की कोशिश की जाती है . जो कि सरासर गलत है . अमरीकी अखबारों, भारतीय दक्षिणपंथी राजनेताओं और अमरीकी सरकार की तरफ से कोशिश होती है और उन्हें इस प्रचार में आंशिक सफलता भी मिलती है .

सच्चाई यह है कि अगर सही माहौल मिले तो मुसलमान आतंक को कभी भी राजनीतिक हथियार नहीं बनाएगा. जो अमरीका, पाकिस्तान और पाकिस्तानी मुसलमानों को लगभग पूरी तरह से आतंकवाद का केंद्र मानता है वही अमरीका भारत के मुसलमानों को आतंकवाद से बहुत दूर मानता है . यह देखना दिलचस्प होगा कि पिछले दिनों भारत में तैनात अमरीकी राजदूत डेविड मुलफोर्ड ने समय समय पर अपनी सरकार के पास जो गुप्त रिपोर्टें भेजी थीं ,उसमें उन्होंने साफ़ कहा था को भारत में पंद्रह करोड़ से ज्यादा मुसलमान हैं लेकिन वे अपने आप को हर तरह की आतंकवादी गतिविधियों से दूर रखते हैं . उन्होंने दावा किया कि भारत के मुसलमान अपने देश के जीवंत लोकतंत्र में पूरी तरह से शामिल हैं .साझा संस्कृति पर गर्व करते हैं और भारत के अल्पसंख्यक राष्ट्रवादी हैं. अमरीकी राजदूत का यह कथन किसी कूटनीतिक सभा में दिया भाषण नहीं है . यह विकीलीक्स के हवाले से दुनिया को मालूम हुआ है और यह उन गुप्त दस्तावजों का हिस्सा है जो प्रतिष्ठित अखबार ' हिन्दू 'के सहयोग से विकीलीक्स ने भारत में जारी किया था.डिस्पैच में लिखा है कि भारत के बहुसंख्यक मुसलमान उदारवादी राजनीति में विश्वास करते हैं और अपने देश के उद्योग और समाज में अच्छे मुकाम पर पंहुचने की कोशिश करते हैं .उन्होंने दावा किया कि बहुत बड़ी संख्या में मुस्लिम नौजवान मुख्य धारा में ही अपनी तरक्की के अवसर तलाशते हैं इसलिए यहाँ से आतंकवादी गतिविधियों में शामिल होने के लिए रंगरूट नहीं मिल रहे हैं .डेविड मुलफोर्ड ने लिखा है कि भारत में भी इस्लाम में विश्वास करने वाले लोग कई समुदायों में बँटे हुए हैं लेकिन वे सभी राजनीति के सेकुलर धाराओं में हे एसक्रिया होते हैं . धार्मिक अपील वाले संगठनों को भारत में कोई भी समर्थन नहीं मिलता . वे हाशिये पर ही रहते हैं .जबकि भारत में सभी धर्मों के नौजवानों के हीरो आजकल मुस्लिम नौजवान ही हैं . मुलफोर्ड के डिस्पैच में शाहरुख खां ,आमिर खान और सलमान खान का ज़िक्र भी है जो सभी धर्मों के नौजवानों के प्रिय हैं.

अजीब बात है कि शुरू से की पाकिस्तान के साथ खड़े होने वाले अमरीका को अब पाकिस्तान पर भरोसा नहीं है जबकि अमरीका ने पाकिस्तान के बराबर साबित करने के चक्कर में हमेशा से ही भारतक अविरोध किया था . १९७१ के बंगलादेश मुक्ति संग्रामके दौरान तो पाकिस्तान की फौजी हुकूमत को बचाए रखने के लिए उसने भारत पर सातवें बेडे के हमले की योजना भी बना दी थी .लेकिन आज उसी अमरीका को भारत में जीवंत लोकतंत्र नज़र आ रहा है जबकि पाकिस्तान को वह आतंकवादी देश घोषित करने की योजना पर काम कर रहा है.

Monday, July 4, 2011

पाकिस्तान में जो लोकतंत्र की बात करेगा, मारा जाएगा

(दैनिक जागरण से साभार )

शेष नारायण सिंह

पाकिस्तानी हुकूमत की शह पर एक और मानवाधिकार कार्यकर्ता को मौत के घाट उतार दिया है . बलोचिस्तान के जाफराबाद जिले में मीर रुस्तम बारी को डेरा अल्लाहयार इलाके में उनके घर के सामने ही मोटरसाइकिल सवाल बंदूकधारियों ने मार डाला .उनकी मौके पर ही मौत हो गयी. यह पाकिस्तान की तथाकथित सिविलियन हुकूमत के उस अभियान की एक कड़ी मात्र है जिसमें फौज के इशारे पर उन लोगों को मार दिया जाता है जो सरकार और फौज के लिए मुश्किल पैदा करने की कोशिश कर रहे होते हैं . मीर रुस्तम बारी अपने ही राज्य बलोचिस्तान में घर बार छोड़कर भागने को मजबूर हुए बुगती और मारी क़बीलों के लोगों के हक की लड़ाई लड़ रहे थे.ऐसा लगता है कि पाकिस्तान में किसी को मार डालना उसी तरह से हो गया है जैसे किसी पार्क में टहलना हो. अभी पिछले हफ्ते पाकिस्तानी रेंजर्स ने कराची शहर के बीचोबीच उन्नीस साल के एक लड़के, सरफ़राज़ शाह को राह चलते मार डाला था . पाकिस्तानी रेंजर्स भारत के बी एस एफ की तरह का संगठन है जो सीमा पर तैनात रहता है लेकिन कभी कभी आतंरिक सुरक्षा के काम में भी लगाया जाता है . सरफराज शाह की हत्या को सबने देखा क्योंकि किसी वीडियो कैमरामैन ने उसकी फिल्म उतार ली थी और न्यूज़ चैनलों ने उसे सार्वजनिक कर दिया था. सरफ़राज़ शाह की हत्या मीर रुस्तम बारी से अलग तरह की हत्या है . इस नौजवान को तो रेंजर्स के सिपाहियों ने मज़ा लेने के लिए मार डाला था अ, कहीं कोई राजनीतिक मंशा नहीं थी. इसीलिये यह हत्या ज्यादा खतरनाक मानी जा रही है क्योंकि जिस समाज में तफरीह के लिए किसी राह चलते इंसान को मार डाला जाए उसका अधोपतन लगभग पूरी तरह से मुक़म्मल माना जाता है .पूरे पाकिस्तान ने टी वी चैनलों पर देखा कि किस तरह रेंजर्स की गोली का शिकार होकर वह नौजवान चिल्लाता रहा कि उसे अस्पताल पंहुचा दिया जाय लेकिन कोई नहीं आया. सरफ़राज़ शाह की हत्या पाकिस्तानी राष्ट्र और समाज के लिए एक खतरे की घंटी है . क्योंकि जो पाकिस्तानी फौज और आई एस आई अब तक उन लोगों को मार रही थी जो हुकूमत के लिए मुश्किलें पैदा कर रहे थे और उसने राह चलते लोगों को अपना शिकार बनाना शुरू कर दिया है . पाकिस्तान में रहने वाले बुद्धिजीवियों का कहना है कि देश बहुत ही बड़े संकट के दौर से गुज़र रहा है . उनका दावा है कि यह संकट १९७१ के उस संकट से भी बड़ा है जब मुल्क का एक बड़ा हिस्सा अलग होकर स्वतंत्र बंगलादेश बन गया था .
पाकिस्तान के ताज़ा हालत के बारे में जो बात हैरानी की है वह यह कि लोकतांत्रिक अधिकारों की बात करने वालों की लगभग रोज़ ही हो रही हत्याओं के बावजूद बाकी दुनिया में कहीं भी उसके विरोध में आवाज़ नहीं उठ रही है . जहां तक सभ्य समाज के लोगों की हत्या का सवाल है वह तो वहां रोज़ ही हो रही है. मीर रुस्तम बारी की ह्त्या के एकाध दिन पहले ही क्वेटा में प्रोफ़ेसर सबा दश्तियारी को मार डाला गया था . उसके कुछ दिन पहले खोजी पत्रकार सलीम शहजाद को मौत के घाट उतार दिया गया था. इन हत्याओं में जो बात उभर कर सामने आती है वह यह कि मारे गए सभी लोग उस बिरादरी से सम्बंधित हैं जो फौज के इशारे पर काम करने वाली अमरीकापरस्त सिविलियन हुकूमत की गैरज़िम्मेदार नीतियों से लोगों को आगाह कर रहे थे . इस बिरादरी के लोगों को ख़त्म कर देने का सिलसिला पिछले कुछ वर्षों से चल रहा है . हालांकि इस तरह से मारे गए लोगों की पूरी सूची तो नहीं बनायी जा सकती लेकिन कुछ ऐसे नाम जो मीडिया की नज़र में आये हैं वे किस्से की कई परतों को बयान कर देते हैं . पाकिस्तानी पंजाब के गवर्नर , सलमान तासीर की उनके ही सुरक्षा गार्ड के हाथों हुई हत्या को इस डिजाइन की एक अहम कड़ी के रूप में देखा जाता है . सलमान तासीर के बाद अल्पसंख्यक मामलों के केंद्रीय मंत्री शाहबाज़ भट्टी और पाकिस्तान के मानवाधिकार आयोग के के संयोजक नईम साबिर को मारा गया था. पाकिस्तान के मानवाधिकार संगठनों का दावा है कि जो लोग भी मारे जा रहे हैं लगभग सभी लोग अल कायदा के प्रभाव वाले सैनिक और आतंकवादी संगठनों के शिकार हो रहे हैं .प्रोफ़ेसर सबा दश्तियारी से जिहादी संगठन ख़ास तौर से नाराज़ थे क्योंकि उनके काम से नौजवानों में लोकतांत्रिक चेतना आती. वे छात्रों को लोकतंत्र के बारे में जागरूकता का सन्देश दे रहे थे. बलोचिस्तान में पाकिस्तानी फौज का डंडा बहुत ही ज़बर्दस्त तरीके से चल रहा है . ऐसा शायद इसलिए हो रहा है कि उस इलाके में ज़मीन के नीचे कच्चे के तेल बहुत बड़े ज़खीरों का पता चला है और सरकार उसे पूरी तरह से अपने कब्जे में रखना चाह रही है .वहां अक्सर निर्दोष बलोच युवकों को पकड़ कर उनको सेना के कब्जे में रखा जाता है और उन्हें हर किस्म की यातनाएं दी जाती हैं . आतंक फैलाने के उद्देश्य से ऐसे लोगों को मार दिया जाता है जो बिलकुल सीधे सादे लोग होते हैं . अभी पिछले दिनों बलोचिस्तान विश्वविद्यालय की एक महिला प्रोफ़ेसर ,नाज़िमा तालिब को भी गोली मार दी गयी थी.
एकाध को छोड़कर मारे गए ज़्यादातर लोग पाकिस्तानी समाज में चेतना फैलाने का काम कर रहे थे. कुछ को पाकिस्तानी सेना के लोगों ने सीधे तौर पर मार डाला था लेकिन कुछ को किसी आतंकवादी संगठन के लोगों ने मारा और ज़िम्मेदारी ली. जानकार बताते हैं कि पाकिस्तान में आतंकवादी संगठन लगभग पूरी तरह से आई एस आई और फौज की कृपा से चलते हैं इसलिए वहां पर लोकतंत्र और मानवाधिकारों का जो भी खात्मा हो रहा है उसके लिए आई एस आई और फौज ही पूरी तरह से ज़िम्मेदार है.

