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Sunday, December 1, 2013

अमरीका की नज़र में इरान की बढ़ती अहमियत से सउदी अरब बहुत परेशान है

  
शेष नारायण सिंह

कभी इरान के शाह पहलवी अमरीका के बहुत प्रिय  हुआ करते थे लेकिन जब उनकी ज्यादतियां सारी हदें पार कर गयीं तो इरान की अवाम ने पेरिस में रह रहे एक धार्मिक नेता अयातोल्ला खुमैनी के नेतृत्व में उनका तख़्त बदल दिया ताज बदल दिया और इस्लामी सरकार कायम कर दी. इरान में अपनी तरह की लोकशाही शुरू हो गयी और अमरीका और इरान में दूरियां बढ़ गयीं . एक मुकाम तो ऐसा भी आया जब अमरीका ने इरान पर सद्दाम हुसैन से हमला करवाया . यह पुरानी बात है .उसके बाद से दजला और फरात  नदियों में  बहुत पानी बह गया . सद्दाम हुसैन जो कभी अमरीका के सबसे करीबी भक्त हुआ करते थे , अमरीका की कृपा से मारे जा चुके हैं इराक में अब शिया मतावलंबी प्रधानमंत्री पदस्थ किया जा चुका है और अमरीका की समझ में पूरी तरह से आ गया है कि इरान से  पंगा लेना उसको बहुत महँगा पड़ सकता है . ऐसे महौल में अमरीका ने एडी चोटी  का जोर लगाकर इरान से दोस्ती की कोशिश शुरू कर दी है . परमाणु  हथियारों की अपनी दादागीरी की आदत से अमरीका को बहुत नुक्सान हुआ  है लेकिन  वह दुनिया के किसी मुल्क की परमाणु ताकत को वह अभी भी दबा देना चाहता है .अमरीका समेत सुरक्षा परिषद के सभी पाँचों स्थायी सदस्यों की इच्छा यही रहती है कि उनके अलावा और कोई भी परमाणु ताक़त न बने लेकिन उनकी चल नहीं रही है . इरान के मामले में भी एक बार यही हो रहा है लेकिन दुनिया की राजनीति के बदल रहे नए समीकारणों के चलते अब खेल बदल गया है . अब इरान को एक परमाणु शक्ति के रूप में स्वीकार करने के अलावा अमरीका के सामने और कोई रास्ता नहीं है .
इरान के साथ अमरीका और अन्य देशों के समझौते का जश्न पश्चिमी दुनिया में मनाया जा रहा है लेकिन इस समझौते से एक तरह से परमाणु हथियारों की दुनिया में अपना दबदबा बनाए रखने की सुरक्षा परिषद के स्थायी देशों की मंशा ही सबसे स्थाई कारण नज़र आती है .इजरायल के दबाव में पिछले कई वर्षों से इरान पर पश्चिमी देशों की तरफ से लगाई गयी पाबंदियां भी  देश के हौसले को नहीं रोक पाईं . बहर हाल आखीर में उनकी समझ में आ गया कि इरान से बातचीत करने का सही तरीका यह है कि उसको रियाया न समझा जाए ,उसके साथ बराबरी के स्तर पर बातचीत की जाए .
मौजूदा समझौते के बाद इरान का परमाणु संवर्धन का कार्यक्रम जारी रहेगा .दस्तावेज़ में लिखा  है कि शान्तिपूर्ण उद्देश्यों के लिए आपसी परिभाषा के आधार पर परमाणु संवर्धन का कार्यक्रम चलाया जाएगा . इरान ने वचन दिया है कि वह समझौते के छः महीनों में यूरेनियम का पांच प्रतिशत से ज्यादा का संवर्धन नहीं करेगा  या ३.५ प्रतिशत संवर्धन वाला जो उसका भण्डार है उसमें कोई वृद्धि नहीं करेगा . ३.५ प्रतिशत के संवर्धन पर ही बिजली पैदा की जा सकती है जबकि हथियार बनाने के लिए ९० प्रतिशत संवर्धन की ज़रूरत पड़ती है .इरान ने समझौते में पूरा सहयोग किया है . उसने अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी को अपने परमाणु ठिकानों की जाँच करने का पूरा अधिकार देने का वचन दिया है .इसके बदले में  अमरीका ,फ्रांस ,चीनरूसजर्मनी और ब्रिटेन ने इरान को वादा किया है कि वह उसके तेल पर लगाई गयी पाबंदियों ढील देगें . इरान से पेट्रोल के निर्यात पर जो पाबंदी लगी हुई है वह भी दुरुस्त की जायेगी . सुरक्षा परिषद में भी इरान के खिलाफ कोई पाबंदी  का प्रस्ताव नहीं लाया जाएगा . ओबामा की सरकार भी  इरान पर पाबंदियां लगाने या उसकी धमकी देने से बाज़ आयेगी. यह पाबंदियां इरान के परमाणु कार्यक्रम को रोकने के लिए लगाई  गयी थीं. वह तो कहीं रुका नहीं अलबत्ता इरान की जनता ने सारी तकलीफें झेलीं .

इजरायल इस नए कूटनीतिक विकास से सबसे ज़्यादा परेशान है .उसके ज़ाहिर से कारण है . अभी तक वह अमरीका के लठैत के रूप में पश्चिम एशिया में मनमानी करता रहा  है लेकिन सउदी अरब की परेशानी भी कम नहीं है . इरान के साथ अमरीका के रिश्ते ठीक होने का नतीजा यह होगा कि पश्चिम एशिया में अमरीका के सबसे भरोसेमंद अरब देश के रूप में पहचाने जाने वाले देश के रूप में साउदी हनक कम हो जायेगी . इरान की कोशिश यह भी चल रही है कि पश्चिम एशिया में शिया शासकों की संख्या बढ़ाई जाए . जबकि यह  रियाद को यह बिलकुल पसंद नहीं है . साउदी अरब  ने देखा है कि  किस तरह से २०१० के चुनाव के बाद भी इरान की मदद से इराक में शिया राष्ट्रपति बना रहा  गया . रियाद की परेशानी यह है कि अमरीकी सत्ता में उनके कोई लाबी ग्रुप नहीं हैं . इसलिए वह अमरीका की नीतियों को उ सत्रह से नहीं प्रभावित कर पाता जिस तरह से इजरायल कर लेता है .इसलिए इरान के साथ हुए अमरीका और अन्य ताक़तवर देशों के समझौते को समर्थन देने के अलावा साउदी अरब के पास कोई रास्ता नहीं था. साउदी अरब को डर है कि पश्चिम एशिया की राजनीति में उनकी घट रही ताक़त को और गति मिल जायेगी . उनके घोषित शत्रु इरान अब उनके आका अमरीका के करीब आ  जाएगा.  इरान ने अपनी ताक़त इराक और लेबनान में बढ़ा  ही  लिया है .सीरिया में भी बशर अल असद के साथ इरान के सम्बन्ध हैं और सुन्नियों के हमलों को रूस और इरान के बल पर लगातार नाकाम किया जा रहा है . साउदी अरब को उम्मीद थी कि वह सीरिया के खिलाफ भी फौजी ताक़त का इस्तेमाल करेगा .खासतौर से जब पिछले अगस्त में दमिश्क के पास एक आबादी पर सीरिया की सेना की तरफ से कथित रासायनिक हथियारों के इस्तेमाल की खबर आई थी . अगर ऐसा हुआ होता तो  बशर अल असद की सत्ता को हटाकर साउदी पसंद  का कोई शासक वहाँ बैठाया जा सकता था लेकिन अमरीकी राष्ट्रपति ओबामा  ने दूसरा रास्ता चुन लिया. उन्होने रूस से समझौता कर लिया कि सीरिया अपने रासायनिक हथियारों को खत्म कर देगा . हालांकि इस समझौते को ओबामा की भारी कूटनीतिक सफलता माना गया लेकिन साउदी अरब को इस से बहुत निराशा हुई .

अमरीका की कथित शह से पश्चिम एशिया और इत्तर अफ्रीका में लोकतंत्र की आवाजें जब जोर पकड़ने लगीं तो साउदी हुक्मरान बहुत चिंतित हुए .इसी प्रक्रिया में उनका सबसे करीबी अरब दोस्त होस्नी मुबारक हटा दिया गया और बहरीन में भी सुन्नी शासक के खिलाफ जब लोकतंत्र वाले जुलूस निकलने लगे तो साउदी अरब वालों को लगा कि उस आभियान को भी इरान का सहयोग हासिल है . बहरीन का शासक सुन्नी है लेकिन वहाँ भी आबादी का बहुमत वाला हिस्सा शिया समुदाय वालों का है .
कुल मिलाकर साउदी अरब को इस बात से नाराज़गी तो है कि अमरीका इरान की तरफ खिंच रहा  है लेकिन जानकारों को मालूम है कि अमरीका अभी साउदी अरब से रिश्ते खराब नहीं कर सकता . खादी के देशों में अमरीकी हितों के सबसे बड़े संरक्षक के रूप में रियाद की हैसियत अभी कायम है और आने वाले बहुत दिनों तक उसके कमज़ोर होने की कोई संभावना नहीं है .लेकिन अमरीका भी खाड़ी के देशों में साउदी अरब के विकल्प की तलाश कर रहा  है . इराक में सत्ता परिवरतन के साथ उनको उम्मीद थे एकी वहाँ एक ऐसा साथी मिल जाएगा जो पुराने सद्दाम हुसैन की तरह काम करेगा लेकिन वाहन बहुमत की सत्ता आ गयी और बहुमत वहाँ शियाओं का है . नतीजा यह  हुआ कि  वहाँ का शासक इरान के ज़्यादा  करीब चला गया . अमरीका को खाड़ी के धार्मिक संप्रदायों की उठा पटक में कोई रूचि नहीं है .उसे तो वहाँ ऐसे राजनीतिक हालात चाहिए जिससे उसकी मौजूदगी औउर ताकत मजबूती के साथ जमी रहे . सबको मालूम है कि किसी भी कूटनीतिक चाल का उद्देश्य अपने राष्ट्रीय हित को मुक़म्मल तौर पर पक्का करना होता है .इसलिए अमरीका इस इलाके में साउदी अरब के ऊपर निर्भरता कम करने के लिए इरान को साथ लेने की नीति पर काम कर रहा  है . यह शुरुआत है . साउदी अरब को मालूम है कि  ओबामा अब खाड़ी के देशों की राजनीति पर उतना ध्यान नहीं देगें क्योंकि अब चीन के आस पास के देश उनकी प्राथमिकता सूची में ज़्यादा ऊपर आ गए हैं .
इस सबके बावजूद भी साउदी अरब और अमरीका के बीच बहुत कुछ साझा  है .दोनों ही देश पश्चिम एशिया में अल कायदा और इरान की बढती ताकत से परेशान हैं . अमरीका को लाभ यह है  कि वह इरान से दोस्ती करके  अपनी कूटनीतिक चमक को मज़बूत कर सकता है लेकिन यह रियाद वालों को बिलकुल सही नहीं लगता . उनके पास अमरीका के अलावा क्सिई उअर से मदद की उम्मीद भी नहीं है और संभावना भी नहीं है . बीच में साउदी शासकों ने यूरोपियन  यूनियन से दोस्ती बढाने की कोशिश की थी लेकिन वे बेचारे तो अमरीका की ही मदद के याचक  हैं . रूस और चीन भी अमरीका का विकल्प नहीं बन सकते इसलिए न चाहते हुए भी साउदी अरब को अमरीका का साथी बने रहने में भलाई नज़र आती है . लेकिन एक बात साफ़ है कि इरान से जिनेवा में हुए इस समझौते के बाद  खाड़ी की राजनीति में मौलिक बदलाव आने वाला है . यह भी तय है कि पिछले कई दशकों से अमरीकी राजनीति की गलतियों के चलते पश्चिम एशिया में जो संघर्ष के हालत पैदा हो गए थे अब उनमें भी बदलाव होना तय है . हो सकता है कि इसका श्रेय  बराक ओबामा के खाते में जाय और उनकी वह वाही हो लेकिन मध्यपूर्व में अमरीका के सबसे बड़े सहयोगी के रूप में साउदी अरब की हैसियत कम होने के दिन बहुत करीब आ गए हैं .

