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Sunday, November 25, 2012

गाजा में इजरायल की दादागीरी रोकने में नाकाम अमरीका की विदेशनीति कन्फ्यूज्ड है



शेष नारायण सिंह 


दूसरे विश्व युद्ध के दौरान नाजी जर्मनी में यहूदियों के साथ बहुत ज्यादती हुई थी .उसके बाद ही नाजी जर्मनी  को हराने वाली शक्तियों ने  अरब क्षेत्रमें यहूदी  राज्य की स्थापना कर दी थी.इसी राज्य में यरूशलम है जो  इस्लाम का एक बहुत ही पवित्र केन्द्र है और वहाँ पिछले ६४ साल से यहूदियोंका कब्जा है . इजरायल नाम के इस राज्य  को अमरीका ही चलाता है . अमरीकी नीति के इजरायल समर्थक रुख के कारण ही आज अरब क्षेत्र में यहूदीआतंकवाद कायम है . यह अलग बात है कि पश्चिम एशिया के कुछ देशों के शासक अमरीका को खुश रखने के चक्कर  में इजरायल का ऐलानियाँविरोध नहीं करते लेकिन इस बात में भी कोई शक नहीं है कि पश्चिम एशिया और बाकीदुनिया के मुसलमान इजरायली दादागीरी के खिलाफ हैं . दुनिया भर में इन्साफपसंद लोग इजरायल द्वारा आतंक को हथियार बनाने के तरीकोंकी मुखालफत करते हैं .इस इलाके में हमेशा से ही इजरायली आधिपत्य का विरोध होता रहा है .  बहुत दिन बाद जब फिलीस्तीनी लोगों की भावनाओंको सम्मान देने की गरज़ से अमरीका ने फिलीस्तीनी नेता यासर अराफात और इजरायल के बीच समझौता करवाया तो फिलीस्तीनी इलाकों में अरबलोगों को थोड़े बहुत अधिकार तो  मिले लेकिन उनकी हैसियत हमेशा से ही दूसरे दर्जे के नागरिकों की ही रही .चुनावी लोकशाही के चलते चुनावों  में गाजा में हमास के नेतृत्व में सरकार बनी लेकिन अमरीका ने उसे स्वीकार नहीं किया और  एक बार फिर फिलिस्तीन और इजरायल के बीच जारीदुश्मनी  सामने आ गयी और आजकल वहाँ गोलीबारी चल  रही है . हमास किसी भी सूरत में पश्चिम एशिया में इजरायल की मौजूदगी स्वीकार करने कोतैयार नहीं है. जिस ज़मीन को वे अपनी मानते हैं उसी गाजा  इलाके में अरब आबादी  बद से बदतर हालत में रहने को मजबूर है.गाजासे इजरायली सैनिक तो चले  गए हैं लेकिन अभी भी इजरायल ने समुद्री सीमा, वायु सीमा और गाजा के चारों तरफ की ज़मीन की सीमा की घेरेबंदी कर रखी है. आज भी गाजा के लोग यह मानते हैं कि उनके ऊपर इजरायल ने सैनिक कब्जा कर रखा है और उस कब्जे से मुक्ति दिलाने वाले संगठन के रूप में हमास की पहचान  बनती है .

इस पृष्ठभूमि में वर्तमान हमास-इजरायल संघर्ष को देखा जाना चाहिए . जब चार साल पहले  इजरायल ने गाजा पर हमला किया था तो उसी हमले के बाद हुई शान्ति में अगले संघर्ष की इबारत लिख दी गयी थी. हमास की कोशिश है कि वह पश्चिम एशिया में न्याय के लिए चल रहे संघर्ष का नायक  बन जाय . शायद इसीलिए वह अमरीकी समर्थन से राज कर रहे इजरायल के खिलाफ ताकत का इस्तेमाल कर देता है . हर बार की तरह इस बार भी  इजरायल ने  ज़रूरत से ज्यादा ताक़त झोंककर फिलितीनियों को दबा लेने की कोशिश की. दुनिया जनाती है  कि एक ही ज़मीन पर रह रहे इजरायलियों  और फिलिस्तीनियों के बीच नफरत के सिवा कुछ भी साझा नहीं है .ऐसी हालत में गाजा पट्टी में सक्रिय हमास के लड़ाकू कभी कभार इजरायली इलाकों पर राकेट दागते रहते हैं . जबकि इजरायल का कहना है कि जब २००५ में उसने गाजा पट्टी से अपने सैनिक हटा लिए और अपनी आबादी को वापस बुला लिया तो फिलीस्तीनी आवाम की नाराज़गी का कोई कारण नहीं होना चाहिए . लेकिन २००५ के समझौते से अरब अवाम में कोई खुशी नहीं थी . शायद इसी लिए गाजा की जनता ने यासर अराफात की  फतह पार्टी को हराकर हमास को  २००६ में सत्ता सौंप दी थी .


इजरायली अवाम भी हर हाल में अपने आपको  मज़बूत रखना चाहता है  . उसकी ऐतिहासक याददाश्त में जर्मनी में यहूदियों के साथ हुए अत्याचार ताज़ा हैं . जबकि अरब  दुनिया में भी आजकल चारों तरफ इन्साफ के लिए  संघर्ष की ख़बरें आम हैं .इसी सन्दर्भ में हमास की स्वीकार्यता भी  बढ़ रही है .हालांकि अमरीका हमास को मान्यता नहीं  देता और कोशिश करता है कि उसे अछूत माना जाय  लेकिन अरब और इस्लामी दुनिया में हमास की स्थिति मज़बूत हो रही है . पिछले महीने कतर के अमीर  की  यात्रा से हमास की  मान्यता हासिल करने की कोशिश को ताकत मिली थी . इजिप्ट के प्रधानमंत्री की यात्रा भी इसी कड़ी में देखी जानी चाहिए .हालांकि इजिप्ट में जो सरकार है वह अमरीका की कृपा पर पल  रही है लेकिन हालात की नजाकात ऐसी है कि अमरीकी कारिंदे भी अब हमास को नज़र अंदाज़ नहीं कर पा रहे हैं .इजिप्ट के राष्ट्रपति मुहम्मद मोर्सी ने कहा है कि आज के इजिप्ट और पुराने इजिप्ट में बहुत फर्क है . यहाँ यह बात गौर करने की है कि  हमास और मुहम्मद मोर्सी के संगठन ,मुस्लिम ब्रदरहुड के  बीच बिरादराना  राजनीतिक सम्बन्ध हैं .

पश्चिम एशिया की राजनीति के जानकार बताते हैं कि २२ जनवरी को होने वाले इजरायली चुनाव के कारण भी शायद वहाँ के शासकों  ने  अरबों को सबक सिखाने की बात को बार बार दोहराया है.. इजरायली नेता इस बात से इनकार करते हैं लेकिन ऐसा  पहले भी हुआ है जब इजरायली चुनाव में अच्छा नंबर लाने के चक्कर ने इजरायली सत्ताधारी दल ने अरबों पर हमले किये थे.जून १९८१ में मेनाचेम बेगिन इजरायल के प्रधान मंत्री थे . कुछ ही हफ्ते बाद चुनाव होने थे और माना जा रहा था  कि उनको चुनौती देने वाले शिमोन पेरेज़ की जीत होगी लेकिन बेगिन ने अपनी सीमा से बहुत  दूर इराक में ओसिरक के परमाणु ठिकाने पर हमला करके उसे बर्बाद कर दिया .बेगिन की अमरीका ने तारीफ़ की और कहा कि सद्दाम हुसेन की परमाणु  हथियार बनाने की क्षमता को तबाह करके बेगिन ने अच्छा काम किया है . बेगिन के लिए जो हारा हुआ चुनाव था उसमें वे मामूली बहुमत से जीत गए .जिन शिमोन पेरेज़ को १९८१ में बेगिन ने हराया था वे १९९६ में कामचलाऊ  प्रधानमंत्री थे.चुनाव में उनकी हालत अच्छी नहीं थी. इजरायली लोग उन्हें शान्ति का पैरोकार मानते थे .इजरायली समाज में शान्ति का पैरोकार होना कोई बहुत अच्छी बात  नहीं मानी जाती. अपनी छवि को हमलावर साबित करने  के लिए  उन्होने हमास के बहुत सारे कार्यकर्ताओं को मरवा डाला और हेज़बोल्ला के खिलाफ हमला बोल दिया . लेबनान में हेज़बोल्ला  के  ठिकानों पर बमबारी की . उस चुनाव के दौरान आमतौर पर यह बताया गया था कि पेरेज़ चुनाव में जीत  के चक्कर में यह सब कर रहे थे. उनकी हालत में सुधार भी हुआ लेकिन आखिर में चुनाव हार  गए . ऐसा शायद इसलिए कि  उनके हमले में लेबनान में मौजूद संयुक्तराष्ट्र के कुछ कार्यकर्ता भी मारे  गए थे . ऐसा ही सैनिक हमला चार साल पहले भी देखा गया था जब बेंजामिन नेतान्याहू की जीत पक्की मानी जा रही थी . घबडाकर उस वक़्त  के प्रधानमंत्री एहूद ओलमर्ट ने हमला कर दिया और उनको थोडा बहुत चुनावी लाभ मिल गया .