Tuesday, May 3, 2011

जीता कोई भी हो हारा पाकिस्तान ही है

शेष नारायण सिंह

करीब १० साल की कोशिश के बाद अमरीका ने ओसामा बिन लादेन को मार डाला. पूरी दुनिया में आतंक का पर्याय बन चुके ओसामा बिन लादेन को अमरीका ने ही बन्दूक के रास्ते पर डाला था और उसका इस्तेमाल किया था. जब पाकिस्तान में जनरल जिया उल हक का राज था तो अमरीका ने अफगानिस्तान में घुस आये सोवियत फौजियों को भगाने के लिए जो योद्धा तैयार किये थे , ओसामा बिन लादेन उसके मुखिया थे. अमरीका ने उनकी खूब मदद की . खूब हथियार दिया , आर्थिक सहायता भी खूब किया और अपने काम के लिए इस्तेमाल किया . इस दौर में जनरल जिया उल हक ने भी अमरीका से खूब माल खींचा . लेकिन जब सोवियत रूस टूट गया और रूसी फौजें अफगानिस्तान से भाग गयीं तो वहां अमरीका की रूचि ख़त्म हो गयी. अमरीका ने पाकिस्तान को भी फ्रीज़र में लगा दिया और ओसामा बिन लादेन को भुला दिया . दाना पानी बंद हो गया . ओसामा ने गुस्से में अमरीका के खिलाफ काम करना शुरू कर दिया . इस बीच अफगानिस्तान में रूसियों के खिलाफ युद्ध में उसके साथ रहे तालिबान ने अफगानिस्तान की सत्ता पर क़ब्ज़ा कर लिया . इस तरह ओसामा को रहने का ठिकाना तो मिल गया लेकिन अफगानिस्तान खुद एक गरीब मुल्क था. आर्थिक गुज़र नहीं हो सकता था . ओसामा ने अमरीकी हितों को नुकसान पंहुचाने की रणनीति पर काम करना शुरू कर दिया . इस तरह का पहला बड़ा हमला १९९३ में उसी वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर किया जिसे सितम्बर २००१ में ज़मींदोज़ किया गया .सितम्बर २००१ के पहले और बाद में भी अल कायदा ने अमरीकी हितों को बहुत नुकसान पंहुचाया . इस तरह से अमरीका की कृपा से ही आतंक की दुनिया में प्रवेश करने वाले ओसामा बिन लादेन को अमरीका ने अपना दुश्मन नंबर एक घोषित कर दिया . पिछले दस साल से अमरीका ने ओसामा को मार डालने या जिंदा पकड़ लेने के लिए खरबों डालर खर्च किया है . ओसामा को पकड़ने और आतंकवाद से लड़ने के नाम पर पाकिस्तान ने ही अमरीका से करीब बीस अरब डालर की रक़म दस्तयाब की है . लेकिन अब तक कोई सफलता नहीं मिली थी . पाकिस्तान ने ओसामा बिन लादेन को तलाशने के लिए वजीराबाद के कबायली इलाके में अपनी फौज लगा रखा है , वहां उसकी फौज को बहुत सारी मुश्किलात पेश आ रही हैं लेकिन ओसामा को तलाशने का अभियान चल रहा है . बहर हाल अमरीकी खुफिया एजेंसी , सी आई ए ने स्वतंत्र रूप से पता लगाने की कोशिश की और ओसामा मिल गया . वह पाकिस्तान के एक हिल स्टेशन पर आराम की ज़िन्दगी गुज़ार रहा था. जब अमरीका को पता चला कि पाकिस्तानी फौज के इतने महत्वपूर्ण शहर में ओसामा रह रहा है और पाकिस्तानी सेना के मुखिया अमरीका से मिलने वाली आर्थिक सहायता के बदले उसकी तलाश देश के उत्तरी दुर्गम इलाकों में करवा रहे हैं , तो अमरीकी हुकूमत की समझ में फ़ौरन खेल आ गया. उनको पूरी तरह से पता लग गया कि पाकिस्तान के असली हुक्मरान वहां के फौजी अफसर हैं और वे ओसामा बिन लादेन को किसी भी सूरत में अमरीका के हवाले नहीं करने वाले हैं . शायद उसी के बाद सी आई ए ने तय किया कि ओसामा प्रोजेक्ट पर बिना पाकिस्तानी सहयोग के काम किया जाएगा . ओसामा को ख़त्म करने में अमरीका को सफलता केवल इसी रणनीतिक सोच की वजह से मिली है .
ओसामा बिन लादेन के मारे जाने का दुनिया के अलग अलग देशों में अलग अलग असर पड़ेगा . मसलन अमरीका में तो राष्ट्रपति ओबामा को दुबारा राष्ट्रपति बनने में आसानी होगी .जहां तक अमरीका के खिलाफ अल कायदा के आतंकवाद का सवाल है उस पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला है . पिछले दस साल से वैसे भी ओसामा बिन लादेन का सीधे तौर पर अलकायदा के काम में दखल नहीं था लेकिन अल कायदा की गतिविधियों में कहीं कोई कमी नहीं आई थी . इस घटना का सबसे ज्यादा असर पाकिस्तान में महसूस किया जाएगा . इस बात की पूरी संभावना है कि अब अमरीका पाकिस्तान को वह रक़म देना भी बंद कर देगा जो अब तक प्रोजेक्ट ओसामा के नाम पर बंधी हुई थी. यह कोई मामूली दौलत नहीं थी . इस से एक बार फिर पाकिस्तान के सामने आर्थिक संकट के हालात पैदा हो सकते हैं . लेकिन पाकिस्तान के लिए इस से भी बुरा होने वाला है. पिछले दस साल से मुशर्रफ से लेकर ज़रदारी तक पूरी दुनिया में बताते रहे हैं कि ओसामा पाकिस्तान में नहीं है . अगर होगा भी तो कहीं उत्तर के वजीरिस्तान इलाके में होगा . अब जब ओसामा को एबटाबाद जैसे अहम शहर में पकड़कर मार दिया गया है तो पाकिस्तानी हुकूमत के लिए बहुत ही मुश्किल पेश आने वाली है . उसकी विश्वसनीयता पर संकट पैदा हो चुका है . हालांकि इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि ज़रदारी, गीलानी और रहमान मलिक जैसे राजनीतिक नेताओं को पाकिस्तानी फौज ने बताया ही न हो कि ओसामा उनकी हिफाज़त में है लेकिन यह तो और भी बुरा है . दुनिया के सामने तो फौज भी सिविलियन सरकार को ही सामने करके बात करती है . हाँ इस बात में कोई दम नहीं कि पाकिस्तानी फौज़ को भी नहीं मालूम था कि ओसामा पाकिस्तान की मिलटरी अकेडमी वाले शहर में ही रह रहा है . वह लगभग पूरी तरह से सेना की कृपा से ही रह रहा था .इसके कई कारण हैं . ओसामा के नाम पर ही पाकिस्तान को अमरीकी मदद मिलती थी . इतने कीमती आदमी को सहेज कर रखना किसी के लिए भी ज़रूरी होता है . हालांकि यह बात भी भरोसे लायक नहीं लगती कि बिना पाकिस्तानी मदद के इतना बड़ा कारनामा किया जा सकता है . हाँ यह हो सकता हो कि आपरेशन शुरू होने के ठीक पहले अमरीकी फौज के कुछ बड़े अफसर पाकिस्तानी सेना प्रमुख के पास चले गए हों और उन्हें कहा हो कि वे लोग एबटाबाद में कुछ बड़ा काम करने वाले हैं ,उसमें पूरी मदद करें . ज़ाहिर है कि जनरल परवेज़ कयानी को मौक़ा ही नहीं मिला होगा को वे ओसामा बिन ल्लादें को कहीं और शिफ्ट कर सकें . बिना पाकिस्तानी फौज़ को भरोसे में लिए यह काम किसी भी सूरत में नहीं किया जा सकता था. इसे पूरी तरह से अमरीकी आपरेशन बता कर पाकिस्तान आने वाले दिनों में ओसामा के समर्थकों से आ रहे खतरों से बचने की सोच रहा होगा . जो भी हो एक राष्ट्रके रूप में पाकिस्तान के सामने भविष्य में बहुत ही मुश्किल पेश आने वाली है .

Tuesday, March 1, 2011

पाकिस्तान के आतंरिक मामलों में अमरीका की भारी दखल

शेष नारायण सिंह

पाकिस्तान अब अमरीका के चंगुल में बुरी तरह से फंस गया है और छूटने के लिए छटपटा रहा है.लेकिन पिछले साठ वर्षों से पाकिस्तानी हुकूमत को पाल रही अमरीकी विदेश नीति पाकिस्तान को आसानी से छोड़ने वाली नहीं है . जनरल अयूब खां से लेकर अब तक पाकिस्तान का हर तानाशाह अपने खुद के लिए और अपने देश के लिए अमरीका से खैरात लेता रहा है . ज़ाहिर है अमरीका अपने खरबों डालर को ऐसे ही नहीं डूबने देगा .पाकिस्तानी अवाम में अमरीकी दादागीरी के प्रति बहुत बड़ी नफरत का भाव है लेकिन हुकूमत के लोग चुप रहते हैं . अब लगता है कि हुकूमत को भी अपना रुख साफ़ करने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है . पाकिस्तान की राजधानी लाहौर में दो लोगों के क़त्ल के आरोप में पकडे गए अमरीकी नागरिक रेमंड डेवीस की गिरफ्तारी के बाद मामला पब्लिक डोमेन में आया और रोज़ ही बिगड़ता जा रहा है. पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आई एस आई ने दावा किया है कि रेमंड डेवीस अमरीकी सी आई ए का एजेंट है और उसे ठेकेदारी का कवर देकर पाकिस्तानी सेना की गतिविधियों पर नज़र रखने को कहा गया था . आई एस आई ने मांग की है कि अमरीका अपने उन सभी सी आई ए एजेंटों के बारे में जानकारी दे जिन्हें उसने पाकिस्तान में ठेकेदार के रूप में काम करने के लिए तैनात किया है . पाकिस्तान का आरोप है कि सी आई ए ने बहुत बड़ी संख्या में अपने एजेंटों को पाकिस्तान में तैनात कर रखा है लेकिन उनके बारे में पाकिस्तानी अधिकारियों को कोई जानकारी नहीं है . अमरीका पाकिस्तान की इस बात को मानने को तैयार नहीं है . ताज़ा खबर यह है कि अमरीकी राष्ट्रपति के घर,व्हाईट हाउस से पाकिस्तान सरकार को चेतावनी दे दी गयी है कि रेमंड डेवीस अमरीकी राजनयिक है और उसे वियेना कन्वेंशन के नियमों अनुसार एक राजनयिक का सम्मान मिलना चाहिए .लेकिन पाकिस्तान सरकार के कुछ विभाग अपनी अकड़ में हैं. खबर है कि पेशावर से एक और अमरीकी नागरिक को गिरफ्तार कर लिया गया है . उस पर भी आई एस आई ने आरोप लगाया है कि वह जासूसी कर रहा था. वेस्ट वर्जीनिया का रहने वाले इस व्यक्ति का नाम मार्क देहावेन है लेकिन यह पेशावर में अहमद हारून बन कर रह रहा था .इन सारी घटनाओं का मतलब यह है कि पाकिस्तानी हुकूमत में कुछ ऐसे लोग हैं जो दोनों देशों के बीच के रिश्ते खराब करने पर आमादा है .