Saturday, June 8, 2013

कैलिफोर्निया में अमरीका और चीन की शिखर बैठक के भावार्थ


शेष नारायण सिंह 

सात और आठ जून को दुनिया के दो सबसे ताकतवर नेता मिल रहे हैं .चीन के जी जिनपिंग और अमरीका के बराक ओबामा कैलिफोर्निया के सनीलैंड्स में मिल रहे हैं . इन नेताओं की मुलाकात एक ऐसे माहौल में हो रही है जब दोनों देशों के बीच रिश्ते ढलान पर हैं .आर्थिक विकास की हवा पर सवार चीन अपनी क्षेत्रीय हैसियत को बढाने में लगा हुआ है . अमरीका और अन्य पश्चिमी देशों की कमज़ोर पड़  रही अर्थव्यवस्था के चलते चीन के हौसले और भी बुलंद हैं . अमरीका को अब तक इस बात का गुमान था कि वह चीन के चारों तरफ के देशों में भारी मौजूदगी रखता है और उसके बल पर वह ज़रुरत पड़ने  पर चीन को घेर सकता है .हालांकि अमरीका का यह मुगालता  बंगलादेश की स्थापना के बाद ख़त्म हो गया था लेकिन वह  जापान, कोरिया, पाकिस्तान आदि देशों में अपनी मौजूदगी को अपनी ताक़त मानता रहा था . हालांकि १९७१ में पाक्सितान के बड़े भाई के रूप  में खड़े रहकर भी निक्सन और किसिंजर की टोली  पाकिस्तान को छिन्न भिन्न होने से बचा नहीं पायी थी . भारत ने हस्तक्षेप करके तत्कालीन पाकिस्तान के पूर्वी भाग की अवाम की आज़ादी को  सहारा दिया था और स्वतंत्र देश बंगलादेश  की स्थापना हो गयी थी . एशिया के इस हिस्से में अपनी ताकत के परखचे उड़ते देख अमरीकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने अप्लीकेशन डाल  दी थी और उनको चेयरमैन माओत्सेतुंग ने हाजिरी बक्श दी थी  . अमरीका परस्त देश और राजनेता उसके बाद से ही दावा करते रहे हैं कि चीन और अमरीका के रिश्तों में सुधार हो रहा है लेकिन सच्चाई यह  है की पूरी दुनिया में हर तरफ अपनी दखलंदाजी करने वाले अमरीका के प्रभाव का दायरा बहुत ही तेज़ी से घट रहा है . ऐसी हालत में अमरीका के हित में है  कि वह  तेज़ी से विकास कर रहे चीन  से अपने सम्बन्ध सुधारे. वरना वह दिन दूर नहीं जब चीन आर्थिक विकास के साथ एक ऐसी सैनिक ताक़त की शक्ल अख्तियार कर लेगा  कि दुनिया भर में अपने को रक्षक के रूप में पेश करने वाले अमरीका की मुश्किलें बहुत बढ़ जायेगीं .
चीन को मालूम है की अब अमरीका और चीन के रिश्ते बहुत ही नाज़ुक दौर में पंहुच चुके हैं और अब एक ऐसे सम्बन्ध की ज़रुरत है जो दो महान देशों के बीच स्थापित किया जाता है. जानकार बताते हैं की दोनों देशों के नेताओं को कूटनीति के जो स्थापित मानदंड हैं उनसे अलग होकर कुछ करना पडेगा . इस सम्बन्ध में १९७२  का उदाहरण दिया जाता है जब अपने भारी मतभेदों को भुलाकर चीने के सबसे बड़े नेता  माओ के सामने रिचर्ड निक्सन और हेनरी किसिंजर ने आपसी हितों के मुद्दे तलाशने की कोशिश की थी  . पिछले चालीस  वर्षों में बहुत कुछ बदल गया है . चीन को मालूम है की वह अब एक महान आर्थिक ताक़त है और वह अमरीकी बाजार को  अस्थिर करने की शक्ति रखता है .चीन में  अब भी यह माना जाता है की जब भी अमरीका दोस्ती का हाथ बढाता है वह चीन को काबू में करने के चक्कर में  ज्यादा रहता है .लेकिन दोनों ही नेताओं, जी जिनपिंग और बराक ओबामा को मालूम है को दोस्ती की राह ही सही रहेगी क्योंकि और किसी रास्ते में तबाही ही तबाही है .
ओबामा को मालूम है की चीन को साथ लिए बिना ईरान, उत्तरी कोरिया और मौसम के बदलाव जैसे मुद्दों पर कोई सफलता नहीं मिलेगी . इसलिए सनीलैंड्स की मुलाक़ात से अमरीकी कूटनीति को धार मिलने की संभावना है .चीन  के हित में यह है की वह पूर्वी एशिया और अपने प्रभाव के अन्य इलाकों में अमरीका को यह भरोसा दिला सके कि  चीन उसको परेशान नहीं करेगा. चीन  के मौजूदा नेता  जी जिनपिंग ने एक साल की अपनी सत्ता के बाद यह साबित कर दिया है की घरेलू और विदेशी हर मामले में  उनकी ताकत को कम करके नहीं आंका जा सकता . आर्थिक बदलाव के बाद चीन के सरकारी कर्मचारियों में आयी भ्रष्टाचार की वारदातों  पर उन्होंने प्रभावी तरीके से कंट्रोल करने की कोशिश पर काम शुरू कर दिया है जापान को वे अक्सर धमकाते रहते हैं .इस तरह से चीनी राष्ट्रवाद की अनुभूति को भी शक्ति मिलती  है .अमरीका पंहुचने के  पहले वे मेक्सिको, कोस्टा रिका और त्रिनिदाद -टोबैगो होते हुए पंहुचे हैं यानी अमरीका को पता होना चाहिए कि  चीन भी अमरीका के बिलकुल पड़ोस तक असर रखता है .अगर अमरीका पूर्वी एशिया में असर रखता है तो चीन भी दक्षिण  अमरीका में एक ताक़त है। इस पृष्ठभूमि में दो बड़ी ताक़तों के नेताओं का  बेतकल्लुफ़ माहौल में मिलना दुनिया की राजनीति के लिए बड़ी घटना है . इसका असर आने वाले वर्षों में  सभी देशों पर पड़ने वाला है .

Friday, April 6, 2012

अमरीका के भारी दबाव के बाद भी पाकिस्तान हाफ़िज़ सईद को नहीं पकड़ेगा

शेष नारायण सिंह

मुंबई हमलों की साज़िश के सरगना हाफ़िज़ मुहम्मद सईद को अब अमरीका भी आतंकवादी मानने लगा है . इसके पहले जब भारत की तरफ से कहा जाता था कि हाफ़िज़ सईद को काबू में किये बिना आतंक के खिलाफ किसी तरह की लड़ाई, कम से कम पाकिस्तान में तो नहीं लड़ी जा सकती, तो अमरीका के नेता हीला हवाला करते थे. अब अमरीका की समझ में भी आ गया है कि हाफ़िज़ सईद को पकड़ना ज़रूरी है क्योंकि उसने पाकिस्तान के रास्ते अफगानिस्तान जाने वाली फौजी सप्लाई में अडंगा डालने की कोशिश शुरू कर दिया है .अब अमरीका को लगता है कि हाफ़िज़ सईद को काबू में कर लेना चाहिए . लेकिन उसे पकड़ने के लिए अमरीकी हुकूमत ने जो तरीका अपनाया है वह बहुत ही अजीब है . अमरीका ने ऐलान कर दिया है कि जो भी हाफ़िज़ सईद को अमरीका के हवाले कर देगा उसे पचास करोड़ से ज्यादा रूपये इनाम के रूप में दिए जायेगें. लगता है कि अमरीका की पाकिस्तान नीति के संचालकों को मालूम नहीं है कि हाफ़िज़ सईद की पाकिस्तान की फौज में क्या हैसियत है . आज ही पाकिस्तानी फौज के रिटायर्ड लेफ्टिनेंट जनरल हमीद गुल का बयान आ गया है कि अमरीका को कोई अख्तियार नहीं है कि वह हाफ़िज़ सईद की गिरफ्तारी की बात करे. यह वही हमीद गुल हैं जो कभी आई एस आई के डाइरेक्टर हुआ करते थे और पाकिस्तान में जितने भी बड़े आतंकवादी हैं यह उन सभी के संरक्षक रह चुके हैं . लेकिन हाफ़िज़ सईद इनका भी संरक्षक रह चुका है . हाफ़िज़ सईद के अहसानों का बदला चुकाने के लिए हमीद गुल ने तो भारत के खिलाफ भी बयान देना शुरू कर दिया है . कहते हैं कि भारत को अमरीका के उस बयान का स्वागत नहीं करना चाहिए था जिसमें कहा गया है कि हाफिज़ सईद को पकड़ने वाले को भारी रक़म बतौर इनाम दी जायेगी. वे तो यहाँ तक धमकी दे रहे हैं कि अगर पाकिस्तान के राष्ट्रपति ८ अप्रैल को ख्वाजा गरीब नवाज़ की दरगाह पर हाजिरी लगाने अजमेर जाते हैं तो पाकिस्तान की सडकों और बाज़ारों में जुलूस निकाल कर उनका विरोध किया जायेगा.

यह देखना दिलचस्प होगा कि एक आतंकवादी के लिए पाकिस्तानी फौज़ और उसकी आई एस आई का निर्माता इस तरह की बात क्यों कर रहा है . यह हाफ़िज़ सईद आखिर है कौन. पाकिस्तान की सरकार में किसी की भी औकात नहीं है कि वह हाफिज़ सईद के खिलाफ कोई कार्रवाई करे... .हाफ़िज़ मुहम्मद सईद के खिलाफ कार्रवाई करना इसलिए भी मुश्किल होगा क्योंकि आज पकिस्तान में आतंक का जो भी तंत्र है , वह सब उसी सईद का बनाया हुआ है . उसकी ताक़त को समझने के लिए पिछले ३३ वर्षों के पाकिस्तानी इतिहास पर एक नज़र डालना ठीक रहेगा. पाकिस्तान के पूर्व तानाशाह , जिया उल हक ने हाफिज़ सईद को महत्व देना शुरू किया था . उसका इस्तेमाल अफगानिस्तान में पूरी तरह से किया गया लेकिन बेनजीर भुट्टो और नवाज़ शरीफ ने उसे कश्मीर में आतंकवाद फैलाने के लिए इस्तेमाल किया . वह पाकिस्तानी प्रशासन का बहुत ही महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया . सब को मालूम है कि पाकिस्तान में हुकूमत ज़रदारी या गीलानी की नहीं है . सारी हुकूमत फौज की है और हाफिज़ सईद फौज का अपना बंदा है. हाफिज़ सईद की हैसियत का अंदाज़ इस बात से भी लगाया जा सकता है कि जनरल जिया के वक़्त से ही वह फौज में तैनाती वगैरह के लिए सिफारिश करता रहा है और पाकिस्तान के बारे में जो लोग जानते हैं उनमें सब को मालूम है कि पकिस्तान में किसी भी सरकारी काम की सिफारिश अगर हाफिज़ सईद कर दे तो वह काम हो जाता है . यह आज भी उतना ही सच है . इसका मतलब यह हुआ कि जिन लोगों पर हाफिज़ सईद ने अगर १९८० में फौज के छोटे अफसरों के रूप में एहसान किया था, वे आज फौज और आई एस आई के करता धरता बन चुके हैं उसके अहसान के नीचे दबे हुए अफसर हाफिज़ सईद पर कोई कार्रवाई नहीं होने देंगें.


अगर पाकिस्तान पर सही अर्थों में दबाव बनाना है तो सबसे ज़रूरी यह है कि फौज में जो हाफ़िज़ सईद के चेले हैं उन्हें अर्दब में लिया जाए. इसका एक तरीका तो यह है फौज के ताम झाम को कमज़ोर किया जाए. इस मकसद को हासिल करने के लिए ज़रूरी है फौज को अमरीका से मिलने वाली मदद पर फ़ौरन रोक लगाई जाए. यह काम अमरीका कर सकता है . ऐसी हालत में अगर अमरीका की सहायता पर पल रहे पकिस्तान को अमरीकी सहायता बंद कर दी जाए तो पाकिस्तान पर दबाव बन सकता है लेकिन इस सुझाव में भी कई पेंच हैं . .पाकिस्तान के गरीब लोगों को बिना विदेशी सहायता के रोटी नहीं दी जा सकती है क्योंकि वहां पहले प्रधान मंत्री लियाकत अली के क़त्ल के बाद से विकास का काम बिलकुल नहीं हुआ है .पहली बार जनरल अयूब ने फौजी हुकूमत कायम की थी, उसके बाद से फौज ने पाकिस्तान का पीछा नहीं छोडा. आज वहां अपना कुछ नहीं है सब कुछ खैरात में मिलता है .इस सारे चक्कर में पकिस्तान का आम आदमी सबसे ज्यादा पिस रहा है. इसलिए विदेशी सहायता बंद होने की सूरत में पाकिस्तानी अवाम सबसे ज्यादा परेशानी में पड़ेगा क्योंकि ऊपर के लोग तो जो भी थोडा बहुत होगा उसे हड़प कर ही लेगें ..इस लिए यह ज़रूरी है कि पाकिस्तान को मदद करने वाले दान दाता देश साफ़ बता दें कि जो भी मदद मिलेगी, जिस काम के लिए मिलेगी उसे वहीं इस्तेमाल करना पड़ेगा. आम पाकिस्तानी के लिए मिलने वाली राशि का इस्तेमाल आतंकवाद और फौजी हुकूमत का पेट भरने के लिए नहीं किया जा सकता. अमरीका और अन्य दान दाता देशों के लिए इस तरह का फैसला लेना बहुत मुश्किल पड़ सकता है लेकिन असाधारण परिस्थतियों में असाधारण फैसले लेने पड़ते हैं . ज़ाहिर है कि इतनी बड़ी रक़म को इनाम के रूप में घोषित करके अमरीका ने एक असाधारण फैसला लिया है . लेकिन यह उम्मीद करना बेकार है कि पाकिस्तान हाफ़िज़ सईद को पकड़ कर अमरीका के हवाले कर देगा . जब तक फौज को घेरे में न लिया जाएगा , हाफ़िज़ सईद का कुछ नहीं बिगड़ेगा.

Tuesday, November 29, 2011

केंद्र सरकार ने रिटेल कारोबार में विदेशी पूंजी निवेश का फैसला अमरीका के दबाव में किया है .दासगुप्ता.

शेष नारायण सिंह

नई दिल्ली,२८ नवम्बर . खुदरा कारोबार में विदेशी पूंजी के निवेश पर केंद्र सरकार के ऊपर राजनीतिक हमले बहुत तेज़ हो गए है .. आज विपक्ष के साथ साथ यू पी ए की साथी पार्टियों ने भी खुले आम सरकार का विरोध किया . कम्युनिस्ट पार्टी के संसद सदस्य गुरुदास दासगुप्ता ने साफ़ आरोप लगाया कि प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को वादा किया था कि अमरीकी अर्थ व्यवस्था को सहारा देने के लिए लिए वे अपने देश के रिटेल कारोबार को बड़ी अमरीकी कंपनियों के लिए खोल देगें . इसीलिये उन्होंने बिना संसद को भरोसे में लिए कैबेनिट में ऐसा फैसला ले लिया जिसकी वजह से आने वाली पीढियां भी परेशानी में पड़ सकती हैं .उन्होंने यह कहा कि इस फैसले को लेने में डॉ मनमोहन सिंह ने जो हडबडी दिखाई है वह शक़ पैदा करती है उन्होंने आरोप लगाया कि डॉ मनमोहन सिंह ने यह फैसला किसी दबाव में लिया है . उनका कहना है कि यह फैसला आर्थिक कारणों से नहीं राजनीतिक कारणों से लिया गया है . प्रधान मंत्री पर गंभीर आरोप लगाते हुए वाम मोर्चे ने कहा कि इस फैसले से देश का कोई भला नहीं होगा.
इसके पहले मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सभा में नेता, सीताराम येचुरी ने कहा कि जब संसद का सत्र चल रहा हो तो इतने अहम फैसले को संसद को विश्वास में लिए बिना लेना बिलकुल गलत है . उन्होंने कहा जो हडबडी केंद्र सरकार ने दिखाई है , वह बिलकुल आश्चर्यजनक है. आज़ादी के बाद के इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ जब किसी सरकार ने इस तरह का काम किया हो.. सीताराम येचुरी ने आरोप लगाया कि सरकार का यह कहना कि वे इस मुद्दे पर संसद में बहस करने को तैयार हैं कोई मतलब नहीं रखता .सवाल पैदा होता है जब सरकार ने फैसला ले ही लिया है तो सदन में बहस का अभिनय करने का क्या मतलब है . वामपंथी मोर्चे की मांग है कि सरकार ने खुदरा कारोबार में विदेशी निवेशा करने का जो फैसला लिया है पहले उसे वापस ले तभी उस पर बहस की बात का कोई मतलब निकलेगा. उन्होंने आरोप लगाया कि केंद्र सरकार नहीं चाहती कि संसद के शीतकालीन सत्र में महत्वपूर्ण बिल लाये जा सकें , इसलिए वह किसी न किसी बहाने संसद की कार्यवाही में बाधा डालने के हालात पैदा कर रही है . . सरकार ने सारे विपक्ष को अपने खुदरा कारोबार वाले फैसले से उत्तेजित करने की कोशिश की है जिसके बाद ऐसा माहौल बन सके कि कोई काम न हो और बाद में वह देश को बता सके कि विपक्ष ने काम नहीं करने दिया इसलिए लोकपाल समेत और भी बिल नहीं लाये जा सके. . सीताराम येचुरी ने आरोप लगाया कि सरकार अखबारों में विज्ञापन लाकर खुदर कारोबार में विदेशी निवेश के मामले में गलत बयानी भी कर रही है . वे इसका भी विरोध करते हैं .
लोक सभा में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता बासुदेव आचार्य ने बताया कि वाणिज्य मंत्रालय की संसद की स्थायी समिति ने एक राय से सरकार से सिफारिश की थी कि मल्टी ब्रैंड या सिंगल ब्रैंड , किसी भी खुदरा कारोबार में विदेशी पूंजी के निवेश की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए .वामपंथी मोर्चे ने कहा कि उनकी तरफ से लोक सभा में काम रोको प्रस्ताव दिया गया है . जब तक सरकार विदेशी पूंजी निवेश वाले अपने फैसले को वापस नहीं लेती तब तक उस पर भी बहस नहीं की जायेगी.