इजरायल और हमास के बीच चल रहे संघर्ष का अरब दुनिया पर जो भी असर पड़ रहा हो लेकिन अमरीकी विदेशनीति की भी कड़ी परीक्षा हो रही है .अमरीकी राष्ट्रपति ओबामा ने नोम पेन्ह में मौजूद अपनी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन को पश्चिम एशिया की यात्रा पर भेज दिया है .  अमरीका की हमास से तो बोलचाल नहीं है लेकिन हिलेरी क्लिंटन ने वहाँ रामल्ला में फिलीस्तीनी नेताओं से बातचीत किया है और कोई नतीजा तलाशने की कोशिश जारी है . अमरीका की चिंता इसलिए भी बढ़ गयी है कि तुर्की के प्रधानमंत्री रेसेप तय्यब एरदोगान ने भी इजरायल को एक आतंकवादी राज्य घोषित कर दिया और गाजा पर हो रहे इजरायल के हवाई हमलों की निंदा की . अभी कुछ दिन पहले जब इजरायल ने जब कहा कि वह गाजा में ज़मीनी हमला शुरू कर देगा तो इजिप्ट के राष्ट्रपति मुहम्मद मोर्सी ने इजरायल को ऐसी किसी भी कोशिश से बाज़ आने की चेतावनी दी और  अपने प्रधानमंत्री को गाजा की यात्रा  पर भेज दिया  . इजरायल की  ताज़ा हठधर्मी के चलते उसके आका अमरीका के पश्चिम एशिया में मौजूद दोस्त भी अमरीका की जयजयकार करने की स्थिति में नहीं हैं .इजिप्ट की सरकार में इस बात पर भारी नाराज़गी है कि अमरीका ने  हफ़्तों चली बमबारी के बाद भी इजरायल से सार्वजनिक रूप से हमले रोकने को नहीं कहा .इस क्षेत्र में इजिप्ट के अलावा  जोर्डन भी अमरीका का दोस्त  माना  जाता  है लेकिन इजरायल के  रवैया ऐसा है कि वह  भी अब तक अमरीका के पक्ष में कुछ भी नहीं कह पाया है . अमरीकी सरकार ने सभी पक्षों से अपील की है कि वह  पश्चिम एशिया में संघर्ष की हालत को काबू में करें . बमबारी कर रहे इजरायल और हमले झेल रहे गाजा को एक ही  स्तर पर रखने के अमरीकी रुख से अरब दुनिया में गम और गुस्सा है . शायद इसीलिये अपनी लगातार गिर रही साख को संभालने की गरज़ से ओबामा ने अपनी विदेश मंत्री को  रामल्ला भेजा है . यह अलग बात है कि हालात पर काबू कर पाना अब अमरीका के लिए तभी संभव होगा जब वह इजरायल को  सैनिक ताकत का इस्तेमाल करने से रोक पाए.


(२१ नवंबर को लिखा गया लेख )

Thursday, November 11, 2010

ओबामा की यात्रा के बाद हालात बदल जायेगें

शेष नारायण सिंह
( मूल लेख दैनिक जागरण में छप चुका है)

इरान के खिलाफ भारत को इस्तेमाल करने की अमरीकी मंशा अभी ख़त्म नहीं हो रही है . लगभग पूरी भारत यात्रा के दौरान भारत के पसंद की बातें करते हुए अमरीकी राष्ट्रपति ,बराक ओबामा ने इरान के बारे में बात करके भारत को छेड़ने की कोशिश की. हालांकि इस बात में दो राय नहीं है कि अब अमरीका भारत के ज़्यादा करीब है लेकिन कई हलकों में अमरीकी नीति के इस ताज़ा झुकाव को नापसंद भी किया जा रहा है . उसी वर्ग को संतुष्ट करने के लिए शायद इरान का उल्लेख संसद के भाषण में किया गया .ज़ाहिर है इजरायल और पश्चिम एशिया की कुछ राजधानियों में इरान के विरोध को अच्छा माना जाता है . लगता है कि इरान के बारे में बात करते हुए ओबामा उसी वर्ग को संबोधित कर रहे थे. यह अलग बात है कि बहुत सारी अमरीकी कोशिशों को भारत ने टाल दिया है जिन में इरान से रिश्ते ख़त्म करने की अपील की गयी थी . इसलिए एक भाषण में इरान का उल्लेख करके भारत को अमरीकी विदेश नीति का पक्ष धर बनाना न तो अमरीकी राष्ट्रपति का इरादा रहा होगा और न ही उन्हें उम्मीद रही होगी कि भारत इरान के खिलाफ जाकर अमरीका से दोस्ती करना चाहेगा. इरान भारत का दोस्त है . अमरीकी हुक्म के गुलाम और इरान के सम्राट, शाह रजा पहलवी को जब वहां की जनता ने हटाने का फैसला किया था तो भारत ने उस क्रान्ति की मदद की थी. उस वक़्त भी अमरीका शाह का मददगार था लेकिन इरानी अवाम ने उसकी परवाह नहीं की थी . भारत ने भी अमरीकी नीति के खिलाफ शाह का विरोध किया था . उसके बाद से ही अमरीका ण एइआन के खिलाफ तलवार भांजना शुरू कर दिया था. लेकिन भारत कभी इरान के खिलाफ नहीं गया . इस सन्दर्भ में ओबामा के संसद वाले भाषण से कुछ भी बदलने वाला नहीं है . जहां तक भारत के सम्बन्ध है उसे मालूम है कि भारत की दोस्ती अब अमरीका के लिए भी महत्वपूर्ण है. एशिया की राजनीति में चीन के बढ़ रहे दबदबे को अब दक्षिण कोरिया या जापान से बैलेंस नहीं किया जा सकता . जहां तक चीन का सवाल है , उसकी ताक़त एशिया और अफ्रीका में साफ़ नज़र आने लगी है . पाकिस्तान, उत्तर कोरिया , म्यांमार, नेपाल आदि देशों में उसका असर इतना ज़्यादा है कि वह भारत को भी परेशान कर सकता है . ऐसी हालत में भारत की तरफ बढे हुए अमरीकी हाथ दोनों ही देशों के राष्ट्रीय हित में हैं और भारत को मालूम है कि इरान के मामले में अमरीका उस पर ज़्यादा दबाव डाल पाने की स्थिति में नहीं है. तेल के खेल में भी इरान से दोस्ती भारत के राष्ट्रहित को साध सकती है और सबसे ज़रूरी बात यह है कि जब भी अमरीका भारत पर दबाव डालने की कोशिश करेगा , इरान कूटनीतिक सेफ्टी वाल्व की तरह भारत को मजबूती देगा.
इरान के बारे में अमरीकी राष्ट्रपति के दृष्टिकोण को संसद के भाषण में शायद इसलिए डाल दिया गया था कि ओबामा की नज़र अपने घरेलू श्रोताओं पर रही होगी लेकिन कुल मिलाकर भारत-अमरीकी संबंधों में ओबामा की यात्रा की वजह से जो परिवर्तन हुआ है उसका असर दक्षिण एशिया की सुरक्षा के परिप्रेक्ष्य में भी अहम है . दक्षिण एशिया की राजनीति में भारत और अमरीका परम्परागत विरोधी रहे हैं . यह पहली बार हो रहा है अमरीका भारत का साथी बन कर काम करने की सोच रहा है . इस की वजह से अमरीका के परम्परागत साथियों को तकलीफ होना स्वाभाविक है लेकिन यह भारत के हित में है कि वह दक्षिण और उत्तर-पश्चिम एशिया में बढ़ रहे आतंकवाद के खतरे को कम करने के लिए अमरीका की मदद करे. चाहे पाकिस्तानी आतंकवाद हो या भारत में जोर मार रहा माओवादी आतंकवाद , ख़तरा दोनों से ही भारत को है. जहां तक पाकिस्तान का सवाल है , उसकी फौज़ के मुखिया जनरल कयानी लश्कर-ए-तैयाबा के ख़ास हिमायती हैं और उनके मन में बंगलादेश में १९७१ में हुई पाकिस्तानी फौज़ की धुनाई का बदल लेने की आग हरदम जलती रहती है लेकिन भारत और अमरीका अगर गंभीरता से काम करें तो पाकिस्तान में मौजूद भले आदमियों की बहुत बड़ी संख्या लोकशाही के पक्ष में खडी हो सकती है . अगर ऐसा हुआ तो दक्षिण एशिया में स्थिरता का माहौल बनेगा और आतंकवाद कमज़ोर होगा.
भारत और अमरीका के बीच सहयोग बढ़ने का एक फायदा यह भी हो सकता है कि हिंद महासागर के क्षेत्र में झगड़े कम करने के भारत के मूल सिद्धांत को ताक़त मिलेगी . इस बात में दो राय नहीं है कि इस इलाके में बराक ओबामा की यात्रा के बाद हालत वही नहीं रहेगें .