पाकिस्तान में और बाकी दुनिया में सभी जानते हैं कि पाकिस्तान की औकात अमरीका को चुनौती देने की नहीं है लेकिन पाकिस्तान की सरकार को यह रुख इसलिए लेना पड़ रहा है कि रेमंड डेवीस के मामले में पाकिस्तानी अवाम में अमरीका के खिलाफ बहुत गुस्सा है और उस गुस्से को काबू में करने के लिए पाकिस्तानी हुक्मरान अमरीका की अनुमति से अमरीका के खिलाफ सख्त रुख अपनाने का अभिनय कर रहे हैं. रेमंड देसस के मामले में पाकिस्तान में इतनी हडकंप का कारण यह है कि पाकिस्तान में फौज़ के आशीर्वाद से चलने वाले आतंकवाद का सबसे बड़ा सरगना, हाफ़िज़ मुहम्मद सईद खुद रेमंड डेवीस के मसले को तूल दे रहा है. हाफ़िज़ सईद का गुस्सा इसलिए भी सातवें आसमान पर है सी आई ए ने उसी पर नज़र रखने के लिए इस रेमंड डेवीस को तैनात किया था .यहाँ एक बात समझ लेने की है कि अमरीका ने पाकिस्तान की सरकार को यह आज़ादी भी नहीं दी है कि वह पाकिस्तानी अवाम के साथ खडी नज़र आये . अमरीकी फौज, सी आई ए और सिविलियन सरकार को पाकिस्तान में मौजूद अमरीका विरोध के माहौल को ख़त्म करने की पूरी ड्यूटी दी गयी है . जानकार बताते हैं कि अमरीकी विदेश विभाग ने साफ़ कह दिया है कि अगर पाकिस्तानी जनता के गुस्से को शांत करने में हुकूमत नाकाम रहती है तो भविष्य में खर्चा पानी मिलना बंद हो जाएगा . पाकिस्तानी राजनीति का कोई भी जानकार बता देगा कि अगर अमरीकी मदद मिलनी बंद हो जायेगी तो पाकिस्तान में भूखों मरने की नौबत आ जायेगी. अमरीकी राष्ट्रपति की ओर से मिली धमकी और पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था की खस्ता हालत को ध्यान में रखते हुए अब पाकिस्तानी खुफिया तंत्र के लोगों की समझ में आने लगा है कि अमरीका पर एक हद से ज्यादा दबाव नहीं डाला जा सकता .इस पृष्ठभूमि में पाकिस्तानी का रवैया थोडा लचीला हुआ है . पाकिस्तानी आई एस आई के एक अफसर ने वाशिंगटन पोस्ट के संवाददाता को बताया कि पाकिस्तान चाहता है कि अमरीकी उनके देश में जासूसी तो करें लेकिन उन्हने भी बराबरी की इज़्ज़त दें . गौर करने की बात यह है कि अमरीकी नागरिक, रेमंड डेवीस ने जिन दो पाकिस्तानी नागरिकों को गोली मारी थी वे भी पाकिस्तानी खुफिया तंत्र के कर्मचारी थे और वारदात के वक़्त रेमंड डेवीस का पीछा कर रहे थे. पारंपरिक रूप से आई एस आई और सी आई ए के बीच दोस्ताना रिश्ते रहे हैं . अगर रेमंड डेवीस ने किसी आम पाकिस्तानी नागरिक को मार डाला होता तो शायद पाकिस्तान सरकार को कोई एतराज़ न होता लेकिन आई एस आई के कर्मचारियों की ह्त्या के बाद मामला गरमा गया .. अगर पाकिस्तानी सरकार कोई एक्शन न लेती तो आई एस आई में ही बगावत के खतरे पैदा हो गए थे. बात को हल करने के लिए अमरीकी सेना के सभी विभागों के प्रमुखों की कमेटी के अध्यक्ष एडमिरल माइक मुलेन और पाकिस्तानी सेना के मुखिया जनरल अशफाक परवेज़ कयानी ने पिछले दिनों ओमान में मुलाक़ात की और समस्या का हल तलाशने की कोशिश की .पाकिस्तानी सेना के पूर्व प्रमुख जहांगीर करामत ने बताया कि दोनों ही सैन्य अधिकारियों ने मामले को रफा दफा करने की कोशिश की . सिद्धांत रूप में दोनों ही अफसरों में सहमति हो गयी हैं . अब बस यह देखा जा रहा है कि समझौता करने के लिए आई एस आई और जनरल कयानी अमरीकियों से कितना माल झटक सकते हैं . इसके अलावा डेवीस को रिहा करने के बदले पाकिस्तानी फौज की कोशिश है कि अमरीका की ब्रूकलिन कोर्ट में आई एस आई के पूर्व प्रमुख अहमद शुजा पाशा के खिलाफ दर्ज वह मामला भी ख़त्म हो जाए. अहमद शुजा पाशा के खिलाफ नवम्बर २००८ में मुंबई में हुए आतंकवादी हमले के सिलसिले में मुक़दमा दर्ज है . पाकिस्तानी हुकूमत के लिए रेमंड डेवीस को छोड़ना बहुत मुश्किल होगा क्योंकि पाकिस्तानी आतंकवादी संगठनों के आदि पुरुष हाफ़िज़ मुहम्मद सईद ने ऐसा माहौल बना दिया है कि पाकिस्तानी अवाम डेवीस को पाकिस्तान का सबसे बड़ा दुश्मन मानती है . लाहौर की सडकों पर हाफ़िज़ मुहम्म्द सईद के आशीर्वाद से रोज़ ही जुलूस निकाले जा रहे हैं और रेमंड डेवीस को फांसी देने की मांग की जा रही है . हाफ़िज़ सईद पाकिस्तान की फौजी राजनीति में बहुत ही प्रभावशाली व्यक्ति है . . कुल मिलाकर हालात ऐसे हैं कि पाकिस्तान और अमरीका के रिश्ते रेमंड डेवीस के चक्कर में ऐसे मुकाम पर पंहुच गए हैं जहां से बिना किसी नुक्सान के फिर से सामान्य रिश्ते कायम होना बहुत ही मुश्किल है

Saturday, October 9, 2010

जनरल मुशर्रफ ने माना ,कश्मीर के आतंकवाद में पाकिस्तान का हाथ

शेष नारायण सिंह

( मूल लेख दैनिक जागरण में छप चुका है )

पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति ,जनरल परवेज़ मुशर्रफ ने एक जर्मन अखबार के साथ बातचीत में कहा है कि कश्मीर में आतंक का राज कायम करने की कोशिश में लगे आतंकवादियों को पाकिस्तान सरकार ने ही ट्रेनिंग दी है और उनकी देख-भाल भी पाकिस्तानी सरकार ही कर रही है . परवेज़ मुशर्रफ के इस इकबालिया बयान के बाद दिल्ली दरबार सकते में है . भारत सरकार के विदेश मंत्रालय के करता धरता समझ नहीं पा रहे हैं कि पाकिस्तान की राजनीति में शीर्ष पर रह चुके एक फौजी जनरल की बात को कूटनीतिक भाषा में कैसे फिट करें.हालांकि भारत समेत पूरी दुनिया को मालूम है कि कश्मीर में आतंकवाद पूरी तरह से पाकिस्तान की कृपा से ही फल फूल रहा है लेकिन अभी तक पाकिस्तानी इस्टेब्लिशमेंट ने इस बात को कभी नहीं स्वीकार किया था . पाकिस्तान का राष्ट्रपति रहते हुए जनरल मुशर्रफ ने हमेशा यही कहा कि कश्मीर में जो भी हो रहा है वह कश्मीरियों की आज़ादी की लड़ाई है और पाकिस्तान की सरकार कश्मीर में लड़ रहे लोगों को केवल नैतिक समर्थन दे रही है . भारत के विदेश मंत्रालय के लिए भी आसान था कि वह कूटनीतिक स्तर पर अपनी बात कहता रहे और कोई मज़बूत एक्शन न लेना पड़े . लेकिन अब बात बदल गयी है . अब तो कश्मीर में आतंकवाद को इस्तेमाल करने वाले एक बड़े फौजी और कई वर्षों तक सत्ता पर काबिज़ रहे जनरल ने साफ़ साफ़ कह दिया है कि हाँ हम कश्मीर में आतंकवाद फैला रहे हैं , जो करना हो कर लो. यह भारत के लिए मुश्किल है . इस तरह की साफगोई के बाद तो भारत को पाकिस्तान के साथ वही करना चाहिए जो अल-कायदा का मददगार साबित हो जाने के बाद ,तालिबान के खिलाफ अमरीका ने किया था या १९६५ में कश्मीर में घुसपैठ करा रही पाकिस्तान की जनरल अयूब सरकार को औकात बताने के लिए लाल बहादुर शास्त्री ने किया था . लेकिन अब ज़माना बदल गया है . शरारत पर आमादा पाकिस्तान को अब सैनिक भाषा में जवाब नहीं दिया जा सकता क्योंकि अभी पाकिस्तान की सरकार औपचारिक रूप से स्वीकार नहीं कर रही है कि कश्मीर में आतंकवाद उनकी तरफ से करवाया जा रहा है . पाकिस्तान की हालत तो मुशर्रफ के खुलासे के बाद बहुत ही खराब है . पाकिस्तान सरकार के मालिक सन्न हैं .औपचारिक रूप से पाकिस्तानी सरकार के प्रवक्ता ने कह दिया है कि मुशर्रफ के बयान बेबुनियाद हैं लेकिन सबको मालूम है कि मुशर्रफ को नकार पाना पाकिस्तानी फौज और सिविलियन सरकार ,दोनों के लिए असंभव है . पाकिस्तानी सरकार के प्रवक्ता ने कहा है कि उसे नहीं मालूम कि मुशर्रफ ने यह बात सार्वजनिक रूप से क्यों कही वैसे अंतर राष्ट्रीय कूटनीतिक दबाव के डर से पाकिस्तानी सरकार कह रही है कि सरकार इन बेबुनियाद आरोपों का खंडन करती है यह अलग बात है कि पाकिस्तान कश्मीरी लोगों के संघर्ष का समर्थन करता है.

मुशर्रफ आजकल पाकिस्तान की राजनीति में वापसी के लिए जी तोड़ कोशिश कर रहे हैं . उन्हें मालूम है कि अमरीका की मर्जी के बिना पाकिस्तान में राज नहीं किया जा सकता. आजकल पाकिस्तान में अमरीका की रूचि केवल इतनी है कि वह उसे अल-कायदा को ख़त्म करने के लिए इस्तेमाल करना चाहता है . पाकिस्तान की राजनीति का स्थायी भाव भारत का विरोध करने की राजनीतिक रणनीति है . .अमरीका अब भारत की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ा चुका है . ज़ाहिर है वह भारत से दुश्मनी करने वाले को पाकिस्तान का चार्ज देने में संकोच करेगा . उसे ऐसे किसी बन्दे की तलाश है जो भारत को दुश्मन नंबर एक न माने. इस पृष्ठभूमि में जनरल मुशर्रफ से बढ़िया कोई आदमी हो ही नहीं सकता क्योंकि मुशर्रफ अमरीका की इच्छा का आदर करने के लिए भारत के खिलाफ दुश्मने में कमी लाने में कोई संकोच नहीं करेगें . उन्होंने अमरीका को खुश रखने के लिए पाकिस्तान की अफगान नीति को एक दिन में बदल दिया था . तालिबान की सरकार को पाकिस्तान ने ही बनवाया था लेकिन जब अमरीका ने कहा कि उन्हें तालिबान के खिलाफ काम करना है , मुशर्रफ बिना पलक झपके तैयार हो गए थे. उन्हें उम्मीद है कि भारत के साथ दुश्मनी करने वाले को अब अमरीका पाकिस्तान के तख़्त पर नहीं बैठाना चाहता . उन्हें यह भी मालूम है कि मौजूदा ज़रदारी-गीलानी सरकार से भी अमरीका पिंड छुडाना चाहता है . फौज के मौजूदा मुखिया के दिलो-दिमाग पर भारत के खिलाफ नफरत कूट कूट कर भरी हुई है . ऐसी हालत में पाकिस्तान पर राज करने के लिए जिस पाकिस्तानी की तलाश अमरीका को है , जनरल मुशर्रफ अपने आप को उसी सांचे में फिट काना चाहते हैं . अमरीका और भारत की पसंद की बातें करके जनरल मुशर्रफ अपने प्रति सही माहौल बनाने के चक्कर में हैं और उनका यह इकबालिया बयान इसी सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए . जब यह लगभग पक्का हो चुका है कि पाकिस्तान की सिविलियन सरकार के दिन गिने चुने रह गए हैं, भारत के लिए भी पाकिस्तान में जनरल कयानी से बेहतर मुशर्रफ ही रहेगें क्योंकि वे अमरीकी हुक्म को मानने के लिए किसी भी सीमा तक जा सकते हैं .दुनिया जानती है कि अमरीका भारत को खुश रखने की विदेश नीति का गंभीरता से पालन कर रहा है