Sunday, November 13, 2011

ईरान को भी ईराक बनाने के फ़िराक़ में हैं अमरीका

शेष नारायण सिंह

अमरीका ने ईरान को घेरने की अपनी कोशिश तेज़ कर दी है . इस बार परमाणु हथियारों के नाम पर वह ईरान को कटघरे में खड़ा करना चाहता है .पश्चिम एशिया पर नज़र रखने वालों को भरोसा है कि अमरीका ने ईरान के खिलाफ इजरायल को इस्तेमाल करने का मन बना लिया है .हालांकि अमरीका, फ्रांस सहित कई अन्य पश्चिमी देश मानते हैं कि इजरायल के राष्ट्रीय नेता हमेशा सच नहीं बोलते लेकिन इजरायल की ओर से मिली इंटेलिजेंस के आधार पर अमरीका ने ईरान को अलग थलग करने की कोशिश तेज़ कर दी है . हर बार की तरह इस बार भी अमरीका संयुक्त राष्ट्र को अपने हित में इस्तेमाल करने की योजना बना चुका है .अमरीकी अखबारों में पिछले एक हफ्ते से सनसनीखेज़ बनाकर खबरें छापी जा रही हैं कि अंतर राष्ट्रीय परमाणु एनर्जी एजेंसी के पास ऐसे दस्तावेजी सबूत हैं जिसके आधार पर साबित किया जा सके कि ईरान अब परमाणु हथियार विकसित कर सकता है . इस कथित इंटेलिजेंस में वही पुराने राग अलापे जा रहे हैं . मसलन यह कहा जा रहा है कि सोवियत संघ में हथियारों को बनाने वाले वैज्ञानिकों की सेवाएँ ली जा रही हैं , उत्तरी कोरिया वालों से मदद ली जा रही है और पाकिस्तानी परमाणु स्मगलर ए क्यू खां से भी इस प्रोजेक्ट में मदद ली गयी है .ज़ाहिर है कि यह सब बहाने हैं . लेकिन इन सबके हवाले से अमरीका छुप कर हमला करने की अपनी नीति को अंजाम तक पंहुचाने की कोशिश कर रहा है.

ईरान के राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद ने अमरीका की संयुक्त राष्ट्र के ज़रिये ईरान को बदनाम करने के नाटक को अनुचित बताया है . अहमदीनेजाद ने संयुक्त राष्ट्र की कथित रिपोर्ट की चर्चा शुरू होने के बाद अपनी पहली प्रतिक्रिया में कहा है कि अमरीका की कोशिश है कि वह ईरान सहित बाकी विकास शील देशों को परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में आत्म निर्भर न बनने दे. अहमदीनेजाद ने कहा है कि ईरान अपने परमाणु कार्यक्रम से बिलकुल पीछे नहीं हटेगा. उन्होंने कहा कि संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के बहाने अमरीका दुनिया को गुमराह कर रहा है.उन्होंने संयुक्त राष्ट्र की संस्था अंतर राष्ट्रीय परमाणु एनर्जी एजेंसी की भी आलोचना की और कहा कि उसे अमरीका के बेहूदा आरोपों को अपनी तरफ से प्रचारित करने से बचना चाहिए .उन्होंने कहा कि ईरानी राष्ट्र शान्तिपूर्ण कार्यों के लिए परमाणु ऊर्जा के विकास करने के रास्ते से ज़रा सा भी विचलित नहीं होगा. एक जनसभा को संबोधित करते हुए अहमदीनेजाद ने कहा कि अंतर राष्ट्रीय परमाणु एनर्जी एजेंसी को अमरीका के चक्कर में पड़कर अपनी विश्वसनीयता से खिलवाड़ नहीं करना चाहिए. ईरान ने संयुक्त राष्ट्र को आगाह किया है कि अमरीका के एजेंट के रूप में काम करने से वह बाकी दुनिया की नजर में बिलकुल नीचे गिर जाएगा .अमरीका ने दावा किया है कि ईरान ने अपना परमाणु कार्यक्रम २००३ में अंतर राष्ट्रीय दबाव के चलते बंद कर दिया था लेकिन अब वह फिरसे चालू हो गया है.

ईरान ने संयुक्त राष्ट्र की ईरानी परमाणु कार्यक्रम को हथियारों का कार्यक्रम बताने की कोशिश को बहुत ही हलके से लिया है.ईरान के परमाणु कार्यक्रम से बहुत निकट से जुड़े अधिकारी और मौजूदा ईरानी विदेश मंत्री अली अकबर सालेही ने कहा कि अगर संयुक्त राष्ट्र का यही रुख है तो उन्हें रिपोर्ट को प्रकाशित कर लेने दीजिये . सालेही ने कहा कि ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर शुरू हुआ विवाद सौ फीसदी राजनीति से प्रेरित है .उन्होंने आरोप लगाया कि अंतर राष्ट्रीय परमाणु एनर्जी एजेंसी ( आई ई ए ई ) पूरी तरह से विदेशी ताक़तों के दबाव में काम रही है .आई ई ए ई वाले कई साल से ईरानी परमाणु कार्यक्रम पर सवाल उठाते रहे हैं लेकिन इस बार उनका दावा है कि इस बार जो सूचना मिली है उसके आधार पर कहा जा सकता है कि अब ईरान का परमाणु कार्यक्रम पूरी तरह से विकसित हो चुका है और अब उसमें रिसर्च को बहुत ही मह्त्व दिया जा रहा है .

जिस तरह से इस बार आई ई ए ई ने दावा किया है और जिस तरह से भारत समेत पूरी दुनिया के अमरीका परस्त मीडिया संगठन इस खबर को ले उड़े हैं उस से लगता है कि अमरीका एक बार फिर वही करने के फ़िराक़ में है जो उसने ईराक में किया था. दुनिया भर में फैले हुए अपने हमदर्द देशों और अखबारों की मदद से पहले ईराक के खिलाफ माहौल बनाया गया उसके बाद यह साबित करने की कोशिश की गयी कि ईराक के पास सामूहिक संहार के हथियार हैं . फिर संयुक्त राष्ट्र का इस्तेमाल कारके इराक पर हमला कर दिया गया. आज ईराक में अमरीकी कठपुतली सरकार है और अमरीका उनके पेट्रोल को अपने हित में इस्तेमाल कर रहा है . अब यह बात भी सारी दुनिया को मालूम है कि इराक और उसेक राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन को तबाह करने के बाद अमरीकी विदेश नीति के करता धरता मुंह छुपाते फिर रहे थे क्योंकि जब पूरे देश पर अमरीका का क़ब्ज़ा हो गया और उस से पूछा गया कि सामूहिक नरसंहार के हथियार कहाँ हैं तो अमरीकी राजनयिकों के पास कोई जवाब नहीं था.
ऐसा लगता है कि अमरीका अपनी उसी नीति पर चल रहा है जिसके तहत उसने तय कर रखा है कि जो देश उसकी बात नहीं मानेगा उसे किसी न किसी तरीके से सैनिक कार्रवाई का विषय बना देगा.दिलचस्प बात यह है कि इस बार के अमरीका के ईरान विरोधी अभियान में भी वही व्यक्ति इस्तेमाल हो रहा है जो ईराक के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र के अभियान में शामिल रह चुका है . डेविड अल्ब्राईट नाम का यह पूर्व हथियार इन्स्पेक्टर अमरीका की नीतियों को संयुक्त राष्ट्र का मुखौटा पहनाने में माहिर बताया जाता है . इसी अल्ब्राईट के हवाले से इस बार अमरीकी अखबारों में खबरें प्लांट की जा रही हैं . इसने दावा किया है कि जब बाकी दुनिया को बताया गया था कि ईरान ने २००३ में परमाणु कार्यक्रम रोक दिया था , उस वक़्त भी ईरान ने कोई काम रोका नहीं था. वास्तव में उसने परमाणु कार्यक्रम पर काम कर रहे अपने वैज्ञानिकों को अन्य क्षेत्रों में रिसर्च करने के काम में लगा दिया था. संयुक्त राष्ट्र से छुट्टी पाने के बाद डेविड अल्ब्राईट अमरीका की राजधानी वाशिंगटन डी सी के एक संस्थान का अध्यक्ष है .वहां भी यह अमरीकी हितों के काम में ही लगा हुआ है . इंस्टीटयूट फार साइंस ऐंड इंटरनैशनल सिक्योरिटी नाम के इस संगठन का काम प्रकट में तो पूरी दुनिया के परमाणु कार्यक्रमों का विश्लेषण करना है लेकिन वास्तव यह अमरीकी विदेश नीति के हित साधन का एक फ्रंट मात्र है . इसी संस्थान में बैठकर अब डेविड अल्ब्राईट अमरीकी विदेश नीति का काम संभाल रहे हैं . बताया जाता है कि सी आई ए ने अपने बहुत सारे गुप्त संगठनों की तरफ से इस संस्थान को ग्रांट भी दिलवा रखी है .डेविड आल्ब्राईट के इस संस्थान को अमरीकी विदेश और रक्षा विभाग से भी पैसा मिलता है .इसी संस्थान के पास मौजूद तथाकथित दस्तावजों के आधार पर डेविड अल्ब्राईट ने अपने लाल बुझक्कड़ी अंदाज़ में दावा किया है कि ईरान के परमाणु कार्यक्रम को चलाने वाले वाले वैज्ञानिकों को पुराने सोवियत संघ के परमाणु वैज्ञानिकों ने पढ़ा लिखा कर हथियार बनाने की शिक्षा दी है .
यह सारा प्रचार अभियान अभी ऐसे संगठनों और व्यक्तियों की तरफ से चलाया जा रहा है जिनका अमरीकी सरकार से डायरेक्ट समबन्ध नहीं है . यह सब या तो एन जी ओ हैं ,या थिंक टैंक का लबादा ओढ़े हुए हैं. अमरीकी अधिकारियों ने प्रकट रूप से यही कहा है कि अभी ईरान के नेताओं ने हथियार बनाने का फैसला नहीं किया है लेकिन उनके पास अब पूरी तकनीकी जानकारी है . उनके पास सारा सामान भी उपलब्ध है . वे जब चाहें परमाणु हथियार बहुत कम समय में तैयार कर सकते हैं .अमरीकी अधिकारी यह भी कहते हैं कि ईरान का यह दावा कि वह परमाणु कार्यक्रम की मदद से बिजली पैदा करना चाहता है , भरोसे के काबिल नहीं है. ज़ाहिर है अमरीका की पूरी कोशिश है कि ईरान का भी वही हाल किया जाए जो उसने ईराक का किया था लेकिन लगता है कि ईरान से पंगा लेना इस बार अमरीका को मुश्किल में डाल सकता है .

Friday, September 30, 2011

अमरीका से दोस्ती पाकिस्तान के लिए बहुत भारी पड़ सकती है

शेष नारायण सिंह


क्या अमरीका पाकिस्तान पर जल्द ही हमला करने वाला है ? यह सवाल पाकिस्तान के गली- कूचों और टेलिविज़न चैनलों के दफ्तरों में बहुत जोर शोर से पूछा जा रहा है . यही नहीं पाकिस्तानी हुक्मरान भी डरे हुए हैं कि कहीं अमरीका ने और सख्ती कर दी तो पाकिस्तान के लिए बहुत मुश्किल हो जायेगी. हक्कानी ग्रुप नाम के अफगान संगठन के पाकिस्तानी फौज और आई एस आई से रिश्तों के बारे में जब से अमरीकी फौज के आला अफसरों ने खुले आम बात करना शुरू कर दिया है ,तब से ही पाकिस्तान में अफरा तफरी का माहौल है . पूरे देश में जनमत का दबाव इतना ज़्यादा है कि प्रधान मंत्री युसूफ रजा गीलानी ने सर्वदलीय बैठक बुला ली है . इस बैठक में पाकिस्तानी फौज के मुखिया जनरल कयानी और आई एस आई की मुखिया जनरल शुजा पाशा भी शामिल हो रहे हैं . अमरीका ने साफ़ कह दिया है कि हक्कानी ग्रुप ने अफगानिस्तान में अमरीकी हितों को नुकसान पंहुचाने का अभियान चला रखा है , अमरीकी ठिकानों पर लगातार हमले कर रहा है इसलिए उसको ख़त्म करना ज़रूरी है .अमरीका ने इस काम में पाकिस्तान की मदद भी माँगी है . अमरीका का यह भी आरोप है कि पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आई एस आई और हक्कानी ग्रुप में गहरे ताल्लुकात हैं . अमरीका की मांग है कि आई एस आई अब हक्कानी से दोस्ती ख़त्म करे और उसे दुश्मन मानना शुरू कर दे. अमरीका के इस रवैय्ये के बाद पाकिस्तान में बहुत गुस्सा है .देश के ज़्यादातर राजनेता और ताक़तवर फौजी लाबी मानती है कि पाकिस्तान को तिल तिल कर ख़त्म करने की अमरीकी कोशिश के चलते ही हक्कानी ग्रुप से उसके रिश्तों को मुद्दा बनाया जा रहा है . यह सच है कि हक्कानी ग्रुप से पाकिस्तान के बहुत अच्छे रिश्ते हैं लेकिन पाकिस्तानी सरकार का कहना है कि अमरीका ने ही हक्क़ानी ग्रूप को पैदा किया , उसे समर्थन दिया और आर्थिक मदद भी की. अब जब हक्कानी उनके खिलाफ हो गया है तो उसको ख़त्म करने के अभियान में पाकिस्तान को इस्तेमाल करने की कोशिश की जा रही है . पाकिस्तानी विदेश मंत्री ने तो पिछले हफ्ते अमरीका में ही बार बार बयान दिया कि हक्कानी ग्रुप अमरीका का दोस्त संगठन है ,इसलिए उसको पाकिस्तान के मत्थे मढना ठीक नहीं है. पाकिस्तान के इस तर्क में कोई दम नहीं है क्योंकि अब तक का अमरीका का रिकार्ड रहा है कि जब दोस्त की ज़रुरत नहीं रहती तो वह उसे ख़त्म कर देता है .. आखिर तालिबान और अल कायदा भी तो अमरीका की कृपा और उसके पैसे से ही पैदा हुए थे लेकिन बाद में अल कायदा अमरीका का दुश्मन नंबर एक बन गया . अल कायदा के मुखिया ओसामा बिन लादेन को जिंदा या मुर्दा पकड़ना अमरीकी विदेश नीति का मुख्य एजेंडा बन गया और अंत में पाकिस्तान जैसे दोस्त के देश में ख़ुफ़िया तरीके से घुस कर अमरीका ने ओसमा को क़त्ल किया. उसी तरह से हक्कानी ग्रुप भी अमरीका की देन है लेकिन आजकल वह उसके लिए मुसीबत बना हुआ है . अमरीकी फौज का दावा है कि अफगानिस्तान में सक्रिय अमरीका के दुश्मनों में हक्कानी ग्रुप से सबसे ज्यादा ताक़तवर है .