Sunday, November 7, 2010

ओबामा बोले---इक्कीसवीं सदी भारत और अमरीका की है

शेष नारायण सिंह

बराक ओबामा की भारत यात्रा ने भारतीय उप महाद्वीप की राजनीति में एक नया आयाम जोड़ दिया है .पहले दिन ही १० अरब डालर के अमरीकी निर्यात का बंदोबस्त करके उन्होंने अपने देश में अपनी गिरती लोकप्रियता को थामने का काम किया है . अमरीकी चुनावों में उनकी पार्टी की खासी दुर्दशा भी हुई है . दोबारा चुना जाना उनका सपना है .ज़ाहिर है, भारत के साथ व्यापार को बढ़ावा देकर उन्होंने अपना रास्ता आसान किया है . भारत में उनकी यात्रा को कूटनीतिक स्तर पर सफलता भी माना जा रहा है . बराक ओबामा भारत को एक महान शक्ति मानते हैं . मुंबई के एक कालेज में उन्होंने कहा कि वे इस बात को सही नहीं मानते कि भारत एक उभरती हुई महाशक्ति है क्योंकि उनका कहना है कि भारत एक महाशक्ति के रूप में उभर चुका है. अपने भाषण में ओबामा ने कहा कि इक्कीसवीं सदी में दुनिया की दो महाशक्तियां ही प्रमुख रूप से जानी जायेगीं . उन्होंने कहा कि इस सदी में अमरीका के अलावा भारत की दूसरी महाशक्ति रहेगी. इसके अलावा भी उनका रुख भारत के प्रति ऐसा है जिसे दोस्ती के उदाहरण के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है . भारत से दोस्ती करके अमरीका एशिया में अपने आप को बैलेंस करना चाहता है . अमरीका सहित पूरी दुनिया में चीन की बढ़ती ताक़त और उसकी वजह से कूटनीतिक शक्ति संतुलन को नोटिस किया जा रहा है . भारत और चीन के बीच रिश्तों में १९६२ में शुरू हुआ तनाव बिलकुल ख़त्म नहीं हो रहा है . अमरीकी कूटनीति के जानकार इसी मनमुटाव को अपनी पूंजी मानकर अंतरराष्ट्रीय संबंधों के नए व्याकरण की स्थापना करने की कोशिश कर रहे हैं . वे चीन की बढ़ती ताक़त को भारत से बैलेंस करना चाहते हैं . उसके बदले में वे पाकिस्तान को उसकी वास्तविक औकात पर रखने की रण नीति पर काम कर रहे हैं . शीतयुद्ध के दिनों में अमरीका की पूरी कोशिश थी कि वह पाकिस्तान का इस्तेमाल करके सोवियत खेमे को कमज़ोर करे . उस दौर में भारत भी हालांकि निर्गुट देशों के नेता के रूप में अपने आपको पेश करता था लेकिन अमरीका की नज़र में वह रूस के ज्यादा करीब था. . भारत को कमज़ोर करके प्रस्तुत करने की अमरीकी जल्दी के तहत भारत और पाकिस्तान को एक ही खांचे में रखा जाता था . लेकिन अब सब बदल गया है. सोवियत रूस एतूत चुका है . पाकिस्तान की छवि आतंकवाद के एक समर्थक देश की बन चुकी है और पाकिस्तान का अमरीका की विदेशनीति में कोई इस्तेमाल नहीं है . पाकिस्तान की भूमिका अमरीका के लिए अब केवल इतनी है कि वह अपने आतंकवादी मित्रों की मदद से अमरीका की आन्तरिक सुरक्षा के लिए ख़तरा पैदा कर सकता है क्योंकि अफगानिस्तान और पाकिस्तान में सक्रिय तालिबान और अल कायदा को पाकिस्तानी सेना और आई एस आई की कृपा से ही दाल रोटी मिल रही है . आज की तारीख में अमरीका के लिए तालिबान और अल कायदा से बड़ा कोई ख़तरा नहीं है . इन दो आतंकवादी संगठनों को काबू करने में पाकिस्तान का इस्तेमाल हो रहा है . और इस काम के लिए अमरीका की तरफ से पाकिस्तान को बहुत बड़े पैमाने पर आर्थिक सहायता मिल रही है . भारत के लिए भी पाकिस्तान का कमज़ोर होना ज़रूरी है क्योंकि भारत की पश्चिमी सीमा पर जो कुछ भी हो रहा है वह सब पाकिस्तानी फौज़ की कृपा से हो रहा है . इसलिए भारत की कोशिश है कि वह अमरीका की मदद से पाकिस्तान को एक दुष्ट राज्य की श्रेणी में रखने में सफलता पा सके. मुंबई में जो कुछ भी ओबामा ने कहा है उसका सार तत्व यह है कि वह मुंबई पर हुए हमलों के खिलाफ हैं और आतंकवाद के खिलाफ भारत और अमरीका को सहयोग करना चाहिए . उन्होंने साफ़ बता दिया है कि भारत और अमरीका की दोस्ती बराबर के दो देशों की दोस्ती है जबकि पाकिस्तान की स्थिति अमरीका की प्रजा की है . हालांकि भारत में कुछ शेखीबाज़ टाइप नेताओं ने टिप्पणी की थी कि ओबामा ने मुंबई पर हुए आतंकवादी हमलों में पाकिस्तान का नाम न लेकर अच्छा नहीं किया . ऐसे बयान राजनीतिक अज्ञान के उदाहरण हैं और इन बयानों को देने वाले नेताओं की वैसे भी कोई औकात नहीं है .सच्चाई यह है कि ओबामा की इस यात्रा ने एशिया की भू-राजनीतिक सच्चाई को बदल दिया है और उसका असर बहुत दूर तक महसूस किया जायेगा

Saturday, November 28, 2009

अमरीका का सामरिक सहयोगी बनना आज़ादी से समझौता है

शेष नारायण सिंह


भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और उनके प्रशासन ने अमेरिका में वह ओहदा प्राप्त कर लिया जिसकी कोशिश भारतीय प्रशासन लंबे समय से कर रहा था. अब हम अमेरिका के रणनीतिक साझेदार हैं. यह रणनीतिक साझेदारी क्या गुल खिला सकती है इसका पहला प्रमाण प्रधानमंत्री के भारत लौटने से पहले ही भारत पहुंच गया है. परमाणु परीक्षण के मुद्दे पर आईएईए में भारत उस ईरान के खिलाफ जा खड़ा हुआ है जिसके साथ भारत का सदियों पुराना संबंध है.

जाहिर है भारत अमरीका का राजनीतिक पार्टनर हो गया है इसलिए अब भारत वही करेगा जो अमेरिका चाहेगा. अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के खास मेहमान डा. मनमोहन सिंह और उनके मेजबान ने बार-बार इस बात का ऐलान किया। दोनों ने ही कहा कि अब उनकी दोस्ती का एक नया अध्याय शुरू हो रहा है। अब आतंकवाद की मुखालिफत, जलवायु परिवर्तन, कृषि और शिक्षा के क्षेत्र में नई पहल की जाएगी। आतंकवाद के मसले पर दोनों देशों के बीच एक समझौते पर भी हस्ताक्षर किए गए। भारत के पड़ोस में मौजूद आतंक का ज़िक्र करके अमरीकी राजनयिकों ने भारत को संतुष्ट करने का प्रयास किया है।

भारत की लगातार शिकायत रहती है कि अमरीका का रुख पाकिस्तान की तरफ सख्ती वाला नहीं रहता। साझा बयान में भारत की यह शिकायत दूर करने की कोशिश की गई है। दोनों ही देशों ने इस बात पर जोर दिया कि आतंकवादियों के सुरक्षित इलाकों पर नजर रखी जायेगी। भारत के परमाणु समझौते पर अमरीकी ढिलाई की चर्चा पर विराम लगाते हुए राष्ट्रपति ओबामा ने साफ किया और कहा कि भारत अमरीकन परमाणु समझौते की पूरी क्षमता का दोनों देशों के हित में इस्तेमाल किया जाएगा। ओबामा ने भारत को परमाणु शक्ति कहकर भारत में महत्वाकांक्षी कूटनीति के अति आशावादी लोगों को भी खुश कर दिया है। अमरीका की तर्ज पर ही कमजोर देशों के ऊपर दादागिरी करने के सपने पास रहे दक्षिणपंथी राजनयिकों को इससे खुशी होगी। लेकिन क्या इसका मतलब यह है कि अमरीका अब भारत पर परमाणु अप्रसार संधि पर दस्तखत करने के लिए दबाव नहीं डालेगा या वह अब भारत को उन देशों की सूची में शामिल कर देगा जो अधिशासिक के रूप से परमाणु शक्ति संपन्न देश माने जाते हैं। क्या अमरीका में मौजूद पाकिस्तान परस्त लॉबी के लोग ओबामा को भारत के प्रति ज्यादा पक्षधरता दिखाने का अवसर देंगे। व्हाइट हाउस के प्रांगण में डा. मनमोहन सिंह का स्वागत करते हुए अमरीकी राष्ट्रपति ने कहा कि दोनों परमाणु शक्ति संपन्न देश मिलकर दुनिया से परमाणु हथियारों को खत्म करने में सहयोग कर सकते हैं। हालांकि बयान से तो लगता है कि अमरीका भारत को अपने बराबर मानता है लेकिन कूटनीति की भाषा में कई शब्दों के अलग मतलब होते हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि भारत की वाहवाही करके अमरीकी कोशिश चल रही है कि भारत अपने आपको परमाणु अप्रसार संधि की मौजूदा भेदभावपूर्ण व्यवस्था के हवाले कर दे। वैसे भी अप्रैल 2010 में परमाणु सुरक्षा शिखर सम्मेलन प्रस्तावित है। कहीं अमरीका यह कोशिश तो नहीं कर रहा है कि भारत को उस सम्मेलन में अपने हिसाब से घुमा ले। जहां तक भारत की विदेशनीति के गुट निरपेक्ष स्वरूप की बात है उसको तो खत्म करने की कोशिश 1998 से ही शुरू हो गई थी जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने थे। उनके विदेश मंत्री जसवंत सिंह तो अमरीकी विदेश विभाग के मझोले दर्जे के अफसरों तक के सामने नतमस्तक थे।