Friday, October 8, 2010

पाकिस्तान में सत्ता परिवर्तन की अफवाह , मुशर्रफ की वापसी की चर्चा

शेष नारायण सिंह

पाकिस्तान पर अमरीकी शिकंजा कसता जा रहा है. गुरुवार को फिर पाकिस्तान में ५० ट्रकों को आग के हवाले कर दिया गया जो अमरीकी सेना के लिए पेट्रोल ,डीज़ल आदि लेकर अफगानिस्तान जा रहे थे. कल भी कुछ ट्रकों को आग के हवाले कर दिया गया था. खबर है कि अमरीका ने तय किया है कि अब नैटो की अफगानिस्तान में तैनात सेनाओं के लिए सारा सामान रूस के रास्ते भेजा जायेगा . पाकिस्तान में सक्रिय आतंकवादियों के बारे में अमरीका किसी बड़ी कार्रवाई की तैयारी कर रहा है. अब अमरीका पाकिस्तान को कोई भी स्पेस देने को तैयार नहीं है . पाकिस्तान की सिविलियन सरकार और सेना प्रमुख जनरल कयानी को अब अमरीकी बहुत दिनों तक बर्दाश्त करने के मूड में नहीं दीखते.पाकिस्तान की तरफ से अमरीका में काम कर रही कुछ लाबी कंपनियों ने बहुत ही सोच विचार कर एक अफवाह फैलाई थी कि नवम्बर में भारत की यात्रा पर जा रहे अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा भारत से कहने वाले हैं कि कश्मीर के मामले में पाकिस्तान के साथ सुलह सफाई कर लो तो भारत को सुरक्षा परिषद् में शामिल करने पर विचार किया जाएगा . पाकिस्तान की आतंरिक राजनीति में इस अफवाह के ज़रिये बहुत काम हो सकता था . आम तौर पर इस तरह की अफवाहों का खंडन नहीं किया जाता . और मित्र देश को इस अफवाह के सहारे कुछ राजनीतिक माइलेज लेने दिया जाता है . लेकिन अब अमरीकी प्रशासन पाकिस्तान के साथ थोड़ी सख्ती बरत रहा है शायद इसी योजना के तहत एक अंग्रेज़ी टेलीविज़न चैनेल से बातचीत में भारत में अमरीकी राजदूत , रोमर ने साफ़ कह दिया कि कश्मीर में अमरीका किसी तरह का हस्तक्षेप नहीं करेगा क्योंकि अमरीका मानता है कि कश्मीर का मामला शुद्ध रूप से भारत का आन्तरिक मामला है . इस खंडन के बाद पाकिस्तानी हुक्मरान को खासी परेशानी का सामना करना पड़ सकता है . इस बीच पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद में यह चर्चा ज़ोरों पर है कि अमरीका पाकिस्तानी फौज़ और सिविलियन सरकार दोनों के आला हाकिम बदलना चाहता है . अफवाहों का बाज़ार गर्म है और पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति और सेना प्रमुख जनरल परवेज़ मुशर्रफ को झाड़ पोंछ कर तैयार किया जा रहा है . दक्षिण एशिया की नयी भू-राजनैतिक साच्चाई के मद्दे नज़र अब अमरीका पाकिस्तान में ऐसा राजा तैनात करना चाहता है जो भारत के साथ दुश्मनी को थोडा कम करे . अमरीका ने जनरल मुशर्रफ को बैपरा हुआ है. उसे मालूम है कि जनरल मुशर्रफ को अपना रुख बदलने में कोई टाइम नहीं लगता . इस पृष्ठभूमि में जनरल मुशर्रफ से बढ़िया कोई आदमी हो ही नहीं सकता क्योंकि मुशर्रफ अमरीका की इच्छा का आदर करने के लिए भारत के खिलाफ दुश्मनी में कमी लाने में कोई संकोच नहीं करेगें . उन्होंने अमरीका को खुश रखने के लिए पाकिस्तान की अफगान नीति को एक दिन में बदल दिया था . तालिबान की सरकार को पाकिस्तान ने ही बनवाया था लेकिन जब अमरीका ने कहा कि उन्हें तालिबान के खिलाफ काम करना है , मुशर्रफ बिना पलक झपके तैयार हो गए थे. उन्हें उम्मीद है कि भारत के साथ दुश्मनी करने वाले को अब अमरीका पाकिस्तान के तख़्त पर नहीं बैठाना चाहता . उन्हें यह भी मालूम है कि मौजूदा ज़रदारी-गीलानी सरकार से भी अमरीका पिंड छुडाना चाहता है . फौज के मौजूदा मुखिया के दिलो-दिमाग पर भारत के खिलाफ नफरत कूट कूट कर भरी हुई है . ऐसी हालत में पाकिस्तान पर राज करने के लिए जिस पाकिस्तानी की तलाश अमरीका को है , जनरल मुशर्रफ अपने आप को उसी सांचे में फिट काना चाहते हैं . अमरीका और भारत की पसंद की बातें करके जनरल मुशर्रफ अपने प्रति सही माहौल बनाने के चक्कर में हैं .
जनरल परवेज़ मुशर्रफ का एक जर्मन अखबार को दिया गया बयान इसी रोशनी में देखा जाना चाहिए जिसमें उन्होंने कहा है कि कश्मीर में आतंक का राज कायम करने की कोशिश में लगे आतंकवादियों को पाकिस्तान सरकार ने ही ट्रेनिंग दी है और उनकी देख-भाल भी पाकिस्तानी सरकार ही कर रही है . परवेज़ मुशर्रफ के इस इकबालिया बयान के बाद दुनिया भर के कूटनीतिक हलकों में यह चर्चा शुरू हो गयी है कि जनरल मुशर्रफ अमरीकियों के पसंद की बात कह कर उनके करीब आने की कोशिश कर रहे हैं . पाकिस्तान का राष्ट्रपति रहते हुए जनरल मुशर्रफ ने हमेशा यही कहा कि कश्मीर में जो भी हो रहा है वह कश्मीरियों की आज़ादी की लड़ाई है और पाकिस्तान की सरकार कश्मीर में लड़ रहे लोगों को केवल नैतिक समर्थन दे रही है . लेकिन अब उनकी बोली बदल रही है . पाकिस्तान में अमरीका की रूचि केवल इतनी है कि वह उसे अल-कायदा को ख़त्म करने के लिए इस्तेमाल करना चाहता है . .अमरीका अब भारत की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ा चुका है . ज़ाहिर है वह भारत से दुश्मनी करने वाले को पाकिस्तान का चार्ज देने में संकोच करेगा . उसे ऐसे किसी बन्दे की तलाश है जो भारत को दुश्मन नंबर एक न माने. और मुशर्रफ के बयान को कूटनीतिक हलकों में इसी पृष्ठभूमि के साथ समझा जा रहा है .

Monday, October 4, 2010

तबाही की कगार पर खड़े पाकिस्तान के हुक्मरान शेखचिल्ली के वारिस हैं .

शेष नारायण सिंह

पाकिस्तान के विदेशमंत्री शाह महमूद कुरेशी ने एक बार फिर कश्मीर की बात अंतर राष्ट्रीय मंच पर की है . पुरानी कहावत है कि जब गीदड़ की मौत आती है तो वह शहर की तरफ भागता है .इस बार यह कहावत पाकिस्तान की विदेश नीति के बारे में फिट बैठ रही है . पाकिस्तान आजकल तबाही के दौर से गुज़र रहा है.अमरीका और सउदी अरब से मदद न मिले तो वहां रोटी तक के लाले हैं लेकिन पाकिस्तानी फौज है कि भारत को गालियाँ देने से बाज़ नहीं आ रही है .अमरीका के राष्ट्रपति ने भी पाकिस्तान को बता दिया है कि अगर अफगान तालिबान को अपने देश में छुपने का मौक़ा दते रहे तो पाकिस्तान को अमरीकी मदद मिलना तो बंद ही हो जायेगी , उस के खिलाफ और भी सख्ती की जा सकती है .लेकिन पाकिस्तानी फौज की समस्या दूसरी है . पाकिस्तान की फौज के मौजूदा नेता वे लोग हैं जिन्होंने १९७१ में पाकिस्तानी सेना को भारत के सामने घुटने टेकते देखा था. वे बदले की आग में जल रहे हैं . उनको लगता है कि १९७१ में जिस तरह से भारत की मदद से पाकिस्तान को तोड़कर एक अलग देश बना दिया गया था, उसी तरह से पाकिस्तानी फौज कश्मीर को भी भारत से अलग कर सकती है . कल्पना की उड़ान पर रोक लगाने की किसी तरकीब का अब तक आविष्कार नहीं हुआ है ,इसलिए पाकिस्तानी फौज़ के मुखिया , अशफाक परवेज़ कयानी सोचते रहते हैं कि वे अपने देश की फौज के उस अपमान का बदला कैसे लें जो भारत ने उसे १९७१ में बुरी तरह से हराकर दिया था . हालांकि ऐशो आराम की ज़िंदगी जी रही ,पाकिस्तानी फौज़ के लिए यह बिलकुल असंभव है लेकिन किसी को अपने मन में कुछ सोचने से कौन रोक सकता है. अब पाकिस्तान को अपने भविष्य को सुरक्षित करने के लिए बहुत ही सकारात्मक सोच का परिचय देना होगा क्योंकि अगर भारत के धीरज का बाँध कहीं टूट गया तो पाकिस्तानी फौज के लिए बहुत ज्यादा परेशानी खडी हो सकती है .क्योंकि अमरीका की कृपा पर पल रही पाकिस्तानी फौज को सी आई ए के निदेशक पनेटा ने साफ़ बता दिया है कि आफर उत्तर पाकिस्तान में छुपे हुए तालिबान और अल-कायदा के आतंकियों को फ़ौरन काबू न किया गया तो उनके काम में पाकिस्तानी हुकूमत की साझेदारी पक्की मान ली जायेगी. यह धमकी बहुत ही सख्त है . अफगानिस्तान में बुरी तरह फंस गए अमरीका के लिए वहां से जल्द से जल्द निकला भागना सबसे बड़ी प्राथमिकता है लेकिन पाकिस्तान की मिलीभगत की वजह से सब गड़बड़ हो रहा है .पाकिस्तान के उत्तरी इलाकों में अमरीकी सेना का काम पूरी तरह से सी आई ए के हाथ में है.इस काम के लिए वहां अमरीकी सैनिक नहीं लगाए गए हैं . पाकिस्तान और अफगानिस्तान के वे नागरिक काम कर रहे हैं जिन्होंने सी आई ए की नौकरी स्वीकार कर ली है .इस में अमरीकी नागरिकों के मारे जाने का ख़तरा पूरी तरह से ख़त्म कर दिया गया है . दूसरी अहम बात यह है कि सी आई ए की तरफ से काम करने वाले यह लड़ाके जो हथियार इस्तेमाल कर रहे हैं वह अमरीकी फौज़ ने ही दिया है. इन हथियारों में ड्रोन भी शामिल हैं जो बिना किसी सैनिक की जान को ख़तरा बने ,अन्दर तक घुस कर मार करते हैं. पाकिस्तानी फौज को यह सब पसंद नहीं आ रहा है क्योंकि वह तो तालिबान आतंकियों की सरपरस्त है और उसे अमरीका को डराने के लिए तालिबान को हमेशा सुरक्षित रखना चाहती है . शायद इसीलिए भारत और अमरीका की नयी दोस्ती को पंचर करने के उद्देश्य से पाकिस्तानी फौज़ ने शाह महमूद कुरेशी को डांट कर संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर मुद्दा उठवाया है . लेकिन अब इस बन्दरघुडकी को न तो अमरीका गंभीरता से लेता है और न ही भारत . अब सारी दुनिया को मालूम है कि भारत एक उभरती हुई महाशक्ति है जबकि पाकिस्तान अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है . इसीलिए पिछले २ महीने में सी आई ए ने पाकिस्तानी सेना के एतराज़ की परवाह न करते हुए करीब २४ ड्रोन हमले किये हैं और खासी बड़ी संख्या में अल कायदा और तालिबान के आतंकवादियों को घेर घेर कर मारा है . जाहिर है कि यह सारे आतंकी आई एस आई के ख़ास बन्दे हैं और इनके मारे जाने का अफ़सोस सेना प्रमुख जनरल कयानी को बहुत ज्यादा होगा.