हक्कानी ग्रुप के मौजूदा मुखिया मौलाना जलालुद्दीन हक्कानी को अमरीका ने अफगानिस्तान से सोवियत सेना को भगाने के अभियान में इस्तेमाल किया था. जलालुद्दीन हक्क़ानी का इतना दबदबा था कि अमरीकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रेगन ने उन्हें व्हाईट हाउस में बतौर मेहमान आमंत्रित किया था. हक्कानी को अमरीकी खुफिया संगठन सी आई ए का पूरा और खुला समर्थन रहता था. इसके अलावा हक्कानी ने पाकिस्तानी आई एस आई से भी बिरादराना ताल्लुकात कायम कर लिया . उसे सउदी अरब के बहुत सारे धनवानों से आर्थिक मदद मिलती रही . अब भी मिलती है . आजकल उसे अमरीका से मिलने वाला पैसा बंद हो गया है तो उस कमी को हक्कानी ग्रुप फिरौती वगैरह के गैरकानूनी धंधों के ज़रिये पूरा कर लेता है .जब १९९६ में तालिबान ने अफगानिस्तान की सत्ता पर क़ब्ज़ा किया तो सीनियर हक्कानी को मंत्री भी बनाया गया था .अभी पिछले दिनों अफगानिस्तान के मौजूदा राष्ट्रपति, हामिद करज़ई ने भी हक्कानी ग्रुप के संस्थापक मौलाना जलालुद्दीन के बेटे सिराजुद्दीन हक्कानी को प्रधानमंत्री पद देने की पेश कश की थी. उनको उम्मीद थी कि इस से तालिबान का आतंक कम हो जाएगा. लेकिन सिराजुद्दीन हक्कानी ने मना कर दिया . मौलाना जलालुद्दीन हक्कानी तो अब बूढ़े हो चले हैं लेकिन उनके बेटे सिराजुद्दीन ने काम संभाल लिया है . उन्हीं की अगुवाई में करीब पंद्रह हज़ार लड़ाके काम कर रहे हैं और अफगानिस्तान में सक्रिय अमरीकी सेना के दुश्मन बने हुए हैं . हक्कानी ग्रुप आजकल अफगान और अमरीकी फौज के निशाने पर है . शायद इसीलिये उसने अपना ठिकाना पाकिस्तान सीमा के अंदर ,पाक-अफगान बार्डर पर कहीं बना रखा है .इसी हक्कानी ग्रुप को ख़त्म करने में अमरीका को पाकिस्तानी मदद की ज़रुरत है लेकिन पाकिस्तान के लिए हक्कानी ग्रुप के खिलाफ युद्ध का ऐलान करना बहुत ही मुसीबत का कारण बन सकता है . सच्ची बात यह है कि हक्कानी ग्रुप आजकल पाकिस्तानी फौज और आई एस आई का गहरा दोस्त है . जहां पाकिस्तानी सेना खुले आम कुछ नहीं कर पाती वहां हक्कानी ग्रुप का इस्तेमाल किया जाता है . ऐसी हालत में हक्कानी ग्रुप को ख़त्म करने का मतलब यह भी होगा कि पाकिस्तानी फौज अपनी ही एक शाखा को नेस्तनाबूद करने जा रही होगी.

इस स्थिति में पाकिस्तान सरकार में हक्कानी के खिलाफ कार्रवाई करने से बचने के उपायों पर चर्चा हो रही है . पाकिस्तानी राजनीति को समझने वालों का कहना है कि अगर आज हक्कानी ग्रुप के खिलाफ काम करने के लिए पाकिस्तानी फौज़ को मजबूर कर दिया गया तो कल अमरीका यह भी कह सकता है कि आई एस आई ने बहुत सारे आतंकी काम किये हैं इसलिए उसे भी ख़त्म कर दिया जाना चाहिए . इतने ज़बरदस्त दबाव के चलते ही प्रधान मंत्री युसूफ रजा गीलानी ने सर्वदलीय बैठक बुलाई है . उधर इस्लामबाद में अमरीका से रिश्ते ख़त्म होने के बाद के रिश्तों पर चर्चा के लिए बैठकें शुरू हो गयी हैं . पाकिस्तानी राजधानी में सउदी अरब और चीन के राजनयिकों से मुलाकातों का सिलसिला जारी है . राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी और विदेश सचिव सलमान बशीर ने अमरीकी राजदूत से मुलाक़ात करके कुछ रास्ता निकालने की बात शुरू कर दिया है . प्रधान मंत्री गीलानी ने चीनी उपप्रधान मंत्री मेंग जियानझू से मुलाक़ात के बाद दावा किया कि चीन ने उन्हें भरोसा दिलाया है कि वह पाकिस्तान की स्वतंत्रता , अखंडता और सार्व भौमिकता का समर्थन करता है . पाकिस्तान की सरकार और फौज को डर है कि अमरीका अफगानिस्तान की तरफ से उत्तरी पाकिस्तान के उन ठिकानों पर हमला कर सकता है जहां हक्क़ानी ग्रुप का मुख्यालय है . हक्कानी ग्रुप ने अपने सारे महत्वपूर्ण ठिकाने पाकिस्तान के उत्तरी वजीरिस्तान इलाके में बना रखे हैं . पाकिस्तान को मालूम है कि अगर उसने हक्कानी के खिलाफ अमरीका की मदद करने में आनकानी की तो अमरीका हमला भी कर सकता है . पाकिस्तान में इस संभावित हमले को पाकिस्तानी ज़मीन पर किया गया हमला माना जायेया. पाकिस्तानी हुक्मरान की घबडाहट इसी संदर्भ में समझी जानी चाहिए . समाचार एजेंसी रायटर्स के साथ बातचीत में पाकिस्तानी प्रधान मंत्री ने साफ़ कहा कि उनका देश एक सार्वभौम देश है उनके ऊपर कोई अन्य मित्र देश हमला कैसे कर सकता है . पाकिस्तान में अब अमरीका के बाद की योजना पर काम होना शुरू हो गया है लेकिन क्या यह संभव है . सोमवार को आई एस आई के मुखिया जनरल शुजा पाशा सउदी अरब गए थे .उनकी कोशिश है सउदी अरब से मदद ली जाए .लेकिन क्या सउदी अरब की हिम्मत है कि वह अमरीका को नाराज़ कर सकता है . जहां तक चीन का सवाल है वह अमरीका के दबाव में नहीं है लेकिन क्या वह पाकिस्तान जैसे गरीब देश के लिए अमरीका से अपने व्यापारिक रिश्तों को तबाह करके उसकी सेना को रोकने की किसी पाकिस्तानी कोशिश में उसकी मदद करेगा. ऐसी हालत में अब पाकिस्तान के लिए सबसे सही और सुरक्षित रास्ता यही लगता है कि वह स्वीकार कर ले कि उसके लिए अमरीका को नाराज़ कर पाना बिलकुल संभव नहीं है और उसे अब अमरीका की प्रभुता स्वीकार कर लेनी चाहिए. पिछले साठ साल की अमरीकापरस्त विदेशनीति की यही तार्किक परिणति है .

Saturday, April 23, 2011

अमरीका की पालतू पाकिस्तानी बिल्ली ने गरज कर म्याऊँ कहा

शेष नारायण सिंह

पाकिस्तान की मदद करके अब अमरीका पछता रहा है .अब अमरीकी अधिकारी वे बातें सार्वजनिक रूप से कहने लगे हैं जो आम तौर पर दोनों देशों के बड़े नेता बंद कमरों में कहा करते थे. मसलन अब अमरीकी फौज के मुखिया ऐलानियाँ कह रहे हैं कि पाकिस्तानी सेना और उसकी संस्था आई एस आई आतंकवाद की प्रायोजक है अभी पिछले हफ्ते पाकिस्तानी वित्त सचिव हफीज शेख ने कह दिया कि यह सच नहीं है कि उनका देश अमरीकी मदद से फायदा उठा रहा है . अमरीकी अधिकारियों ने फ़ौरन फटकार लगाई कि वित्त सचिव महोदय गलत बयानी कर रहे हैं . अमरीकी सरकार की तरफ से बताया गया कि पिछले दस वर्षों में अमरीका पाकिस्तान को बीस अरब डालर की मदद कर चुका है . और जब से पाकिस्तान बना है अमरीका उसे करीब पचास अरब डालर का दान दे चुका है . यह भी साफ़ कर दिया गया कि यह शुद्ध रूप से खैरात है , इसके अलावा अमरीका समय समय पर पाकिस्तान को अंतर राष्ट्रीय संस्थाओं से सस्ते रेट पर क़र्ज़ वगैरह भी दिलवाता रहा है .पाकिस्तान को अमरीका ने बहुत बड़े पैमाने पर विकास के लिए भी सहायता की है . पाकिस्तानी सेना तो लगभग पूरी तरह अमरीकी मदद की वजह से चल पा रही है . अमरीका ने आरोप लगाया कि अमरीका से मिली हुई मदद के अस्तित्व को इनकार करके पाकिस्तान अहसान फरामोशी कर रहा है .इस बातचीत के बाद दोनों देशों के बीच के संबंधों में बहुत तल्खी आ गयी है . इस तल्खी को दुरुस्त करने के उद्देश्य से पाकिस्तान के विदेश सचिव , सलमान बशीर गुरुवार को अमरीका पंहुचे . लेकिन बात और बिगड़ गयी. वहां अमरीकी सेना की संयुक्त कमान के मुखिया एडमिरल माइक मुलेन ने बयान दे दिया कि पाकिस्तानी सेना आतंकवाद की प्रायोजक है और उसी ने हक्कानी गिरोह और लश्कर-ए-तय्यबा को हर तरह की मदद की है . यह दोनों ही गिरोह अफगानिस्तान और भारत में तो आतंक फैला ही रहे हैं , यह अफ्गान्स्सितान में अमरीकी और अन्य सहयोगी देशों के लोगों की ह्त्या कर रहे हैं . उनके इस बयान के बाद पाकिस्तानी सेना के मुखिया जनरल अशफाक परवेज़ कयानी भड़क उठे और उन्होंने अमरीका अपर गलत बात करने का आरोप लगा डाला .उन्होंने कहा कि अमरीका पाकिस्तान के बारे में नकारात्मक प्रचार कर रहा है और वे उस प्रचार को व्यक्तिगत रूप से खारिज करते हैं .उन्होंने कहा कि पाकिस्तानी फौज आतंकवाद के खात्मे के लिए जो कुछ भी कर रही है , वह पाकिस्तानी राष्ट्र के दृढ़ निश्चय का बहुत बड़ा सबूत है .
अब अमरीकी शासकों को साफ़ नज़र आने लगा है कि पाकिस्तानी फौज की संस्था आई एस आई सही मायनों में आतंकवाद की ठेकेदार है . पिछले ३० वर्षों से भारत आई एस आई प्रायोजित आतंकवाद को झेला है . पंजाब और जम्मू-कश्मीर में आई एस आई के आतंक का सामना किया है . लेकिन जब भी अमरीका से कहा गया कि जो भी मदद पाकिस्तान को अमरीका तरफ से मिलती है ,उसका बड़ा हिस्सा भारत के खिलाफ इस्तेमाल होता है तो अमरीका ने उसे हंस कर टाल दिया . अब जब अमरीकी हितों पर हमला हो रहा है तो पाकिस्तान में अमरीका को कमी नज़र आने लगी है .
पाकिस्तान में अमरीका विरोध में भारी जनमत है . जो भी पाकिस्तानी नेता या फौजी अमरीका के खिलाफ बयान देता है ,उसकी अपने देश में इज्ज़त बढ़ जाती है . ज़ाहिर है जनरल कयानी के अमरीका के खिलाफ दिए गए बयान की बहुत तारीफ़ की जा रही है . लेकिन सच्चाई यह है कि अगर अमरीका पाकिस्तान को आर्थिक सहायता देना बंद कर दे पाकिस्तान में रोटी पानी का संकट भी आ सकता है . अब तक पाकिस्तान को सउदी अरब से खासी मदद मिलती रही है लेकिन अब पश्चिम एशिया में तानाशाही के खिलाफ चल रहे आन्दोलनों के चलते लगभग सभी अरब देश अपनी ही मुसीबतों में घिरे हुए हैं . उनके लिए किसी बाहरी देश की मदद कर पाना अब थोडा मुश्किल होगा. पाकिस्तान का मददगार चीन भी है लेकिन वह उसे नक़द कोई मदद नहीं देता . वह पाकिस्तान में बहुत सारी ढांचागत सुविधाओं की स्थापना कर रहा है ,जिससे आने वाले वक़्त में पाकिस्तानी राष्ट्र को लाभ मिल सकता है .लेकिन पाकिस्तान का दुर्भाग्य है कि मुहम्मद अली जिन्नाह के बाद पाकिस्तान को कोई ऐसा नेता नसीब नहीं हुआ जो दूर की बात सोचे ,पाकिस्तानी अवाम के भविष्य की चिंता करे.वहां पर तो जो भी सत्ता में आता है वह देश के संसाधनों को अपनी जेब में भरने के चक्कर में ही रहता है . कई पाकिस्तानी तानाशाह तो ऐसे भी गुज़रे हैं जो देश की कीमत पर अपनी संपत्ति को बढाते रहे हैं . पाकिस्तानी फौज का भी यही इतिहास रहा है . उसके बड़े अफसर भी अमरीका से हर तरह का लाभ लेते रहे हैं . शीतयुद्ध के दिनों में दक्षिण एशिया में सोवियत रूस का प्रभाव काबू में करने के लिए पाकिस्तानी फौज की खूब मदद की गयी . अफगानिस्तान से रूसी सेना को भगाने में पाकिस्तान की फौज और आई एस आई ने अहम भूमिका निभाई थी . लेकिन सोवियत रूस के तबाह हो जाने के बाद अमरीका ने उस दौर में जिस आतंकवाद को उकसाया था वह उसी के गले पड़ गया . अब उसी आतंकवाद से लड़ने के लिए अमरीका को पाकिस्तानी मदद की ज़रुरत है . जार्ज बुश की मूर्खतापूर्ण कूटनीति के चलते अमरीका पिछले कई वर्षों से अफगानिस्तान में उलझ गया है . कई बार तो ऐसा लगता है कि अमरीका के लिए अफगानिस्तान की लड़ाई , वियतनाम से भी महंगी पड़ सकती है . ऐसी हालत में उसे पाकिस्तान को नाराज़ करना बाहुत भारी पड़ सकता है . यह बात सारी दुनिया के साथ साथ पाकिस्तानी जनरल कयानी को भी पता है और वे उसी की कीमत वसूल रहे हैं और अपनी जनता की वाहवाही लेने के लिए अमरीका के खिलाफ उलटे सीधे बयान भी देते रहते हैं .लेकिन अमरीका के सब्र का बाँध अगर टूट गया तो इस बात की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि अमरीका पाकिस्तान को भविष्य में आर्थिक सहायता देने से मना कर दे. अगर ऐसा हुआ तो पाकिस्तान को तबाह होने से कोई नहीं बचा सकेगा .