अमरीका की हमेशा से ही कोशिश थी कि भारत को रणनीतिक पार्टनर बना लिया जाय। 1966 में जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनी थीं तो तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति लिंडन बी जानसन ने कोशिश की थी। बाद में रिचर्ड निक्सन ने भी भारत को अर्दब में लेने की कोशिश की थी। इंदिरा गांधी ने दोनों ही बार अमरीकी राष्ट्रपतियों को मना कर दिया था। उन दिनों हालांकि भारत एक गरीब मुल्क था लेकिन गुटनिरपेक्ष आंदोलन के संस्थापक के रूप में भारत की हैसियत कम नहीं थी। लेकिन वाजपेयी से वह उम्मीद नहीं की जा सकती थी, जो इंदिरा गांधी से की जाती थी। बहरहाल 1998 में शुरू हुई भारत की विदेश नीति की फिसलन अब पूरी हो चुकी है और भारत अमरीका का रणनीतिक पार्टनर बन चुका है। अमरीका का रणनीतिक पार्टनर बनना कोई खुशी की बात नहीं है। एक जमाने में पाकिस्तान भी यह मुकाम हासिल कर चुका है और आज अमरीकी विदेश नीति के आकाओं की नज़र में पाकिस्तान की हैसियत एक कारिंदे की ही है, उससे ज्यादा कुछ नहीं। इसलिए ताकतवर देश का रणनीतिक पार्टनर होना बहुत ही खतरनाक हो सकता है।

अब भारत भी राष्ट्रों की उस बिरादरी में शामिल हो गया है जिसमें ब्राजील, दक्षिण कोरिया, अर्जेंटीना, ब्रिटेन वगैरह आते हैं। इसका मतलब यह भी नहीं है कि कल से ही अमरीकी फौजे भारत में डेरा डालने लगेंगी। अमरीका की विदेश नीति अब एशिया या बाकी दुनिया में भारत को इस्तेमाल करने की योजना पर काम करना शुरू कर देगा और उसे अब भारत से अनुमति लेने की जरूरत नहीं पड़ेगी। भारत सरकार को चाहिए जब अमरीका के सामने समर्थन कर ही दिया है तो उसका पूरा फायदा उठाए। अमरीकी प्रभाव का इस्तेमाल करके भारत के विदेशनीति के नियामक फौरन सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता की बात को फाइनल करे। अब तक अमरीकी हुक्मरान भारत और पाकिस्तान को बराबर मानकर काम करते रहे हैं। जब भी भारत और अमरीका के बीच कोई अच्छी बात होती थी तो पाकिस्तानी शासक भी लाइन में लग लेते थे। यहां तक कि जब भारत और पाकिस्तान के बीच परमाणु समझौता हुआ तो पाकिस्तान के उस वक्त के राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ भी पूरी कोशिश करते पाए गए थे कि अमरीकी उनके साथ भी वैसा ही समझौता कर ले। पाकिस्तानी विदेश नीति की बुनियाद में भी यही है कि वह अपने लोगों को यह बताता रहता है कि वह भारत से मजबूत देश है और उसे भी अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी में वही हैसियत हासिल है जो भारत की है। जबकि सच्चाई इससे बिल्कुल पलट है।

भारत एक विकासमान और विकसित देश है, विश्वमंच पर उसकी हैसियत रोज ब रोज बढ़ रही है जबकि पाकिस्तान तबाही के कगार पर खड़ा एक मुल्क है, जिसके रोज़मर्रा के खर्च भी अमरीकी और सउदी अरब से मिलने वाली आर्थिक सहायता से ही चल रहे हैं। इसलिए अमरीका भी पाकिस्तान को अब वह महत्व नहीं दे सकता है। भारत अमरीकी रणनीतिक साझेदारी की बात अब एक सच्चाई है और उसके जो भी नतीजे होंगे वह भारत को भुगतने होंगे लेकिन कोशिश यह की जानी चाहिए कि भारत की एकता, अखण्डता और आत्मसम्मान को कोई ठेस न लगे।

Monday, November 16, 2009

ओबामा ने पाकिस्तान परस्त अफसर को तैनात करके गलती की

- शेष नारायण सिंह
अमरीकी राष्ट्रपति, बराक हुसैन ओबामा ने दक्षिण एशिया में गलतियाँ करना शुरू कर दिया है..उन्होंने पाकिस्तान को अमरीका से मिलने वाली आर्थिक सहायता के एक हिस्से की निगरानी का काम रोबिन राफेल को दे दिया है . यह हिस्सा गैर सैनिक सहायता का है. जब अमरीका ने केरी-लुगर एक्ट के तहत पाकिस्तान को करीब डेढ़ अरब डालर प्रति वर्ष की आर्थिक सहायता देने की बात की थी और उसमें बड़ी बड़ी शर्तें लगाई थीं जिसके मुताबिक अमरीका की मदद के एक एक पैसे का हिसाब रखा जाना था और पाकिस्तानी फौजियों पर सिविलियन सरकार की निगरानी रखी जानी थी तो लोगों ने उम्मीद बांधी थी कि अब अमरीका सुधर रहा है. अमरीकी टैक्सपेयर का पैसा पाकिस्तान की मनमानी के हवाले न करके , ऐसा इन्तेजाम कर दिया है कि उसका इस्तेमाल पाकिस्तानी अवाम के लिए होगा . लेकिन इन उम्मीदों पर हमेशा के लिए पानी फेर दिया गया है. अमरीकी गैर सैनिक सहायता की निगरानी का काम अमरीकी सरकार की रिटायर अफसर , रोबिन राफेल के जिम्मे कर दिया गया है. यह तेज़ तर्रार महिला अफसर काबिल तो बहुत हैं लेकिन यह पाकिस्तानी फौज, शासक वर्ग और उनकी खुफिया एजेंसियों से बहुत ही घुली मिली हैं. इनकी तैनाती का मतलब यह है कि पाकिस्तानी फौज जिस तरह से भी चाहे अमरीकी आर्थिक सहायता का इस्तेमाल कर सकती है. रोबिन राफेल को किसी भी कागज़ पर दस्तखत कर देने में कोई दिक्क़त नहीं होगी. लगता है के केरी-लुगर के आर्थिक सहायता वाले कानून के असर को पाकिस्तानी फौज के लिए बहुत उपयोगी बनाने की गरज से यह नियुक्ति की गयी है. यह वास्तव में अमरीकी फौज को दी गयी एक रियायत है.. जो लोग अमरीकी अफसर रोबिन राफेल को नहीं जानते , उनके लिए इस पहली को समझना थोडा मुश्किल होगा लेकिन दक्षिण एशिया के कूटनीतिक हलकों में इनका इतना नाम है कि कूटनीति का मामूली जानकार भी सारी बात को बहुत आसानी से समझ सकता है . आप ९० के दशक के शुरुआती वर्षों में अमरीकी प्रशासन में दक्षिण एशिया से सम्बंधित मामलों की सहायक सचिव थीं और हर मामले में अमरीकी रुख को भारत के खिलाफ करती रहती थीं. इन्होने ने कश्मीर को अमरीकी विदेशनीति की किताबों में "विवादित क्षेत्र" घोषित करवाया था. जब ये सहायक सचिव के रूप में तैनात थीं, तो पूरे दक्षिण एशिया क्षेत्र में अमरीकी विदेश नीति को सही दिशा में चलाने में मदद देना इनका मुख्य काम था लेकिन इन्होने अपने को पाकिस्तान के दोस्त के रूप में पेश करना ही ठीक समझा . इनके पक्षपात पूर्ण रुख का फायदा , बेनजीर भुट्टो और नवाज़ शरीफ ने उठाया. उस दौर में भारत और अमरीका के आपसी रिश्तों में जो ज़हर इन्होने घोला था, बाद के अमरीकी राष्ट्रपतियों ने उसको साफ़ करने में बहुत मेहनत की .इस पृष्ठभूमि में यह समझ में नहीं आ रहा है कि बराक ओबामा जैसे सुलझे हुए राष्ट्रपति ने पाकिस्तान और अमरीका के बीच ऐसे किसी इंसान को क्यों आने दिया जिसका पाकिस्तान प्रेम इस हद तक जाता है कि वह भारत की दुश्मनी की भी परवाह नहीं करता.