पाकिस्तान में भयानक बाढ़ के बाद बहुत कुछ तबाह हो गया है . गरीब आदमी दाने दाने को मुहताज है . राजनीतिक और धार्मिक नेता, जो भी विदेशी मदद मिलती है ,उसकी लूट मचाये हुए हैं . पाकिस्तानी फौज द्वारा सत्ता पर क़ब्ज़ा कर लेने की आशंका हमेशा बनी रहती है . इस बीच पाकिस्तान के पूर्व सेनाध्यक्ष और फौजी तानाशाह , जनरल परवेज़ मुशर्रफ ने भी वापस आकर राजनीति राजनीति खेलने की धमकी दे दी है . जनरल मुशर्रफ की धमकी को अगर पाकिस्तान गंभीरता से नहीं लेगा तो उसके सामने बड़ी मुश्किल पेश आयेगी. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि परवेज़ मुशर्रफ के चाहने वाले पाकिस्तानी फौज़ में बड़ी संख्या में मौजूद हैं. हालांकि मौजूदा जनरल उन्हें आसानी से सत्ता हथियाने नहीं देगा लेकिन उनकी कोशिश भी पाकिस्तान में अस्थिरता का माहौल बना सकती है . ऐसी हालत में पाकिस्तानी सरकार कई मोर्चों पर एक साथ लड़ती नज़र आ रही है . यह पाकिस्तानी जनता और हुकूमत के हित में होगा कि वह भारत की तरफ दोस्ती का हाथ बढाए और उसे दुश्मन की तरह पेश करना बंद कर दे. सरकार के इस एक क़दम से पाकिस्तान की बहुत सारी मुसीबतें कम हो जायेगी. पाकिस्तान में ऐसे लोगों की बड़ी संख्या है जो मानते हैं कि अगर भारत का सक्रिय सहयोग मिल जाए तो बाढ़ के नरक से जूझ रहे पाकिस्तानी लोगों को बहुत बड़ी राहत मिल जायगी. लेकिन फौज का भारत के प्रति नफरत का रवैया इस मामले में आड़े आ रहा है . उम्मीद की जानी चाहिए कि हालात की गंभीरता के मद्दे-नज़र पाकिस्तानी शासकों को सद्बुद्धि मिलेगी और वे अपने देश को बचाने में भारत का सहयोग लें .

Sunday, September 26, 2010

भारत ने पाकिस्तान को कश्मीर खाली करने की चेतावनी दी

शेष नारायण सिंह

( मूल लेख २६ सितम्बर के दैनिक जागरण में छापा हुआ है )

भारत के विदेश मंत्री एस एम कृष्णा आम तौर पर कमज़ोर राजनेता माने जाते हैं .और विदेश मंत्री के रूप में तो खैर वह बहुत ही कमज़ोर हैं ही . विदेश मंत्रालय के अफसरों में भी शायद अब लीदार्शोप रोल १९८० के बाद ग्रेजुएशन करने वाले लोग आ गए हैं जो अपने समय के सबसे कुशाग्रबुद्धि लोग नहीं हैं . उस दौर में बेहतरीन टैलेंट अन्य क्षेत्रों में जाने लगा था .शायद इसीलिये कूटनीति के क्षेत्र में पाकिस्तान जैसा मामूली मुल्क भी भारत के विदेशमंत्री को कूटनीति के मैदान में मात पर मात दे रहा था . विदेश मंत्री का संयुक्त राष्ट्र की महासभा में दिया गया भाषण इस बात को नकारता है . वहां विदेश मंत्री ने पाकिस्तान समेत बाकी दुनिया को भारत की मजबूती का अहसास करा दिया है . उन्होंने अपने भाषण में पाकिस्तान को साफ़ समझा दिया कि कश्मीर विवाद में जो सबसे महत्वपूर्ण बात होनी है उसे पाकिस्तान को सबसे पहले करना चाहिए . उन्होंने कहा कि जम्मू-कश्मीर के कुछ इलाकों से पाकिस्तान को अपना गैरकानूनी क़ब्ज़ा हटा लेना चाहिये . उन्होंने पाकिस्तान को चेतावनी दी कि उसे अब गैरज़िम्मेदार तरीके से आचरण नहीं करना चाहिए और भारत को यह बताने से बाज़ आना चाहिए कि वह कश्मीर का प्रशासन कैसे चलाये . पूरी दुनिया के समझदार लोग यह चाहते हैं कि पाकिस्तान अपने देश में मुसीबत झेल रहे आम आदमी को सम्मान का जीवन देने में अपनी सारी ताक़त लगाए लेकिन पाकिस्तानी फौज की दहशत में रहकर वहां की तथाकथित सिविलियन सरकार के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री भारत विरोधी राग अलापते रहते हैं . आज की भू भौगोलिक सच्चाई यह है कि अगर पाकिस्तानी नेता तमीज से रहें तो भारत के लोग और सरकार उसकी मदद कर सकते हैं . पाकिस्तान को यह भरोसा होना चाहिए कि भारत को इस बात में कोई रूचि नहीं है कि वह पाकिस्तान को परेशान करे लेकिन मुसीबत की असली जड़ वहां की फौज है . फौज के लिए भारत की तरफ दोस्ती का हाथ बढाना लगभग असंभव है . इसके दो कारण हैं . पहला तो यह कि भारत से दुश्मनी का हौव्वा खड़ा करके पाकिस्तानी जनरल अपने मुल्क में राजनीतिक और सिविलियन बिरादरी को सत्ता से दूर रखना चाहते हैं . इसी के आधार पर उसे चीन जैसे देशों से थोड़ी बहुत आर्थिक मदद भी मिल जाती है . लेकिन दूसरी बात सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है . आज की पाकिस्तानी फौज में टाप पर वही लोग हैं जिन्होंने १९७१ के आसपास पाकिस्तानी फौज़ में लेफ्टीनेंट के रूप में नौकरी शुरू की थी और सेना में अपने जीवन का पहला अनुभव भारत के से हार के रूप में मिला था . उनके बहुत सारे साथी भारत में युद्ध बंदी बना लिए गए थे . उस दर्द को पाकिस्तानी फौज का आला नेतृत्व अभी भूल नहीं पाया है .उसी लड़ाई में पाकिस्तान का एक बड़ा हिस्सा उस से अलग हो गया था और बंगलादेश की स्थापना हो गयी थी. पाकिस्तानी फौज़ को यह दंश हमेशा सालता रहता है . इसी दंश की पीड़ा के चक्कर में उनके एक अन्य पराजित जनरल , जिया -उल -हक ने भारत के पंजाब में खालिस्तान बनवा कर बदला लेने की कोशिश की थी . मैजूदा फौजी निजाम यही खेल कश्मीर में करने के चक्कर में है . फौज को मुगालता यह है कि उसके पास परमाणु बम है जिसके कारण भारत उस पर हमला नहीं करेगा . लेकिन ऐसा नहीं है . अगर कश्मीर में पाकिस्तानी फौज और आई एस आई ने संकट का स्तर इतना बढ़ा दिया कि भारत की एकता और अखंडता को खतरा पैदा हो गया तो भारतीय फौज पाकिस्तान को तबाह करने का माद्दा रखती है और वह उसे साबित भी कर सकती है . लेकिन फौजी जनरल को अक्ल की बात सिखा पाना थोडा टेढ़ा काम होता है . इसी तरह के हवाई किले बनाते हुए जनरल अयूब और जनरल याहया ने भारत पर हमला किया था जिसके नतीजे पाकिस्तान आज तक भोग रहा है .और उसकी आने वाली नस्लें भी भोगती रहेगीं.
ज़मीनी सच्चाई जो कुछ भी हो ,पाकिस्तानी हुक्मरान उससे बेखबर हैं .पाकिस्तानी सिविलियन सरकार के गैरज़िम्मेदार विदेश मंत्री भी आजकल अमरीका में हैं . वहां उन्होंने अमरीका से अपील की है कि उसे कश्मीर में भी उसी तरह से दखल देना चाहिये जैसे वह फिलिस्तीन में कर रहा है . अब इन पाकिस्तानी विदेशमंत्री जी को कौन समझाए कि पश्चिम एशिया में हालात दक्षिण एशिया से अलग हैं . वहां इजरायल सहित ज़्यादातर मुल्क अमरीका के दबाव में हैं .लेकिन दक्षिण एशिया में केवल पाकिस्तान पर उस तरह का अमरीकी दबाव है क्योंकि वह अमरीकी खैरात पर जिंदा है . जहां तक भारत का सवाल है ,वह एक उभरती हुई महाशक्ति है और अमरीका भारत के साथ बराबरी के रिश्ते बनाए रखने की कोशिश कर रहा है . इस लिए पाकिस्तानी हुक्मरान ,खासकर फौज को वह बेवकूफी नहीं करनी चाहिए जो१९६५ में जनरल अयूब ने की थी . उनको लगता था अकी जब वे भारत पर हमला कर देगें तो चीन भी भारत पर हमला कर देगा और भारत कश्मीर उन्हें दे देगा. ऐसा कुछ भी नहीं हुआऔर पाकिस्तानी फौज़ लगभग तबाह हो गयी. इस बार भी भारत के खिलाफ किसी भी देश से मदद मिलने की उम्मीद करना पाकिस्तानी फौज की बहुत बड़ी भूल होगी. लेकिन सच्चाई यह है कि पाकिस्तानी फौज़ के सन इकहत्तर की लड़ाई के हारे हुए अफसर बदले की आग में जल रहे हैं , वहां की तथाकथित सिविलियन सरकार पूरी तरह से फौज के सामने नतमस्तक है . कश्मीर में आई एस आई ने हालात को बहुत खराब कर दिया है . इसलिए इस बात का ख़तरा बढ़ चुका है कि पाकिस्तानी जनरल अपनी सेना के पिछले साठ साल के इतिहास से सबक न लें और भारत पर हमले की मूर्खता कर बैठें . ऐसी हालत में संयुक्त राष्ट्र के मंच पर कश्मीर से पाकिस्तान को हटने की चेतावानी देकर एस एम कृष्णा ने अच्छा काम किया है ताकि सनद रहे और अगर पाकिस्तानी फौज हमला करने के खतरे से खेलती है तो बाकी दुनिया को मालूम रहे कि भारत न तो गाफिल है और न ही पाकिस्तान पर किसी तरह की दया दिखाएगा .