Tuesday, March 1, 2011

पाकिस्तान के आतंरिक मामलों में अमरीका की भारी दखल

शेष नारायण सिंह

पाकिस्तान अब अमरीका के चंगुल में बुरी तरह से फंस गया है और छूटने के लिए छटपटा रहा है.लेकिन पिछले साठ वर्षों से पाकिस्तानी हुकूमत को पाल रही अमरीकी विदेश नीति पाकिस्तान को आसानी से छोड़ने वाली नहीं है . जनरल अयूब खां से लेकर अब तक पाकिस्तान का हर तानाशाह अपने खुद के लिए और अपने देश के लिए अमरीका से खैरात लेता रहा है . ज़ाहिर है अमरीका अपने खरबों डालर को ऐसे ही नहीं डूबने देगा .पाकिस्तानी अवाम में अमरीकी दादागीरी के प्रति बहुत बड़ी नफरत का भाव है लेकिन हुकूमत के लोग चुप रहते हैं . अब लगता है कि हुकूमत को भी अपना रुख साफ़ करने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है . पाकिस्तान की राजधानी लाहौर में दो लोगों के क़त्ल के आरोप में पकडे गए अमरीकी नागरिक रेमंड डेवीस की गिरफ्तारी के बाद मामला पब्लिक डोमेन में आया और रोज़ ही बिगड़ता जा रहा है. पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आई एस आई ने दावा किया है कि रेमंड डेवीस अमरीकी सी आई ए का एजेंट है और उसे ठेकेदारी का कवर देकर पाकिस्तानी सेना की गतिविधियों पर नज़र रखने को कहा गया था . आई एस आई ने मांग की है कि अमरीका अपने उन सभी सी आई ए एजेंटों के बारे में जानकारी दे जिन्हें उसने पाकिस्तान में ठेकेदार के रूप में काम करने के लिए तैनात किया है . पाकिस्तान का आरोप है कि सी आई ए ने बहुत बड़ी संख्या में अपने एजेंटों को पाकिस्तान में तैनात कर रखा है लेकिन उनके बारे में पाकिस्तानी अधिकारियों को कोई जानकारी नहीं है . अमरीका पाकिस्तान की इस बात को मानने को तैयार नहीं है . ताज़ा खबर यह है कि अमरीकी राष्ट्रपति के घर,व्हाईट हाउस से पाकिस्तान सरकार को चेतावनी दे दी गयी है कि रेमंड डेवीस अमरीकी राजनयिक है और उसे वियेना कन्वेंशन के नियमों अनुसार एक राजनयिक का सम्मान मिलना चाहिए .लेकिन पाकिस्तान सरकार के कुछ विभाग अपनी अकड़ में हैं. खबर है कि पेशावर से एक और अमरीकी नागरिक को गिरफ्तार कर लिया गया है . उस पर भी आई एस आई ने आरोप लगाया है कि वह जासूसी कर रहा था. वेस्ट वर्जीनिया का रहने वाले इस व्यक्ति का नाम मार्क देहावेन है लेकिन यह पेशावर में अहमद हारून बन कर रह रहा था .इन सारी घटनाओं का मतलब यह है कि पाकिस्तानी हुकूमत में कुछ ऐसे लोग हैं जो दोनों देशों के बीच के रिश्ते खराब करने पर आमादा है .

पाकिस्तान में और बाकी दुनिया में सभी जानते हैं कि पाकिस्तान की औकात अमरीका को चुनौती देने की नहीं है लेकिन पाकिस्तान की सरकार को यह रुख इसलिए लेना पड़ रहा है कि रेमंड डेवीस के मामले में पाकिस्तानी अवाम में अमरीका के खिलाफ बहुत गुस्सा है और उस गुस्से को काबू में करने के लिए पाकिस्तानी हुक्मरान अमरीका की अनुमति से अमरीका के खिलाफ सख्त रुख अपनाने का अभिनय कर रहे हैं. रेमंड देसस के मामले में पाकिस्तान में इतनी हडकंप का कारण यह है कि पाकिस्तान में फौज़ के आशीर्वाद से चलने वाले आतंकवाद का सबसे बड़ा सरगना, हाफ़िज़ मुहम्मद सईद खुद रेमंड डेवीस के मसले को तूल दे रहा है. हाफ़िज़ सईद का गुस्सा इसलिए भी सातवें आसमान पर है सी आई ए ने उसी पर नज़र रखने के लिए इस रेमंड डेवीस को तैनात किया था .यहाँ एक बात समझ लेने की है कि अमरीका ने पाकिस्तान की सरकार को यह आज़ादी भी नहीं दी है कि वह पाकिस्तानी अवाम के साथ खडी नज़र आये . अमरीकी फौज, सी आई ए और सिविलियन सरकार को पाकिस्तान में मौजूद अमरीका विरोध के माहौल को ख़त्म करने की पूरी ड्यूटी दी गयी है . जानकार बताते हैं कि अमरीकी विदेश विभाग ने साफ़ कह दिया है कि अगर पाकिस्तानी जनता के गुस्से को शांत करने में हुकूमत नाकाम रहती है तो भविष्य में खर्चा पानी मिलना बंद हो जाएगा . पाकिस्तानी राजनीति का कोई भी जानकार बता देगा कि अगर अमरीकी मदद मिलनी बंद हो जायेगी तो पाकिस्तान में भूखों मरने की नौबत आ जायेगी. अमरीकी राष्ट्रपति की ओर से मिली धमकी और पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था की खस्ता हालत को ध्यान में रखते हुए अब पाकिस्तानी खुफिया तंत्र के लोगों की समझ में आने लगा है कि अमरीका पर एक हद से ज्यादा दबाव नहीं डाला जा सकता .इस पृष्ठभूमि में पाकिस्तानी का रवैया थोडा लचीला हुआ है . पाकिस्तानी आई एस आई के एक अफसर ने वाशिंगटन पोस्ट के संवाददाता को बताया कि पाकिस्तान चाहता है कि अमरीकी उनके देश में जासूसी तो करें लेकिन उन्हने भी बराबरी की इज़्ज़त दें . गौर करने की बात यह है कि अमरीकी नागरिक, रेमंड डेवीस ने जिन दो पाकिस्तानी नागरिकों को गोली मारी थी वे भी पाकिस्तानी खुफिया तंत्र के कर्मचारी थे और वारदात के वक़्त रेमंड डेवीस का पीछा कर रहे थे. पारंपरिक रूप से आई एस आई और सी आई ए के बीच दोस्ताना रिश्ते रहे हैं . अगर रेमंड डेवीस ने किसी आम पाकिस्तानी नागरिक को मार डाला होता तो शायद पाकिस्तान सरकार को कोई एतराज़ न होता लेकिन आई एस आई के कर्मचारियों की ह्त्या के बाद मामला गरमा गया .. अगर पाकिस्तानी सरकार कोई एक्शन न लेती तो आई एस आई में ही बगावत के खतरे पैदा हो गए थे. बात को हल करने के लिए अमरीकी सेना के सभी विभागों के प्रमुखों की कमेटी के अध्यक्ष एडमिरल माइक मुलेन और पाकिस्तानी सेना के मुखिया जनरल अशफाक परवेज़ कयानी ने पिछले दिनों ओमान में मुलाक़ात की और समस्या का हल तलाशने की कोशिश की .पाकिस्तानी सेना के पूर्व प्रमुख जहांगीर करामत ने बताया कि दोनों ही सैन्य अधिकारियों ने मामले को रफा दफा करने की कोशिश की . सिद्धांत रूप में दोनों ही अफसरों में सहमति हो गयी हैं . अब बस यह देखा जा रहा है कि समझौता करने के लिए आई एस आई और जनरल कयानी अमरीकियों से कितना माल झटक सकते हैं . इसके अलावा डेवीस को रिहा करने के बदले पाकिस्तानी फौज की कोशिश है कि अमरीका की ब्रूकलिन कोर्ट में आई एस आई के पूर्व प्रमुख अहमद शुजा पाशा के खिलाफ दर्ज वह मामला भी ख़त्म हो जाए. अहमद शुजा पाशा के खिलाफ नवम्बर २००८ में मुंबई में हुए आतंकवादी हमले के सिलसिले में मुक़दमा दर्ज है . पाकिस्तानी हुकूमत के लिए रेमंड डेवीस को छोड़ना बहुत मुश्किल होगा क्योंकि पाकिस्तानी आतंकवादी संगठनों के आदि पुरुष हाफ़िज़ मुहम्मद सईद ने ऐसा माहौल बना दिया है कि पाकिस्तानी अवाम डेवीस को पाकिस्तान का सबसे बड़ा दुश्मन मानती है . लाहौर की सडकों पर हाफ़िज़ मुहम्म्द सईद के आशीर्वाद से रोज़ ही जुलूस निकाले जा रहे हैं और रेमंड डेवीस को फांसी देने की मांग की जा रही है . हाफ़िज़ सईद पाकिस्तान की फौजी राजनीति में बहुत ही प्रभावशाली व्यक्ति है . . कुल मिलाकर हालात ऐसे हैं कि पाकिस्तान और अमरीका के रिश्ते रेमंड डेवीस के चक्कर में ऐसे मुकाम पर पंहुच गए हैं जहां से बिना किसी नुक्सान के फिर से सामान्य रिश्ते कायम होना बहुत ही मुश्किल है

Thursday, November 11, 2010

ओबामा की यात्रा के बाद हालात बदल जायेगें

शेष नारायण सिंह
( मूल लेख दैनिक जागरण में छप चुका है)

इरान के खिलाफ भारत को इस्तेमाल करने की अमरीकी मंशा अभी ख़त्म नहीं हो रही है . लगभग पूरी भारत यात्रा के दौरान भारत के पसंद की बातें करते हुए अमरीकी राष्ट्रपति ,बराक ओबामा ने इरान के बारे में बात करके भारत को छेड़ने की कोशिश की. हालांकि इस बात में दो राय नहीं है कि अब अमरीका भारत के ज़्यादा करीब है लेकिन कई हलकों में अमरीकी नीति के इस ताज़ा झुकाव को नापसंद भी किया जा रहा है . उसी वर्ग को संतुष्ट करने के लिए शायद इरान का उल्लेख संसद के भाषण में किया गया .ज़ाहिर है इजरायल और पश्चिम एशिया की कुछ राजधानियों में इरान के विरोध को अच्छा माना जाता है . लगता है कि इरान के बारे में बात करते हुए ओबामा उसी वर्ग को संबोधित कर रहे थे. यह अलग बात है कि बहुत सारी अमरीकी कोशिशों को भारत ने टाल दिया है जिन में इरान से रिश्ते ख़त्म करने की अपील की गयी थी . इसलिए एक भाषण में इरान का उल्लेख करके भारत को अमरीकी विदेश नीति का पक्ष धर बनाना न तो अमरीकी राष्ट्रपति का इरादा रहा होगा और न ही उन्हें उम्मीद रही होगी कि भारत इरान के खिलाफ जाकर अमरीका से दोस्ती करना चाहेगा. इरान भारत का दोस्त है . अमरीकी हुक्म के गुलाम और इरान के सम्राट, शाह रजा पहलवी को जब वहां की जनता ने हटाने का फैसला किया था तो भारत ने उस क्रान्ति की मदद की थी. उस वक़्त भी अमरीका शाह का मददगार था लेकिन इरानी अवाम ने उसकी परवाह नहीं की थी . भारत ने भी अमरीकी नीति के खिलाफ शाह का विरोध किया था . उसके बाद से ही अमरीका ण एइआन के खिलाफ तलवार भांजना शुरू कर दिया था. लेकिन भारत कभी इरान के खिलाफ नहीं गया . इस सन्दर्भ में ओबामा के संसद वाले भाषण से कुछ भी बदलने वाला नहीं है . जहां तक भारत के सम्बन्ध है उसे मालूम है कि भारत की दोस्ती अब अमरीका के लिए भी महत्वपूर्ण है. एशिया की राजनीति में चीन के बढ़ रहे दबदबे को अब दक्षिण कोरिया या जापान से बैलेंस नहीं किया जा सकता . जहां तक चीन का सवाल है , उसकी ताक़त एशिया और अफ्रीका में साफ़ नज़र आने लगी है . पाकिस्तान, उत्तर कोरिया , म्यांमार, नेपाल आदि देशों में उसका असर इतना ज़्यादा है कि वह भारत को भी परेशान कर सकता है . ऐसी हालत में भारत की तरफ बढे हुए अमरीकी हाथ दोनों ही देशों के राष्ट्रीय हित में हैं और भारत को मालूम है कि इरान के मामले में अमरीका उस पर ज़्यादा दबाव डाल पाने की स्थिति में नहीं है. तेल के खेल में भी इरान से दोस्ती भारत के राष्ट्रहित को साध सकती है और सबसे ज़रूरी बात यह है कि जब भी अमरीका भारत पर दबाव डालने की कोशिश करेगा , इरान कूटनीतिक सेफ्टी वाल्व की तरह भारत को मजबूती देगा.
इरान के बारे में अमरीकी राष्ट्रपति के दृष्टिकोण को संसद के भाषण में शायद इसलिए डाल दिया गया था कि ओबामा की नज़र अपने घरेलू श्रोताओं पर रही होगी लेकिन कुल मिलाकर भारत-अमरीकी संबंधों में ओबामा की यात्रा की वजह से जो परिवर्तन हुआ है उसका असर दक्षिण एशिया की सुरक्षा के परिप्रेक्ष्य में भी अहम है . दक्षिण एशिया की राजनीति में भारत और अमरीका परम्परागत विरोधी रहे हैं . यह पहली बार हो रहा है अमरीका भारत का साथी बन कर काम करने की सोच रहा है . इस की वजह से अमरीका के परम्परागत साथियों को तकलीफ होना स्वाभाविक है लेकिन यह भारत के हित में है कि वह दक्षिण और उत्तर-पश्चिम एशिया में बढ़ रहे आतंकवाद के खतरे को कम करने के लिए अमरीका की मदद करे. चाहे पाकिस्तानी आतंकवाद हो या भारत में जोर मार रहा माओवादी आतंकवाद , ख़तरा दोनों से ही भारत को है. जहां तक पाकिस्तान का सवाल है , उसकी फौज़ के मुखिया जनरल कयानी लश्कर-ए-तैयाबा के ख़ास हिमायती हैं और उनके मन में बंगलादेश में १९७१ में हुई पाकिस्तानी फौज़ की धुनाई का बदल लेने की आग हरदम जलती रहती है लेकिन भारत और अमरीका अगर गंभीरता से काम करें तो पाकिस्तान में मौजूद भले आदमियों की बहुत बड़ी संख्या लोकशाही के पक्ष में खडी हो सकती है . अगर ऐसा हुआ तो दक्षिण एशिया में स्थिरता का माहौल बनेगा और आतंकवाद कमज़ोर होगा.
भारत और अमरीका के बीच सहयोग बढ़ने का एक फायदा यह भी हो सकता है कि हिंद महासागर के क्षेत्र में झगड़े कम करने के भारत के मूल सिद्धांत को ताक़त मिलेगी . इस बात में दो राय नहीं है कि इस इलाके में बराक ओबामा की यात्रा के बाद हालत वही नहीं रहेगें .