रोबिन राफेल के पाकिस्तान प्रेम के कुछ भावात्मक कारण भी हैं . सबसे महत्वपूर्ण तो शायद यह है कि इनके पति आर्नाल्ड राफेल , पूर्व पाकिस्तानी तानाशाह , जनरल जिया उल हक के करीबी दोस्त थे . १७ अगस्त १९८८ को जिस विमान हादसे में जिया की मौत हुई, उसी विमान में रोबिन राफेल के पति आर्नाल्ड राफेल भी सवार थे. ज़ाहिर है वह दौर अमरीका और पाकिस्तान की दोस्ती का सबसे बेहतरीन दौर है. उसी दौर में अमरीका ने पाकिस्तान के लिए थैलियाँ खोल दी थीं क्योंकि पाकिस्तानी फौज आज के अपने दुश्मन ,,इन्हीं तालिबान और ओसामा बिल लादेन के साथ कंधे से कन्धा मिला कर चल रही थी और अफगानिस्तान से सोवियत सेनाओं को भगाने का काम चल रहा था. भारत उन दिनों अमरीका का दुश्मन माना जाता था क्योंकि उसकी दोस्ती सोवियत रूस से थी और पाकिस्तानी हुक्मरान अमरीका की मदद से भारत को तबाह करने पर आमादा थे. भारतीय पंजाब में पाकिस्तान की खुफिया एजेन्सी , आई एस आई के आर्शीवाद से आतंकवाद पूरी बुलंदी पर था और कश्मीर में आतंकवाद की तैयारियों में पाकिस्तानी खाद पड़ रही थी. ज़ाहिर है पाकिस्तान से कूटनीतिक सम्बन्ध बनांये रखने के लिए अमरीका अपने बहुत ही अधिक भरोसे के अफसर को वहां राजदूत बनाएगा. और पाकिस्तानी राष्ट्रपति का निजी विश्वास भी उस अफसर पर था , इसीलिए , अपने सबसे ज्यादा भरोसे के अफसरों के साथ किसी सैनिक विमान में यात्रा करते वक़्त , जिया उल हक ने एक विदेशी को साथ ले जाने का फैसला किया . और वह राजदूत इन रोबिन राफेल साहिबा का पति था. पाकिस्तान के मामलों में इनकी दिलचस्पी की यही व्याख्या बताते हैं . पाकिस्तान में बहुत सारे परिवारों में रोबिन राफेल के घरेलू ताल्लुकात भी हैं . पाकिस्तानी राजनयिक, शफ़क़त काकाखेल का परिवार भी ऐसा ही एक परिवार है. शफ़क़त काकाखेल ९० के दशक में दिल्ली के पाकिस्तानी दूतावास में एक बड़े पद पर तैनात थे. उन दिनों के कूटनीतिक हलकों के जानकारों को मालूम है कि श्री काकाखेल जिस तरह से चाहें , अमरीकी नीति को मोड़ सकते थे. वैसे यह बात बिलकुल सच है कि रोबिन राफेल और शफ़क़त काकाखेल की जोड़ी ने भारत के खिलाफ अमरीका का खूब जमकर इस्तेमाल किया और आज भी उन दिनों हुए नुक्सान को संभालने की कोशिश की अमरीकी राजनयिक करते रहते हैं ..

अमरीकी सरकार की सेवा से रिटायर होने के बाद भी रोबिन राफेल साहिबा अमरीका में पाकिस्तान के लिए लाबी करने का काम करती रही हैं ..उनके कुछ ताज़ा काम ऐसे हैं जो कि उनकी निष्पक्षता पर सवाल पैदा कर देते हैं. पिछले कुछ महीनों में उन्होंने अमरीका के लिए जमकर लाबीइंग की है. और पाकिस्तान से रक़म भी बतौर फीस वसूल पायी है . . पाकिस्तान में अमरीकी खैरात का हिसाब रखने के लिए की गयी उनकी तैनाती ऐसी ही है जैसे कहीं किसी खदान से हो रही चोरी को रोकने के लिए मधु कोडा को तैनात कर दिया जाए ..अमरीकी प्रशासन, ख़ास कर राष्ट्रपति ओबामा को चाहिए कि रोबिन राफेल की नियुक्ति को फ़ौरन रद्द कर दें वरना पूरी दुनिया जान जायेगी कि अमरीका पाकिस्तानी फौज के अफसरों के सामने घुटने टेक चुका है

Thursday, July 30, 2009

शिक्षा के क्षेत्र में ओबामा की पहल

अमरीका में भारत और चीन से जाकर शिक्षा लेने वाले बच्चों की बहुत इज्जत है। राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा है कि अमरीका की शिक्षा व्यवस्था इस तरह की बनाई जाएगी कि वह भारत और चीन की शिक्षा के स्तर से मुकाबला कर सके। सच्चाई यह है कि अमरीका में शिक्षा का स्तर बहुत ऊंचा है, वहां कोई समस्या नहीं है। मुसीबत यह है कि अमरीकी नौजवान शिक्षा के प्रति उतना गंभीर नहीं है जितना भारतीय और चीनी नौजवान है।

नई शिक्षा व्यवस्था शुरू करने से ओबामा की योजना है कि अधिक से अधिक अमरीकी नौजवान ग्रेजुएट स्तर की शिक्षा और काम करने की कुशलता सीखे। ओबामा की इस योजना को अमेरिकन ग्रेजुएशन इनीशिएटिव नाम दिया गया है। उनकी कोशिश है कि ज्यादा से ज्यादा लोग सामुदायिक कालेजों में जायं और काम करने के लिए कुछ नई योग्यताएं हासिल करें। उस योजना में अगले दस वर्षों तक 12 अरब डॉलर खर्च किया जाएगा। इस धन की व्यवस्था उस सब्सिडी को काटकर की जाएगी जो अभी बैंकों और प्राइवेट वित्तीय संस्थानों दी जाती है जिससे वे मंहगी शिक्षा के लिए दिए जाने वाले कर्ज की ब्याज दर कम करने के लिए इस्तेमाल करते हैं।

सब्सिडी काटकर ओबामा ने यह ऐलान कर दिया है कि संपन्न वर्गों को ज्यादा सुविधा न देकर उनका प्रशासन अब आम आदमी की तरफ ज्यादा ध्यान देगा। बराक ओबामा का अमेरिकन ग्रेजुएशन इनीशिएटिव एक महत्वपूर्ण योजना है। द्वितीय विश्व युद्घ के बाद प्रेसिडेंट ट्रमैन ने शिक्षा के क्षेत्र में बहुत ही महत्वपूर्ण पहल की थी। उसके बाद से इतने बड़े पैमाने पर शिक्षा के क्षेत्र में कोई पहल नहीं हुई। दरअसल उच्च शिक्षा के लिए ओबामा की यह पहल बेरोजगारी की समस्या को हल करने की दिशा में दूरगामी और महत्वपूर्ण कदम है।

अमरीकी अर्थव्यवस्था के विकास के बाद ऐसा माहौल बन गया था कि हाई स्कूल तक की पढ़ाई करने के बाद बच्चे कोई न कोई नौकरी पा जाते थे। इसीलिए उच्च शिक्षा के लिए एशिया के देशों, खासकर भारत और चीन के बच्चों को फेलोशिप आदि देकर अमरीकी विश्वविद्यालयों में रिसर्च करने के लिए उत्साहित किया जाता था। नतीजा यह हुआ है कि निचले स्तर पर तो बड़ी संख्या में अमरीकी नौजवान काम कर रहा है लेकिन ऊपर के स्तर पर विदेशियों की संख्या ज्यादा है। ग्रेजुएशन इनीशिएटिव के माध्यम से ओबामा की कोशिश है कि बड़ी से बड़ी संख्या में अमरीकी नौजवान अच्छी शिक्षा लेकर नौकरियों की ऊपरी पायदान पर पहुंचे जिससे अमरीकी समाज और राष्ट्र का भला हो।

किसी भी राष्ट्र की तरक्की में शिक्षा के महत्व और उसकी मुख्य भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता भारत में पिछड़ेपन का मुख्य कारण शिक्षा की कमी ही थी। आज़ादी के बाद जवाहरलाल नेहरू की दूर तक सोच सकने की क्षमता का ही नतीजा था कि उन्होंने बड़ी संख्या में विश्व स्तर के शिक्षा केंद्रों की स्थापना की। सामाजिक जीवन में सक्रिय लोगों को भी स्कूल कालेज खोलने की प्रेरणा दी। नतीजा यह हुआ कि बड़े पैमाने पर शिक्षा का प्रचार-प्रसार हुआ। भारत में शिक्षा के क्षेत्र में आजादी के बाद की गई पहल का नतीजा था कि देश के कई हिस्सों, खासकर दक्षिण भारत में बड़ी संख्या में प्राइवेट शिक्षा संस्थाओं की स्थापना हुई।

जब 1991 में डा. मनमोहन सिंह को वित्तमंत्री बनाया गया तो उन्होंने आर्थिक विकास को उदारीकरण और वैश्वीकरण के रास्ते पर डाल दिया। उन्होंने कहा कि नौजवानों में कौशल के विकास और अच्छी शिक्षा के बिना कोई भी लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सकता था। शिक्षा के महत्व को डा. मनमोहन सिंह से बेहतर कौन समझ सकता था। अविभाजित पंजाब के एक छोटे से गांव में पैदा हुए मनमोहन सिंह ने शिक्षा के बल पर ही समाज में इज्जत पाई थी और वर्तमान पद पर भी वे उच्च शिक्षा के बल पर पहुंचे है।

1991 में की गई उनकी शुरुआत का ही नतीजा है कि देश में शिक्षा संस्थाओं की बाढ़ आ गई है। कुछ धूर्त किस्म के लोगों ने भी उच्च शिक्षा के केंद्र खोल कर कमाई शुरू कर दी है लेकिन समय के साथ-साथ सब ठीक हो जाएगा। बराक ओबामा भी शिक्षा के बल पर ही अपनी वर्तमान पोजीशन तक पहुंचे है। उन्हें भी मनमोहन सिंह की तरह ही शिक्षा का महत्व मालूम है। शायद इसीलिए शिक्षा व्यवस्था में सुधार के रास्ते वे अमरीकी समाज को तरक्की के रास्ते पर एक बार फिर से डालने की कोशिश कर रहे है।