Thursday, September 9, 2010

क्रिकेट टीम की वजह से पाकिस्तान में अपमान की लहर चल रही है

शेष नारायण सिंह

आम तौर पर क्रिकेट किसी भी समाज में एकता का सबसे बड़ा सूत्र माना जाता है . पाकिस्तान भी इसका अपवाद नहीं रहा है लेकिन आजकल हालत बिल्कुल उलट है . पाकिस्तानी समाज को वहां के क्रिकेट ने बुरी तरह से बाँट दिया है . अपने बेहतरीन खिलाड़ियों की बे ईमानी की तस्वीरें पूरे मुल्क ने देखी हैं, आम पाकिस्तानी बहुत नाराज़ है लेकिन कहीं कोई कार्रवाई होती न देख कर चारों तरफ परेशानी है , खिसियाहट है . पाकिस्तानी मीडिया इन खिलाड़ियों की करतूतों से भरा पड़ा है . और अब जो नयी जानकारी आई है उस से तो हद ही हो गयी है . पाकिस्तान के एक प्रमुख निजी न्यूज़ चैनल , जियो टी वी में बुधवार से ही खबर चल रही है कि लन्दन पुलिस ने जिन तीन खिलाड़ियों के खिलाफ कार्रवाई शुरू की है , वह तो अपराध का एक बहुत ही मामूली हिस्सा है . चैनल का आरोप है कि पाकिस्तानी क्रिकेट कण्ट्रोल बोर्ड के कई पदाधिकारी भी घपले में शामिल हैं और सारा घोटाला पाकिस्तानी क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के अध्यक्ष एजाज़ भट के आशीर्वाद से फल फूल रहा है. अगर यह सच है तो इसमें दो राय नहीं है कि पाकिस्तानी समाज, जो क्रिकेट की जीत को मुल्क की जीत मान कर शुतुरमुर्ग की तरह अपने को महान मानता रहा है , उसका सब कुछ लुट चुका है . वैसे भी एक राष्ट्र के रूप में पाकिस्तान के पास कुछ भी नहीं है जिसपर गर्व किया जा सके. पाकिस्तानी राजनेताओं का चरित्र ऐसा है जिस पर कोई भी शर्म से सिर झुका लेगा , अर्थव्यवस्था पूरी तरह खैरात पर चलती है, अगर अमरीका और सउदी अरब से मिलने वाली मदद बंद हो जाए तो पाकिस्तानी अवाम के सामने रोटियों के लाले पड़ जायेगें . उनकी फौज ऐसी है जिसने लडाइयां हारने का एक तरह से विश्व रिकार्ड कायम कर रखा है लेकिन वही फौज पाकिस्तानी जनता की छाती पर मूंग दलती रहती है .ऐसी हालत में पाकिस्तानी क्रिकेट टीम पाकिस्तान की दबी कुचली जनता के आत्मसम्मान का एक बड़ा संबल थी लेकिन आज जब उस टीम का अपना सम्मान पूरी तरह से दफ़न हो चुका है , तो पाकिस्तानी समाज में बहुत ज्यादा निराशा है . सडकों पर तीनों दागी खिलाड़ियों के पुतले जलाए जा रहे हैं , पूरे देश में विश्ववास का संकट पैदा हो गया है . पाकिस्तानी लोगों की मांग है कि पाकिस्तानी क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड को कुछ ऐसा करना चाहिए जिसके बाद पाकिस्तानी क्रिकेट की थोड़ी बहुत साख को वापस लाया जा सके. लेकिन ऐसा होता दिख नहीं रहा है . उधर लन्दन पुलिस लगातार तीनों दागी खिलाड़ियों सलमान बट , मुहम्मद आसिफ और मुहम्मद आमिर के ऊपर जांच का दबाव बनाए हुए है . गुरुवार को जो अभ्यास के लिए खेल हुआ उस से इन लोगों को बाहर रखा गया .लेकिन पाकिस्तान के अन्दर और बाहर इन खिलाड़ियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की मांग जोर पकडती जा रही है . इंटरनेशनल क्रिकेट काउन्सिल के चीफ इक्ज़ीक्यूटिव, हारून लोरगाट ने भी लन्दन में पाकिस्तानी क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के अध्यक्ष एजाज़ भट से मुलाक़ात करके उन्हें कुछ कार्रवाई करने की प्रेरणा दी है लेकिन अभी तक कुछ हुआ नहीं है . ज़ाहिर है पाकिस्तानी क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड कुछ नहीं कर सकता क्योंकि आम तौर पर भरोसेमंद जियो टी वी की खबरें पाकिस्तानी समाज में सच मानी जाती हैं और वे सच होती भी हैं . जब इतना भरोसेमंद चैनल किसी खबर को डंके की चोट पर प्रचारित कर रहा है तो उस पर अविश्वास करने का कोई कारण नहीं हो सकता. इसका मतलब यह हुआ कि जब एजाज़ भट खुद ही पराधी हो सकते हैं तो वे अपने साथ जुर्म में शामिल लोगों के खिलाफ क्यों कार्रवाई करेगें .ज़ाहिर है पाकिस्तान की सरकार और क्रिकेट बोर्ड अब अपने खिलाड़ियों के खिलाफ कार्रवाई न करने के बहाने ढूंढ रही है इंग्लैण्ड की यात्रा पर गयी पाकिस्तानी टीम के मैनेजर , यावर सईद ने लन्दन में कहा कि किसी खिलाड़ी के खिलाफ कोई आरोप पत्र नहीं दाखिल किया गया है इसलिए इन खिलाड़ियों पर लगे आरोपों को मीडिया की करतूत से ज्यादा कुछ नहीं माना जा सकता. उन्होंने यह भी कहा कि अभी तक खिलाड़ियों को लन्दन की पुलिस ने केवल पूछ ताछ के लिए बुलाया था , उनके खिलाफ कहीं कोई सबूत नहीं है . पाकिस्तान के क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड ने दावा किया है कि एक बैरिस्टर को लगा दिया गया है जो पाकिस्तान क्रिकेट के दागी खिलाड़ियों के बचाव का काम करेगा. बहर हाल कुल मिलाकर पाकिस्तानी हुकूमत के सभी हिस्सों के लोग बे ईमान खिलाड़ियों और उनके आकाओं को बचाने में जुटे हुए हैं . ऐसी हालत में पाकिस्तानी समाज, जो तालिबान और अल कायदा के आतंकवाद , भयानक बाढ़ और अमरीकी फौज के दबाव से त्राहि त्राहि कर रहा है . उसे अपनी क्रिकेट टीम के अच्छे काम की वजह से अपमान से थोड़ी मोहलत मिला करती थी , वह भी तीन खिलाड़ियों के चलते ख़त्म हो गयी. वैसे भी पाकिस्तानी हुकूमत में भ्रष्टाचार का चारों तरफ बोल बाला है और ताज़ा जानकारियों के हिसाब से क्रिकेट के इतिहास के सबसे बड़े घोटाले में तीन खिलाड़ियों के अलावा पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठान के बड़े बड़े सूरमा निश्चित रूप से शामिल होगें . ज़ाहिर है कोई आपराधिक मुक़दमा तो नहीं चलेगा लेकिन इतना पक्का है कि पाकिस्तानी समाज इस घोटाले से पर्दा उठने के बाद दुबारा सम्मान की तलाश करने में बहुत वक़्त लगाएगा.

रामायण, महाभारत और हनुमान पर पाकिस्तान में प्रतिबंध

प्रकाश रे
( विस्फोट.कॉम से सादर नक़ल किया गया )

पाकिस्तान में इस्लामिक कट्टरपंथ को वहां की सरकारें किस कदर अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करती हैं इसका ताजा उदाहरण वह फरमान है जिसमें संघीय सरकार ने राज्य सरकारों को आदेश दिया है कि वे ऐसी व्यवस्था करें कि राज्यों में कोई केबल टीवी वाला हिन्दू पौराणिक चरित्रों पर बनी फिल्में, एनीमेशन इत्यादि का प्रदर्शन न कर सकें. साथ ही ऐसे सीडी और डीवीडी की बिक्री पर भी पाबंदी लगाने की कोशिश की जा रही है.

पाकिस्तान अपने इतिहास के सबसे अधिक संकट के दौर से गुज़र रहा है. आतंकवाद, भ्रष्टाचार, प्रशासनिक असफलता और प्राकृतिक आपदाओं ने पाकिस्तानी जनता का जीना मुश्किल कर दिया है. लेकिन वहाँ की संघीय सरकार और राज्य सरकारें इन समस्याओं से निपटने के लिये कोई गंभीर कोशिश नहीं कर रही हैं. दरअसल, ये सरकारें इन मुश्किलों से जनता का ध्यान हटाने के लिये बेमतलब के पैंतरे दिखा रही हैं. कट्टरपंथी इस्लामी संगठनों और आतंकवादी गिरोहों से पाकिस्तानी सरकारों, राजनीतिक दलों, अदालतों, अखबारों, सेना, पुलिस और गुप्तचर संस्थाओं की मिलीभगत का लंबा इतिहास रहा है. इस्लाम और भारत-विरोध का झांसा दे कर वहाँ की जनता को लगातार लूटा गया है. इस वज़ह से एक ओर जहाँ पाकिस्तान की आम जनता एक त्रासद जीवन जीने को अभिशप्त है, वहीं दूसरी तरफ दक्षिण एशिया आतंकवाद और गृह-युद्धों की आग में जल रही है. ऐसे समय में जब पाकिस्तान भयानक बाढ़ की चपेट में है, वहाँ सांप्रदायिक राजनीति अपनी रोटी सेंकने में लगी हुई है. कभी अहमदिया संप्रदाय तो कभी शियाओं को बम और बंदूकों का निशाना बनाया जा रहा है. कभी ईसाईयों को पीटा जा रहा है तो कभी हिन्दुओं को उनके घरों से बेदखल किया जा रहा है.

इस कड़ी में अब हिन्दूओं के पौराणिक कार्यक्रमों के प्रसारण और उनकी वीडिओ सीडी-डीवीडी बेचने या केबल पर दिखाने पर रोक लगाने की क़वायद की जा रही है. सिंध सरकार ने एक अंतरिम आदेश देकर पिछले ही महीने इस तरह के चैनलों पर रोक लगा दी है और केबल वालों को ऐसे कार्यक्रमों की डीवीडी या वीसीडी दिखाने की मनाही कर दी है. पाकिस्तान के पंजाब की प्रांतीय सरकार ने एक समिति का गठन किया है जो हिन्दू पौराणिक कथाओं पर आधारित कार्यक्रमों के तथाकथित दुष्परिणामों के कारण उन पर प्रतिबन्ध लगाने की सिफ़ारिश सरकार से करेगी. दिलचस्प बात यह है कि समिति के सदस्य अध्ययन से पहले ही अपने निष्कर्षों पर पहुँच चुके हैं कि ऐसे कार्यक्रम इस्लाम-विरुद्ध हैं और इनसे बच्चों पर ग़लत प्रभाव पड़ रहा है. पंजाब में सत्तारूढ़ नवाज़ शरीफ के नेतृत्व वाली पाकिस्तान मुस्लिम लीग की सरकार के प्रवक्ता और पाकिस्तान सीनेट के सदस्य परवेज़ राशीद इस समिति के प्रमुख हैं. इसके अन्य मुख्य सदस्य फ़राह दीबा और ख़्वाजा इमरान नज़ीर हैं. फ़राह दीबा पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज़) की सांकृतिक इकाई की अध्यक्ष और पंजाब असेम्बली की सदस्य हैं. इमरान नज़ीर भी असेम्बली के सदस्य हैं. समिति के बाकी सदस्य सम्बद्ध मंत्रालयों-विभागों के अफ़सर हैं. इस समिति में कोई भी सदस्य कला, साहित्य या संस्कृति के क्षेत्र से नहीं है. इसमें ऐसे भी किसी व्यक्ति को नहीं लिया गया है जो प्रसारण माध्यमों, मीडिया या सिनेमा के समाज पर पड़ने वाले प्रभावों के अध्ययन से जुड़ा हो.

फ़राह दीबा पाकिस्तानी मीडिया में दिए अपने बयानों में कहा है कि जिन कार्टूनों में हनुमान जैसे मिथकीय चरित्रों का गौरवगान किया जाता है उनसे बच्चों के दिमाग पर बुरा असर पड़ता है. वह कहती हैं कि ऐसे कार्टून इस्लामी स्थापनाओं के अनुरूप नहीं हैं और इन्हें देख कर बच्चे भ्रमित हो जाते हैं. इन्हें प्रतिबंधित कर दिया जाना चाहिए. हालाँकि उन्होंने यह भी कहा कि इस बारे में आखिरी फ़ैसला पाकिस्तान सरकार के अधीन काम कर रही इलेक्ट्रौनिक मीडिया पर नज़र रखने वाली संस्था के हाथ में है. पाकिस्तान के जानकारों का मानना है कि पाकिस्तानी सरकार को पंजाब सरकार की सिफारिशों को मानने में कोई दिक्क़त नहीं होगी. ज़रदारी की पीपुल्स पार्टी और नवाज़ शरीफ की मुस्लिम लीग में कट्टरपंथियों को तुष्ट करने की होड़ लगी हुई है. उल्लेखनीय है कि पाकिस्तान में पहले से ही भारतीय चैनलों के प्रसारण पर पाबंदी है. लेकिन उनकी भारी लोकप्रियता के चलते केबल वाले चोरी-छुपे सीरियल दिखाते हैं. हिन्दी फ़िल्मों की तरह भारतीय टेलीविजन के कार्यक्रमों की वीसीडी और डीवीडी की ज़बरदस्त बिक्री होती है और उनका केबलों पर पुनर्प्रसारण होता है.

हिन्दू पौराणिक कार्टूनों को प्रतिबंधित करने की पंजाब सरकार की इस ताज़ा पहल का अच्छा-ख़ासा विरोध हुआ है. पाकिस्तान की जानी-मानी कलाकार और लाहौर के प्रतिष्ठित नेशनल आर्ट्स कॉलेज की पूर्व प्राचार्य सलीमा हाशमी कहती हैं कि सरकार आतंकवाद के कारणों की पड़ताल के लिये समिति क्यों नहीं बनती. सरकार यह जानने के लिये समिति क्यों नहीं बनाती कि बच्चे आत्मघाती हमलावरों में कैसे तब्दील कर दिए जाते हैं. हाशमी ने तो यहाँ तक कह दिया कि भारत में पाकिस्तान से अधिक मुसलमान रहते हैं. जब भारतीय मुसलमानों के बच्चों पर हिन्दू पौराणिक चरित्रों का तथाकथित कुप्रभाव नहीं पड़ा तो फिर पाकिस्तानी बच्चे कैसे कुप्रभावित हो जायेंगे. उन्होंने सरकार को सलाह दी है कि बेकार की बातों में समय बरबाद करने से बेहतर है कि लोगों की समस्याओं पर ध्यान दिया जाये.