Sunday, November 7, 2010

ओबामा बोले---इक्कीसवीं सदी भारत और अमरीका की है

शेष नारायण सिंह

बराक ओबामा की भारत यात्रा ने भारतीय उप महाद्वीप की राजनीति में एक नया आयाम जोड़ दिया है .पहले दिन ही १० अरब डालर के अमरीकी निर्यात का बंदोबस्त करके उन्होंने अपने देश में अपनी गिरती लोकप्रियता को थामने का काम किया है . अमरीकी चुनावों में उनकी पार्टी की खासी दुर्दशा भी हुई है . दोबारा चुना जाना उनका सपना है .ज़ाहिर है, भारत के साथ व्यापार को बढ़ावा देकर उन्होंने अपना रास्ता आसान किया है . भारत में उनकी यात्रा को कूटनीतिक स्तर पर सफलता भी माना जा रहा है . बराक ओबामा भारत को एक महान शक्ति मानते हैं . मुंबई के एक कालेज में उन्होंने कहा कि वे इस बात को सही नहीं मानते कि भारत एक उभरती हुई महाशक्ति है क्योंकि उनका कहना है कि भारत एक महाशक्ति के रूप में उभर चुका है. अपने भाषण में ओबामा ने कहा कि इक्कीसवीं सदी में दुनिया की दो महाशक्तियां ही प्रमुख रूप से जानी जायेगीं . उन्होंने कहा कि इस सदी में अमरीका के अलावा भारत की दूसरी महाशक्ति रहेगी. इसके अलावा भी उनका रुख भारत के प्रति ऐसा है जिसे दोस्ती के उदाहरण के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है . भारत से दोस्ती करके अमरीका एशिया में अपने आप को बैलेंस करना चाहता है . अमरीका सहित पूरी दुनिया में चीन की बढ़ती ताक़त और उसकी वजह से कूटनीतिक शक्ति संतुलन को नोटिस किया जा रहा है . भारत और चीन के बीच रिश्तों में १९६२ में शुरू हुआ तनाव बिलकुल ख़त्म नहीं हो रहा है . अमरीकी कूटनीति के जानकार इसी मनमुटाव को अपनी पूंजी मानकर अंतरराष्ट्रीय संबंधों के नए व्याकरण की स्थापना करने की कोशिश कर रहे हैं . वे चीन की बढ़ती ताक़त को भारत से बैलेंस करना चाहते हैं . उसके बदले में वे पाकिस्तान को उसकी वास्तविक औकात पर रखने की रण नीति पर काम कर रहे हैं . शीतयुद्ध के दिनों में अमरीका की पूरी कोशिश थी कि वह पाकिस्तान का इस्तेमाल करके सोवियत खेमे को कमज़ोर करे . उस दौर में भारत भी हालांकि निर्गुट देशों के नेता के रूप में अपने आपको पेश करता था लेकिन अमरीका की नज़र में वह रूस के ज्यादा करीब था. . भारत को कमज़ोर करके प्रस्तुत करने की अमरीकी जल्दी के तहत भारत और पाकिस्तान को एक ही खांचे में रखा जाता था . लेकिन अब सब बदल गया है. सोवियत रूस एतूत चुका है . पाकिस्तान की छवि आतंकवाद के एक समर्थक देश की बन चुकी है और पाकिस्तान का अमरीका की विदेशनीति में कोई इस्तेमाल नहीं है . पाकिस्तान की भूमिका अमरीका के लिए अब केवल इतनी है कि वह अपने आतंकवादी मित्रों की मदद से अमरीका की आन्तरिक सुरक्षा के लिए ख़तरा पैदा कर सकता है क्योंकि अफगानिस्तान और पाकिस्तान में सक्रिय तालिबान और अल कायदा को पाकिस्तानी सेना और आई एस आई की कृपा से ही दाल रोटी मिल रही है . आज की तारीख में अमरीका के लिए तालिबान और अल कायदा से बड़ा कोई ख़तरा नहीं है . इन दो आतंकवादी संगठनों को काबू करने में पाकिस्तान का इस्तेमाल हो रहा है . और इस काम के लिए अमरीका की तरफ से पाकिस्तान को बहुत बड़े पैमाने पर आर्थिक सहायता मिल रही है . भारत के लिए भी पाकिस्तान का कमज़ोर होना ज़रूरी है क्योंकि भारत की पश्चिमी सीमा पर जो कुछ भी हो रहा है वह सब पाकिस्तानी फौज़ की कृपा से हो रहा है . इसलिए भारत की कोशिश है कि वह अमरीका की मदद से पाकिस्तान को एक दुष्ट राज्य की श्रेणी में रखने में सफलता पा सके. मुंबई में जो कुछ भी ओबामा ने कहा है उसका सार तत्व यह है कि वह मुंबई पर हुए हमलों के खिलाफ हैं और आतंकवाद के खिलाफ भारत और अमरीका को सहयोग करना चाहिए . उन्होंने साफ़ बता दिया है कि भारत और अमरीका की दोस्ती बराबर के दो देशों की दोस्ती है जबकि पाकिस्तान की स्थिति अमरीका की प्रजा की है . हालांकि भारत में कुछ शेखीबाज़ टाइप नेताओं ने टिप्पणी की थी कि ओबामा ने मुंबई पर हुए आतंकवादी हमलों में पाकिस्तान का नाम न लेकर अच्छा नहीं किया . ऐसे बयान राजनीतिक अज्ञान के उदाहरण हैं और इन बयानों को देने वाले नेताओं की वैसे भी कोई औकात नहीं है .सच्चाई यह है कि ओबामा की इस यात्रा ने एशिया की भू-राजनीतिक सच्चाई को बदल दिया है और उसका असर बहुत दूर तक महसूस किया जायेगा

Monday, September 27, 2010

अमरीका को अफगानिस्तान में वियतनाम की हार की याद आ गयी

शेष नारायण सिंह

अमरीका की फौजें अफगानिस्तान में बुरी तरह से फंस गयी हैं . सैनिक इतिहास के जानकार बताते हैं कि अफगानिस्तान में अमरीका की जो जकड़न है, वह उसकी वियतनाम की दुर्दशा से भी भयावह है. मौजूदा अमरीकी राष्ट्रपति के पूर्ववर्ती ,जार्ज डब्ल्यू बुश ने अफगानिस्तान में सैनिक कार्रवाई शुरू की थी . पता नहीं किस मुगालते में उन्होंने यह सोच लिया था कि अफगानिस्तान के तालिबान हुक्मरान को ख़त्म करने के लिए उन्हें पाकिस्तान से मदद मिलेगी. अमरीकी नीतिकारों की अक्ल पर पड़े हुए परदे ने उन्हें यह देखने ही नहीं दिया कि पाकिस्तानी फौज की एक शाखा के रूप में काम करने वाले तालिबान के खिलाफ पाकिस्तानी सेना कैसे काम करेगी. तुर्रा यह कि उस वक़्त के अमरीकी राष्ट्रपति जनरल परवेज़ मुशर्रफ खुद तालिबान के संरक्षक थे. बहरहाल अरबों अरब डालर खर्च करके अब अमरीका को लगने लगा है कि गलती हो गयी. इस बीच अमरीकी फौज की गफलत के चलते तालिबान फिर से संगठित हो गए हैं और अब अमरीकी सेना के सामने एक बड़ी चुनौती खडी है. पता चला है कि तालिबान के गढ़ , कंदहार और उसके आस पास के इलाकों में तालिबान इतने मज़बूत हो गए हैं कि उनको वहां से हटाने के लिए अमरीकी सेना ने अब तक का सबसे ज़बरदस्त सैनिक अभियान शुरू कर दिया है . पिछले कुछ दिनों में इस इलाके से सोलह अमरीकी सैनिकों के मारे जाने की खबर है . जबकि बहुत सारे सैनिक मारिजुआना के खेतों में छुपे तालिबान लड़ाकों के हमलों के शिकार हुए हैं .नैटो के प्रवक्ता, ब्रिगेडियर जनरल जोसेफ ब्लोट्ज़ बताया कि पिछले एक हफ्ते से अर्घंदाब , ज़हरी और पंजवाई जिलों में तालिबान के सफाए के प्रोजेक्ट पर काम शुरू हो गया है .उन्हें उम्मीद है कि लड़ाई ज़बरदस्त होगी. आज की ज़मीनी सच्चाई यह है कि तालिबान ने अपने सबसे मज़बूत ठिकाने, कंदहार में पाँव जमा लिए हैं और उनको वहां से हटाने के बाद ही अफगानिस्तान में अमरीकी फौजों का पलड़ा भारी पडेगा. जहरी जिले के पुलिस प्रमुख बिस्मिल्ला खान ने बताया अमरीकी और अफगान फौजों का हमला पिछले एक हफ्ते से जारी है लेकिन नतीजों के बारे में किसी को कुछ नहीं मालूम.

अफगानिस्तान में अमरीकी मुसीबतों के कारण तालिबान ही नहीं है . वे अपने ही आदमी , राष्ट्रपति हामिद करज़ई से भी परेशान हैं . अमरीका की तरफ से अफगानिस्तान को संभाल रही खुफिया एजेंसी सी आई ए से करज़ई की पटरी नहीं बैठ रही है . सी आई ए ने आरोप लगाया है कि हामिद करज़ई अक्सर टुन्न रहते हैं और ज़्यादातर नशे का सेवन करते रहते हैं .सी आई ए का आरोप है कि जिस अफगानिस्तान में अमरीकी टैक्स का १२० अरब डालर हर साल फूंका जा रहा है ,वहां का राष्ट्रपति अगर नशेड़ी होगा तो कैसे गुज़र होगा. सी आई ए ने यह भी रिपोर्ट दी है कि करज़ई की पागलपन की बीमारी कई बार इतनी ज़बरदस्त हो गयी थी कि उनका इलाज़ करवाना पड़ा था. खबर यह भी है कि वे बहुत ही भ्रष्ट आदमी हैं और उनके कई रिश्तेदार ड्रग्स के कारोबार में लगे हुए हैं और सबको हामिद करज़ई का संरक्षण प्राप्त है . अमरीकी रक्षा विभाग ने कई बार करज़ई को यह सलाह दी है कि वे राजपाट छोड़कर दुबई में जाकर अपना घर बसायें लेकिन अभी करज़ई इसके लिए तैयार नहीं हैं .इस साल की शुरुआत में अफगानिस्तान में अमरीकी राजदूत , पीटर गालब्रेथ ने आरोप लगाया था कि करज़ई मादक दवाओं का सेवन करते हैं और उनका दिमागी संतुलन ठीक नहीं रहता .गालब्रेथ ने कहा था कि उनके पास राष्ट्रपति के आवास के अन्दर रहने वालों की तरफ से सूचना आई थी कि करज़ई हशीश का दम भी लगाते हैं . अपनी चिट्ठी में गालब्रेथ ने मांग की है कि करज़ई के बारे में अमरीका को अपनी नीतियों पर फिर से विचार करना पडेगा. क्योंकि उनकी नज़र में करज़ई बिकुल बेमतलब के आदमी हैं .

उधर पाकिस्तान में भी अमरीकी नीति पूरी तरह से पराजित हो गयी है . पाकिस्तान के उत्तरी इलाकों में तालिबान और अल-कायदा के ज़्यादातर आतंकवादी छुपे हुए हैं . उनके खिलाफ जब अमरीकी सेना ने हमले की योजना बनायी तो उसे पाकिस्तानी सेना को भी साथ लेना पड़ा . पाकिस्तानी सेना पर आई एस आई के असर का नतीजा है कि उस अभियान में शामिल ज़्यादातर सैनिक तालिबान के हमदर्द ही थे और अमरीकी सेना के बारे में तालिबान तक पूरी खबर पंहुचाते थे. ज़ाहिर है अमरीका का यह काम भी बट्टे खाते में ही जाएगा. ऐसी हालत में अब यह साफ़ हो गया है कि अपने अफगानिस्तान के मिशन में अमरीका बुरी तरह से फंस गया है और उसकी हालत वहां वियतनाम से भी खराब होने वाली है . राष्ट्रपति ओबामा इस सारी मुसीबत से बच निकलने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं लेकिन बच निकलने की संभावना बहुत कम है

Sunday, July 4, 2010

अमरीकी अवाम से सीख सकते हैं वंशवाद का विरोध

शेष नारायण सिंह

( मूल लेख आज ,४ जुलाई ,के दैनिक जागरण में छपा है )

आज अमरीका का स्वतंत्रता दिवस है.४ जुलाई १७७६ को ही अमरीकी अवाम ने इकठ्ठा होकर अपने आप को एक राष्ट्र के रूप में संगठित करने की घोषणा की थी . किसी भी राष्ट्र की स्थापना के कई तरीके होते हैं . सैनिक बगावत, नागरिक संघर्ष , बहादुरी, धोखेबाजी , आपसी लड़ाई झगड़े सब के बाद राष्ट्र की स्थापना की घटनाएं इतिहास को मालूम हैं . लेकिन अमरीकी राष्ट्र की स्थापना में इन सब चीज़ों का योगदान है . अपने करीब सवा दो सौ साल के इतिहास में अमरीकियों ने अपनी आज़ादी की हिफाज़त के लिए बहुत तकलीफें उठाईं, बहुत परेशानियां झेलीं लेकिन आज़ादी की शान से कभी भी समझौता नहीं होने दिया . अमरीका को आजादी बहुत मुश्किल से मिली है और उसे हासिल करने में अठारहवीं सदी में उस इलाके में रहने वाले ज्यादातर लोग शामिल हुए थे , शायद इसीलिए उन्होंने उसकी हिफाज़त के लिए कभी कोई कसर नहीं छोडी. आजादी का घोषणापत्र भी अमरीकी अवाम का एक अहम दस्तावेज़ है और उसकी सुरक्षा के लिए भी सर्वोच्च स्तर पर प्रबंध किये जाते हैं . दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान जब जापन की सेना ने पर्ल हार्बर पर हमला कर दिया था, अमरीकी हुक्मरान डर गए थे . अमरीकी स्वतंत्रता का घोषणापत्र लाइब्रेरी ऑफ़ कांग्रेस में रखा जाता है . लेकिन जब यह ख़तरा पैदा हो गया कि यूरोप में चल रही लड़ाई अमरीका में भी न पंहुच जाए तो १९४१ में इस दस्तावेज़ को कहीं और शिफ्ट कर दिया गया था .