Tuesday, July 28, 2009

अमेरिका के लिए भारत बना खास

अमेरिकी विदेशमंत्री हिलेरी क्लिटन जब तीन दिन की यात्रा पर चीन गयी तो भारत में चिंता की जा रही थी कि नये अमेरिकी हुकमरान की प्राथमिकताएं बदल रही है। चीन को भारत से ज्य़ादा महत्व दिया जा रहा है। लेकिन पांच दिन की भारत यात्रा पर आकर हिलेरी क्लिंटन ने ये बात साफ कर दी है कि भारत अभी भी अमेरिका की नज़र में महत्वपूर्ण देश है।


दुरस्त माहौल की शुरुआत

क्लिटन की यात्रा से साफ हो गया है कि अमेरिका भारत से हर तरह की दोस्ती का रिश्ता रखना चाहता है। भारत और अमेरिका की संभावना के बीच, आज की तारीख़ में सबसे अहम मुद्दा परमाणु समझौता है। हिलेरी क्लिंटन की यात्रा से एक बात बिल्कुल साफ हो गयी है कि परमाणु समझौता और उससे जुड़े मसले में अब किसी तरह की बहस की दरकार नहीं रखते। दोनों ही देशों के बीच पूरी तरह से समझदारी का माहौल है। हिलेरी क्लिंटन की ये यात्रा एक तरह से माहौल दुरुस्त करने की यात्रा थी। यहां आकर उन्होंने देश के बड़े उद्योगपतियों से मुलाकात की उसी होटल में विश्राम किया जिस पर 26/11 के दिन आतंकवादी हमला हुआ था।


उनकी यात्रा शुरू होने के पहले ही पाकिस्तान की सरकार ने स्वीकार कर लिया कि मुंबई पर हुए आतंकवादी हमले में उसके नागरिकों का हाथ था। जाहिर है पाकिस्तान की हुकूमत ने ये कदम अमेरिकी दबाव में ही उठाया है। विदेशमंत्री हिलेरी ने इस बात को भी जोर-शोर से मीडिया को बतलाया कि अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा के कार्यकाल के शुरू होने के बाद भारत के प्रधानमंत्री डा.मनमोहन सिंह पहले शासनाध्यक्ष होगें जो अमेरिका की यात्रा करेगें अपने दिल्ली प्रवास के दौरान, हिलेरी क्लिंटन ने राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण हर इंसान से मुलाकात की।


परमाणु मुद्दे पर बात साफ

विदेशमंत्री एसएम कृष्णा और वे अब हर साल मिला करेगे। अपने कार्यकाल में वो कम से कम दो बार और भारत यात्रा पर आयेगी। परमाणु मुद्दे पर सारी बात साफ कर ली गयी है, खासकर जो दुविधा की स्थिति जी-8 सम्मेलन के बाद पैदा हो गयी थी। इस तरह से अमेरिकी विदेश मंत्री की यात्रा को दोनों देशों की कूटनीतिक संभावनाओं में एक खास मुकाम माना जा रहा है। विदेश मंत्री हिलेरी की इस यात्रा से एक और संदेश बहुत साफ नजर आ रहा है।


अपने देश में कुछ रिटायर्ड सरकारी कर्मचारी है, जो अपने को कूटनीति का सर्वज्ञ मानते है, इनमें से कुछ विदेश मंत्रालय की नौकरी में थे, तो कुछ रक्षा मंत्रालय की नौकरी में। बड़ी संख्या में टेलीविजन चैनलों के खबर के कारोबार में घुस जाने की वजह से इन लोगों का ज्ञान प्रवाहित होता रहता है। सच्ची बात ये है कि ये पुराने सरकारी कर्मचारी ये तो जान सकते है कि किसी कूटनीति समझौता का मतलब क्या है, लेकिन इन्हें ये नहीं पता होता कि राजनीतिक स्तर पर क्या सोचा जा रहा है। इसलिए ये लोग जब संभावनाओं की अभिव्यक्ति करते है, तो सब गड़बड़ हो जाता है।


इन बेचारों की ट्रेनिंग ऐसी नहीं होती कि ये लीक से हटकर सोच सके। इसलिए ये हर परिस्थिति की उल्टी सीधी अभिव्यक्ति करते है। आजकल भी इन लोगों का प्रवचन टीवी चैनलों पर चल रहा है। अमेरिका और भारत की संभावना की बारीकियों को समझने के लिए इन विद्वानों से बचकर रहना होगा। मौजूदा भारत-अमेरिकी संबंधों की सच्चाई यह है कि अमेरिका अब भारत को पाकिस्तान के बराबर का देश नहीं मानता और पाकिस्तान की परवाह किये बिना भारत के साथ संबंध रखना चाहता है।

आपसी हित के लिए संबंध

पाकिस्तान अमेरिका पर निर्भर एक देश है अगर अमेरिका नाराज़ हो जाएं तो पाकिस्तान मुसीबत में पड़ सकता है क्योंकि उसका खर्चा-पानी अमेरिका की मदद से ही चल रहा है। लेकिन भारत के साथ अमेरिका के संबंध आपसी हित की बुनियाद पर आधारित है। शायद इसलिए अमेरिकी कूटनीति की कोशिश है कि भारत के साथ सामरिक रिश्ते बनाएं। इस वक्त देश में ऐसी सरकार है जो अमेरिका से अच्छा रिश्ता बनाने के लिए कुछ भी कर सकती है इसके पहले की भाजपा की अगुवाई वाली सरकार तो अमेरिका की बहुत बड़ी समर्थक थी।

वामपंथी पार्टी आजकल अपने अंदरूनी लड़ाई के चलते ही परेशान है इसलिए भारत अमेरिका सामरिक रिश्तों ने बहुत आगे तक बढ़ जाने की आशंका है। ये देश की आत्मनिर्भरता और सम्मान के लिए ठीक नहीं होगा। अगर ये हो गया तो ख़तरा है कि अमेरिकी फौज के जनरल भारत के राष्ट्रपति से भी उसी तरह बात करने लगेंगे जिस तरह वे पाकिस्तान राष्ट्रपति मुर्शरफ और जरदारी के साथ करते है। पूरी कोशिश की जानी चाहिए कि भारत और अमेरिका के बीच कोई सामरिक समझौता न हो जाए।