पाकिस्तानी टीवी के बड़े नामों में से एक शानाज़ रम्ज़ी के अनुसार ये पौराणिक चरित्र और कहानियां हिन्दू धर्म का हिस्सा हैं और उन्हें देखने से किसी मुसलमान का ईमान नहीं बदलेगा. उनके अफ़सोस जताया है कि पाकिस्तान एक असहिष्णु समाज बन गया है जहाँ अलग-अलग विचारों और समझदारियों के लिये जगह नहीं बची है. बड़ी संख्या में आम पाकिस्तानियों ने इन्टरनेट पर और अखबारों में पत्र लिख कर सरकारी रवैये का विरोध किया है. वहाँ के कुछ अखबारों ने भी लेखों और रिपोर्टों के द्वारा इस समिति के सामने सवाल उठाया है.

पाकिस्तान में लगभग दो करोड़ तिहत्तर लाख हिन्दू रहते हैं. इस फैसले से उनके ऊपर सीधा असर होगा. पाकिस्तान हिन्दू परिषद् के पूर्व महासचिव और सलाहकार परिषद् के सदस्य हरि मोटवाणी ने दुःख व्यक्त किया है कि पाकिस्तान की सरकारें और प्रशासन ऐसे फैसले लेने से पहले व्यापक सोच-विचार करें और यह ध्यान रखें कि इन पौराणिक चरित्रों से हिन्दू धर्म को अलग रख के नहीं देखा जा सकता. उनके अनुसार ऐसी पहलों से अल्पसंख्यकों में व्याप्त असुरक्षा की भावना बढ़ती है. लेकिन ऐसा नहीं माना जाना चाहिए कि पाकिस्तान में उम्मीद की कोई किरण नहीं बची है. दो बच्चियों के पिता लाहौर निवासी शाहिद अशरफ़ कहते हैं: 'मैं ऐसा पिता बनना चाहता हूँ जो अपने बच्चों को हर जानकारी उपलब्ध करा दे और उन्हें यह समझदारी और आज़ादी दे कि वे अपनी बेहतरी की दिशा ख़ुद तय करें'

पाकिस्तान के अस्तित्व का सबसे गंभीर संकट और भारत का मह्त्व

शेष नारायण सिंह

अब पाकिस्तान के राष्ट्रपति और सेनाध्यक्ष वही कहने लगे हैं जो भारत के सरकार को शक़ था और दुनिया भर के राजनीतिक टिप्पणीकार कई महीनों से कह रहे हैं . पाकिस्तानी सेनाओं के सुप्रीम कमांडर और राष्ट्रपति आसिफ ज़रदारी ने कहा है कि उनका देश एक तरफ धार्मिक अति उत्साही आतंकवाद और उग्रवाद से अस्तित्व के संकट का सामना कर रहा है और दूसरी तरफ भारी बाढ़ ने बहुत बड़े पैमाने पर तबाही मचाई है . पाकिस्तान की इस स्वीकारोक्ति के बाद भारत सरकार के विदेश नीति के नियामक चिंतित हैं कि अगर पाकिस्तान ने अपने हालात को ठीक न किया तो उसके अस्तित्व पर आया संकट गहरा जाएगा जिसकी वजह से इलाके में अस्थिरता का माहौल बन जाएगा. पाकिस्तानी राष्ट्रपति का यह बयान उनके देश के रक्षा दिवस के मौके पर दिए गए सन्देश के रूप में आया है. पाकिस्तान में ६ सितम्बर का दिन रक्षा दिवस के रूप में मनाया जाता है . इसके पहले तो विजय दिवस के रूप में मनाया जाता था लेकिन बाद में जब पूरी दुनिया में इस तथाकथित विजय दिवस का मजाक उड़ाया जाने लगा तो बाद में इसे रक्षा दिवस का नाम दे दिया गया. इस सन्दर्भ में वयोवृद्ध पत्रकार खुशवंत सिंह का एक संस्मरण बहुत ही दिलचस्प है . साठ और सत्तर के दशक में खुशवंत सिंह टाइम्स ग्रुप की नामी पत्रिका इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ़ इण्डिया के सम्पादक थे. और बम्बई में रहते थे. उसी दौर में किसी ६ सितम्बर के दिन उन्हें बम्बई स्थित पाकिस्तानी वाणिज्य दूतावास से दावतनामा मिला. वहां गए तो बेतरीन किस्म का खाना और दुनिया की सबसे महंगी शराब पीने को मिली. खुशवंत सिंह शराब के बहुत शौक़ीन हैं . बहुत खुश हुए और पूछा कि भाई यह दावत किस विजय की खुशी में है . उन्हें बताया गया कि पाकिस्तानी सेना ने जब १९६५ में भारतीय सेना पर विजय हासिल की थी, उसी दिन को पाकिस्तान में विजय दिवस के रूप में मनाया जाता है.खुशवंत सिंह ने अपने संस्मरण में लिखा है कि उन्होंने लौट कर इस बारे में लिखा और सुझाया कि इस तरह के विजय दिवस पाकिस्तान को अक्सर मनाते रहना चाहिए . उन्होंने सुझाव दिया कि १९७१ की लड़ाई में भी पाकिस्तान को कोई विजय दिवस ढूंढ लेना चाहिए. बहरहाल खुशवंत सिंह की बात तो मजाक में टाल दी गयी लेकिन जब पूरी दुनिया में थकी हारी पाकिस्तानी फौज़ का मखौल उड़ने लगा तो पाकिस्तानी हुक्मरान ने विजय दिवस को पाकिस्तान के रक्षा दिवस के रूप में बदल दिया. रक्षा दिवस वाली बात भी कम दिलचस्प नहीं है हुआ यह था कि भारत के ऊपर १९६२ के चीनी हमले के बाद पाकिस्तानी तानाशाह जनरल अयूब खां को मुगालता हो गया था कि वे जब चाहें भारत को रौंद सकते हैं . इसी चक्कर में उन्होंने कश्मीरी नवयुवकों की शक्ल बनाकर करीब ३० हज़ार पाकिस्तानी सैनिकों को जम्मू-कश्मीर में उतार दिया था . उसके बाद सैनिक हमला भी कर दिया . जब भारत की समझ में बात आई तो ज़बरदस्त जवाबी हमला हुआ. भारत की सेना लगभग लाहौर तक पंहुच गयी. ३ जाट रेजिमेंट ने तो इच्छोगिल नहर पार कर के लाहौर हवाई अड्डे की तरफ बढना शुरू कर दिया था . कुछ ही घंटों में हवाई अड्डा भारतीय सेना के कब्जे में हो जाता लेकिन अमरीका ने हस्तक्षेप किया और कहा कि कुछ घंटों के लिए युद्ध विराम कर दिया जाए जिस से अमरीकी नागरिकों को लाहौर से सुरक्षित निकाला जा सके. भारत के तत्कालीन रक्षा मंत्री यशवंतराव चह्वाण ने अमरीका को भरोसा दिलाया कि अमरीकी नागरिकों का कुछ नहीं बिगड़ेगा लेकिन अमरीकी आग्रह को ठुकराना संभव नहीं था .वास्तव में यह अमरीकी चाल थी और इस बीच अंतरराष्ट्रीय कूटनीतिक दबाव का इंतजाम हो गया और लड़ाई रोक दी गयी. यह सब ६ सितम्बर १९६५ के दिन हुआ था . इसी लिए ६ सितमबर को पाकिस्तान में बहुत मह्त्व दिया जाता है. और रक्षा दिवस के रूप में मनाया जाता हैं. पाकिस्तानी इतिहास के इतने महत्वपूर्ण दिन पर राष्ट्रपति का इतना निराशाजनक सन्देश चिंता का विषय है . ज़रदारी ने कहा है कि इस साल छः सितम्बर को पाकिस्तान बाकी वर्षों से ज्यादा खतरों का सामना कर रहा है . आतंकवादी और उग्रवादी मिलकर पाकिस्तानी समाज को बुरी तरह से प्रभावित कर रहे हैं . आम तौर पर फर्जी शेखी में मुब्तिला रहने वाले पाकिस्तानी फौज़ी अफसर भी इस बार डरे सहमे हुए हैं . सेना के मुखिया जनरल अशफाक परवेज़ कयानी ने अपने सन्देश में कहा है कि,' आतंरिक रूप से हम आतंकवाद और उग्रवाद का सामना कर रहे हैं जिसकी वजह से देश की सुरक्षा और अस्तित्व के लिए गंभीर ख़तरा पैदा हो गया है . ज़ाहिर है कि पाकित्सानी राह्स्त्र के सामने अपने ६३ साल के इतिहास का सबसे बड़ा संकट है और अगर कोई चमत्कार नहीं होता तो पाकिस्तान को तबाह होने से बचा पाना मुश्किल होगा . यहाँ यह बात हमेशा ध्यान में रखनी चाहिए कि पाकिस्तान का तबाह होना किसी के हित में नहीं है. और अगर कुछ ज्यादा गड़बड़ हुआ तो सबसे ज्यादा परेशानी भारत को ही होगी. शायद इसी लिए भारत ने पाकिस्तान की बाढ़ राहत की कोशिश में मदद करने की पेशकश की है . हालांकि शुरू से ही भारत को दुश्मन के रूप में पेश कर रहे पाकिस्तानी हुक्मरान के लिए भारत से मदद लेना बहुत कठिन राजनीतिक फैसला साबित हो रहा है लेकिन पाकिस्तानी राष्ट्र के सामने जो संकट है उस से बचने का सबसे कारगर तरीका भारत की मदद से ही निकल सकता है . क्योंकि भारत के पास प्राकृतिक आपदा से लड़ने का अनुभव भी है और क्षमता भी. हो सकता है कि भारत की मदद लेकर पाकिस्तानी हुकूमत को आतंकवादियों से भी जान छुडाने का मौक़ा मिले . यह भी संभव है कि इस मुसीबात की घड़ी में अगर भारत को दोस्त के रूप में पेश किया जा सका तो पाकिस्तानी अवाम का बहुत फायदा होगा क्योंकि भारत की दुश्मनी का डर दिखाकर ही पाकिस्तानी फौज़ी अफसर राष्ट्रीय सम्पदा का दोहन करते हैं और राजनीतिक नेतृत्व को ब्लैकमेल भी करते हैं

Monday, August 16, 2010

कश्मीर में सकारात्मक पहल का सही मौक़ा

शेष नारायण सिंह

( मूल लेख दैनिक जागरण ( १५-८-२०१०) में छप चुका है .)

कश्मीर का आन्दोलन पाकिस्तान के समर्थन से चलने वाले अलगाववादी आन्दोलन के नेताओं के काबू से बाहर हो गया है . कश्मीर मामलों के जानकार बलराज पुरी ने अपने ताज़ा आलेख में लिखा है कि घाटी में जो नौजवान पत्थर फेंक रहे हैं , वे पाकिस्तान की शह पर चल रहे अलगाववाद के नेताओं पर अब विश्वास नहीं करते. सही बात यह है कि उन कम उम्र बच्चों का हर तरह के नेताओं से विश्वास उठ गया है . वे आज़ादी की बात करते हैं लेकिन उनकी आज़ादी भारत से अलग होने की आज़ादी नहीं है . सच्चाई यह है जब वहां के राजा ने १९४७ में भारत में विलय के कागजों पर दस्तखत कर दिया था तो १९४७ में कश्मीरी अवाम ने अपने आप को आज़ाद माना था . यह आज़ादी उन्हें ३६१ साल बाद हासिल हुई थी. कश्मीरी अवाम , मुसलमान और हिन्दू सभी अपने को तब से गुलाम मानते चले आ रहे थे जब १५८६ में मुग़ल सम्राट अकबर ने कश्मीर को अपने राज में मिला लिया था. उसके बाद वहां बहुत सारे हिन्दू और मुसलमान राजा हुए लेकिन कश्मीरियों ने अपने आपको तब तक गुलाम माना जब १९४७ में भारत के साथ विलय नहीं हो गया. इसलिए कश्मीर के सन्दर्भ में आज़ादी का मतलब बिलकुल अलग है और उसको पब्लिक ओपीनियन के नेताओं को समझना चाहिए. इसी आज़ादी की भावना को केंद्र में रख कर पाकिस्तान ने नौजवानों को भटकाया और घाटी के ही कुछ तथाकथित नेताओं का इस्तेमाल करता रहा. यह गीलानी , यह मीरवाइज़ सब पाकिस्तान के हाथों में खेलते रहे और पैसा लेते रहे . लेकिन अब जब यह साफ़ हो चुका है कि इन नेताओं की घाटी के नौजवानों को दिशा देने की औकात नहीं है तो भारत सरकार को फ़ौरन हस्तक्षेप करना चाहिए और इन नौजवानों के नेताओं को तलाश कर बात करनी चाहिए . कश्मीर के तथाकथित नेताओं या अलगाववादियों से बात करने का कोई मतलब नहीं है .इन नेताओं से समझौता हो भी गया तो कम उम्र के पत्थर फेंक रहे बच्चे इनकी बात नहीं मानेगें . पिछले २० वर्षों में यह पहली बार हुआ है कि पाकिस्तान से खर्चा पानी ले रहे नेताओं को कश्मीरी अवाम टालने के चक्कर में है .