इतिहास में इस तरह के बहुत सारे सन्दर्भ मिल जायेगें जब अमरीकियों ने अपनी आज़ादी से जुडी हर याद को संजोने में बहुत मेहनत की . ऐसा शायद इस लिए हुआ कि अपनी आज़ादी को हासिल करने में लगभग पूरी आबादी शामिल हुई थी. अपनी आज़ादी को सबसे ऊपर रखने के लिए अमरीकी नीतियाँ इस तरह से डिजाइन की गयीं कि वह आज दुनिया का चौकी दार बना हुआ है , किसी पर भी धौंस पट्टी मारता रहता है लेकिन अपने राष्ट्रहित को सबसे ऊपर रखता है . अमरीकी आज़ादी के घोषणापत्र में लिखी गयी हर चीज़ को वहां की सरकार और जनता पवित्र मानती है . इस के बरक्स जब हम अपनी आज़ादी के करीब ६३ वर्षों पर नज़र डालते हैं , तो एक अलग तस्वीर नज़र आती है . यह कहने में कोई संकोच नहीं कि आज की हमारी हालत ऐसी है जिस से हमारी आज़ादी और संविधान को बार बार ख़तरा पैदा होता रहता है .

अमरीकी समाज को उनकी आज़ादी बहुत मुश्किल से मिली थी. शायद इसीलिये वे उसको सबसे ज्यादा महत्व देते हैं . इस बात की पड़ताल करने की ज़रुरत है कि कुछ मुल्कों के लोग अपनी राजनीतिक आज़ादी को अपने जीवन से बढ़ कर मानते हैं लेकिन बहुत सारे ऐसे मुल्क हैं आज़ादी को कुछ भी नहीं समझते . साउथ अफ्रीका के उदाहरण से बात को समझने में आसानी होगी. वहां पूरा मुल्क श्वेत अल्पसंख्यकों के आतंक को झेलता रहा . अमरीका और ब्रिटेन की साम्राज्यवादी सत्ता की मदद से आतंक का राज कायम हुआ और चलता रहा . पूरा देश आज़ादी की मांग को लेकर मैदान में आ गया . उनके सर्वोच्च नेता , नेल्सन मंडेला को २७ साल तक जेल में रखा गया और जब आज़ादी मिली तो पूरा मुल्क खुशी में झूम उठा . जब राजनीतिक आज़ादी को मुक़म्मल करने के लिए सामाजिक और आर्थिक सख्ती बरती गयी तो पूरा देश राजनीतिक नेतृत्व के साथ था. आज १५ साल बाद ही साउथ अफ्रीका दुनिया में एक बड़े और ताक़तवर मुल्क के रूप में पहचाना जाता है . तीसरी दुनिया के मुल्कों में सबसे ऊपर उसका नाम है क्योंकि पूरी आबादी उस आज़ादी में अपना हिस्सा मानती है . बिना किसी कोशिश के आज़ादी हासिल करने वालों में पाकिस्तान का नाम सबसे ऊपर है . पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिन्ना शुरू में तो कांग्रेस के साथ रहे लेकिन बाद में वे पूरी तरह से अंग्रेजों के साथ थे और महात्मा गाँधी की आज़ादी हासिल करने की कोशिश में अडंगा डाल रहे थे. बाद में जब आज़ादी मिल गयी तो अंग्रेजों ने उन्हें पाकिस्तान की जागीर इनाम के तौर पर सौंप दी. नतीजा सामने है . कुछ ही वर्षों में पाकिस्तान आन्दोलन में जिन्ना के बाद सबसे बड़े नेता और पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री ,लियाक़त अली को मौत के घाट उतार दिया गया. बाद में राष्ट्र की सरकार को ऐशो आराम का साधन मानने वाली जमातों का क़ब्ज़ा हो गया और आज पाकिस्तान के सामने अस्तित्व का संकट पैदा हो गया है . लेकिन यह अमरीका के साथ कभी नहीं होगा क्योंकि आज़ादी की लड़ाई के लिए संघर्ष करने वाली जमातों के वंशज ही आज अमरीका में सत्ता के केंद्र में हैं . अपनी आज़ादी का स्वरुप अजीब है . सवतंत्रता संग्राम में जो लोग शामिल थे ,आज़ादी के बाद राष्ट्र निर्माण का काम उनके कन्धों पर ही आन पडा. जवाहर लाल नेहरू और सरदार पटेल को इन लोगों ने नेता माना और देश की प्रगति का काम ढर्रे पर चल पडा. जवाहर लाल नेहरू की दूरदर्शिता का ही नतीजा है कि देश में विकास का इतना मज़बूत ढांचा तैयार हो गया कि आज भारत उसी दिन आज़ाद हुए पाकिस्तान से बहुत ही बड़ा देश है . लेकिन जब राजनीतिक वंशवाद की शुरुआत हो गयी तो हमारी आज़ादी के लिए भी मुश्किलें बढ़ गयी हैं . आज देश के कई हिस्सों से भारत विरोधी आवाज़ उठने लगी है . कहीं कश्मीर है तो कहीं पूर्वोत्तर भारत के राज्य . कभी कभी तो विदेशी मदद से पंजाब में भी यह आवाजें उठ जाती हैं .इसका कारण यह है कि आज़ादी के रणबांकुरों के चले जाने के बाद देश की जनता को यक़ीन हो चला है कि उनका काम केवल वोट देना है .आज़ादी के बाद मिली सत्ता का इस्तेमाल कुछ परिवारों के लिए रिज़र्व है . अब तक तो इसमें एक ही परिवार का नाम लिया जाता था लेकिन अब नेताओं के बच्चे सत्ता पर काबिज़ होना अपना अधिकार मानते हैं . केंद्र सरकार में बहुत सारे ऐसे मंत्री हैं जो वहां इसलिए हैं कि उनके पिता स्वर्गवासी हो गए और उन लोगों ने उत्तराधिकारी के रूप में गद्दी संभाली. यह लोकशाही के साथ मजाक है . लोक तंत्र में सत्ता देने का अधिकार बहुमत के अलावा किसी के पास नहीं है. इन दूसरी और तीसरी पीढी के नेताओं का तर्क यह है कि उन्हें जनता ने चुन कर भेजा है . सब को मालूम है कि इस बात की हकीकत क्या है . लोक शाही तभी मज़बूत होगी जब पूरा देश अपने आपको उसमें शामिल माने. अमरीका में ऐसा ही होता है .आज अमरीकी स्वतंत्रता दिवस के हवाले से इस बात को याद किया जाना चाहिए . लेकिन इसका मतलब यह बिलकुल नहीं कि अमरीका का सब कुछ अनुकरण करने लायक है . अमरीकी सरकारों ने वियतनाम, इराक , पश्चिम एशिया आदि इलाकों में इंसानी खून बहाया है , जिसको कि कभी भी सही नहीं ठहराया जा सकता . लेकिन अपने देश की आज़ादी में सबको शामिल करने के लिए यह ज़रूरी है कि देश का हर नागरिक अपने को आज़ादी में हिस्सेदार माने और वंशवाद का हर स्तर पर विरोध करे. अमरीकी स्वतंत्रता दिवस के मौके पर अपनी आजादी करने के लिए भारतीयों को अपनी आज़ादी की हिफाज़त करने का संकल्प लेना चाहिये .

Saturday, June 12, 2010

इरान पर सुरक्षा परिषद् की नयी पाबंदी से भारत पर भी असर पडेगा

शेष नारायण सिंह

किसी और मुल्क को अपनी बराबरी न करने देने की अमरीकी जिद का एक और नमूना सामने है . अमरीका ने इरान की सरकार के ऊपर फिर से पाबंदी लगा दी है .और पश्चिम एशिया में अमरीकी दादागीरी का एक और कारनामा अंजाम दे दिया है . अमरीका को इरान का परमाणु कार्यक्रम रास नहीं आ रहा है . हर बार की तरह इस बार भी इरान पर पाबंदी लगाने के लिए अमरीका ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् का इस्तेमाल किया . अजीब बात यह है कि पांच स्थायी सदस्यों, ब्रिटेन,फ्रांस,चीन और रूस में किसी ने भी किसी तरह का विरोध नहीं किया. बाकी १० अ-स्थायी सदस्यों में ७ ने अमरीका का साथ दिया , दो ने विरोध किया और एक ने वोते में हिस्सा नहीं लिया. अ-स्थायी सदस्यों के वोट का बहुत मतलब नहीं है लेकिन अमरीका ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि वह अब इकलौता सुपर पॉवर है और उसकी मनमानी के आगे किसी की नहीं चलने वाली है . सुरक्षा परिषद् मेंचर्चा के दौरान अमरीकी राजदूत, सूज़न राईस ने कहा कि इस बार की पाबंदियाँ निर्णायक साबित होंगीं.उन्हें शिकायत है कि इरान ने उन अवसरों का इस्तेमाल नहीं किया जब उसे अपने परमाणु कार्यक्रम के शांतिपूर्ण साबित करने के अवसर दिए गए. ब्राज़ील और तुर्की ने पाबंदियों क अविरोध किया. इन दोनों ही देशों ने इरान के साथ परमाणु ऊर्जा के शान्तिपूर्ण इस्तेमाल के लिए पिछले महीने ही समझौता किया है . दोनों ही मुल्कों ने कहा कि पाबंदी लगान इसे कुछ भी हासिल नहीं होने वाला है . पाबंदी की धमकी, और किसी मुल्क को अलग थलग करने की कोशिश के नतीजे बहुत ही दुखदायी हो सकते हैं . अगर अमरीका को इरान के परमाणु कार्यक्रम से कोई शिकायत हा इतो उसे बातचीत के ज़रिये सुलझाने की कोशिश करना चाहिए. पाबंदियों की घोषणा के तुरंत बाद अमरीकी राष्ट्रपति , बराक ओबामा ने प्रेस को संबोधित किया और कहा कि इस बार इरान पर लगाई गयी पाबंदियां ज्यादा प्रभावी होंगीं और पिछले ३ बार की पाबंदियों से बेहतर नतीजे लायेंगीं . उन्होंने कहा कि पाबंदियों का मतलब यह नहीं है कि बातचीत के रास्ते बंद हो गए हैं . ओबामा ने दावा किया कि इरान से कूटनीतिक स्तर पर संवाद जारी रहेगा. लेकिन नयी पाबंदियां इरान को अलग थलग करने की गंभीर कोशिश हैं . इन पाबंदियों के तहत इरान कहीं से भी भारी हथियार नहीं खरीद सकता, उसके माल को किसी भी बन्दरगाह या हवाई अड्डे पर जांच के लिए रोका जा सकता है . उन बैंकों के लाइसेंस रद्द किये जायेंगें जिनके ऊपर शक़ होगा कि वे इरानी परमाणु कार्यक्रम में किसे एताढ़ से भी सहयोग कर रही हैं. इरान के साथियों के घेरने की कोशिश भी की जायेगी . क्योंकि रूस, फ्रांस और अमरीका ने पिछले महीने हुए ब्राजील, तुर्की और इरान के परमाणु समझौते की भी आलोचना की है . यह देश अपने आपको वियान ग्रुप कहते हैं और एक तरह से बाकी दुनिया के परमाणु कार्यक्रमों की चौकी दारी करने का ठेका ले रखा है .

अमरीकी कोशिश के बाद सुरक्षा परिषद् की तरफ से घोषित इन पाबंदियों का भारत पर भी असर पडेगा. इंदिरा गाँधी के युग में तो किसी अमरीकी राष्ट्रपति की हिम्मत नहीं थी कि वह भारत को यह समझाए कि कइसी तीसरे देश के साथ कैसा बर्ताव करना है लेकिन अब मामला बदल गया है . अभी पिछले दिनों ही संयुक्त राष्ट्र के एक मंच पर भारत के प्रतिनिधि ने अमरीका के दबाव में आकर इरान के खिलाफ वोट दिया था . लेकिन इस बार मामला बिलकुल अलग है.अमरीकी दबाव में सुरक्षा परिषद् ओर से आये इस प्रतिबन्ध पर इरान ने बिलकुल अलगर्ज़ रवैया अपनाया है . इरानी राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद ने कहा है कि संयुक्त राष्ट्र का यह प्रताव किसी काम का नईं है इसे इस्तेमाल किये गए रूमाल की तरह किसी कूड़े दान में फेंक देना चाहिए.इरान ने घोषणा की है इस पाबंडे एके प्रताव के बाद भी कुछ नहीं बदलेगा . इरान का इस्लामी गणराज्य यूरेनियम के संवर्धन के अपने कार्यक्रम को बदस्तूर जारी रखेगा . ज़ाहिर है कि अगर इरान सुरक्षा परिषद् और अमरीका की पाबंदी वाली धमकी को गंभीरता से लेने को तैयार नहीं है तो वह उम्मीद करेगा कि उस से अच्छा सम्बन्ध बनाने के इच्छुक देश भी इस पाबंदी की घोषणा के बाद इरान से अपन एरिष्टों में तबदीली न लायें . इरान के इस रुख से भारत के लिए परेशानी बढ़ सकती है . भारत का इरान से मज़बूत आर्थिक सम्बन्ध है . हालांकि अमरीका से भारत के आर्थिक सम्बन्ध आब जायद हो गए हैं लेकिन इरान से जो सम्बन्ध हैं उनके खराब होने पर भारत की ऊर्जा संबंधी ज़रूरतें प्रभावित होंगीं जिससे विकास की गति भी धीमी पड़ेगी और आम आदमी पर आर्थिक बोझ भी बढेगा यानी इरान को नाराज़ करके भारत महंगाई के दलदल में फंस सकता है . ज़ाहिर है कि नयी दिल्ली की कोई भी सरकार बैठे ठाले इस मुसीबत से बचना चाहेगी.इसका मतलब यह हुआ कि भारत के सामने सुरक्षा परिषद् की इरान संबंधी पाबंदी आने के बाद कठिन परिस्थितियाँ पैदा हो गयी हैं .सबसे बड़ी बात तो यह है कि इरान से भारत आने वाली गैस की पाईपलाइन की योजना ही प्रभावित होगी. दुनिया जानती है कि इस पाईपलाइन के बाद देश की ऊर्जा की ज़रूरतों पर बहुत ही सकारात्मक असर पडेगा.ऐसी हालत में अमरीका की इरान को घेरने की नयी कोशिश का बाकी दुनिया की कूटनीति पर उल्टा प्रभाव पड़ने की आशंका है .