Monday, July 27, 2009

ईरान की नई सरकार और ओबामा की मुश्किलें

ईरान के चुनावों के बाद पश्चिमी देशों की प्रेरणा से तेहरान की सड़कों पर शुरू हुआ विरोध प्रदर्शन अब थम गया है लेकिन उसके प्रेरक तत्व अभी भी सक्रिय हैं।
जिन अमरीकी नीति निर्धारकों की शह पर जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने इराक पर हमला करने की बेवकूफी की थी, वे फिर सक्रिय हो गए हैं। इस बिरादरी के लोग अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा पर वैसा ही दबाव बना रहे हैं जैसा इन लोगों ने बुश जूनियर के ऊपर 2003 में बनाया था। इस गैंग के एक नेता हैं पॉल वुल्फोविज़।
इराक के पूर्व राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन के खिलाफ अमरीका में जो जनमत बना था और चारों तरफ से सद्दाम को हटाने की बात शुरू हो गई थी उस जनमत को तैयार करने वाले गिरोह के प्रमुख नेताओं में पॉल वुल्फोविज का नाम लिया जाता है। यह महानुभाव फिर सक्रिय हो गए हैं। यह लोग ईरान में सत्ता परिवर्तन की बात तो नहीं कर रहे हैं लेकिन ओबामा को कुछ कर गुजरने की प्रेरणा अवश्य दे रहे है।
वॉशिंगटन पोस्ट के अपने ताजा लेख में पॉल वुल्फोविज ने ओबामा को समझाने की कोशिश की है कि ईरान की सड़कों पर हुए प्रदर्शन में अमरीका को निष्क्रिय नहीं रहना चाहिए। उनका कहना है कि ओबामा को अपनी सारी ताकत ईरानी विपक्षियों के समर्थन में लगा देनी चाहिए। यह लोग ईरान के वर्तमान शासकों के बारे में वही राग अलाप रहे हैं, जो कभी सद्दाम हुसैन के लिए अलापते थे। पॉल वुल्फोविज टाइप लोग अमरीका में भी दंभी, अतिवादी और बदतमीज माने जाते हैं लेकिन अगर जॉर्ज डब्लू बुश जैसा अदूरदर्शी शासक हो तो यह लोग कहर बरपा करने की ताकत रखते हैं।
ओबामा के सामने बहुत बड़ी चुनौतियां हैं। अपने आठ साल के राज में जॉर्ज डब्लू बुश ने लगभग मसखरे के रूप में काम किया। अमरीकी अर्थव्यवस्था को चौपट किया और पूरी दुनिया में अमरीकी कूटनीति को मजाक का विषय बना दिया। जिन लोगों ने बुश को अफगानिस्तान और इराक में फंसाया, वही अमरीकी विचारक फिर लाठी भांज रहे हैं। यह लोग मूल रूप से किसी न किसी लॉबी गु्रप के एजेंट होते हैं। पॉल वुल्फोविज के बारे में बताया गया है कि यह हथियार बनाने वाली कुछ कंपनियों के लिए सक्रिय लोगों के साथी हैं।
इनके उकसाने में आकर अगर ओबामा ने कोई ऐसा काम किया जिसमें ईरान से झगड़ा हो जाय तो अमरीका के लिए तो मुश्किल होगी ही, ओबामा भी भारी मुसीबत में पड़ जाएंगे। एक राष्ट्र के रूप में अमरीका का वही हाल होगा जो वियतनाम और इराक में हुआ था। ओबामा को बहुत सोच समझकर काम करना होगा क्योंकि ईरान की सरकार बहुत ही मजबूत सरकार है और अहमदीनेजाद को चुनौती देने वाले मीर हुसैन मौसवी बिलकुल अलग थलग पड़ गए हैं। मौसवी के अलावा ईरान की राजनीति का हर छोटा बड़ा आदमी सरकार के साथ है।
विलायत-ए-फकीह का इकबाल बुलंद है और ईरान के खिलाफ किसी भी पश्चिमी साजिश को नाकाम करने के लिए ईरान की जनता एकजुट खड़ी है। ईरान के पुननिर्वाचित राष्टï्रपति महमूद अहमदीनेजाद ने ऐलानियां कहा है कि ईरान की नई सरकार पश्चिमी देशों की तरफ ज्यादा निर्णायक और सख्त रुख अख्तियार करेगी। इस बार अगर पश्चिमी देश किसी मुगालते का शिकार होकर कोई गलती करेंगे तो ईरानी राष्ट्र का जवाब बहुत माकूल होगा।
महमूद अहमदीनेजाद के फिर से राष्ट्रपति चुने जाने के बाद अमरीका और ब्रिटेन ने लोकतंत्र के खून होने और चुनावों में हेराफेरी के नाम पर ईरान में एक आंदोलन खड़ा करने की तैयारी कर दी थी। मीर हुसैन मौसवी के नाम पर उनके कुछ चाहने वाले सड़कों पर आ गए। यू ट्यूब और ट्विटर की मदद से पूरी दुनिया को ईरान के अंदर बढ़ रहे तथाकथित असंतोष को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया। लेकिन कोई आंदोलन बन नहीं सका। अब सब कुछ खत्म हो चुका है और ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ब्राउन बहुत ज्यादा मुसीबत में हैं। ईरानी सत्ताधारी वर्ग ने उन्हें ही निशाने पर ले रखा है।
ओबामा पर हमले उतने तेज नहीं हैं जितना ब्राउन पर हैं। ईरान के सर्वोच्च नेता अयातोल्ला अली खमनेई ने इन दोनों देशों को धमकाते हुए कहा है कि ईरान पिछले महीने की पश्चिमी देशों की करतूतों को कभी नहीं भूलेगा। उन्होंने कहा कि अमरीका और कुछ यूरोपीय देश ईरान के बारे में बेवकूफी की बातें कर रहे हैं। उनके आचरण से ऐसा लगता है कि उनकी मुसीबतें इराक और अफगानिस्तान में खत्म हो गई हैं, बस ईरान को दुरुस्त करना बाकी है।
ईरान के हमले ब्रिटेन पर ज्यादा तेज हैं। अयातोल्ला अली खमनेई ने ब्रिटेन को सबसे ज्यादा खतरनाक और धोखेबाज विदेशी ताकत बताया है। ब्रिटेन के दूतावास में तैनात दो खुफिया अफसरों को देश से निकाल दिया गया है और वहां काम करने वाले स्थानीय ईरानी नागरिकों से पूछताछ की जा रही है। ब्रिटेन को भी ईरान की ताकत का अंदाज लगने लगा है। मौसवी के समर्थकों को हवा देने के बाद ब्रिटेन इस चक्कर में है कि किसी तरह जान बचाई जाए क्योंकि अगर ईरान नाराज हो जाएगा तो ब्रिटेन की अर्थ व्यवस्था पर भी उलटा असर पड़ेगा।
शायद इसीलिए ब्रिटेन के विदेश मंत्रालय से एक बयान जारी किया गया है जिसमें कहा गया कि ब्रिटिश प्रधानमंत्री ईरान में मानवाधिकारों के उल्लंघन की वजह से नाराज नहीं है। उन्हें तो ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर एतराज है। अब तक के संकेतों से ऐसा लगता है कि ईरान ब्रिटेन को गंभीरता से नहीं ले रहा है और उसे अलग थलग करने के चक्कर में ही है।
अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भी महमूद अहमदीनेजाद के खिलाफ शुरू हुए प्रदर्शनों पर जो रुख अपनाया, उसे ईरान में पसंद नहीं किया गया। ओबामा और उनके बंदों को उम्मीद थी कि ईरान में जो राजनेता सत्ता से बाहर हैं, वे महमूद अहमदीनेजाद के खिलाफ शुरू हुए मौसवी के आंदोलन में शामिल हो जांएगे लेकिन ऐसा न हो सका। अमरीकी प्रशासन को ईरान के पूर्व राष्ट्रपति अकबर हाशमी रफसंजानी से बड़ी उम्मीदें थीं। अमरीका को अंदाज था कि रफसंजानी सर्वोच्च नेता के खिलाफ किसी साजिश में शामिल हो जाएंगे लेकिन 28 जून को उन्होंने एक बयान दिया जिसके बाद अमरीकी रणनीतिकारों के होश उड़ गए।
उन्होंने कहा कि चुनावों के बाद जो कुछ हुआ वह एक साजिश का नतीजा था। इस साजिश में वे लोग शामिल थे जो ईरान की जनता और सरकार के बीच फूट डालना चाहते है। इस तरह की साजिशें हमेशा ही नाकाम रही हैं और इस बार भी ईरानी अवाम ने किसी साजिश का शिकार न होकर बहादुरी का परिचय दिया है। रफसंजानी ने अयातोल्ला की तारीफ की और कहा कि उनके उम्दा नेतृत्व की वजह से चुनाव प्रक्रिया में लोगों का विश्वास बढ़ा है।
रफसंजानी के अलावा विपक्ष के बाकी नेता भी सर्वोच्च नेता की इच्छा के अनुरूप महमूद अहमदीनेजाद के समर्थन में लामबंद है। विपक्षी नेता मोहसिन रेज़ाई, मजलिस के पूर्व अध्यक्ष नातेक नौरी जैसे लोग भी अब पश्चिमी साजिशों से वाकिफ है और नई ईरानी सरकार के साथ हैं। अमरीका और पश्चिमी देशों को उम्मीद थी मजलिस के अध्यक्ष, अली लारीजानी को अहमदीनेजाद के खिलाफ खड़ा किया जा सकता है लेकिन उन उम्मीदों पर भी पानी फिर चुका है। लारीजानी अल्जीयर्स गए थे जहां इस्लामी देशों के संगठन का सम्मेलन था।
अपने भाषण में लारीजानी ने ओबामा को चेतावनी दी कि उन्हें पहले के अमरीकी राष्ट्रपतियों की तरह पश्चिमी एशिया के मामलों में बेवजह दखल नहीं देना चाहिए। उन्होंने कहा कि ओबामा को इस नीति को बदलना चाहिए जिससे इलाके में तो शांति स्थापित होगी ही, अमरीका भी चैन से रह सकेगा। नई राजनीतिक सच्चाई ऐसी है कि ओबामा के सामने कठिन फैसला लेने की चुनौती है। अपने पूर्ववर्ती बुश की तरह वे कोई बेवकूफी नहीं करना चाहते, लेकिन पॉल वुल्फोविज टाइप अमरीकी लॉबीबाजों का दबाव रोज ही बढ़ता जा रहा है।
हथियार निर्माताओं की तरफ से काम करने वाले ऐसे लोगों की अमरीका में एक बड़ी जमात है। शायद इन्हीं के चक्कर में ओबामा प्रशासन ने ईरानी शासन के खिलाफ शुरू हुए विरोध को हवा दी थी लेकिन लगता है बात बिगड़ चुकी है। काहिरा में मुसलमानों से अस्सलाम-अलैकुम कहकर मुखातिब होने वाले बराक ओबामा ने ईरान में बहुत कुछ खोया है। उस पर तुर्रा यह कि अमरीका की दखलंदाजी के कारण अहमदीनेजाद और अयातोल्ला के खिलाफ जो थोड़ा बहुत भी जनमत था भी, वह सब एकजुट हो गया है। ओबामा को अब ज्यादा ताकतवर ईरान से बातचीत करनी पड़ेगी ईरान के रिश्ते पड़ोसियों से भी बहुत अच्छे हैं।
तुर्की, अज़रबैजान, तुर्कमेनिस्तान, पाकिस्तान अफगानिस्तान सब ईरान के साथ हैं। सीरिया, हिजबोल्ला और हमास भी ईरान के साथ पहले जैसे ही संबंध रख रहे हैं। चीन खुले आम ईरान की नई सरकार के साथ है। भारत भी ईरान से अच्छे रिश्तों का हमेशा पक्षधर रहा है और आगे तो दोनों देशों के बीच आर्थिक संबंध और भी गहराने वाले है। सीरिया ने सऊदी अरब और अमरीका से कुछ बातचीत का सिलसिला शुरू किया था लेकिन कई अवसरों पर उसने साफ कर दिया है कि ईरान से रिश्तों की कीमत पर कोई नई दोस्ती नहीं की जाएगी। ऐसी हालात में अमरीकी कूटनीति का एक बार फिर इम्तहान होगा।
इस बार की मुश्किल यह है कि अमरीका के पास इस बार फेल होने का विकल्प नहीं है। ओबामा के लिए फैसला करना आसान नहीं है। अमरीका जनमत को गुमराह कर रहे दंभी और बदतमीज पत्रकारों और नेताओं का एक वर्ग है जो ओबामा को वही इराक वाली गलती करने के लिए ललकार रहा है। दूसरी तरफ उनकी अपनी समझदारी और पश्चिम एशिया की जमीनी सच्चाई की मांग है कि इराक और वियतनाम वाली गलती न की जाय। बहरहाल एक बात सच है कि अगर इस बार अमरीका ने पश्चिमी एशिया में कोई गलती की तो उसका भी वही हश्र होगा जो ब्रिटेन का हो चुका है।