ऐसा लगता है कि केंद्र सरकार को अंदाज़ है कि अगर सही तरीके से कश्मीरी नौजवानों को संभाला जाए तो पहल को सार्थक नाम दिया जा सकता है और पाकिस्तानी तिकड़म को फेल किया जा सकता है . शायद इसी लिए सी रंगराजन की अध्यक्षता में जो कमेटी बनायी गयी है उसका फोकस केवल कश्मीरी नौजवानों को रोजगार के अवसर मुहैया करवाना है . पत्थर फेंकने वाले लड़कों के आन्दोलन को पाकिस्तानी शह पर घोषित करने में पता नहीं क्यों सरकारी बाबू वर्ग ज़रुरत से ज्यादा उतावली दिखा रहा है . . कश्मीर मामलों के जानकार बलराज पुरी कहते हैं कि कश्मीरी लड़कों के मौजूदा पत्थर फेंक आन्दोलन को पाकिस्तानी या आलगाव वादी लोगों की बात कह कर भारत अपनी सबसे महत्वपूर्ण पहल से हाथ धो बैठेगा. बताया गया है कि पत्थर फेंक आन्दोलन आधुनिक टेक्नालोजी की उपज है . बच्चे ट्विटर और फेसबुक का इस्तेमाल करके संवाद कायम कर रहे हैं और स्वतः स्फूर्त तरीके से सडकों पर आ रहे हैं . सही बात यह है कि पाकिस्तानी हुक्मरान भी नए हालात से परेशान हैं और घाटी में सक्रिय अपने गुमाश्तों को डांट फटकार रहे हैं .अगर भारत ने इस वक़्त सही पहल कर दी तो हालात बदलने में देर नहीं लगेगी. कश्मीर में जो सबसे ज़रूरी बात है ,वह यह कि १९४७ में जो कश्मीर के राजा की सोच थी उसे फ़ौरन खारिज किया जाना चाहिए . वह तो जिन्नाह के साथ जाने के चक्कर में थे. और उनकी पिछलग्गू राजनीतिक जमात उन्हें समर्थन दे रही थी. कश्मीर में भारत का इकबाल बुलंद करने के लिए सबसे ज़रूरी दस्तावेज़ है १९५२ का नेहरू-अब्दुल्ला समझौता . उसी के आधार पर कश्मीर को उसकी नौजवान आबादी को साथ लेकर भारत का अभिन्न अंग बनाने की कोशिश की जानी चाहिए . ध्यान रहे , पत्थर फेंक रहे नौजवान वे हैं जिनका पाकिस्तानी और भारतीय नेताओं से मोहभंग हो चुका है . उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती कोई भी पहल नहीं कर सकते . यह सत्ताभोगी हैं . जो सडकों पर पत्थर फेंक रहे २० साल से भी कम उम्र के लडके हैं उन्हें मुख्यधारा में लाया जाना चाहिये . १९५२ का समझौता पाकिस्तान को भी धता बताता है और राजा की मानसिकता को भी . . इसके अलावा कश्मीर में कुछ काम फ़ौरन किये जाने चाहिए . जैसे अभी वहां पंचायती राज एक्ट नहीं लगा है ., उसे लगाया जाना चाहिए . आर टी आई ने पूरे भारत में राजकाज के तरीके में भारी बदलाव ला दिया है . लेकिन अभी कश्मीर में वह ठीक से चल ही नही रहा है . उसे भी कारगर तरीके से लागू किया जाना चाहिये . मानवाधिकार आयोग का अधिकार क्षेत्र भी कश्मीर तक बढ़ा देना चाहिये .कश्मीर में मौजूद राजनीतिक पार्टियां भी अगर अपना घर तुरंत ठीक नहीं करतीं तो मुश्किल बढ़ जायेगी.. इस लिए केंद्र सरकार में मौजूद समझदार लोगों को चाहिए कि फ़ौरन पहल करें और कश्मीर में सामान्य हालात लाने में मदद करें

Wednesday, July 21, 2010

पाकिस्तान को औकातबोध कराने की भारत के विदेश मंत्री की कूटनीति

शेष नारायण सिंह
( मूल लेख दैनिक जागरण में छप चुका है )

मुंबई पर हुए आतंकवादी हमले के बाद से भारत और पाकिस्तान के रिश्ते बिगड़ गए थे क्योंकि पाकिस्तान सहित पूरी दुनिया ने स्वीकार कर लिया था कि मुंबई पर हुआ हमला पाकिस्तानी आतंक के सबसे बड़े सरगना, हाफ़िज़ मुहम्मद सईद की निगरानी में हुआ था. भारत ने पाकिस्तान पर दबाव बनाया और पाकिस्तानी आतंक के नेटवर्क को तबाह करने की बात की लेकिन पाकिस्तान मानने को तैयार नहीं था . बहरहाल बात धीरे धीरे बढ़ती रही और पाकिस्तान और भारत पर अमरीकी दबाव बढ़ता रहा . भारत इस बात पर अडिग रहा कि जब तक मुंबई के हमलावरों को पकड़ा नहीं जाता भारत कोई बात नहीं करेगा . पाकिस्तान की अंदरूनी राजनीति में भी नेताओं को अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए भारत से रिश्ते सुधारने की कोशिश को करना ज़रूरी माना जाता है . शायद इसीलिये पाकिस्तानी हुक्मरान बातचीत के लिए जोर देते रहे .इस पृष्ठभूमि में भारत और पाकिस्तान के विदेश मंत्रियों की बातचीत हुई लेकिन भारतीय विदेश मंत्री ने पाकिस्तान को भारत की कीमत पर कोई फायदा उठाने का कोई मौक़ा नहीं दिया.

भारत के विदेशमंत्री, एस एम कृष्णा की इस्लामाबाद यात्रा सही मायनों में ऐतिहासिक है . ख़ासकर दिन भर चली बात चीत के बात प्रेस से जो वार्ता हुई वह बहुत दिनों तक याद रखी जायगी. . भारतीय विदेश मंत्री ने बिना लाग लपेट के बात की और साफ़ कर दिया कि भारत एक बड़ा मुल्क है और पाकिस्तानी नेताओं को उस से बराबरी करने की कोशिश भी नहीं करनी चाहिए . कूटनीति की दुनिया अजीब है . उसमें तरह तरह के शब्दों के अलग अर्थ निकाले जाते हैं . विदेश मत्रालय के अधिकारियों को ऐसी ट्रेनिंग दी जाती है कि वे ऐसा ड्राफ्ट बनाएं जिस से अलग अलग मुल्कों में वक्तव्य की अलग अलग व्याख्या की जा सके .मसलन जब पाकिस्तानी विदेश मंत्री ने कहा कि बलोचिस्तान में अस्थिरता के मुद्दे को भारत के गृह मंत्री के सामने उठाया गया था और उनकी प्रतिक्रिया उत्साह वर्धक थी. उन्होंने कहा कि गृह मंत्री ने साफ़ कह दिया था कि बलोचिस्तान में उन्हें कोई रूचि नहीं है . अब यहाँ इसका सन्दर्भ समझ लेने की ज़रुरत है . दरअसल बात चीत में भारतीय गृह मंत्री ने कहा रहा होगा कि बलोचिस्तान उनके विदेश मंत्रालय का विषय है , इसलिए वह उनकी रूचि का विषय नहीं है . अब अगर बात यहीं ख़त्म हो गयी होती तो पाकिस्तानी विदेश विभाग अपनी जनता को बताता कि भारत से बलोचिस्तान के मुद्दे पर बात हो गयी है . भूमिका यह है कि पूरे पाकिस्तान में सरकारी तौर पर यह प्रचार किया गया है कि बलोचिस्तान में जो बगावत जैसी हालात हैं , उसे भारत बढ़ावा दे रहा है .. और प्रेस को यह बता कर कि बात हो गयी है उसकी मनमानी व्याख्या की जा सकती थी लेकिन एस एम कृष्णा वह स्पेस देने को तैयार नहीं थे . उन्होंने साफ़ कहा कि बलोचिस्तान के मामले में पाकिस्तान जो भी कहता रहा है ,उसके लिए भरोसे लायक सबूत की मांग की गयी थी लेकिन वह तो जाने दीजिये सबूत का कोई ज़र्रा तक नहीं दिया गया . यानी पाकिस्तान की ज़मीन पर भारत के विदेश मंत्री ने ऐलान सा कर दिया कि बलोचिस्तान के मामले में भारत का नाम लेकर पाकिस्तानी शासक अपनी जनता को बेवकूफ बना रहे हैं . कृष्णा ने सीमा पार के घुसपैठ के मुद्दे को बिलकुल बेलौस तरीके से उठाया और कहा कि पिछले वर्षों में सीमापार से हो रही घुसपैठ में बढ़ोतरी हुई है . पाकिस्तानी विदेश मंत्री ने गुस्से में जवाब दिया कि वे साफ़ बता देना चाहते थे कि पाकिस्तान सरकार या इंटलीजेंस एजेंसियों की नीति यह नहीं है कि वह सीमा के उस पार घुसपैठ कराये . लेकिंम अगर कुछ लोग घुसपैठ कर रहे हैं तो भारत उनसे सख्ती से निपटे , उन लोगों से सरकार का कुछ भी लेना देना नहीं है . इस पर तो पाकिस्तानी पत्रकार आग बबूला हो गए क्योंकि घुसपैठ करने वालों से पाकिस्तानी सरकार की पल्ला झाड़ने की कोशिश को कोई भी पाकिस्तानी बर्दाश्त नहीं करेगा. आखिर वे पाकिस्तानी सरकार की मर्जी से ही कश्मीर में उपद्रव करते हैं .

विदेश मंत्री की इस शैली को दोनों देशों की बदल रही अंतर राष्ट्रीय हैसियत का एक पैमाना भी माना जा सकता है . भारत-पाक संबंधों के हर विद्यार्थी को मालूम है कि पाकिस्तानी ज़मीन से भारत के खिलाफ चल रहे आतंक के तंत्र का संचालन हाफ़िज़ मुहम्मद सईद करता है . लेकिन पाकिस्तान सरकार इसको कभी सरकारी तौर पर स्वीकार नहीं करती . पत्रकार वार्ता में एस एम कृष्णा ने नफरत फैलाने वालों को लगाम लगाने की बात का भी ज़िक्र किया और कहा कि जमातुद्दावा कर सरगना , हाफ़िज़ मुहम्मद सईद के ऊपर कंट्रोल करने की ज़रुरत है . कुरेशी का चेहरा तमतमा उठा और उन्होंने हाफ़िज़ मुहम्मद सईद की तुलना भारत सरकार के गृह सचिव से कर दी. लगता है कि पाकिस्तानी विदेश मंत्री,शाह महमूद कुरेशी की इस बेवकूफी के लिए उन्हें पाकिस्तानी हुक्मरान के गुस्से को झेलना पडेगा. विदेश मंत्री ने केंद्र सरकार में कुछ मंत्रियों की उस कोशिश को भी ज़ोरदार झटका दिया जो विदेश मंत्री को नाकारा साबित करने के चक्कर देश मंत्रालय के मुद्दों को विदेशों में उठाते रहते हैं . गृह मंत्रालय के हवाले से जब भी पाकिस्तानी अधिकारियों ने किसी बात को साधने की कोशिश की ,तो भारत के विदेश मंत्री ने उस बात को वहीं रोक दिया और साफ़ कर दिया कि जहां तक बातचीत का सवाल है , भारत सरकार किसी को भी तैनात कर सकती है लेकिन कूटनीतिक फैसले विदेश मंत्रालय को दरकिनार करके नहीं लिए जा सकते.