Thursday, March 25, 2010

जनरल कयानी के हुक्म की गुलाम है पाकिस्तान सरकार

नयी दिल्ली, २२ मार्च .अमरीका ने इस बात को स्वीकार कर लिया है कि पाकिस्तान में असली ताक़त सेना के प्रमुख जनरल, अशफाक परवेज़ कयानी के ही हाथ में है.अमरीका में शुरू हो रहे पाक-अमरीकी बातचीत में जनरल कयानी शामिल भी हो रहे हैं . पाकिस्तान से जाने वाले प्रतिनधि मंडल के नाम भी उन्होंने ही तय किया है और एजेंडा भी उनकी मर्जी से बनाया गया है .पकिस्तान में सब को पता है कि विदेश मंत्री शाह महमूद कुरेशी तो बस कहने के लिए दल के नेता रहेंगें, असली कंट्रोल सेना प्रमुख के हाथ में ही है . इस बार तो मंत्री और विदेश ,वित और रक्षा विभागों के सचिवों को भी जनरल कयानी के दरबार में हाज़री लगानी पड़ी और उनके निर्देश के अनुसार ही सारी योजना बनायी गयी. इसके पहले पकिस्तान जैसे मुल्क में भी फौज के किसी अधिकारी ने सिविलियन अधिकारियों को सेना मुख्यालय में तलब नहीं किया था.

पाकिस्तानी फौज इस बात से बहुत चिंतित है कि नैटो की सलाह पर भारत ने इस बात का ज़िम्मा ले लिया है वह अफगान सेना को प्रशिक्षण देगा. जनरल कयानी को यह बात बहुत ही नागवार गुज़री है कि अफगानिस्तान में भारत का प्रभाव लगातार बढ़ रहा है .पाकिस्तान फौज के प्रवक्ता,मेजर जनरल अतहर अब्बास ने कहा है कि पकिस्तान अमरीका को पूरी गंभीरता के साथ अपनी नाराज़गी की जानकारी दे देगा. पकिस्तान ने खुद भी अफगान सेना को ट्रेनिंग देने का प्रस्ताव दे दिया है लेकिन उसके पिछले रिकॉर्ड के मद्दे-नज़र उसे यह काम मिलने की संभावना बहुत कम है .फिर भी अपना प्रस्ताव दे कर पाकिस्तान चाहेगा कि भारत को काम न मिले.

यह सारी जानकारी पकिस्तान में तो अब सबको पता है लेकिन न्यू यार्क टाइम्स में छपी एक खबर के मुताबिक अब अमरीकी हुकूमत को भी यह जानकारी हो गयी है . और वहां किसी को कोई एतराज़ नहीं है . जहाँ तक अमरीका का सवाल है, उसे पाकिस्तान में केवल इतनी दिलचस्पी है कि वह अफगानिस्तान और पकिस्तान में सक्रिय तालिबानी लड़ाकों को ख़त्म करने में पकिस्तान का इस्तेमाल करना चाहता है . इस मकसद को हासिल करने के लिए अमरीके प्रशासन की ओर से पकिस्तान को कुछ खर्च-बर्च मिलता रहता है. पकिस्तान में बेपेंदी के लोटे के रूप में मशहूर , विदेश मंत्री, शाह महमूद कुरेशी अखबारों और सार्वजनिक मंचों पर बयान देते फिर रहे हैं कि पाकिस्तानी डेलीगेशन की अगुवाई वही कर रहे हैं और उन्हें अमरीका से बहुत कुछ हासिल करना है . लेकिन पकिस्तान में कोई उनको गंभीरता से नहीं ले रहा है और लोग जानते हैं कि उन्हें इस तरह के बयान देने के लिए जनरल अशफाक परवेज़ कयानी ने ही कह रखा है .

पाकिस्तानी अखबारों में सम्पादकीय लिखे जा रहे हैं और जनरल कयानी के बढ़ते हुए दबदबे से पाकिस्तान की जम्हूरियत पसंद अवाम सकते में है . कई अखबारों में छपे बयानों में पकिस्तान के प्रधान मंत्री युसूफ रजा गीलानी को आगाह किया गया है कि वे संभल कर रहें और ऐसा माहौल बनाएं जिस से हुकूमत पर फौज का क़ब्ज़ा फिर से न हो जाए . देश के बुद्धिजीवी वर्ग में भी दहशत का आलम है . इस्लामाबाद विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर रिफात हुसैन ने कहा है कि ऐसा कभी नहीं हुआ कि सेना प्रमुख ने केंद्र सरकार के सचिवों को सेना मुख्यालय में तलब किया हो ..यह दुर्भाग्य है कि जनरल कयानी आज ड्राइवर सीट पर काबिज़ हो गए हैं .
जानकार बताते हैं कि जनरल कयानी जो कुछ भी कर रहे हैं उसे अमरीकी जनरलों का आशीर्वाद प्राप्त है .. अमरीका की यात्रा पर गए जनरल कयानी ने अमरीकी सेंट्रल कमांड के तामपा स्थित मुख्यालय में जाकर अधिकारियों से बात चीत की और सोमवार को पेंटागन में ज्वाइंट चीफ ऑफ़ स्टाफ , एडमिरल कैक मुलेन और रक्षा मंत्री, रोबेर्ट गेट्स से भी बात चीत करेंगें .इस्लामाबाद में अमरीकी दूतावास के एक प्रवक्ता ने बताया है कि बुधवार को शुरू हो रही दोनों देशों के विदेश मंत्रियों की बात चीत में जनरल कयानी भी शामिल होंगें इस बैठक में पकिस्तान अमरीका से यह फ़रियाद भी करने वाला है कि उसे जिस आर्थिक मदद का वायदा किया गया था उसमें से करीब सवा अरब डालर अभी नहीं मिली है . दर असल यह रक़म इस लिए रोक ली गयी है कि अमरीकी सरकार को अभी विश्वास नहीं है कि पाकिस्तान ने मानवीय सहायता के नाम पर मिली रक़म को सही तरीके से खर्च कर भी रहा है कि नहीं .

Friday, March 19, 2010

मुंबई हमलों के सरगना को बचाने में जुटे अमरीका और पाकिस्तान

शेष नारायण सिंह

अमरीकी नागरिक,डेविड कोलमैन हेडली ने २६ नवम्बर २००८ के दिन मुंबई के ताजमहल होटल और उसके आस पास हुए हमलों में अपने शामिल होने की बात स्वीकार करके यह बात साबित कर दिया है कि अमरीका अभी भारत को अपना शत्रु ही मानता है.यह बात ख़ास तौर से सच होती लगती है कि हेडली अमरीकी सरकार में नौकर है और पिछले कई महीने से अमरीकी की खुफिया एजेंसियां उसे बचाने की जी तोड़ कोशिश कर रही हैं .मुंबई में हमला करने वाले आतंकवादियों की डिजाइन ऐसी थी कि भारत की व्यापारिक राजधानी को दहशत की ज़द में लिया जा सके. हमला लगभग उसी शैली का था जैसा अमरीका के वर्ड ट्रेड टावर पर किया गया था . बड़े पैमाने पर नुकसान करने की योजना के साथ किया गया मुंबई हमला आतंकवाद की बड़ी घटना है. लेकिन अब इसमें अमरीकी तार जुड़ गए हैं तो यह और बड़ी घटना मानी जायेगी. मुंबई हमले के शुरू के दौर में ही यह बात साफ़ हो गयी थी कि इतने बड़े पैमाने पर विनाश करने की योजना किसी मामूली दिमाग की उपज नहीं हो सकती .इसमें बड़े गैंग शामिल हैं , यह बात सब को मालूम थी . लेकिन भारत से दोस्ती की नयी पींगें बढ़ा रहे अमरीका की सरकार के लोग इसमें शामिल होंगें , यह शक आम तौर पर नहीं किया जा रहा था. अब जब धीरे धीरे सच्चाई सामने आ रही है तो पता लग रहा है कि अमरीकी विदेश नीति के कर्ता धर्ता भारत को चैन से नहीं बैठने देना चाहते .

अमरीकी शहर, शिकागो की मुकामी आदालत में हेडली के इक़बालिया बयान का मतलब यह है कि उसने भारत के खिलाफ आतंकवादी साज़िश बनायी भी थी और उसे अंजाम तक पंहुचाया भी था. पूरा अमरीकी अमला उसे निश्चित मृत्युदंड से बचाने के काम में जुट गया है जिसका मतलब यह है कि वह अमरीकी सी आई ए के डर्टी ट्रिक विभाग का ख़ास बंदा है ..भारत पर दबाव बनानेकी गरज से किया गया यह हमला पकिस्तान की विदेश नीति को धार देने में कारगर साबित हुआ लेकिन अब लगता है कि अमरीकी विदेश नीति के योजना कारों की चाल भी यही थी कि भारत पर दबाव डाला जाए जिस से उसे पाकिस्तान के सामने थोडा झुकाया जा सके. लगता है कि अमरीकी और पाकिस्तानी विदेश नीति का वह लक्ष्य तो हासिल नहीं हो सका ,उलटे आतंकवाद के पक्षधर के रूप में पहचाने जाने के खतरे के बीच घिरे अमरीकी नीति नियामक मुसीबत में फंस गए लगते हैं. हेडली का बाप अमरीका का नागरिक बनने के पहले एक पाकिस्तानी अफसर रह चुका था . शुरू के दौर में अमरीका की कोशिश थी कि भारत पर हुए २६/११ के हमले को शुद्ध रूप से पाकिस्तानी कारस्तानी साबित करके पल्ला झाड लिया जाए लेकिन मीडिया में हेडली की पोल खुल जाने के बाद मामला अमरीकी हुकूमत की काबू के बाहर चला गया.अब इस बात में शक नहीं है कि मुंबई हमलों में अमरीकी खुफिया एजेंसियों का हाथ भी था. जहां तक पाकिस्तान के शामिल होने की बात है , उसमें तो कोई शक है ही नहीं .

भारत को कमज़ोर करने की अमरीकी डिजाइन को समझने के लिए समकालीन इतिहास के कुछ पन्ने पलटने होंगें . दूसरे विश्व युद्ध के बाद जब अमरीका एक मज़बूत देश होकर उभरा तो उसकी इच्छा थी कि वह एशिया के नवस्वतंत्र राष्ट्रों को अपने साथ ले लेगा. शीत युद्ध के बीज बोये जा चुके थे , पूरा विश्व दो खेमों में बँट रहा रहा था , कोई अमरीका के साथ जा रहा था ,तो कोई सोवियत रूस के साथ . अमरीकी विदेश नीति की कोशिश थी कि भारत को अपना साथी बना लिया जाए जिसका इस्तेमाल रूस और चीन के खिलाफ हो सकता था लेकिन अमरीका का दुर्भाग्य था कि उस वक़्त देश का नेतृत्व जवाहर लाल नेहरू के हाथ में था जो किसी भी अमरीकी राजनीतिक चिन्तक और दार्शनिक पर भारी पड़ते.. नेहरू ने गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की बुनियाद रख दी और बड़ी संख्या में नवस्वतंत्र देशों को अमरीका के खेमे में जाने से रोक दिया .उसके बाद के अमरीकी प्रशासकों ने इस बात का बुरा माना और भारत से दुश्मनी साधना शुरू कर दिया . भारत हाथ नहीं आया तो उन लोगों ने भारत को भौगोलिक रूप से लिहाज़ से घेरने के चक्कर में पाकिस्तान को अपनी चेलाही में ले लिया .. उन दिनों आज का बांगला देश भी पकिस्तान का ही हिस्सा था . ज़ाहिर है भारत के दोनों तरफ अमरीका की हमदर्द फौजें तैनात थी लेकिन भारत की विदेश नीति और सीमाओं की रक्षा की नीति दुरुस्त थी और पाकिस्तान ने जितनी बार भी भारत पर हमला किया ,उसे मुंह की खानी पड़ी. १९६५ और १९७१ में भारत के खिलाफ पकिस्तान की लड़ाई में अमरीकी शह की मात्रा भी थी लेकिन हर बार पकिस्तान का ही नुकसान हुआ. सोवियत रूस के ढह जाने के बाद तो हालात बिलकुल बदल गए .शीत युद्ध ख़त्म हो गया , अमरीका दुनिया का सबसे ताक़तवर देश बन गया . भारत की विदेश नीति ने भी हिचकोले खाए और दक्षिण पंथियों के प्रभाव में आकर वह भी धीरे धीरे अमरीकापरस्ती के रास्ते पर चल निकली . अफगानिस्तान के आतंक के केन्द्रों के तबाह करने के लिए एक बार फिर अमरीका पकिस्तान को धन दे रहा है लेकिन अब वह भारत से दोस्ती भी करना चाहता है . अफ़सोस की बात है कि इस दोस्ती में भी वह खेल शातिराना ही रख रहा है . भारत पर तरह तरह के दबाव बनाकर उसे कमज़ोर दोस्त बनाने की अमरीका की कोशिश को किसी भी हालत में सही नहीं ठहराया जा सकता.अगर अमरीका चाहता है कि भारत से अच्छे सम्बन्ध बनें तो उसे फ़ौरन हेडली को भारत के हवाले करना चाहिए क्योंकि उसने भारत पर हुए कई हमलों में अपने शामिल होने की बात को कुबूल किया है .वह वास्तव में भारत का दुश्मन है और उसे बचाने की कोशिश करके अमरीका भारत विरोधी काम कर रहा है. एक बार अगर हेडली भारत की जांच एजेंसियों के कब्जे में आ गया तो पाकिस्तानी सरकार और वहां की फौज को मुंबई हमलों का अपराधी साबित करना बहुत आसान हो जाएगा.