Sunday, July 26, 2009

भारत का मित्र नहीं अमेरिका

इस सूचना से उत्साहित होने से बचा जाना चाहिए कि लंदन में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के बीच आपसी विश्वास बढ़ाने वाली बातचीत हुई। नि:संदेह भारत-अमेरिका के संबंध दिन-प्रतिदिन और प्रगाढ़ होने के प्रबल आसार हैं, क्योंकि दोनों स्वाभाविक मित्र हैं तथा दोनों को एक-दूसरे के सहयोग की आवश्यकता है, लेकिन पाकिस्तान में पोषित हो रहे आतंकवाद के संदर्भ में अमेरिकी प्रशासन ने जैसा रवैया अपना रखा है वह भारतीय हितों के अनुकूल नहीं है।

भले ही मनमोहन सिंह और बराक ओबामा की मुलाकात को इस रूप में रेखांकित किया जा रहा हो कि आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई के मामले में भारत एवं अमेरिका एकजुट हैं, लेकिन इस शाब्दिक एकजुटता से पाकिस्तान की सेहत पर कोई असर पडऩे वाला नहीं है। इसका ताजा प्रमाण पाकिस्तान का यह बयान है कि वह रुकी पड़ी शांति वार्ता को आगे बढ़ाने के लिए कोई शर्त स्वीकार नहीं करेगा।

यह बयान मनमोहन सिंह के इस कथन के जवाब में आया है कि संवाद शुरू करने के लिए पहले पाकिस्तान मुंबई हमले के षड्यंत्रकारियों को दंडित करने का काम करे। स्पष्ट है कि भारत यह मानकर संतुष्ट नहीं हो सकता कि अब गेंद पाकिस्तान के पाले में है, क्योंकि पाकिस्तानी शासक एक बार फिर दुष्प्रचार का सहारा लेकर यह साबित करने की कोशिश में हैं कि भारत उनसे बातचीत करने के मामले में उन पर शर्ते थोप रहा है।

इससे भी अधिक चिंताजनक बराक ओबामा का यह सुझाव है कि जब दोनों देशों की सबसे बड़ी शत्रु गरीबी है तब भारत-पाकिस्तान के बीच प्रभावशाली संवाद आवश्यक है। क्या ऐसे किसी सुझाव का तब कोई मतलब हो सकता है जब पाकिस्तान उन तत्वों के खिलाफ कार्रवाई करने के मामले में नित-नए बहाने बना रहा हो जो भारत के लिए सबसे बड़ा खतरा बन गए हैं? यह सही समय है जब भारत इस अमेरिकी रट के खिलाफ दृढ़ता का परिचय दे कि उसे पाकिस्तान से बातचीत करनी चाहिए, क्योंकि इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि बराक ओबामा के बयान के बाद पाकिस्तान इस नतीजे पर पहुंच सकता है कि अमेरिकी प्रशासन तो उसका पक्ष ले रहा है।

भारत इसकी भी अनदेखी नहीं कर सकता कि ओबामा प्रशासन पाकिस्तान में बेकाबू हो रहे आतंकवाद के संदर्भ में लगभग उसी नीति पर चल रहा है जिस पर बुश प्रशासन चल रहा था। मौजूदा अमेरिकी प्रशासन पाकिस्तान और अफगानिस्तान में कथित उदार आतंकियों की भी तलाश कर रहा है। इसके अतिरिक्त वह यह मानकर भी चल रहा है कि पाकिस्तान को आर्थिक सहायता देकर वहां पनप रहे आतंकवाद को आसानी से समाप्त किया जा सकता है।

नि:संदेह पाकिस्तान को आर्थिक मदद की जरूरत है, लेकिन तभी जब वह उसका उपयोग आतंकी संगठनों से लडऩे में करे। अमेरिका का कुछ भी मानना हो, लेकिन पाकिस्तान के मौजूदा सत्ता तंत्र की एक मात्र कोशिश आतंकी संगठनों की गतिविधियों पर पर्दा डालने की है। इसके लिए वह विश्व समुदाय की आंखों में धूल झोंक रहा है, लेकिन अमेरिका असलियत समझने से इनकार कर रहा है।

Friday, June 26, 2009

पाकिस्तान तबाही की ओर

पाकिस्तान में हालात सुधरने के बजाय बिगड़ रहे हैं, इसका एक और प्रमाण है लाहौर में पुलिस प्रशिक्षण केंद्र पर आतंकियों का हमला। इस हमले के जरिये पाकिस्तान में फल-फूल रहे आतंकियों ने यह स्पष्ट कर दिया कि वे कहीं अधिक दुस्साहसी हो गए हैं और कभी भी कहीं पर भी हमला करने में समर्थ हैं।

इस स्थिति के लिए यदि कोई जिम्मेदार है तो पाकिस्तान का सत्ता तंत्र। जब कभी पाकिस्तान पर उंगलियां उठती हैं तो सरकार के स्तर पर इस तरह के बहादुरी भरे बयान देने की होड़ मच जाती है कि हम एक जिम्मेदार देश हैं, हमारे यहां कानून का शासन है और किसी को हमारे आंतरिक मामले में हस्तक्षेप करने की इजाजत नहीं दी जा सकती, लेकिन जब आतंकियों के खिलाफ कार्रवाई का सवाल उठता है तो यह प्रतीति कराई जाती है कि उन पर किसी का जोर नहीं-यहां तक कि उस तथाकथित शक्तिशाली सेना का भी नहीं जो खुद को आदर्श सैन्य बल के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश करती रहती है।

स्पष्ट है कि या तो पाकिस्तान में आतंकवाद से लडऩे का इरादा नहीं या फिर वह आतंकी संगठनों को नियंत्रित करने के नाम पर दुनिया की आंखों में धूल झोंक रहा है। यदि ऐसा नहीं होता तो सरकारी स्तर पर आतंकी संगठनों का बचाव नहीं किया जाता और न ही उन्हें नाम बदलकर सक्रिय होने की सुविधा प्रदान की जाती। क्या यह एक तथ्य नहीं कि पिछले कुछ वर्षो में पाकिस्तान ने हर उस आतंकी संगठन पर लगाम लगाने के बजाय उसे नए नाम से सक्रिय होने की छूट दी जिस पर विश्व समुदाय और विशेष रूप से अमेरिका ने नजर टेढ़ी की?

वैसे तो इस तथ्य से अमेरिका भी परिचित है, लेकिन ऐसा लगता है कि उसे पाकिस्तान के बहाने सुनने में विशेष सुख मिलता है। अभी तक बुश प्रशासन पाकिस्तान के बहाने सुन रहा था। अब यही काम ओबामा प्रशासन कर रहा है और वह भी तब जब एक के बाद एक अमेरिकी अधिकारी इस निष्कर्ष पर पहुंच रहे हैं कि पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई अभी भी अलकायदा, तालिबान आदि आतंकी संगठनों के साथ है। यदि पाकिस्तान तबाही के रास्ते पर जा रहा है तो इसमें जितना हाथ उसके अपने नेताओं का है उतना ही अमेरिकी नेताओं का भी है।

जिस तरह मुशर्रफ अमेरिका को धोखा देने में समर्थ थे उसी तरह आसिफ अली जरदारी भी हैं। जरदारी पर भरोसा करने का मतलब है, खुद को धोखा देना। वह अपनी कुर्सी मजबूत करने के लिए उन आतंकियों को भी गले लगा सकते हैं जिन पर बेनजीर भुंट्टो की हत्या का संदेह है। यह संभव है कि अमेरिका को पाकिस्तान के मौजूदा सत्ता तंत्र की असलियत समझने में देर लगे, लेकिन आखिर भारत को अब क्या समझना शेष है? जब इसके कहीं कोई संकेत भी नहीं हैं कि पाकिस्तान अपने यहां के आतंकी संगठनों के खिलाफ कोई कदम उठाएगा तब फिर उसे ऐसा करने की नसीहत देते रहने और हाथ पर हाथ रखकर बैठने का क्या मतलब?

समझदारी का तकाजा यह है कि भारत एक ऐसे पाकिस्तान का सामना करने के लिए तैयार रहे जो विफल होने की कगार पर है। भारत को और अधिक सतर्कता इसलिए भी दिखानी चाहिए, क्योंकि उसकी सीमा के निकट आतंकियों की गतिविधियां कुछ ज्यादा ही बढ़ती जा रही हैं।